मुगल भारत में उत्पादित प्रमुख व्यावसायिक फसलें कौन सी थीं? - mugal bhaarat mein utpaadit pramukh vyaavasaayik phasalen kaun see theen?

प्रश्न 16. ग्राम समुदाय की मुख्य विशेषताओं का विवरण दीजिए।

जमीन के संयुक्त स्वामित्व का कोई प्रमाण नहीं है। प्रत्येक किसान को अपनी जमीन और फसल

के अनुसार व्यक्तिगत रूप से कर देना होता था। हालांकि गाँव के लोगों को उत्पादन शहरों से

नहीं के बराबर प्राप्त होता था लेकिन उनकी उपज का एक बड़ा हिस्सा शहरी बाजार में पहुँचता

था इस प्रकार गाँव बाजारी शक्तियों के प्रभाव में आ सकता था। समान हित वाले मामलों में

गाँव के लोग एक समूह के रूप में कार्य करते थे। जैसा कि विद्वान कहते हैं वे राज्य को भू-राजस्व देने में सामूहिक रूप से निष्ठावान या निष्ठाहीन थे।

के लिए, गाँव के लेखों का रख-रखाव करने के लिए वे मिलकर पटवारी को रखते, नहरें बनाने

और गाँव के लोगों को धार्मिक लाभ और मनोरंजन प्रदान कराने के लिए मिलकर कार्य करते थे।

प्रश्न 17. मुगल भारत में जमींदारों की विभिन्न श्रेणियों का वर्णन कीजिए।

उत्तर-विद्वानों ने मुगल साम्राज्य में जमींदारों को तीन विस्तृत श्रेणियों में विभाजित किया है।

1. स्वतंत्र मुखिया, 2. मध्यस्थ जमींदार और 3. मुख्य जमींदार । ये श्रेणियाँ विशिष्ट न होकर

परस्पर थीं। जमींदार राज्य के हर हिस्से में थे और शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र था जिसमें किसी

विद्वानों का अनुमान है कि उत्तर भारत में जमींदार का राजस्व हिस्सा पंद्रह से बीस प्रतिशत

से कम नहीं था जबकि गुजरात में यही हिस्सा तीस से पैंतीय प्रतिशत था। जमींदार, हथियारों

से लैस, अपने क्षेत्र में मुगलों का सामना करने के लिए तैयार रहते थे । केवल अकबर के शासन

काल में ही जमींदारी विद्रोह के एक सौ चौवालीस (144) मामले दर्ज किए गए हैं। मध्यकालीन

दस्तावेजों में जमींदारा-ए-जोर-तलब का उल्लेख है, वे जमींदार जो केतल तभी राजस्व अदा करते थे जब उनसे जबरदस्ती मांगा जाता था।

प्रश्न 18. जमींदारों की सैन्य शक्ति का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।

42,77,057 पैदल सेना, 1,864 हाथी, 4260 बंदूकें और 4,500 नौकाएं। जमींदार गढ़ी में रहते

थे जो कि न केवल उनके पद का सूचक थे बल्कि आवश्यकता पड़ने पर प्रतिरोधी केंद्रों के रूप

कई पीढ़ियों से उनके परिवार के कब्जे में थीं। एक क्षेत्र के जमींदारों और उनके अधिकार-क्षेत्र

में रहने वाले किसानों के बीच जातिगत संबंध थे। विद्वानों का कहना है कि जमींदारी सेनाओं

में अधिकांश पैदल सैनिक होते थे जो कि उनके द्वारा अपने क्षेत्र के बचाव और दूर के क्षेत्रों में

कार्य करने के प्रति उनकी अरुचि का सूचक है। औसतन, जमींदारों के पास मुश्किल से दस पैदल सैनिकों के लिए एक घुड़सवार था जबकि शाहजहाँ के शासन काल में शाही सेना में प्रत्येक पैदल सैनिक के लिए एक घुड़सवार था।

प्रश्न 19. “बहुत से परिवर्तनों के बावजूद मध्यकालीन भारतीय समाज बुनियादी तौर

उत्तर-1. मध्यकाल में भूमिकर अभी भी राज्य की आय का मुख्य साधन था जिसे राजा

के सामंत या जमींदार कृषकों से एकत्र करके अपना भाग बचाकर शेष राजा के हवाले कर देते थे।

2. इस कार्य के करने के कारण राज्य द्वारा इन जमींदारों के अधिकारों तथा विशेषाधिकारों

को संरक्षण प्रदान किया जाता था।

इसी कारण कुछ इतिहासकार मध्यकालीन भारत के राज्य को बुनियादी तौर पर सामंतवादी

कहते हैं।

प्रश्न 20. फतेहपुर सीकरी के शाही शहर का विवरण दीजिए। [B.M.2009A]

उत्तर-फतेहपुर सीकरी की विशेषता विशाल जामा मस्जिद थी जो तब मुगल भारत में सबसे

विशाल मस्जिद थी। जब शेख सलीम की मृत्यु हुई तो उन्हें यहाँ दफनाया गया। सफेद संगमरमर

बना उनका मकबरा अपनी बारीक जालियों और नक्काशीदार दीवारगीरों के लिए प्रसिद्ध है जो

विशेष रूप से गुजरात में प्रशिक्षित कारीगरों का कार्य है।

अकबर का महल परिसर मस्जिद के दक्षिण पूर्व में स्थित था। इस परिसर की प्रमुख इमारतों

में जनता दर्शन के लिए कक्ष, अनूप तलाओं, गहरी नक्काशीदार तुर्की, सुल्तान का घर, ख्वाबगाह या अकवर के शयनकक्ष, दफ्तर खाना या रिकॉर्ड कार्यालय और दीवान-ए-खास या निजी दर्शन कक्ष शामिल थे।

पाँच-मंजिला पंच महल, जोधाबाई का महल और राजा बीरबल का महल जो संभवतः

प्रशासनिक अथवा औपचारिक इमारतों में मानी जाती हैं।

प्रश्न 21. अकबर के शासन काल में भू-राजस्व व्यवस्था का वर्णन कीजिए। [B.M.2009A]

उत्तर-1. अकबर के भू-राजस्व संबंधी सुधार (Akbar’s Revenue Reforms)-एक

कुशल प्रशासनिक होने के नाते अकबर समझता था कि जब तक भू-राजस्व व्यवस्था में सुधार

नहीं होगा, राजकीय कोष रिक्त ही रहेगा क्योंकि भू-राजस्व ही राजकीय आय का सबसे बड़ा

स्रोत था। इसलिए उसने राजा टोडरमल से इस संबंध में सहायता ली। अकबर जानता था कि

शेरशाह के काल में भी टोडरमल ने अभूतपूर्व भू-सुधार किए थे।

2. टोडरमल का जब्ती प्रबंध (Jabti system of Todar Mal)-1581 ई. में अकबर ने

टोडरमल की भू-व्यवस्था जब्ती प्रणाली लागू कर दी। इस व्यवस्था के अधीन आने वाले प्रदेश

थे-अवध, आगरा, इलाहाबाद, दिल्ली, मालवा, अजमेर, लाहौर, मुल्तान आदि ।

3. भूमि की पैमाइश (Measurement of Land)-समस्त कृषि योग्य भूमि की नाप करवाई

गई। उसने रस्सी के गजों के स्थान पर 41 अंगुल वाले बाँस के गज का प्रयोग किया। बाँस

के सिरों पर पहले छल्ले लगे हुए थे। समस्त कृषि योग्य भूमि को 182 भागों में बाँटकर, प्रत्येक

भाग को अमलगुजार नामक अधिकारी के अधीन कर दिया गया।

4. भूमि का वर्गीकरण (Classification of Land)-उत्पादक क्षमता के आधार पर भूमि

का वर्गीकरण किया गया :

(i) पोलज (Polege)-जिस भूमि पर हर साल बुआई होती थीं।

(ii) परती (Parti)-जिस भूमि पर कुछ वर्षों बुआई न हुई हो।

(iii) चाचर (Chachar)-दो या तीन साल के बाद कोई गई भूमि ।

(iv) बंजर (Banjar)-अधिक समय तक खाली पड़ी भूमि को बंजर कहा जाता था।

5. औसत उपज के 1/3 भू भाग पर राज्य का अधिकार होता था किंतु इस मात्रा में भूमि

की उत्पादकता तथा कर निर्धारण की पद्धति के अनुसार अंतर भी होता रहता था।

6. दहसाला प्रणाली में दस सालों के लिए एक ही दर से कर निर्धारित नहीं किए जाते थे।

यह स्थिर भी नहीं होती थी। इसी तरह से जब्ती प्रणाली को भी टोडरमल की सहायता से लागू

किया गया था।

प्रश्न 22. कृषक वर्ग के सन्दर्भ में मुगलों विशेषकर अकबर की भूराजस्व नीति की

समीक्षा कीजिए।

उत्तर-कृषक वर्ग या कृषि की स्थिति (Position of Peasantary class or condition

of agriculture)-कृषि लोगों का मुख्य व्यवसाय था। अकबर ने अपने राजस्व-प्रबन्ध अथवा

भूमि प्रबन्ध (Land-Revenue System) से किसानों की दशा सुधारने का काफी प्रयत्न किया। उसने किसानों की भलाई के लिये भूमि की पैमाइश करवाई, उपज के अनुसार भूमि को चार भागों में बाँटा, सरकारी भाग को निश्चित किया तथा अनेक योग्य अधिकारी नियुक्त किये ताकि कोई भी किसानों को ठग न सके। स्थानीय परिस्थितियों को देखते हुए उसने किसानों को सुविधा के लिए जब्ती, बटाई और नसक आदि अनेक लगान पद्धतियाँ प्रारम्भ की। इसके अतिरिक्त उसने किसानों के लाभ के लिए सिंचाई को ठीक करने के लिए नहरें और तालाब बनवाये तथा नदियों पर बाँध बनाये गये। निसन्देह अकबर के इन प्रयत्नों से किसानों की दशा कुछ अवश्य सुधरी, परन्तु इसके बाद उनकी स्थिति फिर शुरू हो गई और किसान का जीवन गरीबी के दायरे में सीमित होकर रह गया । लगातार युद्धों तथा फौजों के इधर-उधर आने-जाने से उनकी फसलों को काफी हानि होती थी। बहुत रोक लगाने पर भी सरकारी अधिकारी प्रायः उन्हें तंग ही करते रहते थे। कृषि का दारोमदार वर्षा पर ही था । जब कभी वर्षा नहीं होती थी तो देश में अकाल (Famines) पड़ जाते थे और कृषकों की अवस्था और भी बुरी हो जाती थी। मुगल सम्राट् लोगों की सहायता करने का अवश्य प्रयत्न करते थे, परन्तु एक तो यातायात के साधन इतने ठीक न होने के कारण और दूसरे सहायता के कम होने के कारण, बहुत से लोग भूख से मर जाते थे। ऐसी अवस्था में किसान बेचारे कैसे ऊपर उठ सकते थे। इसलिए उनकी गणना प्रायः समाज के निम्न वर्गों में ही की जाती थी।

प्रश्न 23. अब्दुल फजल की ‘आइने अकबरी’ के आधार पर कृषि उत्पाद एवं कृषक

वर्ग का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।

उत्तर-मुगलकाल में आर्थिक जीवन पर अबुल फजल की ‘आइने-अकबरी’ और विभिन्न

विदेशी यात्रियों के विवरणों से विस्तृत प्रकाश पड़ता है।

कृषि उत्पाद एवं कृषक वर्ग (Agricultural production and peasantan class)-

‘आइने अकबरी’ में रबी (बसन्त) की 16 फसलों तथा खरीफ (शरद ऋतु) की 25

फसलों का उल्लेख है। मुख्य खाद्य पदार्थ गेहूँ, चावल, दालें थीं। बयाना (आगरा के निकट),

सरखेज (गुजरात) में सर्वोत्तम प्रकार की नील का उत्पाद किया जाता था; भारत में तम्बाकू और

आलू (1605) ई. में पुर्तगालियों द्वारा लाई गई थी; मक्का भी इसी समय अमरीका से भारत लाया गया था। शाहजहाँ ने अकाल से निपटने के लिए नहरों की व्यवस्था सिंचाई हेतु की थी; उसने नहर-ए-फैज (रावी नहर 150 किमी लम्बी लाहौर तक) का निर्माण किराया था। शाहजहाँ द्वारा निर्मित दूसरी नहर ‘नहर-ए-साहिब’ थी। मुगल काल की तिजारती (नकदी) फसलें गन्ना, कपास, नील, रेशम आदि थीं। मुगलकालीन कृषक वर्ग प्रमुखतः तीन श्रेणियों में विभक्त था-

(i) खुदकाश्त-वे खेतिहर जो उसी गाँव की भूमि पर खेती करते थे जहाँ के वे निवासी

होते थे, इन्हें अपनी भूमि पर स्थायी एवं वंशानुगत स्वामित्व प्राप्त होता था।

(ii) पाहीकाश्त-वे किसान जो दूसरे गाँवों में अस्थायी रूप से जाकर बंटाईदार के रूप में खेती करते थे।

(iii) मुजारियान-वे खुदकाश्त की जमीन को किराये (बंटाई) पर लेकर खेती करते थे।

प्रश्न 24. जमींदार के प्रशासनिक कार्य-कलाप बताइए।

उत्तर-(i) जमींदार कृषक संपत्ति को छोड़कर अपनी शेष जमीनों को काश्तकारों को

वंशानुगत पदों पर दे देते थे। पद दिए जाने के फलस्वरूप उनका काश्तकारों पर अधिकार सुरक्षित रहता था।

(ii) वे कोशिश करते थे कि किसानों में राजस्व इकट्ठा किया जाए।

(iii) लगान के अपने-हिस्से-के-साथ-साथ के कई तरह के उप कर (sub-taxes) =

cesses वसूल करते थे।

(iv) वे राजस्व व उपकरों से होने वाली आय का एक हिस्सा पाशा को देते थे।

(v) जमींदारों को विपत्ति के समय कई बड़े हाकिमों के हुक्म पर फौज की टुकड़ियाँ बादशाह

को देनी पड़ती थी।

(vi) जमींदार अपने क्षेत्र में कानून व्यवस्था बनाए रखते थे जिसके लिए उन्हें कमीशन,

कटौती, लगानमुक्त, भूमि आदि मिलते थे।

(vii) जमींदार अपने अधिकारों को बढ़ाने, अच्छी भूमि प्राप्त करने, जमींदार क्षेत्र की वृद्धि

के लिए प्रायः संघर्ष किया करते थे।

प्रश्न 25. अकबर और उत्तराधिकारियों के काल में जमींदारों के समय कार्य कलाप का

वर्णन कीजिए।

उत्तर-अकबर और उसके उत्तराधिकारी हमेशा यह चाहते थे कि राजा लोग बादशाह के

अधिक राजस्व को मान्यता दे, उन्हें नजराने भेंट करते रहें और जब आवश्यकता हो, तब उन्हें

सैनिक सहायता भी उपलब्ध कराएँ । मुगल जमीदारों और राजाओं के बीच समरस संबंध कभी

नहीं रहे।

जमींदारों “खालिसा” में आ जाने पर कुछ सरदार जमींदारों को या सरकारी अफसरों को

वार्षिक “जमा” और “पेशकश” दोनों ही अदा करते थे। अदायगी में हुई चुक गद्दारी मानी जाती

थी, जिसके लिए उन पर सैनिक चढ़ाई कर उन्हें अपने पद से हटाया जा सकता था या उनके

स्थान पर किसी और की नियुक्ति भी की जा सकती थी। कुल मिलाकर सरदारों या राजाओं को

आंतरिक स्वायत्तता प्राप्त थी और वे अपने इलाकों का शासन मुगल सम्राट मदद के बिना ही चलाते थे। कभी-कभी कुछ राजपूत राजाओं ने अपनी मनमानी से मुगल राज की कुछ विशेषताओं को थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ स्वयं ही अपना लिए, जैसे जोधपुर और मेवाड़ ने जागीरदार प्रथा को, आमेर और जोधपुर ने “जब्ती” को। बड़े राजाओं की तुलना में छोटे सरदारों या राजाओं पर केन्द्रीय नियंत्रण अधिक कड़ा था।

प्रश्न 26. जमींदार के जीवन की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।

उत्तर-(i) सामाजिक दृष्टि से मुगलकालीन भारत में जमींदारों का एक विषय जातीय वर्ग

था। कुछ जमींदार बहुत छोटे होते थे और कुछ बहुत बड़े। अलग-अलग स्थानों पर इनके

अधिकार और उत्तदायित्व अलग-अलग थे। कुछ क्षेत्रों में वे भू-राजस्व के मुख्य साधन थे जबकि

अन्य क्षेत्रों में वे मुगल सम्राट को नजराने देने वाले थे।

(ii) जमींदारों को कई मदों पर खर्चा करना पड़ता था और कई साधनों में उनकी आमदनी

होती थी। भूमि कर के अतिरिक्त उन्हें उत्पादन में हिस्सा (जो महसूल कहलाता था)

हुक्कू-ए-जमींदारी के रूप में भी आमदनी मिलती थी और हक-ए-मिल्कियत से भी उन्हें आय

मिलती थी। वह अपनी आमदनी से अपने और अपने परिवार का खर्च चलाते थे। सेना रखते

थे, घोड़ों और सैनिक समान पर खर्च करते थे।

(iii) जमींदार खुद काश्तकारों से भू-राजस्व वसूल करते थे और पहले से ही तय की गई

रकम अधिकारी को देते थे। प्रायः जमींदार अधिकारियों को अपनी आय का 1/10 भाग देते थे ।

4. जमींदारों के जीवन-स्तर के बारे में राय प्रकट करना कठिन कार्य है। इतिहासकार

सतीशचंद्र के अनुसार जागीरदारों की तुलना में जमींदारों की आय सीमित थी।

(v) चाहे छोटे जमींदार कमोबेश काश्तकारों की तरह ही जीवन-यापन करते हों, किंतु बड़े

जमींदारों का जीवन-स्तर तो निश्चित रूप से जागीरदारों के जीवन-स्तर से होड़ करता था, क्योंकि उनके व्यय का अधिकांश हिस्सा स्पष्ट उपभोग के काम आता था। अधिकांश प्रत्यक्षः ग्रामीण क्षेत्र में रहते थे और सतीश चंद्र के शब्दों में, उनका जीवन “ढुलमुल स्थानीय कुलीन वर्ग” का सा था।

(vi) रैयती गाँव में मुगल प्रशासन किसानों से सीधे ही लेन-देन करता था। जमींदार अपने

अधिकार क्षेत्र में आने वाली भूमि के लिए राजस्व देता था। इस तरह जमींदारों को पुश्तैनी आधार

पर अधिकारियों के लिए की गई ऐसी सेवा माना जाता था जिसके एवज में उन्हें नियुक्त किया

जाता था।

प्रश्न 27. जमींदारों के अधिकारों की प्रकृति पर एक टिप्पणी लिखें।

उत्तर-(i) अपनी जमींदारी के प्रभाव क्षेत्र में आने वाली जमीन के काश्तकार जो अतिरिक्त

उत्पाद पाते थे, उसमें जमींदार का हिस्सा, उसी जमीन पर शाही अधिकारियों द्वारा निर्धारित

मालगुजरी की रकम की तुलना में निश्चय कम होता

(ii) जमींदार अपनी इच्छा से अपने हिस्से को बढ़ा नहीं सकता था । जहाँ कहीं उसका हिस्सा

मालगुजारी में से छूट जाता था, वह छूट एक तरह से नियत और स्थाई होती थी अर्थात् या तो

10% होती थी या चौथाई।

(iii) इरफान हबीब ने सही कहा है कि जमींन के उत्पाद में एक हिस्से के रूप में जमींदार

को यद्यपि “मालिक” माना जाता था, फिर भी वह उपनिवेशी काल (Colonial period) की

तरह जमीन का वैसा मालिक नहीं था जो भू-कर तो देता था, पर अपने किराएदारों से अपनी

इच्छा के अनुसार किराया वसूल करता था ।

(iv) इरफान हबीब स्पष्ट करते हैं कि जमींदार का आशय भूमि पर स्वत्वाधिकार होना नहीं

है। भूमि के उत्पादन से संबंधित अन्य अधिकारों और हकों के साथ इसका सहअस्तित्व था।

साथ ही यह भी जान लेना महत्वपूर्ण है कि जमींदारी में खुद-ब-खुद (न कि जमींदारी के अधीन

आने वाली भूमि) निजी संपत्ति के अंतर्नियमों के भी अभिलक्षण मौजूद थे। वह उत्तराधिकार में

मिल सकती थी और उसे बिना किसी रुकावट के खरीदा और बेचा जा सकता था।

मुगल साम्राज्य में जमींदारी की पैतृक उत्तराधिकार एक सामान्य नियम था। जमींदारी को

एक अविभाज्य इकाई भी नहीं माना जाता था, क्योंकि उत्तराधिकारों के दावों की पूर्ति के लिए

उनका विभाजन भी सदा संभव था। जमींदारी को पट्टे पर भी हस्तांतरित किया जा सकता था।

प्रश्न 28. आइने-ए-अकबरी और इरफान हबीब द्वारा की गई व्याख्याओं के आधार

पर मुगलकालीन जमींदारों की सैनिक शक्ति पर एक अनुच्छेद लिखें।

उत्तर-जमींदारों की सैनिक शक्ति का इरफान हबीब द्वारा की गई व्याख्य, आइने-ए-अकबरी

में प्रस्तुत विवरणों पर आधारित है और विश्वसनीय है। जमींदारों द्वारा नियोजित आश्रितों (उलुस) का केंद्र अपनी जाति के लोगों द्वारा निर्मित होता था. और उसकी अनुपूर्ति कृषकों से की जाती थी। हबीब कृषक, शांतिवाद में अपने विश्वास को यह कह कर व्यक्त करते हैं कि कृषक वर्ग

जमींदारों की सेवा करने के उद्देश्य से नहीं वरन उनसे “प्रभावित” होकर उनका सहायोग करते

थे। लेकिन कृषक संस्कृति (peasant culture) का गहन अध्ययन करने वाले डी. एच. ए.

काल्फ (D.H.A. Kalf) तत्कालीन गाँवों और कस्बों में “युद्ध प्रिय पर परंपरा के मूल” के

अस्तित्व पर बल देते हैं। उनका निष्कर्ष है कि “उत्तर भारत का कृषक समाज….” व्यावसायिक

दृष्टि से सभी प्रकार के हथियारों के प्रयोग में कुशल था इसलिए मुगलों की प्रादेशिक सेना में

अनेक जमींदार और कृषक सम्मिलित थे।

प्रश्न 29. अकबरकालीन नफाइल-उल मासिर पर एक ऐतिहासिक ग्रंथ के रूप में

टिप्पणी लिखिए।

उत्तर-नफाइल-उल मासिर-शायद अकबर के काल पर सबसे पहली ऐतिहासिक किताब

यही है। मीर अलाउद्दौला कजवीनी ने जो एक कवि था, इस किताब की रचना अकबर की

कविता में रुचि को देखकर की। यह किताब कवियों की जीवनी पर आधारित है। इसको 28

अध्यायों में बाँटा गया है। अलग-अलग अध्यायों में अलग-अलग कवियों का उनके “तखल्लुस”

के पहले शब्द के अनुसार जिक्र किया गया है।

इस रचना में 1565-66 से 1574-75 तक के हालात मौजूद हैं। बाबर, हुमायुंँ और अकबर

के समय से उमर और बाबर और दूसरे तैमूरी शाहजादों की औलादों जिक्र उन्होंने “बेतो”

(अध्यायों) में किया है जिनमें कवियों का वर्णन है। बाबर और हुमायूँ के लिए कजवीनी ने

तुज्क-ए-बाबरा और तारीख-ए-रशादा पर पूरा भरोसा किया है और उनसे खूब फायदा उठाया

है। शायद अकबर के काल के इबतिदाई हालात की जानकारी उसे अपने भाई मीर अब्दुल लतीक

से मिली थी क्योंकि वह अकबर के पहले ही साल में ईरान से आकर उसकी मुलाजमत में दाखिल

हो गया था।

इस ग्रंथ में अकबर को शरीयत का शिक्षक और उलमा का सरपरस्त बताने की कोशिश

की गई है। उसकी विजय को इस्लाम फैलाने के जलवे से जोड़ा गया है। लेखक राजा भारमल

को मुतीउलइस्लाम (इस्लाम का वफादार) की पदवी देता है। उसका मत है कि गुजरात की फतह

के पीछे कोई राजनीतिक कारण नहीं था बल्कि अकबर का मतलब वहाँ के अफगान महदीयों को जड़ से खत्म कर देना था।

आगरा और फतेहपुर सिकरी की बहुत सी इमारतों का हाल इस किताब के महत्त्व को और

बहुत देता है। इसमें अकबर के दरबारी गवैयों और शायरदों का हवाला भी मिलता है। उमरा

और “शोरा” कि जिंदगी सामाजिक, मजहबी तथा इल्मी माहौल को प्रकट करती है।

प्रश्न 30. तारीख-ए-अकबरी पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर-तारीख-ए-अकबरी: यह नफाइस उलमासिर के ढंग पर लिखी गई अकबर के

दौर से संबंधित एक और किताब है। इसका लेखक आरिफ कंधारी 1545 के बाद बैरम खाँ

की मुलाजमत में दाखिल हुआ और आखिरी समय तक (जनवरी 1561) उसके साथ रहा ।

1574 में वह मक्का-मदीना से लौटा और मुजफ्फर खाँ (जो पहले बैरम खाँ का “दीवान-ए-

ब्यूतात” रहा था) का मुलाजिम हो गया । नवंबर-दिसंबर 1577 में दिल्ली आकर वह शाही कैंप

में शामिल हुआ और मखदूम, लमुलक अब्दुल्ला सुल्तानपुरी के तहत “दीवाने-ए-सआदत” बना

कर पंजाब भेज दिया गया । लगता है कि वह मुल्ला के साथ निभाव न कर सका और उसने

इस्तीफा दे दिया। तारीख-ए-अकबरी, जो उसने पहले ही शुरू कर दी थी, अगस्त 1585 तक खत्म हुई।

कंधारी ने अकबर के सुधारों की चर्चा की है और सराहा है। जमींदारों के प्रति नीति को

लेखक ने अकबर का सबसे बड़ा कारनामा बताया है। वह लिखता है कि हिंदुस्तान में

लगभग-दो-तीन सौ ‘जमींदार हैं जिनको शक्ति के बल पर काबू में लाना असंभव है। शहंँशाह

ने अपनी अकलमंदी से उनको अपने साथ मिला कर अमन और सकून का रास्ता अपना लिया

है। अकबर के सुधारों और उसके काल की इल्मी और समानी गतिविधियों को खोलकर पेश

किया गया है। बैरम खाँ का मुलाजिम होने की वजह से कंधारी ने उसकी तरफदारी करते हुए

पीर मोहम्मद खाँ पर मक्कारी और गद्दारी का आरोप लगाया है। अकबर के करोरी के जरबे

की सराहना करते हुए उसने लिखा है कि इसका मकसद खेती को बढ़ावा देना, “ऐमादारों” के

कपट को रोकना और उनकी और किसानों की जमीनों की सही निशानदेही करना था। दाग प्रथा

के लागू करने, जागीरों के जब्त करने और मनसबदारों को नकदी तनख्वाह बँटवाने से जो तनाव

उत्पन्न हुआ, उसका पूरा ब्यौरा इस लेखक ने पेश किया है।

प्रश्न 31. अलबरूनी द्वारा बताई गई महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डालिये।

उत्तर-अरबी यात्री अलबरूनी की किताब-उल-हिन्द में तत्कालीन (11वीं सदी) भारत की

महिलाओं की दशा का विशद वर्णन है। उनके अनुसार हिन्दू लड़कियों की शादी अल्पायु में ही

हो जाती थी, तलाक की प्रथा नहीं थी जबकि सती प्रथा का प्रचलन था। पुरुष एक से चार पत्नियाँ रख सकते थे। देवदासी तथा वेश्यावृत्ति की प्रथा भी प्रचलित थी। कुल मिलाकर अलबरुनी का विवरण समाज में महिलाओं की कमजोर स्थिति का ही सूचक है।

प्रश्न 32. अकबर के व्यक्तित्व पर टिप्पणी दें।                  [B.M.2009A]

उत्तर-अकबर इतिहास में महान् की उपाधि से विभूषित है और इसकी महानता का मुख्य

कारण है-इसका विराट् व्यक्तित्व। साम्राज्य की सुदृढ़ता, साम्राज्य में शांति स्थापना तथा मानवीय

भावनाओं से उत्प्रेरित अकबर ने न सिर्फ गैर-मुसलमानों को राहत दिया, राजपूतों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किया बल्कि एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था भी प्रदान किया। धार्मिक सामंजस्य के प्रतीक के रूप में उसका दीन-ए-इलाही प्रशंसनीय है।

प्रश्न 33. तबकात-ए-अकबरी पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर-तबकात-ए-अकबरी-इसके लेखक निजामुद्दीन अहमद थे। उनके पिता का नाम

ख्वाजा मोहम्मद मुकीम हरवी था जो बाबर का दीवार-ए-बयूता था। हुमायुं और अकबर के

जमाने में भी उसने अजीम खिदमात अन्जाम दी। निजामुद्दीन एक पढ़ा लिखा और मिलनसार

आदमी था। हर तबके और नजरिए के विद्वानों से उसका ताल्लुक ।। बहुत से हमलों में वह

अकबर के साथ रहा। उसने गुजरात में बख्शी के पद पर काम किया। मालवा और अजमेर में

भी वह ऊँचे ओहदों पर नियुक्त रहा। ऐसे में उसे हालात की व्यक्तिगत जानकारी हासिल करने

में काफी मदद मिली। वह तारीख-ए-अलफी लिखने वाले बोर्ड का सदस्य भी रहा था। वह

एक मशहूर इतिहासकार और समझदार अधिकारी था। 1594 में उसकी मृत्यु हुई।

तबकात-ए-अकबरी-हिंदुस्तान की साधारण तारीख है। यह नौ हिस्सों में विभाजित है।

सलातीन-ए-देहली और मुगलों का हाल पहले दो हिस्सों में दिया गया है। दकन, गुजरात, मालवा,

बंगाल, जौनपूर, सिंध और मुलतान के हालात बाकी हिस्सों में दिए गए हैं।

निजामुद्दीन ने अकबरनामा और आईने अकबरी से पूरा फायदा उठाया है। इसके अलावा

उसने 28 दूसरे ग्रंथों का भी हवाला दिया है, लेकिन उनमें से बहुत से अब उपलब्ध नहीं हैं। बाबर

के हालात ज्यादातार बाबरनामा से लिए गए हैं। उसने अपने पिता की जानकारी से पूरा फायदा उठाया है। हुमायूँ और अकबर के हालात काफी हद तक तारीख-ए-अलफी से लिए गए हैं।

अबुल फजल की चापलूसी और बदायूँनी की घृणा और कट्टरता के बीच निजामुद्दीन ने अपने

लिए एक नया रास्ता बनाया है। वह अकबर के काल का एक समझदार और इंसाफ पसंद

इतिहासकार है।

प्रश्न 34. अबुल फजल कौन था? उस पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर-अबुल फजल (Abul Fazal)-वह अकबर कालीन महान कवि, निबन्धकार,

इतिहासकार, राजनीतिज्ञ, सेनापति तथा आलोचक था। उसका जन्म 1557 ई. में आगरा के प्रसिद्ध सूफी शेख मुबारक के यहाँ हुआ था। उसने 1574 ई. में अकबर के दरबारियों के रूप में अपना जीवन शुरू किया। उसने कोषाध्यक्ष से लेकर प्रधानमंत्री तक के पद पर कार्य किया। यह भारतीय इतिहास में एक महान इतिहासकार के रूप में प्रसिद्ध है। उसने दो प्रसिद्ध ऐतिहासिक पुस्तकों की रचनाएँ की। वे थीं-‘अकबरनामा’ तथा ‘आइने अकबरी’। ये दोनों ग्रंथ फारसी भाषा में

लिखे गये और अकबर कालीन इतिहास जानने के मूल स्रोत हैं। अकबरनामा अकबर की जीवनी, विजयें शासन प्रबन्ध के साथ-साथ तत्कालीन भारतीय राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक परिस्थितियों को समझने में भी सहायक हैं। उसने ‘पचतंत्र’ का अनुवाद फारसी में किया और उसका नाम ‘अनघरे साहिली’ रखा। उसे अकबर के नौ रत्नों में स्थान प्राप्त था। उसने

अनेक सैनिक अभियानों का नेतृत्व भी किया। वह पर्याप्त समय तक अकबर का प्रधान मंत्री और परामर्शदाता रहा। उसके विचार सूफी सन्तों से मिलते थे। धार्मिक दृष्टि से उसका दृष्टिकोण

बहुत उदार था। कहा जाता है कि उसी ने अकबर को दीन-ए-इलाही नामक धर्म चलाने की

प्रेरणा दी थी। इबादतखाने में वह सूफी मत के लोगों का प्रतिनिधित्व किया करता था। अकबर

के नौ रत्नों में दीन-ए-इलाही को अपनाने वाला वह पहला व्यक्ति था उसे सलीम ने ओरछा नरेश

वीरसिंह बुन्देला के साथ सांठ-गांठ करके मरवा डाला था। कहते हैं कि अबुल फजल की मृत्यु

के शोक में अकबर ने तीन दिनों तक दरबार नहीं किया। अकबर ने भावुक होकर कहा था कि

“अगर सलीम राज्य चाहता था तो वह मेरी हत्या करवा देता लेकिन अबुल फजल को छोड़

देता।” जब तक भारतीय इतिहास में अकबर का नाम रहेगा तब तक अबुल फजल को अवश्य

याद किया जायेगा।

प्रश्न 35. ‘तोहफा-ए-अकबर शाही’ पर एक टिप्पणी लिखिए।

उत्तर-तोहफा-ए-अकबरशाही (Tohafa-i-Akbarshahi)

(i) इस पुस्तक की रचना अब्बास खाँ सरवानी ने मुगल सम्राट अकबर के आदेश पर रची

थी। उसने इस पुस्तक में शेरशाह सूरी की उपलब्धियों को उजागर करने की पूरी कोशिश की

है। उसका स्रोत (लेखक के विवरणानुसार) उसकी स्वयं की स्मरणशक्ति तथा कुछ अफगान

उमरावर्ग के लोग थे। उसने यह पुस्तक अकबर को समर्पित की थी।

(ii) अब्बास खाँ सरवानी अपनी किताब सुल्तान बहलोल लोदी के जिक्र से शुरू करता है।

शुरू का भाग इतना प्रभावशाली नहीं है जितना कि 1538 के बाद का हिस्सा है। चौसा की लड़ाई के मुकाबले में बिलग्राम लड़ाई का जिक्र काफी विस्तार से किया गया है । मुगलों के भागने और शेरशाह द्वारा उनका पीछा करने का विवरण संक्षेप में दे दिया गया है।

(iii) इसमें सिंध पार के इलाके में शेरशाह की शासन प्रणाली का जिक्र विस्तार से किया

गया है। शेरशाह द्वारा माखांड की जीत, कालिंजर का घेरा और उसकी मौत के बारे में अब्बास

खाँ की दी गई सूचना काफी दिलचस्प है। आखिर में शेरशाह की शासन-प्रणाली और उसमें

लाए गए सुधारों की चर्चा की गई है, जो काफी महत्त्वपूर्ण है। यहाँ हमारे लेखक ने वाकयात-ए-मुशताकी से पूरा लाभ उठाया है। तोहफा-ए-अकबरशाही से सारे मुगल और अफगान लेखकों ने फायदा उठाया है जिससे इस स्रोत का महत्त्व स्पष्ट होता है।

प्रश्न 36. मुगल काल में भूमि को मुख्यतः कितने वर्गों में वर्गीकृत किया गया था ?

[B.M.2009A]

उत्तर-मुगल काल में भूमि को उपज तथा कर निर्धारण की दृष्टि से चार भागों में बाँटा

गया था। ये निम्नलिखित थे-

(i) पोलज-इसमें वर्ष में दो फसल होती थी तथा सरकार प्रत्येक वर्ष कर लेती थी।

(ii) परैती-दो-तीन वर्ष खेती के बाद एक वर्ष के लिए छोड़ दिया जाता था।

(iii) छच्छर-इसे तीन-चार वर्ष छोड़ना पड़ता था।

(iv) बंजर-निम्न कोटि की इस भूमि को पाँच वर्षों के लिए छोड़ना पड़ता था।

प्रश्न 37. “अकबर किसानों का हितैषी था।” इस कथन की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।

उत्तर-अकबर द्वारा किसानों के हित के लिए किए गए कार्य (Works done by

Akbar for farmers interest)-अकबर अपने प्रशासन सुधार और लोक कल्याण के लिए

भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है। उसने किसानों के हित के लिए अनेक सुधार किए :

1. उसने कृषि योग्य सारी भूमि को नपवाया और कर निर्धारण पद्धति में अनेक सुधार किए।

2. उसने किसानों को लगान नकद या गल्ले में देने की छूट दी।

3. उसने अपने सभी अधिकारियों को आदेश दे रखे थे कि वे किसानों के साथ अन्याय

न करें और उनसे उतना ही लगान वसूल करें जितना वास्तव में लगान बनता हो । उन अधिकारियों को कर वसूली के बाद किसानों को रसीद भी देने को कहा गया ।

4. अकबर ने आवश्यकता पड़ने पर किसानों को बीज, औजारों, पशुओं आदि की खरीदारी

करने के लिए तकावी ऋण भी दिए।

5. उसने किसानों को उपज में सुधार व अच्छी फसल बोने के लिए प्रोत्साहित किया ।

6. किसानों एवं जीमदारों को भूमि का पैतृक अधिकार प्रदान किया गया। इस स्थाई भूमि

अधिकार ने किसानों को अधिक लगान और मेहनत से भूमि जोतने और सुधारने के लिए प्रोत्साहित किया।

प्रश्न 38. अकबर को “राष्ट्रीय शासक” क्यों कहा जाता है ? [B. Exam.2009,2012(A)]

उत्तर-अकबर इतिहास में महान की उपाधि से विभूषित हैं और उसकी महानता का मुख्य

कारण है-उसका विराट् व्यक्तित्व। साम्राज्य की सुदृढ़ता, साम्राज्य में शांति स्थापना तथा मानवीय

भावनाओं से उत्प्रेरित अकबर ने न सिर्फ गैर मुसलमानों को राहत दिया, राजपूतों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किया बल्कि एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था भी प्रदान किया। धार्मिक सामंजस्य के प्रतीक के रूप में उसका दीन-ए-इलाही प्रशंसकीय है।

प्रश्न 39. बलबन की उपलब्धियों का मूल्यांकन करें। [B.Exam.2011(A)]]

उत्तर-बलबन इल्तुतमिश के चहलगानी दल का सदस्य था। बलवन ने राजस्व का एक नया

सिद्धान्त प्रतिपादित किया। बलबन ने एक केन्द्रीय सैन्य विभाग की स्थापना की एवं गुप्तचर विभाग का भी संगठन किया। उसने पहली बार मंगोलों से बचाव के लिए सीमान्त क्षेत्रों में दुर्ग का निर्माण करवाया और वहाँ योग्य सेना भूदयक्षों को नियुक्त किया। बलबन कुरान के नियमों को शासन का आधार मानता था। बलबन ने ईश्वर, शासक तथा जनता के बीच त्रिपक्षीय संबंधों को राज्य का आधार बनाने का प्रयत्न किया।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1. विचाराधीन काल में मौद्रिक करोबार की अहमियत की विवेचना उदाहरण

देकर कीजिए।                                                [N.C.E.R.T. T.B.Q.4]

Discuss, with examples, the significance of monetary transactions during the period under consideration.

उत्तर-सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में मौद्रिक कारोबार की अहमियत (Significance

of monetary transactions during the sixteenth and seventeeth centuries):

(i) सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में किसानों को नकदी अथवा जीन्स में भू-राजस्व अदा करने

की छूट दी गई थी। किसानों को नकदी में भू-राजस्व भुगतान की सुविधा के कारण मौद्रिक

कारोबार को भारतीय अवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करने का अवसर मिला।

(ii) ग्रामीण शिल्पकार (कुम्हार, लोहार, नाई, बढ़ई, सुनार) ग्रामीण लोगों को विशेष प्रकार

की सेवाएंँ प्रदान करते थे। फसल कटने और पकने पर प्रायः उन्हें फसल का एक हिस्सा दिया

जाता था लेकिन इस व्यवस्था के साथ-साथ किसान और शिल्पकार परस्पर लेन-देन के बारे में

आपसी शर्तें तय करके प्रायः लोगों को नकदी में भुगतान करते थे।

(iii) गाँव में प्राय: स्थानीय छोटे व्यापारी और सराफ पाए जाते थे। प्रायः उन्हें नकदी में

लेन-देन करने का अधिक शौक था। पंचायतें भी अपराधियों पर नकद जुर्माने लगाती थी। आम

परिस्थितियों में शहरों और गाँवों में वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय होता था।

(iv) उदाहरण के तौर पर, अठारहवीं सदी के स्रोत बताते हैं कि बंगाल में जमींदार उनकी

सेवाओं के बदले लोहारों, बढ़ई और सुनारों तक को “रोज का भत्ता और खाने के लिए नकदी

देते थे।” इस व्यवस्था को जजमानी कहते थे, हालांकि यह शब्द सोलहवीं व सत्रहवीं सदी में

बहुत इस्तेमाल नहीं होता था। ये सबूत मजेदार हैं क्योंकि इनसे पता चलता है कि गाँव के छोटे

स्तर पर फेर-बदल के रिश्ते कितने पेचीदा थे । ऐसा नहीं है कि नकद अदायगी का चलन बिलकुल ही नदारद था।

(v) सत्रहवीं सदी में फ्रांसीसी यात्री ज्यां बैप्टिस्ट तैवर्नियर को यह बात उल्लेखनीय लगी

कि “भारत में वे गाँव बहुत ही छोटे कहे जाएँगे जिनमें मुद्रा की फेर बदल करने वाले, जिन्हें

सराफ कहते हैं, न हों। एक बैंकर की तरफ सराफ हवाला भुगतान करते हैं (और) अपनी मर्जी

के मुताबिक पैसे के मुकाबले रुपये की कीमत बढ़ा देते हैं और कौड़ियों के मुकाबले पैसे की।”

(vi) मुगलों के केंद्रीय इलाकों में कर की गणना और वसूली भी नकद में की जाती थी।

जो दस्तकार निर्यात के लिए उत्पादन करते थे, उन्हें उनकी मजदूरी या पूर्व भुगतान भी नकद में

ही मिलता था। इसी तरह कपास, रेशम या नील जैसी व्यापारिक फसलें पैदा करने वालों का

भुगतान भी नकदी ही होता था।

(vii) मुगल साम्राज्य एशिया के उन बड़े साम्राज्यों में एक था जो सोलहवीं व सत्रहवीं सदी

में सता और संसाधनों पर अपनी पकड़ मजबूत बनाने में कामयाब रहे। ये साम्राज्य थे-मिंग (चीन

में), सफावी (ईरान में), और ऑटोपन (तुर्की में) । इन साम्राज्यों की राजनीतिक स्थिरता ने चीन

से लेकर भूमध्य सागर तक जमीनी व्यापार का जीवंत जाल बिछाने में मदद की।

(viii) खोजी यात्राओं से, और ‘नयी दुनिया’ के खुलने से यूरोप के साथ एशिया के, खास

कर भारत के, व्यापार में भारी विस्तार हुआ। इस वजह से भारत के समुद्र-पार व्यापार में एक

ओर भौगोलिक विविधता आई तो दूसरी ओर कई नयी वस्तुओं का व्यापार भी शुरू हो गया।

लगातार बढ़ते व्यापार के साथ, भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं का भुगतान करने के लिए

एशिया में भारी मात्रा में चाँदी आई।

(ix) इस चाँदी का एक बड़ा हिस्सा भारत की तरफ खिंच गया। यह भारत के लिए अच्छा

था क्योंकि यहाँ चाँदी के प्राकृतिक संसाधन नहीं थे।

(x) सोलहवीं से अठारहवीं सदी के बीच भारत में धातु मुद्रा-खास कर चाँदी के रुपयों-की

उपलब्धि में अच्छी स्थिरता बनी रही। इसके साथ ही एक तरफ तो अर्थव्यवस्था में मुद्रा संचार

और सिक्कों की ढलाई में अभूतपूर्व विस्तार हुआ, दूसरी तरफ मुगल राज्य को नकदी कर उगाहने में आसानी हुई।

(xi) इटली के एक मुसाफिर जोवान्नी कारेरी, जो लगभगर 1690 ई. में भारत से होकर गुजरा

था,ने इस बात का बड़ा सजीव चित्र पेश किया है कि किस तरह चाँदी तमाम दुनिया से होकर

भारत पहुँचती थी। उसी से हमें यह भी पता चलता है कि सत्रहवीं सदी के भारत में बड़ी अद्भुत

मात्रा में नकद और वस्तुओं का आदान-प्रदान हो रहा था।

प्रश्न 2. उन सबूतों की जाँच कीजिए जो ये सुझाते हैं कि मुगल राजकोषीय व्यवस्था

के लिए भू-राजस्व बहुत महत्त्वपूर्ण था।                      [N.C.ER.T. T.B.Q.5]

Examine the evidence that suggest that land revenue was important for

the Mughal fiscal system.

उत्तर-मुगल राजकोषीय व्यवस्था के लिए भू-राजस्व को महत्त्व (Importance of

Land-revenue for Mughal state treasuary):

(i) जमीन से मिलने वाला राजस्व मुगल साम्राज्य की आर्थिक बुनियाद थी। इस कारण से,

कृषि उत्पादन पर नियंत्रण रखने के लिए और तेजी से फैलते साम्राज्य सारे क्षेत्रों में राजस्व

आकलन व वसूली के लिए यह जरूरी था कि राज्य एक प्रशासनिक तंत्र खड़ा करे ।

(ii) दीवान, जिसके दफ्तर पर पूरे राज्य की वित्तीय व्यवस्था के देख-रेख की जिम्मेदारी थी,

इस तंत्र में शामिल था। इस तरह हिसाब रखने वाले और राजस्व अधिकारी खेती की दुनिया

में दाखिल हुए और कृषि संबंधों को शक्ल देने में एक निर्णायक ताकत के रूप में उभरे ।

(iii) लोगों पर कर का बोझ निर्धारित करने से पहले मुगल राज्य ने जमीन और उस पर

होने वाले उत्पादन के बारे में खास किस्म की सूचनाएँ इकट्ठा करने की कोशिश की। भू-राजस्व

के इंतजामात में दो चरण थे : पहला, कर निर्धारण और दूसरा वास्तविक वसूली।

(iv) जमा निर्धारित रकम थी और हासिल सचमुच वसूली गई रकम । अमील-गुजारा या

राजस्व वसूली करने वाले के कामों की सूची में अकबर ने यह हुक्म दिया कि जहाँ उसे

(अमील-गुजार को) कोशिश करनी चाहिए कि खेतिहार नकद भुगतान करे, वहीं फसलों में

भुगतान का विकल्प भी खुला रहे।

(v) राजस्व निर्धारित करते समय राज्य अपना हिस्सा ज्यादा से ज्यादा रखने की कोशिश

करता था। मगर स्थानीय हालात की वजह से कभी-कभी सचमुच में इतनी वसूली कर पाना संभव नहीं हो पाता था।

(vi) हर प्रांत में जुती हुई जमीन और जोतने लायक जमीन दोनों की नपाई की गई। अकबर

के शासन काल में अबुल फजल ने आइन में ऐसी जमीनों के सभी आँकड़ों को संकलित किया।

उसके बाद के बादशाहों के शासनकाल में भी जमीन की नपाई के प्रयास के प्रयास जारी रहे।

(vii) उदाहरणार्थ 1665 ई. में, औरंगजेब ने अपने राजस्व कर्मचारियों को स्पष्ट निर्देश दिया

कि हर गाँव में खेतिहरों की संख्या का सालाना हिसाब रखा जाए। इसके बावजूद सभी इलाकों की नपाई सफलतापूर्वक नहीं हुई। भारतीय उपमहाद्वीप के कई बड़े हिस्से जंगलों से घिरे हुए थे और इनकी नपाई नहीं हुई।

प्रश्न 3. आपके मुताबिक कृषि समाज में सामाजिक व आर्थिक संबंधों को प्रभावित

करने में जाति किस हद तक एक कारक थी?            [N.C.E.R.T. T.B.Q.6]

To what extent do you think caste was a factor in influencing soical and

economic relations in agrarian society ?

उत्तर : कृषि समाज के विभिन्न संबंधों को प्रभावित करने में एक कारक के रूप में

जाति की भूमिका (Role of caste as a factor in argricultural society to effects

different relations) : (1) जाति और जाति जैसे अन्य भेदभावों की वजह से खेतिहार किसान कई तरह के समूहों में बँटे थे। खेतों की जुताई करने वालों में एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की थी जो नीच समझे जाने वाले कामों में लगे थे, या फिर खेतों में मजबूरी करते थे।

(ii) यद्यपि खेती लायक जमीन की कमी नहीं थी, फिर भी कुछ जाति के लोगों को सिर्फ

नीच समझे जाने वाले काम ही दिए जाते थे। इस तरह वे गरीब रहने के लिए मजबूर थे जनगणना

तो उस वक्त नहीं होती थी, पर जो थोड़े बहुत आँकड़े और तथ्य हमारे पास हैं उनसे पता चलता

है कि गाँव की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे ही समूहों का था। इनके पास संसाधन सबसे

कम थे और ये जाति व्यवस्था की पाबंदियों से बँधे थे। इनकी हालत कमोबेश वैसी ही थी जैसी

कि आधुनिक भारत में दलितों की।

(iii) दूसरे संप्रदायों में भी ऐसे भेदभाव फैलने लगे थे। मुसलमान समुदायों के हालातखोरान

जैसे ‘नीच’ कामों से जुड़े समूह गाँव को हदों के बाहर ही रह सकते थे; इसी तरह बिहार में

मल्लाहजादाओं (शाब्दिक अर्थ, नाविकों के पुत्र) की तुलना दासों से की जा सकती थी।

(iv) समाज के निचले तबकों में जाति, गरीबी और सामाजिक हैसियत के बीच सीधा रिश्ता

था। ऐसा बीच के समूहों में नहीं था। सत्रहवीं सदी में माड़वाड़ में लिखी गई एक किताब राजपूतों

की चर्चा किसानों के रूप में करती है। इस किताब के मुताबिक जाट भी किसान थे लेकिन जाति

व्यवस्था में उनकी जगह राजपूतों के मुकाबले नीची थी।

(v) सत्रहवीं सदी में राजपूत होने का दावा वृदावन (उत्तर प्रदेश) के इलाके में गौरव समुदाय

ने भी किया, बावजूद इसके कि वे जमीन की जुताई के काम में लगे थे। पशुपालन और बागबानी

में बढ़ते मुनाफे की वजह से अहीर, गुज्जर और माली जैसी जातियाँ सामाजिक सीढ़ी में ऊपर

उठीं। पूर्वी इलाकों में, पशुपालक और मछुआरी जातियाँ, जैसे सदगोप व कैवर्त भी किसानों की

भी सामाजिक स्थिति पाने लगीं।

प्रश्न 4.सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में जंगलवासियों की जिंदगी किस तरह बदल गई?

How were the lines of forest dwellers transformed in the sixteenth and

seventeenth centuries?                      [N.C.E.R.T. T.B.Q.7]

उत्तर-(i) सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में अखिल भारतीय स्तर पर जंगलों के फैलाव का

औसत निकालना लगभग असंभव है, फिर भी समसामयिक स्रोतों से मिली जानकारी के आधार

पर ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह औसत करीब-करीब 40 फीसदी था।

(ii) समसामयिक रचनाएँ जंगल में रहने वालों के लिए जगली शब्द का इस्तेमाल करती है।

लेकिन जंगली होने का मतलब सभ्यता का न होना बिलकुल नहीं था, वैसे आजकल इस शब्द

का प्रचलित अर्थ यही है। उन दिनों इस शब्द का इस्तेमाल ऐसे लोगों के लिए होता था जिनका

गुजारा जंगल के उत्पादों, शिकार और स्थानांतरीय खेती से होता था। ये काम मौसम के मुताबिक होते थे।

(iii) उदाहरण के तौर पर भीलों में, बसंत के मौसम में जंगल के उत्पाद इकट्ठा किए जाते,

गर्मियों में मछली पकड़ी जाती, मानसून के महीनों में खेती की जाती, और शरद व जाड़े के महीनों में शिकार किया जाता था। यह सिलसिला लगातार गतिशीलता की बुनियाद पर खड़ा था और इस बुनियाद को मजबूत भी करता था। लगातार एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहना इन जंगलों में रहने वाले कबीलों की एक खासियत थी।

(iv) जहाँ तक राज्य का सवाल है, उसके लिए जंगल उलट फेर वाला इलाका था । बदमाशों

को शरण देने वाला अड्डा (मवास)। एक बार फिर हम बाबर की ओर देखते हैं जो कहता

है,कि जंगल एक ऐसा रक्षाकवच था “जिसके पीछे परगना के लोग कड़े विद्रोही हो जाते थे और

कर अदा करने से मुकर जाते थे।”

(v) जंगल में बाहरी ताकतें कई तरह से घुसती थीं, मसलन, राज्य को सेना के लिए हाथियों

की जरूरत होती थी। इसलिए, जंगलवासियों से ली जाने वाली पेशकश में अक्सर हाथी भी

शामिल होते थे।

(vi) मुगल राजनीतिक विचारधारा में गरीबों और अमीरों सहित सबके लिए, न्याय करने का

राज्य के गहरे सरोकार का एक लक्षण था-शिकार अभियान । दरबारी इतिहासकारों की मानें,

तो शिकार अभियान के नाम पर बादशाह अपने विशाल साम्राज्य के कोने-कोने का दौरा करता

था और इस तरह अलग-अलग इलाकों के लोगों की समस्याओं और शिकायतों पर व्यक्तिगत

रूप से गौर करता था।

(vii) दरबारी कलाकारों के चित्रों में शिकार का विषय बार-बार आता था। इन चित्रों में

चित्रकार अक्सर छोटा-सा एक ऐसा दृश्य डाल देते थे जो सद्भावनापूर्ण शासन का संकेत देता था।

(viii) वाणिज्यिक खेती का असर, बाहरी कारक के रूप में, जंगलवासियों की जिंदगी पर

भी पड़ता था। जंगल के उत्पाद-जैसे शहद, मधुमोम और लाक की बहुत माँग थी। लाक

जैसी कुछ वस्तुएँ तो सत्रहवीं सदी में भारत से समुद्र पार होने वाले निर्यात की मुख्य वस्तुएँ थीं।

हाथी भी पकड़े और बेचे जाते थे। व्यापार के तहत वस्तुओं की अदला-बदली भी होती थी।

कुछ कबीले भारत और अफगानिस्तान के बीच होने वाले जमीनी व्यापार में लगे थे, जैसे पंजाब

का लोहानी कबीला। वे पंजाब के गाँवों और शहरों के बीच होने वाले व्यापार में भी

हिस्सेदारी करते थे।

(ix) सामाजिक कारणों से भी जंगलवासियों के जीवन में बदलाव आए। कबीलों के भी

सरदार होते थे, बहुत कुछ ग्रामीण समुदाय के “बड़े आदमियों” की तरह । कई कबीलों के सरदार

जमींदार बन गए, कुछ तो राजा भी हो गये । ऐसे में उन्हें सेना खड़ी करने की जरूरत हुई । उन्होंने अपने ही खानदान के लोगों को सेना में भर्ती किया; या फिर अपने ही भाई-बंधुओं से सैन्य सेवा की मांँग की। सिंध इलाके की कबीलाई सेनाओं में 6000 घुड़सवार और 7000 पैदल सिपाही होते थे। असम में, अहोम राजाओं के अपने पायक होते थे। ये वे लोग थे जिन्हें जमीन के बदले सैनिक सेवा देनी पड़ती थी। अहोम राजाओं ने जंगली हाथी पकड़ने पर अपने एकाधिकार का ऐलान भी कर रखा था।

(x) कबीलाई व्यवस्था से राजतांत्रिक प्रणाली की तरह संक्रमण बहुत पहले ही शुरू हो चुका

था, लेकिन ऐसा लगता है कि सोलहवीं सदी में आकर ही यह प्रक्रिया पूरी तरह विकसित हुई।

इसकी जानकारी हमें उत्तर-पूर्वी इलाकों में कबीलाई राज्यों के बारे में आइन की बातों से मिलती

है। उदाहरण के तौर पर, सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में कोच राजाओं ने पड़ोसी कबीलों के साथ एक के बाद एक युद्ध किया और उन पर अपना कब्जा जमा लिया।

(xi) जंगल के इलाकों में नए सांस्कृतिक प्रभावों के विस्तार की भी शुरुआत हुई। कुछ

इतिहासकारों ने तो दरअसल यह भी सुझाया है कि नए बसे इलाकों के खेतिहर समुदायों ने जिस

तरह धीरे-धीरे इस्लाम को अपनाया उसमें सूफी संतों (पीर) ने एक बड़ी भूमिका अदा की थी।

प्रश्न 5. मुगल भारत में जमींदारों की भूमिका की जाँच कीजिए।

Examine the role played by Zamindars in Mughal India.

[N.C.E.R.T. T.B.Q.8]

अथवा, मुगल काल में जमींदारों की स्थिति का वर्णन कीजिए।

Explain the condition of Zamindars during Mughal Period)

[B.Exam. 2010(A),2012(A),2013 (A)]

उत्तर-मुगल भारत में जमींदारों की भूमिका (Role of Zamindars in Mughal

India): (i) कृषि उत्पादन में सीधे हिस्सेदारी नहीं करते थे। ये जमींदार थे जो अपनी जमीन के

मालिक होते थे और जिन्हें ग्रामीण समाज में ऊँची हैसियत की वजह से कुछ खास सामाजिक

और आर्थिक सुविधाएँ मिली हुई थीं । जमींदारों की बढ़ी हुई हैसियत के पीछे एक कारण जाति

था; दूसरा कारण यह था कि वे लोग राज्य को कुछ खास किस्म की सेवाएँ (खिदमत) देते थे।

(ii) जमींदारों की समृद्धि की वजह थी उनकी विस्तृत व्यक्तिगत जमीन । इन्हें मिल्कियत कहते

थे, यानी संपत्ति मिल्कियत जमीन पर जमींदार के निजी इस्तेमाल के लिए खेती होती थी। अक्सर इन जमीनों पर दिहाड़ी के मजदूर या पराधीन मजदूर काम करते थे। जमींदार अपनी मर्जी के मुताबिक इन जमीनों को बेच संकते थे, किसी और के नाम कर सकते थे या उन्हें गिरवी रख सकते थे।

(iii) जमींदारों की ताकत इस बात से भी आती थी कि वे अक्सर राज्य की ओर से कर

वसूल कर सकते थे। इसके बदले उन्हें वित्तीय मुआवजा मिलता था। सैनिक संसाधन उनकी

ताकत का एक और जरिया था। ज्यादातर जमींदारों के पास अपने किले भी थे और अपनी सैनिक टुकड़ियाँ भी जिसमें घुड़सवारों, तोपखाने और पैदल सिपाहियों के जत्थे होते थे।

(iv) इस तरह, अगर हम मुगलकालीन गाँवों में सामाजिक संबंधों की कल्पना एक पिरामिड

के रूप में करें, तो जमींदार इसके संकरे शीर्ष का हिस्सा थे।

(v) अबुल फजल इस ओर इशारा करता है कि “ऊँची जाति” के ब्राह्मण-राजपूत

गठबंधन ने ग्रामीण समाज पर पहले ही अपना ठोस नियंत्रण बना रखा था। इसमें तथाकथित

मध्यम जातियों की भी खासी नुमाइंदगी थी, जैसा कि हमने पहले देखा है, और इसी तरह कई

मुसलमान जमींदारों की भी।

(vi) समसामयिक दस्तावेजों से ऐसा लगता है कि जंग में जीत जमींदार की उत्पत्ति का

संभावित स्रोत रहा होगा। अक्सर, जमींदारी फैलाने का एक तरीका था ताकतवर सैनिक सरदारों

द्वारा कमजोर लोगों को बेदखल करना । मगर इसकी संभावना कम ही है कि किसी जमींदार को

इतने आक्रामक रुख की इजाजत राज्य देता हो जब तक कि एक राज्यादेश (सनद) के जरिये

इसको पुष्टि पहले ही नहीं कर दी गई हो।

(vii) इससे भी महत्त्वपूर्ण थी जमींदारी को पुख्ता करने की धीमी प्रक्रिया। स्रोतों में इसके

दस्तावेज भी शामिल हैं। ये कई तरीके से किया जा सकता था : नयी जमीनों को बसाकर

(जंगल-बारी), अधिकारों के हस्तांतरण के जरिये, राज्य के आदेश से, या फिर खरीद कर।

(viii) यही वे प्रक्रियाएँ थीं जिनके जरिये अपेक्षाकृत “निचली जातियों के लोग भी जमींदारों

के दर्जे में दाखिल हो सकते थे ! क्योंकि इस काल में जमींदारी धड़ल्ले से खरीदी और बेची जाती थी।

(ix) कई कारणों ने मिलकर परिवार या वंश पर आधारित जमींदारियों को पुख्ता होने का

मौका दिया। मसलन, राजपूतों और जाटों ने ऐसी रणनीति अपनाकर उत्तर भारत में जमीन की

बड़ी-बड़ी पट्टियों पर अपना नियंत्रण पुख्ता किया। इसी तरह मध्य और दक्षिण-पश्चिम बंगाल

में किसान-पशुचारियों (जैसे, सदगोप) ने ताकतवर जमींदारियाँ खड़ी कीं।

(x) जमींदारों ने खेती लायक जमीनों को बसाने में अगुआई की और खेतिहरों को खेती के

साजो-सामान व उधार देकर उन्हें वहाँ बसने में भी मदद की। जमींदारी की खरीद-फरोख्त से

गाँवों के मौद्रीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई। इसके अलावा, जमींदार अपनी मिल्कियत की जमीनों की फसल भी बेचते थे। ऐसे सबूत हैं जो दिखाते हैं कि जमींदार अक्सर बाजार (हाट) स्थापित करते थे जहाँ किसान भी अपनी फसलें बेचने आते थे।

(xi) यद्यपि इसमें कोई शक नहीं कि जमींदार शोषण करने वाला तबका था, लेकिन किसानों

से उनके रिश्तों में पारस्परिकता, पैतृकवाद और संरक्षण का पुट था। दो पहलू इस बात की पुष्टि

करते हैं। एक तो ये कि भक्ति संतों ने जहाँ बड़ी बेबाकी से जातिगत और दूसरी किस्मों के

अत्याचारों की निंदा की। वहीं उन्होंने जमींदारों को (या फिर, दिलचस्प बात है, साहूकारों को)

किसानों के शोषक या उन पर अत्याचार करने वाले के रूप में नहीं दिखाया। आमतौर पर राज्य

का राजस्व अधिकारी ही उनके गुस्से का निशाना बना । दूसरे, सत्रहवीं सदी में भारी संख्या में

कृषि विद्रोह हुए और उनमें राज्य के खिलाफ जमींदारों को अक्सर किसानों का समर्थन मिला।

प्रश्न 6. पंचायत और गाँव का मुखिया किस तरह से ग्रामीण समाज का नियमन करते

थे? विवेचना कीजिए।                                          [N.C.E.R.T. T.B.Q.9]

Discuss the ways in which panchayats and village headmen regulated

rural society.

उत्तर-ग्रामीण समाज का पंचायत और मुखिया द्वारा निगन (Regulation of Rural

society by Panchayat and head of the village):

(i) पंचायत (Panchayat) : गाँव की पंचायत से बुजुर्गों का जमावाड़ा होता था। आमतौर

पर वे गाँव के महत्त्वपूर्ण लोग हुआ करते थे जिनके पास अपनी संपत्ति के पुश्तैनी अधिकार होते

थे। जिन गाँवों में कई जातियों के लोग रहते थे, वहाँ अक्सर पंचायत में भी विवि ता पाई जाती थी।

(ii) अल्पतंत्र (Aristocracy) : यह एक ऐसा अल्पतंत्र था जिसमें गाँव के अलग-अलग

संप्रदायों और जातियों की नुमाइंदगी होती थी। फिर भी इसकी संभावना कम ही है कि छोटे-मोटे

और ‘नीच’ काम करने वाले खेतिहर मजदूरों के लिए इसमें कोई जगह होती होगी। पंचायत का

फैसला गाँव में सबको मानना पड़ता था।

(iii) मुखिया या मुकद्दम (Head of the Village) : पंचायत का सरदार एक मुखिया होता

था जिसे मुकद्दम या मंडल कहते थे। कुछ स्रोतों से ऐसा लगता है कि मुखिया का चुनाव गाँव

के बुजुर्गों की आम सहमति से होता था और इस चुनाव के बाद उन्हें इसकी मंजूरी जमींदार से

लेनी पड़ती थी।

(iv) कार्यकाल (Tenure): मुखिया अपने ओहदे पर तभी तक बना रहता था जब तक गाँव

के बुजुर्गों को उस पर भरोसा था। ऐसा नहीं होने पर बुजुर्ग उसे बर्खास्त कर सकते थे। गाँव

के आमदनी व खर्चे का हिसाब-किताब अपनी निगरानी में बनवाना मुखिया का मुख्य काम था

और इसमें पंचायत का पटवारी उसकी मदद करता था।

(v) खर्चा (व्यय) (Expenditure) : पंचायत का खर्चा गाँव के उस आम खजाने से

चलता था जिसमें हर व्यक्ति अपना योगदान देता था। इस खजाने से उन कर अधिकारियों की

खातिरदारी का खर्चा भी किया जाता था जो समय-समय पर गाँव का दौरा किया करते थे। दूसरी

ओर, इस कोष का इस्तेमाल बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपदाओं से निपटने के लिए भी होता था और

ऐसे सामुदायिक कार्यों के लिए भी जो किसान खुद नहीं कर सकते थे, जैसे कि मिट्टी के

छोटे-मोटे बाँध बनाना या नहर खोदना ।

(vi) कार्य तथा उत्तरदायित्व (Functions and Responsibilities) : पंचायत का एक

बड़ा काम यह तसल्ली करना था कि गाँव में रहने वाले अलग-अलग समुदायों के लोग अपनी

जाति की हदों के अंदर रहें। पूर्वी भारत में सभी शादियाँ मंडल की मौजूदगी में होती थीं। यूँ

कहा जा सकता है कि “जाति की अवहेलना रोकने के लिए” लोगों के आचरण पर नजर रखना

गाँव के मुखिया की जिम्मेदारियों में से एक था।

(vii) आय के स्रोत (Sources of Income) : पंचायतों को जुर्माना लगाने और समुदाय से

निष्कासित करने जैसे ज्यादा गंभीर दंड देने के अधिकार थे। समुदाय से बाहर निकालना एक

कड़ा कदम था जो एक सीमित समय के लिए लागू किया जाता था। इसके तहत दंडित व्यक्ति

को (दिए हुए समय के लिए) गाँव छोड़ना पड़ता था। इस दौरान बह अपनी जाति और पेशे

से हाथ धो बैठता था। ऐसी नीतियों का मकसद जातिगत रिवाजों की अवहेलना रोकना था।

(viii) जातिगत पंचायतें (Castes ‘Panchayats’): ग्राम पंचायत के अलावा गाँव में हर

जाति की अपनी पंचायत होती थी। समाज में ये पंचायतें काफी ताकतवर होती थीं। राजस्थान

में जाति पंचायतें अलग-अलग जातियों के लोगों के बीच दीवानी के झगड़ों का निपटारा करती

थीं। वे जमीन से जुड़े दावेदारियों के झगड़े सुलझाती थीं; यह तय करती थीं कि शादियाँ जातिगत

मानदंडों के मुताबिक हो रही हैं या नहीं, और यह भी कि गाँव के आयोजन में किसको किसके

ऊपर तरजीह दी जाएगी। कर्मकांडीय वर्चस्व किस क्रम में होगा। फौजदारी न्याय को छोड़ दें

तो ज्यादातर मामलों में राज्य जाति पंचायत के फैसलों को मानता था।

(ix) पश्चिम भारत : खासकर राजस्थान और महराष्ट्र जैसे प्रांतों के संकलित दस्तावेजों

में ऐसी कई अर्जियाँ हैं जिनमें पंचायत से “ऊँची” जातियों या राज्य के अधिकारियों के खिलाफ

जबरन कर उगाही या बेगार वसूली की शिकायत की गई है।

(x) आमतौर पर यह अर्जियाँ ग्रामीण समुदाय के सबसे निचले तबके के लोग लगाते थे।

अक्सर सामूहिक तौर पर भी ऐसी अर्जियाँ दी जाती थीं। इनमें किसी जाति या संप्रदाय विशेष

के लोग संभ्रांत समूहों की उन मांगों के खिलाफ अपना विरोध जताते थे जिन्हें वे नैतिक दृष्टि

से अवैध मानते थे। उनमें एक थी बहुत ज्यादा कर की माँग क्योंकि इससे किसानों का दैनिक

गुजारा ही जोखिम में पड़ जाता था, खासकर सूखे या ऐसी दूसरी विपदाओं के दौरान । उनकी

नजरों में जिन्दा रहने के लिए न्यूनतम बुनियादी साधन उनका परंपरागत रिवाजी हक था। वे

समझते थे कि ग्राम पंचायत को इसकी सुनवाई करनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए

कि राज्य अपना नैतिक फर्ज अदा करे और न्याय करें। “निचली जाति” के किसानों और राज्य

के अधिकारियों या स्थानीय जमींदारों के बीच झगड़ों में पंचायत के फैसले अलग-अलग मामलों

में अलग-अलग हो सकते थे। अत्यधिक कर की माँगों के मामले में पंचायत अक्सर समझौते

का सुझाव देती थी।

(xi) जहाँ समझौते नहीं हो पाते थे, वहाँ किसान विरोध के ज्यादा उग्र रास्ते अपनाते थे, जैसे

कि गाँव छोड़कर भाग जाना । जोतने लायक खाली जमीन अपेक्षाकृत आसानी से उपलब्ध थी,जबकि श्रम को लेकर प्रतियोगिता थी। इस वजह से, गाँव छोड़कर भाग जान खेतिहरों के हाथ में एक बड़ा प्रभावी हथियार था।

प्रश्न 7. अकबर के भूमि सुधार, सम्बन्धी कठिनाइयों और दोषों की व्याख्या कीजिए।

उत्तर-(1) प्रस्तावना (Introduction) : अथवा अकबर द्वारा प्रारम्भ में भू-राजस्व की

वार्षिक अनुमान पद्धति को अपनाना (To Adopt anmual Guess System of Land Revenue in the beginning)-अकबर के सामने सबसे बड़ी समस्या भी भू-राजस्व व्यवस्था से संबंधित थी। शेरशाह ने ऐसी पद्धति का प्रचलन किया था जिसमें कृषि भूमि की पैमाइश की

जाती थी तथापि एक मुख्य दर तालिका (दर) निर्धारित की जाती थी जिसके आधार पर

भिन्न-भिन्न अनाजों की उत्पादकता को ध्यान में रखकर अनुमान के आधार पर लगान तय किया

जाता था। लेकिन कुछ समय बाद अनुभव किया गया कि बाजार भावों को निर्धारित करने में

भी समय लग जाता है जिससे काश्तकारों को बड़ी परेशानी होती है और फिर कीमतों का

निर्धारण शाही दरबारों के आस-पास की कीमतों पर आधारित होता था जो अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों

की कीमतों से अधिक होती थी। इससे काश्तकारों को अधिक अंश करके रूप में देना पड़ता

था। अतः हकबर ने वार्षिक अनुमान की पद्धति को कुछ सुधारों सहित फिर से लागू किया ।

कानूनगो जो परम्परागत रूप से जमींदार होते थे, तथा अन्य स्थानीय अफसरों, जो स्थानीय

परिस्थितियों व हालात से परिचित होते थे, को वास्तविक उत्पादन, खेती की स्थिति, स्थानीय

कीमतों आदि की सूचना उपलब्ध कराने का आदेश दिया गया।

कठिनाइयाँ और दोष (Problems and Defects)-

(1) लेकिन ज्यादातर कानूनगों ईमानदार थे तथा वे अक्सर वास्तविक आँकड़ों को छिपा

जाते थे।

(2) वार्षिक राजस्व निर्धारण से किसानों और राज्य को भी बहुत कठिनाई होती थी। गुजरात

से लौटने (1573 ई.) के बाद अकबर ने भू-राजस्व व्यवस्था की ओर व्यक्तिगत रूप से ध्यान

देना आरम्भ किया। पूरे उत्तर भारत में करोड़ी नाम से जाने वाला अमल नामक अधिकारी भर्ती

किए गए। उनमें से प्रत्येक को एक करोड़ ‘दाम’ (2,50,000 रुपए) वसूल करने की जिम्मेदारी

सौपी गई। साथ ही वे कानूनों द्वारा भेजे गए तथ्य (आंकड़ों) की भी जांच करते थे। अकबर

ने शीघ्र ही जाब्ता पद्धति को अपनाया जिसे कुछ लोग टोडर मला की जाब्ता प्रणाली कहते हैं।

प्रश्न 8. मुगल साम्राज्य के विभिन्न प्रकार के जमीदारों के पद, अधिकार और दायित्वों

का विवेचन कीजिए।

उत्तर-मुगल साम्राज्य में विभिन्न प्रकार के जमींदारों के पद, अधिकारी एवं दायित्व

(Posts, Rights and duties of various kinds of Zamindars in Mughal Empire):

(i) प्रथम बार जमीन जोतने वाले (Land Triller for the First Time)-अकबरकालीन

इतिहासकार अबुल फजल तथा अन्य समसामयिक लेखकों की विभिन्न कृत्यों के अध्ययन से यह

भली-भाँति स्पष्ट हो जाता है कि भारत में भूमि पर व्यक्तिगत मिल्कियत की प्रथा बड़ी पुरानी

थी। भूमि की मिल्कियत मुख्यतः उत्तराधिकार के नियमों पर निर्भर थी। लेकिन मुगल काल में

भूमि की मिल्कियत के नये नियम भी बन गये थे । परम्परा के अनुसार किसी भी जमीन का मालिक वह था जो पहली बार उस पर खेती करता था। चूँकि मध्ययुग में काफी बड़ी मात्रा में बंजर भूमि उपलब्ध थी और उत्साही. व्यक्तियों के लिए कठिन नहीं था कि वे एक नया गाँव बसा लें, आस-पास की भूमि परं कृषि आरम्भ करें और जमीन के मालिक बन जाएँ। इसी भूमि को उन्हें किसी भी पट्टे पर देने, उससे लगान वसूल करने आदि के अधिकार थे।

(ii) वंशगत अधिकार प्राप्त जमींदार (Zamindars who got Rights on heritage

basis)-स्वयं की खेती की मिल्कियत के अतिरिक्त अनेक जमींदारों को गाँवों से भू-राजस्व या

लागत प्राप्त करने का वंशगत अधिकार भी था। इसे उसका ‘तल्लुका’ या जमींदारी कहा जाता

था। लगान इकट्ठा करने के लिए जमींदारों को आमतौर पर कुल लगान का पाँच अथवा 10

प्रतिशत अंश प्राप्त होता था और कहीं-कहीं तो उसका अंश पच्चीस प्रतिशत तक था । पर जमींदार अपनी जमींदारी के अन्तर्गत आने वाली सारी जमीन का स्वामी नहीं था। खेती करने वाले लोगों से जमीन उस समय वापस नहीं ली जा सकती थी जब तक वह उसका लगान देते रहें। इस प्रकार जमीन पर जहाँ औपचारिक रूप से स्वामित्व जमींदार का था, लेकिन भूमि का व्यावहारिक स्वामित्व किसान के पास ही रहा । इन दोनों का स्वामित्व वंशगत होता था।

(iii) राजा जमींदार (Ruler Zamindars)-मुगल काल में कुछ ऐसे जमींदार भी थे जिन्हें

विख्यात इतिहासकार डॉ. सतीश चन्द्र ने राजा जमींदार कहा है । वस्तुतः ये जमींदार सामान्य

जमींदार से ऊपर स्तर के होते थे । इन्हें कहीं छोटे और कहीं बड़े इलाकों पर आधिपत्य प्राप्त

था। वे अपने अधीनस्त क्षेत्रों में शासन चलाने के लिए भी किसी सीमा तक आन्तरिक स्वतन्त्रता

का उपयोग करते थे । फारसी लेखकों ने इनके वर्ग को छोटा बताने के लिए इन्हें भी जमींदार

पुकारा है। लेकिन सच्चाई यह है कि इनकी स्थिति जमींदारों से ऊँची थी जिनका काम केवल

लगान उगाहना होता है।

(iv) सेवाओं के बदले जमीन प्राप्त करने वाले जमींदार (Zamindars who obtained

land in lien of their serices) उपर्युक्त तीन प्रकार के अलावा चौथी किस्म के जमींदार

वे होते थे जिन्हें धार्मिक नेताओं और विद्वानों के रूप में भूमि प्राप्त होती थी । वस्तुतः इन्हें मुगल

सरकार विशिष्ट गुणों एवं सेवाओं के लिए भरण-पोषण के लिए पर्याप्त भूमिदान में दे देती थी।

ऐसे भूमि अनुदानों को मुमलों की भाषा में, ‘मिल्क’ या ‘मदद-ए-मआश’ तथा राजस्थान

में ‘शासन’ कहा जाता था । यद्यपि इन अनुदानों की सैद्धान्तिक रूप से प्रत्येक सम्राट द्वारा पुनरावृत्ति होनी होती थी-परन्तु व्यवहार में ये वंशागत ही हो जाते थे । ऐसे अनुदान प्राप्त अनेक लोग सरकारी पदों पर भी नियुक्त होते थे । उदाहरणार्थ-काजी । इस तरह एक श्रेणी के जमींदारों का आधार पर सम्पूर्ण गाँवों तथा शहर दोनों से होता था । लेखक, इतिहासकार, हकीम, इत्यादि

अधिकतर इसी वर्ग में आते थे ।

उपसंहार (Conclusion)-संक्षेप में, जहाँ तक जमींदारों के अधिकारों एवं दायित्वों का

संबंध है यह कहा जा सकता है कि जमींदारों को सैद्धान्तिक रूप से प्रायः भूमि का स्वामित्व

वंशानुगत प्राप्त होता था । इनका यह उत्तरादायित्व था कि वे कृषि का विस्तार एवं सुधार करने

के लिए किसानों को प्रोत्साहित करें । प्राकृतिक विपत्तियों के समय किसानों से दूसरा लगान बड़ी

उदारता से वसूल करें। उन्हें लगान कम करने या माफ करने का भी अधिकार था । जमींदारों

को दूसरा अधिकार सेना रखने का था । प्रायः इनके पास अपनी सशस्त्र सेना होती थी और ये

आमतौर पर किलों तथा गढ़ियों में रहते थे जो शरण स्थल के साथ-साथ इनकी हैसियत का भी

प्रतीक होते थे। जमींदारों की सेना कुल मिलाकर बहुत कड़ी हो जाती थी । आइने-अकबरी के

अनुसार अकबर के राज्य में इनके पास 384,553 हाथी तथा 4260 तोंपे थीं । लेकिन क्योंकि

जमींदार एक जगह नहीं रहते थे, इसलिए सारी सेना को एक समय एक स्थान पर इकट्ठा करना

असम्भव था । इस सेना के कारण ही जमींदार वर्ग काफी शक्तिशाली वर्ग बन गया जो विभिन्न

नामों, जैसे-देशमुख, पाटिल, नायक इत्यादि से जाने जाते थे और देश के प्रत्येक हिस्से में पाये

जाते थे। इसलिए किसी भी केन्द्रीय शासन के लिए उनकी पूर्णतया उपेक्षा करना तथा उनकी शत्रुता मोल लेना आसान नहीं था ।

प्रश्न 9. अकबर की मनसबदारी व्यवस्था की विवेचना कीजिए।

(Discuss the MansabdariSystem of Akbar) [B.Exam. 2009,2013 (A)]

उत्तर-1573 ई० में भारत में मुगल सम्राट् अकबर ने मंगोलों से प्रेरणा लेकर दशमलव पद्धति

के आधार पर मनसबदारी प्रथा को चलाया।

प्रत्येक मनसबदार को दो पद ‘जात’ और ‘सवार’ दिये जाते थे। एक मनसबदार के पास

जितने सैनिक रखने होते थे, वह ‘जात’ का सूचक था। ‘सवार’ से तात्पर्य मनसबदारों को रखने

वाले घुड़सवारों की संख्या से था। जहाँगीर ने खुर्रम (शाहजहाँ) को 10000 और 5000 का

मनसब दिया। अर्थात् शाहजहाँ के पास 10000 सैनिक तथा पाँच हजार घुड़सवार थे। सबसे छोटा मनसब 10 का और बड़ा 60000 तक का था। बड़े मनसब राजकुमारों तथा राजपरिवार के सदस्यों को ही दिये जाते थे। जहाँगीर के काल में मनसबदारी व्यवस्था में दु-अश्वा (सवार पद के दुगने घोड़े), मि-आस्वा (सवाद पद के तिगने घोड़े) प्रणाली लागू हुई। हिन्दू, मुस्लिम दोनों मनसबदार हो सकते थे और इनकी नियुक्ति, पदोन्नति, पदच्युति सम्राट् द्वारा की जाती थी।

प्रश्न 10. दीन-ए-इलाही से आप क्या समझते हैं ? [B.Exam.2012(A)]

उत्तर-अकबर इतिहास में महान् की उपाधि से विभूषित है और इसकी महानता का मुख्य

कारण है, इसका विराट् व्यक्तित्व। साम्राज्य की सुदृढ़ता, साम्राज्य में शांति स्थापना तथा मानवीय

भावनाओं से उत्प्रेरित अकबर ने न सिर्फ गैर-मुसलमानों को राहत दिया, राजपूतों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किया, बल्कि एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था भी प्रदान किया। धार्मिक सामंजस्य के प्रतीक के रूप में उसका दीन-ए-इलाही प्रशसनीय है।

दीन-ए-इलाही द्वारा अकबर ने सर्व-धर्म-समभाव की भावना को उत्प्रेरित किया।

प्रश्न 11. मुगल शासक अकबर की उपलब्धियों का वर्णन करें। [B.Exam.2010 (A)]

उत्तर-राज्यारोहण के समय अकबर नाममात्र का शासक था। हुमायूँ द्वारा स्थापित साम्राज्य

छिन्न-भिन्न हो चुका था। दिल्ली और आगरा पर हेमू का आधिपत्य था। मुगल राज्य के चारों

ओर स्वतंत्र राज्य थे जो स्वेच्छा से अपना शासन चला रहे थे। उस समय मुगलवंश की स्थिति

नाजुक थी। इतिहासकार एलफिन्सटन के अनुसार, “भारतवर्ष पर शासन करनेवाले अनेक वंशों

में तैमूरलंग का वंश सर्वाधिक निर्बल और आरक्षित आधारवाला था।”

अकबर की विजयों का विवरण निम्न प्रकार है:

दिल्ली, आगरा तथा पंजाब : सबसे पहले अकबर ने दिल्ली के आस-पास के प्रदेशों में

अपनी शक्ति को मजबूत किया। मेवाड़ की ओर से बढ़ते हुए हेमू के पिता का दमन किया एवं

उससे राजकोष छीन लिया। उसने सिकन्दर सूर को मानकोट के दुर्ग में घेर लिया तथा उसको

अपनी अधीनता मानने के लिए मजबूर किया। इससे हिन्दुओं व अफगानों की शक्ति समाप्त हो

गयी।

अजमेर और ग्वालियर : उसने 1559 ई० में अजमेर को बिना लड़े अपने अधिकार में कर

लिया। 1559 ई० में उसने क्याखाँ को ग्वालियर को जीतने के लिए भेजा। क्याखाँ ने शीघ्र ही

ग्वालियर पर अधिकार कर लिया।

जौनपुर और चुनार : 1561 ई० में जब अकबर मालवा में आदम खाँ को दण्ड देने गया

था, स्वर्गीय मुहम्मद आदिलशाह सूर के बेटे शेर खाँ ने एक बड़ी फौज लेकर मुगल राज्य के

प्रान्त जौनपुर पर आक्रमण कर दिया, किन्तु अकबर ने तत्परता से कुमुक भेजी, जिससे वहाँ के

प्रान्तपति खानजमा ने शेर खाँ को परास्त कर दिया। इसके बाद अगस्त, 1561 ई० में आसफ खाँ को चुनारगढ़ की विजय के लिए भेजा गया। चुनारगढ़ को जीतकर मुगल राज्य में मिलाकर साम्राज्य के पूर्वी रक्षक दुर्ग के रूप में परिणत कर दिया गया।

जयपुर : तटवर्ती राज्यों द्वारा पीड़ित जयपुर नरेश, 1562 ई० में, जब सम्राट अकबर, प्रथम

बार अजमेर में शेख मुईउद्दीन चिश्ती की दरगाह पर, यात्रा करने जा रहा था, अकबर की शरण

में आ गया। उसने अपनी पुत्री, जिसके गर्भ से युवराज सलीम ने जन्म लिया, का विवाह स्वेच्छा

से अकबर के साथ कर दिया तथा अपने पुत्र भगवान दास तथा पौत्र मानसिंह को सम्राट की सेवा

में उपस्थित किया। यहाँ पर अकबर ने कूटनीतिज्ञता का परिचय दिया। राजा के साथ उदारता का

व्यवहार किया गया। उसके पुत्र तथा पौत्र को साम्राज्य में उच्च तथा प्रतिष्ठित पद प्रदान करके

उस जाति को, जो उसकी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति में बाधक सिद्ध होती, अपना भक्त बनाकर

अपनी साम्राज्यवादी नीति का साधन बना लिया।

मैर्था : अजमेर से 20 कोस की दूरी पर मैर्था का किला था। यहाँ का रक्षक मारवाड़ के

शासक मालदेव का सेनानायक जयमल था। अकबर की अजमेर यात्रा के पीछे राजनीतिक उद्देश्य भी था। अतः 1562 ई० में शरफुद्दीन के नेतृत्व में इस किले पर आक्रमण किया गया। किले पर मुगलों का अधिकार हो गया। यह कहा जाता है कि “किले में अलाउद्दीन खिलजी के अशर्फियों से भरे हुए सौ बड़े-बड़े कलश भी मिले थे।”

जोधपुर तथा बीकानेर : जब अकबर की विजयों के विषय में अन्य राजपूत राजाओं ने सुना,

तो बहुत-से राजपूतों ने उसकी शक्ति से भयभीत होकर आत्मसमर्पण कर दिया। नवम्बर, 1570

ई० में अकबर नागौर गया जहाँ बीकानेर तथा जोधपुर के राजाओं ने उसकी अधीनता स्वीकार

कर ली। इस समय बंगाल के शासक कल्याण मल और जोधपुर का शासक चन्द्रसेन था। जैसलमेर के राजा ने भी बीकानेर और जोधपुर के राजाओं का अनुसरण किया। इस प्रकार राजपूताना के बहुत बड़े भाग पर अकबर का अधिकार हो गया।

प्रश्न 12. अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक सुधारों की आलोचनात्मक विवेचना करें।

[B.Exam.2011 (A)]

उत्तर-अलाउद्दीन ने न केवल अपने राज्य का विस्तार किया वरन उसको एक प्रभावशाली

शासनतंत्र भी प्रदान किया। अन्य मध्यकालीन शासकों के समान वह प्रशासनिक तंत्र का शिखर

था। वह सेना का महासेनापति और सर्वोच्च न्यायिक तथा कार्यकारिणी शक्ति था। उसने विशाल

सेना की सहायता से राज्य के सभी स्वेच्छाचारी तत्वों का दमन कर पूर्ण सत्ता अपने हाथों में केन्द्रित कर ली।

उसने पुराने अमीरों का दमन किया और वह उलेमा के आदेशों से स्वतंत्र रहा। इस प्रकार

वे दोनों ही वर्ग जो सत्ता पर नियंत्रण रखते थे, अलाउद्दीन के समय प्रभावशाली नहीं रहे। उसकी

सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि उसने राजनीति को धर्म से प्रभावित होने नहीं दिया।

उसके मंत्रियों की स्थिति सचिवों और क्लर्कों जैसी थी जो उसकी आज्ञाओं का पालन करते

और प्रशासन के कार्यों को देखते थे। वह अपनी इच्छानुसौर उनकी सलाह लेता था। परंतु उसे

मानने के लिए वह बाध्य नहीं था। प्रान्तों के सूबेदार अथवा मुक्ता भी पहले से अधिक केन्द्रीय

नियंत्रण में थे। सल्तनत में कोई भी स्वयं को सुल्तान का समकक्ष नहीं मान सकता था।

अलाउद्दीन ने अनेक मंत्रियों की नियुक्ति करते हुए भी वास्तविक सत्ता अपने हाथों में रखी।

मंत्री केवल उसे परामर्श देने व दैनिक राज्य-कार्य संभालने के लिए थे। राज्य में केवल चार

महत्वपूर्ण मंत्री ही ऐसे चार स्तम्भ थे- जिनपर प्रशासन रूपी महल आधारित था।

वे थे : (1) दीवाने-वजारत (2) दीवाने-आरिज (3) दीवाने-इंशा (4) दीवाने-रसालत।

दीवाने-वजारत का मुख्य अधिकारी वजीर था। वजीर राजस्व के एकत्रीकरण और प्रान्तीय सरकार के दीवानी पक्ष के प्रशासन में सुल्तान के प्रति उत्तरदायी था। सैनिक पक्ष में वह शाही सेनाओं का नेतृत्व करता था।

वजीर के बाद दूसरा अधिकारी था दीवाने-आरिज या सैन्य मंत्री। सेना की भर्ती करना, वेतन

बाँटना, सेना की साजसज्जा और दक्षता की देखरेख करना, सेना के निरीक्षण की व्यवस्था करना और युद्ध के समय सेनापति के साथ जाना उनका कर्तव्य था।

दीवाने इंशा का प्रमुख कार्य शाही आदेशों और पत्रों का प्रारूप बनाना, प्रांतपति और स्थानीय

पदाधिकारियों से पत्र व्यवहार करना और सरकारी बातों का लेखा जोखा रखना था।

दीवाने-रसालत, पड़ोसी दरबारों को भेजे जाने वाले पत्रों का प्रारूप तैयार करता था और

विदेश जानेवाले तथा विदेशों से आने वाले राजदूतों के साथ सम्पर्क रखता था।

न्याय प्रशासन का महत्वपूर्ण स्रोत सुल्तान था। वह अपील की उच्चतम अदालत था। सुलतान

के बाद सप्र-ए-जहाँ काजी उलकुजात होता था। न्यायपालिका सामान्यतः निष्पक्ष थी और वह

स्वयं अपील सुनता था।

अलाउद्दीन ने पुलिस विभाग और गुप्तचर पद्धति को कुशल और प्रभावशाली बनाया। उसने

पुलिस विभाग को ठोस रूप में संगइित किया। उसका मुख्य अधिकारी कोतवाल होता था।

कोतवाल शांति तथा कानून का रक्षक था। अलाउद्दीन ने स्वयं पुलिस विभाग में सुधार किए, नवीन पदों का सृजन किया और उनपर कुशल व्यक्तियों को नियुक्त किया। मुहतसिब जनसाधारण के आचार का रक्षक तथा देखभाल करने वाला अधिकारी था।

प्रश्न 13. कुतुबुद्दीन ऐबक की उपलब्धियों का वर्णन करें। [B.Exam. 2011 (A)]

उत्तर-1205-06 ई० में मुहम्मद गोरी जब खोखरों को हराकर गजनी वापस लौट रहा था

तो उसने औपचारिक रूप में ऐबक को अपने भारतीय ठिकानों का प्रतिनिधि नियुक्त किया। गोरी

की आकस्मिक मृत्यु के कारण उत्तराधिकारी के संबंध में निर्णय नहीं हो पाया था।

ऐबक औपचारिक रूप से 25 जून 1206 ई० में गद्दी पर बैठा परन्तु उसकी सत्ता को

औपचारिक मान्यता और संभवतः नियुक्ति पद.तीन वर्षों बाद मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी के वैध

उत्तराधिकारी, महमूद से प्राप्त हुआ। अत: उन वर्षों में उसे मलिक या सिपाहसलार की पदवी ही

प्राप्त थी।

ऐबक ने अपने शासनकाल में नए प्रदेश जीतने की अपेक्षा जीते हुए प्रदेशों की सुरक्षा की

ओर ध्यान दिया। राज्य की अनिश्चित सीमाओं को निश्चित रूप देना और उसके प्रशासनिक

संगठन पर ध्यान देना वह अधिक उचित समझता था।

1208 से 1210 तक वह स्वतंत्र भारतीय राज्य का औपचारिक अधिकारप्राप्त शासक था।

वह एक कुशल सैनिक था। ऐबक की उपलब्धियाँ एक विजेता की थी किन्तु वह अपने दिल और

दिमाग की विशेषताओं के लिए समकालीन इतिहासकारों द्वारा सराहा भी गया है, न्यायप्रियता और सुरक्षा की भावना उसके राज्य की विशेषता थी। जनता को शांति और समृद्धि देना उसने अपना कर्तव्य समझा। युद्ध की स्थिति खत्म होने के बाद उसने जनता के हितों की रक्षा की और उनको समृद्धि की ओर ध्यान उसकी उदारता के कारण उसे ‘लाख बख्श’ कहा गया। 1210 ई०

में घोड़े से गिरकर ऐबक की मृत्यु हो गई और वह अपने कार्यों को अधूरा छोड़ गया। उसने

कुतुबमीनार का कार्य आरंभ करवाया था।

★★★

मुगल कालीन भारत में किस प्रकार की फसलें अधिक उगाई जाती है और क्यों?

मुग़ल काल में, गन्ना सर्वाधिक उगाई जाने वाली नकदी फसलों में शामिल था और बंगाल में सर्वोत्तम गुणवत्ता के गन्ने की फसल उगाई जाती थी । पुर्तगालियों द्वारा प्रारंभ किए गया था और इसके बाद की अवधि में इसका बहुत व्यापक पैमाने पर उत्पादन होने लगा।

मुगल काल में लोगों का प्रमुख व्यवसाय क्या है?

मुग़ल काल में लोगो की प्रमुख वेवसाय मसाले और सूती कपड़ो का व्यापार करना था

व्यावसायिक खेती क्या है?

उत्तर प्रदेश के रायबरेली और बाराबंकी जिलों में लगभग 60 प्रतिशत आबादी छोटे भूमि धारकों की है। यहां की मुख्य फसल गेहूं और धान की उत्पादकता और लाभप्रदता निम्न है। इसके अलावा आजीविका के अन्य अवसर भी उपलब्ध नहीं है।

मुगलकालीन भारत में कृषि और कृषकों की क्या स्थिति थी?

प्राचीन काल की भाँति मुगलकाल में भी भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी। मुगल साम्राज्य की लगभग 85 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती थी, जिसमें कृषि पर आधारित वर्ग की बहुतायत थी। लघु उद्योग एवं व्यापार आदि की अच्छी वृद्धि के बाद भी तत्कालीन आर्थिक गतिविधियों में कृषि कार्य सर्वोपरि था।