बिगड़ैल बच्चे वे तीन युवा पिंक सिटी ट्रेन में सुबह-सुबह छह बजे मेरे बाद चढ़े थे. रेल के इस सबसे पीछेवाले, सुनसान पड़े डिब्बे की मानो रुकी हुई सांसें एकाएक चल पड़ी हों... तेज़ स्वर में बातचीत, छेड़छाड़ करते हुए तीनों सामान स्वयं लादे, विदेशी पर्यटकों की नक़ल में ये पर्यटक साफ़-साफ़ देसी नज़र आ रहे थे. बात-बात में... फ़किन... फ़कअप... फ़कऑल...! मुझे बहुत नागवार गुज़र रहा था. मैंने स्वयं से सवाल पूछा... क्या मैंने बच्चों को सुरक्षित और कठोर अनुशासन में रखकर बहुत महान काम किया है? क्या निशि इस कठोर अनुशासन और
अतिरिक्त सुरक्षित वातावरण में पल कर बेहद दब्बू बनकर नहीं रह गई? बस, शादी कर देनेभर से हमने क्या उसे सुरक्षित कर दिया? अपनी होनहार एमबीए लड़की को बम्बई जाकर एक मल्टीनैशनल नौकरी नहीं करने दी... हम दोनों ही डर गए थे. कितना रोई थी वह... पर हमारा मन नहीं माना. बाहरी दुनिया... यानी ख़तरों से भरी दुनिया. कह दिया था... यहीं रहकर करो नौकरी... या फिर कह दिया कि शादी के बाद कर लेना नौकरी. पति चाहे तो. Next Story |