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नाट्यशास्त्र का रचनाकालकालिदास और भास नाटयशास्त्र के अच्छे जानकर थे। पाणिनी के पहले कृशाश्व और शिलाली के नाट्यसूत्र और उनके पहले भरत का मूल ग्रंथ मानें तो ई.स. पूर्व 8वीं से 10वीं शताब्दी का रचनाकाल माना जायेगा। संक्षेप में भरतनाट्य शास्त्र ई.पूर्व के कई शताब्दी पहले रचा गया था। नाट्यशास्त्र का स्वरूपअभिनव गुप्त के मतानुसार नाट्य शास्त्र के 36 अध्याय हैं। इसमें कुल 4426 श्लोक और गद्यभाग हैं। नाट्यशास्त्र की आवृतियां निर्णय सागर प्रेस, चौखम्बा संस्कृत ग्रंथमाला (गायकवाड़ प्राच्य विद्यामाला) द्वारा प्रकाशित हुई है। गुजराती के कवि नथुराम सुंदरजी की 'नाट्य शास्त्र' पुस्तक है, जिसमें नाट्य शास्त्र का सार दिया गया है। नाट्यशास्त्र के टीकाकारभरत के हाल ही में उपलब्ध नाट्यशास्त्र पर सर्वाधिक प्रमाणिक और विद्वत्तापूर्ण 'अभिनव भारती' टीका के कर्ता अभिनव गुप्त हैं। यह टीका ई.सन 1013 में लिखी गयी थी। अभिनव गुप्त के पूर्व नाट्यशास्त्र पर उद्भट त्नोल्लट, शंकुक, कीर्तिधर, भट्टनायक आदि ने टीकाएं लिखी थी। कालिदास, बाण, श्रीहर्ष, भवभूति आदि संस्कृत नाट्यकार नाट्य शास्त्र को सर्वप्रमाण मूर्धन्य मानते थे। नाट्यशास्त्र का विषयनाट्य शास्त्र में नाट्य शास्त्र से संबंधित सभी विषयों का आवश्यकतानुसार विस्तार के साथ अथवा संक्षेप में निरूपण किया गया है। विषयवस्तु, पात्र, प्रेक्षागृह, रस, वृति, अभिनय, भाषा, नृत्य, गीत, वाद्य, पात्रों के परिधान, प्रयोग के समय की जाने वाली धार्मिक क्रिया, नाटक के अलग अलग वर्ग, भाव, शैली, सूत्रधार, विदूषक, गणिका, गणिका, नायिका आदि पात्रों में किस प्रकार की कुशलता अपेक्षित है, आदि नाटक से संबंधित सभी वस्तुओं का विचार किया गया है। नाट्यशास्त्र ने जिस तरह से और जैसा निरूपण नाट्य स्वरूप का किया है, उसे देखते हुए यदि 'न भूतो न भविष्यति' कहें तो उचित ही है, क्योंकि ऐसा निरूपण पिछले 2000 वर्षों में किसी ने नहीं किया। नाटक के कतिपय लक्षण
भरतमुनि कहते हैं - नाट्य तो समग्र त्रिलोक के भाव का अनुकीर्तन है। नाटक का उद्देश्य दु:ख से पीड़ित, थके, शोक से पीड़ित लोगों और तपस्वियों को उचित समय पर विश्रांति देना है। नाटक में सभी कलाओं का संगम होता है। भरतमुनि कहते हैं कि प्रेक्षकों के मनोरंजन के साथ ही उनके बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास में भी नाटक निमित्त बनें। पन्ने की प्रगति अवस्था
टीका टिप्पणी और संदर्भभारतीय संस्कृति के सर्जक, पेज न. (35)
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