गबन उपन्यास की नायिका के पिता का क्या नाम था? - gaban upanyaas kee naayika ke pita ka kya naam tha?

प्रेमचंद की रचनाओं में विविधताएं खासियत रही हैं। समाज के अलग-अलग विषयों को उन्होंने अपनी रचनाओं का केंद्रीय विषय बनाया। एक उपन्यास है– ‘गबन’। शीर्षक से पाठक को अनुमान होता है कि इस उपन्यास में किसी आर्थिक अपराध की कथा वर्णित है या किसी सरकारी राशि के घपले के केंद्र में रखकर यह उपन्यास लिखा गया है। जब पाठक या अध्येता उपन्यास में धीरे-धीरे उतरता है तो उसके अंदर उत्सुकता बढ़ती जाती है कि गबन की कोई बहुत बड़ी घटना आगे आने वाली है। परंतु जब वह कहानी के उत्तरार्द्ध में पहुंचता है तो उसकी उत्कंठा खत्म हो जाती है। उसे ज्ञात हो जाता है कि उपन्यास के नायक रमानाथ द्वारा तीन सौ रुपए की सरकारी रकम जमा न करना ही गबन है, जिसे उसकी पत्नी अगले दिन चुका देती है। फिर पाठक को लगता है कि यह तो गबन है ही नहीं। उसके मन में यह सवाल उठता है कि प्रेमचंद ने उपन्यास का शीर्षक ‘गबन’ क्यों रखा? जब गबन हुआ ही नहीं तो ‘गबन’ शीर्षक का क्या तात्पर्य क्या है? 

गबन उपन्यास की नायिका के पिता का क्या नाम था? - gaban upanyaas kee naayika ke pita ka kya naam tha?

दरअसल अमानत की जिस रकम को रमानाथ चुका नहीं पाता है, उसे वह खयानत समझता है। उसे भय है कि वह गिरफ्तार हो सकता है और जेल जा सकता है। भयाक्रांत रमानाथ घर छोड़ देता है, पर सरकारी राशि चुका न पाने का अपराध-बोध उसके अंदर हमेशा बना रहता है। रमानाथ का खौफ में जीना और उससे बचने के लिए भावी कदम उठाने को लेकर प्रेमचंद ने कहानी का फलक तैयार किया है। इसीलिए उन्होंने इस उपन्यास का शीर्षक ‘गबन’ रखा है, जबकि उपन्यास का मूल विषय स्त्रियों की आभूषण-प्रियता, पति के जीवन पर पत्नी का प्रभाव तथा सामाजिक रूढ़िवादिता एवं अंतर्विरोध है।

प्रेमचंद ने यह उपन्यास वर्ष 1930 में लिखा था। कहा जाता है कि उस समय तक वे आदर्शवाद से यथार्थवाद की ओर उन्मुख हो गए थे और यथार्थवादी कहानियां लिख रहे थे। प्रेमचंद ने ‘गबन’ में जिस वर्गीय-जातीय चरित्र को लेकर कथा बुना है उससे प्रतीत होता है कि कहानी वास्तविक है। उपन्यास के नायक-नायिका भी उसी जाति बिरादरी के हैं, जिस जाति से प्रेमचंद आते हैं। ऊपरी तौर पर लगता है कि प्रेमचंद ने अनुभूत सत्य को रूपायित किया है, लेकिन वास्तव में यह अर्द्धसत्य ही है।

किसी भी उपन्यास में वास्तविक जीवन की काल्पनिक कथा होती है। यह काल्पनिक कथा यथार्थ के जितना नजदीक होती है, उपन्यास उतना ही श्रेष्ठ माना जाता है। उपन्यास की श्रेष्ठता और सार्थकता का प्रमुख निकष उसमें चित्रित यथार्थ ही होता है, बशर्ते यह कि यथार्थ बाहर से आरोपित नहीं हो, बल्कि शाश्वत सत्य हो।

इस निकष पर ‘गबन’ कहां ठहरता है? गबन की कथावस्तु कितनी वास्तविक है? इसका कथानक कितना यथार्थ, कितना अयथार्थ है? इन प्रश्नों का उत्तर जानने के पूर्व उपन्यास के कथा पर एक दृष्टि डाल लेना समीचीन होगा।

‘गबन’ का कथानक दो भागों में विभक्त है। एक भाग प्रयाग से जुड़ा है तो दूसरा भाग कोलकाता से संबद्ध है। कहानी प्रयाग के एक छोटे-से गांव से प्रारंभ होती है। नायिका जालपा के पिता दीनदयाल जमींदार के मुख्तार हैं। बचपन में जालपा आभूषणों के प्रति आकर्षित होती है। किशोरवय में आभूषण की लालसा और बढ़ जाती है। वह सपने देखती है कि विवाह के समय अन्य आभूषणों के अलावा उसका सर्वप्रिय आभूषण चंद्रहार जरूर आएगा। उसकी शादी कचहरी के नौकर मुंशी दयानाथ के अकर्मण्य पुत्र रमानाथ से तय होती है। शादी में बहुत सारे गहने ससुराल से आते हैं, पर चंद्रहार नहीं आता है। जालपा की अभिलाषा पर पानी फिर जाता है। वह निराश हो जाती है।

गबन उपन्यास की नायिका के पिता का क्या नाम था? - gaban upanyaas kee naayika ke pita ka kya naam tha?
प्रेमचंद (31 जुलाई, 1880 – 8 अक्टूबर, 1936)

दीनदयाल और दयानाथ दोनों अपनी-अपनी बिसात से ज़्यादा विवाह में खर्च करते हैं। दयानाथ ने कचहरी में रहते हुए रिश्वत की कमाई से मुंह मोड़ रखा था। पुत्र के विवाह में वे कर्ज़ से लद गये। दयानाथ तो चन्द्रहार भी चढ़ाना चाहते थे, लेकिन उनकी पत्नी जागेश्वरी ने उनका प्रस्ताव रद्द कर दिया था। जालपा की एक सखी शहजादी उसे चन्द्रहार प्राप्त करने के लिए और उत्तेजित करती है। लेकिन जालपा चन्द्रहार की लालसा लिए ही ससुराल जाती है। वहां घर की हालत खस्ता थी, किंतु रमानाथ ने जालपा के सामने अपनी हैसियत को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया। कर्ज़ उतारने के लिए जब दयानाथ जालपा के कुछ गहने चुपके से लाने के लिए कहते हैं तो रमानाथ बहुत सोच-विचार के बाद पत्नी का आभूषण का बक्सा चुपके से लाकर दे देता है और जालपा से चोरी हो जाने का बहाना कर देता है। किंतु अपने इस कपटपूर्ण व्यवहार से उसे आत्मग्लानि होती है। जालपा का जीवन क्षुब्ध हो उठता है। अब रमानाथ को नौकरी की चिंता होती है। वह अपने शतरंज के साथी विधुर और चुंगी में नौकरी करने वाले रमेश बाबू की सहायता से चुंगी में तीस रुपये की मासिक नौकरी पा जाता है। जालपा को वह अपना वेतन चालीस रुपये बताता है। इसी समय जालपा को अपनी माता का भेजा हुआ चन्द्रहार मिलता है, किंतु दया में दिया हुआ दान समझकर वह उसे स्वीकार नहीं करती। 

अब रमानाथ में जालपा के लिए गहने बनवाने का हौसला पैदा होता है। इस हौसले को वे सर्राफों के कर्ज़ से लद जाने पर भी पूरा करता है। काशी के नामवर वकील पंडित इन्दुभूषण की पत्नी रतन को जालपा के जड़ाऊ कंगन बहुत अच्छे लगते हैं। वैसे ही कंगन लाने के लिए वह रमानाथ को छ: सौ रुपये देती है। सर्राफ इन रुपयों को कर्जखाते में जमाकर रमानाथ को कंगन उधार देने से इंकार कर देता है। रतन कंगनों के लिए बराबर तकाज़ा करती रहती है। अंत में वह अपने रुपये ही वापस लाने के लिए कहती है। उसके रुपए वापस करने के ख्याल से रमानाथ चुंगी के रुपए ही घर ले आता है। उनकी अनुपस्थिति में जब रतन अपने रुपए माँगने आती है तो जालपा उन्हीं रुपयों को उठाकर दे देती है। घर आने पर जब रमानाथ को पता चलता है तो उसे काफी चिंता होती है। ग़बन के मामले में उसकी सज़ा हो सकती है। सारी परिस्थिति का स्पष्टीकरण करते हुए वह पत्नी के नाम एक पत्र लिखता है। वह पत्र पत्नी को देने या न देने के बारे में सोचता ही है कि वह पत्र जालपा को मिल जाता है। जालपा पूूूरा पत्र पढ़ जाती है। रमानाथ आत्मग्लानि से क्षुब्ध हो जाता है। वह तेजी से घर से निकलता है। कोलकाता जाने के लिए स्टेशन की रूख करता है। जालपा उसे ढूंढते हुए कार्यालय पहुंचती है और वस्तुस्थिति से अवगत होने के पश्चात आभूषण बेचकर तत्काल रूपए जमा करा देती है।

कोलकाता में रमानाथ ट्रेन में मिले मुसाफिर देवीदीन खटिक के यहां कुछ दिनों तक गुप्त रूप से रहने के बाद चाय की दुकान खोल लेता है। वह अपनी वास्तविकता छिपाए रहता है। एक दिन जब वह नाटक देखकर लौट रहा था, पुलिस उसे शुबहे में पकड़ लेती है। घबराहट में रमानाथ अपने ग़बन आदि के बारे में सारी कथा सुना देता है। पुलिसवाले अपनी तहकीकात द्वारा उसे निर्दोष पाते हुए भी नहीं छोड़ते हैं और उसे डकैती के एक मामले में चल रहे मुक़दमे के गवाह के रूप में पेश कर देते हैं। जेल-जीवन से भयभीत होने के कारण रमानाथ पुलिसवालों की बात मान लेता है। पुलिस उसे एक बंगले में बड़े आराम से रखती है और ज़ोहरा नामक एक वेश्या उसके मनोरंजन के लिए रख देती है। उधर जालपा रतन के परामर्श से शतरंज-संबंधी पचास रुपए का एक विज्ञापन प्रकाशित करती है। जिस व्यक्ति ने वह विज्ञापन जीता है, वह रमानाथ ही है। इससे जालपा को मालूम हो जाता है कि वह कोलकाता में है। खोजते-खोजते वह देवीदीन खटिक के यहां पहुंच जाती है और रमानाथ को पुलिस के कुचक्र से निकालने की असफल चेष्टा करती है। रतन भी उन्हीं दिनों अपने बूढ़े पति का इलाज कराने के लिए कोलकाता आती है। पति की मृत्यु के बाद वह जालपा की सहायता करने में किसी प्रकार का संकोच प्रकट नहीं करती। अभियुक्तों के विरूद्ध गवाही देने के पश्चात रमानाथ को जालपा का एक पत्र मिलता है, जिससे वह बदल जाता है। वह जज के सामने सारी वास्तविकता प्रकट कर देता है। जज को विश्वास हो जाता है कि निरापराध व्यक्तियों को दंड दिया गया है। वह अपना निर्णय वापस ले लेता है। सभी अभियुक्त बरी हो जाते हैं। रमानाथ, जालपा, जोहरा, देवीदीन खटीक और उसकी पत्नी आकर प्रयाग के समीप रहने लगते हैं।

जालपा के कारण रमानाथ में आत्म-सम्मान का फिर से उदय हो जाता है। ज़ोहरा वेश्या-जीवन छोड़कर सेवाव्रत धारण करती है। रमानाथ और जालपा भी सेवा-मार्ग का अनुसरण करते हैं। जोहरा ने अपनी सेवा, आत्मत्याग और सरल स्वाभाव से सभी को मुग्ध कर लिया है। इसी बीच वह प्रयाग के समीप गंगा में डूबते हुए यात्री को बचाते समय पानी में बह जाती है। रमानाथ उसे बचाने की कोशिश करता है। पर सफल नहीं हो पाता। घर में जोहरा अपनी असलियत छिपाकर देवीदीन की विधवा बहू के रूप में रह रही थी।

उपन्यास की कथावस्तु के सूक्ष्म अवलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि कल्पित कथा सत्य के निकट नहीं है। सत्य के रहस्योदघाटन के बजाय प्रेमचंद उस पर पर्दे का आवरण चढ़ा देते हैं। कहानी पठन के बाद यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आदर्शवाद से उनका मोहभंग नहीं हुआ था। गार्हस्थ जीवन में आने के बाद जालपा के चरित्र को जिस तरह से उन्होंने उभारा है और उदात्तता प्रदान की है, वह आदर्शवाद ही है।

उपन्यास के प्रारंभ में कथावस्तु स्वभाविक जान पड़ती है। दो कायस्थ परिवारों के बीच वैवाहिक संबंध को लेकर जो घटनाक्रम वर्णित है, वह सत्य के काफी निकट जान पड़ता है। लेकिन उसके बाद का घटनाक्रम यथार्थ से काफी दूर है। रमानाथ द्वारा रुपए गबन करना भी वास्तविक प्रतीत होता है। परंतु प्रेमचंद को अपनी जाति के प्रति काफी सहानुभूति है। इसीलिए सरकारी राशि गबन करने वाले रमानाथ के इस कुकृत्य (भ्रष्टाचार) को वे ढंक देते हैं। रमानाथ की पत्नी आभूषण बेचकर गबन की राशि अगले दिन चुका देती है। गबन का भंडाफोड़ नहीं हो पाता है।

उनके प्रारंभिक उपन्यासों की भांति ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा-भक्ति यहां भी है। बुढ़ापे में दूसरी शादी रचाने वाले काशी के अय्याश पंडित इंदुभूषण को दयालु व नामी वकील बताकर सम्मान प्रकट करते हैं। उनकी युवा पत्नी रतन चरित्रवान स्त्री है। बूढ़े पति से संतुष्ट है। कामेच्छा तो उसे छुती तक नहीं। पर आभूषण की चाहत उसे भी है। वह आभूषण धारण कर अपना सौंदर्य क्यों और किसलिए बढ़ाना चाहती है, प्रेमचंद ने यह नहीं बताया है। प्रेमचंद उसका चित्रण रूप-गुण संपन्न शीलवान स्त्री के रूप में करते हैं। बूढ़े पति वाली कामनिरपेक्ष शीलवान युवती शायद ही मिले! इस चरित्र के निर्माण के पीछे उनका आदर्श ही है, यथार्थ लिखते भी कैसे, ब्राह्मण का चरित्र हनन जो हो जाता। फिर ब्राह्मणों के कोपभाजन का शिकार होना पड़ता।

रमानाथ के घर छोड़ने की बात सच हो सकती है, पर देवीदीन खटीक के घर में रहना और खाना-पीना अस्वाभाविक लगता है। खटीक एक निम्न जाति है। अपने को सवर्ण मानने वाला कायस्थ पुत्र उसके घर कैसे रहेगा और उसके बर्तनों में कैसे खाएगा? हालांकि कायस्थों में ब्राह्मणों जैसा श्रेष्ठता का भाव नहीं होता। वे रोटी-बेटी का संबंध दूसरी बराबर की जातियों में बना लेते हैं। अपवाद को छोड़ दें तो एकदम निकृष्ट जातियों के साथ खानपान एवं नातेदारी का संबंध नहीं होता है। फिर भी रमानाथ के खटीक के घर रहने खाने-पीने की बात को कुछ किंतु-परंतु के साथ स्वीकार भी लें तो आगे की कथा पूर्णत: काल्पनिक, अवास्तविक एवं अस्वाभाविक है।

पुलिस हिरासत में रमानाथ की खातिरदारी एवं विलास-वृत्ति का विवरण सत्य से परे है। डकैती की एक घटना में सरकारी गवाह बनाए जाने के बाद पुलिस उसके लिए ऐशो-आराम की जो व्यवस्था करती है, वह बिल्कुल अवास्तविक है। वेश्या की व्यवस्था किया जाना भी अस्वभाविक है। प्रेमचंद ने ऐसा घटनाक्रम कल्पित किया है, जो पूरी तरह असत्य प्रतीत होता है। ऐसा लगता है पुलिस की आंतरिक स्थिति से वे परिचित नहीं थे। रमानाथ की पुलिसिया सत्कार की अतिशयोक्ति का एक उदाहरण देखिए कि “भोजन में चार-पांच प्रकार का मांस न हो, चटनी आचार न हो, तृप्ति न होती थी”।

घर-परिवार छोड़कर जालपा को अकेले कोलकता में रहना भी अस्वाभाविक है। मध्यवर्गीय परिवार की बहुएं घर से बाहर बिना किसी ठिकाने के रहेंं, उस समय की सामाजिक स्थिति में यह संभव न था, जबकि जालपा के घर में परिजन के रूप में सास, ससुर और दो देवर मौजूद थे । इसके अलावा उसके मायके के लोग भी थे, जो उसके साथ रहकर पति की खोज में मदद कर सकते थे। रमानाथ की तलाश में दारोगा द्वारा घोड़े पर सवार होकर देवीदीन के घर जाना, फिर वापस आकर साइकिल से पुनः उसी जगह जाना और मोटरसाइकिल से लौटना पूर्णत: असत्य प्रतीत होता है। दारोगा जल्दी-जल्दी सवारियां क्यों बदलता है? जब घोड़े से लौटता है तो पुनः उसी स्थान पर साइकिल से क्यों जाता है? क्या घोड़ा थक गया था या दारोगा पसीना बहाना चाहता था? फिर साइकिल कहां छोड़ा और मोटरसाइकिल कहां से पाया? प्रेमचंद ने ऐसा किस प्रयोजन से किया है, यह समझ से परे है–

“दारोगा को भला कहां चैन? रमा के जाने के बाद एक घंटे तक उसका इंतजार करते रहे, फिर घोड़े पर सवार हुए और देवीदीन के घर जा पहुंचे”।

 “सरपट साइकिल दौड़ाते हुए फिर देवीदीन के घर पहुंचे और धमकाना शुरू किया”

“दारोगा ने जोहरा को मोटरसाइकिल पर बिठा लिया और जरा देर में घर के दरवाजे पर उतार दिया।”

रमानाथ की झूठी गवाही के आधार पर मुख्य अभियुक्त दिनेश को डकैती के आरोप में फांसी की सजा होती है तथा अन्य तेरह अभियुक्तों में से पांच को 10-10 साल और आठ को 5-5 साल की सजा होती है। डकैती कब और कैसे होती है, इसका विवरण प्रेमचंद ने नहीं दिया है। एक ही मुकदमे में कृत्य अपराध के अनुसार अलग-अलग सजाएं होती हैंं, क्यायह सही है? पर डकैती में फांसी की सजा अविश्वसनीय लगती है। अंग्रेजों के जमाने की 1860 में बनी आईपीसी की धाराएं आज भी मौजूद हैंं, परंतु डकैती में फांसी की सजा का प्रावधान नहीं है। आजीवन कारावास या दस वर्ष तक कठिन कारावास और आर्थिक दंड का प्रावधान अवश्य है। अपराध की प्रकृति के अनुसार इससे कम अवधि की सजाएं भी हैं। फांसी की सजा दुर्लभतम मामले में ही होती है।

कहानी के अंत में जोहरा की आत्महत्या की घटना भी बनावटी लगती है। वह वेश्या थी। रमानाथ के परवर्तित आदर्श जीवन में उसकी संगति नहीं बैठ रही थी, इसलिए प्रेमचंद ने उसे गंगा की धार में उसे डुबो दिया। बूढ़े अकर्मण्य देवीदीन द्वारा प्रयाग में जमीन खरीदना और घर बनाकर बस जाना भी कल्पित है। देवीदीन कामचोर था। पत्नी सब्जी बेचकर घर चलाती थी। अचानक जीवन की अंतिम बेला में जब उसकी जीवन-ऊर्जा खत्म होने की स्थिति में है तो वह खूब मेहनत करता है और अपने उद्योग से समृद्धि हासिल कर लेता है। नौकरी से बर्खास्त रमानाथ के पिता दयानाथ उसके असिस्टेंट बन जाते हैं। यह कल्पित कोरा आदर्श है।

इस प्रकार प्रारंभिक घटनाक्रम को छोड़ दें तो उपन्यास की कथावस्तु अस्वाभाविक एवं अवास्तविक प्रतीत होती है। उपन्यास यथार्थवाद की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है। जब उपन्यास की कथावस्तु सत्य के निकट नहीं होती है तो उसमें कृत्रिमता आ जाती है और पठनीयता खो देती है। यही वजह है कि ‘गबन’ की कथावस्तु पाठक पर स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ पाती है।

संदर्भ :

  1. ‘गबन’, प्रेमचंद, जागृति पब्लिकेशन, पटना-4, प्रथम संस्करण, 2014
  2. ‘गबन : मध्यवर्ग का अंतर्विरोध’, शंभूनाथ, ‘हिंदी उपन्यास-1’, एम एच डी -14, इग्नू, नई दिल्ली 
  3. ‘गबन : कृष्णचन्द्रलाल’, हिंदी उपन्यास-1, एम एच डी-14, इग्नू, नई दिल्ली
  4. ‘छायावाद युग: गद्य साहित्य’, डॉ. गोपाल राय, ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’, संपादक डॉ. नगेन्द्र, मयूर पेपरबैक्स, नोएडा, द्वितीय संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण, 1991

(संपादन : नवल/अनिल)


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गबन उपन्यास की नायिका जालपा के पिता का क्या नाम था?

प्रयाग के छोटे से गाँव के जमींदार के मुख़्तार महाशय दीनदयाल और मानकी की इकलौती पुत्री जालपा को बचपन से ही आभूषणों, विशेषत: चन्द्रहार की लालसा लग गयी थी।

गबन उपन्यास के नायक का नाम क्या है?

रमानाथ गबन उपन्यास का प्रमुख पुरूष पात्र है। उपन्यास का नायक होने के साथ-साथ वह वर्तमान युग के युवा वर्ग का प्रतिनिधि है।

दया नाथ की पत्नी का नाम क्या था?

दयानाथ ने कचहरी में रहते हुए रिश्वत की कमाई से मुंह मोड़ रखा था। पुत्र के विवाह में वे कर्ज़ से लद गये। दयानाथ तो चन्द्रहार भी चढ़ाना चाहते थे, लेकिन उनकी पत्नी जागेश्वरी ने उनका प्रस्ताव रद्द कर दिया था। जालपा की एक सखी शहजादी उसे चन्द्रहार प्राप्त करने के लिए और उत्तेजित करती है।

जालपा के सहेली का क्या नाम था?

उनके साथ रमानाथ के माता-पिता भी रहते हैं। जालपा की सहेली रतन और जोहरा भी है।