खुर पका मुंह पका रोग का इलाज क्या है?

खुरपका-मुंहपका जिसको एफएमडी ज्वर, खुरहा, खंगवा या पका रोग के नाम से भी जाना जाता है| तेज बुखार वाला, अत्यधिक छुआछूत वाला विषाणुजनित रोग इसमें रोगनाशक पशुओं तथा शूकरों के मुंह की श्लेष्मिक झिल्ली, खुरों के बीच के स्थान, कारोनरी पट्टी आदि में छाले बन जाते हैं| रोग से पीड़ित वयस्क पशुओं में मृत्यु दर तो अत्यधिक नहीं होती है|

परन्तु अस्वस्थता प्रतिशत अधिक होने एवं उससे उत्पादन पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण इस रोग का बहुत अधिक आर्थिक महत्व है| संकर पशुओं एवं संकर प्रजनन द्वारा उत्पन्न पशुओं में रोग से अत्यधिक हानि होती है| भारत में खुरपका-मुंहपका रोग का प्रकोप होने के कारण विदेशों में हमारे पशुओं की खालों तथा अन्य उत्पादनों पर रोक लगी होने से भी आर्थिक हानि होती है|

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खुरपका-मुंहपका के कारण

इस रोग का कारण एक अत्यन्त सूक्ष्म, गोल विषाणु है, जो कि पिकोरना समूह के विषाणुओं का सदस्य है| खुरपका-मुंहपका रोग का विषाणु अब तक ज्ञात सभी विषाणुओं से आकृति में छोटा है| इसका आकार 7 से 21 मिलीमीटर माइक्रोन है| इस विषाणु के 7 प्रकार और अनेक उप प्रकार हैं| हमारे देश में खुरपका-मुंहपका रोग आमतौर पर ए, ओ, सी एवं एशिया- 1 द्वारा फैलता है|

खुरपका-मुंहपका रोग के कई अन्य सहयोगी कारक हैं| नम वातावरण, परपोशी की संवेदनशीलता, पशुओं का आवागमन, लोगों का आवागमन, पास-पड़ोस के क्षेत्रों में रोग का प्रकोप, रोग रोकथाम आदि का सीधा सम्बन्ध रोक के आघटन से है| किसी एक प्रकोप में कई प्रकार के विषाणु मिल सकते हैं, यह रोग गोपशु, भेड़, बकरी, भैंस, शूकर, एन्टीलोप्स, याक, मिथुन आदि में होता है|

समस्त पालतू पशुओं में गोपशु, भेड़, बकरी, शूकर, भैंस आदि में रोग के प्रति संवेदनशीलता में अन्तर होता है| भारत के 20 से 30 प्रतिशत देशी पशु और 50 से 60 प्रतिशत बछड़े, बछिया खुरपका-मुंहपका रोग के प्रति संवेदनशील हैं| विदेशी नस्ल के पशु इस रोग के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं|

इस रोग का फैलाव वायु, पानी, दूषित भोजन, सीधे संपर्क, पशुशाला में काम करने वाले व्यक्तियों, दूषित कपड़ों या बची हुयी भोजन सामग्री द्वारा होता है| घुमन्तू पक्षियों द्वारा खुरपका-मुंहपका रोग एक देश से दूसरे देश में फैलता है| विदेशी नस्ल के गोपशुओं में इस रोग की अस्वस्थता तथा मृत्युदर देशी पशुओं की तुलना में अधिक होती है| भेड़-बकरियों में यह रोग होता तो है, परन्तु उसकी जानकारी नहीं हो पाती है|

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खुरपका-मुंहपका के लक्षण

तेज बुखार 103 से 105 F, जुबान, मसूड़ों, ओठों, नथुने, ओठों के संधि स्थल आदि स्थानों में छाले बनना इस रोग के महत्वपूर्ण लक्षण हैं| रोगी पशुओं के मुंह से अधिक पारदर्शी लार गिरती है| चपचपाहट की ध्वनि उत्पन्न होती है, भूख कम लगना, जुगाली कम करना, अधिक प्यास, कमजोरी भी इस रोग के लक्षण हैं| कुछ दिनों के बाद पैरों में भी घाव एवं सड़न उत्पन्न हो जाती हैं|

रोगी पशुओं में लगड़ापन दिखाई पड़ता है| रोग से पीड़ित पशुओं की ध्यानपूर्वक चिकित्सा न करने पर खुर गिरना, निमोनिया, जठर-आंत्र रोग मवादयुक्त घाव आदि जटिलताएं भी हो जाती हैं| थन के छालों से थनैला रोग भी हो जाता है| स्वस्थ पशुओं में श्वांस लेने में कठिनाई होती है| यह रोग 15 से 30 दिनों तक रहता है|

खुरपका-मुंहपका के उपचार

1. उचित समय पर अच्छे पशु चिकित्सक के द्वारा पशुओं का उपचार करवायें|

2. बीमार पशुओं को बाजरे, मक्का एवं ज्वार का दलिया बनाकर खिलायें, जिसमें नमक तथा गुड़ मिलाकर पकाकर दलिये के रूप में पशुओं को दें, 2 किलोग्राम दलिया + 1 किलोग्राम गुड़ + 50 ग्राम नमक को 4 से 5 लीटर पानी में उबालकर दलिये के रूप में खिलायें|

3. मुलायम पत्तीदार चारों का सेवन करायें|

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खुरपका-मुंहपका के बचाव

1. 1-3 के कॉपर सल्फेट के घोल से समय-समय पर खुरों की सफाई करते रहें|

2. इस बीमारी से बचाव के लिये पशुओं को एफ एम डी पोलीवेलेंट वेक्सीन के वर्ष में दो बार टीके अवश्य लगवाने चाहिए|

3. खुरपका-मुंहपका रोगग्रस्त पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए|

4. रोग से प्रभावित क्षेत्र से पशुओं की खरीददारी नहीं करना चाहिए|

5. पशुशाला को साफ-सुथरा रखना चाहिए|

6. खुरपका-मुंहपका बीमारी से मरे पशु के शव को खुला न छोड़कर गड्ढे में गाड़ देना चाहिए|

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पशुपालन तथा पशुचिकित्सा सेवा विभाग के चिकित्सक इलाज करने के साथ किसानों को जागरूक कर रहे हैं। वर्ष 2014 में खुरपका-मुंहपका नजर आने के बाद से मवेशियों में आए दिन खुरपका-मुंहपका के विरुध्द खुराक दी जा रही है। इससे हाल ही के दिनों में खुरपका-मुंहपका नहीं आने से किसानों ने सुकून की सांस ली थी। अब फिर से खुरपका-मुंहपका बीमारी के नजर आने से किसानों में भय छाया हुआ है।


पशुपालकों को 2013-14 में खुरपका-मुंहपका बीमारी ने बहुत परेशान किया था। राज्य में हजारों गाय, भैंस आदि मवेशियों की मृत्यु हुई थी। धारवाड़ जिले में भी 50 से अधिक मवेशियों की मृत्यु हुई थी। हजारों मवेशी इससे का शिकार हुए थे। दूध देने वाली गाय, भैंसों की मृत्यु हुई थी तथा इस बीमारी के कारण किसानों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा था।

रोग का कारण
मुंहपका-खुरपका रोग एक अत्यन्त सुक्ष्ण विषाणु जिसके अनेक प्रकार तथा उप-प्रकार है, से होता है। इनकी प्रमुख किस्मों में ओ, ए, सी, एशिया-1, एशिया-2, एशिया-3, सैट-1, सैट-3 तथा इनकी 14 उप-किस्में शामिल है। हमारे देश मे यह रोग मुख्यत: ओ, ए, सी तथा एशिया-1 प्रकार के विषाणुओं की ओर से होता है। नम-वातावरण, पशु की आन्तरिक कमजोरी, पशुओं तथा लोगों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन तथा नजदीकी क्षेत्र में रोग का प्रकोप इस बीमारी को फैलाने में सहायक कारक हैं।

ऐसे फैलता है यह रोग
यह रोग बीमार पशु के सीधे सम्पर्क में आने, पानी, घास, दाना, बर्तन, दूध निकलने वाले व्यक्ति के हाथों से, हवा से तथा लोगों के आवागमन से फैलता है। रोग के विषाणु बीमार पशु की लार, मुंह, खुर व थनों में पड़े फफोलों में बहुत अधिक संख्या में पाए जाते हैं। ये खुले में घास, चारा, तथा फर्श पर चार महीनों तक जीवित रह सकते हैं लेकिन गर्मीं के मौसम में यह बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं। विषाणु जीभ, मुंह, आंत, खुरों के बीच की जगह, थनों तथा घाव आदि के के जरिए स्वस्थ पशु के रक्त में पहुंचते हैं तथा लगभग 5 दिनों के अंदर उसमें बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं।

ये उपाय रहेंगे कारगर
इस बीमारी से बचाव के लिए पशुओं को पोलीवेलेंट वेक्सीन के वर्ष में दो बार टीके अवश्य लगवाने चाहिए। बछड़े/बछडिय़ों में पहला टीका एक माह की आयु में, दूसरे तीसरे माह की आयु तथा तीसरा 6 माह की उम्र में और उसके बाद नियमित सारिणी के अनुसार टीके लगाए जाने चाहिए।
- बीमारी हो जाने पर रोग ग्रस्त पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए।
-बीमार पशुओं की देख-भाल करने वाले व्यक्ति को भी स्वस्थ पशुओं के बाड़े से दूर रहना चाहिए।
-बीमार पशुओं के आवागमन पर रोक लगा देना चाहिए।
-रोग से प्रभावित क्षेत्र से पशु नहीं खरीदना चाहिए।
-पशुशाला को साफ-सुथरा रखना चाहिए।
-इस बीमारी से मरे पशु के शव को खुला न छोडक़र गाड़ देना चाहिए।


रोग के लक्षण
रोग ग्रस्त पशु को 104-106 डिग्री फारेनहाइट तक बुखार हो जाता है। वह खाना-पीना व जुगाली करना बन्द कर देता है। दूध का उत्पादन गिर जाता है। मुंह से लार बहने लगती है तथा मुंह हिलाने पर चप-चप की आवाज आती हैं इसी कारण इसे चपका रोग भी कहते है। बुखार के बाद पशु के मुंह के अंदर, गालों, जीभ, होंठ तालू व मसूड़ों के अंदर, खुरों के बीच तथा कभी-कभी थनों व आयन पर छाले पड़ जाते हैं। ये छाले फटने के बाद घाव का रूप ले लेते हैं जिससे पशु को बहुत दर्द होने लगता है। मुंह में घाव व दर्द के कारण पशु खाना-पीना बन्द कर देते हैं जिससे वह बहुत कमजोर हो जाता है। खुरों में दर्द के कारण पशु लंगड़ा चलने लगता है। गर्भवती मादा में कई बार गर्भपात भी हो जाता है। नवजात बछड़े/बछडिय़ां बिना किसी लक्षण दिखाए मर जाते है। लापरवाही होने पर पशु के खुरों में कीड़े पड़ जाते हैं तथा कई बार खुरों के कवच भी निकल जाते हैं।

दवा की खुराक पिलाना शुरू
पशुपालन विभाग रोगी पशुओं को अब तक खुराक पिलाने के 14 राउंड पूरे कर चुका है। जिले में 2.24 लाख मवेशियों को खुराक पिलाने का लक्ष्य रखा गया था जिसमें 2.20 लाख मवेशियों को खुराक पिलाई गई है। कुछ लोग पूछ रहे हैं कि खुराक पिलाने के बाद भी बीमारी क्यों नजर आ रही है। बाहरी जिलों तथा राज्यों से लाए गए मवेशियों से बीमारी नजर आई है। स्थानीय मवेशियों में पहले नजर नहीं आई थी। कुछ गांवों में अधिक है जहां इलाज किया जा रहा है। खुरपका-मुंहपका बीमारी की रोकथाम के लिए किए जाने वाली सतर्कता कार्रवाई के बारे में किसानों में जागरूकता पहुंचाई जा रही है। एक मवेशी से दूसरे मवेशी को फैलने के कारण चिकित्सकों की ओर से निर्देशित कार्रवाईयों को सख्ती से अमल में लाना चाहिए। बीमारी से पीडि़त मवेशियों का इलाज शुरू किया गया है। सोमवार से 15वें चरण की खुराक पिलाई जा रही है। डॉ. विशाल, उपनिदेशक, पशुपालन एवं पशुचिकित्सा सेवा विभाग


यूं कराएं उपचार
इस रोग का कोई निश्चित उपचार नहीं है परन्तु बीमारी की गम्भीरता को कम करने के लिए लक्षणों के आधार पर पशु का उपचार किया जाता है। रोगी पशु में सैकण्डरी संक्रमण को रोकने के लिए उसे पशु चिकित्सक की सलाह पर एंटीबायोटिक के टीके लगाए जाते हैं। मुंह व खुरों के घावों को फिटकरी या पोटाश के पानी से धोते हैं। मुंह में बोरो-गिलिसरीन तथा खुरों में किसी एंटीसेप्टिक लोशन या क्रीम का प्रयोग किया जा सकता है।

खुर पका मुंह पका की दवाई क्या है?

रोगग्रस्त पशु के पैर को नीम एवं पीपल के छाले का काढ़ा बना कर दिन में दो से तीन बार धोना चाहिए। प्रभावित पैरों को फिनाइल-युक्त पानी से दिन में दो-तीन बार धोकर मक्खी को दूर रखने वाली मलहम का प्रयोग करना चाहिए। मुँह के छाले को 1 प्रतिशत फिटकरी अर्थात 1 ग्राम फिटकरी 100 मिलीलीटर पानी में घोलकर दिन में तीन बार धोना चाहिए।

मुंह पका खुर पका रोग किसकी कमी से होता है?

खुरपका-मुंहपका रोग कीड़े से होता है, जिसे आंखें नहीं देख पाती हैं। इसे विषाणु कहते हैं। यह रोग किसी भी उम्र की गाय व भैंस में हो सकता है। हालांकि, यह रोग किसी भी मौसम में हो सकता है।

खुर पका रोग के लिए क्या करें?

कीड़ा लगने पर तारपीन तेल का उपयोग करें। इसके अलावा मड़ूआ या रागी एवं गेहूँ का आटा,चावल के बराबर की मात्रा को पकाकर तथा उसमें गुड़ या शहद,खनिज मिश्रण को मिलाकर पशु का नियमित दें। साथ ही साथ अपने पशुओं को प्रोटीन भी दें। किसी एक गांव/क्षेत्र में खुरपका मुँहपका रोग प्रकोप के समय क्या करें, क्या नहीं करें ?

पैर और मुंह की बीमारी का क्या कारण बनता है?

कारण हाथ पैर और मुंह की बीमारी (HFMD) आमतौर पर कौक्स्सैकीय A वायरस के कारण होती है। लेकिन यह एंटरोवायरस 71 और अन्य प्रकार के कौक्स्सैकीय वायरस के कारण भी हो सकती है। यह माना जाता है कि यह वायरस सबसे पहले मुंह के अंदर के टॉन्सिल के आसपास के टिश्यूज़ में फैलता है और नीचे की ओर पाचक तंत्रिका में भी।