अफगान की दूसरी लड़ाई कब हुई? - aphagaan kee doosaree ladaee kab huee?

इस साल जनवरी में अमेरिकी शासन की बागडोर अपने हाथों में लेने के बाद अफ़ग़ानिस्तान पर जो बाइडन ने वही फ़ैसला लिया, जो उनके पूर्ववर्ती डोनाल्ड ट्रंप लेने वाले थे. यानी अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के नेतृत्व वाली सेना की वापसी.

अफ़ग़ानिस्तान से सेना की वापसी की डेडलाइन 11 सितंबर से पहले तय की गई है. 20 साल पहले इसी 11 सितंबर को 9/11 की वह भयावह घटना घटी थी, जिसमें हज़ारों मासूमों को अफ़ग़ानिस्तान में बैठे आतंकियों ने अपना शिकार बनाया था.

अक्सर ऐसा लगता है कि आज के अमेरिका में सभी रास्ते 9/11 की ओर ही जाती है. यह घटना पर्ल हार्बर पर हुए हमले के बाद अमेरिका की सबसे अधिक जानी-पहचानी और डरावनी घटना मानी जाती है. 1945 में पर्ल हार्बर स्थित अमेरिका के पैसिफिक बेड़े पर जापानियों ने हमला किया था जिसके बाद उसे दूसरे विश्व युद्ध में कूदना पड़ा था.

9/11 ने अमेरिका में सब कुछ बदलकर रख दिया

उसी तरह 9/11 के हमले के बाद अमेरिका ने अपने इतिहास की सबसे लंबी सैन्य लड़ाई का सामना किया. 11 सितंबर, 2001 को न्यूयॉर्क के ट्विन टॉवर्स और अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के मुख्यालय पेंटागन पर हुए हमलों के अलावा पेन्सिलवेनिया के शैंक्सविले के एक खेत में दुर्घटनाग्रस्त हुआ विमान, अमेरिकी राष्ट्रवाद को बढ़ाने की शुरुआती वजह बने थे.

इसके बाद, युवाओं के साथ-साथ हर उम्र के लोग अमेरिकी सेना जॉइन करने के लिए दौड़ पड़े थे. ये देशभक्त अपने देश की 'स्वतंत्र भूमि' की रक्षा के लिए लड़कर उन लोगों से बदला लेना चाहते थे, जिन्होंने अमेरिका को नुकसान पहुंचाया था.

हालांकि उस स्थिति को अंधराष्ट्रवाद समझने की बिल्कुल ग़लती न करें. हालात वैसे नहीं थे. मैं अमेरिकियों के अलावा अमेरिकी सरकार के कई धुर विरोधियों और उदारवादियों को भी जानता हूं, जो अंदर से गुस्से में थे. वह ऐसा क्षण था जब आपको अपना रुख साफ़ करना ही था.

क्या आप क़ानून के शासन, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, क़ानून की नियत प्रक्रिया, जेंडर समानता, सार्वभौमिक शिक्षा के पक्ष में थे?

या आप उन लोगों के पक्ष में खड़े थे, जो विमानों को इमारतों से टकराते थे, या लोगों को पत्थर मारते थे, या समलैंगिकों को इमारतों से फेंक देते थे, या लड़कियों को स्कूल से दूर कर देते थे? यदि वो स्थिति मामले का हद से ज़्यादा सरलीकरण लगता हो, जो है भी, पर 9/11 के बाद हालात ऐसे ही थे.

ट्रंप ने अफ़ग़ान युद्ध पर निकाला गुस्सा

लेकिन 2016 आते-आते उन्हीं हालातों के चलते अमेरिकी राष्ट्रपति पद पर डोनाल्ड ट्रंप का चुनाव हुआ. प्रत्याशी के तौर पर ट्रंप ने कहा था कि अफ़ग़ानिस्तान और इराक में युद्ध के दलदल में फंसा हुआ अमेरिका इन 'अंतहीन युद्धों' से थक गया है.

यह ज़ाहिर था कि अमेरिकी इन युद्धों से अपने पांव खींचना चाहते थे और अपने सैनिकों को घर बुलाना चाहते थे. साथ ही, युद्ध में फंसे उन देशों पर उनकी ख़ुद की समस्याओं को हल करने की ज़िम्मेदारी डालना चाहते थे. और अंतत: वह उस विचार को छोड़ रहा था कि उदार लोकतंत्र का अमेरिकी मॉडल एक निर्यात करने वाली वस्तु है, जिसे किसी पर भी थोपा जा सकता था. साथ में, संकेत मिला कि उदारवादी हस्तक्षेप करने वाला धर्मयुद्ध समाप्त हो गया है.

ट्रंप यदि दूसरी बार भी जीत गए होते तो शायद अमेरिकी सेना और जल्दी वापस लौट जाती. हालाँकि ट्रंप के वादों को ख़त्म करने की विरासत जिन जो बाइडन को मिली उनके लिए सबसे आसान नीतिगत फ़ैसला यही था कि वे अफ़ग़ानिस्तान में सुरक्षाबलों के रहने के लिए एक और साल के लिए चेक पर साइन कर देते. उसके बाद दूसरा और फिर तीसरा.

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बतौर राष्ट्रपति जो बाइडन का यह फ़ैसला उनके कार्यकाल का सबसे निर्णायक फ़ैसला साबित हो सकता है

बाइडन ने सोचा- अब नहीं तो कब?

राजनीतिक दबाव भी बहुत नहीं था. शीर्ष रक्षा अधिकारियों, विदेश नीति से जुड़े लोगों और अमेरिका के विदेशी सहयोगियों ने सोचा कि यथास्थिति के अलावा कुछ भी नहीं होगा. लेकिन एक सवाल नए राष्ट्रपति को परेशान कर रहा था, जिसने बाइबल के समय हिलेल द एल्डर को भी परेशान किया था, कि 'अब नहीं, तो कब?'

2009 में राष्ट्रपति बराक ओबामा को अफ़ग़ानिस्तान में और अधिक सैनिक न भेजने की सलाह देने वाले जो बाइडन ने ऐसे में 'अब' का चुनाव किया. हालांकि बतौर राष्ट्रपति यह अकेला फ़ैसला उनके लिए सबसे निर्णायक हो सकता है.

अमेरिका में जब 9/11 की घटना हुई थी, तब मैं बीबीसी का पेरिस संवाददाता हुआ करता था. उस समय मैं यूरोटनल के संगाटे नामक रेडक्रॉस शरणार्थी शिविर को जबरन बंद किए जाने की कोशिशों पर रिपोर्टिंग कर रहा था. उस शिविर में दुनिया के कई अशांत इलाकों से पलायन को मजबूर हुए शरणार्थी ब्रिटेन जाने के ठीक पहले जुटे थे.

मैं फ़्रांस में कैले जा रहा था, तभी मुझे एक साथी का फ़ोन आया. वो मुझे टीवी देखने के लिए नजदीकी सर्विस स्टेशन पर रुकने के लिए कह रहे थे कि देखिए क्या हो रहा है.

हमें नहीं पता था कि आगे क्या होने वाला है या हम कहाँ पहुंचने वाले हैं. नई सहस्राब्दी के आशापूर्व पहले साल के बाद यह एक सुखद कहानी नहीं थी. आप इसे आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध या सभ्यताओं के बीच टकराव, जो कहना चाहें कह सकते हैं. उस समय दोनों कहानियों में ज़्यादा अंतर नहीं था. हम कैले के आसपास की सड़कों पर कई ऐसे लोगों से मिल रहे थे, जो अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान शासन से डरकर वहां से भागे थे.

यह याद रखने वाली बात है कि अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य शक्तियॉं अफ़ग़ानिस्तान क्यों गईं.

तालिबान असल में, पश्चिम के ख़िलाफ़ ज़िहाद छेड़ने के इच्छुक इस्लामी आतंकवादियों के लिए एक 'फिनिशिंग स्कूल' बन गया था. अल-क़ायदा के लोग 'पवित्र युद्ध' के लिए ज़िहादियों को प्रशिक्षित करने के लिए कई देशों में जा रहे थे.

9/11 के आतंकियों ने अमेरिका पर हमला करके अपने हुनर ​​का लोहा मनवा लिया था. ऐसे में तालिबान को हटाना और अल-क़ायदा से निपटना दुनिया की सुरक्षा के लिए बहुत ज़रूरी हो गया था.

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9/11 की घटना के कुछ हफ़्तों के बाद रिपोर्टिंग के लिए मैं (बीबीसी संवाददाता जॉन सोपेल) अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी क्षेत्र में गया था

9/11 की घटना के कुछ हफ़्तों के बाद, मैं उत्तर अफ़ग़ानिस्तान पहुंच गया था. वहाँ जाने के लिए मैं दिल्ली से दुशांबे होते हुए ताजिकिस्तान गया था. हम अमेरिका और ब्रिटेन के समर्थन वाली नॉर्दन एलायंस के सैनिकों के साथ आगे बढ़ रहे थे. उन्होंने तालिबान को खदेड़ दिया था.

हमारा पहला दिन नॉर्दन एलायंस के तब के मुख्यालय खोजा बहाउद्दीन से यात्रा करते हुए बीता. दो दिन पहले यहीं तालिबान ने घात लगाकर कई पत्रकारों को मार डाला था. एक रात के बाद हम तालेक़ान नामक कस्बे में पहुंचे थे. हमारे वहां पहुंचने से पहले रात हो चुकी थी. वहां के यादगार दृश्यों में से लड़कियों का एक स्कूल था. वह तालिबान के रॉकेटों को रखने का अड्डा बन गया था. ऐसा लगता है कि जल्दबाजी में तालिबान लड़ाके उसे यूं ही छोड़कर चले गए थे.

हमारा आख़िरी गढ़ कुंदुज था. यह जगह काबुल, मजार-ए-शरीफ़ और फिर उत्तर में उज़्बेकिस्तान की सीमा तक जाने वाले महत्वपूर्ण रास्ते पर ​मौजूद थी.

तालिबान का दोबारा नियंत्रण

दूसरी ओर अब तालेक़ान और कुंदुज़ दोनों तालिबान के नियंत्रण में आ गए हैं. देश की एक तिहाई राज्यों की राजधानियाँ भी अब उनके नियंत्रण में हैं. और यह स्थिति जो बाइडन और उनकी 'अब नहीं तो कब' वाली नीति के लिए बहुत ही असहज सवाल पैदा करता है.

बीस साल, हज़ारों लोग और इतने अरबों डॉलर खोने के बाद एक सवाल सहज रूप में उठता है कि वह सब किस लिए किया गया था? उससे क्या हासिल हुआ? तालिबान के हाथों मारे गए उन सब सैनिकों के परिवारों से आप क्या कहना चाहते हैं कि अमेरिका हार रहा है? आतंकी समूहों को अपने ज़िहाद प्रशिक्षण शिविरों को दोबारा स्थापित करने से रोकने के लिए क्या किया जा रहा है?

पिछले शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में बताया गया कि 20 विभिन्न आतंकवादी समूहों के हज़ारों विदेशी लड़ाके तालिबान के साथ मिलकर लड़ रहे हैं.

मुझे यकीन है और जैसा कि मैं लिख रहा हूं, कई अफ़ग़ान परिवार भी तालिबान के नियंत्रण का वही मतलब समझ रहे होंगे. और उसके डर से अपना सामान पैक करके शायद फ़्रांस के कैले या ब्रिटेन जाने की तैयारी कर रहे होंगे. तो क्या लड़कियों के स्कूल अब फिर से हथियार इकट्ठा करने की जगह बन जाएंगे?

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बीबीसी संवाददाता जॉन सोपेल ने 20 साल पहले जिन इलाकों को दौरा किया था, वे फिर से तालिबान के नियंत्रण में आ गए हैं

अमेरिका ने ये लड़ाई आख़िर लड़ी ही क्यों?

9/11 के दाग़ हर जगह साफ़ दिख रहे हैं. हज़ारों सैनिक अपने कृत्रिम अंगों और परेशान दिमागों के साथ वापस लौट आए हैं. आत्महत्या की दर बढ़ रही है. परिवारों ने अपने परिजनों को खो दिया है.

अमेरिका की सड़कों पर हाथों में बियर के लाल प्लास्टिक कप लिए सैनिक छुट्टे की भीख मांग रहे हैं. ये अपनी निशानी दिखाते हुए लोगों से कह रहे हैं कि वे इराक और अफ़ग़ानिस्तान में लड़ चुके पुराने सैनिक हैं.

घर पर रहने और परेशान करने वाली दुनिया से खुद को दूर रखने की इच्छा समझ में आती है. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि 'अमेरिका फर्स्ट' नारे कभी गूंज रहे थे.

2001 में जॉर्ज डब्ल्यू बुश इस स्थिति की वकालत नहीं कर रहे थे. तब तो अफ़ग़ानिस्तान या इराक़ में कोई अमेरिकी सैनिक गए ही नहीं थे. लेकिन वह स्थिति अमेरिका को सुरक्षित नहीं रख सकी. और एक दिन साफ़ और नीले आकाश में यात्री विमान का अपहरण करके उसे अल-क़ायदा निर्देशित मिसाइल बना लिया गया, जिसने हज़ारों लोगों को मार डाला था. हालांकि मरने वाले वे लोग अपना आम जीवन जीने के अलावा कोई उकसाने वाला काम नहीं कर रहे थे.

दुनिया की पुलिस बनकर अपनी मनमर्जी चलाना और शांतिदूत होने में भी अंतर है. हज़ारों अमेरिकी सैनिक अभी भी दक्षिण कोरिया में तैनात हैं. भले कोरिया की लड़ाई को 70 साल बीत चुके हैं. अमेरिका के कई राष्ट्रपतियों का यही मानना रहा है कि तनावपूर्ण शांति, प्रत्यक्ष युद्ध या अशांत इलाके से कहीं बेहतर होती है.

जो बाइडन उम्मीद कर रहे थे कि उनके फ़ैसले के बाद अख़बारों की सुर्ख़ियॉं होंगी कि 'अफ़ग़ान युद्ध समाप्त' या 'अमेरिका का सबसे लंबा युद्ध ख़त्म'. लेकिन 9/11 के बीस साल बाद तालिबान फिर से अपना नियंत्रण कायम कर रहा है. हो सकता है कि भविष्य में इतिहासकार 9/11 की बीसवीं सालगिरह को दूसरे अफ़ग़ान युद्ध की शुरुआत मानें.

2001 में अल-क़ायदा नेता ओसामा बिन लादेन की योजना के अनुसार 9/11 के हमलों को अंजाम दिया गया. इसके बाद अमेरिकी नेतृत्व वाली सेना ने अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान शासन को उखाड़ फेंका.

अफ़ग़ानिस्तान पर बीस साल के क़ब्ज़े और सैन्य अभियानों के दौरान अमेरिका और उसके सहयोगियों ने वहां के चुनावों की निगरानी की. साथ ही, अफ़ग़ान सुरक्षा बलों को तैयार किया. हालांकि इस दौरान तालिबान ने हमला करना जारी रखा.

आख़िर में अमेरिका ने तालिबान के साथ दोहा में एक समझौता किया. इस समझौते के अनुसार, यदि तालिबान आतंकवादी समूहों को शरण नहीं देता है तो अमेरिका और उसके नेतृत्व वाली सेना लौट जाएगी.

लेकिन तालिबान और अफ़ग़ान सरकार के बीच बातचीत विफल रही और इस साल अमेरिका के नेतृत्व वाली सेना पीछे हट गई. इसके बाद, तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के अधिकांश हिस्से पर फिर से क़ब्ज़ा कर लिया.

दूसरा अफगान युद्ध कब हुआ था?

जून 1878द्वितीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध / शुरू होने की तारीखnull

तीसरा अफगान युद्ध कब हुआ था?

6 मई 1919 – 8 अगस्त 1919तृतीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध / अवधिnull

अफगान का युद्ध कब हुआ?

1839 – 1842प्रथम आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध / अवधिnull

अफगानिस्तान का पुराना नाम क्या है?

इस्लाम के पहले अफगानिस्तान को आर्याना, आर्यानुम्र वीजू, पख्तिया, खुरासान, पश्तूनख्वाह और रोह आदि नामों से पुकारा जाता था।