Show अवरतणों पर आधारित प्रश्नोत्तर (1) जसोदा हरि पालने झुलावै। हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-सोइ कछु गावै॥ मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहे न आनि सुवावै। तू काहे नहिं बेगहिं आवै, तोको कान्ह बुलावै॥ कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै। सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै॥ इहिं अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरै गावै। जो सुख ’सूर’ अमर मुनि दुरलभ, सो नँद भामिनी पावै॥ प्रश्न (i) यशोदा किसे पालने में झुला रही हैं और क्यों? उनका परिचय दीजिए। (ii) वह कृष्ण को सुलाने के लिए क्या-क्या उपाय करती हैं? (iii) हरि कौन-कौन सी चेष्टाएँ करते हैं और क्यों? समझाकर लिखिए। (iv) नंद भामिनी देवता तथा मुनियों से अधिक भाग्यशाली कैसे हैं? उत्तर (i) यशोदा हरि अर्थात् कृष्ण को पालने में झुला रही हैं, वह उन्हें सुला रही हैं। श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा की जेल में भाद्रपद की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। श्रीकृष्ण के माता-पिता का नाम देवकी तथा वसुदेव था। वसुवेद ने अपने पुत्र कृष्ण को कंस से बचाने के लिए उसके जन्म लेते ही उसे यमुना पार ब्रज में अपने मित्र नन्द के यहाँ छोड़ दिया था। नन्द की पत्नी यशोदा ने ही कृष्ण का लालन-पोषण किया था। (ii) यशोदा कृष्ण को सुलाने के लिए बहुत प्रयत्न करती हैं। कृष्ण को पालने में झुलाती हैं। कभी पालना हिलाती हैं, कभी उन्हें प्रेम करती हैं और कभी पुचकारती हैं। वे अपनी मधुर आवाज़ में कृष्ण को लोरी गाकर सुनाती हैं और नींद को उलाहना देती हैं कि वह जल्दी से क्यों नहीं आ रही है क्योंकि कान्हा उसे बुला रहा है। यह मातृत्व है जो अपने पुत्र के लिए उमड़ रहा है। (iii) हरि पालने में झुल रहे हैं और माँ की मधुर और हृदयग्राही लोरी सुन रहे हैं। वे कभी अपनी पलकें बंद कर लेते हैं, कभी उनके होंठ फड़फड़ाने लगते हैं। यह समझकर कि कान्हा सो गए हैं, यशोदा माँ चुप हो जाती हैं। उनके चुप हो जाने पर कान्हा अकुलाने लगते हैं और यशोदा मैया पुन: मधुर लोरी गाना शुरू कर देती हैं। (iv) सूरदास के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण को ज्ञान के बल पर नहीं बल्कि प्रेम के बल पर प्राप्त किया जा सकता है, इसीलिए नन्द की पत्नी यशोदा देवताओं और मुनियों से भी अधिक भाग्यशाली है कि उन्हें साक्षात भगवान कृष्ण को अपने बालक के रूप में दुलार करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। यह सौभाग्य देवताओं और परम ज्ञानी मुनियों के लिए भी दुर्लभ है। (2) मैया मेरी, चंद्र खिलौना लैहौं॥ धौरी को पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुथैहौं। मोतिन माल न धरिहौं उर पर, झुंगली कंठ न लैहौं॥ जैहों लोट अबहिं धरनी पर, तेरी गोद न ऐहौं। लाल कहैहौं नंद बबा को, तेरो सुत न कहैहौं॥ कान लाय कछु कहत जसोदा, दाउहिं नाहिं सुनैहौं। चंदा हूँ ते अति सुंदर तोहिं, नवल दुलहिया ब्यैहौं॥ तेरी सौं मेरी सुन मैया, अबहीं ब्याहन जैहौं। ’सूरदास’ सब सखा बराती, नूतन मंगल गैहौं॥
(i) कौन, किससे, क्या लेने की ज़िद कर रहा है? (ii) वह अपनी ज़िद किस प्रकार व्यक्त कर रहा है? समझाकर लिखिए। (iii) बच्चे की ज़िद पूरी करने में असमर्थ माँ उसे बहलाने के लिए क्या कहती है? बच्चा क्या उत्तर देता है? (iv) प्रस्तुत पदों में कवि ने किस उद्देश्य से श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन किया है? उत्तर (i) बालक कृष्ण माता यशोदा से खिलौने के रूप में चन्द्रमा लेने की ज़िद कर रहे हैं। (ii) बालक स्वभाव से हठी होते हैं और किसी वस्तु की ज़िद कर बैठते हैं तो उसे प्राप्त करने की भरसक कोशिश करते हैं। बालक कृष्ण को भी खिलौने के रूप में चंद्रमा चाहिए। अपनी ज़िद पूरी करने के लिए माता यशोदा को धमकियाँ देते हैं। वह कहते हैं कि यदि तुम मुझे चन्द्र खिलौना नहीं दोगी तो मैं सफ़ेद गाय का दूध नहीं पियूँगा। अपने बालों की चोटी नहीं गुँथवाऊँगा। मोतियों की माला नहीं पहनूँगा। वस्त्र भी धारण नहीं करूँगा। धरती पर लोटकर स्वयं को मैला कर लूँगा। माता की गोदी में कभी नहीं जाऊँगा और नन्द बाबा का बेटा कहलाऊँगा, यशोदा मैया का नहीं। (iii) बाल स्वभाव के अनुसार यदि बच्चा किसी अनावश्यक वस्तु के लिए ज़िद करता है तब माँ उसका ध्यान किसी अन्य वस्तु की ओर आकर्षित कर देती है। बालक कृष्ण के चंद्र खिलौना लेने की ज़िद को माता यशोदा यह कहकर बहला देती है कि वह अपने लाडले पुत्र कृष्ण का विवाह चन्द्रमा से भी अधिक रूपवती नई नवेली दुल्हन से करवा देगी। यह सुनकर बालक कृष्ण कहते हैं कि माँ तेरी सौगन्ध मैं अभी विवाह करने जाना चाहता हूँ। (iv) सूरदास के प्रस्तुत पदों में बाल-कृष्ण के सौन्दर्य, बाल-चेष्टाओं और क्रीड़ाओं की मनोहर झाँकी देखने को मिलती है जिसका प्रमुख उद्देश्य माता यशोदा का बाल- कृष्ण के प्रति अन्यतम वात्सल्य भाव की अभिव्यक्ति है। पहले पद में माता
यशोदा बाल-कृष्ण को मधुर लोरी गाकर पालने में झुलाती है और सुलाने की ममतामयी चेष्टा करती है।
विनय के पद तुलसीदास (जन्म:1497 - निधन:1623) गोस्वामी तुलसीदास भक्तिकाल के रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि हैं। तुलसीदास राम के उपासक थे जो भगवान विष्णु के अवतार हैं। इनकी भक्ति दास्य-भाव की थी। तुलसीदास ने संस्कृत में लिखे वाल्मीकि के रामायण को अवधी में "रामचरितमानस" के नाम से लिखकर तत्कालीन जनमानस तक पहुँचाया। "रामचरितमानस" में विस्तार से राम-कथा का वर्णन किया गया है। विश्व साहित्य में "रामचरितमानस" की गणना प्रमुख ग्रन्थों में की जाती है। तुलसी ने राम के मर्यादापुरुषोत्तम रूप का वर्णन किया है जो शक्ति, शील और सौन्दर्य के सामंजस्य हैं। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं - जानकीमंगल, पार्वतीमंगल, रामललानहछू, दोहावली, कवितावली, विनय-पत्रिका, हनुमान-चालीसा आदि। कठिन शब्दार्थ द्रवै - पिघल जाना विराग - वैराग्य जतन - प्रयत्न अरप - अर्पण सकुच सहित - संकोचपूर्वक कृपानिधि - दया के सागर गीध - गिद्ध पक्षी (जटायु) शबरी - वनवासी शबर जाति की स्त्री वैदेही - सीता तजिए - छोड़ दीजिए कंत - पति बनितह्नि - स्त्रियों के द्वारा सुहुद - संबंधी सुसेव्य - सेवा अंजन - सुरमा, काजल सनेह - प्रेम अवरतणों पर आधारित प्रश्नोत्तर (1) ऐसो को उदार जग माहीं। बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं॥ जो गति जोग विराग जतन करि नहिं पावत मुनि ज्ञानी। सो गति देत गीध सबरी कहूँ प्रभु न बहुत जिय जानी॥ जो सम्पत्ति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्ही। सो सम्पदा विभीषण कहँ अति सकुच सहित प्रभु दीन्ही॥ तुलसीदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो। तौ भजु राम, काम सब पूरन कर कृपानिधि तेरो॥ प्रश्न (i) प्रस्तुत पद में किसकी बात की जा रही है? वह कैसे उदार हैं? (ii) गीध और सबरी कौन थे? भगवान ने उनका उद्धार किस प्रकार किया? (iii) भगवान राम ने विभीषण के प्रति किस प्रकार उदारता दिखाई? (iv) तुलसीदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो। तौ भजु राम, काम सब पूरन कर कृपानिधि तेरो॥ - इन पंक्तियों की व्याख्या कीजिए। उत्तर (i) प्रस्तुत पद में तुलसीदास के आराध्य देव भगवान विष्णु के अवतार राम की बात की जा रही है। तुलसीदास के अनुसार भगवान राम के समान उदार संसार में और कोई नहीं है। राम बिना सेवा के ही दीन-दुखियों पर अपनी कृपादृष्टि रखते हैं और उनका इस भव रूपी सागर से उद्धार करते हैं। (ii) गीध अर्थात् गिद्ध से कवि का तात्पर्य जटायु से है। जब रावण सीता का हरण करके आकाश मार्ग से लंका की ओर जा रहा था तो सीता की दुख-भरी पुकार सुनकर जटायु ने उन्हें पहचान लिया और उन्हें छुड़ाने के लिए रावण से युद्ध करते हुए गम्भीर रूप से घायल हो गया। सीता को खोजते हुए जब राम वहाँ पहुँचे तो घायल जटायु ने ही राम को रावण के विषय में सूचना देकर राम के चरणों में अपने प्राण त्याग दिए और मोक्ष की प्राप्ति की। सबरी अर्थात् शबरी एक वनवासी शबर जाति की स्त्री थी। जब उसे पूर्वाभास हुआ कि राम उसी वन के रास्ते से जाएँगे जहाँ वह रहती है तब उसने राम के स्वागत के लिए चख-चखकर मीठे बेर जमा किए। राम ने उनका आथित्य स्वीकार किया और उसके चखे हुए जूठे बेर खाकर उसे परम गति प्रदान की। (iii) विभीषण रावण का छोटा भाई था। वह रामभक्त था। उसने रावण को राम से क्षमा माँगकर उनकी शरण में जाने के लिए समझाने की चेष्टा की, किन्तु रावण ने उसका तिरस्कार किया। रावण की दरबार से अपमानित होकर विभीषण को लंका छोड़कर राम की शरण में आना पड़ा। युद्ध में रावण को पराजित करने के बाद राम ने लंका का सम्पूर्ण राज्य बड़े संकोच के साथ अर्थात् बिना किसी अभिमान के विभीषण को दे दिया। (iv) तुलसीदास भगवान राम का भजन करने के लिए कह रहे हैं क्योंकि राम ही सबसे उदार हैं जिनकी आराधना से मोक्ष प्राप्त होता है। तुलसीदास कहते हैं कि मेरा मन जितने प्रकार के भी सुख चाहता है, वे सब राम की कृपा से प्राप्त हो जाएँगे। अत: हे मन! तू राम का भजन कर। राम कृपानिधि हैं। वे हमारी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करेंगे। जैसे राम ने जटायु को और शबरी को परमगति तथा विभीषण को लंका का राज्य प्रदान किया। सन् 1904 में इलाहाबाद के निहालपुर ग्राम में जन्मी सुभद्राकुमारी चौहान की कविताओं में राष्ट्रीय-चेतना और ओज कूट-कूट कर भरा है। बचपन से ही उनके मन में देशभक्ति की भावना भरी हुई थी कि सन् 1921 में अपनी पढ़ाई छोड़ उन्होंने असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। आज़ादी की इस लड़ाई में उन्होंने कई बार जेल-यात्रा की। विवाह के बाद आप जबलपुर में बस गईं। बिना किसी लाग-लपेट के सीधे-सीधे सच्चा काव्य रचने वाली यह कवयित्री सन् 1948 में एक सड़क दुर्घटना में हमसे बिछड़ गई। ‘मुकुल’ और ‘त्रिधारा’ आपके काव्य संग्रह हैं। इसके अतिरिक्त आपने कहानियाँ भी लिखीं, जो ‘बिखरे मोती’, ‘सीधे-सादे चित्र’ और ‘उन्मादिनी’ नामक कहानी संकलनों में पढ़ी जा सकती हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाओं में देश-प्रेम, मानव-प्रेम और प्रकृति-प्रेम की सफल अभिव्यक्ति हुई है। सुभद्रा जी की “झाँसी की रानी” और “वीरों का कैसा हो वसंत” देश-भक्ति की उत्कृष्ट कविताएँ हैं। प्रमुख रचनाएँ – मुकुल, त्रिधारा (काव्य संग्रह) बिखरे मोती, उन्मादिनी सीधे-साधे चित्र (कहानी संग्रह) आदि।
कठिन शब्दार्थ (i) कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान भारतमाता के मंदिर में जाकर उनके दर्शन करना चाहती है किन्तु उसी समय उसे अपनी कमज़ोरी, अपनी अज्ञानता तथा छोटेपन का एहसास होता है। (ii) मार्ग के पहरेदार से कवयित्री का तात्पर्य अंग्रेज़ी शासन से है जो भारतवासियों पर बहुत अत्याचार और अन्याय करते थे। देशभक्तों को राजद्रोही मानकर उनके साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं। (iii) कवयित्री को नहीं मालूम कि भारतमाता के मंदिर का मार्ग कठिनाइयों से भरा है। वह अत्यंत दुर्गम है। विदेशी शासकों का पहरा होने के कारण वहाँ तक पहुँचना बहुत कठिन है। अंग्रेज़ी सरकार भारतवासियों के सारे प्रयत्न अपने अत्याचार से निष्फल कर देती है। कवयित्री के कमज़ोर पैर फिसल रहे हैं। वह ईश्वर से प्रार्थना करती है कि वह उसे इतनी शक्ति दे कि वह मातृ-मंदिर की ऊँची सीढ़ियों पर चढ़ सके। कहने का तात्पर्य है कि भारतमाता को आज़ाद कराने का लक्ष्य अनेक बाधाओं से भरा है जिसके लिए देशभक्त नवयुवकों को अपना सर्वस्व बलिदान करना पड़ेगा। (iv) ’मातृ मंदिर की ओर’ देशभक्ति से पूर्ण एक मार्मिक कविता है। कवयित्री देश की गुलामी से व्यथित है और अपने अश्रुओं से भारतमाता के चरणों को धोना चाहती है। वह भारतमाता के मंदिर में जाकर देश की आज़ादी की लड़ाई में भाग लेना चाहती है ताकि गुलामी की जंज़ीर को काट कर उसे बंधन-मुक्त करने में अपनी भूमिका अदा करने में सफल हो सके। कवयित्री भारतमाता की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन का बलिदान करने के लिए तत्पर है। मातृ-मंदिर में मैंने कहा... (iv) यहाँ किस माँ की बात हो रही है? उन तक पहुँचने का मार्ग दुर्गम क्यों बताया है? स्पष्ट कीजिए। उत्तर (i) यह कविता उस समय की है जब देश अंग्रेज़ों का गुलाम था और अंग्रेज़ों के अत्याचार और शोषण से पीड़ित था। सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रस्तुत कविता राष्ट्र-प्रेम और आत्मबलिदान की भावना से पूर्ण है। (ii) कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान का देश-प्रेमी हृदय व्यथित है क्योंकि हमारा भारत देश पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। अंग्रेज़ हम पर अमानवीय अत्याचार कर रहे थे और देशभक्त स्वतंत्रता-सेनानियों के अथक प्रयास के बावज़ूद देश को स्वतंत्र कराने का स्वप्न पूरा नहीं हो पा रहा था। (iii) कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ईश्वर से यह प्रार्थना करती है कि वह अत्यंत दीन, दुर्बल, छोटी और अज्ञानी हैं और भारत माँ के मंदिर तक पहुँचने का मार्ग अत्यंत कठिन भी है। अत: ईश्वर उनकी सहायता करे और उन्हें ऐसी शक्ति प्रदान करे कि वे वहाँ तक पहुँचने में सफल हों और भारत माँ की रक्षा करने हेतु आत्मबलिदान कर सकें। (iv) यहाँ भारत माता की बात हो रही है जिसे अंग्रेज़ों ने गुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ रखा है। कवयित्री का मन बहुत भारी है। भारत माता की मंदिर तक पहुँचने का मार्ग कठिनाइयों से भरा हुआ है। मंदिर की सीढ़ियाँ बहुत ऊँची हैं जहाँ विदेशी सरकार रूपी पहरेदार स्वतंत्रता सेनानियों पर अत्याचार कर रहे हैं। देशभक्तों को राजद्रोही मान कर उनके साथ अन्याय करते हैं। कवयित्री कहती है कि उसके पैर भी कमज़ोर हैं जो बार-बार फिसल रहे हैं जिससे वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल नहीं हो पा रही है। कबीरदास (जन्म: 1398 - निधन: 1518) कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। ये सिकन्दर लोदी के समकालीन थे। कबीर का अर्थ अरबी भाषा में महान होता है। कबीरदास भारत के भक्ति काव्य परंपरा के महानतम कवियों में से एक थे। कबीरपंथी, एक धार्मिक समुदाय जो कबीर के सिद्धांतों और शिक्षाओं को अपने जीवन शैली का आधार मानते हैं। कबीरदास का लालन-पोषण एक जुलाहा परिवार में हुआ। इन्होंने गुरु रामानंद से दीक्षा ली। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने एक कुशल समाज-सुधारक की तरह तत्कालीन समाज में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों, मूर्ति-पूजा, कर्मकांड तथा बाहरी आडंबरों का जोरदार तरीके से विरोध किया। कबीरदास ने हिन्दू-मुसलामन ऐक्य का खुला समर्थन किया। कबीर के दोहों में गुरु-भक्ति, सत्संग, निर्गुण भक्ति तथा जीवन की व्यावहारिक आदि विषयों पर ज़ोर दिया गया है। कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- साखी, सबद और रमैनी। कबीर की भाषा में भोजपुरी, अवधी, ब्रज, राजस्थानी, पंजाबी, खड़ी बोली, उर्दू और फ़ारसी के शब्द घुल-मिल गए हैं। अत: विद्वानों ने उनकी भाषा को सधुक्कड़ी या पंचमेल खिचड़ी कहा है। साखी साखी संस्कृत 'साक्षित्' (साक्षी) का रूपांतर है। संस्कृत साहित्य में आँखों से प्रत्यक्ष देखने वाले के अर्थ में साक्षी का प्रयोग हुआ है। कालिदास ने कुमारसंभव में इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया है। हिंदी निर्गुण संतों में साखियों का व्यापक प्रचार निस्संदेह कबीर द्वारा हुआ है। गुरुवचन और संसार के व्यावहारिक ज्ञान को देने वाली रचनाएँ साखी के नाम से अभिहित होने लगीं। कबीर ने कहा भी है, साखी आँखी ज्ञान की।
(कबीर पर हिन्दी के सुप्रसिद्ध पत्रकार रवीश कुमार की एक रिपोतार्ज़)
(गायक कीर्ति संघटिया द्वारा प्रस्तुत कबीर-वाणी)
(ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह की मख़मली आवाज़ में कबीर-वाणी) कठिन शब्दार्थ गोबिंद - ईश्वर काके - किसके बलिहारी - निछावर होना मैं - अहंकार तामे - उसमें पाहन - पत्थर समंद - समुद्र बनराय - जंगल पायँ - पैर साँकरी - तंग काँकर - कंकड़ पहार - पहाड़ मसि - स्याही कागद - कागज़ खुदाय - ईश्वर, अल्लाह अवरतणों पर आधारित प्रश्नोत्तर (1) गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागू पायँ। बलिहारी गुरु आपनो, जिन गोबिंद दियौ बताय॥ जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहि। प्रेम गली अति साँकरी, तामे दो न समाहि॥ काँकर पाथर जोरि कै, मसजिद लई बनाय। ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय॥ पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार। ताते ये चाकी भली,पीस खाय संसार॥ प्रश्न (i) कबीरदास ने गुरु को गोविंद से ऊँचा स्थान क्यों दिया है ? (ii) मनुष्य के हृदय में "मैं" और "हरि" का वास एक साथ संभव क्यों नहीं है ? समझाकर लिखिए। (iii) "ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय" - पंक्ति में निहित व्यंग्य स्पष्ट कीजिए। (iv) पत्थर पूजने से यदि भगवान की प्राप्ति होती है, तो इसले लिए कबीर क्या करने को तैयार हैं और क्यों ? उत्तर (i) कबीरदास ने सदैव गुरु का स्थान ईश्वर से श्रेष्ठ माना है क्योंकि गुरु ज्ञान प्रदान करता है, सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है, मोह-माया से मुक्त कराता है। कबीर कहते हैं कि जब मेरे सामने ईश्वर और गुरु दोनों खड़े हो गए तब सच्चे गुरु ने मुझे सर्वप्रथम ईश्वर के चरण छूने की आज्ञा दी, इसलिए गुरु का स्थान ईश्वर से ऊँचा है। (ii) ईश्वर की प्राप्ति अहंकार शून्य भक्ति से ही हो सकती है। ईश्वर की प्राप्ति में सबसे बड़ी रुकावट मनुष्य का अहंकार होता है। जब तक मनुष्य के हृदय में अहंकार और दंभ होगा तब तक ईश्वर के दर्शन असंभव हैं, परंतु जिस दिन मनुष्य अपने भीतर के अहंकार का त्याग करता है उस दिन उसके हृदय में ईश्वर का वास हो जाता है। (iii) प्रस्तुत पंक्ति में कबीरदास ने मुसलमानों के धार्मिक पाखंड पर व्यंग्यात्मक प्रहार किया है। वे कहते हैं कि एक मौलवी कंकड़-पत्थर जोड़कर मस्जिद बना लेता है और रोज़ सुबह उस पर चढ़कर ज़ोर-ज़ोर से बाँग (अजान) देकर अपने ईश्वर को पुकारता है जैसे कि वह बहरा हो। कबीरदास कहना चाहते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापी हैं और हमें उनकी भक्ति शांत मन से करनी चाहिए। (iv) कबीरदास ने हिन्दुओं की मूर्ति-पूजा पर व्यंग्यात्मक प्रहार करते हुए कहा है कि यदि पत्थर से बने ईश्वर की पूजा करने भर से ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है तो वे पत्थर के पहाड़ को भी पूजने को तैयार हैं। कबीर कहते हैं कि पत्थर की मूर्ति से तो पत्थर की बनी वह चक्की बहुत अच्छी है जिससे अन्न को पीसकर सबकी क्षुधा शांत की जा सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर की प्राप्ति दीन-दुखियों की मदद करने से ही संभव है। गिरिधर कविराय (जन्म: संवत 1770) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी के अनुसार- नाम से गिरिधर कविराय भाट जान पड़ते हैं । शिव सिंह ने उनका जन्म – संवत 1770 दिया है, जो सम्भवत: ठीक है। इस हिसाब से उनका कविता-काल संवत 1800 के उपरान्त ही माना जा सकता है। उनकी नीति की कुण्डलियाँ ग्राम-ग्राम में प्रसिद्ध हैं। गिरिधर कवि ने नीति, वैराग्य और अध्यात्म को ही अपनी कविता का विषय बनाया है। जीवन के व्यावहारिक पक्ष का इनके काव्य में प्रभावशाली वर्णन मिलता है। वही काव्य दीर्घजीवी हो सकता है जिसकी पैठ जनमानस में होती है। ऐसा अनुमान है कि ये पंजाब के रहने वाले थे, किन्तु बाद में इलाहाबाद के आसपास आकर रहने लगे। इन्होंने कुंडलियों में ही समस्त काव्य रचा। गिरधर कविराय की कुंडलियां अवधी और पंजाबी भाषा में हैं। ये अधिकतर नीति विषयक हैं। गिरिधर कविराय ग्रंथावली में इनकी पांच सौ से अधिक कुडलियाँ संकलित कुंडलियाँ गिरिधर कविराय की कुंडलियाँ दैनिक जीवन की बातों से संबद्ध हैं और सीधी-सरल भाषा में कही गई हैं। वे प्राय: नीतिपरक हैं जिनमें परंपरा के अतिरिक्त अनुभव का पुट भी है। कुछ कुंडलियों में ‘साईं’ छाप मिलता है जिनके संबंध में धारण है कि यह उनकी पत्नी की रचना है। कठिन शब्दार्थ
कुंडली - २ कमरी थोरे दाम की,बहुतै आवै काम। खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥ उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै। बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥ कह गिरिधर कविराय, मिलत है थोरे दमरी। सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥ उपर्युक्त कुंडली में गिरिधर कविराय ने कंबल के महत्त्व को प्रतिपादित करने का प्रयास किया है। कंबल बहुत ही सस्ते दामों में मिलता है परन्तु वह हमारे ओढने, बिछाने आदि सभी कामों में आता है। वहीं दूसरी तरफ मलमल की रज़ाई देखने
में सुंदर और मुलायम होती है किन्तु यात्रा करते समय उसे साथ रखने में बड़ी परेशानी होती है। कंबल को किसी भी तरह बाँधकर उसकी छोटी-सी गठरी बनाकर अपने पास रख सकते हैं और ज़रूरत पड़ने पर रात में उसे बिछाकर सो सकते हैं। अत: कवि कहते हैं कि भले ही कंबल की कीमत कम है परन्तु उसे साथ रखने पर हम सुविधानुसार समय-समय पर उसका प्रयोग कर सकते हैं। कुंडली - ३
कुंडली - ४ साँई सब संसार में, मतलब का व्यवहार। प्रस्तुत कुंडली में गिरिधर कविराय ने समाज की रीति पर व्यंग्य किया है तथा स्वार्थी मित्र के संबंध में बताया है। कवि कहते हैं कि इस संसार में सभी मतलबी हैं। बिना स्वार्थ के कोई किसी से मित्रता नहीं करता है। जब तक मित्र के पास धन-दौलत है तब तक सारे मित्र उसके आस-पास घूमते हैं। मित्र के पास जैसे ही धन समाप्त हो जाता है सब उससे मुँह मोड़ लेते हैं। संकट के समय भी उसका साथ नहीं देते हैं। अत: कवि कहते हैं कि संसार का यही नियम है कि बिना स्वार्थ के कोई किसी का सगा-संबंधी नहीं होता। कुंडली - ५ रहिए लटपट काटि दिन, बरु घामे माँ सोय। छाँह न बाकी बैठिये, जो तरु पतरो होय॥ जो तरु पतरो होय, एक दिन धोखा देहैं। जा दिन बहै बयारि, टूटि तब जर से जैहैं॥ कह गिरिधर कविराय छाँह मोटे की गहिए। पाती सब झरि जायँ, तऊ छाया में रहिए॥ उपर्युक्त कुंडली में गिरिधर कविराय ने अनुभवी व्यक्ति की विशेषता बताई है। कवि के अनुसार हमें पतले पेड़ की छाया में कभी नहीं बैठना चाहिए क्योंकि वह आँधी-तूफ़ान के आने पर टूट कर हमारे प्राण संकट में भी डाल सकता है। इसलिए हमें सदैव मोटे और पुराने पेड़ों की छाया में आराम करना चाहिए क्योंकि उसके पत्ते झड़ जाने के बावज़ूद भी वह हमें पूर्ववत् शीतल छाया प्रदान करते हैं। अत: हमें अनुभवी व्यक्तियों की संगति में रहना चाहिए क्योंकि अनुभवहीन व्यक्ति हमें पतन की ओर ले जा सकता है। कुंडली - ६ पानी बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़े दाम। दोऊ हाथ उलीचिए, यही सयानो काम॥ यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै। पर-स्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै॥ कह गिरिधर कविराय, बड़ेन की याही बानी। चलिए चाल सुचाल, राखिए अपना पानी॥ प्रस्तुत कुंडली में गिरिधर कविराय ने परोपकार का महत्त्व बताया है। कवि कहते हैं कि जिस प्रकार नाव में पानी बढ़ जाने पर दोनों हाथों से पानी बाहर निकालने का प्रयास करते हैं अन्यथा नाव के डूब जाने का भय रहता है। उसी प्रकार घर में ज्यादा धन-दौलत आ जाने पर हमें उसे परोपकार में लगाना चाहिए। कवि के अनुसार अच्छे और परोपकारी व्यक्तियों की यही विशेषता है कि वे धन का उपयोग दूसरों की भलाई के लिए करते हैं और समाज में अपना मान- सम्मान बनाए रखते हैं। कुंडली - ७ राजा के दरबार में, जैये समया पाय। साँई तहाँ न बैठिये, जहँ कोउ देय उठाय॥ जहँ कोउ देय उठाय, बोल अनबोले रहिए। हँसिये नहीं हहाय, बात पूछे ते कहिए॥ कह गिरिधर कविराय समय सों कीजै काजा। अति आतुर नहिं होय, बहुरि अनखैहैं राजा॥ प्रस्तुत कुंडली में गिरिधर कविराय ने बताया है कि हमें अपने सामर्थ्य अनुसार ही आचरण करना चाहिए। कवि कहते हैं कि जिस प्रकार राजा के दरबार में हमें समय पर ही जाना चाहिए और ऐसी जगह नहीं बैठना चाहिए जहाँ से कोई हमें उठा दे। बिना पूछे किसी प्रश्न का जवाब नहीं देना चाहिए और बिना मतलब के हँसना भी नहीं चाहिए। हमें अपना हर कार्य समयानुसार ही करना चाहिए। जल्दीबाज़ी में ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे राजा नाराज़ हो जाएँ। अवरतणों पर आधारित प्रश्नोत्तर (1) साँई सब संसार में, मतलब का व्यवहार। जब लग पैसा गाँठ में, तब लग ताको यार॥ तब लग ताको यार, यार संग ही संग डोले। पैसा रहे न पास, यार मुख से नहिं बोले॥ कह गिरिधर कविराय जगत यहि लेखा भाई। करत बेगरजी प्रीति, यार बिरला कोई साँई॥ प्रश्न (i) कवि के अनुसार इस संसार में किस प्रकार का व्यवहार प्रचलित है ? (ii) व्यक्ति के पास रुपया-पैसा न रहने पर मित्रों के व्यवहार में क्या परिवर्तन आ जाता (iii) "करत बेगरजी प्रीति, यार बिरला कोई साँई" - पंक्ति द्वारा कवि क्या स्पष्ट करना चाहता है ? (iv) निम्नलिखित शब्दों के अर्थ लिखिए - गाँठ, बेगरजी, विरला, यार, प्रीति, जगत। उत्तर (i) कवि के अनुसार यह संसार मोह-माया से भरा है जिसमें धन-दौलत की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस संसार में रुपए-पैसे की पूजा होती है और इनसान उसके पीछे भागता फिरता है। इस संसार में सभी का व्यवहार मतलब से भरा है और बिना स्वार्थ के कोई किसी से मित्रता नहीं करता है (ii) इस संसार में धन-दौलत ही सब कुछ है। उसके बगैर किसी भी इनसान की कोई कीमत नहीं है। जब तक व्यक्ति के पास रुपया- पैसा है तब तक सभी आपके शुभचिंतक बने रहते हैं लेकिन जब आपके पास धन-दौलत समाप्त हो जाता है तब मुसीबत पड़ने पर कोई भी आपका साथ नहीं देता है। यही इस संसार की रीति है। (iii) बिना स्वार्थ के कोई किसी से मित्रता नहीं करता है। जब तक मित्र के पास धन-दौलत है तब तक सारे मित्र उसके आस-पास घूमते हैं। मित्र के पास जैसे ही धन समाप्त हो जाता है सब उससे मुँह मोड़ लेते हैं। संकट के समय भी उसका साथ नहीं देते हैं। अत: कवि कहते हैं कि इस संसार का यही नियम है कि बिना स्वार्थ के कोई किसी का सगा-संबंधी नहीं होता। संसार से नि:स्वार्थ प्रेम की भावना खत्म होती जा रही है और लोगों में एक-दूसरे के प्रति अपनत्व और प्रेम का भाव भी धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है। कोई विरला ही होता है जिसके मन में बिना किसी स्वार्थ के दूसरों के लिए प्रेम की भावना होती है। (iv) गाँठ - जेब बेगरजी - जिसमें किसी प्रकार का स्वार्थ न हो विरला - बहुत कम मिलनेवाला यार - मित्र, दोस्त प्रीति - प्रेम, प्यार जगत - संसार (2) पानी बाढ़ै नाव
में, घर में बाढ़े दाम। प्रश्न (i) कवि के अनुसार नाव में पानी तथा घर में दाम बढ़ने पर क्या करना चाहिए ? (ii) " शीश आगे धर दीजै" - कवि ने ऐसा किस संदर्भ में कहा है ? (iii) कवि ने बड़ों की किस वाणी का उल्लेख किया है ? (iv) क्या गिरिधर कविराय की कुंडलियाँ आज भी प्रासंगिक हैं ? उत्तर (i) नाव में पानी बढ़ जाने पर दोनों हाथों से पानी बाहर निकालने का प्रयास करते हैं नहीं तो नाव के डूब जाने का खतरा बना रहता है। उसी प्रकार घर में ज्यादा धन-दौलत आ जाने पर हमें उसे परोपकार में लगाना चाहिए। (ii) कवि कहते हैं कि यदि आपके पास अपार धन-दौलत है तो परमपिता परमेश्वर का स्मरण करते हुए उसे दीन-दुखियों की मदद में लगा देना चाहिए। ताकि उससे मानव जाति का कल्याण हो सके। (iii) कवि के अनुसार महान, अच्छे और परोपकारी व्यक्तियों की यह विशेषता होती है कि वे अपने संचित धन का उपयोग दीन-दुखियों की भलाई और कल्याण के लिए करते हैं। वे दया और परोपकार के ऊँच मार्ग पर अग्रसर होते हुए समाज में अपना मान-सम्मान भी बढ़ाते रहते हैं। (iv) गिरिधर कविराय की कुंडलियाँ दैनिक जीवन की बातों से संबद्ध हैं और सीधी-सरल भाषा में कही गई हैं। वे प्राय: नीतिपरक हैं जिनमें परंपरा के अतिरिक्त अनुभव का पुट भी है। गिरिधर कवि ने नीति, वैराग्य और अध्यात्म को ही अपनी कविता का विषय बनाया है। जीवन के व्यावहारिक पक्ष का इनके काव्य में प्रभावशाली वर्णन मिलता है। वही काव्य दीर्घजीवी हो सकता है जिसकी पैठ जनमानस में होती है। इस आधार पर नि:संदेह गिरिधर कविराय की कुंडलियाँ आज भी प्रसंगिक है क्योंकि उनमें लाठी और कंबल जैसे दैनिक जीवन में आने वाली वस्तुओं की महत्ता का वर्णन है, कोयल के समान गुणी व्यक्ति की समाज में आवश्यकता पर जोर है, नि:स्वार्थ भाव से अपना कर्म करने की सीख है और सामाजिक जीवन में उचित आचरण करने की जरूरत भी है। मेघ आए ( जन्म : 15 सितम्बर 1927 - निधन : 24 सितम्बर 1983 ) सर्वेश्वर दयाल सक्सेना मूलतः कवि एवं साहित्यकार हैं। शिक्षा समाप्त करने के बाद कुछ समय के लिए इन्होंने अध्यापन का कार्य किया। आल इंडिया रेडियो के सहायक संपादक (हिन्दी समाचार विभाग) पद पर आपकी नियुक्ति हो गई। इस पद पर वे दिल्ली में वे 1960 तक रहे। सन 1960 के बाद वे दिल्ली से लखनऊ रेडियो स्टेशन आ गए। 1964 में लखनऊ रेडियो की नौकरी के बाद वे कुछ समय भोपाल एवं रेडियो में भी कार्यरत रहे। इन्होंने "दिनमान" नामक लोकप्रिय पत्रिका का उपसंपादन भी किया। बाद में बच्चों की पत्रिका "पराग" का संपादन भी किया। इनकी रचनाओं में ग्रामीण संवेदना के साथ-साथ शहरी मध्यवर्गीय जीवन की अभिव्यक्ति भी हुई है। इन्होंने प्रकृति का अत्यंत सजीव और हृदयग्राही चित्रण किया है। इनके काव्य में इनकी कल्पनाशक्ति का विस्तार देखने को मिलता है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को "खूँटियों पर टँगे लोग" के लिए 1983 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। प्रमुख रचनाएँ काठ की घंटियां बांस का पुल एक सूनी नाव गर्म हवाएं कुआनो नदी जगल का दर्द क्या कह कर पुकारूँ – प्रेम कविताएं कठिन शब्दार्थ बन-ठन के - तैयार होकर पाहुन - मेहमान, दामाद बयार - हवा ज्यों - जिस प्रकार गरदन उचकाये - गरदन उठाकर चितवन - दृष्टि ठिठकी - अचानक रुकी जुहार - स्वागत सुधि लीन्हीं - खबर ली अकुलाई - उत्सुक हुई ओट हो किवार की - किवाड़ के पीछे छिपकर हरषाया - प्रसन्न हुआ अटारी - घर के ऊपर की कोठरी या छत दामिनी - बिजली भरम - संदेह अवरतणों पर आधारित प्रश्नोत्तर (1) बूढ़े पीपल ने आगे बढ़कर जुहार की ’बरस बाद सुधि लीन्हीं’ बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की, हरसाया ताल लाया पानी परात भर के। मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के। (i) पीपल को बूढ़ा क्यों कहा गया है ? उसका ग्रामीण संस्कृति में क्या में क्या महत्त्व है ? समझाकर लिखिए। (ii) मेघ की समानता किससे की गई है ? वे कहाँ, कितने समय बाद आए ? (iii) लता किसका प्रतीक है ? वह किवाड़ की ओट से अपनी बात क्यों कह रही है ? उसने किसे क्या उलाहना दिया ? समझाकर लिखिए। (iv) ताल किसका प्रतीक है ? वह क्या लेकर आया और क्यों ? उसकी प्रसन्नता का क्या कारण है ? समझाकर लिखिए। उत्तर (i) पीपल को बूढ़ा इसलिए कहा गया है क्योंकि उसकी उम्र बहुत लम्बी होती है। गाँव में प्राय: घरों के सामने पीपल का पेड़ होता है। पीपल के पेड़ को पवित्र माना जाता है तथा उसकी पूजा की जाती है। घर के बड़े-बूढ़े के समान पीपल का पेड़ मेघ रूपी पाहुन का स्वागत करता है। हवा के कारण उसकी डालियाँ झुक जाती हैं जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानो वह झुककर स्वागत कर रहा हो। (ii) मेघ की समानता गाँव के किसी दामाद से की गई है। वह अपने ससुराल एक वर्ष के बाद आया है। वह बहुत बन-ठन कर आया है। उसे देखकर ऐसा लगता है जैसे कोई मेहमान शहर से आया हो। वर्षा के मेघ भी एक बरस के बाद सज-सँवर कर साफ़-सुथरे जल से भर कर आए हैं। भीषण गर्मी के बाद आने वाले बादलों से आसमान के सौन्दर्य में चार चाँद लग जाते हैं। (iii) लता घर की बेटी का प्रतीक है। किवाड़ से लिपटी लता को मायके में रहने वाली ऐसी युवती के रूप में चित्रित किया गया है जिसका पति शहर से लम्बे समय के बाद आया हो। ग्रामीण परिवेश में बड़ों की उपस्थिति में लज्जा के कारण पत्नी पति के सामने नहीं आती। अत: दरवाज़े की ओट होकर बेचैनी से उलाहना देती है कि एक बरस के बाद हमारी खबर ली। लता ने भी बादल के बिना कितना दुख झेला है और गर्मी सही है यह ’बरस बाद सुधि लीन्हीं’ से स्पष्ट हो जाता है। (iv) ताल मेहमान के रिश्तेदार का प्रतीक है। गाँव में आज भी यह परम्परा है कि मेहमान के घर आते ही पैर धुलवाए जाते हैं। यह अत्यंत वैज्ञानिक परम्परा है। धूल-मिट्टी के साथ आए कीटाणु भी पैर धोने से साफ़ हो जाते हैं, साथ ही मार्ग की थकान भी जाती रहती है। ताल रूपी रिश्तेदार प्रसन्न होकर परात में पानी लाता है और पैर धुलवाता है। तालाब भी मेघ के लिए यह कार्य खुशी-खुशी करता है। उसकी खुशी का कारण है कि जब बादल बरसेंगे तो वह भी जल से भर जाएगा। इसलिए वह हरषाया हुआ है, बहुत खुश है। (2) मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के। आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली, दरवाज़े-खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली, पाहुन ज्यों आए हो, गाँव में शहर के। मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के। पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए, आँधी चली, धूल भागी घाघरा उठाए, बाँकी चितवन उठा नदी ठिंठकी, घूँघट सरखए। मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के। (i) मेघ किसके प्रतीक हैं ? वे किस रूप में गाँव में आए हैं ? उनका स्वागत किस प्रकार होता है ? (ii) यहाँ किस बयार की बात की जा रही है ? उसे नाचते-गाते चलती हुई क्यों दिखाया गया है ? (iii) ’पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के’ पंक्ति के भाव सौन्दर्य को स्पष्ट कीजिए। पाहुन का ग्रामीण संस्कृति में क्या महत्त्व है ? मेघों को मेहमान क्यों कहा गया है ? (iv) कौन ठिठक गया है ? वह बाँकी चितवन से किसे देख रही है ? ’घूँघट सरके’ से कवि का क्या तात्पर्य है ? अपने शब्दों में लिखिए। उत्तर (i) मेघ मेहमान के प्रतीक हैं। बादलों को देखकर कवि को ऐसा प्रतीत होता है जैसे शहर से कोई मेहमान (किसी का दामाद) आया हो, जो बन-सँवर कर, नए धुले और चमकीले कपड़े पहनकर बना-ठना चला आ रहा हो। गाँव के लोग मेहमान रूपी दामाद जी के स्वागत में अपने घरों से बाहर निकलकर उनका प्रसन्न मन से स्वागत करते हैं। (ii) बारिश के मौसम में बादलों से पहले उनके आने की सूचना देने पुरवाई (पूरब से चलने वाली शीतल हवा) चल पड़ती है जिससे मौसम ठंडा हो जाता है और लोगों के मन में प्रसन्नता भर जाती है। सब लोग शीतल वायु का आनंद लेने के लिए खिड़की - दरवाज़े खोल कर हर्षोल्लास मनाते हैं। ठीक वैसे ही जब दामाद जी गाँव में पधारते हैं तो सभी खुशी के साथ नाचते-गाते हुए उनका स्वागत करते हैं। (iii) ’पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के’ का तात्पर्य है कि गाँव में दामाद को पाहुन अथवा पाहुँना भी कहा जाता है। कहीं-कहीं दामाद को मेहमान भी कहते हैं। यहाँ आए सम्मानसूचक शब्द है। दामाद जी शहर से बन-ठन कर गाँव आए हैं। ग्रामीण संस्कृति में दामाद को अत्यंत सम्मान दिया जाता है। उसके आगमन पर घर के सभी बड़े-बूढ़े झुककर उनका स्वागत करते हैं। घर की स्त्रियाँ उनका द्वार-पूजन करती हैं। उनके पाँव धुलवाए जाते हैं। कवि ने मेघों को मेहमान इसलिए कहा है क्योंकि वे भी मेहमान की तरह एक वर्ष के बाद आए हैं। (iv) नदी रूपी गाँव की बहुएँ ठिठकने लगी। जिस प्रकार हवा के चलने से नदी में लहर उत्पन्न होती है और नदियों में आड़ी-तिरछी लहरें उठने लगती हैं ठीक उसी प्रकार मेहमान रूपी दामाद जी के आने के समाचार से गाँव की बहुओं ने घूँघट कर लिया और अपनी तिरछी नज़र से उसे देख लेना चाह रही हैं ताकि उन्हें ऐसा करते हुए कोई देख न ले। ग्रामीण संस्कृति में बहुओं के लिए घूँघट करना अनिवार्य नियम है। ( जन्म:11फरवरी 1896 - निधन:15 अक्टूबर 1961) सूर्यकांतत्रिपाठीनिरालाहिन्दीकीछायावादीकालकेप्रमुखकविहैं। इन्हेंबंगला, अंग्रेजीऔरसंस्कृतकाअच्छाज्ञानथा। निरालाबहुमुखीप्रतिभाकेधनीसाहित्यकारथे। इन्होंनेकविताओंकेअतिरिक्तकहानियाँ, आलोचनाएँ, निबंधआदिभीलिखेहैं। सन 1916 मेंइन्होंने "जूहीजीकली" कीरचनाकी। इन्होंनेअपनीकविताओंमेंप्रकृति-वर्णनकेअतिरिक्तशोषण केविरुद्धविद्रोह, शोषितोंएवंदीनहीनजनकेप्रतिसहानुभूतितथापाखंडकेप्रतिव्यंग्य कीअभिव्यक्तिकीहै। निरालाकीभाषासहज, भावानुकूलहैजिसमेंसंस्कृतकेशब्दोंका प्रयोगमिलताहै। प्रमुखरचनाएँ - परिमल,गीतिका, अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, अपरा, बेला, नएपत्ते, रामकीशक्तिपूजाआदि। कठिन शब्दार्थ दो टूक कलेजे के करता – हृदय को बहुत दुख पहुँचाता हुआ पछताता – पश्चाताप करता हुआ लकुटिया – लाठी टेक – सहारे, टिकाकर दाता भाग्य विधाता – देने वाला, भाग्य का निर्माण करने वाला ईश्वर अड़े हुए – तत्पर अमृत – अमर करने वाला पेय पदार्थ झपट लेना – छीन लेना अवरतणों पर आधारित प्रश्नोत्तर (1) वह आता – दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता। पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक चल रहालकुटिया टेक, मुट्ठी-भर दाने को – भूख मिटाने को मुँह फटी-पुरानी झोली को फैलाता – दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता। साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए, बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते, और दाहिना दया-दृष्टि पाने की ओर बढ़ाए। भूख से सूख ओंठ जब जाते दाता-भाग्य-विधाता से क्या पाते ? घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते। प्रश्न (i) यहाँ किसके आने की बात की जा रही है ?
उसका कवि पर (ii) कवि ने उसकी गरीबी का वर्णन किस प्रकार किया है ? (iii) भिखारी के साथ कौन है ? वे क्या कर रहे हैं ? (iv) “दाता-भाग्य-विधाता से क्या पाते” का भाव स्पष्ट कीजिए। उत्तर स्वर्ग बना सकते हैं रामधारी सिंह दिनकर रामधारी सिंह 'दिनकर'
हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार हैं। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रान्त के बेगुसराय जिले का सिमरिया घाट
उनकी जन्मस्थली है। उन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। पंक्तियों पर आधारित प्रश्नोत्तर (1) धर्मराज यह भूमि किसी की नहीं क्रीत है दासी है जन्मना समान परस्पर इसके सभी निवासी सबको मुक्त प्रकाश चाहिए सबको मुक्त समीरण बाधार हित विकास,मुक्त आशंकाओं से जीवन। प्रश्न (i) धर्मराज किसे कहा गया है ? धरती के संबंध में उन्हें क्या बताया गया है? (ii) धरती के सभी निवासी एक समान क्यों कहे गए हैं ? (iii) किस-किस पर सबका अधिकार है और किस प्रकार ? मानवत का विकास कैसा होना चाहिए। (iv) प्रस्तुत कविता से आपने क्या सीखा ? अपने शब्दों में लिखिए। उत्तर (i) धर्मराज युधिष्ठिर को कहा गया है। महाभारत के युद्ध के पश्चात जब पांडव विजयी होते हैं और भीष्म पितामह से मिलने जाते हैं तब पितामह तीरों की शैय्या पर लेटे हुए ज्येष्ठ पांडु पुत्र युधिष्ठिर को शिक्षा देते हुए कहते हैं कि यह धरती किसी की खरीदी हुई दासी नहीं है। (ii)कवि ने धरती के सभी निवासियों को एक समान कहा है क्योंकि धरती के सभी निवासियों का जन्म माँ के गर्म से एक समान रूप से हुआ है। (iii)कवि कहते हैं कि इस धरती पर सभी निवासियों का जन्म समान रूप से हुआ है। उन सबको खुला आसमान चाहिए जिससे वे धूप और चाँदनी दोनों का आनंद समान रूप से ले सकें। सभी को मुक्त रूप से रोशनी तथा ज्ञानरूपी प्रकाश भी पूर्ण रूप से मिलना चाहिए। सभी को खुली हवा चाहिए। खुली हवा स्वतंत्रता का प्रतीक है। कवि चाहते हैं कि प्रत्येक मानव विकास करे और उसके विकास में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न हो। उसे किसी प्रकार की चिन्ता-आशंका का सामना न करना पड़े। धरती, आसमान, हवा सबके लिए हैं और उन पर सबका अधिकार है। (iv) प्रस्तुत कविता “स्वर्ग बना सकते हैं” के माध्यम से कवि ने मानव-जाति को यह समझाने की कोशिश की है कि इस विशाल धरती पर सबका जन्म समान रूप से हुआ है। धरती पर मौजूद समस्त संसधानों पर सम्पूर्ण मानव-जाति का अधिकार है और उसे अपने विकास के लिए उनके उपयोग की स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए किन्तु कुछ स्वार्थी मनुष्यों ने लोभवश उन पर अधिकार जमाना शुरू कर दिया है और समाज में भेद-भाव को जन्म दिया है जिससे संघर्ष की सृष्टि हो रही है। कवि का मानना है कि धरती पर सुख के इतने साधन मौजूद हैं कि उनसे सभी मनुष्यों की आवश्यकताएँ पूर्ण हो सकती हैं। अत: मनुष्यों को अपने लोभ का त्याग कर समाज में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की स्थापना करनी चाहिए और धरती को स्वर्ग के समान बनाने की कोशिश करनी चाहिए। (2) प्रभु के दिए हुए सुख इतने हैं विकीर्ण धरती पर भोग सकें जो उन्हें जगत में, कहाँ अभी इतने नर ? सब हो सकते तुष्ट, एक सा सब सुख पा सकते हैं चाहें तो पल में धरती को स्वर्ग बना सकते हैं। प्रश्न (i) धरती पर किसका दिया हुआ क्या फैला हुआ है ? स्पष्ट कीजिए। (ii) "कहाँ अभी इतने नर" पंक्ति से कवि क्या समझाना चाहते हैं ? (iii) यहाँ किनके तुष्ट होने की बात की जा रही है ? वे क्यों तुष्ट नहीं हैं ? वे क्या पाकर संतुष्ट हो सकते हैं ? (iv) पल में धरती को स्वर्ग कैसे बनाया जा सकता है ? उत्तर (i) धरती पर ईश्वर के दिए हुए असीम सुख के साधन फैले हुए हैं। अन्न उत्पन्न करने वाली उपजाऊ मिट्टी, वायु, पर्वत, झरने, नदियाँ, धूप, चाँदनी, सूरज की जीवनदायिनी किरण आदि। मानव इनका उपयोग कर सुख-शांति से पूर्ण जीवन व्यतीत कर सकता है। (ii) प्रस्तुत पंक्ति द्वारा कवि यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि धरती ने मनुष्य को असीमित संसाधन दिए हैं जिसका उपयोग मनुष्य अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए कर सकता है। प्रकृति में संसधानों का इतना भंडार है कि मनुष्य चाहे भी तो उसका उपयोग कर उसे समाप्त भी नहीं कर सकता है। अत: यदि सबको समान अधिकार मिले तो सभी व्यक्ति इन संसाधनों का भरपूर प्रयोग कर सकते हैं और संसार से वैमनस्य का भाव भी मिट जाएगा। (iii) यहाँ मनुष्यों के उस वर्ग की बात हो रही है जिनके प्रकृति द्वारा प्रदान किए गए सुख के साधनों पर कुछ स्वार्थी और चालाक लोगों ने अपना अधिकार स्थापित कर लिया है। अभाव से ग्रसित मनुष्यों का यह वर्ग संतुष्ट नहीं है क्योंकि कड़ी परिश्रम के पश्चात भी इन्हें रोटी, कपड़ा और महान जैसी आवश्यक जरूरतों से विमुख रहना पड़ता है। यदि उन लोगों को न्यायोचित अधिकार मिले तो वे भी संतुष्ट हो जाएँगे। (iv) कवि रामधारी सिंह "दिनकर" प्रगतिशील कवि हैं। उन्होंने सदैव शोषक वर्ग का विरोध किया है और शोषित वर्ग के हितों की रक्षा के लिए अपनी कविताओं का स्वर क्रांतिमय बनाया है। उनका मानना है कि धरती पर सभी मनुष्य समान रूप से जन्म लेते हैं और जन्म लेते ही धरती के समस्त संसाधनों पर उसका अधिकार बनता है। यदि सभी मनुष्यों को न्यायोचित अधिकार प्राप्त हो सके तथा समाज में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की स्थापना संभव हो सके तो धरती को स्वर्ग बनने से कोई नहीं रोक सकता। वह जन्मभूमि मेरी सोहनलाल द्विवेदी (जन्म: 1905 - निधन: 1988) सोहनलाल द्विवेदी हिन्दी के प्रसिद्ध कवि हैं। द्विवेदी जी हिन्दी के राष्ट्रीय कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए। ऊर्जा और चेतना से भरपूर रचनाओं के इस रचयिता को राष्ट्रकवि की उपाधि से अलंकृत किया गया। महात्मा गांधी के दर्शन से प्रभावित, द्विवेदी जी ने बालोपयोगी रचनाएँ भी लिखीं। 1969 में भारत सरकार ने आपको पद्मश्री उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया था। 1938 से 1942 तक इन्होंने राष्ट्रीय पत्र "अधिकार" का संपादन किया। द्विवेदी जी की रचनाओं में गाँधीवाद, राष्ट्रीय जागरण, भारत की गरिमापूर्ण संस्कृति, ग्राम सुधार, हरिजन-उद्धार और समाज सुधार का स्वर मुखरित हुआ है। इनकी भाषा में आमजन को ध्यान में रखकर शब्दों का प्रयोग किया गया है। भाषा सहज तथा ओजपूर्ण है। प्रमुख रचनाएँ - भैरवी, पूजागीत सेवाग्राम, प्रभाती, युगाधार, कुणाल, चेतना, बाँसुरी, बच्चों के बापू, शिशु भारती, चाचा नेहरू, दूध बतासा आदि। शब्दार्थ सिंधु - समुद्र नित - प्रतिदिन, रोज़ सुयश - प्रसिद्धि, कीर्ति, ख्याति पग - चरण अमराइयाँ - आम का बगीचा छहरना - बिखरना पुनीत - पवित्र रघुपति - दशरथ पुत्र राम त्रिवेणी - तीन नदियों का संगम ( गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का संगम जो प्रयाग, इलाहाबाद में है।) गीता - कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया पद्यात्मक उपदेश वंशी - बाँसुरी पुण्यभूमि - पवित्र धरती स्वर्णभूमि - धन-धान्य से परिपूर्ण भूमि मलय पवन - दक्षिण भारत में स्थित मलय पर्वत से आने वाली सुगंधित हवा (1) जन्मे जहाँ थे रघुपति, जन्मी जहाँ थी सीता, श्रीकृष्ण ने सुनाई, वंशी पुनीत गीता। गौतम ने जन्म लेकर. जिसका सुयश बढ़ाया, जग को दया दिखाई, जग को दीया दिखाया। वह युद्धभूमि मेरी, वह बुद्धभूमि मेरी। वह जन्मभूमि मेरी, वह मातृभूमि मेरी। प्रश्न (i) प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने किन दो महाकाव्यों के किन-किन पात्रों का उल्लेख किया है और भारतीय संस्कृति में उनका क्या महत्त्व है? (ii) "जग को दया दिखाई, जग को दीया दिखाया" - से कवि का क्या तात्पर्य है? स्पष्ट कीजिए। (iii) कवि ने ’वह युद्धभूमि मेरी’ और’वह बुद्धभूमि मेरी’ के द्वारा क्या कहना चाहा है? समझाकर लिखिए। (iv) प्रस्तुत कविता के माध्यम से कवि हममें राष्ट्रीय- गौरव का भाव जागृत करना चाहते हैं। - स्पष्ट कीजिए। उत्तर (i) प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण के नायक श्रीराम और सीता तथा वेद व्यास द्वारा रचित महाभारत के नायक भगवान श्रीकृष्ण का ज़िक्र किया है। भारतीय संस्कृति में राम और कृष्ण को भगवान विष्णु का अवतार माना गया है जिन्होंने धरती पर पापियों का संहार करने तथा न्याय और धर्म की स्थापना करने के लिए मानव रूप में जन्म लिया। सीता एक आदर्श भारतीय नारी का प्रतिरूप है जो हर विषम परिस्थिति में भी अपने कर्त्तव्य के पथ से विचलित नहीं होती है। (ii) "जग को दया दिखाई, जग को दीया दिखाया" पंक्ति के माध्यम से कवि यह कहना चाहते हैं कि भारत भूमि पर ही कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ ने सांसारिक जीवन का त्याग कर परम ज्ञान की प्राप्ति की और गौतम बुद्ध बनकर वैदिक कर्मकांड के विरुद्ध दया, प्रेम, परोपकार पर आधारित बौद्ध धर्म की स्थापना की। उन्होंने समस्त सृष्टि को प्रेम और दया का महत्त्व बताया और विश्व में व्याप्त अज्ञानता रूपी अँधेरे को ज्ञान रूपी दीये की रोशनी से आलोकित किया। (iii) कवि ने ’वह युद्धभूमि मेरी’ के माध्यम से यह कहना चाहा है कि हम भारतीयों के लिए यह संघर्ष की भूमि है जो हमें हर तरह के अभाव, अज्ञान और संताप ( मानसिक पीड़ा) से लड़ने के लिए प्रेरित करता है ताकि हम स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के साथ सम्मान का जीवन व्यतीत कर सकें। ’वह बुद्धभूमि मेरी’ कहने से कवि का तात्पर्य गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित बौद्ध धर्म से है। भारत में ही बौद्ध धर्म की स्थापना हुई जिसने समस्त विश्व में प्रेम, दया, सहानुभूति और भाईचारे की शिक्षा दी और भारतभूमि का यश बढ़ाया। (iv) कवि ने" वह जन्मभूमि मेरी" के माध्यम से भारत के प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ-साथ उसकी महानता और गौरव का उल्लेख भी किया है। हिमालय के समान अटल एवं उच्च विचार तथा समुद्र की तरह तरल, प्रेमपूर्ण व्यवहार का वर्णन कर भारतीयों में राष्ट्रीय गौरव की भावना जागृत करना कवि का उद्देश्य रहा है। भारत में मानव और पशु-पक्षी सभी आनन्दित हैं। नदियों की धारा अविरल गति से बहती रहती है जो निरन्तर कर्म करने का संदेश देती है। इस देश में मर्यादा पुरुषोत्तम राम और आदर्श सीता ने अपने चरित्र से मानव जाति को प्रेरणा दी है। श्रीकृष्ण के निष्काम कर्मयोग तथा बुद्ध के ज्ञान और दया ने इस देश को महिमाशाली बनाया है। भारत पुण्यभूमि, स्वर्णभूमि, धर्मभूमि, कर्मभूमि, युद्धभूमि और बुद्धभूमि भी है जिसने समस्त मानव जाति को सदियों से प्रेरित किया है और आने वाले समय में भी सबका मार्ग-दर्शन करती रहेगी। (2) ऊँचा खड़ा हिमालय, आकाश चूमता है, नीचे चरण तले पड़, नित सिन्धु झूमता है। गंगा, यमुना, त्रिवेणी, नदियाँ लहर रही हैं, जगमग छटा निराली, पग-पग पर छहर रही है। वह पुण्यभूमि मेरी, वह स्वर्णभूमि मेरी। वह जन्मभूमि मेरी, वह मातृभूमि मेरी॥ प्रश्न (i) भारत की उत्तर दिशा में स्थित पर्वत का नाम लिखिए और दक्षिण में पाए जाने वाले महासागर का नाम लिखिए। त्रिवेणी से किन नदियों की ओर संकेत है ? इनके नाम लिखिए। (ii) "जगमग छटा निराली, पग-पग पर छहर रही है" - पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए। (iii) भारत को पुण्यभूमि और स्वर्णभूमि क्यों कहा गया है ? समझाकर लिखिए। (iv) कवि ने भारत को अपनी जन्मभूमि और मातृभूमि क्यों कहा है ? समझाकर लिखिए। उत्तर (i) भारत की उत्तर दिशा में भारत का प्रहरी हिमालय पर्वत स्थित है। उसकी ऊँचाई देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वह आकाश को चूम रहा हो। भारत के दक्षिण में चरण पखारता हिन्द महासागर है। उसे देखकर ऐसा लगता है जैसे भारतमाता के पैरों के नीचे समुद्र निरंतर झूमता रहता है, मचलता रहता है। भारत में गंगा, यमुना और सरस्वती जैसी पवित्र नदियाँ बहती हैं। इन तीनों नदियों का संगम इलाहाबाद में होता है। (ii) "जगमग छटा निराली, पग-पग पर छहर रही है"- से कवि का आशय यह है कि भारत के इलाहाबाद में गंगा, यमुना और सरस्वती जैसी पवित्र नदिय़ाँ बहती हैं जहाँ इनका संगम होता है। इनमें उठती तेज़ लहरें चारों तरफ बिखरकर बहती हैं। इन नदियों का चमकदार सौन्दर्य अत्यंत निराला और देखने योग्य है। इनकी अथाह जलराशि कदम-कदम पर सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है। (iii)भारत ऋषि-मुनियों का देश है जिन्होंने आजीवन पवित्र जीवन का संदेश दिया। उनका संदेश भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण दुनिया तक पहुँचा। उन्होंने सत्य, अहिंसा, मानवता, दया, प्रेम, भाईचारे का संदेश फैलाया जिसके कारण यह भूमि पवित्र हो गई। भारत नदियों का देश है। अत: यहाँ की मिट्टी बहुत उपजाऊ है जिसके कारण भरपूर फ़सल होती है, अर्थात वह सोना उगलती है। यही कारण है कि इसे स्वर्णभूमि कहते हैं। (iv) कवि का जन्म भारतभूमि में हुआ है। इन्हें भारत की राष्ट्रीयता मिली। वह भारत माँ की संतान हैं। अत: भारत ही उनकी जन्मभूमि है। कवि ने भारतभूमि को मातृभूमि की भी संज्ञा दी है। जिस प्रकार माँ अपने बच्चे को पालती है,
उसे अपना दूध पिलाती है, उसके हर सुख-दुख का ध्यान रखती है ठीक उसी प्रकार भारतभूमि अपनी मिट्टी से उत्पन्न अन्न खिलाकर हमारा लालन-पालन करती है। उसका शीतल, मधुर जल पीकर हम बढ़े हुए हैं। अत: उसे मातृभूमि कहना सर्वथा उचित है। ग्वालिन माता यशोदा को क्या उलाहना देती है?उत्तर : यहाँ पर ग्वालन के हृदय में यशोदा के लिए ईर्ष्या (जलन) की भावना व क्रोध के भाव मुखरित हो रहे हैं। जहाँ वे एक तरफ कृष्ण का यशोदा पुत्र होने की वजह से ईर्ष्या से ग्रसित हैं वहीं दूसरी और उसके द्वारा चोरी व सारा माखन खाने से क्रोधित हैं। इसलिए वह यशोदा माता को उलाहना दे रही हैं।
गोपी ने यशोदा को यह उलाहना क्यों दिया कि क्या तूने अनोखा पुत्र पैदा किया है?गोपी ने यशोदा को यह उलाहना क्यों दिया कि क्या तूने ही अनोखा पुत्र पैदा किया है? Solution : गोपियों को ऐसा लगता था कि यशोदा से कृष्ण की कितनी भी शिकायत करो लेकिन वे उससे कुछ भी नहीं कहतीं। यशोदा उनकी हर अच्छी-बुरी हरकत पर हमेशा ही दीवानी-सी रहती थीं। परिणामस्वरूप वे चाहकर भी कृष्ण को दण्डित न कर पाती थीं।
कृष्ण अपनी चोटी न बढ़ने के लिए यशोदा को क्या उलाहना देते हैं?Answer. कृष्ण अपनी चोटी ना बढ़ने के लिए यशोदा को ये उपासना देते है कि वह उन्हें जैसे तैसे दूध पिलाती है और माखन रोटी नहीं देती है ।
माता यशोदा भोर होते ही कृष्ण को कहाँ भेज देती थीं?भारत के प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में बालक कृष्ण की लीलाओं के अनेक वर्णन मिलते हैं। जिनमें यशोदा को ब्रह्मांड के दर्शन, माखनचोरी और उसके आरोप में ओखल से बाँध देने की घटनाओं का सूरदास ने सजीव वर्णन किया है।
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