ग्राम स्वराज के मूल सिद्धांत क्या है? - graam svaraaj ke mool siddhaant kya hai?

       ग्राम स्वराज मंच एक सामाजिक संगठन है जो किसानों को आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से जागरूक करने का काम करता है इसका मूल उद्देश्य है Reform the Poltics. इसके प्रमुख अनिल वर्मा है जो पूर्व में आरएसएस के पूर्ण कालिक रह चुके है राजनीति में किसानों की भागीदारी हो संगठन इसके लिए प्रयासरत है 

भारतीय राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था आम नागरिक के अधिकारों का अतिक्रमण करती है। भारतीय संसद और विधानसभा को केवल विधाई शक्तियां ही मिलनी चाहिए थी लेकिन संविधान में इन दोनों को प्रशासनिक शक्ति से विभूषित करके भारतीय जनमानस के साथ धोखा किया गया है। लोकतंत्र की विशेषता ही जनता को स्वनिर्णय की शक्ति प्रदान करना है। लेकिन भारतीय समाज की विडंबना है कि सभी लोकतांत्रिक शक्तियां संविधान के माध्यम से संसद और विधानसभाओं ने अपहृत कर ली है। इन दोनों की मूर्खता कहो अथवा लालच कि भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था दोनों को बाईपास करके आम आदमी के लिए पीड़ा का कारण बन चुकी है।जहाँ राजनीतिक व्यवस्था ने भारतीय समाज को पूरी तरह विघटित तथा बर्बाद कर दिया है वही प्रशासनिक व्यवस्था ने विकास की राह में अड़ंगा लगाया है। यह सर्वविदित है कि किसी भी देश के लिए सामाजिक, वैयक्तिक एवं चारित्रिक विकास के लिए व्यक्ति के अंदर जिम्मेदारी का भाव होना अति आवश्यक है। व्यक्ति का जिम्मेदार होना उसके निर्णय लेने की स्वतंत्रता की सीमा पर निर्भर करता है। आदर्श लोकतंत्र की स्थापना के लिए जनता का शासन व्यवस्था में सहभागी होना अनिवार्य होना चाहिए। शासन व्यवस्था में समाज की सहभागिता जनमानस के अंदर विकासपरक जिम्मेदारी लेकर आती है। जब आमजन शासन व्यवस्था में सहभागी होकर स्वविकास के निर्णय स्वयं करने लगता है उस स्थिति में राजनैतिक व्यवस्था उच्च प्रतिमान स्थापित करने की ओर अग्रसर होने लगती है। सहभागी शासन व्यवस्था एक नई सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था को जन्म देती है जिसमें समाज को शासनिक और प्रशासनिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग होने का अधिकार प्राप्त होता है। जिस व्यवस्था में समाज का उत्तरदायित्व पूर्ण स्थान होता है वह एक आदर्श व्यवस्था कही जाती है। इस व्यवस्था में राजनीति समाज के प्रति उत्तरदायी होती है। समाज व्यक्तियों से मिलकर बनता है और व्यक्ति के निर्णय लेने की स्वतंत्रता की सीमा देश की राजनीतिक व्यवस्था संविधान के माध्यम से निर्धारित करती है। राजनीति को संविधान पर राज करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। संविधान समाज का चेहरा होता है जो समाज की प्रकृति को प्रतिबिंबित करता है। क्योंकि संविधान समाज की परिपक्वता को प्रदर्शित करता है इसलिए संविधान पर समाज का अधिकार होना चाहिए ना कि राजनीति का। व्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा का निर्धारण करना समाज का प्राकृतिक अधिकार है। यदि इस अधिकार को राजनीति अपहृत करती है तो यह अव्यवस्था और आरजकता का ही कारण बनता है। ग्राम स्वराज्य की अवधारणा समाज को शासनिक एवम प्रशासनिक व्यवस्था में सहभागी बनाने पर जोर देती है। शासन की ग्राम स्वराज्य परिकल्पना एक ऐसी व्यवस्था है जो राजनैतिक अव्यवस्था, भ्रष्टाचार, अराजकता अथवा तानाशाही जैसी समस्याओं का पूर्ण रूप से समाधान करती है। इस परिकल्पना को आदर्श लोकतंत्र भी कहा जा सकता है। ऐसे व्यक्ति की आदर्श स्वतंत्रता के रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है। ग्राम स्वराज राम राज्य व्यवस्था कीं पहली सीढ़ी है़। राम राज्य मतलब सभी सुखों से परिपूर्ण समाज। परिपूर्ण समाज में स्व निणर्य वाली व्यवस्था ग्राम स्वराज से हि आ सकती है। ग्राम स्वराज का स्वरूप कैसे होगा? ग्राम स्वराज शासन कि सबसे छोटी इकाई होगी यह वर्तमान ग्राम सभा कि तरह क्षेत्र पंचायत ब्लॉक जिला पंचायत और D M के अधीन नही होगी यह प्रशासनिक व्यवस्था राज्य सरकार कि तरह स्वतंत्र होगी । यह व्यवस्था हर नागरिक कि भागीदारी पर चलेगी इस व्यवस्था में आम जन के सभी सुख दुख में ग्राम स्वराज कि पूर्ण भागीदारी होगी। यह व्यवस्था शिक्षा स्वास्थ्य आवास से जुड़ी सभी समस्या हल करेगी। कानून व्यवस्था से जुड़ें सभी मसले और विवाद ग्राम स्तर पर हल होंगें।

‘गांधी जी का ग्राम स्वराज और आज का सुराज’

ग्राम स्वराज के मूल सिद्धांत क्या है? - graam svaraaj ke mool siddhaant kya hai?

30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी का बलिदान आजादी के बाद देशवासियों के लिए विभाजन की विभीषिका झेलने के बाद एेसा झटका था जिसने सभी को झकझोर दिया था। इस बार गणतंत्र दिवस पर लाल किले पर जो हुआ उससे बापू की आत्मा...

30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी का बलिदान आजादी के बाद देशवासियों के लिए विभाजन की विभीषिका झेलने के बाद एेसा झटका था जिसने सभी को झकझोर दिया था। इस बार गणतंत्र दिवस पर लाल किले पर जो हुआ उससे बापू की आत्मा भी चीत्कार कर उठी होगी क्योंकि इसने पूरे देश को यह सोचने पर विवश कर दिया है कि अब तक हम जिस राष्ट्रीय एकता की बात करते रहे हैं, उसमें कोई खोट तो नहीं है।

प्रश्न उठता है कि गांधी द्वारा की गई ग्राम स्वराज की कल्पना, आज के किसान आंदोलन की आड़ में अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए सभी हदें पार करना, प्रत्येक नागरिक के मन में विरोध और कड़वाहट पैदा कर देना क्या हमारे प्रजातंत्र की बखिया उधेडऩे का प्रयत्न नहीं है?

किसान की बदहाली : गांधी जी ने किसान की खुशहाली को देश की समृद्धि का मापदंड माना था अर्थात संपन्नता का रास्ता खेत से निकालना था।  ग्रामीण क्षेत्रों का विकास इस तरह करने की बात कही थी कि किसानी और ग्रामोद्योग एक साथ फले फूलें और ग्राम समाज इतना आत्मनिर्भर हो कि शहरों की जरूरतें पूरी करने में प्रमुख भूमिका निभा सके। विडंबना यह है कि आज ग्रामवासी और विशेषकर किसान सरकार द्वारा दी जाने वाली आॢथक सहायता, सबसिडी और कर्जमाफी की नीतियों के कारण अपने पैरों पर खड़ा होने में असहाय हो गया है। इसे इस प्रकार से समझना होगा। प्रकृति ने हमें जल के रूप में जीवन रक्षक, वायु के रूप में प्राण रक्षक, पृथ्वी के रूप में पालनहार, सूर्य के रूप में ऊर्जा का संचार और जंगल तथा पर्वत के रूप में पहरेदार रूपी तत्व दिए। अब यह मनुष्य के ऊपर था कि वह इनका अपनी जरूरत के अनुसार इस्तेमाल करे या लोभ और लालच में आकर इनका इतना दोहन करे कि प्राकृतिक संतुलन ही बिगड़ जाए!

हमने दूसरा रास्ता चुना जिसका परिणाम जहां एक आेर ग्रामीण क्षेत्रों की अवहेलना से उत्पन्न समस्याएं जैसे खेतीबाड़ी करना घाटे का काम होते जाना, शहरों में पलायन, बेरोजगारी तथा गरीबी के विस्तार के रूप में निकला तो दूसरी आेर कुछ मुठ्ठी भर लोगों के हाथ में इतनी धन सम्पत्ति जमा हो गई कि उन्होंने शोषण, मनमानी और अत्याचार तक करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ लिया। आज यह जो आंदोलन होते हैं, जिनमें चाहे किसान आंदोलन हो, मजदूरों का संघर्ष हो या अपने मूलभूत अधिकारों को बहाल किए जाने की लड़ाई हो, उसकी जड़ यही है कि अधिकतर लोग दो वक्त की रोटी कमाने के फेर में ही पूरा जीवन गुजारने के लिए मजबूर हैं।

इसके विपरीत उंगलियों पर गिने जा सकने वाले लोग या घराने हैं जिनके हाथ में अधिकांश संसाधन हैं और जो कोई भी सरकार या प्रशासन हो, उसे अपने इशारों पर नचा सकने में समर्थ हैं। अगर हम महात्मा गांधी की बात करें तो वह इसी कारण प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने के हिमायती थे ताकि अमीर और गरीब के बीच जमीन आसमान का अंतर न हो। यह कहना कि आबादी बढऩे से संतुलन बिगड़ा है, एक तरह से हकीकत से नजरें चुराना है। कुदरत ने सबकी आवश्यकताआें को पूरा करने के लिए पर्याप्त साधन तो दिए हैं लेकिन किसी के लोभ लालच को पूरा करने के लिए कतई नहीं। यह तो हो सकता है कि आज बापू गांधी की कही सभी बातें पूरी तरह से सभी मामलों में खरी न उतरें पर उनके मूल सिद्धांत कि हमारा देश कृषि अर्थव्यवस्था पर ही आधारित हो तो यह पूरी तरह से सही है।

आधुनिकता या पराधीनता : आप कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों में आधुनिक संयंत्रों और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के आधार पर खेतीबाड़ी तथा उद्योग धंधे तो लगा सकते हैं लेकिन इसके लिए वहां कंक्रीट जंगल खड़े करने के लिए उपजाऊ जमीन और वनों का बलिदान नहीं कर सकते। हमने इस सिद्धांत के विपरीत जाकर खेतीबाड़ी को घाटे का सौदा बनाने का काम किया और किसान तथा ग्रामवासियों को गरीब बने रहने दिया ताकि वे कभी स्वावलंबी न हो सकें और अपना पेट भरने तक के लिए सरकारी अनुदान पर निर्भर हो जाएं। आज भी पांच सौ रुपए में पूरे महीने भर गुजारा करने की उम्मीद किसान या ग्रामवासी से की जाती है जबकि इतनी रकम शहरों में कुछ ही मिनट की खरीददारी में खर्च हो जाती है।

व्यक्ति नहीं बुराई दूर होनी चाहिए : वर्तमान परिस्थितियों में कृषि कानूनों का विरोध और कुछ लोगों द्वारा इन्हें पूर्ण रूप से वापस लेने का आंदोलन इसी अविश्वास पर आधारित है जिसमें सच्चाई की जगह जिद और मिथ्या भ्रम को अधिक महत्व दिया जा रहा है। निष्पक्ष रूप से विचार किया जाए तो यह कानून कुछ संशोधनों के साथ फिर से प्रस्तुत किए जाएं तो न केवल सभी पक्षों को मंजूर हो सकते हैं बल्कि देहाती क्षेत्रों के विकास की मजबूत नींव भी पड़ सकती है। यदि कोई उद्योगपति किसान की सुविधा और शर्तों के आधार पर खेतीबाड़ी में हिस्सा लेना चाहता है, भंडारण और फूड प्रोसैसिंग यूनिट लगाकर पूरे क्षेत्र की समृद्धि में योगदान करना चाहता है तो उसमें कोई बुराई नहीं है, बल्कि गांधी जी की संकल्पना कि शहरों की पूंजी गांव देहात में लगे, उसकी भी पूर्ति है।

यदि किसान और ग्रामवासियों को खुशहाल होना है और आत्मनिर्भर बनना है तो उन्हें उद्योगपति के साथ बैठकर समान हितों को सुरक्षित रख कर, व्यापार और व्यवसाय के सिद्धांतों का पालन करते हुए आगे बढऩा ही होगा। इसमें भय, शंका और अविश्वास को छोड़कर सहयोग और सहकारिता को ही अपनाना होगा, इसी में कल्याण है।-पूरन चंद सरीन