रूस ने निभाई भारत से दोस्ती - roos ne nibhaee bhaarat se dostee

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'इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय महिलाओं में दुनिया में सबसे कम आकर्षण होता है।' इतना कहने के बाद वह थोड़ा रुके और फिर कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए कहा, 'वाकई, इसमें कोई शक नहीं। लोग काले अफ्रीकियों के बारे में कहते हैं कि उनमें क्या है? कम से कम उनमें जीवनशक्ति तो है। मेरा मतलब है कि उनमें एक छोटे जानवर जैसा आकर्षण होता है। लेकिन ये भारतीय, दयनीय!'

अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन पर दो चीज़ों का भूत सवार थे। एक तो उन्हें चीन से दोस्ती कर इतिहास बनाना था और दूसरे, भारत के प्रति उनका पूर्वाग्रह। तो जून 1971 की गर्मियों में जब पाकिस्तान अपने पूर्वी हिस्से के लोगों पर सितम ढा रहा था और दुनिया के ज़्यादातर लोगों को अंदाज़ा लग चुका था कि एक युद्ध होने जा रहा है, तब महाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति अपने शानदार वाइट हाउस के ओवल ऑफिस में बैठकर भारतीयों की सेक्स अपील पर चर्चा कर रहे थे।

आम चुनावों में पूर्वी पाकिस्तान के राष्ट्रवादियों की जीत के बाद भी पश्चिमी हिस्से ने उसे स्वीकार नहीं किया। उल्टे सेना ने राजनेताओं को बंदी बनाना शुरू कर दिया। ढाका यूनिवर्सिटी में 26 मार्च 1971 को बंगाली बुद्धिजीवियों, नेताओं का क़त्लेआम हुआ। पाकिस्तानी सेना ने अमेरिका के दिए हथियारों का इस्तेमाल किया आम जनता पर। जुल्म बढ़ने लगे और एक बड़ी आबादी सीमा पारकर भारत में आने लगी, शरण के लिए।

भारत में अमेरिका के राजदूत नीथ कीटिंग ने अपनी सरकार को स्थिति के बारे में आगाह किया। लेकिन निक्सन की प्रतिक्रिया थी, 'इन भारतीयों ने 70 साल के बूढ़े के साथ क्या किया?' निक्सन को अगले साल चीन के दौरे पर जाना था। यह एक ऐतिहासिक मौका होता। इस पल के साकार होने की एक ही सूरत थी कि अमेरिका इस संभावित टकराव में दखल न दे और अगर देना भी है तो पाकिस्तान के साथ खड़ा हो। निक्सन किसी हालत में पाक के ख़िलाफ़ जाकर उसके दोस्त और अपने भविष्य के संभावित साथी चीन को नाराज़ नहीं करना चाहते थे।


साल 1971 की लड़ाई युद्ध के मैदान में जाने से पहले कूटनीतिक वार्ता की मेज़ों पर लड़ी गई। अमेरिका साफ़-साफ़ पाकिस्तान की ओर झुक चुका था। चीन भी तैयार बैठा था अपने दोस्त का साथ देने को और भारत पर दबाव बढ़ता जा रहा था।

अर्जुन सुब्रमण्यम ने अपनी क़िताब 'फुल स्पेक्ट्रम : इंडियाज वार्स, 1972-2020' में लिखा है कि भारत के पास अप्रैल-मई के दौरान ही पूर्वी पाकिस्तान में सैन्य दखल देने का मौका था। हालात को देखते हुए तत्कालीन

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी चाहती भी थीं कि जल्द से जल्द ऑपरेशन शुरू कर दिया जाए। लेकिन सेना प्रमुख जनरल मानेकशॉ गर्मी और मॉनसून के दौरान युद्ध शुरू करने के पक्ष में नहीं थे। मुश्किल मौसम में उनकी सेना को दो मोर्चों पर लड़ना पड़ता और उनके हिसाब से यह सही नहीं था। ऐसे में सीधे हस्तक्षेप के बजाय भारत ने मुक्ति बाहिनी के हाथ मजबूत करने शुरू किए। बांग्लादेश की आज़ादी के लिए गुरिल्ला युद्ध शुरू हो गया ओर पाकिस्तानी सेना उसमें उलझ गई। इस मौके का इस्तेमाल किया इंदिरा गांधी और उनके विदेश मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ज़्यादा से ज़्यादा समर्थन जुटाने में।

इन यात्राओं का सबसे अहम पड़ाव आया अगस्त महीने की शुरुआत में। अब तक भारत जवाहरलाल नेहरू की गुटनिरपेक्ष नीति पर चला आ रहा था। अमेरिका और सोवियत संघ के बीच बंटी दुनिया में उसने अपना एक पाला खींच रखा था, जहां दोनों तरफ के लोग उसके दोस्त नहीं, तो दुश्मन भी नहीं थे। लेकिन उस साल अगस्त की 9 तारीख को सब बदल गया। भारत और सोवियत संघ के बीच एक संधि हुई, इंडो-सोवियत ट्रीटी ऑफ फ्रेंडशिप एंड कोऑपरेशन। दोनों देशों के लिए इसका बड़ा महत्व था। तब सोवियत संघ और चीन के बीच भी रिश्ते नरम-गरम वाले थे। सीमा विवाद चल रहा था। इस मुक़ाबले में उसे भारत के रूप में एक बड़ा साथी मिला। अमेरिका के ख़िलाफ़ शीत युद्ध में भी उसे हिंदुस्तान से बड़े सहारे की आस थी। वहीं, भारत ने इस संधि के ज़रिए अमेरिका-चीन-पाकिस्तान के गठजोड़ का जवाब देने की कोशिश की।

युद्ध के आगाज से पहले इंदिरा गांधी ने एक आखिरी प्रयास किया अमेरिका को समझाने का। नवंबर में वह कोशिश नाकाम हुई और तय हो गया कि लड़ाई होनी है।


पाकिस्तान के साथ चीन और अमेरिका का खुला समर्थन था। उसके सैनिकों के पास अमेरिकी हथियार थे। बस एक डर इन दोनों मुल्कों को लड़ाई में उतरने से रोक रहा था, सोवियत संघ। चीन चाहकर भी पाक का साथ नहीं दे सकता था, क्योंकि तब सोवियत संघ भी खुलकर सामने आ जाता। ऐसे में अमेरिका ने एक दांव खेला।

लेखक गैरी जे बैस ने अपनी क़िताब 'द ब्लड टेलिग्राम' में बताया है कि कैसे अमेरिका ने अपने जंगी बेड़े को बंगाल की खाड़ी में भेजा। बाद में निक्सन के सार्वजनिक हुए टेपों से भी पता चला कि अमेरिका की मंशा हमले की थी। हालांकि उस समय कहा गया कि वह अपने नागरिकों को ढाका से निकालना चाहता है। यह अलग बात है कि तब तक उसके नागरिक ढाका से सुरक्षित निकल चुके थे।

अमेरिका ने अपने जिस जंगी बेड़े को बंगाल की खाड़ी की ओर रवाना किया, उसमें 11 वॉरशिप थे। इनमें एयरक्राफ्ट और हेलिकॉप्टर कैरियर, विध्वंसक पोत शामिल थे। दूसरी ओर, भारत की ओर से था आईएनएस विक्रांत। देखा जाए तो दोनों नोसेनाओं की कोई तुलना नहीं बनती थी। अमेरिका की रणनीति यह थी कि वह बंगाल की खाड़ी में आगे बढ़ता जाएगा, जब तक कि भारत की फ़ौजें पीछे नहीं हट जातीं। इससे ज़मीन और समुद्र में घिरते जा रहे पाकिस्तान को थोड़ा और समय मिल जाता।

लेकिन, यह सारी प्लानिंग तब ध्वस्त हो गई, जब सोवियत संघ ने भी अपने एक जंगी बेड़े को अमेरिकी बेड़े की ओर भेज दिया। यहीं से निक्सन और उनके सलाहकारों की सारी सोच धरी की धरी रह गई। सोवियत संघ आगे बढ़ रहा था और भारत पीछे हटने को तैयार नहीं था। अमेरिकी बेड़े को ही लौटना पड़ा।

पाकिस्तान की मदद के लिए अमेरिका इस कदर आतुर था कि वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद तक भी गया। वहां भारत पर दबाव बनाने के लिए युद्ध विराम के प्रस्ताव लाए गए और हर बार सोवियत संघ ने अपने वीटो पावर का इस्तेमाल कर हिंदुस्तान को बचा लिया। अमेरिका को धमकी देनी पड़ी कि वह सोवियत संघ के साथ होने वाली शिखर वार्ता को रद्द कर देगा। लेकिन, यह धमकी कम खिसियाहट ज़्यादा थी।

आवाज़ : शबनम

क्या रूस भारत का दोस्त है?

रूस ही भारत का सच्चा साथी संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में भारत का साथ दिया है. 1971 के युद्ध में रशिया ने भारत सरकार के साथ ये समझौता किया था कि वो भारत पर हुए युद्ध को रशिया पर हुआ युद्ध मानेगा.

रूस और भारत की दोस्ती कब हुई?

1988: 1971 के बाद भारत और रूस की दोस्ती दुनिया भर के लिए मिसाल बन गई थी। दुनिया के दूसरे देश दोनों देशों की दोस्ती पर नजर लगानी शुरू कर दी।

रूस और भारत के संबंध कैसे हैं?

शीत युद्ध के दौरान, भारत और सोवियत संघ के बीच एक मज़बूत रणनीतिक, सैन्य, आर्थिक और राजनयिक संबंध थे। सोवियत संघ के विघटन के बाद, रूस को भारत के साथ अपने घनिष्ठ संबंध विरासत में मिले, जिसके परिणामस्वरूप दोनों देशों ने एक विशेष सामरिक संबंध साझा किया।

रूस ने भारत की कितनी बार मदद की?

भारत के पुराने मित्र के रूप में रूस ने हमेशान भारत का समर्थन किया है. जानकारी के अनुसार अबतक कुल मिलाकर छह बार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य रूस ने भारत के पक्ष में अपने वीटो पावर का प्रयोग किया है.