भारत में कौन राजकोषीय नीति निरूपित करता है? - bhaarat mein kaun raajakosheey neeti niroopit karata hai?

राजकोषीय नीति कौन बनाता है ?, राजकोषीय नीति (Fiscal Policy) की भूमिका, राजकोषीय नीति क्या है ? राजकोषीय नीति के उद्देश्य, राजकोषीय नीति के उपकरण, राजकोषीय नीति की सीमाएँ आदि राजकोषीय नीति (Fiscal Policy) से जुड़े प्रमुख प्रश्नों के उत्तर यहाँ दिए गए हैं, Fiscal Policy notes in Hindi for UPSC, PCS –

भारत में कौन राजकोषीय नीति निरूपित करता है? - bhaarat mein kaun raajakosheey neeti niroopit karata hai?

Table of Contents

  • राजकोषीय नीति
    • राजकोषीय नीति के उद्देश्य
    • राजकोषीय नीति के उपकरण
    • राजकोषीय नीति की सीमाएँ

राजकोषीय नीति

राजकोषीय नीति (Fiscal Policy) सरकार की आर्थिक नीति का एक प्रमुख घटक है इसके द्वारा आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय, मूल्य स्थिरता, पूर्ण रोजगार सृजन एवं संसाधनों की गतिशीलता जैसे लक्ष्यों की पूर्ति की जाती है। राजकोषीय नीति कर एवं कराधान, सार्वजनिक व्यय एवं ऋण जैसे उपकरणों की सहायता से अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करती है। इस नीति का निर्माण तथा क्रियान्वयन वित्त मंत्रालय द्वारा बजट के माध्यम से किया जाता है।

राजकोषीय नीति को वित्तमंत्री वर्ष में एक बार बजट के माध्यम से प्रस्तुत करता है। इस नीति को आय एवं व्यय नीति, बजटीय नीति तथा कराधान नीति के नाम से भी जाना जाता है। राजकोषीय नीति राष्ट्र की विकास रणनीति के केंद्र में रहती है। एक राष्ट्र के आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति में राजकोषीय नीति का प्रमुख योगदान होता है।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण 1 फरवरी को अपना बजट पेश करेंगी. हर बजट में राजकोषीय नीति का काफी जिक्र होता है. क्या आप इसका मतलब जानते हैं?

दरअसल, जिस तरह भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) मौद्रिक नीति बनाता है, वैसे ही सरकार राजकोषीय नीति बनाती है. मौद्रिक नीति के जरिए केंद्रीय बैंक महंगाई पर अंकुश और सिस्टम में पैसे की आपूर्ति घटाता-बढ़ाता है. इसी तरह राजकोषीय नीति का मकसद आर्थिक विकास को बल देना है. राजकोषीय नीति क्या है और अर्थव्यवस्था पर कैसे पड़ता है इसका असर, यहां जानते हैं.

इसे भी पढ़ें : मोदी सरकार के सबसे चुनौतीपूर्ण बजट के बारे में ये 5 बातें आपको जरूर जाननी चाहिए

1. राजकोषीय नीति का आशय सरकार की नीतियों से है जो वह खर्च, निवेश और टैक्स की दरों को लेकर बनाती है.

2. इसका मकसद टैक्स की दरों और सार्वजनिक खर्च के बीच संतुलन बैठाना होता है ताकि महंगाई बढ़े बगैर आर्थिक विकास सुनिश्चित हो.

3. राजकोषीय विस्तार का उद्देश्य टैक्स को घटाकर और सरकारी खर्च को बढ़ाकर कुल मांग और विकास को बढ़ावा देना है.

इसे भी पढ़ें : बजट 2020: अभिजीत बनर्जी ने वित्त मंत्री को दी यह सलाह

4. राजकोषीय नीति में संकुचन (कॉन्ट्रैक्शन) सरकारी खर्च घटाकर और टैक्स की दरों को बढ़ाकर मांग और उत्पादन को घटाना है.

5. मौद्रिक नीतियों की अपेक्षा राजकोषीय नीतियों का असर मांग पर सीधे और तेजी से पड़ता है. रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीतियों के प्रभाव सामने आने में कुछ वक्त लगता है.

इस पेज की सामग्री सेंटर फॉर इंवेस्टमेंट एजुकेशन एंड लर्निंग (सीआईईएल) के सौजन्य से. गिरिजा गादरे, आरती भार्गव और लब्धि मेहता का योगदान.

हिंदी में पर्सनल फाइनेंस और शेयर बाजार के नियमित अपडेट्स के लिए लाइक करें हमारा फेसबुक पेज. इस पेज को लाइक करने के लिए यहां क्लिक करें.

अर्थनीति के सन्दर्भ में, सरकार के राजस्व संग्रह (करारोपण) तथा व्यय के समुचित नियमन द्वारा अर्थव्यवस्था को वांछित दिशा देना राजकोषीय नीति (fiscal policy) कहलाता है। अतः राजकोषीय नीति के दो मुख्य औजार हैं - कर स्तर एवं ढांचे में परिवर्तन तथा विभिन्न मदों में सरकार द्वारा व्यय में परिवर्तन।

ऐसी कोई अर्थव्यवस्था नहीं है जो राजकोषीय नीति या मौद्रिक नीति के बिना चल सकती हो। पर बहस इस बात की है कि आर्थिक प्रबंधन के लिए दोनों में कौन सी नीति की भूमिका मुख्य होनी चाहिए। सरकारी निर्माण परियोजनाओं, जम कर टैक्स लगाने और आर्थिक जीवन में अन्य हस्तक्षेपों के ज़रिये माँग और रोज़गार बढ़ाने के पक्षधर राजकोषीय नीतियों के विवेकसम्मत इस्तेमाल को आर्थिक वृद्धि की चालक शक्ति मानते हैं। घाटे की अर्थव्यवस्था को यह विचार मुख्यतः कींसियन अर्थशास्त्र की देन है। यह रवैया राजकोषीय नीतियों को प्रमुखता प्रदान करता है। कींसियन अर्थशास्त्र का बोलबाला होने से पहले मौद्रिक नीति के ज़रिये आर्थिक प्रबंधन करने का चलन था। साठ के दशक में पश्चिमी अर्थव्यवस्थाएँ एक बार फिर मौद्रिक नीति को मुख्य उपकरण बनाने की तरफ़ झुकीं। उन्होंने कींसियन दृष्टिकोण की आलोचना की। मौद्रिक नीति के समर्थकों की मान्यता है कि टैक्स कम लगाने चाहिए और मौद्रिक नीति को सरकार के विवेक के भरोसे छोड़ने के बजाय कुछ निश्चित नियम-कानूनों के तहत चलाया जाना चाहिए। केवल इसी तरह से अर्थव्यवस्था का बेहतर प्रबंधन हो सकता है और राजकोषीय घाटे को नियंत्रण में रखा जा सकता है। अर्थशास्त्र की भाषा में इस विचार को मौद्रिकवाद या मोनेटरिज़म की संज्ञा दी जाती है।

मौद्रिक नीति का संचालन मुख्यतः अर्थव्यवस्था के केंद्रीय बैंक (जैसे भारत का रिज़र्व बैंक) द्वारा किया जाता है। यह बैंक तयशुदा समष्टिगत आर्थिक नीतियों के तहत सरकार के कहने पर भी कदम उठाता है और सरकार से स्वतंत्र निर्णय भी लेता है। शुरू में मौद्रिक नीति आम तौर पर केवल ब्याज दरों में परिवर्तन और खुले बाज़ार के कामकाज के आधार पर ही चलती थी। बाद में मुद्रा बाज़ार का अनुभव और अन्य मौद्रिक उपकरणों के विकास के बाद मौद्रिक नीति का संचालन उत्तरोत्तर परिष्कृत होता चला गया। अमेरिका में गवर्नरों के फ़ेडरल रिज़र्व बोर्ड ने 1913 से ही आरक्षित मुद्रा की आवश्यकताओं और अर्थव्यवस्था में सकल मुद्रा की वृद्धि का जिम्मा सँभाल रखा है। बैंक ऑफ़ इंग्लैण्ड ने 1951 के बाद से मौद्रिक नीति के संबंध में कई तरह के प्रयोग किये हैं जिनमें उपभोक्ताओं को दिये जाने वाले ऋण के नियम निर्धारित करना, अर्थव्यवस्था में तरलता (नकदी की मात्रा) को समग्र रूप से देखना और मौद्रिक आधार को नियंत्रित करना शामिल है।

मौद्रिक नीति निर्धारित लक्ष्यों के हिसाब से चलती है। जैसे, कितनी मुद्रास्फीति होनी चाहिए, ब्याज दरों का कौन सा स्तर उचित होगा, बेरोज़गारी घटाने का समष्टिगत उद्देश्य कैसे पूरा किया जाए, सकल घरेलू उत्पाद कैसे बढ़ाया जाए, अर्थव्यवस्था की दीर्घकाल तक कैसे स्थिर रखा जाए, वित्तीय क्षेत्र की स्थिरता के उपाय कैसे किये जाएँ, उत्पादन और दामों की स्थिरता कैसे कायम रखी जाए। मौद्रिकवाद के पैरोकार चाहते हैं कि सरकारी ख़र्च में कटौती की जाए और अर्थव्यवस्था पर लगे हुए नियंत्रण हटाये जाएँ। इनका दावा है कि अगर इतने महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों को वेधने के लिए नीति के साथ अक्सर छेड़-छाड़ की जाएगी तो परिणामों की आकस्मिकता अस्थिरता पैदा कर सकती है। इसलिए ऐसे नियम बनाये जाने चाहिए कि सरकार न तो उधार ले सके और न ही बाज़ार में मनी की सप्लाई बढ़ा सके। इन अर्थशास्त्रियों को लगता है कि मौद्रिक नीति के संचालन में सरकार और राजनेताओं को कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। लेकिन, ऐसा होना व्यावहारिक रूप से सम्भव नहीं होता। मोनेटरी पॉलिसी कमेटी के सदस्यों की नियुक्तियों के ज़रिये सरकार इस नीति को प्रभावित करती रहती है। सरकार नीतिगत उद्देश्यों में तब्दीली करके और समष्टिगत नीतियों को अपने हिसाब से बदल कर स्वतंत्र मौद्रिक नीति के आग्रह को पनपने नहीं देती।

मौद्रिकवाद के मुख्य प्रणेता अमेरिकी अर्थशास्त्री मिल्टन फ़्रीडमैन और उनकी साथी अन्ना श्वार्ज़ हैं। इन दोनों ने अर्थव्यवस्था में धन की मात्रा से संबंधित सिद्धांतों के आधार पर दीर्घावधि में होने वाली मनी सप्लाई और आर्थिक गतिविधियों के बीच संबंध का अध्ययन करके अपने निष्कर्ष निकाले हैं। लेकिन, जब मौद्रिकवाद के सिद्धांत अमेरिकी, ब्रिटिश और अन्य युरोपीय देशों में लागू किये गये तो कई तरह की दिक्कतें सामने आयीं। धनापूर्ति (मनी सप्लाई) को परिभाषित करना बहुत मुश्किल साबित हुआ। देखा गया कि अर्थव्यवस्था में धन की आपूर्ति का लक्ष्य बार-बार गड़बड़ा जाता है इसलिए हर बार नयी परिभाषा की ज़रूरत पड़ती है।  धन के परिसंचरण और फैलाव की रक्रतार उतनी स्थिर और निरंतर साबित नहीं हुई जितना पहले समझा जा रहा था। राजकोषीय नीति का मतलब है सरकार अपने ख़जाने से क्या ख़र्च करना चाहती है और किस तरह के टैक्स लगा कर राजस्व हासिल करने की इच्छुक है। इसी नीति के साथ सरकार की ऋण नीति भी जुड़ी होती है ताकि अगर पर्याप्त राजस्व न प्राप्त होने की दशा में कर्ज़ उगाहे जा सकें। राजकोषीय नीति के आधार पर तय किया जाता है कि राष्ट्रीय आमदनी का कितना प्रतिशत कराधान से उगाहा जाना चाहिए। इसी के साथ सवाल जुड़ा रहता है कि कम टैक्स लगा कर उद्यमशीलता को बढ़ावा दिया जाए या ज़्यादा टैक्स लगा कर लोकोपकारी परियोजनाएँ चलायी जाएँ जिससे आमदनी का समतामूलक पुनर्वितरण किया जा सके। राजकोषीय नीति का दूसरा सरोकार यह होता है कि टैक्स लगाये जाएँ तो किस प्रकार के। प्रत्यक्ष कर (जैसे आय कर) लगाये जाएँ या फिर बिक्री, माल और मूल्यवर्धन जैसे अप्रत्यक्ष कर लगाए जाएँ। अप्रत्यक्ष करों का प्रभाव सभी लोगों की आमदनी पर पड़ता है। वह राजकोषीय नीति तटस्थ समझी जाती है जिसके कारण एक समूह के उपभोग दूसरे की अपेक्षा प्रभावित नहीं होता।

राजकोषीय नीति युद्ध और शांति के समय भिन्न- भिन्न होती है। युद्ध के समय सेना पर होने वाले ख़र्च की भरपाई के लिए उतने ही टैक्स लगाने के बजाय लोभ यह होता है कि ऋण लेकर काम चलाया जाए। दूसरी तरफ़ अगर सरकार के ऊपर काफ़ी कर्ज लदा हुआ है तो शांतिकाल में वह लोकोपकारी योजनाएँ चलाने के लिए राजस्व की जुगाड़ करने के बजाय कर्ज़ उतारने में धन ख़र्चर् करती नज़र आयेगी। राजकोषीय नीति के ज़रिये बुद्धिमान सरकारें राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को स्थिर करने की भूमिका निभा सकती हैं। मसलन, अगर मंदी का दौर चल रहा है तो सरकार कम टैक्स लगाने और अधिक ख़र्चे करने का फ़ैसला ले सकती है। तेज़ी के दौर में ज़्यादा टैक्स लगाये जा सकते हैं और ख़र्चा कम करके सार्वजनिक वित्त यानी सरकारी खज़ाने की हालत सुधारी जा सकती है।

राजकोषीय संघवाद इसी नीति का अंग है। इसके तहत राष्ट्रीय, प्रादेशिक और शहर के स्तर पर अलग-अलग कराधान और व्यय संबंधी नीतियाँ अपनायी जाती हैं।

1. ए. पीकॉक और जी.के. शॉ (1971), द इकॉनॉमिक थियरी ऑफ़ फ़िश्कल पॉलिसी, जॉर्ज एलेन और अनविन, लंदन.

2. पी. बोफिंगर (2001), मोनेटरी पॉलिसी : गोल्स, इंस्टीट्यूशंस, स्ट्रैटजीज़ ऐंड इंस्ट्रूमेंट्स, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, ऑक्सफ़र्ड.

3. एम. ब्लॉग वग़ैरह (1995), द क्वांटिटी थियरी ऑफ़ मनी फ़्रॉम लॉक टू कींस ऐंड फ़्रीडमैन, एडवर्ड एलगर, एल्डरशॉट.

कौन भारत में राजकोषीय नीति को निरूपित करता है?

राजकोषीय नीति भारत में वित्त मंत्रालय द्वारा तैयार की जाती है।

निम्नलिखित में से कौन राजकोषीय नीति बनाता है?

सही उत्तर वित्त मंत्रालय है। वित्त मंत्रालय भारत में राजकोषीय नीति तैयार करता है।

भारत में कौन सा संगठन राजकोषीय नीति तैयार करता है?

सही उत्तर वित्त मंत्रालय है। वित्त मंत्रालय द्वारा राजकोषीय नीति तैयार की जाती है ।

निम्नलिखित में से कौन भारत सरकार की राजकोषीय नीति का उद्देश्य नहीं है?

सही उत्तर ब्याज दर है । ब्याज दर किसी देश की राजकोषीय नीति का हिस्सा नहीं होती है।