प्रारंभिक 60 वर्षों तक ईस्ट इंडिया कंपनी एक विशुद्ध व्यापारिक कंपनी थी। उसका उद्देश्य व्यापार करके केवल अधिक से अधिक लाभ कमाना था तथा देश में शिक्षा को प्रोत्साहित करने में उसकी कोई रुचि नहीं थी। इन वर्षों में शिक्षा के प्रोत्साहन एवं विकास हेतु जो भी प्रयास किये गये, वे व्यक्तिगत स्तर पर ही किये गये थे। इन प्रयासों के कुछ प्रमुख उदाहरण निम्नानुसार हैं-
कलकत्ता मदरसा एवं संस्कृत कालेज में शिक्षा पद्धति का ढांचा इस प्रकार तैयार किया गया था कि कंपनी को ऐसे शिक्षित भारतीय नियमित तौर पर उपलब्ध कराये जा सकें, जो शास्त्रीय और स्थानीय भाषाओं के अच्छे ज्ञाता हों तथा कंपनी के कानूनी प्रशासन में उसे मदद कर सकें। न्याय विभाग में अरबी, फारसी और संस्कृत के ज्ञाताओं की आवश्यकता थी ताकि वे लोग न्यायालयों में अंग्रेज न्यायाधीशों के साथ परामर्शदाता के रूप में बैठ सकें तथा मुस्लिम एवं हिन्दू कानूनों की व्याख्या कर सकें। भारतीय रियासतों के साथ पत्र-व्यवहार के लिये भी कंपनी को इन भाषाओं के विद्वानों की आवश्यकता थी। इसी समय प्रबुद्ध भारतीयों एवं मिशनरियों ने सरकार पर आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष एवं पाश्चात्य शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिये दबाव डालना प्रारंभ कर दिया क्योंकि-
1813 के चार्टर एक्ट से प्रशंसनीय शुरुआत इस चार्टर एक्ट में, भारत में स्थानीय विद्वानों को प्रोत्साहित करने तथा देश में आधुनिक विज्ञान के ज्ञान को प्रारंभ एवं उन्नत करने जैसे उद्देश्यों को रखा गया था। इस उद्देश्य के लिये कंपनी द्वारा प्रतिवर्ष 1 लाख रुपये की राशि स्वीकृत की गयी थी। किंतु इस राशि को व्यय करने के प्रश्न पर विवाद हो जाने के कारण 1823 तक यह राशि उपलब्ध नहीं करायी गयी। इस बीच कुछ प्रबुद्ध भारतीयों ने व्यक्तिगत स्तर पर अपने प्रयास जारी रखे तथा शिक्षा के विकास एवं शिक्षा संस्थानों की स्थापना के लिये भारी अनुदान दिया। इनमें राजा राममोहन राय का नाम अग्रगण्य है। उन्होंने 1817 में कलकत्ता हिन्दू कालेज की स्थापना के लिये भारी अनुदान दिया। शिक्षित बंगालियों द्वारा स्थापित इस कालेज में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जाती थी तथा पाश्चात्य विज्ञान और मानविकी (Humanities) पढ़ायी जाती थी। सरकार ने कलकत्ता, आगरा और बनारस में तीन संस्कृत कालेज स्थापित किये। इसके अतिरिक्त यूरोपीय वैज्ञानिक पुस्तकों का प्राच्य भाषाओं में अनुवाद करने के लिये भी अनुदान दिया गया। आंग्ल-प्राच्य विवाद Orientalist-Anglicist controversy लोक शिक्षा की सामान्य समिति में दो दल थे। एक दल प्राच्य शिक्षा समर्थक था और दूसरा आंग्ल शिक्षा समर्थक। प्राच्य-शिक्षा समर्थकों का तर्क था कि जहां रोजगार के अवसरों में वृद्धि के लिए पाश्चात्य विज्ञान एवं साहित्य के अध्ययन को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहां इसके स्थान पर परंपरागत भारतीय भाषाओं एवं साहित्य को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। दूसरी ओर आंग्ल-शिक्षा समर्थकों में शिक्षा के माध्यम को लेकर विवाद हो गया तथा वे दो धड़ों में विभक्त हो गये। एक धड़ा, शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा को बनाये जाने पर जोर दे रहा था तो दूसरा धड़ा, शिक्षा का माध्यम भारतीय (देशी) भाषाओं को बनाये जाने का पक्षधर था। आंग्ल एवं प्राच्य शिक्षा समर्थकों के मध्य इस विवाद से शिक्षा के प्रोत्साहन का मुद्दा अप्रभावी हो गया तथा इसके कई दुष्परिणाम निकले। लार्ड मैकाले का स्मरण पत्र, 1835 Lord macaulay’s minute, 1835 गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी परिषद के सदस्य लार्ड मैकाले ने आंग्ल-दल का समर्थन किया। 2 फरवरी, 1835 को अपने महत्वपूर्ण स्मरण-पत्र में उसने लिखा कि ‘सरकार के सीमित संसाधनों के मद्देनजर पाश्चात्य विज्ञान एवं साहित्य की शिक्षा के लिये, माध्यम के रूप में अंग्रेजी भाषा ही सर्वोत्तम है’ । मैकाले ने कहा कि “भारतीय साहित्य का स्तर यूरोपीय साहित्य की तुलना में अत्यंत निम्न है”। उसने भारतीय शिक्षा पद्धति एवं साहित्य की आलोचना करते हुए अंग्रेजी भाषा का पूर्ण समर्थन किया। मैकाले के इन सुझावों के पश्चात सरकार ने शीघ्र ही स्कूलों एवं कालेजों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बना दिया तथा बड़े पैमाने एवं अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने वाले स्कूलों एवं कालेजों की स्थापना की गयी। इस प्रकार सरकार जनसाधारण वर्ग के एक तबके को शिक्षित कर एक ऐसी श्रेणी बनाने की थी जो “रक्त एवं रंग से भारतीय हो परंतु अपने विचार नैतिक मापदण्ड, प्रज्ञा (intellect) एवं प्रवृत्ति (Taste) से अंग्रेज हो”। यह श्रेणी ऐसी हो कि यह सरकार तथा जन-साधारण के बीच दुभाषिये (interpreters) की भूमिका निभा सके। इस प्रकार पाश्चात्य विज्ञान तथा साहित्य का ज्ञान जनसाधारण तक पहुंच जायेगा। इस सिद्धांत को अधोगामी विप्रवेशन सिद्धांत (downward infiltration theory) के नाम से जाना गया। थामसन के प्रयास उत्तर-पश्चिमी प्रांत (आधुनिक उत्तर प्रदेश) के लेफ्टिनेंट गवर्नर जेम्स थामसन (1843-53) ने देशी भाषाओं द्वारा ग्राम शिक्षा की एक विस्तृत योजना बनायी। अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने वाले छोटे-छोटे स्कूलों को बंद कर दिया गया। अब केवल कालेजों में ही अंग्रेजी भाषा शिक्षा का माध्यम रह गयी। गांव के स्कूलों में कृषि विज्ञान तथा क्षेत्रमिती (mensuration) जैसे उपयोगी विषयों का अध्ययन प्रारंभ किया गया। अध्ययन के लिये देशी भाषाओं को माध्यम के रूप में चुना गया। इसके योजना के पीछे थामसन का उद्देश्य यह था कि नवगठित राजस्व तथा लोक निर्माण विभागों के लिये शिक्षित व्यक्ति उपलब्ध हो सकें। इसके अतिरिक्त एक शिक्षा विभाग का भी गठन किया गया। चार्ल्स वुड का डिस्पैच, 1854 सर चार्ल्स वुड, जो अर्ल आफ एबरदीन (1852-55) की मिली-जुली सरकार में बोर्ड आफ कंट्रोल के अध्यक्ष थे, 1854 में भारत की भावी शिक्षा के लिये एक विस्तृत योजना बनायी। “भारतीय शिक्षा का मैग्ना-कार्टा” कहा जाने वाला चार्ल्स वुड का यह डिस्पैच भारत में शिक्षा के विकास से संबंधित पहला विस्तृत प्रस्ताव था। इस डिस्पैच की प्रमुख सिफारिशें निम्नानुसार थीं-
1857 में कलकत्ता, बंबई तथा मद्रास में विश्वविद्यालय खोले गये तथा बाद में सभी प्रांतों में शिक्षा विभाग का गठन भी कर दिया गया। 1840 से 1858 के मध्य स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में किये गये प्रयासों को सार्थक परिणति तब मिली जब जे.ई.दी. बेथुन द्वारा 1849 में कलकत्ता में बेथुन स्कूल की स्थापना की गयी। बेथुन, शिक्षा परिषद (Council ofeducation) के अध्यक्ष थे । मुख्यतः बेथुन की अनुदान एवं निरीक्षण पद्धति के अधीन लाया गया। इसी समय पूसा (बिहार) में कृषि संस्थान तथा रुड़की में अभियांत्रिकी संस्थान (engineering institute) की स्थापना की गयी। चार्ल्स वुड द्वारा अनुमोदित विधियां एवं आदर्श लगभग 50 वर्षों तक प्रभावी रहे। इसी काल में भारतीय शिक्षा का तीव्र गति से पाश्चात्यीकरण हुआ तथा अनेक शिक्षण संस्थायें स्थापित की गयीं। इस काल में शिक्षण संस्थाओं में प्रधानाध्यापक एवं आचार्य मुख्यतया यूरोपीय ही नियुक्त किये जाते थे। ईसाई मिशनरी संस्थाओं ने भी इस दिशा में अपना योगदान दिया। धीरे-धीरे निजी भारतीय प्रयत्न भी इस दिशा में किये जाने लगे। हन्टर शिक्षा आयोग, 1882-83 प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में प्रारंभिक योजनाओं की उपेक्षा कर दी गयी। वर्ष 1870 से जबकि शिक्षा प्रांतों में स्थानांतरित की गयी तो प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा की स्थिति और ख़राब हो गयी क्योंकि प्रान्तों के सिमित संसाधनों के कारण वे इस दिशा में अपेक्षित व्यय नहीं कर पा रहे थे। 1882 में सरकार ने डब्ल्यू.डब्ल्यू. हंटर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया, जिसे 1854 के पश्चात देश में शिक्षा की दिशा में किये गये प्रयासों एवं उसकी प्रगति की समीक्षा करना था। हंटर आयोग की समीक्षा का कार्य, केवल प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा तक ही सीमित था तथा विश्वविद्यालयों के कार्यों से इसका कोई संबंध नहीं था। इस आयोग ने सरकार को निम्न सुझाव दिये-
हन्टर शिक्षा आयोग के सुझावों के आने के पश्चात अगले 20 वर्षों में माध्यमिक एवं कालेज शिक्षा का तीव्र गति से विस्तार हुआ तथा भारतीयों ने इसमें सराहनीय योगदान दिया। अध्यापन एवं परीक्षा विश्वविद्यालयों की स्थापना भी गयी। जिनमें पंजाब विश्वविद्यालय (1882) एवं इलाहाबाद विश्वविद्यालय (1887) प्रमुख थे। भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में देश में राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण था। निजी प्रबंधन के तहत सरकार की धारणा यह थी कि शिक्षा के स्तर में गिरावट आ रही है तथा शिक्षण संस्थान राजनीतिक क्रांतिकारियों को पैदा करने वाले कारखाने मात्र बनकर रह गये हैं। राष्ट्रवादियों ने भी स्वीकार किया कि शिक्षा के स्तर में गिरावट आ रही है परंतु इसके लिये उन्होंने सरकार को दोषी ठहराया तथा आरोप लगाया कि सरकार अशिक्षा को दूर करने के लिये कोई सार्थक कदम नहीं उठा रही है। सन् 1902 में सर टामस रैले की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया गया, जिसका उद्देश्य विश्वविद्यालयों की स्थिति का आंकलन करना तथा उनकी कार्यक्षमता एवं उनके संविधान के विषय में सुझाव देना था। प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा इस कार्यक्षेत्र में सम्मिलित नहीं थी। इसकी सिफारिशों के आधार पर 1904 में भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम के अनुसार-
कर्जन ने गुणवत्ता एवं दक्षता के नाम पर विश्वविद्यालयों में सरकारी नियंत्रण अत्यधिक कड़ा कर दिया। लेकिन उसका वास्तविक उद्देश्य राष्ट्रवाद के समर्थक शिक्षितों की संख्या को रोकना तथा उन्हें सरकारी भक्त बनाना था। राष्ट्रवादियों ने इस अधिनियम की तीव्र आलोचना की तथा इसे साम्राज्यवाद को सुदृढ़ करने के एक प्रयास के रूप में देखा। उन्होंने आरोप लगाया कि यह अधिनियम राष्ट्रवादी भावनाओं की हत्या कर प्रयास है। गोपाल कृष्ण गोखले ने इसे “राष्ट्रीय शिक्षा को पीछे की ओर ले जाने वाला अधिनियम” की संज्ञा दी। शिक्षा नीति पर सरकारी प्रस्ताव, 1913 1906 में प्रगतिशील रियासत बड़ौदा ने अपनी पूरी रियासत में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्रारंभ कर दी। राष्ट्रवादी नेताओं ने सरकार से पूरे ब्रिटिश भारत में ऐसी व्यवस्था करने का आग्रह किया। (गोखले ने विधान परिषद में इसकी सशक्त वकालत की)। शिक्षा नीति पर 1913 के अपने प्रस्ताव में सरकार ने अनिवार्य शिक्षा का उत्तरदायित्व लेने से तो इंकार कर दिया किंतु उसने अशिक्षा को दूर करने की नीति की जिम्मेदारी स्वीकार कर ली तथा प्रांतीय सरकारों से आग्रह किया कि वे समाज के निर्धन एवं पिछड़े वर्ग को निःशुल्क प्रारंभिक शिक्षा देने के लिये आवश्यक कदम उठायें। इस दिशा में उसने अशासकीय प्रयत्नों को प्रोत्साहित किया तथा सुझाव दिया कि माध्यमिक शिक्षा के स्तर में सुधार किया जाना चाहिए। सरकार ने प्रत्येक प्रांत में विश्वविद्यालय की स्थापना तथा विश्वविद्यालयों में शिक्षण कार्य को प्रोत्साहित करने का भी निर्णय लिया। सैडलर विश्वविद्यालय आयोग (1917-19) वर्ष 1917 में सरकार ने लीड्स विश्वविद्यालय के उप-कुलपति डा. एम.ई.सैडलर की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया, जिसका कार्य कलकत्ता विश्वविद्यालय की समस्याओं का अध्ययन कर इसकी रिपोर्ट सरकार को देना था। यद्यपि यह आयोग केवल कलकत्ता विश्वविद्यालय से ही सम्बद्ध था, किंतु इसकी सिफारिशें भारत के अन्य विश्वविद्यालयों के संबंध में भी सही थीं। इस आयोग ने प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालयीन स्तर तक की शिक्षा व्यवस्था का गहन अध्ययन किया। आयोग ने अनुमान लगाया कि यदि विश्वविद्यालयों शिक्षा में सुधार करना है तो इसके लिये पहले माध्यमिक शिक्षा के स्तर में सुधार लाना होगा। इस आयोग की सिफारिशें निम्नानुसार थीं-
1916 से 1921 के मध्य सात नये विश्वविद्यालय- मैसूर, अलीगढ़, ढाका, पटना, बनारस, उस्मानियां एवं लखनऊ अस्तित्व में आये। 1920 में सरकार ने सैडलर आयोग की रिपोर्ट को सभी प्रांतीय सरकारों से लागू करने का आग्रह किया। द्वैध शासन के अधीन शिक्षा Education under Dyarchy 1919 के माटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के अंतर्गत शिक्षा विभाग, प्रांतीय सरकारों को हस्तांतरित कर दिया गया तथा सरकार ने शिक्षा संबंधी मसले पर सीधे तौर पर रुचि लेनी बंद कर दी। यद्यपि सरकार द्वारा शिक्षा विभाग को 1902 से दी जा रही सहायता उदारतापूर्वक जारी रही। वित्तीय कठिनाइयों के कारण प्रांतीय सरकारें शिक्षा सम्बन्धी कोई योजना नहीं बना सकी किन्तु लोकोपकारी पुरुषों द्वारा शिक्षा संबंधी महत्वपूर्ण प्रयास जारी रहे। हर्टोग समिति, 1929 शिक्षण संस्थाओं की संख्या में अंधाधुंध वृद्धि के कारण शिक्षा के स्तर में गिरावट आने लगी। शिक्षा में हुये विकास के संदर्भ में रिपोर्ट देने के लिये वर्ष 1929 में सर फिलिफ हर्टोग की अध्यक्षता में एक समिति की नियुक्ति की गयी। इस समिति की प्रमुख सिफारिशें निम्नानुसार थीं-
मूल शिक्षा की वर्धा योजना, 1937 अक्टूबर 1937 में, कांग्रेस ने शिक्षा पर एक राष्ट्रीय सम्मेलन वर्धा में आयोजित किया। इस सम्मेलन में पारित किये प्रस्तावों के अंतर्गत, आधार शिक्षा (Basic education) पर राष्ट्रीय नीति बनाने के लिये जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गयी। इस समिति के गठन का मूल उद्देश्य था गतिविधियों के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करना। यह अवधारणा गांधी जी द्वारा हरिजन नामक साप्ताहिक पत्र में प्रकाशित लेखों की एक श्रृंखला पर आधारित थी। गांधीजी का मानना था कि पाश्चात्य शिक्षा ने मुट्टीभर शिक्षित भारतीयों एवं जनसाधारण के मध्य एक खाई पैदा कर दी है तथा इससे इन शिक्षित भारतीयों की विद्वता अप्रभावी हो गयी है। इस योजना को मूल शिक्षा की वर्धा योजना के नाम से जाना गया। इस योजना में निम्न प्रावधान थे-
शिक्षा की यह योजना नये समाज की नयी जिंदगी के लिये नये विचारों पर आधारित थी। इस योजना के पीछे यह भावना थी कि इससे देश धीरे-धीरे आत्मनिर्भरता एवं स्वतंत्रता की ओर बढेगा तथा इससे हिंसा-रहित समाज का निर्माण होगा। यह शिक्षा सहकारिता एवं बच्चों पर केंद्रित थी। किंतु 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ होने तथा कांग्रेसी सरकारों के त्यागपत्र देने के कारण यह योजना खटाई में पड़ गयी। शिक्षा की सार्जेन्ट योजना वर्ष 1944 केन्द्रीय शिक्षा मंत्रणा मंडल (Central Advisory Board of education) ने शिक्षा की एक राष्ट्रीय योजना तैयार की जिसे, सार्जेन्ट योजना के नाम से जाना जाता है। सर जान सार्जेन्ट भारत सरकार के शिक्षा सलाहकार थे। इस योजना के अनुसार-
इस योजना में 40 वर्ष में देश में शिक्षा के पुनर्निर्माण का कार्य पूरा होना था तथा इंग्लैण्ड के समान शिक्षा के स्तर को प्राप्त करना था। यद्यपि यह एक सशक्त व प्रभावशाली योजना थी किंतु इसमें इन उपायों के क्रियान्वयन के लिये कोई कार्ययोजना नहीं प्रस्तुत की गयी थी। साथ ही इंग्लैण्ड जैसे शिक्षा के स्तर को प्राप्त करना भी भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल न था। स्वतंत्रता के पश्चात राधाकृष्णन आयोग 1948-49 Radhakrishnan Commission 1948-49 नवंबर 1948 में राधाकृष्णन आयोग का गठन देश में विश्वविद्यालय शिक्षा के संबंध में रिपोर्ट देने हेतु किया गया था। स्वतंत्र भारत में विश्वविद्यालय शिक्षा के क्षेत्र में इस आयोग की रिपोर्ट का अत्यंत महत्व है। इस आयोग ने निम्न सिफारिशें की थीं-
(i) सामान्य शिक्षा (ii) सरकारी शिक्षा, एवं (iii) व्यवसायिक शिक्षा
इन्हीं सिफारिशों के आधार पर 1953 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का गठन किया गया तथा 1956 में संसद द्वारा कानून बनाकर इसे स्वायत्तशासी निकाय का दर्जा दे दिया गया। इस आयोग का कार्य विश्वविद्यालय शिक्षा की देखरेख करना, विश्वविद्यालयों में शिक्षा एवं शोध संबंधी सुविधाओं के स्तर की जांच करना तथा उनमें समन्वय स्थापित करना है। सरकार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के लिये पर्याप्त धन की व्यवस्था करती है। तदुपरांत आयोग देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों को धन आवंटित करने का सुझाव देता है तथा विश्वविद्यालय शिक्षा से संबंधित विभिन्न विकास योजनाओं को क्रियान्वित करता है। कोठारी शिक्षा आयोग 1964-66 Kothari Commission 1964-1966 जुलाई 1964 में डाक्टर दी.एस. कोठारी की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय आयोग का गठन किया गया। इसका कार्य शिक्षा के सभी पक्षों तथा चरणों के विषय में साधारण सिद्धांत, नीतियों एवं राष्ट्रीय नमूने की रुपरेखा तैयार कर उनसे सरकार को अवगत कराना था। आयोग की अमेरिका, रूस, इंग्लैण्ड एवं यूनेस्को के शिक्षा-शास्त्रियों एवं वैज्ञानिकों की सेवायें भी उपलब्ध करायीं गयीं थी। आयोग ने वर्तमान शिक्षा पद्धति की कठोरता की आलोचना की तथा शिक्षा नीति को इस प्रकार लचीला बनाये जाने की आवश्यकता पर बल दिया जो बदलती हुयी परिस्थितियों के अनुकूल हो। आयोग की सिफारिशों के आधार पर 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की गयी। जिसमें निम्नलिखित तथ्यों पर बल दिया गया-
शिक्षा के विकास हेतु किये गये अन्य प्रयास
देशी-भाषाई या स्थानीय शिक्षा का विकास Development ofvernacular education
तकनीकी शिक्षा का विकास 1887 में रुड़की में अभियांत्रिकी महाविद्यालय की (Engineering College) की स्थापना की गयी तथा 1856 में कलकत्ता अभियांत्रिकी महाविद्यालय अस्तित्व में आया। 1858 में पूना के ओवरसियर्स स्कूल का दर्जा बढ़ाकर उसे पूना इंजीनियरिंग कालेज में बदल दिया गया, तथा उसे बंबई विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कर दिया गया। गुइंदी इंजीनियरिंग कालेज (Guindy Engineering College) को मद्रास विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कर दिया गया। 1835 में कलकत्ता में चिकित्सा महाविद्यालय (Medical College) की स्थापना से चिकित्सा शिक्षा का शुभारंभ हुआ। लार्ड कर्जन ने विभिन्न व्यावसायिक पाठ्यक्रमों जैसे अभियांत्रिकी, चिकित्सा, कृषि एवं पशु चिकित्सा इत्यादि के उन्नयन एवं प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उसके प्रयत्नों से ही पूसा में कृषि महाविद्यालय की स्थापना हुयी। इस महाविद्यालय ने देश के अन्य भागों में स्थापित कृषि महाविद्यालयों के लिये संरक्षक की भूमिका निभायी। अंग्रेजों की शिक्षा नीति का मूल्यांकन
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