इंसान का भाग्य कौन लिखता है? - insaan ka bhaagy kaun likhata hai?

हम अक्सर ये एक दूसरे को ये कहते या सुनते आये है, कि भाग्य की लिखनी कोई मिटा नहीं सकता,मतलब जो भाग्य में है वो होकर रहेगा ।
पर हम ये नहीं सोचते की भाग्य है क्या?भाग्य बनता कैसे है? ईश्वर कैसे ये दिमाग में लाता है क़ि इसके भाग्य में राज्य हो या दरिद्र हो?ईश्वर भी कुछ सोच रखकर ही भाग्य बनाता होगा, वो भाग्य बनाते समय किस चीज को प्रधानता देता होगा?जाहिर सी बात है वो है हमारा कर्म।
ईश्वर कर्म के हिसाब से भाग्य बना देता है,पूर्व जन्मों में या पूर्व समय में हमने जो भी कर्म किये, उन्हीं सब का फल मिलकर तो भाग्य रूप में हमारे सामने आता है। भाग्य हमारे पूर्व कर्म संस्कारों का ही तो नाम है,और इनके बारे में एकमात्र सच्चाई यही है कि वह बीत चुके हैं। अब उन्हें बदला नहीं जा सकता। लेकिन अपने वर्तमान कर्म तो हम चुन ही सकते हैं। यह समझना कोई मुश्किल नहीं कि भूत पर वर्तमान हमेशा ही भारी रहेगा क्योंकि भूत तो जैसे का तैसा रहेगा लेकिन वर्तमान को हम अपनी इच्छा और अपनी हिम्मत से अपने अनुसार ढाल सकते हैं।

हमारे पूर्व कर्म संस्कार जिन्हें हम भाग्य भी कह लेते हैं, मात्र परि​स्थितियों का निर्माण करते हैं। जैसे हमारे जन्म का देश-काल, घर-व्यापार, शरीर-स्वास्थ्य आदि हमारी इच्छा से नहीं मिलता लेकिन उन परिस्थितियों का हम कैसे मुकाबला करते हैं, वही हमारी नियति को निर्धारित करता है। कालिदास, बोपदेव, नेपोलियन आदि कितने ही नाम गिनाये जा सकते हैं जिन्होंने अपना भाग्य, भाग्य के सहारे छोड़कर धोखा नहीं खाया, वरन् कर्म के प्रबल वेग से सुनहरे अक्षरों में लिखवाया।

वस्तुत: भाग्य तो हम सभी का एक ही है, जिसे कोई बदल नहीं सकता और वह भाग्य है कि हम सभी ने परम पद की, पूर्णता की प्राप्ति करनी है। जो कर्मयोगी हैं, पूरी दृढ़ता, हिम्मत और उत्साह से हंसते-खेलते सहज ही वहां पहुंचने का यत्न करेंगे। दूसरी ओर जो आलसी और तमोगुणी हैं, वह बचने या टालने की कोशिश करेंगे। लेकिन कब तकॽ आखिर चलना तो उन्हें भी पड़ेगा क्योंकि सचमुच भाग्य को कोई नहीं बदल सकता। हम सभी ने संघर्ष के द्वारा अपनी चेतना का विकास करना ही है, चाहे या अनचाहे। परमात्मा ने मनुष्य को इसीलिये तो सोच ने-समझने की शक्ति दी है ताकि वह अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर सही रास्ते का चुनाव कर सके और माया के चक्कर से निकल कर पूरी समझ के साथ पूर्णता के पथ पर आगे बढ़े। सुख तो स्वयं प्राप��

 पूर्णता के पथ पर आगे बढ़े। सुख तो स्वयं प्राप्ति में ही है, उधार या दान के द्वारा भोजन-धन आदि तो मिल सकता है लेकिन सुख और संतोष नहीं।

अनंतकाल से इस विषय पर बहस चली आ रही है कि कर्म महत्वपूर्ण है या भाग्य। जीवन में अगर आपको कुछ पाना है तो मेहनत तो करनी ही पड़ेगी। मंजिलें उन्हीं को मिलती है जो उसकी ओर कदम बढ़ाते हैं।

तुलसीदासजी ने भी श्रीरामचरित मानस में लिखा है- 'कर्म प्रधान विश्व करि राखा'। अर्थात युग तो कर्म का है।

इसका अर्थ यह हुआ कि हम अपना कार्य करें, फल ‍की चिंता बाद में करें। किसान जब खेत में बीज बोता है तो उसे यह नहीं पता होता कि बारिश होगी या नहीं। जमीन में से बीज से अंकुर फूटेगा या नहीं। अगर पौधे आ भी गए तो उस पर फल आएंगे या नहीं। लेकिन किसान बीजों को जमीन बोता है और फसल की चिंता ईश्वर पर छोड़ देता है। 

भाग्य का समर्थन करने वाले कहते है कि हमें जो सुख, संपत्ति, वैभव प्राप्त होता है वह भाग्य से होता है।

जब चार लोग एक समान बुद्धि और ज्ञान रखने वाले एक ही समान कार्य को करें और उनमें से सिर्फ दो को ही सफलता मिले तो हम इसे क्या कहेंगे। दो लोगों के साथ भाग्य साथ नहीं था। ऐसा एक उदाहरण हम यह दे सकते हैं दो व्यक्ति एक साथ लॉटरी का टिकट खरीदते हैं पर लगती लॉटरी एक ही व्यक्ति की है। जब दोनों ने लॉटरी खरीदने का कर्म एक साथ किया तो फल अलग-अलग क्यों?

क्योंकि सबके अपने अलग अलग कर्म है वो उसका पहले का सुनियोजित कर्म ही होता है जिसका परिणाम उसे लॉटरी के रूप में मिल जाता है।कभी कभी हम बहुत मेहनत के बाद भी सफल नहीं होते हमे लगता है कि हमारी किस्मत ख़राब थी पर ऐसा होता ही नही उसे अपने कर्मो का परिणाम कभी न कभी मिलता ही है।हम अच्छा कर्म करे या बुरा परिणाम तो सबका आता है।ये सच है कि किसी किसी को अपने जीवन में संघर्ष बहुत करना पड़ता है परंतु सफल ज्यादा नहीं हो पाते और ऐसा इस लिए होता है क्योंकि संघर्ष करने वाले व्यक्ति के सामने एक बना बनाया रास्ता नहीं होता उसे अपनी मंजिल तक जाने के लिए रास्ता बनाना पड़ता है।अपने खुद के लिए रास्ता बनाना आसान काम नहीं हित ।उसके लिए संघर्ष करना ही पड़ता है।सही मायने में विजयी वही है जो अपना रास्ता खुद बनाकर आगे बढ़ा हो।बने बनाये रस्ते पे चलना बहुत आसान है।आसानी से सफल होने वाले व्यक्तियों में उनका खुद  का कोई योगदान नहीं होता।वो दुसरो के कर्मो का सहारे जीत हासिल करते है।हम किसी भी पैसे वालो को देख ले जो राज कर रहे है उनमें या तो उनका संघर्ष या या तो उनके अपनों का संघर्ष है।पर बिना किसी संघर्ष के कोई आगे नहीं बढ़ा है।अंत में यही कहा जा सकता है कि भाग्य भी उन लोगों का साथ देता है जो कर्म करते हैं। किसी खुरदरे पत्थर को चिकना बनाने के लिए हमें उसे रोज घिसना पड़ेगा। ऐसा ही जिंदगी में समझें हम जिस भी क्षेत्र में हों, स्तर पर हों हम अपना कर्म करते रहें बिना फल की चिंता किए। जैसे परीक्षा देने वाले विद्यार्थी परीक्षा देने के बाद उसके परिणाम का इंतजार करते हैं। 

यह अंतहीन बहस है कि भाग्य बड़ा है या कर्म। इसके बारे में सबके पास अपने अपने तर्क हैं,

कहते हैं अच्छे कर्मों का फल भी अच्छा होता है। लेकिन बहुधा ऐसा देखा गया है की हमें अपने सत्कर्मों का पूरा पूरा फल नहीं मिलता। किसी की मदद की तो बदनामी मिली, कभी ज़हीन बुद्धि से उच्च शिक्षा हासिल की तो उम्र बीत गयी चौके चूल्हे में। कोई देश की आजादी के लिए लड़ता है , तो फांसी मिलती है । चार दिन भी सुकून के उसके नसीब में नहीं। जबकि रिश्वतखोर और कामचोर ऐश से रहते हैं। कभी कोई जी-जान से किसी बड़े काम को अंजाम देता है तो श्रेय कोई और ले उड़ता है। कभी खूनी बेधड़क घूमता है जबकि निर्दोष व्यक्ति दुसरे की गुनाह की सजा भुगतता है। तो फिर कर्म और भाग्य का रिश्ता क्या है ?

मेरे विचार से यदि १००% कर्म किया जाए , किन्तु यदि भाग्य साथ नहीं है तो कर्म व्यथा जाएगा। लेकिन यदि कर्म कुछ न भी करें , तो भी यदि भाग्य प्रबल है तो व्यक्ति को , धन , दौलत, अच्छी नौकरी , चाहने वाले और शोहरत सब कुछ छप्पर फाड़ कर मिल जाता है ।आप ने सुना भी होगा कि करनी और कथनी में अंतर होता है। इस का मतलब यह है। कि आप कर्म तो करते नही और बोलते रहते हो। जैसे कई व्यक्ति कहते है। कि मै बहुत बड़ा धनवान बनना चाहता हुँ। लेकिन वह कर्म करने के लिए आगे नहीं बढ़ता। क्योकि वह व्यक्ति जो धनवान बनने की सोचता है। लेकिन धनवान बनने वाले कर्म (कार्य ) नहीं करता तो कैसे वह धनवान बनेगा।

 मेहनत करने से कर्म करने से ही कार्य पूर्ण होता है। कार्यो में सफलता प्राप्त होती है। कार्यीणि न मनोरथ न कि केवल मन से सोचने पर कि मै एेसा करूगा। कि मै एक दिन सफल व्यक्ति बनूगा। मेरा जीवन सुख समृद्धि सफलता से व्यतीत होगा। केवल हमें मन के घोड़े नही दौड़ाने चाहिए। सुख समृद्धि सफलता रूपी जीवन व्यतीत करने के लिए कर्म करना जरूरी है।

शेर को जब भूख लगती है । तो उस को भी उठ कर जंगल मे हिरण की खोज करने के लिए जंगल में घूमना भटकना पड़ता है। और जब उसकी नजर हिरण में पढती है। तो उस शेर को हिरण का शिकार करने के लिए उसके पीछे बहुत ही ताकत से भागना पढता है। और बाद में उसका शिकार करके अपनी भूख को शांत करता है। आप देखिये एक शेर को भी अपनी भूख को शांत करने के लिए कितनी मेहनत करनी पडती है।

कर्म करना हमारे हाथ में है। और भाग्य उस परम पिता परमात्मा के हाथ में है। कि उसकी क्या इच्छा वह आप की मेहनत को सफल करे या असफल करें । यह वही जान सकता है। इसके बारे में जानना बहुत ही असम्भव है। जन्म लेने से लेकर मृत्यू तक मनुष्य कर्मों के बंधन में फसा रहता है। और भाग्य से उसको यश, लाभ, हानि जय, विजय प्राप्त होती है। सोचना,विचार करना इंसान के हाथ में है। लेकिन सफलता मिलनी इंसान के हाथ में नहीं है।

आप लोगों ने कही परिवारों में देखा होगा। कि एक रहिश अमीर घर में जन्म लेने वाला बच्चा जिसका बहुत प्यार से लालन, पोषण बहुत ढंग से उसे पढाया लिखाया जाता है। हर प्रकार की उसकी परिवार, स्कूल, खेल कूद की अवश्यकता अनुसार समान उसको दीया जाता है। लेकिन फिर भी वह परिवार अपनी संतान को पढाई में सफलता प्राप्त नहीं करवा पाता। क्या उसके परिवार से कोई कमी रह गई। नही यह उसका भाग्य है। क्योकि विद्या प्रारब्ध ( भाग्य ) से प्राप्त होती है। संतान, विवाह, जन्म, मृत्यू, भोजन, राजयोग ये सब भाग्य से मिलत है। जब कोई भी मनुष्य संतान उत्पति के लिए कर्म करता है। तो उसे संतान की प्राप्ति क्यो नही होती। कई परिवारों में देखा गया है। कि उन्हे लड़के की जरूरत है।तो उन्हे लड़कियां ही लड़कियां पैदा हो रही है। और जिन्हें लड़की चाहिए। उन्हें लड़के ही लड़के पैदा हो रहे है। आप इस को क्या कहेंगे। क्या कर्म में कमी रह गई या भाग्य साथ नही दे रहा। संतान की प्राप्ति हमेशा भाग्य से प्राप्त होती है। यह सब लिखित है। कि आप की संतान भविष्य में आप के मान की वृद्धि करेगी। या आप के मान -सम्मान प्रोपर्टी को ( का नाश करेगी ) कम करेगी। विवाह भी आप बहुत सोच समझ के करते है। लेकिन फिर भी आप का विवाह जीवन सफल नहीं हो पाता। जहाँ आप का विवाह होना निश्चित था। उस परिवार में न होकर दूसरे परिवार में क्यों होता है। क्योकि विधि का विधान यही था। क्योकि �

क्योकि विधि का विधान यही था। क्योकि आप के लिए लड़का, लड़की पहले से निश्चित है। कि आप का गृहस्थ जीवन किसके साथ व्यतीत होगा। चाहे हस के हो रो के हो, प्रेम पूर्वक हो चाहे क्लेश कर के व्यतीत हो उसी परिवार में  होगा और कब तक होगा यह भी निश्चित है। इस प्रकार जन्म मृत्यू भी निश्चित है। कि किस का जन्म किस परिवार धनवान के यहाँ या निर्धन के यहाँ, किस स्थान में ओर मृत्यू किस स्थान में होगी। और कब होगी। यह सब भी निश्चित है। आप ने किस समय कहाँ का भोजन करना है। यह भी निश्चित है। और भाग्य में राजा बनना न बनना भी निश्चित है। राजयोग सरकारी नौकरी मतदान में जीतना न जीतना निश्चित है। ये सब जो आप को बताया गया है। ये सब विधि का विधान है। इस सुख को न ही आप से कोई  छीन सकता है। और न ही आप को कोई भी इस प्रकार का दुख दे सकता है।

 जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं, अहंकार के प्रभाव से मोह-ग्रस्त होकर अज्ञानी मनुष्य स्वयं को कर्ता समझता है।

हमने संतो के मुख से सुना है और शास्त्रों में पढ़ा भी है कि हमारे पुरूषार्थ से ही हमारा भाग्य बनता है, इस सत्य को सभी जानते हैं। क्या हमने इस सत्य को वास्तविक रूप में समझा भी हैं? 

हमारे पूर्व जीवन के कर्म के फलों को "भाग्य" कहते हैं और वर्तमान जीवन में किये गये कर्म को "पु्रूषार्थ" कहते हैं। हम प्रत्येक क्षण भाग्य को भोगते हैं और हम प्रत्येक क्षण पुरूषार्थ भी करते हैं।

हमारे ’शरीर’ के द्वारा जो क्रिया होती है वह हमारे भाग्य के अधीन होती है और हमारे ’मन’ के द्वारा जो क्रिया होती है वह हमारे स्वयं के अधीन पुरूषार्थ के रूप में होती है।

हमारे शरीर की क्रिया प्रकृति के गुणों के द्वारा स्वतः ही होती है, लेकिन मिथ्या अहंकार के कारण हम उसी को हम पुरूषार्थ समझ लेते हैं, जबकि मन की क्रिया स्वभाव के अनुरूप हमारे पुरूषार्थ द्वारा होती है।

हमारे द्वारा पूर्व जीवन में किया गया पुरूषार्थ ही हमारे वर्तमान जीवन में भाग्य के रूप परिवर्तित हुआ हैं और हमारे वर्तमान जीवन में होने वाला पुरूषार्थ हमारे अगले जीवन के भाग्य के रूप में परिवर्तित होगा।

प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है, जैसी क्रिया होती है वैसी प्रतिक्रिया होती है, क्रिया कर्म स्वरूप ’पुरुषार्थ’ होती है और प्रतिक्रिया फल के रूप में ’भाग्य’ होती है। क्रिया व्यक्ति के अधीन होती है और प्रतिक्रिया प्रकृति के गुणों के अधीन होती है। 

जब भाग्य अनुकूल होता हैं तो वर्तमान पुरूषार्थ का फल प्रत्यक्ष दिखलाई देता है, वास्तव में यह वर्तमान पुरुषार्थ का फल नहीं होता है, अहंकार के कारण व्यक्ति इसे वर्तमान पुरुषार्थ का फल समझ लेता है। 

वास्तव में सत्य यह है कि

वास्तव में सत्य यह है कि वर्तमान पुरूषार्थ से तो व्यक्ति का अगले जीवन का भाग्य निर्माण होता है। जो व्यक्ति भाग्य के भरोसे बैठकर पुरूषार्थ करने बचने का प्रयास करते है उनका अगला जीवन अत्यन्त कष्टप्रद होता है।

 शास्त्रों में मनुष्य के लिये पुरूषार्थ के चार चरण बतलायें गये हैं।

१. धर्मः- शास्त्रों में वर्णित प्रत्येक व्यक्ति के अपने "नियत कर्म यानि कर्तव्य-कर्म" देश, समय, स्थान, वर्ण और वर्णाश्रम के अनुसार करना ही "धर्म" कहलाता है, धर्म प्रत्येक व्यक्ति का अलग-अलग और निजी होता है।

२. अर्थः- किसी को भी कष्ट दिये बिना, किसी को धोखा दिये बिना आवश्यकता के अनुसार धन का संग्रह और उपयोग करना "अर्थ" कहलाता है, अर्थ को संग्रह करने का प्रयत्न आवश्यकता के अनुसार ही करना चाहिये, प्रयत्न करके आवश्यकता से अधिक प्राप्त धन से अधर्म ही होता हैं।

३. कामः- शास्त्रों के अनुसार कामनाओं की पूर्ति करने से ही सभी भौतिक कामनायें मिट पाती हैं, कामनाओं की पूर्ति में ही कामनाओं का अन्त छिपा होता है, जब सभी कर्तव्य-कर्म पूर्ण हो जाते हैं, जब केवल ईश्वर प्राप्ति की कामना ही शेष रहती है, तभी जीव भगवान की कृपा का पात्र बन पाता है।

४. मोक्षः- धर्मानुसार सभी कामनाओं का सहज भाव से अंत हो जाना ही "मोक्ष" कहलाता है, भगवान की कृपा प्राप्त होने पर ही सम्पूर्ण समर्पण के साथ ही सभी सांसारिक कामनाओं का अन्त हो पाता है, तब जीव को भगवान की अनन्य भक्ति प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।

मनुष्य अपने स्वयं के कर्म लेख से बंधा है और यह कर्म बंधन का लेख विधाता कलम से लिखित है पर इसमें विधाता की स्वेच्छाचारिता नहीं है |  बल्कि, विधाता भी मनुष्य के भाग्य (लेख) को मनुष्य के अपने कर्मों के आधार पर ही लिखते हैं |  इस प्रकार, लेख के लिखने में अर्थात नियति की रचना में तथा मनुष्य के अक्ल  व किस्मत (भाग्य) की भूमिका के सम्बन्ध में कोई विवाद नहीं है |

तात्पर्य विधाता कर्मयोग रचना के नियमों से है | इन नियमों को बनाने के लिए तों विधाता स्वतंत्र है परन्तु जब यह नियम प्रभाव में आ जाता है तों विधाता भी उन नियमों के अधीन ही है. यह उसी प्रकार है जिस प्रकार देश में विधायिका नियम-कानून बनाने के लिए स्वतंत्र है परन्तु इन नियम-कानून के प्रभाव में आने के उपरान्त वह विधायिका भी इन नियम-कानून से परे नहीं है. अतः कर्म लेख विधाता की स्वेच्छाचारिता नहीं है बल्कि वह भी नियमाधीन हो कर मनुष्य के कर्मानुसार ही अपनी कलम चलाता है

मनुष्य की विवेकशीलता मनुष्य को प्रदत्त स्वतंत्रता का द्योतक है. यह स्वतन्त्रता किसी रूप में स्वछन्द नहीं है | बल्कि यह स्वतन्त्रता उसे कर्म के चुनाव हेतु प्रदत्त है | कर्म चुनाव व्यक्ति की बौद्धिक ज्ञान व विवेकशीलता पर निर्भर है | बौद्धिकता व विवेकशीलता के आधार पर ही कर्मों की दशा और दिशा निर्धारित होती है जो की समयांतराल में कर्म बंधन के रूप में व्यक्ति के समक्ष प्रकट होता है |

यदि कोई आपको काट खाये, चोट पहुंचाए और आप उसका कुछ ना कर पाएँ, तो निश्चिंत रहें। उसे चोट तो लग के ही रहेगी। बिल्कुल, लगेगी जो आपको चोट पहुंचाएगा। उस का तो चोटिल होना निश्चित ही है। कब होगा और किसके हाथों होगा ? ये केवल ऊपरवाला (भगवान) ही जानता है। पर, होगा ज़रूर। अरे भई ! ये तो सृष्टी का नियम है - "इस हाथ से करनी, उस हाथ से भरनी।"

 प्रत्येक संसारी प्राणी कर्म शृंखला से बद्ध है । जीवों की जितनी भी क्रियायें एवं अवस्थायें हैं उनका कारण कर्म ही है ।

जीव अपने कर्मों के अनुरूप स्वयं ही अपने भाग्य को बनाता है।मनुष्य अपने भाग्य का खुद ही निर्माता है ।

हमारे ऊपर किसी भी प्रकार का संकट आता है तो हम भगवान् को कोसने लगते हैं कि भगवान ने हमारा ऐसा बुरा किया परन्तु यह बहुत भारी भूल है । भगवान् किसी का अच्छा अथवा बुरा नहीं करते उनको किसी के प्रति प्रेम अथवा द्वेष नहीं है । हमारे किये हुये अच्छे या बुरे कर्म ही हमको सुखी या दु:खी बनाते हैं । संसार अवस्था में प्रतिक्षण सभी जीव कर्मों को तथा नोकर्मों को ग्रहण करते हैं ।

शुभकर्म सोने की बेड़ी के सदृश हैं तथा अशुभ कर्म लोहे की बेड़ी के समान हैं । जैसे सोने अथवा लोहे की बेड़ी मनुष्य को बांधती है उसी प्रकार शुभ अशुभ कर्म जीव को बांधते हैं परन्तु अशुभ की अपेक्षा शुभ कर्म जीव के कल्याण मार्ग में सहायक हैं, शुभ अवस्था से शुद्ध अवस्था की प्राप्ति है अशुद्ध से नहीं, शुभ परिणाम ही आत्मा में निर्मलता लाते हैं ।

जीव को अपने किये कर्म का रस चखना ही पड़ेगा कोई चाहे कि हम सबको समान बना दें, सम्पत्तिशाली कर दें, ऊँच नीस का भेद मिटा दें, कोई भी राजा या रज्र् न रहे परन्तु इस प्रकार की तर्वâणा से कोई कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती, यदि ऐसा हो जावे तो सब जीव स्वच्छन्द बनकर मन चाहे पापों में प्रवृत्ति करेंगे उनके मन से सभी प्रकार का संकोच, लज्जा, लोकापवाद पापभीरुता आदि दोष पलायमान हो जायेंगे, क्योंकि उनको अपने कर्म का फल जो सुख दु:ख है वह तो भोगना नहीं है

 संसार के सभी जीव सुखी हों तथा शीघ्र ही संसार के आवर्तों से निकल कर अविनाशी स्थान पर पहुँच जावें। इस प्रकार परोपकार की तथा सभी जीवों के उद्धार की भावना होना आवश्यक है क्योंकि ऐसी भावना जब उत्कट रूप से होती है तभी जीव तीर्थंकर पदवी को प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हैं

जीवत्व की दृष्टि से तो सभी जीव समान हैं सभी की आत्मा अनन्त गुणों का पुञ्ज स्वरूप है, ऐसा समझ कर किन्हीं भी जीवों के प्रति वैर विरोध एवं हिंसा की भावना उत्पन्न नहीं होनी चाहिये। सभी जीव अपने समान हैं, एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव सुख एवं दु:ख का अनुभव करते हैं, ऐसा समझ कर पाप प्रवृत्ति का त्याग करना चाहिये। सब जीवों के प्रति मित्रता का भाव होना चाहिये। संसार में रहकर सब धन या जन से समान नहीं रह सकते, क्योंकि सब के कार्य पृथक््â पृथक््â हैं सब की भावना भिन्न—भिन्न हैं तदनुरूप उनके कर्म का बंध होता है और उसका फल उनको अवश्य भोगना पड़ता है । सभी जीव इस बात का अनुभव करते हैं कि एक माँ के यदि चार पुत्र हैं तो चारों का भाग्य समान नहीं है कोई सुखी है तो कोई दु:खी है, जब हम अपने घर में समानता नहीं कर सकते तो सारे विश्व के समन्वय की बात करना तो घानी में रेत पेलने के समान निस्सार है ।

 जो भी दीन दु:खी जीव हैं उनकी सब प्रकार से धनादि एवं मृदु भाषण आदि से सहायता करना परम कत्र्तव्य है, पापी जीवों को पाप से छुड़ा कर सन्मार्ग में लगाना अपना कर्तव्य है परन्तु उनके पाप के फल को कोई नहीं मिटा सकता ।

 कर्मों की गति बड़ी गहन होती है। कर्म की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं, मानव की तो बात ही क्या? जब से इस त्रिगुणात्मक ब्रह्माण्ड का आविर्भाव हुआ, उसी समय से कर्म के द्वारा सभी की उत्पत्ति होती आ रही है। समस्त जीव कर्म रूपी बीज से उत्पन्न होते हैं।

 तत्त्वों के ज्ञाता विद्वानों ने तीन प्रकार के कर्म बताए हैं–संचित, प्रारब्ध तथा वर्तमान। कर्मों का ये त्रैविध्य इस शरीर में अवश्य विद्यमान रहता है। काल के पाश में बंधे हुए समस्त जीवों को अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मों का फल निश्चित रूप से भोगना ही पड़ता है। प्रत्येक जीव का प्रारब्ध निश्चित रूप से विधि के द्वारा ही निर्मित है।

 राग, द्वेष आदि  भाव देवताओं, मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों में भी विद्यमान रहते हैं। पूर्वजन्म में किये हुए वैर तथा स्नेह के कारण ये समस्त विकार शरीर के साथ सदा संलग्न रहते हैं।

अक्सर देखा गया है कि ज्यादातर लोग कर्म से ज्यादा भाग्य में विश्वाश रखते हैं। लोग भाग्य के भरोसे यह सोचकर बैठे रहते हैं कि किश्मत में होगा तो मिलेगा। ऐसे लोग कर्म करने के बजाय भगवान के भरोसे बैठकर result की प्रतीक्षा करते हैं और उनके अनुसार परिणाम नहीं आने पर वो किसी और को दोस देते हैं। कुछ लोग तो भगवान को भी दोसी ठहराने से नहीं चूकते हैं। वहीँ कुछ लोग फल की चिन्ता किये बगैर तन-मन और धन से अपना कार्य करते हैं, उन्हें एक न एक दिन सफलता अवश्य मिलती है।

 भाग्य और कर्म का किसी विशेष वर्ग, जाति, भाषा और लिंग से नहीं, बल्कि चराचर प्राणी जगत से संबंध है। मनुष्य जैसे ही पंचतत्वों से बने इस शरीर को लेकर मां के गर्भ से बाहर निकलता है, उसका कर्म आरम्भ हो जाता है। यह कार्य तब तक चलता रहता है, जब तक इस धरती पर वह अन्तिम श्वास लेता है। इसलिए मानव जीवन को कर्मक्षेत्र कहा जाता है। मानव की जीवंतता उसके चलते रहने में, उसके कर्मशील बने रहने में ही है। इसीलिए जीवन की तुलना गाड़ी से की जाती है। इस कर्मक्षेत्र में कर्म के फल से ही जीवन में सुख-दुख आते हैं। कर्म का फल यदि सुखद हो तो सुख की अनुभूति होती है, दुखद हो, निराशाजनक हो तो दुख की अनुभूति होती है।

 लेकिन हम सबके जीवन में अक्सर ऐसा भी होता है, जब उसने कर्म अच्छा किया हो और उसका परिणाम या फल वैसा न मिला हो। कर्म के अनुकूल फल न मिलने और उसके अधिक या कम मिलने पर- दोनों ही स्थितियों में हम भाग्य का नाम लेते हैं। इसीलिए कर्मफल और भाग्य ऐसे विषय हैं, जिनके बारे में जानने के लिए हर व्यक्ति सदा आतुर रहता है। भारतीय चिन्तन कर्म को प्रधान मानता है। गीता में कृष्ण समझाते हैं, तेरा अधिकार कर्म करना है, फल पर तेरा अधिकार नहीं है। लेकिन मनुष्य अपने कर्म के आधार पर ऊंच-नीच, श्रेष्ठ-निकृष्ट, अच्छे-बुरे मनुष्य की कोटि में जाना चाहता है। यदि फल की चिन्ता नहीं करे तो फिर उसे भाग्य पर आश्रित रहना होगा, भरोसा करना होगा।

 भाग्य को ईश्वरप्रदत्त इसलिए मान लिया जाता है कि वह हमारे वर्तमान के कर्म पर आधारित नहीं होता। जब भी हमारी इच्छा के खिलाफ या इच्छा से कम या अधिक प्राप्ति होती है तो हम भाग्य को ही उसका आधार मान लेते हैं, लेकिन है वह भी कर्म का ही फल। जो दृश्य है वह कर्म और जो अदृश्य है वह भाग्य। जो दिखाई दे रहा है वह कर्म और जो नहीं दिखाई दे रहा है वह भाग्य। भारतीय चिन्तन पुनर्जन्म पर विश्वास करता है। हमने जो जन्म लिया है उसका पिछले जन्म से भी और अगले जन्म से भी सम्बन्ध होता है। अर्थात् हमारे कर्म का खाता आज भी हमारे साथ चल रहा है और जब पुनर्जन्म लेंगे तब भी वह कर्म खाता साथ चलेगा। इस आधार पर भाग्य की बात कुछ समझ आती है कि जिस तरह हमारा स्थूल धन अर्थात पूंजी चाहे वह धन के रूप में हो या वस्तु के रूप में, वह हमारे मरने से समाप्त नहीं हो जाती, इसी प्रकार हमारे कर्म का खाता भी जरूरी नहीं कि हमारे एक जन्म के साथ समाप्त हो जाए।

यही कारण है कि हम कर्म को भी प्रधान मानते हैं और भाग्य की बात भी कहते हैं। हम जैसे कर्म करेंगे वैसा ही हमारा बहीखाता होगा और उसी के आधार पर हमें इस जन्म में संचित कर्म का फल प्राप्त होगा। इस तरह हमारा भाग्य भी कर्म से ही बनता है और भाग्य के मूल में भी कर्म ही होता है। भाग्य का प्रभाव मनुष्य में ही नहीं, सभी प्राणियों में देखा जा सकता है। एक कुत्ता किसी धनवान के घर में रहता है और एक साधारण व्यक्ति के घर में। एक शेर चिड़ियाघर में रहता है और एक जंगल में। एक जानवर गुस्सैल और कटखना तथा दूसरा बेहद शांत और सीधा होता है। कर्म और भाग्य का प्रभाव आप उनके जीवन में भी देख सकते हैं।

कर्मवादी लोग कहते हैं भाग्य कुछ नहीं होता, भाग्यवादी लोग कहते हैं किस्मत में लिखा ही होता है, कर्म कुछ भी करते रहो। भाग्यवादी और कर्मवादी लोगों की यह बहस कभी खत्म नहीं हो सकती। लेकिन यह भी सत्य है कि भाग्य और कर्म दोनों के बीच एक रिश्ता जरूर है।कर्म अध्य्यन के समान है और भाग्य रिजल्ट के समान।

 कार्य-कारण का नियम एक सत्य नियम है, तो कर्मों का लेखा भी एक अमिट लेखा है, यह हिसाब पीछे से चला आता है। इस जन्म में यह हमारे हाथ में जाता है, और जब इस जन्म में हम जीवन के इस बही खाते को बंद (मृत्यु होने पर) करते हैं, तो आगे कहीं जन्म लेने पर इसी लेन-देन से अगला हिसाब शुरू करते हैं, बस एक तरह से डेबिट-क्रेडिट चलता रहता है, जब तक कि बही खाते का लेन/देन पूरी तरह से शून्य की स्थिति (मोक्ष) में नहीं पहुंच जाता। कर्मों के सिद्धांत की जटिलता सामाजिक कर्मों के संबंध में है और एक जटिलता यही है कि ये कर्म अगर कार्य कारण शंखला के परिणाम हैं। कर्म कार्य-कारण के नियम की तरह एक अंधा नियम नहीं है। यह हवा, पानी, आग या ईंट पत्थर अचेतन का नियम नहीं बल्कि चेतन का नियम है। दीवार पर ईंट फेंक कर मारेंगे तो वह अवश्य दीवार से टकराएगी, किसी इन्सान पर फेंकी जाएगी तो वह एक ही स्थान पर खड़ा रहकर चोट भी खा सकता है और अपने प्रयास से बच भी सकता है। खड़ा रहकर दीवार की तरह व्यवहार करेगा तो अचेतन के जैसा व्यवहार करेगा। एक तरफ को हट जाएगा तो चेतन के जैसा व्यवहार करेगा। खड़ा रहेगा तो अवश्यंभाविता और चक्र में फंस जाएगा, हट जाएगा तो इस चक्र से बाहर निकल जाएगा। नित्य कर्म- वे उत्तम परिशोधक कर्म हैं, जिन्हें प्रतिदिन किया जाना चाहिये। जैसे शुद्धि कर्म, उपासना परक कर्म आदि। नैमित्तक कर्म - वे कर्म हैं, जिन्हें विशिष्ट निमित्त या पर्व को ध्यान में रखकर किया जाता है जैसे विशिष्ट यज्ञ कर्मादि -अश्वमेध यज्ञ, पूर्णमासी यज्ञ (व्रत) आदि। काम्य कर्म- वे कर्म हैं जिन्हें कामना या ईच्छा के वशीभूत होकर किया जाता है। इस कामना में यह भाव भी समाहित रहता है कि कर्म का फल भी अनिवार्य रूप से मिले इसीलिये इन्हें काम्य कर्म कहा गया है। चूंकि इनमें फल की अभिलाषा जुड़ी हुयी है अतः यह कर्म ही कर्मफल के परिणाम सुख या दुख (शुभ या अशुभ) से संयोग क

 या दुख (शुभ या अशुभ) से संयोग कराने वाला कहा गया है। इसीलिए काम्य कर्मों को बंधन का कारण कहा गया है क्योंकि सुख अपनी अनुभूति के द्वारा पुनः वैसे ही सुख की अनुभूति करने वाले कर्म की ओर ले जाता है, इसी प्रकार दुख ऐसी विपरीत अनुभूति न हो इसे विरूद्ध कर्म कराने वाला बनाता है। इस प्रकार काम्य कर्म के अंतर्गत किये गये कर्म अपने दोनों ही परिणामों (सुख तथा दुःख) के द्वारा बांधते हैं इसीलिये इन्हें बंधन का कारण कहा गया है। कामना से वशीभूत कर्म करने पर फलांकाक्षा या फल की ईच्छा होती है जो कि उनके सुख-दुख परिणामों से बांधती है और यह आगे भी पुनः उसी-उसी प्रकार के सुख-दुख परिणामों को प्राप्त करने की ईच्छा या संकल्प को उत्पन्न करती है। उपर्युक्त विवचेन से स्पष्ट है कि फलों के परिणाम से आसक्ति समाप्त होना उनमें भोग की ईच्छा समाप्त होना ही सुख-दुख के परिणाम या कर्म के बंधन से छूटना है।

भाग्य का निर्माण व्यक्ति द्वारा किए गए कर्मों द्वारा ही होता है और फ़िर उसी भाग्य द्वारा प्रत्येक व्यक्ति जीवन में सुख-दु:ख भोगता है। इसे दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि जिसके श्रेष्ठ भाग्य का निर्माण होना है, वह स्व-प्रेरणा से श्रेष्ठ कर्म करने को प्रेरित होगा ही।

 इसलिए कर्मयोगी बनो, सद्कर्म करो, लेकिन भूलवश भी किस्मत की उपेक्षा कभी मत करो, अन्यथा जो होगा वह भी रूठ जायेगा। दुनिया में कर्मकांड के जितने भी विकल्प समुपस्थित हैं, वो सब सोये हुए भाग्य को जगाने के लिए ही हैं, लेकिन सब उपाय सबके लिए नहीं है। सनातन मत में नित्य पूजा और नैमित्तिक पूजा का जो विधान है, उसके पीछे का भी रहस्य यही है। प्रतिदिन संभव न हो तो सप्ताह में, पखवारे में अथवा माह में एक बार भी प्रभु भक्ति करो। कीर्तन-भजन-हवन करो। निकटवर्ती देवालयों/मंदिरों  में देव उपासना करो। यह भी संभव नहीं हो तो तीन माह, छह माह या फिर वर्ष में एक बार ही सही, लेकिन अवश्य करो। जन्म दिवस, दाम्पत्य दिवस या फिर स्थापना दिवस पर ही धार्मिक कार्य करो, लेकिन अवश्य करो। और सिर्फ इतना भर करने के बाद जो भी कर्म करोगे, उसी में आनंद की प्राप्ति होगी। कहा भी जाता है कि यदि किस्मत साथ नहीं दे तो इंसान जीती हुई बाजी भी हार जाता है।

बिना भाग्य के कर्म अधूरा है और बिना कर्म के भाग्य. अत: प्रभु का स्मरण करते हुए  कर्म करते रहो, जिससे भाग्य चमकने की सम्भावना रहे.

 हम करम योगी पुरुष है और मैनेजर भगवान, इसलिए अपने कर्मो को सही दिशा में अनवरत रखना चाहिए।बाकी का काम मैनेजर खुद सम्भाल लेगा।

 जीवन में बिना कर्म के किये हमें कुछ नहीं मिल सकता।

 इसलिए इसके महत्व को समझते हुए हमें हमेशा कर्म करते रहना चाहिए। हमारी ख़ुशी ,सफलता ,शांति ,सुकून सब कुछ अच्छे कर्म में ही निहित है। हमें जीवन में भाग्य पर निर्भर नहीं होना चाहिए। हमे अपने कर्म करते जाना चाहिए। अगर अच्छा कर्म करेंगे तो सब अच्छा ही होगा ।

 हर इंसान आज जिस किसी भी मुकाम पर है वो सिर्फ अपनी किस्मत और कर्मों के कारण ही है।" तो फिर सफल होने के लिए हम कठोर से कठोर परिश्रम करके आगे बड़े या अपनी तरफ से मेहनत करते रहे और किस्मत में जो लिखा है उसको होता हुई देखे ?

हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा था कि "इंतज़ार (किस्मत पर विश्वास) करने वालों को उतना ही मिलता है जितना कोशिश (करम) करने वाले छोड़ देते है"

 उसी प्रकार से चाणक्यजी का कहना है "मनुष्य अपने कर्मों से महान होता है, अपने जन्म से नहीं" (यहाँ जन्म से तात्पर्य है जो कुछ उसे भाग्य द्वारा मिला है), इसी तरह किसी विद्वान ने तो सफलता की परिभाषा को ही बदलते हुए कहा है कि "सफलता जीवन में मिले आपके पद, शौहरत या धन दौलत से निश्चित नहीं होती, बल्कि आपके जीवन में किये गए आपके संघर्ष (कर्म) से पता चलती है" और इस तरह से उन्होंने सफलता से भी ज्यादा महत्व जिन्दगी में किये गए कर्मों को दिया है।

 मनुष्य करम करके भाग्य को बदल सकता है या नहीं, लेकिन करम ना करके अपने भाग्य में लिखे हुए को चाह कर भी नहीं बदल सकता, मेरे कहने का मतलब है करम करना अपने हाथ में है लेकिन किस्मत में लिखे को बदलना तो वैसे भी अपने हाथ में नहीं है तो क्यों ना करम करते हुए आगे बड़े और जो अपनी किस्मत में लिखा है उसको और अच्छा बनाने की कोशिश करें अगर कर्मों से किस्मत और अच्छी बन जाती है तो ठीक, नहीं तो वो तो मिलना ही है जो किस्मत में लिखा है तो फिर हम करम करना क्यों छोड़े

अपनी जिन्दगी में जितने भी सफल आदमी हुए है उन्होंने अपने विचारों में कभी ना कभी करम करने की नसीहत जरूर दी है

 करम करने से आपको फायदा हो ना हो लेकिन ये बात तो तय है की करम करने से आपके भाग्य को कभी कोई नुक्सान नहीं होता।

ख्वाहिशो से नहीं गिरते फूल झोली में,

करम की शाखा को हिलाना पड़ता है।

कुछ नहीं होता है अँधेरे को कोसने से,

अपने हिस्से का दिया खुद ही जलाना पड़ता है"

 भाग्य या किस्मत को चमकाने के लिए इंसान न जाने कितने तरीके और उपाय करता है. लेकिन भाग्य तो सिर्फ कर्मों से ही चमकता है. इसके लिए सिर्फ अच्छे कर्म करना ही काफी नहीं है. भाग्योदय के लिए अपने आप से अच्छा व्यवहार करें. खुद का सम्मान करें.

लोगो से अच्छा व्यवहार करे।सबकी इज्जत मान सम्मान का ख्याल करे।किसी के दुःख का कारण न बने।कुछ अच्छा पाने के लिए कुछ अच्छा करना पड़ता है।सिर्फ सुभ कर्मो का फल ही सुभ मिलता है।बुरे के साथ अच्छा कभी नही होता।वो कहते ही है जब बोया पेड़ बबूल का तो आम कहा से खाये।हम जैसा करते है वैसा ही भरते है मतलब पाते है।मनुष्य का जन्म कर्म करने के लिए हुआ है न कि भाग्य के भरोसे बैठने के लिए।

इंसान का भाग्य कौन लिखता है? - insaan ka bhaagy kaun likhata hai?

मनुष्य का भाग्य कौन लिखता है?

मोनिका शर्मा मैं भाग्य हूं में जानिए कि इंसान अपने कर्मों से अपनी किस्मत खुद ही लिखता है, इसलिए अपने कर्मों का ध्यान जरूर रखना चाहिए. हमेशा अच्छे और सतकर्म करने चाहिए.

क्या भाग्य में जो लिखा होता है वही होता है?

अक्सर हमने लोगों को कहते सुना है कि जो भाग्य में लिखा होता है वही होता है. लेकिन आज मैं भाग्य हूं में एक कहानी के माध्यम से हम आपको बताएंगे कि हमारे जीवन में जो भी घटना घटित होती है, वो हमारे कर्म की वजह से होती है. हम जो कर्म करते हैं, उसी का फल हमें मिलता है.

मनुष्य का भाग्य कब बदलता है?

जो आप सोचते हैं, जो आप चाहते हैं और जैसा आप कर्म करते हैं, वैसा ही आपका भाग्य हो जाता है. हस्तरेखा विज्ञान के मुताबिक कुछ रेखाओं को छोड़ दें, तो बाकी सभी रेखाएं कर्म के अनुसार बदलती रहती हैं यानी आप कर्म करके अपने भाग्य को बदल सकते हैं.

कर्म और भाग्य में श्रेष्ठ कौन है?

इंसान के कर्म से उसका भाग्य तय होता है। इंसान को कर्म करते रहना चाहिए, क्योंकि कर्म से भाग्य बदला जा सकता है।