दलित विमर्श की अवधारणा क्या है? - dalit vimarsh kee avadhaarana kya hai?

                 शोधआलेख : दलितविमर्शकी अवधारणाऔरभक्तिकालीनहिंदीसाहित्य/ रामयश पाल 

शोधसार : 

प्रत्येकदेशकासाहित्यउस समाजकासमुचितआख्यानहोताहैजोमानव-जीवनसे संबंधितसमस्तहलचलोंकोप्रतिबंधितकरताहै।वर्तमानमें'दलित' शब्दऐसीजातियोंकीअस्मिताऔरअस्तित्वकोरेखांकितकरने मेंसक्षमहैजिसेभारतीयसमाजव्यवस्थामेंतथाकथित शूद्र-अतिशूद्रकहकरसदियोंसेअपमानितऔरशोषितकिया जातारहाहै।आधुनिकदलितविमर्शकाजोस्वरूपउपजा है, वहइन्हींधारणाओंकेबरक्सहै।भारतीयसमाज कीसंस्कृतिवर्ण-वादीसंस्कृतिरहीहैजिसमेंनिम्न औरउच्चजातिकीधारणामिलतीहै।इन्हींनिम्नऔर उच्चजातियोंकेविभाजनरेखाकोप्रश्नांकितकरतेहुए, दोनोंकोसमानभाव-भूमिपरव्याख्यायितकरनेकीचेष्टाकरती है।निश्चितहीयहचेष्टाआजकेसमयमें लोकतांत्रिकव्यवस्थाकासमर्थनकरतीहैजिसेहमदलितआंदोलनकेरूपमेंजानतेहैं।यहआन्दोलनहिंदीसाहित्यकोसमय-समयपरगहरेस्तरपरप्रभावितकरतेरहा हैजिसकीसुदीर्घपरम्पराबौद्धों, सिद्धों,नाथोंतथाकालान्तरमें व्यापकरूपमेंकबीर,रैदासआदिभक्तिकालीनकवियोंकेसाहित्यमेंप्रखररूपमेंविद्यमानपातेहैं।आधुनिकदलित वैचारिकीकोइससुदीर्घपरम्परासेजोड़करदेखनेकी आवश्यकताजानपड़तीहै।

बीजशब्द :

 मध्यकालीनता, आधुनिकता,उत्तरआधुनिकता,दलित,संस्कृति,विमर्श,अवधारणा,संवेदना,प्रासंगिकता,समाज, उपेक्षा,शोषण,अस्पृश्यताइत्यादि।

मूलआलेख : 

            दलितशब्दभारतीयसमाजमेंएकखासवर्गकेलिए प्रयुक्तहोताआधुनिकसंवेदनाकाप्रतिफलनहै,जिसकाअर्थ हिंदीशब्दकोशमेंमसला,रौंदायाकुचला।”1 हुआबतायागया है।भारतीयसमाजजातिव्यवस्थापरआधारितसमाजरहा हैजिसकेकारणनिम्नऔरउच्चजातीयसंरचनाकी अवधारणामिलतीहै, यानीसमाजमेंजिसकादलनहुआहो, दमनहुआहो,समाजमेंकिसीखासवर्णकेद्वारा उपेक्षित, घृणितसमझागयाहो, जातीय-दंशमेंशोषणएवं सतायाहुआहोआदिसमाजकीऐसीजातियोंकेसमूह कोआधुनिकसंवेदनामेंदलितकहकरसंबोधितकियाजाताहै। 

            'दलित' शब्दकोडॉ.शिवराजसिंहबेचैननेपरिभाषित करतेहुएकहाहै,दलितवहहैजिसेभारतीयसंविधान मेंअनुसूचितजातिकादर्जादियाहै।”2 इसीप्रकारदलित विचारककँवलभारतीकामाननाहै, दलितवहहैजिस परअस्पृश्यताकानियमलागूकियागयाहै।जिसेकठोर औरगंदेकार्यकरनेकेलिएबाध्यकियागयाहै। जिसेशिक्षाग्रहणकरनेऔरस्वतंत्रव्यवसायकरनेसे मनाकियागयाऔरजिसपरसछूतोंनेसामाजिक निर्योग्यताओंकीसंहितालागूकी, वहीऔरवहीदलित हैं”3

            राजेंद्रयादवदलितशब्दकीविस्तृत परिदृश्यमेंव्याख्याकरतेहैंऔरस्त्रियोंकोभी इसकेदायरेमेंरखतेहैं।उनकेविचारमेंयह व्यापकताइसलिएभीहैक्योंकिभारतीयसमाजमेंवह चाहेजिसवर्णयावर्गकीस्त्रियांरहीहों, उनके साथभीदमनकीनीति, शोषण, सामाजिक, शैक्षणिकसमेतअनेकसामाजिक संरचनाएंमिलतीहैं।इसलिएवेस्त्रियोंकोभीदलितमानते हैं।पिछड़ीजातियोंकोभीदलितोंमेंशामिलकरते हैं।”4.

दलितशब्दसाहित्यऔरसंवेदनाकेसाथजुड़कर ऐसीधाराकीओरबढ़नेकासंकेतकरताहैजो समस्तमानवीयसंवेदनाओंएवंउसकेसरोकारोंकीयथार्थअभिव्यक्ति हैजिसमेंसमता, बंधुताआदिलोकतान्त्रिकमूल्यसमाहितहैं।रामस्वरूप चतुर्वेदीनेलिखाहै,इसदेशकाएकसंविधान आर्यावर्तमेंमनुमहाराजनेरचाथाऔरदूसरादेश केलिएफिरसेस्वाधीनहोनेपरडॉ.अंबेडकरने रचा।मनुकेविधानमेंअंबेडकरकेलिएस्थाननहीं थायानहींजैसाथा।अंबेडकरकेविधानमेंमनु केलिएपूरास्थानहै।”5 इसटिप्पणीमेंमुख्यधारासे वंचितदलितअस्मिताकेसंपूर्णइतिहासलेखनपरखड़े किएगएसवालोंयावजहोंकाबहुतकुछस्पष्टहो जाताहै। 

दलितसाहित्यलेखनकेविषयमेंथोड़ा विवादस्वानुभूतिऔरसहानुभूतिपरकलेखनकीअवधारणाकोलेकर अवश्यहै।दलितविचारकोंकामाननाहैकिदलितकी स्वानुभूतिसेअनुप्राणितरचनायासाहित्यहीदलितसाहित्यहैऔरगैर-दलितोंद्वारालिखितसाहित्यकितनाभीदलित सवालोंकोसूक्ष्मसेसूक्ष्मतौरपरउकेरें, किंतु एक'फांक' कीगुंजाइशहमेशाबनीरहजातीहै, क्योंकि स्वयंकेभोगेहुएयथार्थकीअपेक्षा,अनुभवपर आधारितयथार्थकीअंतर-क्रियामेंअंतरस्वाभाविकतौर सेरहताहीहै।कँवलभारतीकीधारणाहैकि "दलितसाहित्यसेअभिप्रायउससाहित्यसेहैजिसमेंदलितों नेस्वयंअपनीपीड़ाकोरूपायितकियाहै।अपने जीवन-संघर्षमेंदलितोंनेजिसयथार्थकोभोगाहै, दलितसाहित्यउसकीअभिव्यक्तिकासाहित्यहै।"6यहठीक हैकिदलितसाहित्यकलाकेलिएकलानहीं,अपितु जीवनऔरजीवनजिजीविषाकासाहित्यहै। 

इसप्रकार दलितसाहित्यलेखनकेतीनरूपमिलतेहैं।पहला, वह जोदलितोंद्वारालिखितसाहित्यहैजहांस्वानुभूतिकाव्यापकसंसारहै।दूसरागैर-दलितोंद्वारालिखितसाहित्यजिसका इतिहासबहुतपुरानाहैऔरतीसरामार्क्सवादीवर्गसंघर्ष केढांचेपरदलितसन्दर्भकोसमझनेकीदृष्टिपर जोरदेताहै।मोहनदासनैमिशरायनेलिखाहै, शोषक वर्गकेखिलाफअपनेअधिकारोंकेलिएसंघर्षकरते हुएसमाजमेंसमता, बंधुतातथामैत्रीकीस्थापनाकरना हीदलितसाहित्यकाउद्देश्यहै।”7. इसलिएअधिकांशदलितविचारक मार्क्सवादीधारणासेदलितसाहित्यकीपरखकोतर्कसंगत स्वीकारनहींकरते।उनकामाननाहैकिदलितसाहित्य मार्क्सवादीवर्गसंघर्षकामात्रसाहित्यनहींहै, क्योंकिसामाजिक गैर-बराबरीकोसिर्फआर्थिकगैर-बराबरीमात्रसे नहींदेखाजासकता।दलितसाहित्यसामाजिक, राजनीतिक, आर्थिकआदि व्यापकसमाज-व्यवस्थासेबेदखलपददलित,दुःखएवंसंत्राससेउपजासाहित्यहैजोमूल्यऔरअधिकारके साथ-साथसामाजिकसंदर्भोंसेजुड़करसमूचेसमाजमेंअस्मिताऔरमूल्योंकीपहचानबनानाचाहताहै।दलितसाहित्य सामाजिकस्तरपरजातिगतगैर-बराबरीकापुरजोरविरोध करताहै।यहविरोधकीप्रवृत्तिमराठीसाहित्य, गुजरातीसाहित्य, राजस्थानीसाहित्यआदिजोभीदलितसाहित्यलेखनहो,इन सबमेंआक्रोश, पीड़ाऔरपरिवर्तनकासंकल्पजैसीबुनियादी चीजेंसमानरूपसेमिलतीहैं।

आजकेउत्तर आधुनिकताकेदौरमेंदलितविमर्शएकज्वलंतमुद्दा बनकरउभराहै।हालांकिदलितचेतनाकासाहित्यभारतीयसाहित्यइतिहासमेंबहुतपहले'बुद्ध', नाथों, सिद्धोंसेहोतेहुए कालांतरमेंकबीरदासआदिसंतोंकेयहांभारीमात्रा मेंमिलताहै।

दलितसाहित्यकावर्तमानमेंजो राष्ट्रीयजन-आंदोलनकास्वरूपहैजिसकेवैचारिकआधार डॉ. अंबेडकरतथाज्योतिबाफुलेहैं।इनदोनोंव्यक्तित्वों कानिर्माणइसीजमीनकेजीवन-संघर्षसेउपजाहुआ है। "डॉ.अंबेडकरकीआत्मकथामीकसाझालो (मैंकैसे बना) सेप्रेरणालेकरदलितसाहित्यकारोंनेआत्मकथाविकसित कीहैजोसमाजकोदर्पणदिखातीहै।"8. स्वयंज्योतिबा फुलेअपनेजीवनसंघर्षमेंक्रियाशीलरहकरसामंती-मूल्यों तथासामाजिकगुलामीकेविरुद्धआवाजबुलंदकी।डॉ.अम्बेडकरनेअपनेचिंतनमेंअनेकोंस्थलोंपरइसबात परजोरदियाहैकिदलितकाउत्थानएकराष्ट्र काउत्थानहै।उन्होंनेलिखाहै, "जबतकआपअपनी सामाजिकव्यवस्थाकोनहींबदलते, तबतकआपप्रगति केमार्गपरएककदमआगेभीनहींबढ़ सकते...आपराष्ट्रकानिर्माणनहींकरसकते, आपनैतिकता कानिर्माणनहींकरसकते।"9. यानी! सामाजिकगैर-बराबरीएक समतामूलक-राष्ट्रकीसंकल्पनाकेलिएबाधकहै।

हिंदी साहित्यमेंदलितविमर्शकेआंदोलनकीउपलब्धियोंपर बातकरतेहुएयहअवश्यहीस्वीकार्यहैकि हंसजैसीसाहित्यिकपत्रिकाकेसंपादक,आलोचक'राजेंद्रयादव' का भीअतुलनीययोगदानरहाहै,इससंदर्भमेंराजेंद्र जीकीपहलऔरउनकेमहत्त्वसेकोईइनकारनहीं करसकता, यहउनकाऐतिहासिकयोगदानहै।”10.

यहठीकहै किवर्तमानसंदर्भमेंदलितसाहित्य, स्त्री- साहित्यआदिअस्मितामूलक साहित्यजोअपनीअस्मिताएवंअस्तित्वकोलेकरपुरातनसाहित्यएवंसमाजकेद्वारानिर्मितमानदंडोंकेबरक्सअनेकों सवालोंसेजूझरहेहैं, आजइनकेअभावमेंसाहित्य कासमुचितविवेचनसंभवनहींहै,किंतुइनकीअभिव्यक्ति सहसाआजहीअस्तित्वनहींआयी,ऐसानहींहै, इनका भीव्यापकइतिहासरहाहैयदिहिंदीसम्पूर्णसाहित्येतिहास-लेखनपरदृष्टिपातकरेंतोभक्तिकालीनसाहित्यऐसादौररहा हैजिसमेंआजकेजैसेगहनसवालोंकीभीगंभीर चिंतनधारामिलताहै। इसप्रसंगमेंभक्तिकालीनसंतसाहित्यका महत्त्वपूर्णयोगदानरहाहै।इसधाराकेसंतजन,समूचे भारतीयपरिदृश्यपरऔरहिंदीक्षेत्रमेंविशेषतःसंत कहेजानेवालेकविअधिकतरतथाकथितनिम्नजातियोंसे उठकरऊपरआएथे।11.येनिम्नजातियांभारतीयसमाज मेंफैलेधार्मिकआडंबर, पाखंड, जातिगत(वर्णगत) असमानताजैसीअनेकों कुरीतियोंकोडटकरचुनौतीदीजोभारतीयजनतामें आपसीमतभेदऔरमनभेददोनोंस्तरोंपरबांटरखाथा। इसलिएइसयुगकोएकआंदोलनकेरूपमेंभी हमपातेहैं।

जाहिरहै,संतमतमेंजोवैचारिक प्रतिबद्धतादिखतीहै, वहइसआन्दोलनमेंबेहदमहत्त्वपूर्ण है।कबीरकाआविर्भावऐसेसमयमेंहुआथाजब भारतीयसमाजबाह्यऔरआंतरिकदोनोंरूपोंसेआतंकित था।आंतरिकतौरपरवेदशास्त्रकीनीतिकावर्चस्व जोसमाजकोऊंचा-नीचाजैसेविभागोंमेंबांट, शोषण व्यवस्थाकाभ्रमजालफैलारखाथाऔरबाहरीतौर परहिंदूऔरमुस्लिमकीआपसीसंघर्षथाजोधार्मिक पाखंडोंमेंमनुष्यकोमनुष्यसेविभेदकरताथा। कबीरकेकाव्यमेंबार-बारजातिजुलाहानामकबीरा, बनिबनिफिरौउदासी।”12. आयाहै।कबीरकाकईबार जातिकाउल्लेखआकस्मिकनहींहै, वस्तुतःकबीरदर्शन कायहकेंद्रीयबिंदुहैजोइनकीचेतनाकोखास रूपमेंप्रदानकरतीहै।कबीरकेइसजातीयगुहार कीगंभीरसमझकेबिनाहीहमकबीरकेसमाजकोसमझपाएंगेऔरहीकबीरकीचेतना को।

दरअसल! भक्तिकालीनसंतोंकीखोजएकमानवीयताकी खोजहै, इसलिएउनकाध्येयमनुष्यकोसामाजिकजकड़बन्दियोंसेमुक्तिकीकल्पनारहीहै।निःसंदेहयहकल्पनायथार्थ कीजमीनसेऊपजकरकालांतरमेंदादू,रैदास,नानक,मलूक आदिसंतभक्तोंतकफैली।इनसंतोंकीजमीन स्वानुभूतिकीअपनीजमीनथीजोमानवजीवनके बुनियादीअधिकारों, अस्तित्वोंऔरमर्यादाओंकेसाथजीवन-जगतऔर ईश्वरमेंखुदकोव्याख्यायितकरसके।संतोंकीयह पद्धतिआजकेदलितसंवेदनासेसीधाजुड़तीहै।

भक्तिसाहित्यसामूहिकताकासाहित्यहै।इसयुगमेंजहां कबीर, रैदासआदिसंतसमाजकेनिम्नजातिव्यवस्थासे मेलरखतेथे, वहींदूसरीओरसूरऔरतुलसी, नंददास आदिसगुण-पंथीअभिजातवर्गसेआतेथेतथाजायसी एवंकुतुबन, रहीमआदिमुस्लिमसमुदायसे।यहसामूहिकएकजुटताशायदसाहित्येतिहासमेंपहलीबारहुआथा।इससामूहिकताकी प्रमुखविशेषतायहरहीहैकिभक्तिसाहित्यकेआवरण मेंसभीएकसाथरंगेहोनेकेपश्चातभीइनका अपना-अपनावैचारिकसंघर्षरहाहैजोएकखासतरह कीवैचारिकप्रतिबद्धताकेसाथभक्तिसाधनामेंउतरेथे, इसीलिएसमाजमेंमानवताकीखोजकीदिशाएंअपनी-अपनी थीं।मुक्तिबोधनेलिखाहै, "मध्यकालीनसामंतीव्यवस्थामें धरतीपरसामंतोंकाअधिकारथातोधर्मपरउन्हीं केसमर्थकपुरोहितोंका।संतोंनेधर्मपरसे पुरोहितोंकायहइजारातोड़ा।खासतौरसेजुलाहों, कारीगरों, गरीब किसानऔरअछूतोंकोसांसलेनेकामौकामिला।"13.

कबीरमध्यकालीनसमाजव्यवस्थाकेवर्चस्ववादीसंरचनापरसवाल खड़ाकर,एकऐसेमार्गकीखोजकरतेहैंजहां ईश्वरसाधनामेंसभीकीसमानरूपसेभागेदारीहो, उन्होंनेकहाहै - 

          “एकबूदएकैमलमूतर, एक चाँमएकगूदा।

         एकजातिथैंसबउतपनाँ, कौनब्राह्मणकौनसूदा।।”14.

जाहिरहै, कबीरकायह सवालसमाजकीएकरूपताकाद्योतकहै।उन्हेंपताहै किमनुष्य, मनुष्यमेंजोअसमानताव्याप्तहैवहईश्वर नेनहीं, अपितुसमाजकेशास्त्रज्ञोंएवंपुरोहितोंनेकियाहैइसलिएवेइसमंत्रणाकोकिसीभीस्थिति मेंस्वीकारनहींकरते।

कबीरलोककीव्यापकसमझरखते हैं, किंतुइनकालोक, तुलसीआदिसगुणवादियोंकेलोकसेहटकरहै।इन्होंनेअपनेतत्कालीनसामाजिक, राजनीतिकतथाआर्थिकपहलुओं परगंभीरविचारकरतेहुएएकऐसेसमाजकीकल्पना कीजिसमेंसबसमानअधिकाररखतेहों।कबीरकादेश 'अमरदेसवा' हैजहांकोईकिसीकीजातिनहींपूछता-

           “जातिपूछोसाधुकीपूछलीजिएज्ञान।

           मोलकरोतलवारकी, पड़ारहनदोम्यान।।”15.

इस मतकेकवियोंकीयहबेबाकीनिश्चयहीहीनताबोधपर आत्मगौरवकाप्रमाणहैं, किंतुइसतरहकीउक्तियों(वाणियों) कासमाजशास्त्रयहीकहताहैकिकविस्वयंभलेही आहतहोकिंतुविरासतकोआहतकेपड़ावपरनहीं छोड़नाचाहता, यहएकआंदोलनकीमूलप्रवृत्तिहै।इन कवियोंकीकवितासामाजिकविषमताकोअच्छीतरहसमझती हैकिंतुसमझानावहीचाहतीहैजोउत्थानहेतु प्रेरणादायकहो

इनसंतकवियोंमेंभक्तिऔरईश्वर मेंअटूटविश्वासहै, इसलिएसमाजकेवंचिततबकेको ईश्वरआराधनामेंमोड़, मुक्तिकीपरिभाषागढ़तेहैं।इनमेंपरंपराऔरनवीनताकास्पष्टबोधथा, इसलिएपरंपरासे उतनाहीस्वीकारकरतेहैंजितनाइनकेविचारके प्रतिपादनकेलिएवांछनीयबनपड़ाथा।किंतुनवीनता कीजोजमीनतैयारकरतेहैं, वहसर्व-सुलभभी है, औरहितकारीभी।इनसभीसंतभक्तोंकेयहां परंपरागतधर्मकेकर्मकांड, बाह्याचारोंअथवासांप्रदायिकअसहिष्णुताका एकदमबहिष्कारहुआऔरनवीनपरिस्थितियोंकेअनुरूपसामाजिक व्यवस्थाकीसंकल्पनाहुई।यहीकारणहैकिकबीर'अमरदेसवा' जैसेराज्य-व्यवस्थाकीसंकल्पनाकरतेहैंतोरैदासबेगमपुराजहांकोईगमहो।जाहिरहैयहगमसामाजिकस्तर परजिसप्रकारकारहाथाउससेबिल्कुलमुक्त।संत रैदासनेलिखाहै-

         “ऐसाचाहूंराज्यमैं, जहांमिलैसबनकोअन्न। 

         छोट,बड़ोसभसम बसैं,रैदासरहैंप्रसन्न”16. 

            सगुणभक्त कवियोंमेंयदिकिसीकविकेयहांनिर्गुणऔरसगुण कासमन्यवयरूपमिलताहैतोतुलसीदासमें।तुलसीदास नेनिर्गुणकेप्रभावऔरवैचारिकसरोकारोंदोनोंको गंभीरतासेसमझाऔरअपनीअभिव्यक्तिमेंबड़ेही चालाकीसेपिरोया।तुलसीतकआते-आतेनिर्गुणका प्रभावअवश्यहीधीमापड़गयाहोगाक्योंकितुलसी केपूर्वसूरदासनेनिर्गुणकौनदेसकोवासी,सगुन रूपितजिनिरगुनध्यावहु, इकचितइकमनलाई’, याफिरयहनिरगुनलैतिनहिंसुनावहुँ, जेमुड़ियाबसैसन्यासी’, आदिअनेकोंवचनोंसेनिर्गुणमतवादपरकाफीकुछअंकुशलगातेआएथे।अतःतुलसीकेलिएबहुतअच्छाअवसरथा किदोनोंकोएकसाथरख,अपनेचिंतनकापरिष्कार करते,सोकियाभी।तुलसीवर्णाश्रमधर्मकेबड़े सजगकविथे,यहीकारणहैकिसंतोंकीवैचारिकी उन्हेंकुमार्गजानपड़ाहै,औरवर्णाश्रमव्यवस्थाटूटने सेक्षोभभीप्रकटकरतेहैं-

       “बेद-पुरान बिहाइसुपंथु,कुमारग,कोटिकुचालिचलीहै”17. 

तुलसीसाहित्य मेंजातिकासमर्थनऔरखंडनदोनोंमिलताहैऔर भारीअंतर्द्वंद्वकेसाथ।जातियोंकाजहांपरसमर्थ रूपदिखताहै, वहांवेदवादीसंरचनाकापूरासमर्थन रूपमें,यानिवेदकीयथास्थितिवादीदृष्टिऔरजहां खंडनरूपउभरकरआयाहै, वहांजातिवादीसंदर्भमें प्रगतिशीलदिखेहैं-

            “धूतकहोअवधूतकहो रजदूतकहोजुलाहाकहोकोई।

          काहुकिबेटीसों बेटाव्याहबकहुकिकीजातिबिगारसोई।।”18.  

किंतुइसप्रकारकीसंकल्पनाकाउनके'रामचरितमानस' मेंअभाव है।बादकीरचनाओंमेंअवश्यहीमिलजाते हैं. तुलसीकेमानसमेंकईऐसीपंक्तियाँढोल,गंवार, सूद्र, पशुनारी।सकलताड़नाकेअधिकारीमिलतीहैंजिससेयहसमझाजासकताहैकितुलसीनिर्गुणसंतोंकीवैचारिकक्रांतिसेबहुतकुछसंतुष्टथे।संतोंने जिसवेदअथवाशास्त्रसंबंधीधारणाकेविरोधमें अनुभवयुक्तज्ञानकीवैज्ञानिकप्रतिस्थापनापरबलदियाथा, वहतुलसीभक्तिपद्धतिकीविरोधिनीथी।रैदासने अपनीवैज्ञानिकदृष्टिकापरिचयदेतेहुएलिखाथा-

          “रविदासब्राह्मनमतिपूजिये,जउहोवैगुणहीन।

          पूजहिंचरन चंडालके, जऊहोवैगुनप्रवीन।।”19 

रैदासका झुकावज्ञानसेअधिकथा।तात्पर्यवहकोईभीजाति काहो, किंतुयदिज्ञानवानहैतोपूज्यनीयहै। इसकेबरक्सगोस्वामीजीकहतेहैंकि-

     “पूजिएविप्रसकलगुणहीनाशूद्रपूजहिंगुनज्ञानप्रवीना ।।”20. 

निष्कर्ष :

इसप्रकारहमदेखतेहैंकि भक्तिकालीनसाहित्यमेंव्यवहारिकऔरसैद्धांतिकदोनोंरूपोंमें वैचारिकसंघर्षमौजूदरहाहै,किंतुजिसवैचारिकताकी वैज्ञानिक (तार्किक) कसौटीजितनीगंभीररहीहै, उतनाहीवहव्यापकअसरतत्कालीनसमाजएवंसाहित्यसमेतवर्तमानतक उपस्थितहै।संतोंकीवाणियोंमेंजिसतार्किकताका उदाहरणमिलताहै, वहवर्तमानमेंभीसार्थकअसर छोड़ताहै,अपनेयुगीनपरिस्थितियोंकेअनगिनतअंतर्विरोधोंके बावजूदभी।भक्तिकालीनसाहित्यसृजनमेंविशेषकरसंतोंके यहाँजोवैचारिकतत्त्वमौजूदमिलताहै, वहआधुनिक दलितसंवेदनासेकईअर्थोंमेंजुड़ताहै।उसयुग केकबीर, रैदास, नानक, दादूआदिसंतोंकीवाणियाँइतनीप्रखर एवंतार्किकरहीहैंकिआधुनिकसंवेदनाकीकसौटियों मेंकसकरनवीनआधारप्रस्तुतकियाजासकताहै 

संदर्भ:

1.रामचंद्रवर्मा : प्रामाणिकहिंदीकोश, लोक भारतीप्रकाशन,नईदिल्ली,1997,  पृ.  391.

2.ओमप्रकाशवाल्मीकि : दलितसाहित्यकासौंदर्यशास्त्र, राधाकृष्णप्रकाशन,नईदिल्ली, 2014, पृ. 15.

3.वही, पृ. 11.

4.वही, पृ. 15.

5.रामस्वरूपचतुर्वेदी : हिंदी साहित्यऔरसंवेदनाकाविकास,लोकभारतीप्रकाशन,इलाहाबाद, 2010, पृ. 17.

6.ओमप्रकाशवाल्मीकि : दलितसाहित्यकासौंदर्यशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन,नईदिल्ली, 2014, पृ. 14.

7.वही,  पृ. 22.

8.वही, पृ. 19.

9. भीमरावअम्बेडकर : जातिकाविनाश (अनुवादक-राजकिशोर),फारवर्ड प्रेस,नईदिल्ली, 2019, पृ. 96.

10. राजेन्द्रयादव (सं.) :हंस(मासिक पत्रिका),दिल्ली,अगस्त-2004(अंक), पृ. 577.

11. रामस्वरूपचतुर्वेदी : हिंदी साहित्यऔरसंवेदनाकाविकास,लोकभारतीप्रकाशन,इलाहाबाद, 2010, पृ. 09.

12.श्यामसुंदरदास (सं.) : कबीरग्रंथावली,प्रकाशनसंस्थान, नई दिल्ली, 2008. पृ. 200.

13.गोपेश्वरसिंह (सं.) : भक्तिआंदोलनके सामाजिकआधार,जगतरामएण्डसंस, नईदिल्ली, 2018, पृ. 99.

14.श्यामसुंदरदास (सं.) :कबीरग्रंथावली, प्रकाशनसंस्थान, नईदिल्ली,2008, पृ. 148.

15.हजारीप्रसादप्रसादद्विवेदी :कबीर,राजकमलप्रकाशन,नईदिल्ली,1999, पृ. 247.

16.सुभाषचंद्र : संतरविदास,आधारप्रकाशन,पंचकूला (हरियाणा), 2012, पृ. 157.

17.गोस्वामीतुलसीदास : कवितावली(उत्तरकाण्ड),गीताप्रेस,गोरखपुर, सं-संवत-2074, पृ. 112.

18.वही,  पृ. 120.

19.सुभाषचंद्र : संत रविदास,आधारप्रकाशन,पंचकूला (हरियाणा),2012, पृ. 157.

20.गोस्वामी तुलसीदास : रामचरितमानस(अरण्यकाण्ड),गीताप्रेस,गोरखपुर,सं-संवत-2074, पृ. 542.              

रामयशपाल, शोधार्थी,केरलकेंद्रीयविश्वविद्यालय

                                                     8090323336,

दलित विमर्श की अवधारणा क्या है? - dalit vimarsh kee avadhaarana kya hai?

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

दलित विमर्श से आप क्या समझते हैं?

दलित विमर्श जाति आधारित अस्मिता मूलक विमर्श है। इसके केंद्र में दलित जाति के अंतर्गत शामिल मनुष्यों के अनुभवों, कष्टों और संघर्षों को स्वर देने की संगठित कोशिश की गई है। यह एक भारतीय विमर्श है क्योंकि जाति भारतीय समाज की बुनियादी संरचनाओं में से एक है।

दलित की अवधारणा क्या है?

अछूत, जिसे दलित भी कहा जाता है, आधिकारिक तौर पर अनुसूचित जाति, पूर्व में हरिजन, पारंपरिक भारतीय समाज में, निम्न जाति के हिंदू समूहों की एक विस्तृत श्रृंखला के किसी भी सदस्य और जाति व्यवस्था के बाहर किसी भी व्यक्ति के लिए पूर्व नाम।

दलित साहित्य की अवधारणा किसकी रचना है?

'दलित लेखन की मूल प्रेरणा मेहनतकश, शोषित और दलित व्यक्ति है। हिन्दू समाज व्यवस्था के निकृष्ट रूप ने उनको हमेशा पददलित किया। '

दलित साहित्य सारांश क्या है?

आधुनिक दलित साहित्य यह लेखन जाति के प्रश्न को सुधारता है और उपनिवेशवाद और मिशनरी गतिविधि के महत्व का पुनर्मूल्यांकन करता है । यह जाति को वर्ग या गैर-ब्राह्मणवाद में कम करने का विरोध करता है और जाति शक्ति के समकालीन कामकाज का विशद रूप से वर्णन और विश्लेषण करता है।"