भारत को आजादी मिलने के बाद से इतिहास में पहली बार किसी महिला अपराधी (First Indian Woman to be Executed) को फांसी (Death Penalty) होने जा रही है. मथुरा (Mathura) स्थित उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के इकलौते महिला फांसीघर में अमरोहा (Amroha) की शबनम को फांसी पर लटकाया जाना है. फांसी की तारिख तय नहीं है लेकिन माना जा रहा है कि मेरठ के पवन जल्लाद (Pawan Jallad) इसे अंजाम देने वाले हैं. पवन दो बार फांसीघर का दौरा भी कर चुके हैं. शबनम ने अप्रैल 2008 में प्रेमी के साथ मिलकर अपने सात परिजनों की कुल्हाड़ी से काटकर बेरहमी से हत्या कर दी थी. Show इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शबनम की फांसी की सजा बरकरार रखी थी. राष्ट्रपति ने भी उसकी दया याचिका खारिज कर दी है. लिहाजा आजादी के बाद शबनम पहली महिला कैदी होगी जिसे फांसी पर लटकाया जाएगा. शबनम ने प्रेमी सलीम के साथ मिलकर माता-पिता और 10 माह के मासूम भतीजे समेत परिवार के सात लोगों का कुल्हाड़ी से गला काट कर मौत की नींद सुला दिया था. मथुरा जेल में 150 साल पहले महिला फांसीघर बनाया गया था. लेकिन आजादी के बाद से अब तक किसी भी महिला को फांसी की सजा नहीं दी गई. वरिष्ठ जेल अधीक्षक शैलेंद्र कुमार मैत्रेय ने बताया कि अभी फांसी की तारीख तय नहीं है, लेकिन हमने तयारी शुरू कर दी है. डेथ वारंट जारी होते ही शबनम को फांसी दे दी जाएगी. 10 महीने के भतीजे का भी काट दिया था गलाअमरोहा की शबनम के परिवार में टीचर पिता शौकत अली, मां हाशमी, भाई अनीस, राशिद, भाभी अंजुम और दस महीने का भतीजा अर्श शामिल थे. शबनम और गांव के ही आठवीं पास युवक सलीम के बीच प्रेम संबंध था जो उसके पिता को पसंद नहीं था. दोनों शादी करना चाहते थे लेकिन शबनम सैफी और सलीम पठान बिरादरी से था. एक तो कम पढ़ा लिखा युवक और फिर दूसरी बिरादरी से होने के चलते शबनम के परिवार ने शादी से साफ़ इनकार कर दिया था. इसके बाद से सलीम से मिलने के लिए शबनम पूरे परिवार को नींद की गोलियां खिलाने लगी. जब परिवार सो जाता तो घर की छत के रास्ते से रोज सलीम मिलने आता था. हालांकि दोंनों ने फिर एक ऐसा फैसला लिया जो दिल दहलाने वाला था. 14 अप्रैल, 2008 की रात को शबनम ने प्रेमी सलीम को घर बुलाया और परिवार को नींद की गोलियां खिलाकर सुला दिया. रात में शबनम व सलीम ने मिलकर नशे की हालत में सो रहे पिता शौकत, मां हाशमी, भाई अनीस, राशिद, भाभी अंजुम, फुफेरी बहन राबिया और दस माह के भतीजे अर्श का गला काट कर मौत की नींद सुला दिया. ये भी पढ़ें: Sidhi Bus Accident: जब नहर में चल रहा था रेसक्यू ऑपरेशन तब दावत उड़ा रहे थे मध्यप्रदेश के परिवहन मंत्री, फोटो Viral लखनऊ: भारतीय संविधान के अनुसार, जघन्य अपराध की सजा भी बड़ी होती है. देश में सबसे बड़ी सजा फांसी है. किसी भी इंसान को मौत की सजा सुनाना आसान नहीं है. लेकिन उनके अपराध इतने बड़े हैं कि कोई और सजा उनके लिए कम पड़ जाती है. ऐसा ही कुछ हो रहा है अमरोहा के शबनम केस में. राष्ट्रपति द्वारा उसकी दया याचिका खारिज किए जाने के बाद शबनम की फांसी का मुद्दा फिर चर्चा में आ गया है. अगर ऐसा होता है, तो शबनम आजाद भारत की पहली महिला होगी, जो फांसी के फंदे पर लटकेगी. ये भी पढ़ें: फांसी से पहले जल्लाद मुजरिम के कान के पास आकर क्या कहता है? शबनम का डेथ वॉरंट जारी होने में लग सकता है समय ये भी पढ़ें: पवन जल्लाद से भी खतरनाक था नाटा मल्लिक, फांसी की रस्सियों के ताबीज़ बना कर बेचता था इन लोगों को नहीं दी जा सकती फांसी 1. उस इंसान को फांसी के फंदे पर नहीं लटकाया जा सकता, जो किसी लाइलाज बीमारी से पीड़ित हो, या जिसका इलाज ताउम्र चलना है. साथ ही, अगर बीमारी दुर्लभ है तो, अपराधी को फांसी नहीं हो सकती. 2. दूसरा, संविधान कभी भी गर्भवती महिला को फांसी के फंदे पर लटकाने की इजाजत नहीं देगा. किसी भी अपराधी महिला की सजा उसके बच्चे को नहीं दी जा सकती. ये भी पढ़ें: शबनम के बेटे ताज ने पीएम और राष्ट्रपति से कहा- मेरी मां को मत दीजिए फांसी, मैं अकेला रह जाऊंगा 3. तीसरा, मानसिक रूप से बीमार लोगों को भी फांसी नहीं दी जा सकती. अगर उनकी मेडिकल रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि हो गई है कि अपराधी की दिमागी हालत ठीक नहीं है, तो 4. इसके अलावा, नाबालिग अपराधी को भी फांसी की सजा नहीं होगी. उसे जेल की जगह सुधार गृह में रखा जाता है और ज्यादा से ज्याद आजीवन कारावास की सजा हो सकती है. उसके बालिग होने के बाद भी उस अपराध की सजा नहीं दी जा सकती, जो उसने नाबालिग होने के दौरान किया था. संविधान के नियमों के अनुसार, फांसी की सजा रोकने का एक और तरीका यह है कि देश के राष्ट्रपति के पास दया याचिका भेजी जाए. अगर मामले पर विचार कर राष्ट्रपति याचिका स्वीकार कर लेते है, तो अपराधी को फांसी नहीं होगी. हर बार जब कोई जघन्य अपराध होता है हर तरफ से मारो मारो की चीत्कार सुनाई देने लगती है. एक भीड़ जो मौत देकर सारी समस्याएं हल कर देना चाहती है. कठुआ के बाद यही सुना, उससे पहले निर्भया में भी यही सुना था. जब भी कोई आपराध होता है मांग उठती है कि 'चौराहे पर लटकाकर मार दो'. 'फांसी कम से कम सजा है'. कुछ लोग तो कहते हैं कि सुनवाई, कोर्ट, अदालत की भी जरूरत नहीं है लटका दो. लेकिन कभी सोचा है कि कानूनविद् आपकी तरह क्यों नहीं सोचते? महिलाओं के मामले में दुनिया भर में संघर्ष करने वाले नारी समानाधिकार कार्यकर्ता क्यों नहीं ऐसी मांग करते? जाहिर सी बात है आप में से ज्यादातर ये बात न तो जानते हैं और न जानना चाहते हैं. दर असल खून का बदला खून में सभी को हर समस्या का हल दिखाई देता है. लेकिन समस्या का हल इतना आसान नहीं है. फांसी चढ़ाने से समस्या बढ़ सकती है. 1. क्या कभी आपने सोचा कि सामाजिक जागृति के बगैर आप जितना अधिक सज़ा सख्त करते जाएंगे पीड़ित महिला की जीवन की दिक्कतें बढ़ती जाएंगी. जैसे ही किसी महिला से बलात्कार होगा. पूरा समाज और परिवेश उस महिला पर दबाव डालना शुरू कर देगा. महिला के साथ अन्याय से ज्यादा लोगों के मन में आरोपी के प्रति दया उमड़ पड़ेगी. मामला सिर्फ शहर का नहीं है. हमारे गांवों में मजबूती से जड़ जमाए बैठा पुरुष सत्तात्मक समाज ऐसा वातावरण बनाने लगता है कि रिपोर्ट करके लड़की ने पाप कर दिया है. वो किसी की जान लेना चाहती है. खुद पीड़ित भी हमेशा इस मानसिक दबाव से गुजरेगी कि उसकी शिकायत से किसी की जान जानेवाली है. क्या कोई और तरीका हो सकता है वगैरह वगैरह. 2. गांव की व्यवस्था में फांसी की सजा की जगह बीच के रास्ते निकाले जाने लगेंगे. कभी आरोपी से पीड़ित का विवाह करा देने का फार्मूला आएगा. कभी पांव झुआकर छोड़ देने की बात होगी, तो कभी आर्थिक मुआवजा देकर मामले को खत्म करने के सुझाव आएंगे. अगर पीड़िता इन दबावों को नहीं मानती तो पूरा समाज उसके ही खिलाफ खड़ा हो जाएगा. सबसे बड़ा हमला हमारे समाज का महिला के चरित्र पर होता है. हमारा दकियानूसी समाज प्राय: महिलाओं को ही दोषी ठहराने लगता है. 'ताली दोनों हाथ से नहीं बजती', 'सुनसान में जाने की क्या जरूरत थी', 'बात क्यों करती थी उससे' वगैरह- वगैरह. और जब इसमें प्राणदंड जैसी चीज़ें शामिल हो जाएंगी तो समाज के दबाव को झेलना आसान नहीं होगा. 3. भारत की सभी नारियां अधिकारों को लेकर उतनी सबला नहीं हैं. वो आर्थिक रूप से परिवार के अन्य सदस्यों पर निर्भर रहती हैं. कोई भी कानून सोचने से पहले आप शहरी महिलाओं की स्थिति को देकर नहीं चल सकते. गांव में परिवार पर पूरी तरह निर्भर रहने वाली महिला का परिवार के दूसरे सदस्य उतनी मजबूती से साथ दें ये बेहद दुर्लभ उदाहरण होता है. पुरुष सत्तात्मक समाज महिला को इन मामलों में सिर उठाने ही नहीं देता. जाहिर बात है परिवार के बगैर कोई भी भारतीय परंपरागत ग्रामीण स्त्री अपने अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकती. वो अंततोगत्वा किसी पर निर्भर ही होती है. 4. कानून के जानकार कहते हैं कि इससे प्राण का खतरा भी महिला के लिए बढ़ जाता है. कई अपराधी सिर्फ इसलिए बलात्कार के मामले में लड़की की हत्या करने लगेंगे . इसकी एक तकनीकी वजह भी है. हत्या करने के मामले में कम से कम भुक्तभोगी नहीं होगा और दोष सिद्ध करना तुलनात्मक रूप से कठिन होगा. इसके अलावा दोनों मामलों में समान दंड होने के कारण जघन्य अपराधी हत्या को ही चुनेंगे. हमारे सामने सैकड़ों मामले आते हैं जिनमें अपराधी सिर्फ अपनी पहचान सामने आ जाने के डर से लूट को हत्या में बदल देते हैं. बलात्कार के मामलों में भी कई बच्चियों की जान इसी वजह से गई है. 5. करप्शन के मामले बेहद बढ़ जाएंगे. आप जानते हैं कि पुलिस झूठे मुकदमे लादकर अक्सर लोगों को फंसा दिया करती है. महिला आपराध से जुड़े मामलों में आज भी कानून सिर्फ सख्त ही नहीं काफी हद तक महिलाओं की तरफ झुकाव वाला भी है. यौन उत्पीड़न की एक शिकायत ही किसी को जेल पहुंचाने के लिए काफी है. लेकिन ये ताकत जितनी महिलाओँ की है उतनी ही पुलिस की भी बन गई है. आज के जमाने में झूठा मुकदमा बनाकर किसी को जेल में डाल देना बहुत आसान है. अगर पुलिस को अनंत शक्ति दे दी गई तो फांसी से डराकर वो लूट का धंधा शुरू कर देगी. ये सिद्ध बात है कि जितना कानून सख्त होता है उतना ही करप्शन बढ़ता है. यहां जानबूझ कर मैं झूठी शिकायत करने वाली महिलाओं का जिक्र नहीं कर रहा हूं क्योंकि ऐसा करके हम पूरे स्त्री समाज के साथ अन्याय करेंगे. गलत लोग हर समाज में होते हैं और चुटकी भर गलत महिलाएं भी हो सकती हैं. समाधानदरअसल बलात्कार अपराध होने के साथ-साथ एक सामाजिक समस्या है. महिला को उपभोग की वस्तु समझने की मानसिकता इसके पीछे सबसे प्रबल है. दुर्भाग्य से हमारे समाज में इस सोच को बदलने के लिए कुछ नहीं हुआ बल्कि ज्यादातर विज्ञापन, सिनेमा, टीवी और अन्य माध्यम स्त्री के तन को प्रोडक्ट ही समझते हैं व्यक्ति के तौर पर स्त्री के अस्तित्व को भी उपभोगात्मक बना दिया जाता है. न तो घर में स्त्री को व्यक्ति होने और सम्माननीय होने की शिक्षा जी जाती है न बाहर. किशोरावस्था शुरू होते ही रिश्तों का तो सम्मान होता है लेकिन स्त्री का नहीं. स्त्री अगर मां हो तो सम्माननीय है, बहन है तो आदरणीय है लेकिन अगर वो आपकी रिश्ते में कुछ नहीं लगती तो भोग्या है. इस मानसिकता को दूर करने के लिए व्यापक स्तर पर काम करने होंगे. कला, संस्कृति, साहित्य, टीवी और सिनेमा इसमें अहम भूमिका निभा सकते हैं. अमेरिका में रंगभेद को खत्म करने की कोशिशों का ही नतीजा है कि श्वेत हीरो के साथ एक अश्वेत व्यक्ति भी समान रूप से दिखाई देता है. यही कारण है कि लोग रंगभेद की मानसिकता से काफी हद तक निजात पा चुके हैं. सामाजिक जागृति और बदलाव इस मामले में अहम भूमिका निभा सकते हैं. इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है. आधुनिक समता मूलक समाज की अवधारणा पर ध्यान दे. लड़कियों और लड़कों को बराबर समझें. उन्हें आपस में बात करने का मौका दें, एक दूसरे के प्रति समझ बढ़ाएं. समाधान वक्त के साथ ही होगा लेकिन फांसी से बच्चियों की ज़िंदगी का खतरा बढ़ेगा और कन्विक्शन रेट भी कम हो जाएगी यानी सजा पाने वालों की तादाद में गिरावट आएगी. ये लड़कियों के लिए बिलकुल ठीक नहीं होगा. क्या औरतों को फांसी होती है?जी हाँ भारत में फाँसी देना एक क़ानूनी दंड है . इसमें 18 वर्ष से अधिक आदमी या महिला दोनों को फांसी की सज़ा हो सकती है।।
भारत में कितनी महिलाओं को फांसी दी गई?मथुरा के जिला कारागार में करीब 150 साल पहले फांसी घर बनाया गया था, लेकिन आजादी के बाद से अब तक देश में किसी भी महिला को फांसी नहीं दी गई है. यह उत्तर प्रदेश का इकलौता महिला फांसी घर है. फिलहाल शबनम की फांसी की भी तारीख तय नहीं हुई है.
भारत में प्रथम महिला को फांसी कब दी गई?शबनम से पहले 1955 में महिला अपराधी रतनबाई जैन को 3 लड़कियों की हत्या के लिए फांसी दी गई थी. गौरतलब है कि अमरोहा की रहने वाली शबनम ने अप्रैल 2008 में प्रेमी के साथ मिलकर अपने सात परिजनों की कुल्हाड़ी से काटकर बेरहमी से हत्या कर दी थी. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शबनम की फांसी की सजा बरकरार रखी थी.
भारत में अब तक कितने लोगों को फांसी दी गई है?करीब 1400 लोगों को अब तक आजादी के बाद फांसी दी गई है. भारत की आजादी के बाद पहली फांसी 9 सितंबर 1947 को दी गई थी. ये फांसी जबलपुर सेंट्रल जेल में दी गई थी. भारत में आखिरी फांसी निर्भया गैंगरेप के दोषियों को 20 मार्च 2020 को गई थी.
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