माता पिता के व्यक्तित्व का बाल विकास पर क्या प्रभाव पड़ता है? - maata pita ke vyaktitv ka baal vikaas par kya prabhaav padata hai?

Que : 9. बाल विकास को प्रभावित करने वाले सामाजिक एवं सांस्कृतिक संदर्भ का वर्णन कीजिए।

Answer:  बाल विकास के सामाजिक संदर्भ :

परिवार तथा स्कूल के वातावरण के बाद समाज बाल विकास को प्रभावित करने वाला प्रमुख अभिकरण है। सामान्यतः बाल विकास पर सामाजिक अंतःक्रियाएं और सामाजिक प्रत्यक्षीकरण अधिक प्रभाव डालते हैं।

(अ) सामाजिक अंत:क्रियाएं- सामाजिक अंतक्रियाओं से आशय बालक और समाज (के व्यक्तियों) के मध्य होने वाली क्रिया प्रतिक्रियाएं हैं। सामाजिक अन्तक्रियाओं से बालक का भाषागत, चरित्रगत, समाजीकरण तथा मानसिक विकास होता है। यह विकास प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दोनों रूपों में होता है।

सामाजिक अन्तक्रियाओं के निम्नलिखित रूप हैं-

(1) बालक-समुदाय की अंतक्रिया- बालक पासपड़ौस के सभी साथियों, दुकानदारों, सेवाकर्मियों, जननेताओं आदि से संपर्क में आकर विचरों व कार्यों का आदान-प्रदान करता है सहयोग, प्रेम, घृणा, सम्मान आदि संवेगों तथा भाषा, समाचार पत्र, पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाओं से वह अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता है तथा भाषागत विकास, सामाजिक विकास, मानसिक विकास, धार्मिक विकास, चारित्रिक व नैतिक विकास के तत्त्व आत्मसात करता है ।

(2) समूहों व व्यक्तियों से वैचारिक तथा भौतिक आदान-प्रदान- समाज में रहते हुए बालक व्यक्तियों के विभिन्न समूहों से अपनी भावनाओं व विचारों का आदान प्रदान करता है । साथ ही क्रय-विक्रय के रूप में भौतिक रूप से मुद्रा का लेन-देन भी करना सीखता है। उसकी ये अन्तक्रियाएं आर्थिक, सामाजिक विकास में असरकारक सिद्ध होती हैं ।

(3) सामाजिक अन्तक्रियाओं की दशाएं- बालक जब सामाजिक संपर्क करता है (चाहे वह विद्यालय में अपने संगी-साथियों के साथ की गई अन्तक्रिया ही हो) तो उसमें या तो सकारात्मक रूप से मित्रता, प्रेम, सहयोग, परोपकार, नैतिकता की भावनाएं व विचार उत्पन्न होते हैं अथवा संघर्ष, द्वेष, लड़ाई आदि नकारात्मक भावनाएं या विचार । बालक के सकारात्मक या नकारात्मक विकास में उक्त दोनों ही पक्ष शामिल होते हैं। अत: बाल विकासको सही दिशा देने के लिए सही सकारात्मक विकास का मार्ग ग्रहण करना उचित है। नकारात्मक विकास बालक के व्यक्तित्व को नकारात्मक रूप देता है।

(ब) सामाजिक प्रत्यक्षीकरण- बालक के सामाजिक प्रत्यक्षीकरण के अन्तर्गत वह जिन सामाजिक कार्यों, वस्तुओं, व्यक्तियों, अन्तक्रियाओं आदि से प्रत्यक्ष (रूबरू) होता है वे बालक में अवधारणा निर्माण करती है। बालक संपर्क में आए वस्तु व्यक्ति या कार्यों को समझ कर उसके प्रति धारणा बना लेता है। ये धारणाएं बालक के विकास में योगदान देती हैं।

इसी प्रकार बाल विकास में (अ) सामाजिक अन्तक्रियाएं तथा (ब) सामाजिक प्रत्यक्षीकरण सामाजिक संदर्भ में प्रभावकारी भूमिका को अंजाम देते हैं।

बाल विकास के सांस्कृतिक संदर्भ :

प्रत्येक बालक जन्म के उपरांत जिन-जिन संस्कृतियों के संपर्क में आता है वे सांस्कृतिक संदर्भ उसके विकास में सहयोग करते हैं। भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक परिवेश में आए बालकों में पाया जाने वाला भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक पक्ष बालकों के विकास के विभिन्न रूपों का परिचायक होता है।

सांस्कृतिक संदर्भ बालक के अग्रलिखित विकास को रूपायित करते हैं-

(1) नैतिक विकास- भारतीय संस्कृतिक में परमार्थ, दया, सहानुभूति,करुणा, सांस्कृतिक तत्त्व हैं किन्तु आदिम संस्कृतिक की जनजातियों में संघर्ष, मारकाट, हत्या, लड़ाई उनकी आदिम संस्कृति के परिचायक हैं। बालक के प्रारंभिक जीवन में उसकी जाति-प्रजातिगत सांस्कृतिक संदर्भ उनके नैतिक विकास को निर्धारित करते हैं।

(2) भाषायी विकास- बालक की मातृभाषा के शब्द, लहजे, भावाभिव्यक्ति के रूप उसकी भाषायी विकास को आकार देते हैं । उन्नत भाषा परिवारों से आए बालकों का शब्द भंडार विकसित होता है तथा जंगली परिवारों से आए बालक का शाब्दिक भंडार विकसित होता है तथा जंगली परिवारों से आए बालक का शाब्दिक भंडार सीमित होता है। भाषायी विकास पर संस्कृतियों का असर पड़ता है । लखनऊ की खाली संस्कृति में भाषा अदायगी की नफासत व शिष्टता जिन बालकों को विरासत में मिली है वे अपना वैसा ही भाषायी विकास करने में सक्षम होते हैं।

(3) व्यावहारिक विकास- संस्कृति, रीति रिवाजों, सामाजिक सांस्कृतिक व्यवहारों को प्रभावित करता है।

(4) आध्यात्मिक विकास- बालक के प्रारंभिक काल की संस्कृति यदि आध्यात्म प्रधान है तो बालक के विकास पर आध्यात्मिकता को प्रभावित होने की संभावना प्रबल होगी। नास्तिक परिवार से आए बालक पर नास्तिकता का प्रभाव देखा जाता है।

(5) शैक्षिक विकास- उच्च शिक्षित परिवारों से आए बालकों का शैक्षिक विकास अनुकूल होता है परन्तु जो बालक उन परिवारों से आए हैं जिनमें माता-पिता शिक्षित नहीं हैं तो बालक के शैक्षिक विकास पर सामान्यत: प्रतिकूल प्रभाव पाया गया है। आदिवासी अशिक्षित परिवारों से आए बालकों का शैक्षिक विकास धीमा होने का यही कारण है।

(6) अंधविश्वासों, रुढ़ियों का बाल विकास पर प्रभाव- बालकों का पारिवारिक सांस्कृतिक परिवेश यदि तर्कहीन रुढ़ियों परम्पराओं का पालन करता आ रहा है और बालक ने इन्हीं रूढ़ियों का पालन भी किया है जो उस बालक का विकास तदनुरूप ही होगा किन्तु अंधविश्वास मुक्त परिवारों के बालकों का विकास सामान्य होगा तथा अंधविश्वासों से उनका व्यवहार प्रभावित नहीं होगा।

अतः स्पष्ट है कि समाज के सामाजिक तथा सांस्कृतिक संदर्भ बाल विकास की दिशा व दशा पर अपना प्रभाव डालते हैं।

बच्चों के विकास में माता पिता की क्या भूमिका होती है?

माता पिता बचपन से लेकर बड़े होने तक अपने बच्चो की जो देखभाल करते है वैसा प्यार कोई नहीं करता है। माता पिता बच्चो को जैसा संस्कार देते है बच्चे ज्यादातर वहीं अपनाते है । बचपन में बच्चो को वहीं बोलना अथवा अच्छे व्यवहार करना सीखते है। माता पिता ही अपने बच्चो को आने वाले जीवन के लिए तैयार करते है और सही दिशा दिखाते है।

बच्चों के विकास पर पिता का क्या प्रभाव पड़ता है?

पिता की भूमिका खास तौर पर महत्वपूर्ण होती है। पिता प्यार, लगाव और उत्तेजना पाने की बच्चे की जरूरतें पूरी करने के प्रयास को सुनिश्चित कर सकता है कि बच्चे को अच्छी शिक्षा, अच्छा पोषण मिले और उसकी सेहत की सही देखभाल हो। पिता सुरक्षित और हिंसा से मुक्त वातावरण को भी सुनिश्चित कर सकता है।

व्यक्तित्व के विकास में परिवार की क्या भूमिका होती है?

परिवार के बच्चे के व्यक्तित्व-विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वह उसे सफल सामाजिक जीवन के लिए तैयार करता है। यह उसे प्रारम्भिक प्रशिक्षण प्रदान करता है। बच्चों के व्यक्तित्व पर सबसे पहली छाप माता-पिता की ही पड़ती है।

क्या माता पिता की व्यवसायिक व्यस्तता बच्चों के विकास में बाधक है?

माता-पिता में प्राप्त सन्दर्भित अनुभव बच्चों के व्यावसायिक जीवन में काफी उपयोगी सिद्ध होते हैं और वह स्वयं को अधिक सफल बना सकता है। बच्चों के लिए माता-पिता के ये अनुभव सामान्य और विशिष्ट दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं। बच्चों को समुचित परामर्श केन्द्र पर भेजना भी पालकों की भूमिका ही होती है।