दोस्तो आज की पोस्ट में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अंतर्गत भारतेन्दु युग की साहित्यिक प्रवृत्तियाँ को पढेंगे ,आप इसे अच्छे से कवर करें | Show भारतेन्दु युग की साहित्यिक प्रवृत्तियाँ/विशेषताएँ
भावगत विशेषताएँ(1) अन्तर्विरोधों का साहित्य – भारतेन्दु काल की कविता अन्तर्विरोधी मूल्यों की कविता है और यह अन्तर्विरोध समाज की संरचना के भीतर से आया है। उस समय अंग्रेजी संस्कृति और भारतीय संस्कृति के दो विरोधी मूल्यों का मिलन हो रहा था जिसने तनाव की स्थिति पैदा हुई। यह तनाव कविता में भी कई स्तरों पर व्यक्त होता है जैसे राजभक्ति बनाम राजविरोध, राजभक्ति बनाम राष्ट्रभक्ति, भक्ति-शृंगार बनाम जन सामान्य की समस्याएँ, ब्रज भाषा बनाम खड़ी बोली इत्यादि। (2) राजभक्ति एवं राष्ट्रभक्ति – भारतेन्दु युग के प्रारंभ के कवियों में ब्रिटिश सरकार के प्रति राजभक्ति के भाव थे। इसका कारण यह था कि प्रारंभ में वे साम्राज्यवादी सरकार स्वार्थ को स्पष्ट रूप से समझ नहीं सके। यद्यपि ब्रिटिश सरकार के स्वार्थ को स्पष्ट रूप से समझ नहीं सके। यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने कुछ सुधार अवश्य किये परंतु ऐसा करने के पीछे उनकी सदिच्छा नहीं थी। इस आरम्भिक दौर में ब्रिटिश सरकार का सही रूप स्पष्ट न हो सका। इसलिए इस युग में जहाँ महारानी विक्टोरिया की प्रशंसा के भाव मिलते हैं, वहीं राष्ट्र प्रेम भी मिलता है- ‘‘पूरी अमी की कटोरिया सी, चिरजीओ सदा विक्टोरिया रानी।’’ (अम्बिका दत्त व्यास) ‘‘अंगरेज राज सुख साज सजे सब भारी। समस्याओं पर आधुनिक चिंतन करने वाले कवियों के पास तत्कालीन तनावपूर्ण स्थितियों से उबरने का कोई साधन नहीं है । इसलिए वे भारत की दुर्दशा पर आँसू बहाने को विवश हैं- ‘‘रोवहु सब मिलिकै आवहु भारत
भाई। (3) शृंगारिकता की चेतना –इस काल में आधुनिकता की चेतना के बावजूद रीतिकालीन प्रभाव पूरी तरह छोड़ा नहीं जा सका। अतः कहीं-कहीं शुद्ध शृंगार के दर्शन भारतेन्दु युग की कविता में होते हैं जैसे- ‘‘पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना। कहीं-कहीं पर यह शृंगार भक्ति के साथ जुड़ कर भी आया है अर्थात् भक्ति व शृंगार का समन्वय हुआ है- ‘‘जय जय हरि राधा रस केलि। (4) भक्ति भावना – यहाँ भक्ति के निर्गुण व सगुण दोनों रूप उपलब्ध होते हैं। यहाँ भक्ति का एक और व्यापक रूप उपलब्ध होता है जिसे ‘स्वदेशानुराग समन्वित भक्ति’ कहते हैं अर्थात् ईश्वर की भक्ति का उद्देश्य देश की समस्याओं को सुलझाना हो गया है- ‘‘हम आरत भारत वासिन पै। ‘‘प्रभु हो पुनि भूतल अवतरियो (5) समस्यापूर्ति – इस युग में ‘कविता वर्द्धिनी सभा’ तथा ‘रसिक समाज’ जैसी संस्थाओं की स्थापना की गई थी जहाँ कवियों की गोष्ठियाँ होती थीं तथा नए कवियों को प्रोत्साहन दिया जाता था। इस परम्परा में एक विषय तय किया जाता था और उसकी अन्तिम पंक्ति तय होती थी। इसे ही समस्यापूर्ति कहा गया जो इस समय की प्रमुख प्रवृति रही। (6) सामाजिक समस्याओं का चित्रण – इस युग का काव्य जन जीवन से जुड़ा है अतः इसमें नारी शिक्षा, विधवा समस्या, बाल-विवाह, धार्मिक संकीर्णता जैसे विषयों की ओर कवियों की दृष्टि गई। इन कवियों ने समाज में फैली विकृतियों पर चोट करके समाज में नई चेतना पैदा की है। ‘‘कौन करेजो नहिं कसकत, सुनि बिपति बाल बिधवन की।’’ (प्रताप नारायण मिश्र) शिल्पगत विशेषताएँ(1) काव्यरूप – इस युग में मूल रूप से मुक्तक काव्य की रचना हुई। कुछ प्रबंध काव्य भी मिलते हैं जैसे प्रेमघन कृत ‘जीर्ण जनपद’। इसके अतिरिक्त प्रगीत मुक्तक, लोकगीत तथा मुकरियाँ भी मिलती हैं। मुकरी का उदाहरण- ‘‘सब गुरुजन को बुरा बतावै, अपनी खिचड़ी आप पकावै। (2) भाषा – भारतेन्दु युग के कवियों की अधिकतर रचनाएँ ब्रज भाषा में कोमलकान्त पदावली होने के कारण इस काल के कवि उसका मोह छोड़ नहीं सके। इस समय के गद्य साहित्य में खड़ी बोली का सफल प्रयोग हुआ किन्तु काव्य में उसे विशेष सफलता नहीं मिली। भाषा के संदर्भ में भारतेन्दु का मत था- ‘अंग्रेजी पढ़ि के यद्यपि, सब गुण होत प्रवीन। (3) छन्द – भारतेन्दु युग की कविता में दोहा, चौपाई , हरिगीतिका, कवित्त आदि परम्परागत छन्दों के अतिरिक्त लावनी, कजली व होली छन्दों का प्रयोग हुआ है। (4) अलंकार – यह कविता जन सामान्य की समस्याओं से सीधे जुड़ती है इसलिए अलंकरों की सजावट पर ध्यान नहीं देती किंतु अर्थालंकारों का जहाँ भी प्रयोग हुआ है, वह सफल है। आज के आर्टिकल में हमने भारतेन्दु युग की साहित्यिक प्रवृत्तियाँ पढ़ी ,हम आशा करतें है कि आपको ये टॉपिक अच्छे से क्लियर हो गया होगा ।
भारतेंदु युग की प्रमुख प्रवृत्तियां क्या है?भारतेंदु युग की सबसे महत्वपूर्ण देन है गद्य व उसके अन्य विधाओं का विकास। इस युग में पद्य के साथ गद्य विधा प्रयोग में आयी जिससे मानव के बौद्धिक चिंतन का भी विकास हुआ। कहानी, नाटक ,आलोचना आदि विधाओं के विकास की पृष्ठभूमि का भी यही योग रहा है।
भारतेंदु युगीन काव्य प्रवृत्ति कौन सी थी?हास्य-व्यंग्य- भारतेंदु युगीन काव्य में हास्य-व्यंग्य की प्रवृत्ति भी गहरे परिलक्षित हुई है। अंग्रेजों की आर्थिक शोषण की नीति पर व्यंग्य करते हुए भारतेंदु जी कहते हैं- “भीतर-भीतर सब रस चूसै । हँसि-हँसि के तन मन धन मूसै ।
भारतेंदु युग की पत्रिकाएं कौन कौन सी हैं?भारतेन्दु ने सर्वप्रथम कविवचन सुधा तथा हरिश्चन्द्र मैगजीन में साहित्यिक ढंग से निबन्ध लिखे। इसके बाद पं प्रतापनारायण मिश्र तथा पं बालकृष्ण भट्ट तथा बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन ने क्रमषः हिन्दी प्रदीप, ब्राहमण तथा आनन्द कादम्बिनी नामक पत्रिकाओं में निबन्ध लिखे, जिन्हें साहित्यिक कोटि के निबन्ध कहा जा सकता ह।
भारतेंदु जी की काव्यगत विशेषताएं कौन कौन सी है?भारतेंदु युगीन काव्य की चार विशेषताएं लिखिए।. राष्ट्रीयता की भावना - ... . सामाजिक चेतना का विकास - ... . हास्य व्यंग्य - ... . अंग्रेजी शिक्षा का विरोध - ... . भारतीय संस्कृति का गौरव गान - ... . छंद विधान की नवीनता - ... . गद्य एवं उनकी विधाओं का विकास - ... . प्राकृतिक वर्णन -. |