बौद्ध धर्म में मृत्यु को क्या कहा जाता है? - bauddh dharm mein mrtyu ko kya kaha jaata hai?

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बौद्ध धर्म के सन्दर्भ में पुनर्जन्म का अर्थ है मृत्यु के बाद पुनः जन्म लेना और संसारचक्र में बने रहना। जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद पुनः जन्म का यह अनन्त चक्र एक महान दुःख है। यह चक्र तभी टूटता है जब ज्ञान प्राप्त होता है और इच्छाओं का अन्त हो जाता है।

कर्म, निर्वाण और मोक्ष की भांति पुनर्जन्म भी बौद्ध धर्म का एक मूल सिद्धान्त है।

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आपका प्रश्न है कि महात्मा बुद्ध की मृत्यु को बौद्ध ग्रंथ में क्या कहा जाता है तो वह हम जानते हैं कि महात्मा बुध की मृत्यु 483 का पूर्वक कुशीनगर में हो गई थी और बहुत ही धर्म में महात्मा बुद्ध की मृत्यु को महापरिनिर्वाण के नाम से जाना जाता है

aapka prashna hai ki mahatma buddha ki mrityu ko Baudh granth me kya kaha jata hai toh vaah hum jante hain ki mahatma buddha ki mrityu 483 ka purvak kushinagar me ho gayi thi aur bahut hi dharm me mahatma buddha ki mrityu ko mahaparinirvan ke naam se jana jata hai

आपका प्रश्न है कि महात्मा बुद्ध की मृत्यु को बौद्ध ग्रंथ में क्या कहा जाता है तो वह हम जान

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बौद्ध धर्म में मृत्यु को क्या कहा जाता है? - bauddh dharm mein mrtyu ko kya kaha jaata hai?
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सिद्धार्थ, ही गौतम बुद्ध थे। जो आगे चलकर बौद्ध के के प्रवर्तक बने। बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। सिंहली, अनुश्रुति, खारवेल के अभिलेख, अशोक के सिंहासनारोहण की तिथि, कैण्टन के अभिलेख आदि के आधार पर भगवान बुद्ध की जन्म तिथि 563 ई.पूर्व स्वीकार की गयी है। भगवान बुद्ध को तथागत भी कहा जाता है।

बुद्ध का जन्म शाक्यवंश के राजा शुद्धोदन की रानी महामाया के गर्भ से लुम्बिनी में वैशाख पूर्णिमा के दिन हुआ था। शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु थी। सिद्धार्थ के पिता शाक्यों के राजा शुद्धोधन थे। बुद्ध को शाक्य मुनि भी कहते हैं।

सिद्धार्थ की मां मायादेवी उनके जन्म के कुछ देर बाद मर गई थी। कहा जाता है कि फिर एक ऋषि ने कहा कि वे या तो एक महान राजा बनेंगे, या फिर एक महान साधु। ज्ञान प्राप्ति के समय उनकी अवस्था 35 वर्ष थी। ज्ञान प्राप्ति के बाद 'तपस्सु' तथा 'काल्लिक' नामक दो शूद्र उनके पास आये। महात्मा बुद्ध नें उन्हें ज्ञान दिया और बौद्ध धर्म का प्रथम अनुयायी बनाया।

80 वर्ष की आयु में मृत्यु

गौतम बुद्ध की मृत्यु 483 ई. में पूर्व कुशीनारा में हुई थी। उस समय उनकी उम्र 80 वर्ष थी। बौद्ध धर्म के अनुयायी इसे 'महापरिनिर्वाण' कहते हैं। लेकिन उनकी मृत्यु के मत में बौद्ध बुद्धिजीवी और इतिहासकार एकमत नहीं हैं।

भगवान बुद्ध के अंतिम शब्द

'हे भिक्षुओं, इस समय आज तुमसे इतना ही कहता हूंकि जितने भी संस्कार हैं, सब नाश होने वाले हैं, प्रमाद रहित हो कर अपना कल्याण करो। यह 483 ई. पू. की घटना है। वे अस्सी वर्ष के थे।'

मृत्यु पर अलग-अलग मत

बौद्ध ग्रंथ 'महा-परिनिर्वाण सूक्त' में पाली भाषा में उल्लेखित है, 'उस वर्ष बारिश से पहले बुद्ध राजगृह में थे। वहां से वे भिक्षु संघ के साथ यात्राएं करते वैशाली पहुंचे। यहां पास के बेल्ग्राम में उन्होंने वर्षावास किया। यहां वे बीमार हो गये। स्वस्थ होने पर वे फिर अम्बग्राम, भंडग्राम, जम्बूग्राम, भोगनगर आदि की यात्रा करते पावा नामक ग्राम में पहुंचे।

वे यहां चुंद कम्मारपुत्र नामक एक लुहार के आमों के वन में ठहरे। उसने खाने में उन्हें मीठे चावल, रोटी व मद्दव दिया। बुद्ध ने मीठे चावल व रोटी तो औरों को दिलवा दिए पर मद्दव इसलिए किसी को नहीं दिया क्योंकि उन्होंने समझ लिया था, यह कोई अन्य पचा नहीं सकेगा। स्वयं उन्होंने भी जरा सा खाया। शेष जमीन में गड़वा दिया। इसको खाते ही वे बीमार हो गये थे। और उनकी मृत्यु हो गई।

न्यू इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (मार्को पीडिया भाग) में उल्लेखित है कि संभव है कि एक ग्रामीण व्यक्ति के घर कुछ खाने के कारण उनके पेट में दर्द शुरु हो गया। बुद्ध अपने शिष्यों के साथ कुशीमारा चल दिये। रास्ते में उन्होंने अपने शिष्य आनंद से कहा, 'आनंद इस संधारी के चार तह करके बिठाओ। मैं थक गया हूं, लेटूंगा। आनंद मेरे लिए कुकुत्था नदी से पानी ले आओ।

बुद्ध ने फिर उस कुकुत्था नदी में खूब स्नान किया। उसके बाद वहीं रेत पर चीर बिछा कर लेट गए। कुछ देर आराम करने के बाद वह अब चलने लगे रास्ते में उन्होंने हिरण्यवती नदी पार की। अंत में कुशीमारा पहुंचे। यहां उनका कहना था कि, 'मेरा जन्म दो शाल वृक्षों के मध्य हुआ था, अत: अन्त भी दो शाल वृक्षों के बीच में ही होगा। अब मेरा अंतिम समय आ गया है।'

आनंद को बहुत दु:ख हुआ। वे रोने लगे। बुद्ध को पता लगा तो उन्होंने उन्हें बुलवाया और कहा, 'मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि जो चीज उत्पन्न हुई है, वह मरती है। निर्वाण अनिवार्य और स्वाभाविक है। अत: रोते क्यों हो? बुद्ध ने आनंद से कहा कि मेरे मरने के बाद मुझे गुरु मानकर मत चलना।

बुद्ध की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राहुल भी भिक्षु हो गये थे। पर बुद्ध ने उन्हें कभी कोई महत्व प्राप्त नहीं होने दिया। बुद्ध की पत्नी यशोधरा अंत तक उनकी शिष्या नहीं बनीं।

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उनके मरने पर 6 दिनों तक लोग दर्शनों के लिए आते रहे। सातवें दिन शव को जलाया गया। फिर उनके अवशेषों पर मगध के राजा अजातशत्रु, कपिलवस्तु के शाक्यों और वैशाली के विच्छवियों आदि में भयंकर झगड़ा हुआ।

जब झगड़ा शांत नहीं हुआ तो द्रोण नामक ब्राह्मण ने समझौता कराया कि अवशेष आठ भागों में बांट लिये जाएं। ऐसा ही हुआ। आठ स्तूप आठ राज्यों में बनाकर अवशेष रखे गये। बताया जाता है कि बाद में अशोक ने उन्हें निकलवा कर 84000 स्तूपों में बांट दिया था।

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बौद्ध धर्म में मृत्यु को क्या कहते हैं?

बौद्ध धर्म के अनुयायी इसे 'महापरिनिर्वाण' कहते हैं

बौद्ध का अंतिम संस्कार कैसे होता है?

बौद्ध धर्म में कैसे होता है अंतिम संस्कार? बौद्ध धर्म में मृत शरीर को जलाया भी जा सकता है और दफनाया भी जा सकता है। इस धर्म में दोनों ही परंपरा को मान्यता प्रदान की गई है। इसमें अंतिम संस्कार की जो परंपरा है वो स्थानीय संस्कृति में चले आ रहे रीति रिवाजों पर निर्भर करती है।

बौद्ध धर्म में मरने के बाद क्या होता है?

अन्य जगह बौद्ध धर्म के लोग शव को जलाते हैं व खुले में लाश छोड़ने हैं या जंगल में दफनाते हैं। कुछ बौद्ध धर्मगुरों को मिश्र की ममी की तर्ज पर ममी बनाने की भी प्रथा रही है। भगवान बुद्ध का ये मानना था कि शरीर नश्वर है ये बस एक कपड़े की तरह है जिसमें आत्मा का वास है।

मरने से पहले बुद्ध ने क्या कहा?

'अप्प दीपो भव' (अपने दीपक स्वयं बनो)- बुद्ध का अंतिम उपदेश था, जिसका आशय यह है कि स्वयं को निर्लिप्त बनाकर आत्मा की पूर्ण ईमानदारी से कर्म करें, तो आनंद की प्राप्ति के साथ परम तत्व की सहज ही उपलब्धि हो जाती है।