भारत में लोहे के सर्वाधिक प्राचीनतम प्रमाण कहां मिले - bhaarat mein lohe ke sarvaadhik praacheenatam pramaan kahaan mile

तकनीक के दौरान भारत में लोहयुगीन संस्कृतियों को लेकर अनेक मान्यताएं हैं । कुछ विद्वान लोहे का उद्भव ऋग्वैदिककालीन मानते हैं । ऐसे विद्वानों का मत है कि ऋग्वेद मे प्रयुक्त शब्द अयस लोहा ही है जबकि अन्य दूसरे विद्वानों का मत है कि अयस शब्द ताम धातु के लिए प्रयुक्त हुआ है क्योंकि उत्तर वैदिक साहित्य में कृष्णअयस और ताम्रअयस दो अलग-2 शब्दों का मिलना यह सिद्ध करता है कि संभवत: उत्तर वैदिक काल में ताम्र व लौह धातुओं का ज्ञान स्पष्टत: हो चुका था । इसके अलावा कुछ विद्वानों का मानना है कि लोहे का ज्ञान ताम्र प्रगलन ताम्रपाषाण कालीन संस्कृति के निवासियों को हो गया था तथा भारतीय उपमहाद्वीप में कतिपय ताम्रपाषाणकालीन संस्कृति के निवासियों को लोहे का ज्ञान था । लेकिन इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि द्वितीय सहस्त्राब्दी ई.पू. के उत्तरार्द्ध में भारत में लोहे का ज्ञान हो गया था तथा मानव जीवन की दैनिक गतिविधियों में लोहे का उपयोग प्रथम सहस्त्राब्दी के पूर्वार्ध में ही हुआ | इस काल खण्ड को 1200 ई. से 600 ई. पू के मध्य निर्धारित किया जा सकता है ।

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5.2 भारत की लौहयुगीन संस्कृतियों का वर्गीकरण

भारत में लोहे के सर्वाधिक प्राचीनतम प्रमाण नोह (भरतपुर), जोधपुरा (जयपुर) तथा अतिरंजीखेडा और लालकोट (उत्तर प्रदेश) से प्राप्त हुए हैं जिनकी कार्बन 14 तिथि एक हजार ई.पू. के आसपास मानी गयी है । पुरातत्ववेत्ताओं का यह मत है कि भारत में जब लोहे का आगमन हुआ उस समय एक विशिष्ट प्रकार की मृगाण्ड संस्कृति का विकास हुआ था जिसे चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति कहा जाता है, इस संस्कृति की द्वितीय अवस्था में जो लगभग 1000 ई.पू. से प्राप्त होती है, के द्वितीय चरण में जखेरा और अतिरंजीखेडा से लोहे के अनेक उपकरण प्राप्त हुए हैं जिनमें भालाग्र बाणाग्र छैनी कांटे, कील और कुल्हाडियां सम्मिलित हैं | इन दोनों स्थलों में भी अतिरंजीखेडा एक ऐसा स्थल है जहां से लोहा गलाने हेतु प्रयुक्त की गयी मिट्टियों के भी प्रमाण मिले हैं | पाणिनी की अष्टाध्यायी, जिसे सातवीं शताब्दी ई.पू. की रचना माना जाता है, में भी यह उल्लेख मिलता है कि इस समय के निवासियों को लोहा गलाने का ज्ञान था । इस समय तक लोहे का समाज में व्यापक प्रयोग होने लगा था । अतिरंजीखेडा के अलावा जखेरा से प्राप्त कृषि उपकरणों से भी इसकी पुष्टि होती है । जखेरा से प्राप्त लौह निर्मित कुल्हाडियां, जो संभवत: और स्थानों में भी निर्मित होती होंगी, से तत्कालीन निवासी मध्य गंगा बेसिन के घने जंगलों को साफ करके खेती योग्य बनाने में सफल हुए होंगे । अतिरंजीखेडा और जखेडा के अलावा राजस्थान के झन्झुनू जिले के सुनारी नामक ग्राम से भी लोहा गलाने की भट्टियां मिली है । भट्टियों एवं धौंकनियों के प्रमाण बिहार के अलावा मध्यप्रदेश के उज्जैन तथा राजस्थान के उदयपुर जिले के बालाथल एवं ईसवाल से मिले हैं। इन सभी स्थलों से प्राप्त प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लोहा गलाने में प्रयुक्त भट्टियां नाशपाती के आकार की होती थी । भट्टियों में लोहे के अयस्क को गलाकर जो लोहा प्राप्त होता था उसे पीट-पीट कर उसमें से शुद्ध लोहा निकाल लिया जाता था । आज भी बस्तर क्षेत्र के आदिवासी इस तकनीक के द्वारा लोहा प्राप्त करते है ।।

5.3 उत्तर भारत की लौहकालीन चित्रित धूसर मृदाण्ड संस्कृति

साहित्यिक एवं पुरातात्विक स्त्रोतों के आधार पर यह तथ्य प्रकाश में आया है कि प्राचीन भारत के अधिकांश पुरास्थल उन स्थानों पर अवस्थित हैं जहां लोहे की खानें हैं । प्राचीन काल में गांगेय क्षेत्र के मैदानी भाग में भी लौह धातु के शोधन के साक्ष्य धातु अपशिष्ट के रूप में मिलते है । साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों के संयुक्त प्रमाणों के आधार पर भारत में लौहयुगीन संस्कृतियों को अधोलिखित भौगोलिक क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है |

1. उत्तरी भारत 2. पूर्वी भारत 3. मध्य भारत तथा दकन 4. दक्षिण भारत

5.3.1 उत्तरी भारत

___ उत्तरी भारत में विभिन्न स्थलों के उत्खनन से प्राप्त उत्तर कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड (Northern Black Polished Ware) लोहयुगीन संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं । इस आधार पर कहा जा सकता है कि उत्तरी भारत में छठी शताब्दी ई.पू. में निवासी लोहे के उपकरणों का प्रयोग करने लगे थे । अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उत्तरी भारत में लोहे का आगमन कब हुआ ? संभवत: आलमगीरपुर उत्तर भारत का ऐसा प्रथम स्थल है जहां से चित्रित घूसर मृद्भाण्डों (Painted Grey ware) के साथ लोहे के उपकरण भी मिले हैं । यहां यह जानना आवश्यक हो जाता है कि चित्रित घूसर मृदाण्ड परम्परा उत्तर कृष्णमार्जित मृद्भाण्ड परम्परा से प्राचीन है, इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि उत्तरी भारत में लोहे का आगमन छठी शताब्दी ई.पू. से पहले हो गया था । आलमगीरपुर के अलावा ऐसे प्रमाण अहिछत्र, नोह, अतिरंजीखेडा, बटेश्वर, अल्लापुर से भी मिले है । चित्रित घूसर मृद्भाण्ड संस्कृति के निवासी बाण फलक, भाला-फलक, कटार, सुखी, मछली पकड़ने के कांटे, चिमटा, बसूला तथा कीले बनाते थे । पुरातत्ववेता इस आधार पर उत्तर भारत में लोहे का आगमन नवी-आठवीं शताब्दी ई० पू० स्वीकारते है यद्यपि गत एक दशक में उत्तर भारत में हुए विभिन्न स्खननों के आधार पर अब उत्तर भारत में लोहे की प्राचीनता तेरह सौ चौदह सौ ई० पू० तक मानी जाने लगी है ।

5.3.2 पूर्वी भारत

पूर्वी भारत में उत्तर कृष्ण मार्जित मृदाण्ड परम्परा से पहले व्यवहार में प्रयुक्त कृष्ण लोहित पात्र परम्परा से ही लौह उपकरणों का मिलना प्रारंभ हो जाता है । पूर्वी भारत के ऐसे महत्वपूर्ण पुरास्थलों में जहां से लौह उपकरणों के प्रमाण मिलते है चिरांड, सोनपुर, ताराडीह पाण्डुराजारधिबि और महिसादल महत्व के हैं । इन स्थलों से बाण व भाला फलक, छेनी तथा कीलें आदि मिली हैं । पुरातत्ववेताओं का मानना है कि पूर्वी भारत में 750 ई० पू० के आसपास लौह तकनीक प्रयुक्त होने लगी थी ।

5.3.3 मध्य भारत तथा दक्खन

मध्य भारत तथा दकन प्रदेश के अन्तर्गत मध्य प्रदेश का मालवा क्षेत्र और महाराष्ट्र का पश्चिमी क्षेत्र आता है । इस क्षेत्र के मुख्य उत्खनित स्थलों में नागदा, एरण, उज्जैन, कायथा प्रकाश आदि आते है । इन क्षेत्रों के अलावा महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र से ताकलवाट, खापा, मूहुर्युरी तथा नैकुण्ड से भी लौह संस्कृतियों के प्रमाण प्राप्त हुए है | इन क्षेत्रों से जो लौह उपकरण मिले है उनमें दुधारी कटार, कुल्हाडी का मूठ, चम्मच, चिपटी, कुल्हाडी, छल्ला, बाण फलक, चाकू हँसिया भाला, कटार, कलछी, मछली पकड़ने का कांटा, घोडे की लगाम तथा कीले प्राप्त हुई है । इन दोनों स्थानों पर लौह संस्कृति प्रारंभ होने की तिथि पुरातत्ववेत्ता आठवीं से सातवीं शताब्दी ई० पू० स्वीकारते हैं | नागदा और एरण के संबंध में सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता दिलीप चक्रवर्ती की मान्यता है कि नागदा और एरण में लौह संस्कृति प्रारंभ होने के प्रमाण प्रस्तावित 8 वीं व 7 वीं शताब्दी ई० पू० से पूर्व के माने जा सकते हैं ।

5.3.4 दक्षिण भारत

सामान्यत: दक्षिण भारत के अन्तर्गत आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल को सम्मिलित किया जाता हैं । दक्षिण भारत से जो लौह उपकरण मिलते हैं वे बृहत्पाषाणिक संस्कृति के अन्तर्गत आते हैं । इनका उल्लेख यथा स्थान आगे के पृष्ठों में किया जाएगा । 5.4 उत्तर भारत की लौहकालीन उत्तर कृष्ण मार्जित मृद्माण्ड संस्कृति

इस संस्कृति की खोज सर्वप्रथम 1940-44 में अहिछत्र नामक स्थल से हुई जो उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में अवस्थित है | यहाँ से सर्वप्रथम इस परम्परा के बर्तन खोजे गए थे लेकिन प्रारंभ में इन मुद्भाण्डों के महत्व को उचित रूप से नहीं आका गया उसके बाद हस्तिनापुर, कौशाम्बी,मथुरा, श्रावस्ती, तिलपत तथा इन्द्रप्रस्थ से भी जब इस परम्परा के मृद्भाण्ड मिले तो इस परम्परा के मृदाण्डों के महत्व को समझा गया इन मृद्भाण्डों को चित्रित घूसर कहने से यह तात्पर्य है कि यह पात्र सलेटी या गहरे रंग की राख वाले रंग के होते है तथा इन पर काले रंग से भिन्न-भिन्न प्रकार के अलंकरण निर्मित किए गए है । यह मृद्राण्ड परम्परा पंजाब, हरियाणा, उत्तरी राजस्थान से लेकर ऊपरी गंगाधाटी जम्मू के माण्डा तथा उज्जैन तक विस्तार पाए हुए थी | इसके अलावा चित्रित घूसर मृद्भाण्ड परम्परा पाकिस्तान के सिंध प्रांत में लखियोपीर तथा नेपाल की तराई में तिलौराकोट तक फैली हुई थी । कौशाम्बी, सोहगौरा तथा वैशाली के उत्खननों से प्राप्त मृद्भाण्डों के आधार पर पुरातत्ववेत्ताओं ने यह मत अभिव्यक्त किया है कि यह पात्र परम्परा पूर्व में अपेक्षाकृत बाद में फैली क्योंकि यहाँ से यह मृदाण्ड कम संख्या में मिले है |

यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि चित्रित घूसर मृदभाण्ड परम्परा लौह युग की एक विशिष्ट परम्परा थी । प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता बी.बी लाल ने यह मत अभिव्यक्त किया है कि इस परम्परा के मृद्भाण्ड अधिकांशत: उन सभी स्थलों से प्राप्त होते है जो महाभारत काल से सम्बद्ध रहे है । अभी तक इस संस्कृति के चार सौ से अधिक पुरास्थल खोजे जा चुके है जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस संस्कृति का मुख्य केन्द्र ऊपरी गंगा घाटी, इंडो गंगा विभाजक तथा पूर्वी पाकिस्तान था । यह अत्यंत शोचनीय है कि अभी तक इस संस्कृति के दो ही

स्थलों हस्तिनापुर तथा अंतरजिखेडा का ही व्यापक उत्खनन हुआ है तथा वह भी केवल ऊर्ध्वाकार है जिस कारण इस संस्कृति के निवासियों की जीवन पद्धति के संबंध में हमे बहुत कम जानकारी उपलब्ध है ।

चित्रित घूसर मुद्भाण्ड परम्परा की सीमा एम. के. घावलिकर ने पश्चिम मे सतलज तथा दक्षिण में अरावली पर्वत माला को माना है तथा वे दक्षिण पूर्व में इसकी सीमा चंबल तक तथा उत्तर में हिमालय तक मानते है । राजस्थान में इस परम्परा के मृद्भाण्ड घग्गर नदी के रेतीले मैदानों में मिले है जिस आधार पर पुरात्ववेता इसको उत्तर वैदिक संस्कृति मानते है । परम्परा की तकनीक चित्रित घूसर मृदमाण्ड

इस परम्परा के मृदाण्ड रंग में हल्के राखिए होते है तथा कभी-कभी लालिमायुक्त भी पाए जाते हैं । पुरातत्ववेता साना उल्लास के अनुसार इन मृद्भाण्डों के विशिष्ट रंग का कारण काला फैरस ऑक्साइड है । उत्तर प्रदेश के अहिछत्र नामक स्थान से इस मृदाण्ड परम्परा के अन्तर्गत कुछ ऐसे मृद्भाण्ड भी मिले है जो आंशिक रूप से लाल अथवा नीले और भूरे है । इन मृद्भाण्डों में प्रयुक्त मिट्टी अत्यंत छनी हुई और महीन है । इन मृद्भाण्डों परकालेरंग के अलंकरण किए गए है जो इनकी विशिष्टता है । इन अलंकरणों के अन्तर्गत बिदु व लहरदार रेखाएं बनाई गयी है ।

मृद्भाण्डों के आकार प्रकार

चित्रित घूसर मृदाण्डों के अन्तर्गत सामान्यत: सकोरे अथवा कटोरी और थालियाँ प्राप्त हुई है । इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि इन मृदाण्डों को भोजन हेतु प्रयुक्त किया जाता था । इसके अलावा इस मृदाण्ड परम्परा में लोटे और टोंटीदार बर्तन भी मिले है जो अत्यंत कम हैं । काल एवं उत्पत्ति प्रसिद्ध पुरातत्ववेता बी.बी लाल इस मृदाण्ड परम्परा को 1100 ई० पू० के मध्य निर्धारित करते है लेकिन इसकी ज्ञात कार्बन तिथियाँ 800 से 400 ई० पू० तथा 1100 से 600 ई० पू० के मध्य है । गत दशकों में भगवानपुरा तथा दघेटी के पुरास्थलों के आधार पर पुरातत्ववेत्ताओं ने यह मत निर्धारित किया है कि इस संस्कृतिक प्रारंभ द्वितीय सहस्त्राब्दी ई० पू० के अंत में हो गया था । चित्रित घूसर मृद्भाण्ड परम्परा की संस्कृति बी. बी. लाल इस मृगाण्ड परम्परा को महाभारत काल से जोडते है | अभी तक ज्ञात पुरावशेषों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह ग्राम्य संस्कृति थी तथा यह ताम्र और लौह दोनो अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करती है । ये लोग बाण फलक, कुल्हाडियाँ सुइया और कीले निर्मित करते थे । कृषि के क्षेत्र में यह जौ और धान से परिचित थे, गाय-बैल और घोडा पालते थे । संभवत: यह सूती वस्त्रों से परिचित थे | इसकी पुष्टि लोहे की सुइयों से होती है । आभूषण स्त्री पुरुष दोनो पहनते थे । ये लोग बांस और लकडी की बनी खपच्चियों में गारे का लेप कर झोपडियॉ निर्मित करते थे । इनके ग्राम छोटे होते थे । कुछ पुरातत्ववेताओं का अनुमान है कि ये लोग शव दफनाते थे |

उत्तर कृष्णमार्जित मृद्भाण्डों को Norther Black Polished Ware भी कहा जाता है । प्राचीन भारत की समस्त मृदाण्ड परम्पराओं में इनको सर्वोत्तम माना जाता है । यह पात्र परम्परा सर्वप्रथम 1934 में तक्षशिला के भीर टीले के उत्खनन से प्रकाश में आयी थी, उस समय मार्शल ने इसे काली काचित पात्र परम्परा नाम दिया था । लेकिन धावलीकर का कहना है कि इस प्रकार के मृद्भाण्ड सर्वप्रथम 1904-05 में सारनाथ में मिले थे । भीर तथा तक्षशिला दोनो स्थलों से यह मृद्भाण्ड पूर्व मौर्य कालीन स्तरों से प्राप्त हुए थे | बाद में उत्तर प्रदेश के अहिछत्र नामक स्थान से उत्तरकृष्णमार्जित मृदाण्ड चित्रित घूसर मृदाण्डों के साथ प्राप्त हुए । इसके पश्चात् हस्तिनापुर से ये मृगाण्ड चित्रित धूसर मृदभाण्ड के साथ हुए। 1946 में कृष्णदेव और व्हीलर ने इनको अठारह पुरास्थलों से प्राप्त मृद्भाण्डों के आधार पर उत्तर कृष्णभार्जित मृद्भाण्ड नाम दिया । इस संस्कृति के महत्वपूर्ण पुरास्थलों में आलमगीरपुर, केसेरी आहिछत्र, रोपड़, मथुरा, बैराट, अंतिरंजिखेडा, सुध, संधोल, नोह है । विभिन्न पुरास्थलों से इन मृद्भाण्डों के जो अवशेष प्राप्त हुए है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये मृदाण्ड काले रंग के अलावा सुनहरे, रूपहले, नीले, नारंगी, चाकलेटी तथा गुलाबी रंग में भी निर्मित किए जाते थे लेकिन रूढ परम्परानुासर अभी भी इन्हें काले रंग से जाना जाता है | आधुनिकतम खोजों के आधार पर अब यह माना जा सकता है कि ये पात्र परम्परा अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत और बांगला देश के विस्तृत भूभाग में फैली हुई थी

5.5.1 तकनीक

इस परम्परा के मृद्भाण्डों की अत्यंत पॉलिश युक्त दर्पण के समान चमक वाली सतह प्रारंभ से ही पुराविदों को आकर्षित करती रही है | बी० बी० लाल के अनुसार इस दर्पण के समान चमकने वाली सतह पात्रों पर गरम अवस्था में किसी प्रकार के कार्बनिक सामग्री को प्रयुक्त किए जाने के कारण से है । जबकि हेगडे इसका कारण लौह ऑक्साइड को मानते है। इसके विपरीत भारद्वाज जैसे रसायनविदों के अनुसार चमकदार काला रंग मेगनेटाइट अथवा फेरस सिलिकेट के कारण नहीं है, इसका कारण कार्बन है । सानाउल्लाह के अनुसार इनकी कालीसतह का कारण 13: तक फैरस आक्साईड है । संभवत: इन मृदाण्डों को पकाने से पूर्व इन पर गेरू का लेप चढाया जाता था तथा इस कारण मटटी में पकने से गैसो के न्यूनीकरण की क्रिया के कारण इनकी सतह काली हो जाती थी।

5.5.2 पात्रों के प्रकार एवं आकार

उत्तर कृष्ण मार्जित मृद्भाण्डों की परम्परा में पात्रों के प्रकार अत्यंत सीमित हैं । इनमें कटोरे सर्वाधिक है जिनके पार्श्व सीधे है तथा पात्र का किनारा अंदर की ओर है । वैशाली के उत्खनन से इस पात्र परम्परा के अन्तर्गत एक ढक्कन प्राप्त हुआ है जिसकी चमकदार पालिश यह आभास कराती है कि मानो यह प्रस्तर निर्मित हो । इन पात्र परम्परा के कुछ पात्रों के किनारों पर तांबे की जाली लगी हुई है जिससे यह आभास होता है कि यह अत्यंत मूल्यवान माने जाते थे । इन पात्रों के अन्तर्गत अत्यल्प संख्या में टोंटीदार मृगाण्ड भी प्राप्त हुए हैं । इसके अलावा सुस्पष्ट कोखवाली हांडियां तथा छोटे आकार के कलश भी इस पात्र परम्परा के अन्तर्गत बनते थे | उत्तरकृष्णमार्जित मृदाण्ड, परम्परा के अन्तर्गत हस्तिनापुर, कौशाम्बी, श्रावस्ती तथा घुले से कुछ ऐसे मृगाण्ड भी प्राप्त हुए है जिन पर चित्रकारी की गयी है ।

पुरातत्ववेत्ताओं का अभिमत है कि यह मृदाण्ड समाज के अभिजात्य वर्ग द्वारा ही प्रयोग में लाए जाते थे । इसकी पुष्टि इनके किनारों परलगी तांबे की जाली तथा इनके अन्य पात्र परम्परा की तुलना में कम संख्या में मिलने से भी होती है। रेडियो कार्बन तिथियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह पात्र परम्परा छठी शताब्दी ई०पू० तक अस्तित्व में आ चुकी थी तथा प्रथम शताब्दी ई०पु० तक इस पात्र परम्परा का अबाध रूप से निर्माण होता रहा । इस पात्र परम्परा की उत्पति को लेकर भी विभिन्न मत है । कुछ विद्वान इनका उद्भव युनान की Black Glazed Ware से मानते हैं लेकिन इन मृद्भाण्डों की तिथि का Black Glazed Ware से पूर्ववर्ती होना इस बात को गलत सिद्ध करता है । अत: यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह पात्र परम्परा विशुद्ध भारतीय थी ।

5.5.3 उत्तर काली चमकीली मृदमाण्ड परम्परा की संस्कृति

इस पात्र परम्परा का उद्भव एवं विकास छठी शताब्दी ई० पू० में उस समय हुआ जब भारत में द्वितीय नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी थी एवं लौह तकनीक ने तत्कालीन मानव के जीवन में व्यापक रूप से प्रवेश कर लिया था । यह समय मगध के उत्कर्ष का था । व्यापार हेतु मौद्रिक अर्थव्यवस्था का विकास हो गया था । इस समय भट्टी में पकी हुई ईंटों का प्रयोग भी हडप्पा संस्कृति के पतन के पश्चात् एक हजार वर्ष के अन्तराल से प्रारंभ हुआ था । उत्तरकृष्णमार्जित मृद्भाण्ड परम्परा के अन्तर्गत इन मृद्भाण्डों के अलावा अन्य प्रकार के मृद्भाण्डों का निर्माण जनसामान्य हेतु भी किया जाता था । यह मृद्भाण्ड थिक प्लेन ग्रेवेअर, ब्लेक सिल्पड वेयर, रेड वेयर आदि थे । इनमें सर्वाधिक संख्या में लाल रंग के मृदमाण्ड मिलते है जो इस ओर संकेत करते है कि लाल रंग के मृदाण्डों का इस काल में व्यापक प्रयोग होता था | सादे घूसर रंग के मृदभाण्ड सामान्यत: भोजन पकाने के काम में आते थे । इस मृद्भाण्ड परम्परा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशिष्टता इस काल में लौह उपकरणों का व्यापक रूप से प्राप्त होना हैं । इस सांस्कृतिक परम्परा के निवासी बाण फलक, भाले के शीर्ष, बल्लम शीर्ष, बरछी, कटार, चाकू हँसिया, खुरपी, कीलें बसूला, छैनी तथा कड़ाही आदि प्रयुक्त करते थे ।

5.5.4 कृषि पशुपालन तथा सिक्के

___ इस सांस्कृतिक परम्परा के अन्तर्गत चावल, गेहूँ जौ तथा दलहन की खेती होने लगी थी । इसके अलावा यह गाय बैल, भैस, भेड, बकरी, घोडे तथा सूअर पालते थे । पशु सामान्यत: भार वाहन हेतु प्रयुक्त किए जाते थे । व्यापार हेतु इस काल में सिक्के भी अस्तित्व में आ गए थे । इस काल के सिक्कों को आहत कहा जाता है । इन सिक्कों पर विभिन्न प्रकार के प्रतीक बने होते थे । ये सिक्के रजत व तांबे के बनाए जाते थे ।

5.5.5 वास्तु एवं अन्य कला

यह सांस्कृतिक काल वास्तु की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था । लगभग एक हजार वर्ष के अन्तराल के पश्चात हडप्पा संस्कृति के पतन के बाद पुन: इस काल में भट्टी में पकी हुई ईंटों का प्रयोग प्रारंभ हुआ था । अब नगरों का निर्माण प्रारंभ हो गया था | नगरों के चारो ओर रक्षा प्राचीर तथा परिखा बनाई जाते लगी थी । इस काल के प्रमुख नगरों में अहिछत्र, कौशम्बी, राजगृह तथा उज्जैन आदि थे । इस काल में भवन काष्ठ से भी निर्मित होते थे । पाटलीपुत्र से इसकी पुष्टि होती है | पाटलीपुत्र उस समय का दक्षिण एशिया का सर्वाधिक बडा नगर था । इसके अलावा इस काल में धार्मिक वास्तु का भी निर्माण प्रारंभ हो गया था । इनको स्तूप कहा जाता था । वास्तु के अलावा प्रस्तर की यक्ष-यक्षिणी की प्रतिमाएं एवं पकी हुई मिट्टी (टेराकोटा) की लघुमूर्तियाँ भी बनने लगी थी । यह पशुओं और मानवों दोनो की होती थी ।

5.5.6 आभूषण

उत्तरकृष्ण मार्जित मृदाण्ड परम्परा के निवासी आभूषणों से भी परिचित हो गए थे । इस संस्कृति के विभिन्न पुरास्थलों में विभिन्न प्रकार के माला के मनके प्राप्त हुए है जो विभिन्न प्रस्तरों व मिट्टी से निर्मित है । इसके अलावा इस संस्कृति के अन्तर्गत चूड़ियाँ, कडे तथा अंगूठियाँ भी बनने लगी थी । ये लोग अंजनी शलाका, ताम्रपिन, हाथी दांत की कंघी तथा नख कर्तक से भी परिचित थे ।

अत: यह कहा जा सकता है कि उत्तर कृष्ण मार्जित मदमाण्ड परम्परा के अन्तर्गत संस्कृति के विभिन्न पक्षों का विकास हो गया था तथा यह संस्कृति इतिहास के उस कालखण्ड की प्रतिनिधि है जब भारत में द्वितीय नगरीकरण हो रहा था एवं साम्राज्य विकसित हो रहे थे ।

5.6 भारत की महापाषाणयुगीन समाधि संस्कृतियां

जैसा कि इस संस्कृति के नाम से ही स्पष्ट है कि इस काल में समाधियों के निर्माण में बडे-बडे पाषाण खण्डों को प्रयोग में लाया जाता था । मानव ने मृत्यु के पश्चात् मृतक संबंधी कर्मों की शुरूआत कब की इसके संबंध में पुरावेत्ताओं का मानना है कि निअण्डर्थल मानव ने वर्तमान में 100000 से 35000 ई० पू० मे संभवत: मृतक संस्कारों को प्रारंभ किया था । इसके अलावा नवपाषाण कालीन मानव भी विभिन्न प्रकार की अंतिम क्रियाएं करता था | राजस्थान के भीलवाडा जिले में बागोर नामक स्थान से मध्यपाषाण काल में ही शव दफनाने के प्रमाण मिलते है । इसके अलावा मेसोपोटामिया और मिस्त्र में ऐसी राजकीय समाधियाँ प्राप्त हुई है जिनमें मृतक राजा के साथ उसकी रानियों, प्रिय-परिजन, बैल, अन्य पालतु पशु, सांसारिक उपभोग की वस्तुएं व सोने चांदी के आभूषण रखे जाते थे | ये समाधियाँ अत्यंत भव्य और चमत्कारिक है ।

भारत में ऐसी भव्य समाधियाँ तो नहीं मिली है लेकिन यहाँ पर ऐसे समाधि स्वरूप स्मारक अवश्य मिले है जिन्हें विभिन्न आकार-प्रकारों में बड़े बड़े पाषाणखण्डों से निर्मित किया जाता था, इसी कारण इनको वृहत्पाषाणीय समाधियाँ मेगालिथिक कहा जाता है । यूनानी भाषा में Megas बड़े को और Lithos प्रस्तर अथवा पाषाण को कहते है । यूरोप में मैगालिथ का सर्वप्रथम प्रयोग 1840 तथा 1860 के आसपास हुआ | गार्डन चाइल्ड और व्हीलर ने मैगालिथक संस्कृति के संबंध में अपनी मान्यताएं प्रकट की हैं | व्हीलर के अनुसार मेगालिथिक अपरिष्कृत पाषाण खण्डों से बने हुए उन स्मारकों को कहा जाता है जो मृतक को दफनाने में प्रयुक्त किए जाते थे ।

भारत में बृहत्पाणाविक समाधियों को निम्न क्षेत्रों में विभाजित किया गया है 1. दक्षिण भारत 2. उत्तर भारत, और 3. विदर्भ क्षेत्र

5.6.1 दक्षिण भारत की महापाषाणयुगीन समाधियाँ

इन महापाषाणकालीन समाधियों की खोज भारत में सर्वप्रथम कर्नल मीडोज टेलर ने क्रमश: 1851 और 1862 में कर्नाटक प्रांत के गुलाबर्गा जिले में स्थित शोरापुर दोआव क्षेत्र मे की थी । इसके बाद अलेक्जेंडर डी ने 1889 से 1905 के मध्य तमिलनाडु के तिरुनेल्वेली में तथा 1903-04 मे लुई लेपिक ने चुनल्लूर में भी ऐसी समाधियों को खोजा । इसके बाद सन् 1935 में ए.ऐयप्पन ने सन् 1935 में दक्षिण भारत की महापाषाणीय समाधियों पर एक लेख भी लिखा जिसमें उन्होनें 35 प्रकार की समाधियों का उल्लेख किया ।

दक्षिण भारत की महापाषाणीय समाधियों का सर्वाधिक प्रमाणिक विभाजन कृष्णास्वामी का माना जाता है जो उन्होनें 1949 में किया । इसके अनुसार दक्षिण भारत की इन समाधियों को सात प्रकारों में विभाजित किया गया है:

1. डोलमेन समाधियाँ : डोलमेन केल्टिक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ ही पत्थर की मेज होता है । यह आयताकार मेज के आकार की होती है, इनको जमीन की सतह के ऊपर निर्मित किया जाता है ।

2. संगोरा समाधि : इनको जमीन में 30 सेमी. से लेकर 15 मीटर तक का गहरा गड्ढा खोदकर बनाया जाता था। इन समाधियों के गड्ढा का व्यास 2.40 से 3.60 मीटर तक होता था ।

3. छत्र शिला : यह आधुनिक छाते के समान होती है । दक्षिण भारत मे इन्हें स्थानीय भाषा में टोपीकल कहा जाता है । ये समाधियाँ केरल के कोच्चिन के अरिपन्नर और चेरमनन गाद से मिली है ।

4. फण शिला : इन समाधियों में गढा खोदकर मानव आस्थियों और अन्येष्टि सामग्री को रखकर गड्ढा को मिटी से भर दिया जाता था । उसके बाद कब के ऊपर शिला को उल्टा कर रख दिया जाता था ।

5. मेनहीर : दक्षिण भारत के कुछ भागों में ग्रेनाइट के एकाश्मक प्राप्त होते है जिन्हें मेनहीर कहा जाता हैं । इन मेनहीर प्रस्तरों को कब के संकेत के रूप में कब्र के समीप लगाया जाता था | यह प्रस्तर खण्ड 1.5 मीटर से 2.40 मीटर तक लम्बे होते है । यह प्रस्तर सामान्यत: उत्तर दक्षिण दिशा की ओर लगाए जाते थे । अभी तक केवल एक मेनहीर कर्नाटक के रायचूर जिले में मास्की से प्राप्त हुआ है ।

6. गुफा समाधि : ये समाधियाँ केरल में अधिक प्राप्त हुई है वहां पर लेटराइट की चट्टानों को काट कर निर्मित की गयी है । यह आयताकार अथवा वर्गाकार होती हैं तथा इसकी छत गुम्बदाकार होती है । इनका प्रवेश द्वार 30-35 सेमी. आकार का होता है ।

7. अंत्येष्टि कलश : यह पाषाण के स्थान पर मिट्टी के बड़े-बड़े पात्रों से निर्मित की जाती है । इनमें सामान्यत: शिशुओं को दफनाया जाता है |

5.6.2 तमिल साहित्य में महापाषाणयुगीन समाधियाँ

तमिल साहित्य के ग्रंथ मणिमेखलई में अंतिम क्रिया का वर्णन मिलता है । इसके अनुसार इस समय भारतीय समाज में शव को जमीन में दफनाने तथा मिट्टी के पात्रों में रखने आदि का वर्णन मिलता है ।

दक्षिण भारतीय महापाषाणीय स्मारकों के साथ मृद्राण्ड बडी संख्या में मिलते है । इन स्मारकों के साथ काले-एवं लाल रंग के मृद्राण्ड अधिकांशत: मिलते है जिनकी सतह पर दरारों के चिन्ह स्पष्टत: दिखाई देते है | संभवत: इस दरार का कारण इन पर नमक का प्रभाव माना जाता है । इसके अलावा इन महापाषाणीय स्मारकों से लाल अथवा काले मृगाण्ड प्राप्त होते है । कोयमबटूर से कुछ ऐसे लाल रंग के मृदाण्ड भी प्राप्त हुए है जिन पर सफेद रंग से समकेन्द्रीय वृत्त और लहरदार रेखाओं के अलंकरण भी बने हुए है ।।

दक्षिण भारत की यह महापाषाणी समाधियाँ कांस्य वस्तुओं को भी उपलब्ध कराती है । ऐसी कांस्य वस्तुएं तिरूनेवेली, सुलेर, संडर, कुंनतपुर से भी मिली है लेकिन इन महाश्मीय समाधियों का सर्वाधिक महत्व इनके साथ प्राप्त होने वाले लौह उपकरणों के कारण से है | यह लौह उपकरण विभिन्न आकर-प्रकार के मिलते है जिनमें, त्रिशूल, तलवार, ढाल, भालग्र, दरांती, हल की फाल तथा लोहे की बनी घोड़े की नाल महत्वपूर्ण है । इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस संस्कृति के निवासी लौह तकनीक से भलीभांति परिचित थे तथा उन्होंने इस तकनीक में विशिष्टता प्राप्त कर ली थी।

तिथिक्रम

पुरातत्ववेत्ता दक्षिण भारत की इस महापाषाण समाधि संस्कृति का तिथि निर्धारण 1000 ई०पू० से 100 ई० के मध्य निर्धारित करते है । इस संस्कृति की प्रमुख रेडियो कार्बन तिथियाँ हल्लूर, तकलघाट, पेयमपल्ली, कटिया, तथा हलिन्नल्ली से प्राप्त हुई हैं । मूलतः, इस संस्कृति के निवासी कृषक तथा पशुपालक थे एवं धान, जौ, रागी, चना आदि से परिचित थे तथा गाय बैल, भैंस, घोडे, भेड व बकरी पालते थे ।

5.6.3 उत्तर भारत की महापाषाणयुगीन संस्कृति

उत्तर भारत की महापाषाण संस्कृति दक्षिण से पूर्णतया पृथक है | उत्तर भारत में इसके पुराप्रमाणो के साथ किसी भी प्रकार के विशिष्ट मृगाण्ड तथा लौह उपकरण आदि प्राप्त नहीं होते है । उत्तर भारत में प्रथम बार 1962-63 में दक्षिण उत्तर प्रदेश के विध्य क्षेत्र के पहाडी इलाके में वाराणसी, मिर्जापुर इलाहाबाद एवं बांदा जिले में महापाषाण संस्कृति के प्रमाण खोजे गए थे । ऐसी पाषाण संस्कृति के प्रथम स्थल ककोरीया का उन्सनन 1962-63 में किया गया । उत्खनन से ज्ञात हुआ कि ककोरिया की महापाषाण संस्कृति ताम्रपाषाणिक शी । उत्तर भारत का प्रथम स्थल जो लोहयुगीन महापाषाण संस्कृति के प्रमाण प्रदान करता है, वह कोटिया था । ककोरिया में कुल बारह समाधियों का उखनन कराया गया था जिसमें आठ संगोरा, तीन सिस्ट और एक संगोरा समाधि के अंदर बनी हुई सिस्ट समाधि थी ।

इसी प्रकार भारत के उत्तर पश्चिम में कश्मीर घाटी से भी महापाषाण समाधियां भी प्राप्त हुई है जो नवपाषाण काल के पश्चात की है तथा यह स्मारक स्तंभ जैसी हैं । यह स्मारक अर्धवृजाकार है । यह बुर्जहोम, शादीपुर, बेगगुण्ड, गोफकरल हरीपरीगोम पामपुर, वजहल से प्राप्त हुई है । यहाँ पर यह स्पष्ट करना तर्कसंगत लगता है कि लेह से प्राप्त महापाषाण समाधियाँ कश्मीर घाटी से एकदम भिन्न है ।

विंध्य क्षेत्र कश्मीर और लेह के अलावा महापाषाण समाधियाँ भरतपुर, जयपुर, नागौर, नगरी, फतहपुर सीकरी तथा उत्तरांचल में देवीघूरा से भी प्राप्त हुई है ।

5.6.4 विदर्भ क्षेत्र

महाराष्ट्र में पूर्वी विदर्भ का क्षेत्र महापाषाण समाधि संस्कृति की दृष्टि से महत्वपूर्ण है | विदर्भ के बरार में सर्वप्रथम नागपुर विश्वविद्यालय और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने सर्वेक्षण कार्य किया तथा इसके समीपवर्ती स्थानों धुले (खान देश), अमरावती, बर्घा तथा नागपुर जिले में महापाषाण समाधियाँ और उनके साथ कृष्ण लोहित उपकरण खोजे । इसके पश्चात् 1959-60 में महुर्झरी, 1960-61 में कौण्डिन्यपुर (अमरावती) तथा 1961 -62 में जूनापाणि नामक पुरास्थलों को पुरातत्व विभाग ने खोजा । ‘विदर्भ क्षेत्र से भी संगोरा प्रकार की महापाषाणीय समाधियाँ सर्वाधिक संख्या में प्राप्त हुई है । इनमें मानव अस्थियों के साथसाथ पशुओं की अस्थियाँ भी मिली हैं जिनमें सर्वाधिक घोडे की है । इसके अलावा कृष्ण लोहित मृदाण्ड , ताम्र व लौह के उपकरण व माणिक्य के मनके भी प्राप्त हुए हैं । लोहे के उपकरणों मे मुख्यरूप से बाण एवं भाले के फलक, चाकू छैनी, कुल्हाड़ी, कीले मछली पकड़ने के काँटे, चूड़ी, कड़ाही, कटार व तलवार प्रमुख है । यहाँ पर यह जानना आवश्यक है कि विदर्भ और दक्षिण भारत की महापाषाण संस्कृति के मृगाण्डों लौह उपकरणों तथा मनकों में काफी समानता है । यह संस्कृति रेडियो कार्बन तिथि के अनुसार सातर्वी शताब्दी ई०पू० के आसपास मानी जा सकती है ।

ऊपर के पृष्ठों में वर्णित विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में महापाषाण समाधि संस्कृति का क्षेत्र अत्यंत व्यापक था । यह संस्कृति राजस्थान, उत्तर प्रदेश, जम्मू कश्मीर, बिहार, असम, उडीसा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु तथा केरल तक विस्तार पाए हुए थी ।

____ कालानुक्रम की दृष्टि से महापाषण समाधि संस्कृति को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

1. आद्य ऐतिहासिक काल की महापाषाण समाधियाँ 2. आधुनिक काल की महापाषाण समाधियाँ

वर्तमान में भी महापाषाण समाधियों की परम्परा असम, उडीसा और मध्य प्रदेश की अनेक जनजातियों में देखी जा सकती है लेकिन इन समाधियों का अध्ययन हमारे अध्ययन की सीमा से परे है ।

लोहे के प्राचीनतम साक्ष्य कहाँ से कब मिले है?

प्राप्त पुरातात्त्विक साक्ष्य प्रायः यह संकेत करते हैं कि लोहे के ज्ञान का प्रारम्भ सर्वप्रथम एशिया माइनर के क्षेत्र में हुआ। दुनिया के अन्य क्षेत्रों ने लगभग 1200 ई. पू. में हित्ती साम्राज्य के विघटन के पश्चात् लोहे के प्रयोग की जानकारी प्राप्त किया।

भारत में लोहे के प्राचीनतम प्रमाण कहाँ से मिलते हैं?

भारत में लोहे के सर्वाधिक प्राचीनतम प्रमाण नोह (भरतपुर), जोधपुरा (जयपुर) तथा अतिरंजीखेडा और लालकोट (उत्तर प्रदेश) से प्राप्त हुए हैं जिनकी कार्बन 14 तिथि एक हजार ई. पू. के आसपास मानी गयी है ।

भारत में लोहे का प्रयोग कब शुरू हुआ?

विश्व के भिन्न भागों में लौह-प्रयोग का ज्ञान धीरे-धीरे फैलने या उतपन्न होने से यह युग अलग समयों पर शुरु हुआ माना जाता है लेकिन अनातोलिया से लेकर भारतीय उपमहाद्वीप में यह १३०० ईसापूर्व के आसपास आरम्भ हुआ था, हालांकि कुछ स्रोतों के अनुसार इस से पहले भी लोहे के प्रयोग के कुछ चिह्न मिलते हैं।

एशिया माइनर में लोहे की खोज कब हुई?

कुछ विद्वानों का मत है कि विश्व में सर्वप्रथम हित्ती नामक जाति, जो एशिया माइनर (टर्की) में ई. पू. 1800-1200 के लगभग शासन करती थी, ने ही लोहे का प्रयोग किया था ।