डॉलर का भाव कैसे निर्धारित होता है? - dolar ka bhaav kaise nirdhaarit hota hai?

10 साल में भारतीय करेंसी के मुकाबले डॉलर 20.22 रुपए तक महंगा हो गया है। अक्टूबर 2008 में रुपया 48.88 प्रति डॉलर के स्तर पर था, जो अब 69.10 के स्तर पर है। जल्द ही इसके 70 के स्तर पर पहुंचने की भी आशंका है। हालांकि रुपए के कमजोर होने का यह ट्रेंड अप्रैल 2016 से जारी है। वैसे आजादी के बाद से अब रुपए के मजबूत और कमजोर होने पर नजर डालें, तो कुछ और भी चौंकाने वाली जानकारियां सामने आती हैं। यह भी साफ हो जाता है कि इन 70 वर्षों में एक बार ही ऐसा मौका आया है, जब रुपया लगातार दो या ज्यादा बार मजबूत हुआ हो। ऐसा 2008 से 2011 के बीच हुआ। अक्टूबर 2008 में रुपया 48.88 प्रति डॉलर था, जो 2009 में 46.37 के स्तर पर पहुंचा। जनवरी 2010 में रुपए ने 46.21 के स्तर को छुआ। इसके बाद अप्रैल 2011 में रुपया एक बार फिर मजबूत होकर 44.17 के स्तर पर पहुंच गया।

वर्ष 2005 के बाद रुपए की चाल
सबसे बड़ी मजबूती

5.77 रुपए की

जनवरी 2006 से 2007 के बीच

हालांकि 1990 से 1995 के बीच डॉलर के मुकाबले रुपया सबसे ज्यादा 15.41 अंक मजबूत हुआ। इस दौरान 17.01 के स्तर से 32.42 के स्तर पर पहुंच गया था।

बड़ी गिरावट अगले ही साल

9.46 रुपए की

जनवरी 2007 से जनवरी 2008 के बीच

डॉलर के मुकाबले रुपए में रिकॉर्ड गिरावट के दो अहम कारण बताए जा रहे हैं। पहला-2008 की आर्थिक मंदी के बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था की मजबूती, दूसरा- कच्चे तेल के ऊंचे दाम। इन्हीं वजहों से जानकार रुपए के और भी कमजोर होकर 70 के स्तर तक पहुंचने की बात कह रहे हैं। जानिए ये फैक्टर आखिर कैसे रुपए को प्रभावित करते हैं?
इन सवाल-जवाब में रुपए के कमजोर होने से जुड़ा वो सबकुछ जो आप जानना चाहते हैं
रुपए के गिरने व कमजोर होने का क्या मतलब?
डॉलर की तुलना में किसी भी अन्य मुद्रा का मूल्य घटे तो इसे उस मुद्रा का गिरना, टूटना, कमजोर होना कहते हैं। अंग्रेजी में करेंसी डेप्रीशिएशन। ऐसा ही कुछ तीन दिन पहले 28 जून को रुपए के साथ हुआ है। डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा अब तक के सबसे निचले स्तर पर जा पहुंची। एक डॉलर का मूल्य 69.10 रुपए हो गया। पहली बार डॉलर का भाव 69 रुपए से अधिक हुआ। वैसे, रुपए ने इससे पहले अपना सबसे निचला स्तर नवंबर 2016 में देखा था। तब डॉलर के मुकाबले रुपए का मूल्य 68.80 हो गया था।

आखिर कौन तय करता है रुपए का मूल्य?
हर देश के पास विदेशी मुद्रा का भंडार होता है, जिससे वह अंतरराष्ट्रीय लेन-देन करता है। विदेशी मुद्रा भंडार के घटने और बढ़ने से ही उस देश की मुद्रा की चाल तय होती है। अगर भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर, अमेरिका के रुपयों के भंडार के बराबर है तो रुपए की कीमत स्थिर रहेगी। हमारे पास डॉलर घटे तो रुपया कमजोर होगा, बढ़े तो रुपया मजबूत होगा। इसे फ्लोटिंग रेट सिस्टम कहते हैं, जिसे भारत ने 1975 से अपनाया है।

इसे ऐसे समझें...
अमेरिका के पास 69,000 रुपए हैं और हमारे पास 1,000 डॉलर। डॉलर का भाव 69 रुपए है, तो दोनों के पास बराबर धनराशि है। अब अगर हमें अमेरिका से कोई ऐसी चीज मंगानी है, जिसका भाव हमारी करेंसी के हिसाब से 6,900 रुपए है तो हमें इसके लिए 100 डॉलर चुकाने होंगे। अब हमारे विदेशी मुद्रा भंडार में बचे 900 डॉलर। जबकि, अमेरिका के विदेशी मुद्रा भंडार में भारत के जो 69000 रुपए थे, वो तो हैं ही, भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में जो 100 डॉलर थे वो भी उसके पास चले गए। संतुलन बनाने के लिए जरूरी है कि भारत भी अमेरिका को 100 डॉलर का सामान बेचे। मगर जितना माल हम डॉलर चुकाकर आयात करते हैं, उतना निर्यात नहीं करते। इसलिए डॉलर का मूल्य रुपए की तुलना में लगातार बढ़ता जा रहा है।

पूरी दुनिया में एक जैसा करेंसी एक्सचेंज सिस्टम
फॉरेक्स (फॉरेन एक्सचेंज)मार्केट में रुपए के बदले विभिन्न देशों की मुद्राओं की लेन-देन की दर तय होती है। डॉलर के मुकाबले यदि रुपए में घट-बढ़ होती है तो इसका सीधा असर फॉरेक्स मार्केट पर दिखता है, क्योंकि इसी के आधार पर देश के लोग विदेशी बाजारों से लेन-देन करते हैं। साथ ही सबसे पहले निर्यातक और आयातक प्रभावित होते हैं। हर देश के अपने फॉरेक्स मार्केट होते हैं, लेकिन सभी एक ही तरह से काम करते हैं। इसके अलावा तीन और बाजार होते हैं-

कैपिटल मार्केट: इसमें इक्विटी की खरीदी बिक्री होती है।

फाइनेंशियल मार्केट: बॉन्ड, डेब्ट फंड्स का लेन-देन।

कॉल मनी मार्केट: बैंक जरूरत पड़ने पर आपस में रुपए का लेन-देन करते हैं। ब्याज दर आरबीआई तय करता है।

1948 में बराबर थे डॉलर और रुपया

रुपया आजादी से पहले डॉलर के मुकाबले मजबूत था। असल में तब सभी अंतरराष्ट्रीय मुद्राओं का मूल्य सोने-चांदी से तय होता था। इसके बाद ब्रिटिश पाउंड और विश्व युद्धों के बाद से अमेरिकी डॉलर उस भूमिका में है। वैसे आजादी के बाद यानी 1948 में एक डॉलर-1.3 रुपए के बराबर ही था। 1975 में डॉलर का मूल्य 8.39 रु., 2000 में 43.5 रु. हो गया। 2011 में इसने पहली बार 50 का आंकड़ा पार किया।

करेंसी डॉलर-बेस्ड ही क्यों और कब से?
फॉरेन एक्सचेंज मार्केट में अधिकांश मुद्राओं की तुलना डॉलर से होती है। इसके पीछे द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुआ ‘ब्रेटन वुड्स एग्रीमेंट’ है। इसमें एक न्यूट्रल ग्लोबल करेंसी बनाने का प्रस्ताव रखा गया था। हालांकि तब अमेरिका अकेला ऐसा देश था, जो अार्थिक तौर पर मजबूत होकर उभरा था। ऐसे में अमेरिकी डॉलर को दुनिया की रिजर्व करेंसी के तौर पर चुन लिया गया। युद्ध के बाद बड़े देशों की करेंसी का एक्सचेंज रेट तय किया गया। हालांकि उस वक्त सोने में लेन-देन होता था। 1971 में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने अचानक डॉलर के बदले गोल्ड एक्सचेंज पर रोक लगा दी। आज दुनियाभर में केंंद्रीय बैंकों की विदेशी मुद्रा का 64% डॉलर ही है।

गिर क्यों रही है भारतीय मुद्रा?
रुपए की कमजोरी की वजहें समय के हिसाब से बदलती रही हैं। कभी राजनीतिक हालात से तो कभी वैश्विक या अमेरिका के आर्थिक हालात से। वर्तमान में दोनों हालात जिम्मेदार हैं।

अमेरिकी अर्थव्यवस्था 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी के एक दशक बाद अब पटरी पर है। इस साल उसकी विकास दर करीब तीन फीसदी रहने का अनुमान है। इसके अलावा इस साल फेडरल रिजर्व बैंक ने ब्याज दर को दूसरी बार बढ़ाते हुए दो फीसदी कर दिया है। इन दो वजहों से निवेशक भारत और दुनिया के दूसरे देशों से अपना निवेश निकालकर अमेरिका ले जाने लगे हैं और वहां बॉन्ड में निवेश कर रहे हैं। इससे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार में डॉलर की मांग कम नहीं हो रही।

कच्चा तेल तीन हफ्तों में 6 डॉलर सस्ता होकर 73 डॉलर प्रति बैरल तक आया है। मगर जरूरत का 80 फीसदी तेल आयात करने वाले भारत के लिए यह भाव भी काफी ज्यादा है। हमें तेल के बदले ज्यादा डॉलर चुकाने पड़ रहे हैं। असल में कच्चे तेल की कीमतों में उछाल की वजह राजनीतिक भी है। अमेरिका ने ईरान से परमाणु समझौता तोड़कर उस पर फिर प्रतिबंध लगा दिया है। वेनेजुएला में आर्थिक संकट गहरा चुका है। इससे कच्चे तेल का वैश्विक उत्पादन और निर्यात प्रभावित हुआ है।

कहां नुकसान या फायदा?

नुकसान: कच्चे तेल का आयात महंगा होगा, जिससे महंगाई बढ़ेगी। देश में सब्जियां और खाद्य पदार्थ महंगे होंगे। वहीं भारतीयों को डॉलर में पेमेंट करना भारी पड़ेगा। यानी विदेश घूमना महंगा होगा, विदेशों में पढ़ाई महंगी होगी।

फायदा: निर्यात करने वालों को फायदा होगा, क्योंकि पेमेंट डॉलर में मिलेगा, जिसे वह रुपए में बदलकर ज्यादा कमाई कर सकेंगे। इससे विदेश में माल बेचने वाली आईटी और फार्मा कंपनी को फायदा होगा।

कैसे संभलती है स्थिति?

मुद्रा की कमजोर होती स्थिति को संभालने में किसी भी देश के केंद्रीय बैंक का अहम रोल होता है। भारत में यह भूमिका रिजर्व बैंक अॉफ इंडिया की है। वह अपने विदेशी मुद्रा भंडार से और विदेश से डॉलर खरीदकर बाजार में उसकी मांग पूरी करने का प्रयास करता है। इससे डॉलर की कीमतें रुपए के मुकाबले स्थिर करने में कुछ हद तक मदद मिलती है।

डॉलर का रेट कैसे तय होता है?

जैसे-जैसे किसी वस्तु की मांग बढ़ती है तो स्वाभाविक तौर पर उसका रेट भी बढ़ने लगता है. यही हाल करेंसी का भी है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में व्यापार के लिए डॉलर की मांग जितनी बढ़ती है उसका मूल्य भी उतना ऊपर जाता है. इसे फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट कहा जाता है.

डॉलर के मुकाबले रुपया कैसे मजबूत होगा?

डॉलर के मुकाबले रुपया तभी मजबूत होगा जब हम कम विदेशी मुद्रा खर्च करें और ज्यादा हासिल करें या फिर अगर हम कोई सामान आयात करने के लिए 100 डॉलर खर्च करते हैं, तो इतने का सामान निर्यात भी करें। इससे विदेशी मुद्रा स्थिर होगी और रुपया भी मजबूत होगारुपया आजादी से पहले डॉलर के मुकाबले मजबूत था।

1 डॉलर 1 रुपए के बराबर कब हुआ था?

उन्होंने इस ट्वीट में दावा किया कि आजादी के समय 15 अगस्त 1947 को 1 रुपये की वैल्यू 1 डॉलर के बराबर ही थी. ऐसा क्या हुआ कि पिछले 70 सालों में रूपया लगातार लुढ़कता चला गया और आज हालात ये हैं कि अब एक डॉलर खरीदने के लिए हमें लगभग 76 रुपये चुकाने पड़ रहे हैं.

डॉलर इतना महंगा क्यों होता है?

इसकी वजह ये है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी है और इसे 'सुरक्षित जगह' समझा जाता है. इस कारण से भी क़ीमतें बढ़ती हैं. यूरोप और एशिया की कई अर्थव्यवस्थाएं तेल की बढ़ती कीमतों के कारण मुश्किल में हैं. अमेरिका में पिछले छह महीने में बढ़ती कीमतों का इतना ज़्यादा असर नहीं हुआ है.