हरियाणा में 1857 ई. की महान क्रांति में मुख्य भूमिका निभाने वाला निम्नलिखित में से कौन सा गांव था? - hariyaana mein 1857 ee. kee mahaan kraanti mein mukhy bhoomika nibhaane vaala nimnalikhit mein se kaun sa gaanv tha?

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भारत का पहला स्वतन्त्रता संग्राम ब्रिटिशों के विरुद्ध अनेक राजनितिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सैनिकों के रोष के होने से हुआ I पहाड़ी राज्यों के लोग भारत के अन्य भागों के लोगों की तरह सक्रिय नहीं थे I बुशहर के आलावा लगभग सभी लोग और उनके शासक क्रांति के समय निष्क्रिय रहे I उनमे से कुछ ने तो क्रांति के समय ब्रिटिशों का साथ भी दिया I इनमें चंबा, बिलासपुर, बग़ल, और धामी के शासक शामिल थे I बुशहर ने ब्रिटिशों के हितों के विरुद्ध प्रतिक्रिया दी हालाँकि यह स्पष्ट नही है की इन्होने क्रन्तिकरितों की सच में सहायता की या नहीं I

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asked Apr 22 in General Knowledge by anonymous

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1857/58 का भारत का स्वाधीनता संग्राम
Indian Rebellion of 1857.jpg
1857-59 के दौरान हुये भारतीय विद्रोह के प्रमुख गुर्जर केन्द्रों: मेरठ, दिल्ली, जबलपुर, कानपुर, लखनऊ, झाँसी, वर्तमान हरियाणा(पंजाब), राजस्थान से]] और ग्वालियर को दर्शाता सन 1912 का नक्शा।
तिथि 10 मई 1857
स्थान भारत (cf. 1857)[1]
परिणाम विद्रोह का दमन,
ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत,
नियंत्रण ब्रिटिश ताज के हाथ में।
क्षेत्रीय
बदलाव
पूर्व ईस्ट इंडिया कंपनी के क्षेत्रों को मिलाकर बना भारतीय साम्राज्य, इन क्षेत्रों मे से कुछ तो स्थानीय राजाओं को लौटा दिये गये जबकि कईयों को ब्रिटिश ताज द्वारा जब्त कर लिया गया।
योद्धा
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मुग़ल साम्राज्य
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ईस्ट इंडिया कंपनी सिपाही
मंगल पाण्डेय दुगवा नरेश फैजाबाद

7 भारतीय रियासतें

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    ग्वालियर धड़े
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    अवध के अपदस्थ राजा के बेटे बिरजिस कद्र के अनुयाई
  • स्वतंत्र राज्य झांसी की अपदस्थ रानी, रानी लक्ष्मीबाई की सेना

धन सिंह कोतवाल

  • कुछ भारतीय नागरिक; मुख्यत: गुर्जर अवध के ताल्लुकेदारों (सामंती जमींदार) और ग़ाज़ियों (धर्मयोद्धा) के अनुचर।
  • कुछ भारतीय नागरिक; मुख्यत: वर्तमान हरियाणा (तत्कालीन पंजाब) के कुछ योद्धा, उत्तर भारत और मध्य भारत के कुछ धर्मयोद्धा।
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ब्रिटिश सेना

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ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाही
देशी उपद्रवी
और ईस्ट इंडिया कंपनी के ब्रिटिश सैनिक
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बंगाल प्रेसीडेंसी के ब्रिटिश नागरिक स्वयंसेवक
21 रियासतें

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    बीकानेर
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    मारवाड़
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    रामपुर
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    कपूरथला
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    नाभा
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    भोपाल रियासत
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    सिरोही
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    पटियाला
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    सिरमौर
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    अलवर
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    भरतपुर
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    बूंदी
  • जावरा
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    बीजावार
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    अजयगढ़
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    रीवा
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    केन्दुझाड़
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    हैदराबाद
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    कश्मीर

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नेपाल की राजशाही
क्षेत्र के अन्य छोटे राज्य

सेनानायक
दुगवा नरेश मंगल पाण्डेय । धन सिंह कोतवाल

शंकर शाह
रघुनाथ शाह

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बहादुर शाह द्वितीय
नाना साहेब
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मिर्ज़ा मुग़ल
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बख़्त खान
रानी लक्ष्मीबाई
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तात्या टोपे
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बेगम हजरत महल

प्रधान सेनापति, भारत:
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जॉर्ज एनसोन (मई 1857 से)
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सर पैट्रिक ग्रांट
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कॉलिन कैंपबैल (अगस्त 1857 से)
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जंग बहादुर[2]

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१८५७ के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को समर्पित भारत का डाकटिकट।

१८५७ का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था। यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुआ था परन्तु जनवरी मास तक इसने एक बड़ा रूप ले लिया। विद्रोह का अन्त भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ और पूरे भारत पर ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष शासन आरंभ हो गया जो अगले ९० वर्षों तक चला।[3]

भारत में ब्रितानी विस्तार का संक्षिप्त इतिहास[संपादित करें]

ईस्ट इंडिया कम्पनी ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में सन 1757 में प्लासी का युद्ध जीता। युद्ध के बाद हुई संधि में अंग्रेजों को बंगाल में कर मुक्त व्यापार का अधिकार मिल गया। सन 1764 में बक्सर का युद्ध जीतने के बाद अंग्रेजों का बंगाल पर पूरी तरह से अधिकार हो गया। इन दो युद्धों में हुई जीत ने अंग्रेजों की ताकत को बहुत बढ़ा दिया और उनकी सैन्य क्षमता को परम्परागत भारतीय सैन्य क्षमता से श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया। कंपनी ने इसके बाद सारे भारत पर अपना प्रभाव फैलाना आरंभ कर दिया।

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1857 की क्रांति के समय के भारतीय राज्य।

सन 1843 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सिन्ध क्षेत्र पर रक्तरंजित लडाई के बाद अधिकार कर लिया। सन १८३९ में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद कमजोर हुए पंजाब पर अंग्रेजों ने अपना हाथ बढा़या और सन 1848 में दूसरा अंग्रेज-सिख युद्ध हुआ। सन 1849 में कंपनी का पंजाब पर भी अधिकार हो गया। सन 1853 में आखरी मराठा पेशवा बाजी राव के दत्तक पुत्र नाना साहेब की पदवी छीन ली गयी और उनका वार्षिक खर्चा बंद कर दिया गया। सन 1854 में बरार और सन 1856 में अवध को कंपनी के राज्य में मिला लिया गया।

विद्रोह के कारण[संपादित करें]

सन 1857 के विद्रोह के विभिन्न राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, सैनिक तथा सामाजिक कारण बताये जाते है

वैचारिक मतभेद[संपादित करें]

कई इतिहासकारों का मानना है कि उस समय के जनमानस में यह धारणा थी कि, अंग्रेज उन्हें जबर्दस्ती या धोखे से ईसाई बनाना चाहते हैं। यह पूरी तरह से गलत भी नहीं था, कुछ कंपनी अधिकारी धर्म परिवर्तन के कार्य में जुटे थे। हालांकि कंपनी ने धर्म परिवर्तन को स्वीकृति कभी नहीं दी। कंपनी इस बात से अवगत थी कि धर्म, पारम्परिक भारतीय समाज में विद्रोह का एक कारण बन सकता है। इससे पहले सोलहवीं सदी में भारत तथा जापान से पुर्तगालियों के पतन का एक कारण यह भी था कि उन्होंने जनता पर ईसाई धर्म बलात लादने का प्रयास किया था।

लॉर्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नाति (डाक्ट्रिन औफ़ लैप्स) के अन्तर्गत अनेक राज्य जैसे झाँसी, अवध, सतारा, नागपुर और संबलपुर को अंग्रेजी़ राज्य में मिला लिया गया और इनके उत्तराधिकारी राजा से अंग्रेजी़ राज्य से पेंशन पाने वाले कर्मचारी बन गये। शाही घराने, जमींदार और सेनाओं ने अपने आप को बेरोजगार और अधिकारहीन पाया। ये लोग अंग्रेजों के हाथों अपनी शर्मिंदगी और हार का बदला लेने के लिये तैयार थे। लॉर्ड डलहौजी के शासन के आठ वर्षों में दस लाख वर्गमील क्षेत्र को कंपनी के अधिकार में ले लिया गया। इसके अतिरिक्त ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल सेना में बहुत से सिपाही अवध से भर्ती होते थे, वे अवध में होने वाली घटनाओं से अछूते नहीं रह सके। नागपुर के शाही घराने के आभूषणों की कलकत्ता में बोली लगायी गयी इस घटना को शाही परिवार के प्रति अनादर के रूप में देखा गया।

भारतीय, कंपनी के कठोर शासन से भी नाराज थे जो कि तेजी से फैल रहा था और पश्चिमी सभ्य्ता का प्रसार कर रहा था। अंग्रेजों ने हिन्दुओं और मु्सलमानों के उस समय माने जाने वाले बहुत से रिवाजों को गैरकानूनी घोषित कर दिया जो कि अंग्रेजों द्वारा असमाजिक माने जाते थे। इसमें सती प्रथा पर रोक लगाना शामिल था। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि सिखों ने यह बहुत पहले ही बंद कर दिया था और बंगाल के प्रसिद्ध समाज सुधारक राजा राममोहन राय इस प्रथा को बंद करने के पक्ष में प्रचार कर रहे थे। इन कानूनों ने समाज के कुछ पक्षों मुख्यतः बंगाल में क्रोध उत्पन्न कर दिया। अंग्रेजों ने बाल विवाह प्रथा को समाप्त किया तथा कन्या भ्रूण हत्या पर भी रोक लगायी। अंग्रेजों द्वारा ठगी की समाप्ति भी की गई परन्तु यह सन्देह अभी भी बना हुआ है कि ठग एक धार्मिक समुदाय था या केवल साधारण डकैतों का समुदाय।

ब्रितानी न्याय व्यवस्था भारतीयों के लिये अन्यायपूर्ण मानी जाती थी। सन १८५३ में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लौर्ड अब्रेडीन ने प्रशासनिक सेवा को भारतीयों के लिये खोल दिया परन्तु कुछ प्रबुद्ध भारतीयों के हिसाब से यह सुधार पर्याप्त नहीं था। कंपनी के अधिकारियों को भारतीयों के विरुद्ध न्यायालयों में अनेक अपीलों का अधिकार प्राप्त था। कंपनी भारतीयों पर भारी कर भी लगाती थी जिसे न चुकाने की स्थिति में उनकी संपत्ति अधिग्रहित कर ली जाती थी। कंपनी के आधुनिकीकरण के प्रयासों को पारम्परिक भारतीय समाज में सन्देह की दृष्टि से देखा गया। लोगो ने माना कि रेलवे जो बाम्बे से सर्वप्रथम चला एक दानव है और लोगो पर विपत्ति लायेगा।

परन्तु बहुत से इतिहासकारों का यह भी मानना है कि इन सुधारों को बढ़ा चढ़ा कर बताया गया है क्योंकि कंपनी के पास इन सुधारों को लागू करने के साधन नहीं थे और कलकत्ता से दूर उनका प्रभाव नगण्य था[4]।

आर्थिक कारण[संपादित करें]

१८५७ के विद्रोह का एक प्रमुख कारण कंपनी द्वारा भारतीयों का आर्थिक शोषण भी था। कंपनी की नीतियों ने भारत की पारम्परिक अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से समाप्त कर दिया था। इन नीतियों के कारण बहुत से किसान, कारीगर, श्रमिक और कलाकार कंगाल हो गये। इनके साथ साथ जमींदारों और बड़े किसानों की स्थिति भी बदतर हो गयी। सन १८१३ में कंपनी ने एक तरफा मुक्त व्यापार की नीति अपना ली इसके अन्तर्गत ब्रितानी व्यापारियों को आयात करने की पूरी छूट मिल गयी, परम्परागत तकनीक से बनी हुई भारतीय वस्तुएं इसके सामने टिक नहीं सकी और भारतीय शहरी हस्तशिल्प व्यापार को अकल्पनीय क्षति हुई।

रेल सेवा के आने के साथ ग्रामीण क्षेत्र के लघु उद्यम भी नष्ट हो गये। रेल सेवा ने ब्रितानी व्यापारियों को दूर दराज के गावों तक पहुँच दे दी। सबसे अधिक क्षति कपड़ा उद्योग (कपास और रेशम) को हुई। इसके साथ लोहा व्यापार, बर्तन, कांच, कागज, धातु, बन्दूक, जहाज और रंगरेजी के उद्योगों को भी बहुत क्षति हुई। १८ वीं और १९ वीं शताब्दी में ब्रिटेन और यूरोप में आयात कर और अनेक रोकों के चलते भारतीय निर्यात समाप्त हो गया। पारम्परिक उद्योगों के नष्ट होने और साथ साथ आधुनिक उद्योगों का विकास न होने की कारण यह स्थिति और भी विषम हो गयी। साधारण जनता के पास खेती के अलावा कोई और साधन नहीं बचा।

खेती करने वाले किसानो की हालत भी खराब थी। ब्रितानी शासन के प्रारम्भ में किसानों को जमीदारों की दया पर छोड़ दिया गया, जिन्होने लगान को बहुत बढा़ दिया और बेगार तथा अन्य तरीकों से किसानो का शोषण करना प्रारम्भ कर दिया। कंपनी ने खेती के सुधार पर बहुत कम खर्च किया और अधिकतर लगान कंपनी के खर्चों को पूरा करने में प्रयोग होता था। फसल के खराब होने की दशा में किसानो को साहूकार अधिक ब्याज पर कर्जा देते थे और अनपढ़ किसानो को कई तरीकों से ठगते थे। ब्रितानी कानून व्यवस्था के अन्तर्गत भूमि हस्तांतरण वैध हो जाने के कारण किसानों को अपनी भूमि से भी हाथ धोना पड़ता था। इन समस्याओं के कारण समाज के हर वर्ग में असंतोष व्याप्त था।

राजनैतिक कारण[संपादित करें]

सन 1848 और 1856 के बीच लार्ड डलहोजी ने डाक्ट्रिन औफ़ लैप्स के कानून के अन्तर्गत अनेक राज्यों पर अधिकार कर लिया। इस सिद्धांत अनुसार कोई राज्य, क्षेत्र या ब्रितानी प्रभाव का क्षेत्र कंपनी के अधीन हो जायेगा, यदि क्षेत्र का राजा निसन्तान मर जाता है या शासक कंपनी की दृष्टि में अयोग्य साबित होता है। इस सिद्धांत पर कार्य करते हुए लार्ड डलहोजी और उसके उत्तराधिकारी लार्ड कैन्निग ने सतारा,नागपुर,झाँसी,अवध को कंपनी के शासन में मिला लिया। कंपनी द्वारा तोडी गय़ी सन्धियों और वादों के कारण कंपनी की राजनैतिक विश्वसनियता पर भी प्रश्नचिन्ह लग चुका था। सन १८४९ में लार्ड डलहोजी की घोषणा के अनुसार बहादुर शाह के उत्तराधिकारी को ऐतिहासिक लाल किला छोड़ना पडेगा और शहर के बाहर जाना होगा और सन १८५६ में लार्ड कैन्निग की घोषणा कि बहादुर शाह के उत्तराधिकारी राजा नहीं कहलायेंगे ने मुगलों को कंपनी के विद्रोह में खडा कर दिया।

सिपाहियों की आशंका[संपादित करें]

सिपाही मूलत: कंपनी की बंगाल सेना में काम करने वाले भारतीय मूल के सैनिक थे। बम्बई, मद्रास और बंगाल प्रेसीडेन्सी की अपनी अलग सेना और सेनाप्रमुख होता था। इस सेना में ब्रितानी सेना से अधिक सिपाही थे। सन १८५७ में इस सेना में २,५७,००० सिपाही थे। बम्बई और मद्रास प्रेसीडेन्सी की सेना में अलग अलग क्षेत्रों के लोग होने की कारण ये सेनाएं विभिन्नता से पूर्ण थी और इनमे किसी एक क्षेत्र के लोगो का प्रभुत्व नहीं था। परन्तु बंगाल प्रेसीडेन्सी की सेना में भर्ती होने वाले सैनिक मुख्यत: अवध और गन्गा के मैदानी इलाको के अधिकांश गुर्जर थे। जबकि ब्राह्मणों और राजपूत ने अंग्रेजों का साथ दिया था। मन कंपनी के प्रारम्भिक वर्षों में बंगाल सेना में जातिगत विशेषाधिकारों और रीतिरिवाजों को महत्व दिया जाता था। परन्तु सन १८४० के बाद कलकत्ता में आधुनिकता पसन्द सरकार आने के बाद सिपाहियों में अपनी जाति खोने की आशंका व्याप्त हो गयी। [5] सेना में सिपाहियों को जाति और धर्म से सम्बन्धित चिन्ह पहनने से मना कर दिया गया। सन १८५६ में एक आदेश के अन्तर्गत सभी नये भर्ती सिपाहियों को विदेश में कुछ समय के लिये काम करना अनिवार्य कर दिया गया। सिपाही धीरे-धीरे सेना के जीवन के विभिन्न पहलुओं से असन्तुष्ट हो चुके थे। सेना का वेतन कम था। भारतीय सैनिकों का वेतन महज सात रूपये प्रतिमाह था। और अवध और पंजाब जीतने के बाद सिपाहियों का भत्ता भी समाप्त कर दिया गया था। एनफ़ील्ड बंदूक के बारे में फ़ैली अफवाहों ने सिपाहियों की आशन्का को और बढा़ दिया कि कंपनी उनकी धर्म और जाति परिवर्तन करना चाहती है।

एनफ़ील्ड बंदूक[संपादित करें]

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सन १८५३ की ३-बैण्ड इनफिल्ड बन्दूक

विद्रोह का प्रारम्भ एक बंदूक की वजह से हुआ। सिपाहियों को पैटऱ्न १८५३ एनफ़ील्ड बंदूक दी गयीं जो कि ०.५७७ कैलीबर की बंदूक थी तथा पुरानी और कई दशकों से उपयोग में लायी जा रही ब्राउन बैस के मुकाबले में शक्तिशाली और अचूक थी। नयी बंदूक में गोली दागने की आधुनिक प्रणाली (प्रिकशन कैप) का प्रयोग किया गया था परन्तु बंदूक में गोली भरने की प्रक्रिया पुरानी थी। नयी एनफ़ील्ड बंदूक भरने के लिये कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पड़ता था और उसमे भरे हुए बारुद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस को डालना पड़ता था। कारतूस का बाहरी आवरण में चर्बी होती थी जो कि उसे पानी की सीलन से बचाती थी।

अफ़वाहें[संपादित करें]

एक और अफ़वाह जो कि उस समय फ़ैली हुई थी, कंपनी का राज्य सन १७५७ में प्लासी का युद्ध से प्रारम्भ हुआ था और सन १८५७ में १०० वर्षों बाद समाप्त हो जायेगा। चपातियां और कमल के फ़ूल भारत के अनेक भागों में वितरित होने लगे। ये आने वाले विद्रोह के लक्ष्ण थे।

युद्ध का प्रारम्भ[संपादित करें]

विद्रोह प्रारम्भ होने के कई महीनो पहले से तनाव का वातावरण बन गया था और कई विद्रोहजनक घटनायें घटीं। २४ जनवरी १८५७ को कलकत्ता के निकट आगजनी की कई घटनायें हुई। २६ फ़रवरी १८५७ को १९ वीं बंगाल नेटिव इनफ़ैन्ट्री ने नये कारतूसों को प्रयोग करने से मना कर दिया। रेजीमेण्ट् के अफ़सरों ने तोपखाने और घुडसवार दस्ते के साथ इसका विरोध किया पर बाद में सिपाहियों की मांग मान ली।

मेरठ से १० मई को धन सिंह कोतवाल की अगुवाई में हुइ

मंगल पाण्डेय[संपादित करें]

मंगल पाण्डेय ३४ वीं बंगाल नेटिव इनफ़ैन्ट्री में एक सिपाही थे। २९ मार्च १८५७ को बैरकपुर परेड मैदान कलकत्ता के निकट मंगल पाण्डेय जो दुगवा रहीमपुर(फैजाबाद) के रहने वाले थे रेजीमेण्ट के अफ़सर लेफ़्टीनेण्ट बाग पर हमला कर के उसे घायल कर दिया। जनरल जान हेएरसेये के अनुसार मंगल पाण्डेय किसी प्रकार के धार्मिक पागलपन में थे जनरल ने जमींदार ईश्वरी प्रसाद को मंगल पांडेय को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया पर ज़मीदार ने मना कर दिया। सिवाय एक सिपाही शेख पलटु को छोड़ कर सारी रेजीमेण्ट ने मंगल पाण्डेय को गिरफ़्तार करने से मना कर दिया। मंगल पाण्डेय ने अपने साथियों को खुलेआम विद्रोह करने के लिये कहा पर किसी के ना मानने पर उन्होने अपनी बंदूक से अपनी प्राण लेने का प्रयास किया। परन्तु वे इस प्रयास में केवल घायल हुये। ६ अप्रैल १८५७ को मंगल पाण्डेय का कोर्ट मार्शल कर दिया गया और ८ अप्रैल को फ़ांसी दे दी गयी।

धन सिंह कोतवाल

सन 1857 की क्रांति का बिगुल 10 मई, 1857 को मेरठ से फूंका गया था। जिसमें अहम भूमिका अमर शहीद कोतवाल धन सिंह गुर्जर ने अदा की थी। 10 मई को धन सिंह कोतवाल के आदेश पर ही हजारों की संख्या में भारतीय क्रांतिकारी रातों- रात मेरठ पहुंचे थे। अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की खबर मिलते ही आस- पास के गांव के हजारों ग्रामीण भी मेरठ की सदर कोतवाली क्षेत्र में जमा हो गए थे। इसी कोतवाली में धन सिंह पुलिस चीफ के पद पर तैनात थे। 10 मई को धन सिंह ने योजनानुसार बड़ी चतुराई से ब्रिटिश सरकार के वफादार पुलिस कर्मियों को कोतवाली के भीतर चले जाने और वहीं रहने का आदेश दिया। देर रात 2 बजे धन सिंह के नेतृत्व में केसरगंज मंडी स्थित जेल तोड़कर 836 कैदियों को आजाद कराकर जेल को आग लगा दी गई। सभी कैदी क्रांति के शगल में शुमार हो गए। इसके बाद क्रांतिकारियों के बड़े सूमह ने पूरे सदर बाजार और कैंट क्षेत्र अंग्रेजी हुकुमत से जुड़ी हर चीज नेस्तोनाबूत कर दी। रात में ही क्रांतिकारी दिल्ली कूच कर गए। क्रांतिकारियों की जंग- ए- आजादी की इस पहले ने अंग्रेजी हुकुमत की जड़े हिला दीं। जिसके ब्रिटिश सरकार ने धन सिंह इसका दोषी पाया और गिरफ्तार कर मेरठ में ही फांसी पर लटका दिया। कोतवाल धन सिंह के बलिदान को देखकर ही उन्हें क्रांति के जनक के रूप में जाना जाता है।

चित्रदीर्घा[संपादित करें]

  • हरियाणा में 1857 ई. की महान क्रांति में मुख्य भूमिका निभाने वाला निम्नलिखित में से कौन सा गांव था? - hariyaana mein 1857 ee. kee mahaan kraanti mein mukhy bhoomika nibhaane vaala nimnalikhit mein se kaun sa gaanv tha?

    गंगा पार कर अवध में

  • हरियाणा में 1857 ई. की महान क्रांति में मुख्य भूमिका निभाने वाला निम्नलिखित में से कौन सा गांव था? - hariyaana mein 1857 ee. kee mahaan kraanti mein mukhy bhoomika nibhaane vaala nimnalikhit mein se kaun sa gaanv tha?

    सन् १८५७ में लखनऊ के सिकन्दर बाग में भीषण युद्ध हुआ था।

  • हरियाणा में 1857 ई. की महान क्रांति में मुख्य भूमिका निभाने वाला निम्नलिखित में से कौन सा गांव था? - hariyaana mein 1857 ee. kee mahaan kraanti mein mukhy bhoomika nibhaane vaala nimnalikhit mein se kaun sa gaanv tha?

    नाना सहब की सेना द्वारा जून १८५७ में १००० ब्रिटिश सिपाहियों और उनके परिवारीजनों को जनरल व्हीलर के मोर्चे पर घेर कर रखा गया जहाँ उन पर लगातार बमबारी की गई।

  • हरियाणा में 1857 ई. की महान क्रांति में मुख्य भूमिका निभाने वाला निम्नलिखित में से कौन सा गांव था? - hariyaana mein 1857 ee. kee mahaan kraanti mein mukhy bhoomika nibhaane vaala nimnalikhit mein se kaun sa gaanv tha?

    1857 के स्वाधीनता संग्राम के दो सिपाहियों को फाँसी दिया जाना।

  • हरियाणा में 1857 ई. की महान क्रांति में मुख्य भूमिका निभाने वाला निम्नलिखित में से कौन सा गांव था? - hariyaana mein 1857 ee. kee mahaan kraanti mein mukhy bhoomika nibhaane vaala nimnalikhit mein se kaun sa gaanv tha?

    दिल्ली में विद्रोह का स्मारक ब्रिटिश अधिकारियों के लिये एक यादगार है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

टीका-टिप्पणी[संपादित करें]

  1. File:Indian revolt of 1857 states map.svg
  2. The Gurkhas by W. Brook Northey, John Morris. ISBN 81-206-1577-8. Page 58
  3. "1857 की क्रांति ने आजादी के लिए लड़ने का जज्बा दिया". नवभारत टाइम्स. अभिगमन तिथि 2021-08-15.
  4. Eric Stokes “The First Century of British Colonial Rule in India: Social Revolution or Social Stagnation?” Past and Present №.58 (Feb. 1973) pp136-160
  5. Seema Alavi The Sepoys and the Company (Delhi: Oxford University Press) 1998 p5

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • मंगल पांडे कभी मेरठ आए ही नही थे
  • कोतवाल ने ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिला दी थी
  • सदर थाने में प्रेरणास्रोत बनेगी कोतवाल धनसिंह गुर्जर की प्रतिमा
  • मेरठ का वह कोतवाल जिसने अंग्रेजी जुल्म के खिलाफ क्रांति की पहली मशाल जलाई
  • यूपी पुलिस पढ़ेगी शहीद कोतवाल धनसिंह गुर्जर का इतिहास
  • डीजीपी ने किया धन सिंह कोतवाल की प्रतिमा का अनावरण
  • इतिहास के पन्नों से बाहर आए धन सिंह कोतवाल

1824 के विद्रोह की बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • शौर्य गाथा: 1824 में आज़ादी की पहली लड़ाई में कुंजा बना 'कुंजा बहादुरपुर'
  • आजादी की क्रान्ति मे संशोधन की जरूरत
  • शहीद राजा विजय सिंह के नाम पर की कई घोषणाएं

हरियाणा में 1857 ई की महान क्रांति में मुख्य भूमिका निभाने वाला कौन सा गांव था?

दरअसल यह 1857 के गदर या सैनिक विद्रोह, जिसे स्वतंत्रता की पहली लड़ाई भी कहते हैं, के दौरान ब्रिटिश अधिकारियों के कत्लेआम की जवाबी कार्रवाई थी. रोहनात गांव, हरियाणा के हिसार ज़िले के हांसी शहर से कुछ मील की दूरी पर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है.

1857 की क्रांति में हरियाणा के कौन प्रमुख नेता सम्मिलित थे?

हरियाणावासियों ने इस संग्राम में बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। राव तुला राम और उनके चचेरे भाई गोपालदेव जैसे पड़ोसी अग्रणी विद्रोह की मदद में भाग लेते थे। लंबे समय से जनरल अब्दुससमद खान, मुहम्मद अजीम बेग, रावकिशन सिंह, राव राम लाल, सभी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए भाग लिया करते थे

1857 की क्रांति में हरियाणा के कितने गांवों को जला दिया था?

हरियाणा के प्रख्यात इतिहासकार प्रोफेसर के सी यादव के अनुसार 1857 के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन में हरियाणा भर में 3467 लोगो की मौत अंग्रेजों से जुल्म से मौत हुई थी। 115 गांव जला दिए गए थे।

हरियाणा का सबसे पुराना गांव कौन सा है?

हिसार ज़िले का सिसाय गाँव हरियाणा का सबसे बड़ा गाँव हैं। इस गाँव का इतिहास 700 साल से पुराना माना जाता हैं।