बीन भी हूं मैं तुम्हारी रागिनी भी हूं यह कविता कौन से काव्य प्रकार में है - been bhee hoon main tumhaaree raaginee bhee hoon yah kavita kaun se kaavy prakaar mein hai

                
                                                                                 
                            

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ! 

नींद थी मेरी अचल निस्पंद कण-कण में,
प्रथम जागृति थी जगत् के प्रथम स्पंदन में;
प्रलय में मेरा पता पदचिह्न जीवन में,
शाप हूँ जो बन गया वरदान बंधन में;
कूल भी हूँ कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ!

नयन में जिसके जलद वह तृषित चातक हूँ;
शलभ जिसके प्राण में वह निठुर दीपक हूँ;
फूल को उर में छिपाए विकल बुलबुल हूँ,
एक होकर दूर तन से छाँह वह चल हूँ,
दूर तुमसे हूँ अखंड सुहागिनी भी हूँ!

आग हूँ जिसके ढुलकते बिंदु हिमजल के,
शून्य हूँ जिसको बिछे हैं पाँवड़े पल के;
पुलक हूँ वह जो पला है कठिन प्रस्तर में,
हूँ वही प्रतिबिंब जो आधार के उर में;
नील घन भी हूँ सुनहली दामिनी भी हूँ!

नाश भी हूँ मैं अनंत विकास का क्रम भी,
त्याग का दिन भी चरम आसक्ति का तम भी;
तार भी, आघात भी, झंकार की गति भी,
पात्र भी, मधु भी, मधुप भी, मधुर विस्मृति भी;
अधर भी हूँ और स्मित की चाँदनी भी हूँ!

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2 months ago

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ!
नींद थी मेरी अचल निस्पन्द कण कण में,
प्रथम जागृति थी जगत् के प्रथम स्पन्दन में,
प्रलय में मेरा पता पदचिन्‍ह जीवन में,
शाप हूँ जो बन गया वरदान बंधन में
कूल भी हूँ कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ!
बीन भी हूँ मैं...

नयन में जिसके जलद वह तृषित चातक हूँ,
शलभ जिसके प्राण में वह निठुर दीपक हूँ,
फूल को उर में छिपाए विकल बुलबुल हूँ,
एक होकर दूर तन से छाँह वह चल हूँ,
दूर तुमसे हूँ अखंड सुहागिनी भी हूँ!
बीन भी हूँ मैं...

आग हूँ जिससे ढुलकते बिंदु हिमजल के,
शून्य हूँ जिसके बिछे हैं पाँवड़े पलके,
पुलक हूँ जो पला है कठिन प्रस्तर में,
हूँ वही प्रतिबिम्ब जो आधार के उर में,
नील घन भी हूँ सुनहली दामिनी भी हूँ!
बीन भी हूँ मैं...

नाश भी हूँ मैं अनंत विकास का क्रम भी
त्याग का दिन भी चरम आसिक्त का तम भी,
तार भी आघात भी झंकार की गति भी,
पात्र भी, मधु भी, मधुप भी, मधुर विस्मृति भी,
अधर भी हूँ और स्‍िमत की चांदनी भी हूँ

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूं किसकी काव्य पंक्ति है?

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ! / महादेवी वर्मा

तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूं उस ओर क्या है?

तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूं उस ओर क्या है! जा रहे जिस पंथ से युग कल्प उसका छोर क्या है? आज मेरे श्वास घेरे? सिन्धु की नि:सीमता पर लघु लहर का लास कैसा?

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