अलबरूनी किस शासक का दरबार इतिहासकार था उसमें कौन सी किताब लिखी? - alabaroonee kis shaasak ka darabaar itihaasakaar tha usamen kaun see kitaab likhee?

अलबरूनी किस शासक का दरबार इतिहासकार था उसमें कौन सी किताब लिखी? - alabaroonee kis shaasak ka darabaar itihaasakaar tha usamen kaun see kitaab likhee?

अलबरूनी (998-1030ई.) का पूरा नाम अबु रेहान मुहम्मद बिन अहमद अल – बदरूनी था। अलबरूनी का जन्म 973 ई. में ख्वारिज्म में हुआ था। ख्वारिज्म वर्तमान में उज्बेकिस्तान में है। ख्वारिज्म को खींवा (मध्य एशिया) भी कहा जाता है। इसके बचपन का नाम अबू रेहान था।

अलबरूनी गजनी के शासक महमूद गजनवी का दरबारी विद्वान था।

यह एक फारसी विद्वान लेखक, वैज्ञानिक, धर्मज्ञ था। अलबरूनी महमूद गजनवी के साथ भारत 1018-19ई. में आया था। इसे भारतीय इतिहास का पहला जानकार कहा जाता है।

अलबरूनी महमूद गजनवी के भारत विजय से पूर्व एक विद्वान तथा राजनयिक के रूप में खींवा वंश के अंतिम शासक ख्वारिज्मशाह की सेवा में था। 1017 में जब महमूद गजनवी ने ख्वारिज्मशाह पर आक्रमण कर विजय पायी तो उसी समय उसने अलबरूनी भी उसके साथ आया। भारत को लूटने के बाद महमूद गजनवी अपनी सेना के साथ गजनी लौट गया किन्तु अलबरूनी कई वर्षों तक भारत में ही रुके रहा। उसने देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया तथा हिन्दुओं की भाषा, धर्म एवं दर्शन का अध्ययन किया। उसने काशी के ब्राह्मणों से संस्कृत सिखी।

अलबरूनी एक विद्वान ही नहीं था, बल्कि वह एक खगोल विज्ञान, भूगोल, तर्कशास्त्र, ओषधि विज्ञान, गणित, दर्शन, धर्म और धर्म शास्त्र का भी ज्ञानी था।

अलबरूनी ने 1030 ई. में किताब-उल- हिंन्द (भारत के दिन) नामक किताब की रचना अरबी भाषा मे की थी। इसकी मृत्यु गजनी (अफगानिस्तान) में हुई।

अलबरूनी की पुस्तक किताब-उल-हिन्द का अंग्रेजी में अनुवाद चलरक सचाऊ ने किया। तथा हिन्दी में अनुवाद रजनीकांत शर्मा ने किया।

अलबरूनी ने 146 किताबें लिखी थी जिनमें से प्रमुख के नाम निम्नलिखित हैं-

  • तारीख अल हिन्द
  • अल कानून अल मसूद
  • कानून अल  मसूदी अल हैयत
  • अल नजूम

भारत के प्रमुख क्षेत्रों की यात्रा कर अरबी भाषा में अपने ग्रंथ किताब-उल-हिन्द (तहकीक-ए-हिन्द) की रचना की। इस ग्रंथ में 11वी. शता. के भारतीय सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक परंपराओं की जानकारी मिलती है। राजनैतिक दशा की जानकारी अलबरूनी ने नहीं दी।

अलबरूनी  विश्व का प्रथम मुस्लिम भारतवेताहै। (भारत के बारे में गहन जानकारी प्रदान करने वाला)

इसे मुन्नजिम की उपाधि मिली थी। मुन्नजिम का अर्थ है-  खगोलविद एवं ज्योतिषविद। यह अनेक भाषाओं का ज्ञाता था जैसे अरबी, फारसी, सारानी, संस्कृत।

 किताब-उल-हिन्द में भारतीय समाज में व्याप्त व्यवस्था, ब्राह्मणों की सर्वोच्चता, जाति प्रथा, अछूतों की दयनीय स्थिति, महिलाओं की दयनीय स्थिति तथा सामाजिक परंपराओं का उल्लेख किया गया है।

अलबरूनी कहता है कि भारत के ब्राह्मण विद्वान हैं, लेकिन उनमें कूप – मंडूता है। उनका विदेशों से संपर्क नहीं है वे केवल अपने क्षेत्र, अपने धर्म, अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ बताते हैं।

अलबरूनी ने भारतीय परिस्थितियों एवं संस्कृतियों को जानने के लिये ब्रह्मगुप्त के ब्रह्म-सिद्धांत, वराहमिहिर की वृहत्संहिता, कपिल के सांख्य तथा पतंजलि के योग आदि रचनाओं का उल्लेख किया है तथा जगह-जगह भगवत गीता, विष्णु पुराण व वायु पुराण को उद्धृत किया है। पुराणों का अध्ययन करने वाला अलबरूनी प्रथम मुस्लमान था।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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अलबरूनी किसका दरबारी था?

(A) अहमदशाह अब्दाली
(B) महमूद गजनवी
(C) बैरम ख़ाँ
(D) इब्राहिम लोदी

Explanation : अलबरूनी महमूद गजनवी का दरबारी था। उसका जन्म 973 ई. में खीवा प्रदेश में हुआ था। अलबरूनी महमूद के दरबार का रत्न था वह एक सुप्रसिद्ध दार्शनिक, गणितज्ञ और इतिहासकार था। उसका असली नाम अबू रेहान मुहम्मद बिन अहमद था। वह महमूद गजनवी के सम्पर्क में तब आया जब महमूद ने खीवा पर आक्रमण किया और अबू रेहान को बंदी बनाकर उसके समक्ष लाया गया। अबू रेहान महमूद गजनवरी के साथ भारत आया और वर्षों भारत में रहा। भारतीय सभ्यता ने उसको आकर्षित किया। उसने संस्कृत भाषा सीखी और भारतीय दर्शन का अध्ययन किया। उसने भारत के एक बड़े भाग का भ्रमण किया और तत्कालीन भारतीय सामाजिक और आर्थिक स्थिति का अध्ययन किया और इसका पूरा विवरण अपनी पुस्तक तहकीक-ए-हिन्द में दिया। यह पुस्तक तत्कालीन ग्यारहवीं शताब्दी के भारत की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति का सही चित्रण करती है। ....अगला सवाल पढ़े

Tags : पानीपत का तीसरा युद्ध मध्यकालीन इतिहास

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महिलाओं और पुरुषों ने कार्य की तलाश में प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिए व्यापारियों सैनिकों पुरोहितों और तीर्थयात्रियों के रूप में या फिर साहस की भावना से प्रेरित होकर यात्राएँ की हैं। वे जो किसी नए स्थान पर आते हैं अथवा बस जाते हैं निश्चित रूप से एक ऐसी दुनिया को समक्ष पाते हैं जो भूदृश्य या भौतिक परिवेश के संदर्भ में और साथ ही लोगों की प्रथाओं भाषाओं आस्था तथा व्यवहार में भिन्न होती है। इनमें से कुछ इन भिन्नताओं के अनुरूप ढल जाते हैं और अन्य जो कुछ हद तक विशिष्ट होते हैं इन्हें ध्यानपूर्वक अपने वृत्तांतों में लिख लेते हैं जिनमें असामान्य तथा उल्लेखनीय बातों को अधिक महत्व दिया जाता है।

दुर्भाग्य से हमारे पास महिलाओं द्वारा छोड़े गए वृत्तांत लगभग न के बराबर हैं हालाँकि हम यह जानते हैं कि वे भी यात्राएँ करती थीं। सुरक्षित मिले वृत्तांत अपनी विषयवस्तु के संदर्भ में अलग-अलग प्रकार के होते हैं। कुछ दरबार की गतिविधियों से संबंधित होते हैं जबकि अन्य धार्मिक विषयों या स्थापत्य के तत्वों और स्मारकों पर केंद्रित होते हैं। उदाहरण के लिए पंद्रहवीं शताब्दी में विजयनगर शहर के सबसे महत्वपूर्ण विवरणों में से एक हेरात से आए एक राजनयिक अब्दुर रज्जाक समरकंदी से प्राप्त होता है। कई बार यात्री सुदूर क्षेत्रों में नहीं जाते हैं। उदाहरण के लिए मुगल साम्राज्य  में प्रशासनिक अधिकारी कभी-कभी साम्राज्य के भीतर ही भ्रमण करते थे और अपनी टिप्पणियाँ दर्ज करते थे। इनमें से कुछ अपने ही देश की लोकप्रिय प्रथाओं तथा जन-वार्ताओं और परंपराओं को समझना चाहते थे।

हम यह देखेंगे कि उपमहाद्वीप में आए यात्रियों द्वारा दिए गए सामाजिक जीवन के विवरणों के अधययन से किस प्रकार हम अपने अतीत के विषय में ज्ञान बढ़ा सकते हैं। इसके लिए हम तीन व्यक्तियों के वृत्तांतों पर ध्यान देंगे: अल-बिरूनी जो ग्यारहवीं शताब्दी में उज्बेकिस्तान आया था इब्नबतूता ;चौदहवीं शताब्दी मोरक्को से तथा फांसीसी यात्री फांस्वा बर्नियर ;सत्रहवीं शताब्दी।

1- अल-बिरूनी तथा किताब-उल-हिन्द

1-1 ख्व़ारिज्म से पंजाब तक

अल-बिरूनी का जन्म आधुनिक उज्बेकिस्तान में स्थित ख्व़ारिज्म में सन्‌ 973 में हुआ था। ख्व़ारिज्म शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र था और अल-बिरूनी ने उस समय उपलब्ध सबसे अच्छी शिक्षा प्राप्त की थी। वह कई भाषाओं का ज्ञाता था जिनमें सीरियाई फारसी हिब्रू तथा संस्कृत शामिल हैं। हालाँकि वह यूनानी भाषा का जानकार नहीं था पर फिर भी वह प्लेटो तथा अन्य यूनानी दार्शनिकों के कार्यों से पूरी तरह परिचित था जिन्हें उसने अरबी अनुवादों के माध्यम से पढ़ा था। सन्‌ 1017 ई- में ख्व़ारिज्म पर आक्रमण के पश्चात सुल्तान महमूद यहाँ के कई विद्वानों तथा कवियों को अपने साथ अपनी राजधानी गजनी ले गया। अल-बिरूनी भी उनमें से एक था। वह बंधक के रूप में ग्ज़ानी आया था पर धीरे-धीरे उसे यह शहर पसंद आने लगा और सत्तर वर्ष की आयु में अपनी मृत्यु तक उसने अपना बाकी जीवन यहीं बिताया। ग़जनी में ही अल-बिरूनी की भारत के प्रति रुचि विकसित हुई। यह कोई असामान्य बात नहीं थी। आठवीं शताब्दी से ही संस्कृत में रचित खगोल विज्ञान गणित और चिकित्सा संबंधी कार्यों का अरबी भाषा में अनुवाद होने लगा था। पंजाब के ग़जनवी साम्राज्य का हिस्सा बन जाने के बाद स्थानीय लोगों से हुए संपर्कों ने आपसी विश्वास और समझ का वातावरण बनाने में मदद की। अल-बिरूनी ने ब्राह्मण पुरोहितों तथा विद्वानों के साथ कई वर्ष बिताए और संस्कृत धर्म तथा दर्शन का ज्ञान प्राप्त किया। हालाँकि उसका यात्रा-कार्यक्रम स्पष्ट नहीं है फिर भी प्रतीत होता है कि उसने पंजाब और उत्तर भारत के कई हिस्सों की यात्रा की थी। उसके लिखने के समय यात्रा वृत्तांत अरबी साहित्य का एक मान्य हिस्सा बन चुके थे। ये वृत्तांत पश्चिम में सहारा रेगिस्तान से लेकर उत्तर में वोल्गा नदी तक फैले क्षेत्रों से संबंधित थे। इसलिए हालाँकि 1500 ई- से पहले भारत में अल-बिरूनी को कुछ ही लोगों ने पढ़ा होगा भारत से बाहर कई अन्य लोग संभवत: ऐसा कर चुके हैं।

1-2 किताब-उल-हिन्द

अरबी में लिखी गई अल-बिरूनी की कृति ‘किताब-उल-हिन्द’ की भाषा सरल और स्पष्ट है। यह एक विस्तृत ग्रंथ है जो धर्म और दर्शनत्योहारों खगोल-विज्ञान कीमिया रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं सामाजिक जीवन भार-तौल तथा मापन विधियों मूर्तिकला कानून मापतंत्र विज्ञान आदि विषयों के आधार पर अस्सी अधयायों में विभाजित है। सामान्यत: ;हालाँकि हमेशा नहीं अल-बिरूनी ने प्रत्येक अधयाय में एक विशिष्ट शैली का प्रयोग किया जिसमें आरंभ में एक प्रश्न होता था फिर संस्कृतवादी परंपराओं पर आधारित वर्णन और अंत में अन्य संस्कृतियों के साथ एक तुलना। आज के कुछ विद्वानों का तर्क है कि इस लगभग ज्यामितीय संरचना जो अपनी स्पष्टता तथा पूर्वानुमेयता के लिए उल्लेखनीय है का एक मुख्य कारण अल-बिरूनी का गणित की ओर झुकाव था। अल-बिरूनी जिसने लेखन में भी अरबी भाषा का प्रयोग किया था ने संभवत: अपनी कृतियाँ उपमहाद्वीप के सीमांत क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए लिखी थीं।

वह संस्कृत पाली तथा प्राकृत ग्रंथों के अरबी भाषा में अनुवादों तथा रूपांतरणों से परिचित था-इनमें दंतकथाओं से लेकर खगोल-विज्ञान और चिकित्सा संबंधी कृतियाँ सभी शामिल थीं। पर साथ ही इन ग्रंथों की लेखन-सामग्री शैली के विषय में उसका दृष्टिकोण आलोचनात्मक था और निश्चित रूप से वह उनमें सुधार करना चाहता था।

2- इब्नबतूता का रिह्‌ला

2-1 एक आरंभिक विश्व-यात्री

इब्नबतूता द्वारा अरबी भाषा में लिखा गया उसका यात्रा वृत्तांत जिसे रिह्‌ला कहा जाता है चौदहवीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के विषय में बहुत ही प्रचुर तथा रोचक जानकारियाँ देता है। मोरक्को के इस यात्री का जन्म तैंजियर के सबसे सम्मानित तथा शिक्षित परिवारों में से एक जो इस्लामी कानून अथवा शरियत पर अपनी विशेषज्ञता के लिए प्रसिद्ध था में हुआ था। अपने परिवार की परंपरा के अनुसार इब्नबतूता ने कम उम्र में ही साहित्यिक तथा शास्त्ररूढ़ शिक्षा हासिल की। अपनी श्रेणी के अन्य सदस्यों के विपरीत इब्नबतूता पुस्तकों के स्थान पर यात्राओं से अर्जित अनुभव को ज्ञान का अधिक महत्वपूर्ण स्रोत मानता था। उसे यात्राएँ करने का बहुत शौक था और वह नए-नए देशों और लोगों के विषय में जानने के लिए दूर-दूर के क्षेत्रों तक गया। 1332-33 में भारत के लिए प्रस्थान करने से पहले वह मक्का की तीर्थ यात्राएँ और सीरिया इराक फारस यमन ओमान तथा पूर्वी आफ्रीका के कई तटीय व्यापारिक बंदरगाहों की यात्राएँ कर चुका था। मध्य एशिया के रास्ते होकर इब्नबतूता सन्‌ 1333 में स्थलमार्ग से सिधं पहुचँा। उसने दिल्ली के सुल्तान महुम्मद बिन तुगलक केे बारे में सुना था और कला और साहित्य के एक दयाशील संरक्षक के रूप में उसकी ख्याति से आकर्षित हो बतूता ने मुल्तान और उच्छ के रास्ते होकर दिल्ली की ओर प्रस्थान किया।

सुल्तान उसकी विद्वता से प्रभावित हुआ आरै उसे दिल्ली का  फाजी या न्यायाधीश नियुक्त किया। वह इस पद पर कई वर्षों तक रहा पर फिर उसने विश्वास खो दिया और उसे कारागार में केद कर दिया गया। बाद में सुल्तान और उसके बीच की गलतफहमी दूर होने के बाद उसे राजकीय सेवा में पुनर्स्थापित किया गया और 1342 ई- में मंगोल शासक के पास सुल्तान के दूत के रूप में चीन जाने का आदेश दिया गया। अपनी नयी नियुक्ति के साथ इब्न बतूता मध्य भारत के रास्ते मालाबार तट की ओर बढ़ा। मालाबार से वह मालद्वीप गया जहाँ वह अठारह महीनों तक व्फ़ााजी के पद पर रहा पर अंतत: उसने श्रीलंका जाने का निश्चय किया। बाद में एक बार फिर वह मालाबार तट तथा मालद्वीप गया और चीन जाने के अपने कार्य को दोबारा शुरू करने से पहले वह बंगाल तथा असम भी गया। वह जहाज से सुमात्रा गया और सुमात्रा से एक अन्य जहाज से चीनी बंदरगाह नगर जायतुन ;जो आज क्वानझू के नाम से जाना जाता है गया। उसने व्यापक रूप से चीन में यात्रा की और वह बीजिंग तक गया लेकिन वहाँ लंबे समय तक नहीं ठहरा। 1347 में उसने वापस अपने घर जाने का निश्चय किया। चीन के विषय में उसके वृत्तांत की तुलना मार्कोपोलो जिसने तेरहवीं शताब्दी के अंत में वेनिस से चलकर चीन ;और भारत की भी की यात्रा की थी के वृत्तांत से की जाती है।

इब्न बतूता ने नवीन संस्कृतियों लोगों आस्थाओं मान्यताओं आदि के विषय में अपने अभिमत को सावधानी तथा कुशलतापूर्वक दर्ज किया। हमें यह ध्यान में रखना होगा कि यह विश्व-यात्री चौदहवीं शताब्दी में यात्राएँ कर रहा था जब आज की तुलना में यात्रा करना अधिक कठिन तथा जोखिम भरा कार्य था। इब्न बतूता के अनुसार उसे मुल्तान से दिल्ली की यात्रा में चालीस और सिंध से दिल्ली की यात्रा में लगभग पचास दिन का समय लगा था। दौलताबाद से दिल्ली की दूरी चालीस जबकि ग्वालियर से दिल्ली की दूरी दस दिन में तय की जा सकती थी। यात्रा करना अधिक असुरक्षित भी था इब्न बतूता ने कई बार डाकुओं के समूहों द्वारा किए गए आक्रमण झेले थे। यहाँ तक कि वह अपने साथियों के साथ कारवाँ में चलना पसंद करता था पर इससे भी राजमार्गों के लुटेरों को रोका नहीं जा सका। मुल्तान से दिल्ली की यात्रा के दौरान उसके कारवाँ पर आक्रमण हुआ और उसके कई साथी यात्रियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा: जो जीवित बचे जिनमें इब्नबतूता भी शामिल था बुरी तरह से घायल हो गए थे।

2-2 जिज्ञासाओं का उपभोग

जैसाकि हमने देखा है कि इब्न बतूता एक हठीला यात्री था जिसने उत्तर पश्चिमी अफ़्रीका  में अपने निवास स्थान मोरक्को वापस जाने से पूर्व कई वर्ष उत्तरी अ़फीका पश्चिम एशिया मध्य एशिया के कुछ भाग हो सकता है वह रूस भी गया हो भारतीय उपमहाद्वीप तथा चीन की यात्रा की थी। जब वह वापस आया तो स्थानीय शासक ने निर्देश दिए कि उसकी कहानियों को दर्ज किया जाए।

3- फांस्वा बर्नियर : एक विशिष्ट चिकित्सक

लगभग 1500 ई- में भारत में पुर्तगालियों के आगमन के पश्चात उनमें से कई लोगों ने भारतीय सामाजिक रीति-रिवाजों तथा धार्मिक प्रथाओं के विषय में विस्तृत वृत्तांत लिखे। उनमें से कुछ चुनिंदा लोगों जैसे जेसुइट रॉबर्टो नोबिली ने तो भारतीय ग्रंथों को यूरोपीय भाषाओं में अनुवादित भी किया। सबसे प्रसिद्ध यूरोपीय लेखकों में एक नाम दुआर्ते बरबोसा का है जिसने दक्षिण भारत में व्यापार और समाज का एक विस्तृत विवरण लिखा। कालान्तर में 1600 ई- के बाद भारत में आने वाले डच अंग्रेज तथा फ़्रांसीसी यात्रियों की संख्या बढ़ने लगी थी। इनमें एक प्रसिद्ध नाम फ़्रांसीसी जौहरी ज्यौं-बैप्टिस्ट तैवर्नियर का था जिसने कम से कम छह बार भारत की यात्रा की। वह विशेष रूप से भारत की व्यापारिक स्थितियों से बहुत प्रभावित था और उसने भारत की तुलना ईरान और ऑटोमन साम्राज्य से की। इनमें से कई यात्री जैसे इतालवी चिकित्सक मनूकी कभी भी यूरोप वापस नहीं गए और भारत में ही बस गए। फ़्रांस का रहने वाला फ़्रांस्वा बर्नियर एक चिकित्सक राजनीतिक दार्शनिक तथा एक इतिहासकार था। कई और लोगों की तरह ही वह मुगल साम्राज्य में अवसरों की तलाश में आया था। वह 1656 से 1668 तक भारत में बारह वर्ष तक रहा और मुगल दरबार से नजदीकी रूप से जुड़ा रहा-पहले सम्राट शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र दारा शिकोह के चिकित्सक के रूप में और बाद में मुगल दरबार के एक आर्मीनियाई अमीर दानिशमंद ख्ना के साथ एक बुद्धिजीवी तथा वैज्ञानिक के रूप में।

3-1 पूर्व और पश्चिम की तुलना

बर्नियर ने देश के कई भागों की यात्रा की और जो देखा उसके विषय में विवरण लिखे। वह सामान्यत: भारत में जो देखता था उसकी तुलना यूरोपीय स्थिति से करता था। उसने अपनी प्रमुख कृति को फ़्रांस के शासक लुई षप्ट को समर्पित किया था और उसके कई अन्य कार्य प्रभावशाली आधिकारियों और मंत्रियों को पत्रों के रूप में लिखे गए थे। लगभग प्रत्येक दृष्टांत में बर्नियर ने भारत की स्थिति को यूरोप में हुए विकास की तुलना में दयनीय बताया। जैसाकि हम देखेंगे उसका आकलन हमेशा सटीक नहीं था फिर भी जब उसके कार्य प्रकाशित हुए तो बर्नियर के वृत्तांत अत्यधिक प्रसिद्ध हुए। बर्नियर के कार्य फ़्रांस में 1670-71 में प्रकाशित हुए थे और अगले पाँच वर्षों के भीतर ही अंग्रेजी डच जर्मन तथा इतालवी भाषाओं में इनका अनुवाद हो गया। 1670 और 1725 के बीच उसका वृत्तंात फ़्रांसीसी में आठ बार पुनर्मुद्रित हो चुका था और 1684 तक यह तीन बार अंग्रेजी में पुनर्मुद्रित हुआ था। यह अरबी और फ़ारसी वृत्तांतों जिनका प्रसार हस्तलिपियों के रूप में होता था और जो 1800 से पहले सामान्यत: प्रकाशित नहीं होते थे के पूरी तरह विपरीत था।

4- एक अपरिचित संसार की समझ : अल-बिरूनी तथा संस्कृतवादी परंपरा

4-1 समझने में बाधाएँ और उन पर विजय

जैसा कि हमने देखा है यात्रियों ने उपमहाद्वीप में जो भी देखा,सामान्यत: उसकी तुलना उन्होंने उन प्रथाओं से की जिनसे वे परिचित थे। प्रत्येक यात्री ने जो देखा उसे समझने के लिए एक अलग विधि अपनाई। उदाहरण के लिए अल-बिरूनी अपने लिए निर्धार्रित उद्देश्य में निहित समस्याओं से परिचित था। उसने कई अवरोधो की चर्चा की है जो उसके अनुसार समझ में बाधक थे। इनमें से पहला अवरोध भाषा थी। उसके अनुसार संस्कृत अरबी और फारसी से इतनी भिन्न थी कि विचारों और सिद्धांतों को एक भाषा से दूसरी में अनुवादित करना आसान नहीं था। उसके द्वारा वर्णित दूसरा अवरोध धार्मिक अवस्था और प्रथा में भिन्नता थी। उसके अनुसार तीसरा अवरोध अभिमान था। यहाँ रोचक बात यह है कि इन समस्याओं की जानकारी होने पर भी अल-बिरूनी लगभग पूरी तरह से ब्राह्मणों द्वारा रचित कृतियों पर आश्रित रहा। उसने भारतीय समाज को समझने के लिए अकसर वेदों पुराणों भगवद्गीता पतंजलि की कॄतियों तथा मनुस्मृति आदि से अंश उद्धृत किए।

4-2 अल-बिरूनी का जाति व्यवस्था का विवरण

अल-बिरूनी ने अन्य समुदायों में प्रतिरूपों की खोज के माध्यम से जाति व्यवस्था को समझने और व्याख्या करने का प्रयास किया। उसने लिखा कि प्राचीन फारस में चार सामाजिक वर्गों को मान्यता थी: घुड़सवार और शासक वर्ग भिक्षु आनुष्ठानिक पुरोहित तथा चिकित्सक खगोल शास्त्री तथा अन्य वैज्ञानिक और अंत में कृषक तथा शिल्पकार। दूसरे शब्दों में वह यह दिखाना चाहता था कि ये सामाजिक वर्ग केवल भारत तक ही सीमित नहीं थे। इसके साथ ही उसने यह दर्शाया कि इस्लाम में सभी लोगों को समान माना जाता था और उनमें भिन्नताएँ केवल धार्मिकता के पालन में थीं। जाति व्यवस्था के संबंध में ब्राह्मणवादी व्याख्या को मानने के बावजूद अल-बिरूनी ने अपवित्रता की मान्यता को अस्वीकार किया। उसने लिखा कि हर वह वस्तु जो अपवित्र हो जाती है अपनी पवित्रता की मूल स्थिति को पुन: प्राप्त करने का प्रयास करती है और सफल होती है। सूर्य हवा को स्वच्छ करता है और समुद्र में नमक पानी को नहीं होता तो पृथ्वी पर जीवन असंभव होता।

उसके अनुसार जाति व्यवस्था में सन्निहित अपवित्रता की अवधारणा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध थी। जैसाकि हमने देखा है जाति व्यवस्था के विषय में अल-बिरूनी का विवरण उसके नियामक संस्कृत ग्रंथों के अधययन से पूरी तरह से गहनता से प्रभावित था। इन ग्रंथों में ब्राह्मणों के दृष्टिकोण से जाति व्यवस्था को संचालित करने वाले नियमों का प्रतिपादन किया गया था। लेकिन वास्तविक जीवन में यह व्यवस्था इतनी भी कड़ी नहीं थी। उदाहरण के लिए अंत्यज ;शाब्दिक रूप में व्यवस्था से परेद्ध नामक श्रेणियों से सामान्यतया यह अपेक्षा की जाती थी कि वे किसानों और जमींदारों के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध करें। दूसरे शब्दों में हालाँकि ये अक्सर सामाजिक प्रताड़ना का शिकार होते थे फिर भी इन्हें आर्र्थिक तंत्र में शामिल किया जाता था।

5- इब्न बतूता तथा अनजाने को जानने की उत्कंठा

जब चौदहवीं शताब्दी में इब्न बतूता दिल्ली आया था उस समय तक पूरा उपमहाद्वीप एक ऐसे वैश्विक संचार तंत्र का हिस्सा बन चुका था जो पूर्व में चीन से लेकर पश्चिम में उत्तर-पश्चिमी अफ़्रीका तथा यूरोप तक फैला हुआ था। जैसाकि हमने देखा है इब्नबतूता ने स्वयं इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर यात्राएँ की पवित्र पूजास्थलों को देखा विद्वान लोगों तथा शासकों के साथ समय बिताया कई बार काजी के पद पर रहा तथा शहरी केन्द्रों की विश्ववादी संस्कृति का उपभोग किया जहाँ अरबी फारसी तुर्की तथा अन्य भाषाएँ बोलने वाले लोग विचारों सूचनाओं तथा उपाख्यानों का आदान-प्रदान करते थे। इनमें अपनी धर्मनिष्ठता के लिए प्रसिद्ध लोगों की ऐसे राजाओं जो निर्दयी तथा दयावान दोनों हो सकते थे की तथा समान्य पुरुषों और महिलाओं तथा उनके जीवन की कहानियाँ सम्मिलित थीं जो भी कुछ अपरिचित था उसे विशेष रूप से रेखांकित किया जाता था। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता था कि श्रोता अथवा पाठक सुदूर पर सुगम्य देशों के वृत्तांतों से पूरी तरह प्रभावित हो सकें।

5-1 नारियल तथा पान

इब्नबतूता की चित्रण की विजयों के कुछ बेहतरीन उदाहरण उन तरीकों में मिलते हैं जिनसे वह नारियल और पान दो ऐसी वानस्पतिक उपज जिनसे उसके पाठक पूरी तरह से अपरिचित थे का वर्णन करता है।

5-2 इब्नबतूता और भारतीय शहर

इब्नबतूता ने उपमहाद्वीप के शहरों को उन लोगों के लिए व्यापक अवसरों से भरपूर पाया जिनके पास आवश्यक इच्छा साधन तथा कौशल था। ये शहर घनी आबादी वाले तथा समृद्ध थे सिवाय कभी-कभी युद्धों तथा अभियानों से होने वाले विधवंस के। इब्नबतूता के वृत्तांत से ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकांश शहरों में भीड़-भाड़ वाली सड़कें तथा चमक-दमक वाले और रंगीन बाजार थे जो विविध प्रकार की वस्तुओं से भरे रहते थे। इब्नबतूता दिल्ली को एक बड़ा शहर विशाल आबादी वाला तथा भारत में सबसे बड़ा बताता है। दौलताबाद ;महाराष्ट्र में भी कम नहीं था और आकार में दिल्ली को चुनौती देता था। बाजार मात्र आर्थिक विनिमय के स्थान ही नहीं थे बल्कि ये सामाजिक तथा आथिक गतिविधयों के केंद्र भी थे। अधिकांश बाजारों में एक मस्जिद तथा एक मं दिर होता था और उनमें से कम से कम कुछ में तो नर्तकों संगीतकारों तथा गायकों के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए स्थान भी चिन्हित थे।

हालाँकि इब्नबतूता की शहरों की समृद्धि का वर्णन करने में अधिक रुचि नहीं थी इतिहासकारों ने उसके वृत्तांत का प्रयोग यह तर्क देने में किया है कि शहर अपनी सम्पत्ति का एक बड़ा भाग गाँवों से अधिशेष के अधिग्रहण से प्राप्त करते थे। इब्नबतूता ने पाया कि भारतीय कृषि के इतना अधिक उत्पादनकारी होने का कारण मिट्टी का उपजाऊ…पन था जो किसानों के लिए वर्ष में दो फसलें उगाना संभव करता था। उसने यह भी ध्यान दिया कि उपमहाद्धीप व्यापार तथा वाणिज्य के अंतर एशियाई तंत्रों से भली-भाँति जुड़ा हुआ था। भारतीय माल की मध्य तथा दक्षिण-पूर्व एशिया दोनों में बहुत माँग थी जिससे शिल्पकारों तथा व्यापारियों को भारी मुनाफ़ा होता था। भारतीय कपड़ों विशेषरूप से सूती कपड़ा महीन मलमल रेशम जरी तथा साटन की अत्यधिक माँग थी। इब्न बतूता हमें बताता है कि महीन मलमल की कई किस्में इतनी अधिक मँहगी थीं कि उन्हें अमीर वर्ग के तथा बहुत धनाढ्‌य लोग ही पहन सकते थे।

5-3- संचार की एक अनूठी प्रणाली

व्यापारियों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य विशेष उपाय करता था। लगभग सभी व्यापारिक मार्गों पर सराय तथा विश्राम गृह स्थापित किए गए थे। इब्न बतूता डाक प्रणाली की कार्यकुशलता देखकर चकित हुआ। इससे व्यापारियों के लिए न केवल लंबी दूरी तक सूचना भेजना और उधार प्रेषित करना संभव हुआ बल्कि अल्प सूचना पर माल भेजना भी। डाक प्रणाली इतनी कुशल थी कि जहाँ ंसंध से दिल्ली की यात्रा में पचास दिन लगते थे वहीं गुप्तचरों की खबरें सुलतान तक इस डाक व्यवस्था के माध्यम से मात्र पाँच दिनों में पहुँच जाती थीं।

6- बर्नियर तथा अविकसित पूर्व

जहाँ इब्न बतूता ने हर उस चीज का वर्णन करने का निश्चय किया जिसने उसे अपने अनूठेपन के कारण प्रभावित और उत्सुक किया वहीं बर्नियर  एक भिन्न बुद्धिजीवी परंपरा से संबंधित था। उसने भारत में जो भी देखा वह उसकी सामान्य रूप से यूरोप और विशेष रूप से फ़्रांस में व्याप्त स्थितियों से तुलना तथा भिन्नता को उजागर करने के प्रति अधिक चिंतित था विशेष रूप से वे स्थितियाँ जिन्हें उसने अवसादकारी पाया। उसका विचार नीति-निर्माताओं तथा बुद्धिजीवी वर्ग को प्रभावित करने का था ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे ऐसे निर्णय ले सकें जिन्हें वह ‘‘सही’’ मानता था। बर्नियर  के ग्रंथ टै्रवल्स इन द मुगल एम्पायर अपने गहन प्रेक्षण आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि तथा गहन ¯चतन के लिए उल्लेखनीय है। उसके वृत्तांत में की गई

चर्चाओं में मुगलो के इतिहास को एक प्रकार के वैश्विक ढाँचे में स्थापित करने का प्रयास किया गया है। वह निरंतर मुगलकालीन भारत की तुलना तत्कालीन यूरोप से करता रहा सामान्यतया यूरोप की श्रेष्ठता को रेखांकित करते हुए। उसका भारत का चित्रण द्वि-विपरीतता के नमूने पर आधारित है जहाँ भारत को यूरोप के प्रतिलोम के रूप में दिखाया गया है या फिर यूरोप का ‘‘विपरीत’’ जैसा कि कुछ इतिहासकार परिभाषित करते हैं। उसने जो भिन्नताएँ महसूस कीं उन्हें भी पदानुक्रम के अनुसार क्रमबद्ध किया जिससे भारत पश्चिमी दुनिया को निम्न कोटि का प्रतीत हो।

6-1 भूमि स्वामित्व का प्रश्न

बर्नियर  के अनुसार भारत और यूरोप के बीच मूल भिन्नताओं में से एक भारत में निजी भूस्वामित्व का अभाव था। उसका निजी स्वामित्व के गुणों में दृढ़ विश्वास था और उसने भूमि पर राजकीय स्वामित्व को राज्य तथा उसके निवासियों दोनों के लिए हानिकारक माना। उसे यह लगा कि मुगल साम्राज्य में सम्राट सारी भूमि का स्वामी था जो इसे अपने अमीरों के बीच बाँटता था और इसके अर्थव्यवस्था और समाज के लिए अनर्थकारी परिणाम होते थे। इस प्रकार का अवबोधन बर्नियर  तक ही सीमित नहीं था बल्कि सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी के अधिकांश यात्रियों के वृत्तांतों में मिलता है। राजकीय भूस्वामित्व के कारण बर्नियर  तर्क देता है भूधारक अपने बच्चों को भूमि नहीं दे सकते थे। इसलिए वे उत्पादन के स्तर को बनाए रखने और उसमें बढ़ोत्तरी के लिए दूरगामी निवेश के प्रति उदासीन थे।

इस प्रकार निजी भूस्वामित्व के अभाव ने ‘‘बेहतर’’ भूधारकों के वर्ग के उदय ;जैसा कि पश्चिमी यूरोप में को रोका जो भूमि के रखरखाव व बेहतरी के प्रति सजग रहते। इसी के चलते कृषि का समान रूप से विनाश किसानों का असीम उत्पीड़न तथा समाज के सभी वर्गों के जीवन स्तर में अनवरत पतन की स्थिति उत्पन्न हुई है सिवाय शासक वर्ग के। इसी के विस्तार के रूप में बर्नियर  भारतीय समाज को दरिद्र लोगों के समरूप जनसमूह से बना वर्णित करता है जो एक बहुत अमीर तथा शक्तिशाली शासक वर्ग जो अल्पसंख्यक होते हैं के द्वारा अधिन बनाया

जाता है। गरीबों में सबसे गरीब तथा अमीरों में सबसे अमीर व्यक्ति के बीच नाममात्र को भी कोई सामाजिक समूह या वर्ग नहीं था। बर्नियर  बहुत विश्वास से कहता है भारत में मध्य की स्थिति के लोग नहीं है। तो बर्नियर  ने मुगल साम्राज्य को इस रूप में देखा इसका राजा भिखारियों और क्रुर लोगों का राजा था इसके शहर और नगर विनष्ट तथा खराब हवा से दूषित थे और इसके खेत झाड़ीदार तथा घातक दलदल से भरे हुए थे और इसका मात्र एक ही कारण था राजकीय भूस्वामित्व। आश्चर्य की बात यह है कि एक भी सरकारी मुगल दस्तावेज यह इंगित नहीं करता कि राज्य ही भूमि का एकमात्र स्वामी था। उदाहरण के लिए सोलहवीं शताब्दी में अकबर के काल का सरकारी इतिहासकार अबुल  फजल भूम राजस्व को ‘राजत्व का पारिश्रमिक’ बताता है जो राजा द्वारा अपनी प्रजा को सुरक्षा प्रदान करने के बदले की गई माँग प्रतीत होती है न कि अपने स्वामित्व वाली भूमि पर लगान। ऐसा संभव है कि यूरोपीय यात्री ऐसी माँगों को लगान मानते थे क्योंकि भूमि राजस्व की माँग अकसर बहुत अधिक होती थी। लेकिन असल में यह न तो लगान था न ही भूमिकर बल्कि उपज पर लगने वाला कर था।

बर्नियर  के विवरणों ने अठारहवीं शताब्दी से पश्चिमी विचारकों को प्रभावित किया। उदाहरण के लिए फांसीसी दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू ने उसके वृत्तांत का प्रयोग प्राच्य निरंकुशवाद के सिद्धांत को विकसित करने में किया जिसके अनुसार एशिया ;प्राच्य अथवा पूर्व में शासक अपनी प्रजा के ई…पर निर्बाध प्रभुत्व का उपभोग करते थे जिसे दासता और गरीबी की स्थितियों में रखा जाता था। इस तर्क का आधार यह था कि सारी भूमि पर राजा का स्वामित्व होता था तथा निजी सम्पत्ति अस्तित्व में नहीं थी। इस दृष्टिकोण के अनुसार राजा और उसके अमीर वर्ग को छोड़ प्रत्येक व्यक्ति मुश्किल से गुजर-बसर कर पाता था। उन्नीसवीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स ने इस विचार को एशियाई उत्पादन शैली के सिद्धांत के रूप में और आगे बढ़ाया।

उसने यह तर्क दिया कि भारत ;तथा अन्य एशियाई देशों में उपनिवेशवाद से पहले अधििशेष का अधििग्रहण राज्य द्वारा होता था। इससे एक ऐसे समाज का उद्भव हुआ जो बड़ी संख्या में स्वायत्त तथा ;आंतरिक रूप सेद्ध समतावादी ग्रामीण समुदायों से बना था। इन ग्रामीण समुदायों पर राजकीय दरबार का नियंत्रण होता था और जब तक अधिशेष की आपूर्ति निर्विघ्न रूप से जारी रहती थी इनकी स्वायत्तता का सम्मान किया जाता था। यह एक निष्क्रय प्रणाली मानी जाती थी। परंतु  ग्रामीण समाज का यह चित्रण सच्चाई से बहुत दूर था। बल्कि सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में ग्रामीण समाज में चारित्रिक रूप से बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक विभेद था। एक ओर बड़े जमींदार थे जो भूमि पर उच्चाधिकारों का उपभोग करते थे और दूसरी ओर अस्पृश्य भूमिविहीन श्रमिक ;बलाहार। इन दोनों के बीच में बड़ा किसान था जो किराए के श्रम का प्रयोग करता था और माल उत्पादन में संलग्न रहता था साथ ही अपेक्षाकॄत छोटे किसान भी थे जो मुश्किल से ही निर्वहन लायक उत्पादन कर पाते थे।

6-3 एक अधिक जटिल सामाजिक सच्चाई

हालाँकि मुगल राज्य को निरंकुश रूप देने की तन्मयता स्पष्ट है लेकिन उसके विवरण कभी-कभी एक अधिक जटिल सामाजिक सच्चाई की ओर इशारा करते हैं। उदाहरण के लिए वह कहता है कि शिल्पकारों के पास अपने उत्पादों को बेहतर बनाने का कोई प्रोत्साहन नहीं था क्योंकि मुनाफे का अधिग्रहण राज्य द्वारा कर लिया जाता था। इसलिए उत्पादन हर जगह पतनोन्मुख था। साथ ही वह यह भी मानता है कि पूरे विश्व से बड़ी मात्रा में बहुमूल्य धातुएँ भारत में आती थीं क्योंकि उत्पादों का सोने और चाँदी के बदले निर्यात होता था। वह एक समृद्ध व्यापारिक समुदाय जो लंबी दूरी के विनिमय से संलग्न था के अस्तित्व को भी रेखांकित करता है। सत्रहवीं शताब्दी में जनसंख्या का लगभग पंद्रह प्रतिशत भाग नगरों में रहता था। यह औसतन उसी समय पश्चिमी यूरोप की नगरीय जनसंख्या के अनुपात से अधिक था। इतने पर भी बर्नियर मुगलकालीन शहरों को शिविर नगर कहता है जिससे उसका आशय उन नगरों से था जो अपने अस्तित्व और बने रहने के लिए राजकीय शिविर पर निर्भर थे। उसका विश्वास था कि ये राजकीय दरबार के आगमन के साथ अस्तित्व में आते थे और इसके कहीं और चले जाने के बाद तेजी से पतनोन्मुख हो जाते थे। उसने यह भी सुझाया कि इनकी सामाजिक और आर्थिक नीव व्यवहार्य नहीं होती थी और ये राजकीय प्रश्रय पर आश्रित रहते थे।

भूस्वामित्व के प्रश्न की तरह ही बर्नियर एक अतिसरलीकृत चित्रण प्रस्तुत कर रहा था। वास्तव में सभी प्रकार के नगर अस्तित्व में थे: उत्पादन केंद्र व्यापारिक नगर बंदरगाह नगर धार्मिक केंद्र तीर्थ स्थान आदि। इनका अस्तित्व समृद्ध व्यापारिक समुदायों तथा व्यवसायिक वर्गों के अस्तित्व का सूचक है। व्यापारी अक्सर मजबूत सामुदायिक अथवा बंधुत्व के संबंधों से जुड़े होते थे और अपनी जाति तथा व्यावसायिक संस्थाओं के माध्यम से संगठित रहते थे। पश्चिमी भारत में ऐसे समूहों को महाजन कहा जाता था और उनके मुखिया को सेठ। अहमदाबाद जैसे शहरी केंद्रों में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया द्वारा होता था जिसे नगर सेठ कहा जाता था। अन्य शहरी समूहों में व्यावसायिक वर्ग जैसे चिकित्सक ;हकीम अथवा वैद्य अधयापक ;पंडित या मुल्ला अधिवक्ता ;वकील चित्रकार वास्तुविद संगीतकार सुलेखक आदि सम्मिलित थे। जहाँ कई राजकीय प्रश्रय पर आश्रित थे कई अन्य संरक्षकों या भीड़भाड़  वाले बाजार में आम लोगों की सेवा द्वारा जीवनयापन करते थे।

7- महिलाएँ : दासियाँ सती तथा श्रमिक

जिन यात्रियों ने अपने लिखित वृत्तांत छोड़े वे सामान्यतया पुरुष थे जिन्हें उपमहाद्वीप में महिलाओं की स्थिति का विषय रुचिकर और कभी-कभी जिज्ञासापूर्ण लगता था। कभी-कभी वे सामाजिक पक्षपात को सामान्य परिस्थिति मान लेते थे। उदाहरण के लिए बाजारों में दास किसी भी अन्य वस्तु की तरह खुले आम बेचे जाते थे और नियमित रूप से भेंटस्वरूप दिए जाते थे। जब इब्नबतूता सिंध पहुँचा तो उसने सुल्तान मुहम्मद बिन तुग्ल़क के लिए भेंटस्वरूप घोड़े ऊँट तथा दास खरीदे। जब वह मुल्तान पहुँचा तो उसने गवर्नर को किशमिश के बादाम के साथ एक दास और घोड़ा भेंट के रूप में दिए। इब्नबतूता बताता है कि मुहम्मद बिन तुग्ल़ाक नसीरुद्दीन नामक धर्मोपदेशक के प्रवचन से इतना प्रसन्न हुआ कि उसे एक लाख टके ;मुद्रा तथा दो सौ दास दे दिए।

इब्नबतूता के विवरण से प्रतीत होता है कि दासों में काफी विभेद था। सुल्तान की सेवा में कार्यरत कुछ दासियाँ संगीत और गायन में निपुण थीं और इब्नबतूता सुल्तान की बहन की शादी के अवसर पर उनके प्रदर्शन से खूब आनंदित हुआ। सुल्तान अपने अमीरों पर नजर रखने के लिए दासियों को भी नियुक्त करता था। दासों को सामान्यत: घरेलू श्रम के लिए ही इस्तेमाल किया जाता था और इब्नबतूता ने इनकी सेवाओं को पालकी या डोले में पुरुषों और महिलाओं को ले जाने में विशेष रूप से अपरिहार्य पाया। दासों की कीमत विशेष रूप से उन दासियों की जिनकी आवश्यकता घरेलू श्रम के लिए थी बहुत कम होती थी और अधिकांश परिवार जो उन्हें रख पाने में समर्थ थे कम से कम एक या दो को तो रखते ही थे।

सभी समकालीन यूरोपीय यात्रियों तथा लेखकों के लिए महिलाओं से किया जाने वाला बर्ताव अकसर पश्चिमी तथा पूर्वी समाजों के बीच भिन्नता का एक महत्वपूर्ण संकेतक माना जाता था। इसलिए यह आश्चर्यजनक बात नहीं है कि बर्नियर ने सती प्रथा को विस्तृत विवरण के लिए चुना। उसने लिखा कि हालाँकि कुछ महिलाएँ प्रसन्नता से मृत्यु को गले लगा लेती थीं अन्य को मरने के लिए बाध्य किया जाता था। लेकिन महिलाओं का जीवन सती प्रथा के अलावा कई और चीजों के चारों ओर घूमता था। उनका श्रम कृषि तथा कृषि के अलावा होने वाले उत्पादन दोनों में महत्वपूर्ण था। व्यापारिक परिवारों से आने वाली महिलाएँ व्यापारिक गतिविधियों में हिस्सा लेती थीं यहाँ तक कि कभी-कभी वाणिज्यिक विवादों को अदालत के सामने भी ले जाती थीं। अत: यह असंभाव्य लगता है कि महिलाओं को उनके घरों के खास स्थानों तक परिसीमित कर रखा जाता था।

अलबरूनी द्वारा लिखी गई पुस्तक का नाम क्या है?

अल-बिरुनी ने किताब-उल-हिन्द की रचना की थी। अरबी में वर्णित यह पुस्तक एक विस्तृत ग्रंथ है,जिसमें धर्म,दर्शन,त्योहार,खगोलिक-विज्ञान,रीति-रिवाज़,प्रथाओं,सामाजिक-जीवन,कानून आदि विषयों पर विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है। यह ग्रंथ अस्सी अध्यायों में विभाजित है।

अलबरूनी किस शासक का दरबारी इतिहासकार था उस ने कौन सी किताब लिखी?

सुल्तान महमूद ग़ज़नवी के सामने अलबेरूनी को एक क़ैदी के रूप में ग़ज़नी लाया गया था। उसकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर महमूद ग़ज़नवी ने उसे अपने राज्य का 'राज ज्योतिष' नियुक्त कर दिया। अलबेरूनी ने 'किताब-उल-हिन्द' नामक पुस्तक की भी रचना की थी। अलबरूनी अरबी, फ़ारसी, तुर्की, संस्कृत, गणित, खगोल का प्रमुख जानकर था

अलबरूनी के विषय में आप क्या जानते हैं?

अलबरुनी का जन्म आधुनिक उज्बेकिस्तान में स्थित ख्व़ारिज्म में सन् 973 में हुआ था. वह फारस का एक प्रसिद्ध विद्वान था जोकि महमूद गज़नवी के भारत आक्रमण के दौरान उसके साथ आया था. वह पहला मुश्लिम लेखक था जिसने भारत की संस्कृति और परंपरा के बारे में व्यापक अध्ययन कार्य किया था.

प्रसिद्ध यात्री अलबरूनी कहाँ का निवासी था?

अल-बिरूनी का जन्म आधुनिक उज़्बेकिस्तान में स्थित ख़्वारिज्म में सन् 973 में हुआ था। ख़्वारिज्म शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था और अल-बिरूनी ने उस समय उपलब्ध सबसे अच्छी शिक्षा प्राप्त की थी। वह कई भाषाओं का ज्ञाता था जिनमें सीरियाई, फ़ारसी, हिब्रू तथा संस्कृत शामिल हैं।