. अंकेक्षण से आशय लेखो की सत्यता की जांच करना होता है, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि वे सही रूप से संबंधित सौदे के लिए किए गए है की नी । प्रो. प्रतीक चंदवानी लेखा परीक्षा, अंकेक्षण या ऑडिट (audit) का सबसे व्यापक अर्थ किसी व्यक्ति, संस्था, तन्त्र, प्रक्रिया, परियोजना या उत्पाद का मूल्यांकन करना है। लेखा परीक्षा यह सुनिश्चित करने के लिये की जाती है कि दी गयी सूचना वैध एवं विश्वसनीय है। इससे उस तन्त्र के आन्तरिक नियन्त्रण का भी मूल्यांकन प्राप्त होता
है। लेखा परीक्षा का उद्देश्य यह होता है कि लेखा परीक्षा के बाद व्यक्ति/संस्था/तन्त्र/प्रक्रिया के बारे में एक राय या विचार व्यक्त किया जाय। वित्तीय लेखा परीक्षा (financial audits) की स्थिति में वित्त सम्बन्धी कथनों (statements) को सत्य एवं त्रुटिरहित घोषित किया जाता है यदि उनमें गलत कथन न हों। परिचय[संपादित करें]प्राचीन काल में व्यापार बहुधा बहुत छोटे पैमाने पर होता था। अतः लेखों की महत्ता व आवश्यकता नहीं समझी गई। लेखा व्यवसाय के इतिहास में सन् 1494 का वर्ष क्रान्ति लेकर आया जब दोहरा लेखा प्रणाली का प्रादुर्भाव हुआ। लेखा व्यवसाय की उन्नति वास्तव में व्यापार के विकास के साथ-साथ हुई जब कम्पनी के रूप में व्यापार करने का कार्य प्रारम्भ हुआ। इसी के साथ ब्रिटिश कम्पनी अधिनियम में 1844 में अंकेक्षण को भी वैधानिक मान्यता मिली। प्रारम्भ में कम्पनी अपने सदस्यों में से किसी को भी अंकेक्षक नियुक्त कर सकती थी, बाद में योग्य व स्वतंत्र अंकेक्षक नियुक्त करने हेतु 11 मई 1880 को ब्रिटेन में चाटर्ड एकाउन्टेन्ट संस्थान की स्थापना हुई। लेखांकन का उद्देश्य तभी सफल होता हैं जबकि वे विश्वसनीय हों। लेखांकन विवरणों की विश्वसनीयता को अंकेक्षण सुनिश्चित करता हैं। आज के आर्थिक परिवेश में, सूचना व जवाबदेही की भूमिका पहले से भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर चुकी है। परिणामस्वरूप एक संस्था के वित्तीय विवरणों का निष्पक्ष अंकेक्षण, निवेशकों, लेनदारों व अन्य सहभागियों की एक महत्वपूर्ण सेवा है। अंकेक्षण का इतिहास व भारत में लेखा व्यवसाय का विकास[संपादित करें]हैरी इवान्स (Harry E॰ Evens) का मत है कि अंकेक्षण के संगठित रूप में विकास का सूत्रपात कम्पनी के प्रादुर्भाव के साथ हुआ है लेकिन जिस रूप में आज देखने को मिलता है पहले वह रूप नहीं था। अंकेक्षण का इतिहास एवं भारत में लेखा व्यवसाय का विकास निम्न भागों में विभक्त किया जा सकता है : (1) प्राचीन काल- अंकेक्षण शब्द, अॉडिट से बना है। यह शब्द लेटिन भाषा के 'अडायर' शब्द से लिया गया है जिसका सही अर्थ है सुनना। शुरू में अंकेक्षण सिर्फ सुनने से ही सम्बन्धित था। उन दिनों व्यक्ति अपने लेखे किसी न्यायाधीश को सुनाते थे जो कि सुनकर अपनी राय देता था कि लेखे सही हैं या नहीं। यह प्रथा यूनान, रोम इत्यादि के साम्राज्यों में प्रयोग की जाती थी जिसका प्रयोग सार्वजनिक संस्थाओं एवं राजकीय बही खातों की जाँच हेतु किया जाता था। (2) पन्द्रहवीं शताब्दी एवं इसके बाद- सन् 1494 में दोहरा लेखा प्रणाली के जन्म के बाद बड़े पैमाने पर उत्पादन करने के फलस्वरूप लेखांकन की उन्नति भी हुई। भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1882 की प्रथम अनुसुची तालिका 'ए’ के 83 से 94 तक के नियमों में कम्पनी अंकेक्षण से सम्बन्धित नियम दिये हुए थे। (3) भारतीय कम्पनी विधान 1913- भारत में भी सार्वजनिक कम्पनियों के लेखों का अंकेक्षण, भारतीय कम्पनी विधान, 1913 द्वारा अनिवार्य कर दिया गया। इससे पूर्व कम्पनियाँ अंकेक्षण सम्बन्धी प्रावधान अपने अन्तर्नियमों में कर लिया करती थीं। (4) गवर्नमेंट डिप्लोमा इन एकाउन्टेन्सी- प्रान्तीय सरकारों में सर्वप्रथम बम्बई सरकार ने सन् 1918 में लेखाशास्त्र तथा अंकेक्षण के क्षेत्र में डिप्लोमा देने की व्यवस्था की। इसके अन्तर्गत लेखा व्यवसाय में प्रवेश चाहने वाले व्यक्तियों के लिए एक योग्यता परीक्षा पास करना जरूरी था तथा किसी मान्यता प्राप्त लेखापालक के अधीन तीन वर्ष का प्रशिक्षण लेना अनिवार्य था। इस परीक्षा का नाम G॰D॰A॰ (Government Diploma in Accountancy) था। ऐसे व्यक्तियों को जो योग्यता परीक्षा पास कर लेते थे, भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में अंकेक्षक की तरह नियुक्त किया जा सकता था। भारत सरकार ने बम्बई के सिडनेमझ कालेज की बी॰ कॉम (लेखा एवं अंकेक्षण विषय सहित) परीक्षा को जी॰डी॰ए॰ के समकक्ष मानते हुए योग्यता परीक्षा घोषित कर दिया तथा शीघ्र ही समस्त भारत में इस डिप्लोमा को मान्यता प्राप्त हो गयी। (5) केन्द्रीय सरकार द्वारा बनाये गये नियम- सन् 1932 के बाद केन्द्रीय सरकार ने यह भार अपने ऊपर ले लिया। इसी वर्ष अंकेक्षक प्रमाण-पत्र नियम (Auditors’ Certificate Rules) बनाये गये और उनके नियमों के अनुसार रजिस्टर्ड एकाउटेंण्ट (R॰A॰ or Registered Accountant) की उपाधि प्रदान की जाने लगी। (6) भारतीय चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट्स संस्थान की स्थापना, 1949- श्री सी॰ सी॰ साई की अध्यक्षता में गठित समिति की सिफारिश पर अप्रेल 1949 में चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट एक्ट पास हुआ, जो 1 जुलाई 1949 में लागू किया गया तथा जिसके माध्यम से भारतीय चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट्स संस्थान की स्थापना हुई। इस संस्थान का सदस्य ही एक योग्यता प्राप्त अंकेक्षक कहलाता है जिसे चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट कहते हैं। इससे पूर्व प्रान्तीय सरकारों द्वारा दिये गये प्रमाण-पत्रों के आधार पर अभी भी अंकेक्षक हैं, उन्हें सर्टिफाइड ऑडिटर्स कहते हैं। (7) कॉस्ट एवं वर्क्स एकाउण्टेण्ट्स बिल 1958- सन् 1944 में भारत में 'दी इन्सटीट्यूट ऑफ कास्ट एण्ड वर्क्स एकाउण्टेण्ट्स' का एक 'गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी' के रूप में रजिस्ट्रेशन किया गया था क्योंकि भारत सरकार यह महसूस करती थी कि पश्चिमी देशों की भांति भारत में भी लागत लेखा के जानकार हों। भारत सरकार ने सन् 1958 में एक बिल पेश किया, उपर्युक्त बिल को 19 मई 1959 को राष्ट्रपति से स्वीकृति मिल गयी तथा इस प्रकार 'कॉस्ट एण्ड वर्क्स एकाउण्टेण्ट्स संस्थान की स्थापना एक स्वायत्त संस्थान के रूप में हुई। (8) कम्पनियों में लागत लेखा अंकेक्षण, 1965- कम्पनी (संशोधन) अधिनियम, 1965 द्वारा केन्द्रीय सरकार को यह अधिकार प्राप्त हो गया कि उद्योगों में लगी किसी भी कम्पनी को लागत अंकेक्षण कराना अनिवार्य कर सकती है तथा इसी अधिकार के अधीन केन्द्रीय सरकार ने 1 जनवरी 1969 से कुछ उद्योगों में लागत लेखों का अंकेक्षण अनिवार्य कर दिया है, जिसके पृथक से आदेश जारी होते हैं। (9) अन्तराष्ट्रीय लेखा आन्दोलन, 1973- एक अन्तराष्ट्रीय समन्वय समिति की स्थापना की गयी है। इस समिति की पहली बैठक डसेलडर्फ में 26 तथा 27 अप्रैल 1973 को हुई। इसमें ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, फ्रांस, नीदरलैण्ड, भारत, मेक्सिको, यू॰के॰, फिलीपाइन्स, जर्मनी और यू॰एस॰ए॰ के लेखांकन पेशे के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस समिति ने उस समय जापान को भी अपना सदस्य बनाना तय किया था। इस समिति के अधीन अन्तराष्ट्रीय लेखामानक समिति भी है जो कि संसार में लेखांकन के सम्बन्ध में मानकों का विकास करने के उद्देश्य से विभिन्न देशों की सरकारों से मानक लागू करवाने के लिए प्रयत्नशील हैं। (10) अन्तराष्ट्रीय अंकेक्षण प्रेक्टिस कमेटी 1979- अन्तराष्ट्रीय अंकेक्षण प्रेक्टिस कमेटी (जिसका भारत भी एक सदस्य है) ने सभी सदस्य देशों को अंकेक्षण मार्ग-दर्शिका निर्गमित की है। यह कमेटी एक अन्तराष्ट्रीय संगठन International Federation of Accountants (I॰F॰A॰C॰) का ही अंग है। मानक अंकेक्षण व्यवहार[संपादित करें]अन्तराष्ट्रीय अंकेक्षण व्यवहार[संपादित करें]वर्ष 1977 में इन्टरनेशनल फेडरेशन ऑफ एकाउन्टेन्टस की स्थापना इस उद्देश्य के साथ की गयी जिससे कि लेखांकन पेशा अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के साथ समन्वय स्थापित कर सके। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये अन्तर्राष्ट्रीय अंकेक्षण और आश्वासन मानक बोर्ड की स्थापना की गई। इस बोर्ड का मुख्य कार्य उच्च गुणवत्ता का ध्यान रखते हुये वर्तमान अंकेक्षण अभ्यासों का निर्गमन तथा विकास करना है, जो जनहित में हो तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य किये जा सकें। भारत में अंकेक्षण और आश्वासन मानक बोर्ड[संपादित करें]इन्सटीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट ऑफ इण्डिया, आई॰एफ॰ए॰सी॰ का सदस्य है और यह आई॰एफ॰ए॰सी॰ द्वारा जारी मार्गदर्शकों के कार्यान्वयन में कार्य करने के लिये वचनबद्ध है। जुलाई, 2002 में अंकेक्षण व्यवहार समिति को संस्थान की परिषद द्वारा 'अॉडिटिंग ऐण्ड एश्योरेंस स्टैण्डर्ड्स बोर्ड' में परिवर्तित किया जा चुका है ताकि यह अन्तर्राष्ट्रीय प्रवृत्ति के समकक्ष आ सके। विभिन्न हित वर्गों तथा समाज के विभिन्न प्रखण्डों के प्रतिनिधियों की भागीदारी द्वारा अॉडिटिंग ऐण्ड एश्योरेंस स्टैण्डर्ड्स बोर्ड अंकेक्षण के कामकाज में वांछनीय पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से एक महत्वपूर्ण कदम उठाया जा चुका है। स्टैण्डर्ड अॉडिटिंग प्रक्टिसेस (Standard Auditing practice / SAPs) का नाम भी बदलकर 'अॉडिटिंग ऐण्ड एश्योरेंस स्टैण्डर्ड' (Auditing and Assurance Standards / AAs) कर दिया गया है। अब तक 34 अंकेक्षण व आश्वासन मानक जारी किये जा चुके हैं। Dr.Arun Kumar Singh पुस्तपालन व लेखांकन[संपादित करें]कुछ विद्वानों के अनुसार 'लेखांकन' एक विस्तृत अर्थ में प्रयोग किया जाता हैं। इसके तीन अंग हो सकते है : (1) लेन-देनों के लिखने की प्रक्रिया अर्थात व्यापारिक भाग जिसे पुस्तपालन कहा जा सकता है। (2) रचनात्मक कार्य को प्रक्रिया अर्थात् सैद्धान्तिक भाग जिसे लेखांकन कहा जा सकता है। (3) आलोचनात्मक कार्य की प्रक्रिया अर्थात् विवेचनात्मक भाग जिसे अंकेक्षण कहा जा सकता है। पहले पुस्तपालन तथा लेखांकन के कार्यों में विशेष अन्तर नहीं माना जाता था। परन्तु आज के औद्योगिक युग में पुस्तपालन तथा लेखांकन दोनों पृथक कार्य हो गये हैं। साधारणतः अग्रलिखित कार्य पुस्तपालन, लेखांकन तथा अंकेक्षण तीनों के क्षेत्र में आ जाते हैं :
पुस्तपालन- जैसा कि उपर्युक्त बिन्दु (क) से स्पष्ट है, पुस्तपालन जर्नल तथा खाताबही में व्यापारिक सौदों के लेखे करने की कला है। हिसाब-किताब रखने की साधारण योग्यता वाला कोई भी व्यक्ति इस कार्य को सुविधा के साथ कर सकता है। यह कार्य यन्त्रवत् लिख देना मात्र है। लेखांकन- उपर्युक्त बिन्दु (ख) के अनुसार लेखापाल का कार्य पुस्तपालक के कार्य के बाद से प्रारम्भ होता है। इसी कारण यह कहा जाता है कि जहाँ से पुस्तपालन समाप्त होता है, वहीं से लेखांकन प्रारम्भ होता है। इसके क्षेत्र में शेष निकालने से लेकर अन्तिम खाते तैयार करने तथा आवश्यक भूल-सुधार एवं समायोजन करने के कार्य भी आ जाते है। संक्षेप में, कार्य सारांश तथा विश्लेषण करने की प्रक्रिया है। सारांश अर्थात तलपट और फिर इसके विश्लेषण अन्तिम खाते तैयार करके किया जाता है। लेखापाल एक सुशिक्षित व्यक्ति होता हैं जो पुस्तपालन के कार्य में भी चतुर होता है। उसका कार्य अन्तिम खाते बनाकर तर्कपूर्ण अध्ययन करना हैं। लेखापरीक्षा का अर्थ व परिभाषा[संपादित करें]विभिन्न लेखकों के अनुसार अंकेक्षण की परिभाषाएँ इस प्रकार है : 1. एफ॰ आर॰ एम॰ डी॰ पौला- अंकेक्षण का अर्थ चिट्ठा तथा लाभ-हानि खाते और उनसे सम्बन्धित पुस्तकों, खातों तथा प्रमाणकों की जाँच करने से है ताकि अंकेक्षक अपने आपको सन्तुष्ट कर सके और ईमानदारी से यह रिपोर्ट दे सके कि चिट्ठा नियमानुसार बनाया गया है और व्यापार की सही तथा ठीक स्थिति को प्रकट करता है जैसा कि सूचनाओं, स्पष्टीकरणों एवं पुस्तकों के आधार पर देखा गया है जो उसे मिली हैं। 2. मॉण्टगोमरी- अंकेक्षण एक संस्था की पुस्तकों तथा सौदा के लेखों की व्यवस्थित जाँच है जिससे अंकेक्षण व्यापार के आर्थिक व्यवहारों का सत्यापन कर सके और उनके परिणामों के सम्बन्ध मे अपनी रिपोर्ट दे सकें। 3. लारेन्स आर॰ डिक्सी- अंकेक्षण हिसाब-किताब के लेखों की जाँच है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि वे पूर्णतः एवं सही रूप से सम्बन्धित सौदों के लिए किये गये हैं। साथ ही यह भी निश्चित हो सके कि सभी सौदे अधिकृत रूप से किये गये हैं। ' 4. स्पाइसर एवं पैगलर- ' 'किसी व्यापारिक संस्था की कई पुस्तकों, खातों तथा प्रमाणकों की एक ऐसी जाँच को अंकेक्षण कहते हैं जिसके आधार पर अंकेक्षक यह सन्तोंषपूर्वक कह सके, कि उसको प्राप्त स्पष्टीकरण तथा सूचनाओं के आधार पर एवं जो पुस्तकों में प्रकट है उसके अनुसार, संस्था का चिट्ठा उसकी आर्थिक स्थिति' को और लाभ-हानि खाता संस्था के लाभ-हानि को सही व सत्य रूप में दिखाता है। यदि नहीं तो किन-किन बातों से वह असन्तुष्ट है और क्यों। ' 5. जॉसेफ लंकास्टर- जाँच, प्रमाणन व सत्यापन की ऐसी प्रक्रिया अंकेक्षण कहलाती है जिसके द्वारा चिट्ठे की शुद्धता का पता चलता है। इस प्रकार यह सुविधापूर्वक कहा जा सकता है कि अंकेक्षण प्रपत्रों, प्रमाणकों और हिसाब-किताब की पुस्तकों का एक अनुसन्धान है जिनसे पुस्तकें लिखी जाती है, जिससे अंकेक्षक चिट्ठे तथा अन्य विवरण-पत्रों के सम्बन्ध में जो इन पुस्तकों से बनाये गये हैं, अपनी रिपोर्ट उन व्यक्तियों को दे सके जिन्होंने उसको रिपोर्ट देने के लिए नियुक्त किया है। ' 6. आर्थर डब्ल्यू॰ होम्स- .'अंकेक्षण किसी सार्वजनिक या निजी संस्था के लेखों, प्रमाणकों, कानूनी प्रलेखों एवं अन्य विवरणों की एक वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित जाँच है जिसका 'उद्देश्य : (अ) लेखों की शुद्धता व सत्यता का पता लगाना,(व) एक निश्चित तिथि पर आर्थिक स्थिति उचित रीति से दिखाना व वस्तु-स्थिति को लेखांकन के सिद्धान्तों के आधार पर दिखाना और(स) इन विवरणों के सम्बन्ध में एक निपुण तथा निष्पक्ष मत प्रकट करना है। '7. रोनाल्ड ए॰ आइरिस- 'वर्तमान रूप में अंकेक्षण पुस्तकों, प्रमाणकों एवं अन्य आर्थिक व कानूनी लेखों की नियमित और वैज्ञानिक जाँच है, जिससे वास्तविकताओं का सम्पादन किया जा सके तथा लाभ-हानि खाते से प्रकट शुद्ध आय और चिट्ठे से प्रकट होने वाली आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में रिपोर्ट दी जा सके। ' 8. जे॰ आर॰ बाटलीबॉय- अंकेक्षण किसी व्यापार के हिसाब-किताब की पुस्तकों की ऐसी विशिष्ट एवं आलोचनात्मक जाँच है जो उन प्रपत्रों एवं प्रमाणकों की सहायता से की जाती है जिससे वे तैयार किये गये हैं। इस जाँच का उद्देश्य यह जानकारी करना होता है कि संस्था का एक निश्चित समय के लिए बनाया गया चिट्ठा तथा लाभ-हानि खाता उसकी ठीक तथा सही स्थिति को प्रकट करता है अथवा नहीं। ' 9. ए॰ डब्ल्यू॰ हैन्सन- सम्पूर्ण लेखों की ऐसी जाँच को अंकेक्षण कहते है जिनसे कि उन पर विश्वास किया जा सके तथा उनके द्वारा बताये हुए विवरणों पर भी विश्वास किया जा सकें। उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर निष्कर्ष रूप मे- अंकेक्षण किसी व्यापारिक संस्था की हिसाब-किताब की पुस्तकों की विशिष्ट एवं विवेचनात्मक जाँच है, जो एक योग्य तथा निष्पक्ष व्यक्ति द्वारा संस्था से प्राप्त प्रमाणकों, प्रपत्रों सूचनाओं तथा स्पष्टीकरणों की सहायता से की जाती है, जिससे कि अंकेक्षक एक निश्चित समय के लिए बनाये हुए हिसाब-किताब के सम्बन्ध में यह रिपोर्ट दे सके कि,
अंकेक्षण की विशेषताएँ[संपादित करें](1) संस्था- अंकेक्षण किसी भी संस्था (सरकारी, गैर-सरकारी, व्यापारिक तथा गैर-व्यापारिक) के हिसाब-किताब का किया जा सकता है। (2) स्वतन्त्र व्यक्ति- अंकेक्षण कार्य किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा होना चाहिए जिसका व्यापार अथवा संस्था से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध न हो। तभी निष्पक्ष जाँच संभव है। अत: वर्तमान में चार्टर्ड लेखापाल की नियुक्ति की गई हैं। (3) जाँच का स्वरूप- अंकेक्षण द्वारा की गयी जाँच सिर्फ गणित से सम्बन्धित शुद्धता को ही प्रकट नहीं करती बल्कि यह एक बुद्धिमत्तापूर्ण निष्पक्ष जाँच है जो हिसाब की पूर्ण शुद्धता दर्शाती है। (4) लेखा पुस्तकें- अंकेक्षण में लेखा-पुस्तकों की जाँच होती है। अंकेक्षक को अपना कार्यक्षेत्र सिर्फ पुस्तकों तक ही सीमित नहीं करना होता है बल्कि अन्य वैधानिक पुस्तकें तथा विभिन्न तथ्यों की जानकारी भी करनी होती हैं। (5) प्रमाणक एवं प्रपत्र- लेखा पुस्तकों की जाँच प्रमाणकों एवं प्रपत्रों के आधार पर की जाती है, यदि यह उपलब्ध न हों तो इनकी प्रतिलिपियों से पुष्टि की जाती हैं। (6) सूचना एवं स्पष्टीकरण- जाँच का आधार प्रमाणक ही होते हैं फिर भी अंकेक्षक यादें प्रमाणक से सन्तुष्ट नहीं है तो लेन-देनों का सत्यापन करने के लिए सूचनाएँ तथा स्पष्टीकरण माँग सकता है। (7) बुद्धिमत्तापूर्ण- अंकेक्षण द्वारा की जाने वाली जाँच का कार्य बहुत महत्वपूर्ण है अत: इस कार्य में बुद्धि एवं चतुराई की आवश्यकता होती है जो इस कार्य के अनुभव से प्राप्त होती है। (8) जाँच का उद्देश्य- लेखा-पुस्तकों की जाँच का उद्देश्य एक निश्चित अवधि में बनाये गये लाभ-हानि खाते के परिणामों को एवं एक निश्चित तिथि को चिट्ठे में दर्शाये गये सम्पत्ति एवं दायित्वों का सत्यापन करना है तथा सन्तुष्टि पर प्रमाण-पत्र देना होता है। वास्तव में अंकेक्षक को अन्तिम खातों की जाँच पर अपनी राय प्रकट करनी होती है। (9) नियमानुकूलता- भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत कम्पनी का चिट्ठा व लाभ-हानि खाता बनाते समय भी कुछ महत्वपूर्ण नियमों को ध्यान में रखना चाहिए। अत: कम्पनी अंकेक्षक को अपनी रिपोर्ट में लिखना होता है कि चिट्ठा नियमानुकूल है अथवा नहीं। (10) अवधि- अंकेक्षण साधारणतः एक वित्तीय वर्ष या एक लेखा वर्ष के लेखों का किया जाता है। यदि एक से अधिक वर्ष के लेखों का अंकेक्षण किया जाता है तो यह जाँच अनुसन्धान कहलाती है। (11) परिणाम- लेखों की जाँच के बाद इसकी सत्यता व औचित्य के विषय में रिपोर्ट देनी होती है। यदि अंकेक्षक किसी बात से असन्तुष्ट है तो इसका वर्णन स्पष्ट रूप से अपनी रिपोर्ट में करता है। लेखांकन व लेखापरीक्षा में अन्तर[संपादित करें]
लेखांकन एक अनिवार्यता है जबकि अंकेक्षण विलासिता है[संपादित करें]लेखांकन अनिवार्यता के रूप में व्यावहारिक रूप में लेखांकन का सम्बन्ध व्यवसाय को जीवित रखने के लिए तथा समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने हेतु अनिवार्य हैं। इसके लिए निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं : (1) आज के युग में किसी व्यवसाय से होने वाले लाभ अथवा हानि का सही-सही ज्ञान बिना लेखांकन के सम्मव नहीं है। व्यवसायी की आर्थिक स्थिति सुद्दढ़ व आर्थिक साधन बहुत अच्छे हों, तो भी अन्य व्यवसायी के मुकाबले सस्ती बेचने के फलस्वरूप बिक्री अधिक हो लेकिन सिर्फ दिवाला निकलने पर ही उसे पता चलेगा कि उसने वस्तु को लागत से भी कम में बेच दिया है। (2) व्यवसाय में लेन-देन अधिक होते हैं विशेषतः जहाँ उधार पर माल अधिक बेचा जाता है वहाँ देनदारों के नाम याद रखना सम्भव नहीं है अत: लेखांकन अनिवार्य हैं। (3) एक निश्चित अवधि की समाप्ति पर लाभ हुआ अथवा हानि। इसके लिए लेखांकन अनिवार्य है। (4) व्यावसायिक लेखा-पुस्तकें यदि सुचारू तरीके से रखी जायें तो चालूवर्ष की आय-व्यय या लाभ-हानि की तुलना पिछले वर्षों के लाभ-हानि से की जा सकती है। (5) लेखांकन के माध्यम से व्यापारी को अपनी वित्तीय स्थिति का ज्ञान हो जाता है। (6) कर-निर्धारण में लेखों का बहुत महत्व है। यदि लेखे नियमानुसार रखे हों तो यह बहुत ही सहायक सिद्ध होते हैं। (7) एक व्यापारी को किन-किन व्यक्तियों को कुल कितना रुपया देना है, यह सूचना लेखांकन से ही मिल सकती है। (8) अलाभप्रद क्रियाओं को छोड़कर लाभप्रद क्रियाएं प्रारम्भ करके अधिक लाभ कमाया जा सकता है तथा यदि कार्यक्षमता में कमी है तो उनके कारणों को जानकर उन्हें दूर किया जा सकता है। यह कार्य लेखाकर्म द्वारा ही सम्भव है। (9) किसी व्यवसाय में यदि उचित रूप से लेखा-पुस्तकें रखी जाती हैं तो उस व्यवसाय की प्रतिष्ठा बढ़ती है। लेखांकन के निम्नलिखित लाभ भी हैं : (i) ख्याति निर्धारण में सहायक- ख्याति का निर्धारण पिछलेवर्षों के लाभ-हानि के आधार पर किया जाता है, यह कार्य लेखांकन द्वारा ही सम्मव है।(ii) न्यायालय में प्रमाणक- न्यायालय में व्यापार सम्बन्धी विवादों पर लेखा पुस्तकें प्रमाणस्वरूप रखी जा सकती हैं।(iii) दिवालिया आदेश प्राप्ति हेतु- यदि व्यापारी अपनी आर्थिक स्थिति बिगड़ने के फलस्वरूप ऋण चुकाने में समर्थ नहीं है तो लेखों के आधार पर स्थिति विवरण व न्यूनता खाता बनाकर प्रस्तुत कर सकता है।(iv) लाइसेन्स प्राप्ति सुविधा- आयात-निर्यात व्यापार में लाइसेन्स उसी व्यापार को दिया जाता है जो लम्बे समय से चला आ रहा है। इसकी पुष्टि सिर्फ व्यापार की लेखा-पुस्तकों से की जा सकती है।(v) ऋण प्राप्ति की सुविधा- व्यापारी यदि वित्तीय संस्थाओं से ऋण प्राप्त करना चाहता है तो ऋणदाता ऋण देने से पूर्व संस्था की आर्थिक स्थिति से सन्तुष्ट होना चाहते है जो कि लेखा-पुस्तकों से ही सम्भव है।(vi) व्यापार बेचने में सहायक- व्यापार की आर्थिक स्थिति का आधार ही व्यापार का क्रय मूल्य होता है जो किसी भी व्यापार को बेचते समय आधार होता है। इस दृष्टि से लेखाकर्म जरूरी है।लेखाकर्म विलासिता के रूप में छोटे व्यापारियों के लिए इसे विलासिता माना गया है क्योंकि इनकी सीमित आवश्यकताएं होती हैं किन्तु वर्तमान समय में यह पूर्ण रूप से उचित प्रतीत नहीं होती है। अंकेक्षण विलासिता के रूप में
लगाना है फिर भी हिसाब-किताब में छल-कपट छिपे रह जाते है, जो अंकेक्षक उचित चतुराई व सावधानी के बावजूद नहीं पकड़ सकता हैं। अत: अंकेक्षण निरर्थक है।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि छोटे-छोटे व्यापार में अंकेक्षण विलासिता है लेकिन सभी व्यवसायों के लिए अंकेक्षण को विलासिता कहना गलत होगा। छोटी संस्थाओं के जहां एक-दो कर्मचारी हैं तथा लेखाकर्म का कार्य स्वामी एकाकी व्यापारी या साझेदार ही देखते है अत: अंकेक्षण आवश्यक नहीं हैं, लेकिन बड़े व्यवसाय में यह लाभप्रद एवं अत्यधिक आवश्यक है, विलासिता नहीं। अंकेक्षण का विलासिता न होना (1) कर्मचारियों की कार्यक्षमता में वृद्धि- अंकेक्षण करवाने के फलस्वरूप कर्मचारी की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है क्योंकि वे जानते हैं कि कार्य ठीक से न करने पर अंकेक्षक द्वारा त्रुटि पकड़ी जा सकती है ! (2) कर्मचारियों की कार्यकुशलता में वृद्धि-कुशल अंकेक्षण के फलस्वरूप कर्मचारियों अपने-अपने कार्य में दक्ष हो जाते हैं क्योंकि अंकेक्षक समय-समय पर अपनी रिपोर्ट में तथा अंकेक्षण के दौरान भी कमियों को बताता रहता है व मार्गदर्शन भी करता रहता है। (3) प्रबन्धकों की कार्यक्षमता में वृद्धि- जब प्रबन्धकों को यह मालूम रहता है कि उनके द्वारा किये गये कार्य पर अंकेक्षक अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा जो कि सर्वमान्य होगी तो वे अपना कार्य पूर्ण ईमानदारी से करेंगे। (4) व्यवसाय के विकास में सहायक- अंकेक्षित हिसाब-किताब पर सभी विश्वास करते हैं तथा इससे व्यापार की ख्याति में वृद्धि होती है तथा सभी ओर से व्यवसाय को सुविधाएं प्राप्त होती हैं जिससे व्यवसाय का विकास होता हैं। (5) दिवालिया होने की दशा में निर्णय संभव- यदि लेखा-पुस्तकें ठीक प्रकार रखकर अंकेक्षण करवा रखा है तो न्यायालय द्वारा ऋण मुक्ति आदेश प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होते हैं। हो सकता है इसके अभाव में समय अधिक लग जाय। (6) भावी योजना बनाने में सहायक- प्रबन्धक कई वर्षों के अन्तिम खातों के आधार पर तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तथा यह देखते है कि कार्यक्षमता किस प्रकार बढ़ायी जा सकती है। (7) प्लाण्ट एवं मशीन की कार्यक्षमता में वृद्धि- लागत लेखों के अंकेक्षण से यह मालूम होता है कि मशीनों की कितनी कार्यक्षमता है तथा किन-किन कारणों से मशीनों की पूर्ण कार्यक्षमता का प्रयोग नहीं हो पा रहा है। इन कारणों की जानकारी प्राप्त करके कार्यक्षमता को बढ़ाया जा सकता है। अंकेक्षण की अनिवार्यता अंकेक्षण से कार्यक्षमता पर प्रभाव पड़ता हैं अत: इसे विलासिता नहीं कहा जा सकता हैं। निम्नाकिंत दशाओं में यह अनिवार्य हैं – (i) कम्पनी अंकेक्षण की अनिवार्यता(ii) सहकारी समितियों के लिए(iii) ट्रस्ट के लिए अंकेक्षण की अनिवार्यता(iv) सरकारी निगम तथा सरकारी विभागों के लिए(v) फर्म के लिए आयकर अधिनियम के तहत(vi) एकाकी व्यापार में आयकर अधिनियम के तहत अनिवार्यता।इस प्रकार यह कहना पूर्णरूप से सत्य न होगा कि लेखांकन अनिवार्य है और अंकेक्षण विलासिता हैं। छोटे व्यापार में कहीं-कहीं लेखांकन भी विलासिता है जबकि बड़े व्यवसायों के लिए अनिवार्य ही है। किन्तु फिर भी लेखांकन व अंकेक्षण एक सिक्के के दो पहलू हैं। यदि लेखांकन न हो तो अंकेक्षण किसका होगा। और लेखांकन सिर्फ अकेला हो तो उसकी सत्यता की विश्वसनीयता नहीं है। अशुद्धि व कपट[संपादित करें]त्रुटि करना मानव स्वभाव का एक भाग हैं अंकेक्षण का प्रमुख उद्देश्य भी अशुद्धि व गबन (कपट) का पता लगाना व उन्हें रोकना होता हैं।
अंकेक्षक त्रुटियों का पता लगाने हेतु प्रारम्भिक लेखों की जाँच, जर्नल की जाँच, रोकड शेष की जाँच, खातों के शेषों की जाँच, सहायक बहियों की खतौनी की जाँच, गत वर्ष के तलपट से मिलान, अन्तर की राशि का पता लगाना, तलपट के जोड़ की जाँच आदि क्रिया अपना सकता हैं।
अशुद्धि एवं कपट में अंतर[संपादित करें]
अंकेक्षण की स्थिति[संपादित करें]यदि अंकेक्षक अपने कार्य में इतनी सावधानी, कुशलता एवं बुद्धिमानी का प्रयोग करे जितना कि उन परिस्थितियों में सम्मव था और उसने पूर्ण प्रयत्न किया हो जो कि त्रुटियों को ढूंढ निकालने हेतु परम आवश्यक था। यदि फिर भी कपट का पता लगाने में असमर्थ रहा हो तो अंकेक्षक को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता हैं। अंकेक्षण कार्य का अर्थ यह कभी नहीं होता 'कि अंकेक्षक ने अशुद्धियों एवं गबन का बीमा कर लिया है, न ही वह इस बात की गारण्टी देता है कि समस्त अशुद्धियों एवं गबन को ढूँढ निकालेगा। उससे सिर्फ यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपना कार्य उचित सावधानी एवं चतुराई से करेगा। अंकेक्षण को नियंत्रित करने वाले आधारभूत सिद्धान्त[संपादित करें]AAS-1 में उन आधारभूत सिद्धान्तों के विषय में बताया गया है जो अंकेक्षक के पेशेवर दायित्वों से सम्बन्धित हैं तथा जिनका पालन अंकेक्षण करते समय अनिवार्य है। AAS-1 में निम्न मूलभूत सिद्धान्तों का समावेश है 1 सहृदयता, वस्तुनिष्ठता व निष्पक्षता 2. गोपनीयता, 3. चातुर्य व दक्षता 4. दूसरों द्वारा निष्पादित कार्य के स्वयं दायी हैं। 5. अंकेक्षण साक्ष्य एकत्रीकरण 6. कार्य नियोजन 7. लेखांकन तंत्र व आन्तरिक नियंत्रण व्यवस्था की जानकारी 8. अंकेक्षण निष्कर्ष तथा रिपोर्ट। अंकेक्षक को प्राप्त अंकेक्षण साक्ष्य से निकाले गये परिणामों की समीक्षा तथा आकलन कर लेना चाहिए तथा वित्तीय सूचनाओं पर अपना मत व्यक्त करने के लिये आधार के रूप में प्राप्त परिणामों की विधिवत समीक्षा करनी चाहिये। यह समीक्षा तथा मूल्यांकन यही बताती हैं कि क्या:
अंकेक्षण प्रतिवेदन में वित्तीय सूचनाओं पर राय की स्पष्टतः लिखित अभिव्यक्ति का समावेश होना चाहिए। अंकेक्षण का कार्यक्षेत्र[संपादित करें]AAS-2 “आब्जेक्टिव ऐण्ड स्कोप ऑफ द आडित ऑफ फाइनेन्सियल स्टेटमेण्ट” में बताया गया है कि अंकेक्षक की नियुक्ति शर्तों, प्रचलित विधानों आदि को ध्यान रखते हुए अंकेक्षक का क्षेत्र निर्धारित होता हैं। वित्तीय विवरणों पर राय कायम करने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग करते हुए लेखांकन अभिलेखों व अन्य सूचनाओं की विश्वसनीयता तथा पर्याप्तता की जाँच कर लेनी चाहिये। इस हेतु अंकेक्षक ऐसी प्रविधियों का पालन करता है जिससे वह यह विश्वास दिला सके कि वित्तीय विवरण किसी उपक्रम की वित्तीय स्थिति व परिचालन परिणामों की सही व उचित छवि प्रस्तुत करते हैं। ' अंकेक्षक अपने पेशेवर अनुभव व निर्णयन क्षमता से जाँच के निश्चित मानदण्ड तय करता है ऐसा करते समय उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह अपनी दक्षता क्षेत्र से बाहर जाकर कार्य करे। अंकेक्षक अपने कार्य को सीमा निर्धारित कर ही कार्य प्रारम्भ करता है। ऐसी दो सीमाएँ हैं :-विस्तृत सीमा, गहन सीमा। विस्तृत सीमा में अंकेक्षक यह तय करता है कि कितने व्यवहारों के लेखों का अंकेक्षण करना है, जबकि गहन सीमा में यह तय करता है कि किन व्यवहारों को गहनता से जाँचेगा व कितनी गहराई से जाँच करनी है। अंकेक्षण के प्रकार[संपादित करें]विधि के अन्तर्गत अनिवार्य अंकेक्षण[संपादित करें]1. कम्पनी अधिनियम 1958 के अन्तर्गत आने वाली कम्पनियाँ 2. बैंकिंग अधिनियम 1949 के अन्तर्गत आने वाली कम्पनियाँ 3. विद्युत आपूर्ति अधिनियम 1948 के अन्तर्गत आने वाली कम्पनियाँ 4. सहकारी समिति अधिनियम 1912 के अन्तर्गत आने वाली कम्पनियाँ 5. पंजीकृत सार्वजनिक या धार्मिक प्रन्यास 6. संसद या विधानसभा के द्वारा पारित विशेष अधिनियमों के अन्तर्गत स्थापित निगम 7. आयकर अधिनियम 1961 की विभिन्न धाराओं के अन्तर्गत विशिष्ट सत्ताएं 8. सरकारी कम्पनी का अंकेक्षण (धारा 619 के अन्तर्गत) 9. विशेष अंकेक्षण (धारा 233A) ऐच्छिक अंकेक्षण[संपादित करें]1. एकाकी व्यवसायी 2. साझेदारी संस्था 3. संयुक्त हिन्दू परिवार 4. शिक्षण संस्थाएं, क्लब आदि के अंकेक्षण 5. निजी प्रन्यास व्यावहारिक दृष्टि से[संपादित करें]1. चालू अंकेक्षण 2. सामयिक अंकेक्षण 3. आन्तरिक अंकेक्षण 4. अन्तरिम अंकेक्षण 5. स्वतंत्र अंकेक्षण 6. लागत अंकेक्षण 7. प्रबन्ध अंकेक्षण 8. निपुणता अंकेक्षण 9. औचित्य अंकेक्षण 10. निष्पादन अंकेक्षण अंकेक्षण के लाभ[संपादित करें]
अंकेक्षण की सीमाएं[संपादित करें]अंकेक्षण की प्रविधियाँ कुछ ऐसी होती हैं कि यह विभिन्न अर्न्तनिहित सीमाओं से ग्रस्त हो जाती हैं। अत: एक अंकेक्षक को इन अर्न्तनिहित सीमाओं को समझना महत्त्वपूर्ण होता है, क्योंकि उसकी इस समझ से ही अंकेक्षण के सर्वांगीण उद्देश्यों के प्रति स्पष्टता प्राप्त हो सकेगी। सीमाएं निम्नांकित प्रकार है :-
अंकेक्षण सिद्धान्त, प्रक्रिया व प्रविधि[संपादित करें]सिद्धान्त का अर्थ एक सारभूत तथ्य, एक आधारभूत नियम से है। अंकेक्षण के सिद्धान्त ऐसे सारभूत सत्य है जो अंकेक्षण के उद्देश्यों का ज्ञान कराते हैं तथा उन तरीकों को बताते हैं जिनसे इनकी पूर्ति की जा सकती है। अंकेक्षण व आश्वासन मानदण्ड जारी कर चार्टर्ड एकाउटेन्ट्स संस्थान ने इस और पहल प्रारम्भ की है। अंकेक्षण प्रक्रिया में वे सभी कार्य आते है जो अंकेक्षण सिद्धान्तों के अन्तर्गत किसी जाँच के दौरान अपनाये जाते है। अंकेक्षण मानदण्डों के अनुसार क्रियाएं निश्चित की जाती हैं। अंकेक्षण प्रविधि में उन उपायों को सम्मिलित करते हैं जिन्हें लेखा परीक्षण के लिए आवश्यक साक्ष्य (evidence) के रूप में एकत्रित करके लेखा पुस्तकों में लिखे व्यवहारों की शुद्धता जाँच के लिए अपनाते हैं। इसमें भौतिक परीक्षण, पुष्टिकरण, पुर्नगणना, मूल प्रपत्रों की जाँच, रिकार्ड से मिलान, सहायक रिकार्ड की जाँच, पूछताछ करना, क्रमानुसार जाँच करना, सम्बन्धित सूचना से किसी मद का सह-सम्बन्ध बिठाना, वित्तीय विवरणों का विश्लेषण, आदि शामिल हैं। अंकेक्षण प्रविधि व प्रक्रिया में घनिष्ठ सम्बन्ध है। अंकेक्षण सिद्धान्तों के आधार पर योजना बनाकर अंकेक्षण प्रक्रिया अपनाई जाती है और साक्ष्य / प्रमाण प्राप्त करने के लिए अंकेक्षक प्रविधियाँ अपनाते हैं। इसके कारण लेखों की शुद्धता प्रमाणित की जा सकती हैं। इन्हें भी देखें[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
अंकेक्षण से आप क्या समझते हैं इसके उद्देश्यों का वर्णन कीजिए?'अंकेक्षण किसी सार्वजनिक या निजी संस्था के लेखों, प्रमाणकों, कानूनी प्रलेखों एवं अन्य विवरणों की एक वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित जाँच है जिसका 'उद्देश्य : (अ) लेखों की शुद्धता व सत्यता का पता लगाना, (व) एक निश्चित तिथि पर आर्थिक स्थिति उचित रीति से दिखाना व वस्तु-स्थिति को लेखांकन के सिद्धान्तों के आधार पर दिखाना और
अंकेक्षण का निम्न में से कौन उद्देश्य है?अंकेक्षण के कार्य का मुख्य रूप संस्था के द्वारा तैयार कर लेखा पुस्तको की शुद्धता सम्बन्धित जांच विधिव करना है। ताकी हिसाब-किताब में कोई गलतियां न रह पाए और साथ में अंकेक्षण प्रमाणकों के औचित्य, वैधता सत्यता एवं विश्वसनीयता की जांच करे।
लागत अंकेक्षण अंकेक्षण का क्या उद्देश्य है?लागत अंकेक्षण में अंकेक्षक को यह रिपोर्ट करनी होती है कि क्या कम्पनी के लागत लेखों का विवरण उचित प्रकार से रखा गया है, जिससे वे उत्पादन, प्रक्रियन, निर्माण या खनन गतिविधियों की लागत का सही एवं उचित चित्र प्रस्तुत कर सकें।
अंकेक्षण का क्या अर्थ है अंकेक्षण के उद्देश्य एवं सीमाओं का वर्णन कीजिए?अंकेक्षण, लेखांकन सम्बन्धी प्रपत्रों की जाँच करना है ताकि इनकी सत्यता, पूर्णता एवं नियमानुकूलता का ज्ञान प्राप्त किया जा सके। यह जाँच उस समय और भी अधिक आवश्यक हो जाती है जबकि लेखांकन स्वामी की ओर से अन्य व्यक्तियों द्वारा किया जाता है।
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