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प्रसिद्ध रचनाएँ/कविताएँ अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'Selected Poetry Ayodhya Singh Upadhyay ‘Hariaudh'1. कर्मवीरदेख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं। आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही। जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं। व्योम को छूते हुए दुर्गम
पहाड़ों के शिखर। चिलचिलाती धूप को जो चाँदनी देवें बना। ठीकरी को वे बना देते हैं सोने की डली। काम को आरंभ करके यों नहीं जो छोड़ते। पर्वतों को काटकर सड़कें बना देते हैं वे। कार्य्य-थल को वे कभी नहिं पूछते 'वह है कहाँ'। जो रुकावट डाल कर होवे कोई पर्वत खड़ा। सब तरह से आज जितने देश हैं फूले फले। 2. फूल और काँटाहैं जन्म लेते जगह में एक ही, मेह उन पर है बरसता एक सा, छेदकर काँटा किसी की उंगलियाँ, फूल लेकर तितलियों को गोद में है खटकता एक सबकी आँख में 3. अपने को न भूलेंबन भोले क्यों भोले भाले कहलावें। पड़ गया हमारे लहू पर क्यों पाला। छिन गये अछूतों के क्यों दिन दिन छीजें। क्यों तरह दिये हम जायँ बेतरह लूटे। सैकड़ों जातियों को हमने अपनाया। सारे मत के रगड़ों झगड़ों को छोड़ें। 4. कविकीर्तिरचती है कविता-सुधा सुधासिक्त
अवलेह। चीरजीवी हैं सुकवि जन सब रस-सिध्द समान। अमल धावल आनन्द मय सुधा सिता सुमिलाप। गौरव-केतन से लसित अनुपम-रत्न उपेत। मानस-अभिनन्दन, अमर, नन्दन बन वर कुंज। 5. जीवनविकच कमल कमनीय कलाधर। विपुल कुसुम कुल लसित बसंत। कोमल आलोकमय प्रभात समय। मरीचिका मय मरु विदग्ध विपिन। राहु कवलित कलंकित कलानिधि। 6. जन्मभूमिसुरसरि सी सरि है कहाँ मेरु सुमेर समान। प्रतिदिन पूजें भाव से चढ़ा भक्ति के फूल। पग सेवा है जननि की जनजीवन का सार। आजीवन उसको गिनें सकल अवनि सिंह मौर। कौन नहीं है पूजता कर गौरव
गुण गान। उपजाती है फूल फल जन्मभूमि की खेह। उसके हित में ही लगे हैं जिससे वह जात। योगी बन उसके लिये हम साधे सब योग। फलद कल्पतरू–तुल्य हैं सारे विटप बबूल। जन्मभूमि में हैं सकल सुख सुषमा समवेत। 7. कोयलकाली-काली कू-कू करती, 8. मतवाली ममतामानव ममता है मतवाली । 9. हमारे वेदअभी नर जनम की बजी भी बधाई। तभी एक न्यारी कला रंग लाई। हमारे बड़े ए बड़ी सूझ वाले। विचारों भरे वेद ए हैं हमारे। उन्हीं ने भली नीति की नींव डाली। उन्हीं ने जगत-सभ्यता-जड़ जमाई। कहो सच किसी को कभी मत सताओ। उन्हें वेद ही ने जनम दे जिलाया। इसी वेद से जोत वह फूट पाई। चला कौन कब वेद से कर किनारा। चमकती हुई धूप किरणें सुनहली। सभी देश पर औ सभी जातियों पर। बड़े काम की बात वे हैं बताते। सचाई फरेरा उन्हीं का उड़ाया। किसी पर कभी वे नहीं टूट पड़ते। दहकती हुई आग सूरज चमकता। सभी को सदा ही चकित हैं बनाती। इसी से इन्हीं के सुयश को सुनाते। अगर आँख खुल जाय उर की किसी के। उसे खोजना ही पड़ेगा सहारा। धरम के जथे जो धरम के जथों पर। उन्हें फिर धरम के जथे कह जताना। बने पंथ मत जो धरम के सहारे। सदा इसलिए वेद हैं यह बताते। सभी एक ही ढंग के हैं न होते। इसी से बहुत पंथ मत हैं दिखाते। नदी सब भले ही रखें ढंग न्यारा। सचाई भरी बात यह बूझ वाली। 10. एक बून्दज्यों निकल कर बादलों की गोद से मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में, लोग यों ही हैं झिझकते सोचते 11. हमारा पतनजैसा हमने खोया, न कोई खोवेगा 12. पूर्वगौरवबल में विभूति में हमें कौन था पाता। था एक एक पता पूरा हितकारी। छूते ही मिट्टी थी सोना बन जाती। मरुधारा मधय थे मन्दाकिनी बहाते। हम थे अप्रीति के काल प्रीति के प्याले। हम धीर बीर गंभीर बताये जाते। 13. खद्योतप्रकृति-चित्र-पट असित-भूत था दामिनि छिपी निविड़ घन में थी 14. मयंकप्रकृति देवि कल मुक्तमाल मणि रसिक चकोर चारु अवलम्बन 15. हिन्दी भाषापड़ने लगती है पियूष की शिर पर धारा। जिसने जग में जन्म दिया
औ पोसा, पाला। दो सूबों के भिन्न भिन्न बोली वाले जन।
गुरु गोरख ने योग साधाकर जिसे जगाया। करामात जिसमें है चंद-कला दिखलाती। बहुत बड़ा, अति दिव्य, अलौकिक, परम मनोहर। अति अनुपम, अति दिव्य, कान्त रत्नों की माला। वैष्णव कवि-कुल-मुख-प्रसूत आमोद-विधाता। महाराज रघुराज राज-विभवों में रहते। वे भी हैं, है जिन्हें मोह, हैं तन मन अर्पक। एक बार नहिं बीस बार हमने हैं जोड़े। अपनी आँखें बन्द नहीं मैंने कर ली हैं। मध्य-हिन्द में भी है हिन्दी पूजी जाती। है हिन्दी साहित्य समुन्नत होता जाता। किन्तु कहूँगा अब तक काम हुआ है जितना। बहुत बड़ा पंजाब औ यहाँ का हिन्दू-दल। मुख से है जातीयता मधुर राग सुनाता। भाषा द्वारा ही विचार हैं उर में आते। इन सूबों में ऐसे हिन्दू भी
अवलोके। मैं पर-भाषा पढ़ने का हूँ नहीं विरोधी। है उरके जातीय भाव को वही जगाती। उस में ही है जड़ी जाति-रोगों की मिलती। गाकर जिनका चरित जाति है जीवन पाती। उस निज भाषा परम फलद की ममता तज कर। हे प्रभु अपना प्रकृत रूप सब ही पहचाने। 16. प्रेमउमंगों भरा दिल किसी का न टूटे। कभी प्रेम के रंग में हम रँगे थे। रहे उन दिनों फूल जैसा खिले हम। रहे बादलों
सा बरस रंग लाते। रहे प्यार का रंग ऐसा चढ़ाते। कसर रख न जीकी कसर थी निकलती। मगर अब पलट है गया रंग सारा। हमें जाति के प्रेम से है न नाता। बहुत जातियों की बहुत सी सभाएँ। बनाई गयी चार ही जातियाँ हैं। अगर लोग निज जाति को जाति जानें। सभी जाति है राग अपना सुनाती। बड़े काम की बन बहुत काम आती। बरहमन बड़े घाघ, छत्री छुरे हैं। कहीं रंग में मतलबों के रँगा है। बही प्रेम धारा पटी जा रही है। करोड़ों मुसलमान बन छोड़ बैठे। अगर नाम हिन्दू हमें है न प्यारा। मगर आँख कोई नहीं खोल पाता। बहुत कह गये अब अधिक है न कहना। 17. घनश्यामश्याम रंग में तो न रँगे हो जो अन्तर रखते हो श्याम। कैसे हो परजन्य, वियोगी जन को जो हो दुखद वियोग। बहुधा करते हो बसुधा का बिपुल उपल द्वारा अपकार। अशनि-पात-प्रिय, अधार-विलंबी, करक-निकेतन, दानव-देह। 18. मीठी बोलीबस में जिससे हो जाते हैं प्राणी सारे। 19. आँसू और आँखेंदिल मचलता ही रहता है । कह सके यह कोई कैसे । 20. जागो प्यारेउठो लाल, अब आँखें
खोलो, 21. फूलरंग कब बिगड़ सका उनका भले ही जियें एक
ही दिन । 22. अभेद का भेदखोजे खोजी को मिला क्या हिन्दू क्या जैन। रँगे रंग में जब रहे सकें रंग क्यों भूल। क्या उसकी है सोहती नहीं नयन में सोत। पूजन जोग जिसे कहें पूजित-जन बनदास। आव भगत उसका करें पूजें पाँव सचाव। बिना बीज क्यों बेलि हो बिना तिलों क्यों तेल। क्या निर्गुण है? है भला किसको निर्गुण ज्ञान। चित भीतर ही है नहीं जो चित रहे सचेत। विपुल बीज अंकुरित हो अंकुर सकल समेत। जोत नहीं तम में मिली लाखों बार
टटोल। 23. बन-कुसुमएक कुसुम कमनीय म्लान हो सूख विखर कर। अहो कुसुम यह सभी बात में परम निराला। देख देख मुख हृदय-हीन-जन अकुलाने से। कहा सुजन ने कहाँ नहीं दुख-बदन दिखाता। कीड़ों से क्या कभी नहीं वह नोचा जाता। कहीं भला है अपने रँग में मस्त
दिखाना। यदि बाटिका-प्रसून टूटते ही कुम्हलाता। बिकच बदन है विपल काल में भी दिखलाता। बन-प्रसून-पंखड़ी कभी जो थी
छबि थाती। मिल कर तिल के साथ सुवासित तेल बनाती। जो जग-हित पर प्राण निछावर है कर पाता। 24. सेवादेख पड़ी अनुराग-राग-रंजित रवितन में। 25. सेवा-1जो मिठाई में सुधा से है अधिक। हो न जिसमें जातिहित का रंग कुछ। बेकसों की बेकसी को देख कर। तो न पाया दूसरों का दुख समझ। उस कलेजे को कलेजा क्यों कहें। 26. पुण्यसलिलाहै पुनीत कल्लोल सकल कलिकलुष-विदारी। वन्दनीयतम वेद मंत्रा से है अभिमंत्रिात। पाहन उर से हो प्रसूत सुरधाुनि की
धारा। ब्रज-भू ब्रजवल्लभ पुनीत रस से बहु-सरसी।
जो यह भारत-धारा न सुर धाुनि-धारा पाती। है वह माता दयामयी ममता में माती। भूतनाथ किस भाँति भवानी-पति कहलाते। राजा हो या रंक अंक में सब को लेगी। चतुरानन ने उसे चतुरता से अपनाया। फैली हिमगिरि से समुद्र तक सुरसरि धारा। 27. भगवती भागीरथीकलित-कूल को धवनित बना कल-कल-धवनि द्वारा। बूँद बूँद में वेद-वैद्युतिक-शक्ति भरी है। वैदिक-ऋषि के बर-विवेक-पादप का थाला। वह हिन्दू-कुल कलित कीर्ति की कल्पलता है। वह अब भी है बिपुल-जीवनी-शक्ति बितरती। वह सुधिा है उस आत्म-शक्ति की हमें दिलाती। वह है महिमा मयी देव महिदेव समर्चित। है अवगत
पर कहाँ हमें है महिमा अवगत। पूत सदा लाखों अपूत करे कर सकते हैं। क्यों गौरव का गान करें गौरव जो खोवें। 28. बनलताकुसुम वे उस में बिकसे रहें। बहु-विमोहक हो छबि-माधुरी। सब दिनों अनुराग-समीर के। उस मनोरम-पादप-अंक में। नवलता भुवि हो बर-भाव की। रस मिले, सरसा बन सौगुनी। यदि नहीं पग बन्दित पूज के। सरसता उस में वह है कहाँ। विकच देख उसे बिकसी रही। वह सदा परहस्त-गता रही। झड़ पड़ी, न रुची हित-कारिता। कब नहीं भरता वह भाँवरें। विलसती वह है बस अंक में। उपल कोमलता प्रतिकूल है। बनलता यदि है तरु-बन्दिनी। 29. परिवर्तनतिमिर तिरोहित हुए तिमिर-हर है दिखलाता।
परिवर्तन है प्रकृति नियम का नियमन कारक। किन्तु समय अनुकूल नहिं हुए परिवर्तित हम। जो कुचाल हैं हमें चाव की बात बतातीं। जीवन के सर्वस्व जाति नयनों के तारे। कहीं लाल हैं ललक ललक कर लूटे जाते। जिस अछूत को छूतछात में पड़ नहिं छूते। केवल व्यय से धान कुबेर निर्धन होवेगा। हम में परिवर्तन पर हैं परिवर्तन होते। मुनिजन वचन महान कल्पतरु से हैं कामद। मंदार मंजुमाला नहीं मानी जाती परिमलित।10। यदि है जी में चाह जगत में जीयें जागें। प्रभो जगत जीवन विधायिनी जाति-हमारी। 30. मनोव्यथा-1कुम्हला गया हमारा फूल। बंद हुई ऑंखों को खोलो। खोजें तुम्हें कहाँ हम प्यारे। इतने बने लाल क्यों रूखे। प्यारे कैसे मुँह दिखलाएँ। 31. मर्म-व्यथाकहाँ गया तू मेरा लाल। पुलकित उर में रहा बसेरा। तू था सब घर का उँजियाला। अभी आँख तो तू था खोले। देखा दीपक को बुझ पाते। चपला चमक दमक सा चंचल। आकुल देख रहा अकुलाता। तेरा मुख बिलोक कुँभलाया। ममता मयी बनी यदि माता। किस मरु-महि में जीवन-धारा। आज हुआ पवि-पात हृदय पर। 32. चन्दा मामाचन्दा मामा दौड़े आओ, मैं तैरा मृग छौना लूँगा, 33. आँसूबाढ़ में जो बहे न बढ़ बोले। अड़ अगर बार बार अड़ती है। फेर में
डालते हमें जो थे। जान जिन में है जान वाले वे। हैं उन्हें देख आग लग जाती। जो सकें सींच सींच तो देवें। हैं
छलकते उमड़ उमड़ आते। चाल वाले न कब चले चालें। खर खलों के मिले जलन से जल। जो उन्हें था बखेरना काँटा। 34. उलहनावही हैं मिटा देते कितने कसाले। बिगड़ती हुई बात वे हैं बनाते। भलाई को वे हैं
बहुत प्यार करते। नहीं करते वे देश-हित से किनारा। जो कुढ़ता है जी तो उसे हैं मनाते। यही सोच ऐ उर्दू के जाँ निसारो। मुझे बात यह आजकल है सुनाती। तनिक जो समझ बूझ से काम लेंगे। जिसे मैंने देहली में न जन कर जिलाया। हमीं से है उर्दू का जग में पसारा। भला मैंने उरदू का क्या है बिगाड़ा। बरहमन के बेटे बड़े मन सुहाते। मुसल्मान हो पा बहुत ऊँचा पाया। बड़े भाव से आरती कर हमारी। कहे देती हूँ बात यह मैं पुकारे। गुसाँई ने जिसमें रमायन बनाई। जो है देश में सब जगह काम आती। जिसे सूर ने दे दिया रंग न्यारा। बहुत राजों
ने पाँव जिसका पखारा। सदा मीर का ढंग है जी लुभाता। उमग आप उरदू को दिन दिन बढ़ावें। हरा देखकर पेड़ अपना लगाया। मगर आप से मुझ को इतना है कहना। बहुत कह चुकी अब नहीं कुछ कहूँगी। प्रभो! तू बिगड़ती हुई सब बना दे। 35. विद्यालयहै विद्यालय वही जो परम मंगलमय हो। होगा भवहित मूल भूत उस विद्यालय का। शुभ आशाएँ वहाँ समर्थित रंजित होंगी। जिसमें कलह विवाद वाद आमंत्रित होवे। प्राय: है यह बात आज श्रुति गोचर होती। अपना अपना राग व अपनी अपनी डफली। जाति जाति की सभा जातियों के विद्यालय। जिसमें केन्द्रीकरण नहीं वह सभा नहीं है। यह विचार औ समय-दशा पर डाल निगाहें। प्रभो देश में जितने हिन्दू विद्यालय हों। 36. आ री नींदआ री नींद, लाल को आ जा। 37. एक तिनकामैं घमण्डों में भरा ऐंठा हुआ ।
मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा । जब किसी ढब से निकल तिनका गया । 38. आँख का आँसूआँख का आँसू ढलकता देख कर। ओस की बूँदें कमल से हैं कढ़ी। या जिगर पर जो फफोला था पड़ा। पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ। प्यास थी इस आँख को जिसकी बनी। ठीक कर लो जाँच लो धोखा न हो। आँख के आँसू समझ लो बात यह। हो गया कैसा निराला वह सितम। झाँकता फिरता है कोई क्यों कुआँ| रंग क्यों निराला इतना कर लिया। बात अपनी ही सुनाता है सभी। आँख के परदों से जो छनकर बहे। हम कहेंगे क्या कहेगा यह सभी। है सगों पर रंज का इतना असर। क्या सुनावेंगे भला अब भी खरी। बात चलते चल पड़ा आँसू थमा। क्या हुआ अंधेर ऐसा है कहीं। देखकर मुझको सम्हल लो, मत डरो। इस गुलाबी गाल पर यों मत बहो। नागहानी से बचो, धीरे
बहो। क्यों न वे अब और भी रो रो मरें। दिल किया तुमने नहीं मेरा कहा। पास हो क्यों कान के जाते चले। आँसुओं की बूँद क्यों इतनी बढ़ी। आँख का आँसू बनी मुँह पर गिरी। भर गयी काजल से कीचड़ में सनी। दिल से निकले अब कपोलों पर चढ़ो। जी बचा तो हो जलाते आँख तुम। काम क्या निकला हुए बदनाम भर। गाल के उसके दिखा करके मसे। लाल आँखें
कीं, बहुत बिगड़े बने। बूँद गिरते देखकर यों मत कहो। है यहाँ कोई नहीं धुआँ किये। देख करके और का होते भला। पाप करते हैं न डरते हैं कभी। है हमारे औगुनों की भी न हद। किस तरह का वह कलेजा है बना। वह कलेजा हो कई टुकड़े अभी। पाप में होता है सारा दिन वसर। बू बनावट की तनिक जिनमें न हो। 39. बादलसखी ! बादल थे नभ में छाये वे विविध रूप धारण कर वे कभी स्वयं नग सम बन वे पहन कभी नीलाम्बर बहुश: –खन्डों में बँटकर वे रंग बिरंगे रवि की वे पवन तुरंगम पर चढ़ घन कभी घेर दिन मणि को 40. सरिताकिसे खोजने निकल पड़ी हो। क्यों दिन–रात अधीर बनी–सी। कभी फैलने लगती हो क्यों। कौन भीतरी पीड़ाएँ। बहुत दूर जाना है तुमको पर तुमको अपनी ही धुन है। उषा का अवलोक वदन। क्यों प्रभात की प्रभा देखकर। 41. अनूठी बातेंजो बहुत बनते हैं उनके पास से, और की खोट देखती बेला, तुम भली चाल सीख लो चलना, सध सकेगा काम तब कैसे भला, खिल उठें देख चापलूसों को, तब टले तो हम कहीं से क्या टले, है सदा काम ढंग से निकला बेहयाई, बहक, बनावट नें, फल बहुत ही दूर छाया कुछ नहीं 42. दमदार दावेजो आँख
हमारी ठीक ठीक खुल जावे। हम उस महान जन की संतति हैं न्यारी। था हमें एक मुख पर दस-मुख को मारा। हम हैं सुधोनु लौं धारा दूहनेवाले। तो रोम रोम में राम न रहा
समाया। तप के बल से हम नभ में रहे बिचरते। 43. विबोधनखुले न खोले नयन, कमल फूले, खग
बोले; 44. आदर्शलोक को रुलाता जो था राम ने रुलाया उसे पाँव छू छू उनके तरे हैं छितितल पापी हो के बनबासी गिरिबासी को तिलक सारा पातक-निकंदन के पदकंज पूज पूज 45. क्या होगाबहँक कर चाल उलटी चल कहो तो काम क्या होगा।
बही जी में नहीं जो बेकसों के प्यार की धारा। दुखी बेवों यतीमों की कभी सुधा जो नहीं ली तो। अगर जी से लिपट करके नहीं बिगड़ी बना पाते। बकें तो हम बहुत, पर कर दिखावें कुछ न भूले भी। लगीं ठेसें कलेजे पर बड़ों के जिन कपूतों से। करेंगे
क्या उसे लेकर, नहीं कुछ आन है जिस में। बने सब दोस्त बेगाने सगों की आँख फिर जावे। दवाएँ भी नहीं जिसके गले से हैं उतर सकतीं। न कुछ भी तेज हो जिसमें बनेगा करतबी वह क्या। डुबा कर जाति का बेड़ा जो हैं कुछ रोटियाँ पाते। 46. अविनयढाल पसीना जिसे बड़े प्यारों से पाला। बालक ही है देश-जाति का सच्चा-संबल। बालक ही का सहज-भाव-मय मुखड़ा प्यारा। इन बातों को सोच आँख रख इन बातों पर। विनय करों में सकल सफलता की है ताली। किन्तु हमारी नई पौधा उससे बिगड़ी है। अनुभव वह संसार का तनिक भी नहिं रखती। बहुत-बड़ा-अनुभवी राज-नीतिक-अधिकारी। उसके इस अविवेक और अविनय के द्वारा। पिटी तालियों में पड़ देश रसातल जावे। जिनके रज औ बीज से उपज जीवन पाया। पर उसका अपराध नहीं इसमें है इतना। आत्मत्याग है कहीं आत्मगौरव से गुरुतर। किन्तु जब नहीं उसने इन बातों को
जाना। प्रभो! हमारी नई पौधा निजता पहचाने। 47. नादानकर सकेंगे क्या वे नादान। है नादान सदा नादान। है नादान अंधेरी रात। है नादान सदा का कोरा। नादानों से पड़े न पाला। 48. चतुर नेताबातें रख रख बात बात में बात बनावें। 49. बंदर और मदारीदेखो लड़को, बंदर आया, एक मदारी उसको लाया। 50. निर्मम संसारवायु के
मिस भर भरकर आह । उधर रवि आ पसार कर कांत । 51. प्रार्थनाहे दीनबंधु दया-निकेतन विहग-केतन श्रीपते। बहु-मूल्यता से
वसन की भारत न कम आरत रहा। इस बार जन-संहार जो है प्रति-दिवस प्रभु हो रहा। कुम्हला गईं कलियाँ विपुल, बहु फूल असमय झड़ पड़े। बहु भाग्य-मन्दिर का कलश-कमनीय निपतित हो गया। तब भी द्रवित नहिं तुम हुए, हैं वैसिही भौंहें तनी। गज पशु कहा अवलोक
ग्राह-ग्रसित उसे पहुँचे वहीं। जब व्याध का अपराध भी अपराध नहिं माना गया। बहु व्याधि घन माला घुमड़ भारत-गगन में है घिरी। आकुल बने व्याकुल-नयन से विपुल-वारि विमोचते। 52. कमनीय कामनाएँवर-विवेक कर दान सकल-अविवेक निवारे। प्यारी न्यारी प्रभु-पद-रता कान्त चिन्ता उपेता। कुफल 'फूल' कदापि न दे सकें। नयन हों हित अंजन से अंजे। मधुरिमा-मय हो बचनावली। 53. गुणगानगणपति गौरी-पति गिरा गोपति गुरु गोविन्द। देव भाव मन में भरे दल अदेव अहमेव। पाप-पुंज को पीस गुरु त्रिविध ताप कर दूर। हर सारा अज्ञान-तम
बन भवसागर-पोत। जनरंजन होता नहीं कर-गंजन तम-मान। कौन बिना गुरु के हरे गौरव-जनित-गरूर। बिना खुली जन आँख को खोल न पाता आन। बाद क्यों न गुरु से करें चेले कलि अनुरूप। गुरु-सेवा करते रहें गहें न उनकी भूल।
होता है सिर को नवा नर जग में सिरमौर। 54. माता-पिताउसके ऐसा है नहीं अपनापन में आन। मिले न खोजे भी कहीं खोजा सकल जहान। जो न पालता पिता क्यों पलना सकता पाल। कौन बरसता खेह पर निशि दिन मेंह-सनेह। छाती से कढ़ता न क्यों तब
बन पय की धार। सुत पाता है पूत पद पाप पुंज को भूँज। वे जन लोचन के लिए सके न बन शशि दूज। जो होते भू में नहीं पिता प्यार के भौन। जो होवे ममतामयी प्रीति पिता की मौन। ललक ललक होता न जो पिता लालसा लीन। 55. पुष्पांजलिराम चरित सरसिज मधुप पावन चरित नितान्त। सुरसरि धारा सी सरस पूत परम रमणीय। अमित मनोहरता मथी अनुपमता आवास। सकल अलौकिकता सदन सुन्दर भाव उपेत। जबलौं कवि कुल कल्पना करे कलित आलाप। 56. उद्बोधनवेदों की है न वह महिमा धर्म ध्वंस होता। सच्चे भावों सहित जिन के राम ने पाँव पूजे। जो धाता है निगम पथ का देवता है धारा का। सेना से है सबल जिस की सत्य से पूत बाणी। हो जाते थे विनत जिन के सामने चक्रवर्ती। 57. जीवन-मरणपोर पोर में है भरी तोर मोर की ही बान बीती बीरताएँ, बात उनकी बनातीं कैसे धूल आँख में जो झोंकते हैं उन्हें बंधु मान काठ हो गये हैं काठ होने के कुपाठ पढ़ मन मरा तन में तनिक भी न ताब रही 'दाब मानते हैं' यह भाव बार बार दब नवा नवा सिर को सहेंगे सिर पड़ी सारी कागज के फूल है गलेंगे बारि बूँद पड़े कान होते बहरे बने हैं अंधे आँख होते चूक जो हुई सो हुई चूकते
सदा क्यों रहें काँटे जैसे लघु चुभते हैं पड़े पाँव तले लट लट बार बार लोट लोट जाते जो न आन बान वाले बात अपनी बना हैं
रहे रोते रोते रातें हैं बिताते बहुतेरे लोग माल पर हाथ मार मार मालामाल बनें झोंपड़ी किसी की फुँकती है तो भले ही फुँके नानी मर जाती है कहानी वीरता की सुने कीट कहते हैं बनेंगे कीट पावस के कैसे खान पान के बखेड़े खड़े होंगे नहीं दुख हुए दूने हुए सुन्दर सदन सूने कटेंगे पिटेंगे नोचते हैं जो नुचेंगे आप पातकी जो पातक पयोनिधि समान होंगे बदरंग उनको अनेकता करेगी कैसे जगेंगे उठेंगे औ गिरावेंगे गरूरियों को प्रेम के निकेतनों के प्रेमिक परम होंगे 58. हमें चाहिएकपड़े रँग कर जो न कपट का जाल बिछावे। देशकाल को देख चले निजता नहिं खोवे। आँखों को दे खोल, भरम का परदा टाले। टके के लिए धूल में न निज मान मिलावे। करे आप भी वही और को जो सिखलावे। जो हो राजा और प्रजा दोनों का प्यारा। जिसे पराई रहन-सहन की लौ न लगी हो। जिसके हों ऊँचे विचार पक्के मनसूबे। बोल बोलकर बचन अमोल उमंग बढ़ावे। देख सभा का रंग, ढंग से काम चलावे। एँच पेच में कभी सचाई को न फँसावे। किसे असंभव कहते हैं यह समझ न पावे। कोई जिसे टटोल न ले आँखों के सेवे। जिसके धन से खुलें समुन्नति की सब राहें। ऊँच नीच का भेद त्याग सबको हित माने। 59. हमें नहीं चाहिएआप रहे कोरा शरीर के बसन रँगावे। मन का मोह न हरे, राल धान पर टपकावे। बूझ न पावे धर्म-मर्म बकवाद मचावे। न तो पढ़ा हो न तो कभी कुछ कर्म करावे। सीधे सादे वेद बचन को खींचे ताने। बके बहुत, थोथी बातें कह, मूँछें टेवे। चाहे सुनियम तोड़ ढोंग रचना मनमाने। घी मिलने की चाह रखे औ वारि बिलोवे। तह तक जिसकी ख समय पर पहुँच न पावे। निज पद गौरव साथ सभा को जो न सँभाले। 60. एक उकतायाक्या कहें कुछ कहा नहीं जाता। बे तरह दुख रहा कलेजा है। इन झड़ी बाँधा कर बरस जाते। चोट खा खा मसक मसक करके। थक गया, हाथ कुछ नहीं आया। 61. कुछ उलटी सीधी बातेंजला सब तेल दीया बुझ गया है अब जलेगा क्या। रहा जिसमें न दम जिसके लहू पर पड़ गया पाला। भले ही बेटियाँ बहनें लुटें बरबाद हों बिगड़ें। जिसे कहते नहीं अच्छा उसी पर हैं गिरे पड़ते। न जिसने घर सँभाला देश को क्या वह सँभालेगा। मरेंगे या करेंगे काम यह जी में ठना जिसके। नहीं कठिनाइयों में बीर लौं कायर ठहर पाते। रहेगा रस नहीं खो गाँठ का पूरी हँसी होगी। गया सौ सौ तरह से जो कसा कसना उसे कैसा। भला क्यों छोड़ देगा मिल सकेगा जो वही लेगा। सगों के जो न काम आया करेगा जाति-हित वह क्या। रँगा जो रंग में उसके बना जो धूल पाँवों की। करेगा काम धीरा कर सकेगा कुछ न बातूनी। न आँखों में बसा जो क्या भला मन में बसेगा वह। 62. प्यासी आँखेंकहें क्या बातें आँखों की । लगन है रोग या जलन है । 63. विवशतारहा है दिल मला करे । हो रहेगा जो होना है 64. चाहिएराह पर उसको लगाना चाहिए। हम रहेंगे यों बिगड़ते कब तलक। खा चुके हैं आज तक मुँह की न कम। हो गयी मुद्दत झगड़ते ही हुए। अनबनों के चंगुलों से छूट कर। पत उतरते ही बहुत दिन हो गये। चाल बेढंगी न चलते ही रहें। क्या करेंगी सामने आ उलझनें। ठोकरें
खाकर न मुँह के बल गिरें। रंगतें दिन दिन बिगड़ने दें न हम। जाँय काँटों से न भर सुख-क्यारियाँ। है भरोसा भाग का अच्छा नहीं। बे ठिकाने तो बहुत दिन रह चुके। है उजड़ने में भलाई कौन सी। जा रही है जान तो जाये चली। 65. उलटी समझजाति ममता मोल जो समझें नहीं। धूल झोंकें न जाति आँखों में। तो गिना जाय क्यों न खुदरों में। हित सचाई बिना नहीं होगा। पैन्ह मोटा न पेट मोटा हो। 66. समझ का फेरहै भरी कूट कूट कोर कसर। मेल बेमेल जाति से करके। अनसुनी बात जातिहित की कर। माँ बहन बेटियाँ लुटें तो क्या। बे समझ और आँख के अंधो। 67. सुशिक्षा-सोपानजी लगा पोथी अपनी पढ़ो। बड़ा ही जी को है दुख होता। स्वाति की बूँद जहाँ जा पड़ी। आहा! कितना है मन भाता।
नई पौधों से ही है आस। 68. भोर का उठनाभोर का उठना है उपकारी। लालिमा ज्यों नभ में छाती है। प्रात की किरणें कोमल प्यारी। प्रात-पवन है परम निराली। प्रात उठने में कभी न चूको। 69. कुसुम चयनजो न बने वे विमल लसे विधु-मौलि मौलि पर। 70. कृतज्ञतामाली की डाली के बिकसे कुसुम बिलोक एक
बाला। सुनो इसलिए तुम्हें चाहिए चुनते ही मचला जाओ। बोले कुसुम ऐ सदय-हृदये कृपा देख करके प्यारी। क्या उससे व्यवहार इस तरह का समुचित कहलावेगा। कहाँ भाग जो मेरे द्वारा माली का परिवार पले। आज या कि कल
कुम्हलाते ही पंखड़ियाँ भी झड़ जातीं। रंगालय सुर-सदन राज-प्रासादों में आदर पाना। सुख के कीड़े किसी काल में आदर मान नहीं पाते। 71. एक काठ का टुकड़ाजलप्रवाह में एक काठ का टुकड़ा बहता जाता था। 72. भाषाजातियाँ जिससे बनीं, ऊँची हुई, फूली फलीं। जो हुए निर्जीव हैं, उनको जिला देती है वह। आन में जिनकी दिखाती देश-ममता है निरी। है कलह औ फूट का जिसमें फहरता फरहरा। सूझती जिनको नहीं अपनी भलाई की गली। उस स्वकीय जाति-भाषा सर्वथा सुख-दानि की। खोलकर आँखें निरखिए बंग-भाषी की छटा। फिर कहें क्या आप उससे प्यार सकते हैं जता। क्यों चमकते मिलते हैं बंगाल में मानव-रतन। आँख उठाकर देखिए इस प्रान्त की बिगड़ी दशा। अल्प भी जो है खिंचा जातीय भाषा ओर चित। यह कथन सुन कह
उठेंगे आप तुम कहते हो क्या। जो उठाकर हाथ में दस साल पहले का गजट। बन-फलों को प्यार से खा छालके कपड़े पहन। हिन्द, हिन्दू और हिन्दी-कष्ट से होके अथिर। हो जहाँ पर शिर-धारों का आज दिन यों शिर फिरा। आज दिन भी गाँव गाँवों में अँधेरा है भरा। है नगर के वासियों में ज्ञान का अंकुर उगा। नागरी के नेह से हम लोग आये हैं यहाँ। निज धरम के रंग में डूबे, तजे निज बंधु-जन। जो अंधेरे में पड़ा है ज्योति में लाना उसे। आज का दिन है बड़ा ही दिव्य हित-रत्नों जड़ा। राज
महलों से गिनेगा झोंपड़ी को वह न कम। वह नहीं कपड़ा रँगेगा किन्तु उर होगा रँगा। दूर होवेगा उसी से गाँव गाँवों का तिमिर। दैनिकों के वास्ते हैं आज दिन लाले पड़े। मैं नहीं सकटेरियन हूँ औ नहीं हूँ बावला। किन्तु रह सकता नहीं यह बात बतलाये बिना। क्या गुलाबों पर करेंगे आप कमलों को निसार। भीम, अर्जुन की जगह पर गेव रुस्तम को बिठा। क्या हसन की मसनवी से आप होकर मुग्धा मन। जो नहीं, तो देखिए जातीय भाषा का बदन। भाग्य से ही राज उस सरकार का है आज दिन। हे प्रभो! हिन्दू-हृदय में ज्ञान का अंकुर उगे। 73. उद्बोधन-1सज्जनो! देखिए, निज काम बनाना होगा। सामने आके उमग कर के बड़े बीरों लौं। है कठिन कुछ नहीं कठिनाइयाँ करेंगी क्या। सामने आये हमारे जो रुकावट का पहाड़। उलझनों का जो पड़े राह में बारिधि कोई। मेहँदियों की तरह पिस जाँय भले ही लेकिन। क्यों न इस राह में नुच जाँय या कुचले जावें। जो इसी धुन में ही मिल जायँ कभी मिट्टी में। भगवे कपड़ों से नहीं काम चलेगा
प्यारे। स्वर्ग औ मुक्ति के झगड़ों से किनारे रह कर। निज नई पौधा की उर-भू में बड़ी ही रुचि से। जिन उरों में है घिरा पर-भाषा-ममता-तम। ऐसा कर करके सदा आप फले, फूलेंगे। 74. अभिनव कलाप्यार के साथ सुधाधार
पिलाने वाली। जो रहा मंजु मधुप, नागरी-कमल-पग का। देखिए आप इसे प्यार भरी आँखों
से। है जिसे सूझ मिली कान्ति मनोहर प्यारी। स्वर्ग-संगीत सरस आठ पहर है
होता। खींच देवेगी रुचिर चित्र यह दृगों आगे। यह सुना जाति-व्यथा आप को
जगा देगी। कंटकों मध्य खिला फूल है चुना जाता। आज जो बंग-धारा बीच जन्म यह पाती। जो कहीं भूल गया नागरी परम नेही। 75. आशालताकुछ उरों में एक उपजी है लता। एक भाषा देशभर को दे मिला। हैं अभी कुछ दिन हुए इसको उगे। आज तक हमने बहुत सींची लता। फल किसी ने अति सरस सुन्दर दिये। इन लताओं से कहीं उपयोगिनी। मंजु सौरभ के सहज संसर्ग से। जाति का सब रोग देगी दूर कर। हैं सभी आशालताएँ सुखमयी। किन्तु सब आशालताएँ व्यक्तिगत। 76. एक विनयबड़े ही ढँगीले बड़े ही निराले। तुम्हीं आज दिन जाति हित कर रहे हो। इसे देख हम हैं न फूले समाते। सुयश की ध्वजा जो सुरुचि की लड़ी है। जननि-गोद ही में जिसे सीख पाया। सभी जाति के लाल सुधा-बुधा के सँभले। मगर वह नई पौधा कितनी तुम्हारी। सुतों को, पड़ोसी मुसलमान
भाई। तुमारे सुअन प्यार के साथ पाले। भला कौन लिपि नागरी सी भली है। मगर इन दिनों तो यही है सुहाता। अगर अपनी जातीयता है बचाना। समय पर न कोई प्रभो चूक पावे। 77. वक्तव्यमति मान-सरोवर मंजुल मराल। कृपा कर कहें बर बदनारबिन्द। क्यों बिमुग्ध करते हैं मानव मानस। कल कौमुदी विकास विकासित निशि। उत्ताल तरंग-माला आकुल जलधि। अवलोक होता नहीं क्या चकित चित। एक एक रजकण है भाव प्रवण। रस-सोत कहाँ पर नहीं प्रवाहित। कर सका जो प्रवेश रस-सोत मध्य। जान सका जितना हो जो यह रहस्य। होगा वही निज देश सुत प्रेम मत। मानस मुकुर मधय उसी के, समस्त। हो सकेगा वही देश-दुख से दुखित। आत्म त्याग ब्रत ब्रती अचल अटल। होवेगा मधुर तर उसका कथन। पाकर उसी से जग प्रथित विभूति। उसी के प्रभाव से हैं प्रभावित वेद। पुनीत महाभारत तथा रामायण। ये पुनीत ग्रंथ सब हैं महा महिम। ये हैं वह अलौकिक प्रभामय मणि। ये हैं वह रमणीय, रंग-स्थल जहाँ। आत्मबल आत्म-त्याग आदि के आदर्श। दिखला सजीव दृश्य देश समुन्नति। अत: आज कर-बध्द है यह विनय। प्राप्त क्यों न किया जाय बहुमूल्य रत्न। बात यह सत्य है कि सकल महर्षि। किन्तु आप भी हैं उन्हीं के तो वंशधार। भला फिर होगा कौन कार्य असंभव। कालिदास भवभूति आदि महा कवि। इसी
पग-कल्पतरु-छाया में बिराज। फिर कैसे आप होंगे नहीं लब्धा काम। बसुधा ललाम भूता भारत अवनि। किन्तु आज भी है अति संकुचित दृष्टि। संघ शक्ति इस युग का है मुख्य धर्म। किन्तु हम आज भी हैं प्रतिकूल गति। जातीय सभाएँ जाति जाति के समाज। उनसे असहयोग पायेगा सुयोग। देवालय विद्यालय सभा औ समाज। गुथे हुए एक सूत्र में हैं जो कुसुम।
किन्तु तम में हैं वे ही जो हैं ज्योतिर्मान। प्रति दिन हिन्दू जाति का है होता ह्रास। धर्म पिपासा से हो हो बहु पिपासित। सामाजिक कतिपय
कुत्सित नियम। एक ओर काम-ज्वाला में है होता हुत। जिन्हें हम छूते नहीं समझ अछूत। उनका कलेजा क्या है पाहन गठित। कब तक रहें दुख-सिंधु में पतित। हमारे ही अविवेक का है यह फल। किन्तु आज भी न हुआ हृदय द्रवित। हिन्दू जाति जरा से है आज जर्जरित। सामने रखे जो गये विषय युगल। किन्तु क्या कर्तव्य किया गया है पालन। जिस कवि किम्वा कवि पुंगव का चित। काव्यता को कैसे प्राप्त होगा वह काव्य। जाति दुख लिखे जो न लेखनी ललक। भावुकता प्रिय कैसे बनें तो भावुक। नवरस मर्म जाना तो न जाना कुछ। जिस सुललित कला-निलय की कला। कविगण आप में है वह दिव्य ज्योति। टले विघ्न
बाधा होवे मंगल सतत। 78. गौरव गानवैदिकता-विधि-पूत-वेदिका बन्दनीय-बलि। वैदिक-धर्म न है प्रदीप जो दीप्ति गँवावे। पंचभूत से अधिक भूतियुत है विभु-सत्ता।
बिना मुहम्मद औ मसीह मूसा के माने। सत्य सत्य है, और सत्य सब काल रहेगा। हो वैदिक ए वेदतत्तव हम को थे भूले। कर कर बाल विवाह अबल बन थे बल खोते। भूल में पड़े, भूल को, समझ भूल न पाते। पिला उन्होंने दिया आत्मगौरव का प्याला। वह नवयुग का जनक विविध सुविधान विधाता। प्रतिदिन हिन्दू जाति पतन गति है अधिकाती। जाग जाग कर आज भी नहीं हिन्दू जागे। है अनेकता प्यार एकता नहीं लुभाती। क्या महिमामय वेद-मंत्र में है न महत्ता। सोचो सँभलो मत भूलो घर देखो भालो। 79. आती हैजी न बदला न रंगतें बदलीं। आँख खुल खुल खुली नहीं अब तक। भूल पर भूल हो रही है क्यों। बात सारी बिगड़ बिगड़ी। छिन रहे हैं कलेजे के टुकड़े। सब तरह की कमाई कायर की। रख सके बात जो नहीं अपनी। कम न सोये बहुत रहे सोये। मिल रहें मिल चलें मिलाप करें। देश का रंग रह सके जिससे। जो हमें बार-बार तंग करे। आँख से क्यों न वह बहे धारा। काम साधो सधा नहीं कोई। मर जिये जाति के लिए कितने। किस लिए जी लड़ा नहीं देते। 80. घर देखो भालोआँखें खोलो भारत के रहने वालो। क्यों छूत छात की छूत न अब तक छूटी। हैं बौध्द जैन औ सिक्ख हमारे प्यारे। नाना मत हैं तो बनें हम न मतवाले। क्यों बात बात में बहक बिगाड़ें बातें। क्या लहू रगों में रंग नहीं है लाता। 81. क्या से क्याक्यों आँख खोल हम लोग नहीं पाते हैं। था मन उमंग से भरा, दबंग निराला। थे धीर बीर साहसी सूरमा पूरे। थी विजय-पताका देश देश लहराती। स्वर्गीय दमक से रहा दमकता चेहरा। सुख-सोत हमारे आस पास बहते थे। 82. लानतानगयीं चोटें लगाई क्या कलेजा चोट खाता है। हुए अंधेर कितने आज भी अंधेर हैं होते। रहा कुछ भी न परदा बेतरह हैं खुल रहे परदे। हुए बदरंग, सारी रंगते हैं धूल में मिलतीं। खुलीं आँखें न
खोले पुतलियाँ हैं आँख की कढ़ती। न आँखें देखने पाईं न आँखों में लहू उतरा। पुँछे आँसू न बेवों के न हैं वे बेबहा मोती। घटे ही जा रहे हैं हम घटी पर है घटी होती। समय की आँख देखें आँख पहचानें समय की हम। सदा बेजान मरते हैं जियेंगे जान वाले
ही। 83. मांगलिक पद्यसारी बाधाएँ हरें राधा नयानानंद। चाव भरे चितवत खरे किये सरस दृग-कोर। विवुध वृन्द आराधित वुध सेविता त्रिकाल। सकल मंजु मंगल सदन कदन अमंगल मूल। मंगलमय होता रहे यह मंगलमय काल। कु शकुन दुरें उलूक सम तज मंगलमय देश। बाधित वसुधा को करे हर बाधा को अंश। करें गौरवित जाति को कर गौरव पर गौर। शुचि विचार वरविधि बलित बने यह रुचिर ब्याह। रख अविचल दृग सामने द्विजकुल बिरद महान। पुरजन परिजन सुखित हों
लहें समागत मोद। बसे अविकसित चित में अमित उमंग उछाह। विघ्न रहित बसुधा बने घर घर बढ़े उछाह। आराधना करते करें बाधाएँ सब दूर। सुमुख सुमुखता-वायु से टले अमोद-पयोद। उमग उमग घर घर बहे परम प्रमोद प्रवाह। विमुख विविधा बाधा करें करिवर-मुख दिनरात। कुशल मयी हो मेदिनी हो मंगलमय राह। 84. बांछाबरस बरस कर रुचिर रस हरे सरसता प्यास। भावुक जन के भाल पर हो भावुकता खौर। मिले मधुर स्वर्गीय स्वर हों स्वर सकल रसाल। उक्ति अलौकिकता लहे मिले अलौकिक ओक। कलित भाव से बलित हो पा रुचि ललित नितान्त। 85. निराला रंगबनें बनायें किन्तु बिगड़ती बात बनावें। 86. माधुरीअति-पुनीत-अलौकिकता भरी। नयन है किस का न बिमोहती। सरसता मय है सरसा-सुधा। स-रव है रव से पिक-पुंज के। विदित है तप की तपमानता। बहु-प्रफुल्ल किसे करती नहीं। कलित-कल्पलता कमनीय है। बिकच-पंकज मंजुल-मालती। कलित है विधु-कोमल-कान्ति सी। मधुमती बनती वसुधा रहे। 87. ललितललामसरस भाव मन्दार सुमन से गा गा कर अनुराग राग से बढ़ा चौगुनी चतुरानन से 88. ललना-लाभखुला था प्रकृति-सृजन का द्वार। रंग लाती थी हृदय-तरंग। चित्र-पट पर भव के उस काल। उमा सी महिमा मयी महान। अलौकिक केलि-कला-कुल कान्त। 89. जुगनूपेड़ पर रात की अँधेरी में। तो उँजाला न रात में होता। रात बरसात की अँधेरे
में। जगमगाएँ न किस तरह जुगनू। हैं कभी छिपते चमकते हैं कभी। स्याह चादर अँधेरी रात की। हम चमकते जुगनुओं को क्या कहें। मोल होते भी बड़े अनमोल हैं। क्यों न जुगनू की जमातों को कहें। जब कि पीछे पड़ा उँजाला है। रात बीते निकल पड़े सूरज। जी जले और जुगनू जो चमक कर सदा छिपा, उसकी। जगमगाते ही हमें जुगनू मिले। हैं बने बेचैन जुगनू घूमते। बे तरह वह क्यों जलाता है हमें। कौन जलते को जलाता है नहीं। मेघ काले, काल क्यों हैं हो रहे। 90. विषमतामंगल मय है कौन किसे कहते हैं मंगल। दीपक जल आलोक अति अलौकिक हैं पाते। नीचा देखे सदा सलिल है ऊँचा होता। भूतल से हो अलग हुआ मंगल का
मंगल। मरे जाति के लिए अमरता हैं जन पाते। 91. विकच वदनजो न परम कोमलता उसकी रही विमलता में ढाली। लोकप्यार-आलोकों से जो आलोकित वह हुआ नहीं। होकर सिक्त रुचिर रस से जो रसमयता उसकी न
बढ़ी। जो उदारता दया दान की दमक न दे उसको दमका। 92. स्वागतक्यों आज सूरज की चमक यों है निराली हो रही। क्यों हैं दिशाएँ हँस रहीं क्यों है गगन रँग ला रहा। क्या हैं कृपा कर आ रहे मेहमान वे सबसे बड़े। बहु विनय सी अनमोल मणि, बर बचन से हीरे बड़े। प्रभु पग कमल को छू यहाँ की भूमि भाग्यवती बनी। 93. चूँ चूँ चूँ चूँ म्याऊँ म्याऊँचूँ-चूँ
चूँ-चूँ चूहा बोले, 94. चमकीले तारेक्या चमकीले तारे हैं, 95. वसंतचावमय लोचन
का है चोर 96. तंत्री के तारटूट गये तंत्री के तार; 97. दीयाबड़ा ही सुंदर चमकीला; वह सुनहलापन है इसमें, तेज सूरज या तारों का हवा के पाले पलता है, उँजाला अंधियाले घर का, 98. मुरली की तानकहलाते हैं हिंदू-बालक, बनते हैं हिंदू-कुल-काल; रोम-रोम है देश-प्रेममय, रखते हैं न जाति से प्यार; हैं कल-हंस, चाल बक की-सी, हैं कल-कंठ, किंतु हैं
काक; हैं गज-दंत-समान द्विविधा गति, सुमन-माल-सज्जित हैं नाग; हिंदू ललना, लाल लालसा पर अपनी देते हैं वार; बात रहे, हठ रहे, रसातल जाय भले ही हिंदू-जाति; पर पग रज कर वहन झोंकते हिंदू ऑंखों में हैं धूल;
आग लगाता है निज घर में उनका परम निराला नेह; आकुल हूँ, है हृदय व्यथित अति कुल-कमलों की गति अवलोक; मनमोहन, विमोह सब हर लो, गा दो जन-मन-मोहन गान; 99. क्रान्तिहाथ में उसके हो वह दीप, पास
उसके हो वह वर बीन, धारा जिससे होती है धान्य, कांति जिसकी हो भव कमनीय, 100. कवित्तवैसी अब केलि की न कलित कलाएँ रहीं तालियाँ बजाएँगे कुलीनन के पीछे कौं लौं |