बिहार में प्राथमिक बाल्यावस्था शिक्षा की चुनौतियां क्या है? - bihaar mein praathamik baalyaavastha shiksha kee chunautiyaan kya hai?

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बिहार में प्राथमिक बाल्यावस्था शिक्षा की चुनौतियां क्या है? - bihaar mein praathamik baalyaavastha shiksha kee chunautiyaan kya hai?

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सरकारी स्कूलों में सांसें गिन रही शिक्षा

बिहार में प्राथमिक बाल्यावस्था शिक्षा की चुनौतियां क्या है? - bihaar mein praathamik baalyaavastha shiksha kee chunautiyaan kya hai?

पटना. बिहार में पिछले दशक में साक्षरता वृद्धि की दर 17 फीसदी बढ़कर 63.8 प्रतिशत हो गई है फिर भी यह देश के अन्य राज्यों से कम है। सूबे में 99 फीसदी से अधिक बच्चों का स्कूलों में दाखिला हो चुका है। साक्षरता और शिक्षा के बीच बुनियादी फर्क को समझना होगा। बच्चों के लिए क्वालिटी एजुकेशन जरूरी है। मैट्रिक व इंटर की परीक्षाओं के रिजल्ट पिछले दो साल की तुलना में इस वर्ष बेहतर हुए हैं। इसके मूल में परीक्षा पैटर्न में बदलाव है।

परीक्षा पास कराने वाले शॉर्टकट से शिक्षा को बेहतर नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में हमारे बच्चे टिक नहीं पाएंगे। विश्व बैंक की 2015 की रिपोर्ट बताती है कि गणित व विज्ञान में हमारे विद्यार्थी कमजोर हैं। असर की रिपोर्ट भी यही कहती है। यू-डायस रिपोर्ट 2015-16 मानती है कि अब भी स्कूलों में सुविधाओं का अभाव है। सरकारी स्कूलों में सभी सुविधाओं के बाद भी बच्चे टिक नहीं पा रहे हैं।

अधिकांश बीच में ही पढ़ाई छोड़ दे रहे। शिक्षकों के पास पढ़ाने के साथ कई काम हैं। वे बूथ लेबल ऑफिसर हैं। उनके पास जनगणना, जाति गणना का काम है। प्रधान शिक्षक मध्याह्न भोजन के उत्तरदायी हैं। हाईस्कूल व प्लस टू स्कूलों में गणित व विज्ञान शिक्षकों की नियुक्ति की रणनीति 2015 में बनी। ठोस प्रयास नहीं हुए। शिक्षकों की गुणवत्ता के लिए पहल नहीं हुई। राज्य में उच्च शिक्षण संस्थानों की भी भारी कमी है। हालात बता रहे कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा सांसें गिन रही है। सरकार जब तक इन बिंदुओं पर गौर नहीं करती, सरकारी स्कूलों में बच्चे टिकेंगे नहीं।

शिक्षकों से लिए जा रहे अन्य काम : शिक्षा की नींंव पर ही किसी राज्य की बुलंद इमारत खड़ी होती है। बड़ी चुनौती इसी नींव को मजबूत करने की है। प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा में सुधार के प्रयास हुए हैं, लेकिन गति इतनी धीमी है कि अपेक्षित नतीजे नहीं मिल रहे हैं। योजनाएं बच्चों को स्कूलों तक तो ले आईं, लेकिन बच्चों को गुणवत्पूर्ण शिक्षा अब भी दूर की कौड़ी है। ध्यान रहे-नया बिहार शिक्षा की बुनियाद पर ही खड़ा होगा।

शिक्षा व्यवस्था की 4 खामियां : प्रतीचि व आद्री की बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर सर्वे वर्तमान स्थिति के आधार पर...

1 बुनियादी सुविधाओं का अभाव :   10% स्कूलों के पास भवन नहीं हैं। 50% में चहारदीवारी नहीं है। 30 % के पास खेल के मैदान हैं। 10 फीसदी के करीब स्कूलों में लड़के या लड़कियों के लिए अलग शौचालय का अभाव है। आज भी यह रिपोर्ट प्रभावी है।

2  शिक्षकों पर सवाल शिक्षक :  बच्चों को बेहतर भविष्य दे पाएं,ऐसी जानकारी उनके पास नहीं है। शिक्षकों की अनुपस्थिति देखी गई है। जांच के तंत्र में भी गड़बड़ी है। शिक्षकों की योग्यता को बेहतर बनाने के लिए सरकार के स्तर पर प्रयास सफल नहीं हो पाए हैं।

3 शैक्षणिक सहयोग में देरी :   बच्चों को शैक्षणिक सहयोग भी ससमय नहीं मिलता। 2017 तक सरकार छपी किताबें 1 से 8 तक के बच्चों को मुफ्त देती थी। इसमें आधा सत्र बीत जाता था। अब किताब के पैसे मिलते हैं। अभी सभी बच्चों को पैसा नहीं मिला है।
 

4 शैक्षणिक निगरानी में गड़बड़ी : नियम है कि प्रखंड से संकुल स्तर तक शैक्षणिक गतिविधियों की निगरानी हो। पूरा सिस्टम खानापूर्ति पर ही चलता है। हर स्तर पर अफसर शिक्षकों के वेतन व दूसरे काम में व्यस्त रहते हंै। इसमें बच्चों की शिक्षा दबकर रह जाती है।

प्राथमिक से 10वीं 

  • 2009 में करीब 27 लाख बच्चों का इंट्री लेबल पर सरकारी स्कूलों में दाखिला हुआ।
  • 2018 में 17.98 लाख विद्यार्थियों ने बिहार बोर्ड की मैट्रिक की परीक्षा में भाग लिया।
  • दुर्भाग्य  कक्षा 1 से 10 आते-आते 9 लाख बच्चे सरकारी स्कूली शिक्षा से बाहर हो गए।

12वीं से स्नातक

  • 1,12,02,454 18-23 वर्ष की राज्य में आबादी जिसे उच्च शिक्षण संस्थानों में होना चाहिए।
  • 13,96,699  विद्यार्थी ही राज्य के निजी और सरकारी उच्च शिक्षण संस्थानों में नामांकित हैं।
  • दुर्भाग्य }कुल आबादी में से 98 लाख लोग उच्च शिक्षण संस्थानों से बाहर हैं। 
  • ऑल इण्डिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन : 2015-16

दो मामलों से जानिए जमीनी हकीकत

  • भागलपुर जगलाल उवि के छात्र पास होते गए पर 3 साल से हिंदी-अंग्रेजी टीचर को देखा भी नहीं। 
  • मुजफ्फरपुर बालिका स्कूल सरैया में 1665 छात्राओं पर 10 शिक्षक। इसलिए बच्चे ही स्कूल नहीं आते।

 - डी. एम. दिवाकर1*

यह विश्व स्तर पर अनुभव किया गया है कि साक्षरता सामाजिक परिवर्तन के लिए महत्वपूर्ण साधनों में से एक है। सामान्य भाषा में साक्षरता पढ़ने,लिखने और समझने के माध्यम से दुनिया को जानने के लिए सशक्तीकरण के एक उपकरण के रूप में माना जा रहा है। साक्षरता के महत्व पर बल देने के लिए संयुक्त राष्ट्र शिक्षा, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने 17 सितंबर 1965 को साक्षरता के महत्व को रेखांकित करने के लिए एक प्रस्ताव पारित कर 8 सितंबर को अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस के रूप मे चिह्नित किया। बाद में 1990 में सभी को शिक्षाके लिए थाईलैंड सम्मेलन में, वैश्विक समुदाय में साक्षरता (यूनेस्को, 1990) के मुकाबले बुनियादी शिक्षा की जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रस्ताव पारित किया गया। धीरे-धीरे, साक्षरता ने जीवन और समाज की समस्याओं से निपटने वाले बहु-आयाम ग्रहण किए। कालान्तर में यूनेस्को का ग्लोबल मॉनिटरिंग रिर्पोट 2006 को जीवन के लिए साक्षरता (यूनेस्को, 2006) पर केंद्रित किया गया।

महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सबके लिये शिक्षाका क्या अभिप्राय है?क्या शिक्षा इंसान को एक विषय के रूप में या वस्तु के रूप में बनाने का एक साधन है? क्या यह एक समतामूलक समाज बनाने के लिए एक उपकरण है? यद्यपि समय-समय पर इन सवालों के जवाब भी दिये जाते रहे हैं, जिससे कुछ निश्चित मान्यताएँ भी बनीं हैं। अर्थात्, शिक्षा विकास और गरीबी उन्मूलन के लिए सबसे शक्तिशाली उपकरणों में से एक है और विद्यालयी शिक्षा समाज की नींव है, लेकिन साक्षरता और शिक्षा आम तौर पर प्रमाणीकरण के माध्यम से कार्यात्मक और जीवंत शिक्षा के समान एक जैसे आयाम नहीं हैं। यह सामाजिक परिवर्तन का एक साधन है। शिक्षा के साथ कई प्रयोग किए गए हैं। ब्रिटेन में औद्योगिक सभ्यता की प्रक्रिया में और हिन्दुस्तान जैसे इसके उपनिवेशों में आधुनिक शिक्षा का विकास हुआ। इसी तरह, जर्मनी और जापान में छात्र केंद्रित शिक्षा प्रदान की जाती है। हिन्दुस्तान में गुरुकुल, यानी, तक्षशिला, नालंदा, शांतिनिकेतन और बुनियादी विद्यालयों की परंपरा भी थी। अब, यहाँ बहु-स्तरीय विद्यालयी शिक्षा प्रणाली - आईसीएसई, सीबीएसई, एसएसएसईबी, मदरसा बोर्ड, संस्कृत शिक्षा बोर्ड (सरकार, सरकारी मान्यता प्राप्त - सार्वजनिक और निजी विद्यालय) है। इस अध्यक्षीय सम्बोधन में साक्षरता और सबको तथाकथित गुणवत्तापूर्ण शिक्षा  से आगे के मुद्दों को रेखांकित करने का एक मर्यादित प्रयास है। इस विमर्श में भूमिका के अलावा वैचारिक प्रवाह, अनिवार्य निःशुल्क शिक्षा, सबको शिक्षा की वर्तमान स्थिति एवं चुनौतियाँ, शिक्षा में गुणवत्ता की दुविधाओं की विवेचना के साथ चम्पारण सत्याग्रह से सबक और निष्कर्ष के बजाय विश्लेषण से उभरे अनिवार्यताओं को रेखांकित किया गया है।

वैचारिक प्रवाह

समय और स्थान के अनुसार शिक्षा शब्द अलग-अलग अर्थ के साथ विकसित होता रहा है। हिन्दुस्तान में विद्याशब्द का प्रयोग प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। विद्या से विनम्रता, पात्रता, धन, धर्म और सुख की परिकल्पना हितोपदेश2 में है।  हिन्दुस्तान के उत्तर वैदिक काल के पारम्परिक साहित्यों में शिक्षा उसी को कहा गया है जो मुक्ति के लिए है, न कि केवल वह आजीविका के लिए कौशल का समुच्चय है।3  इस धारणा को सामाजिक ज्ञान में बहुत ज्यादा अन्तर्निहित किया गया है, जिसे पश्चिम में यह लैटिन शब्द एडुकेटस से प्राप्त किया गया है, जिसका अर्थ है ऊपर लाना, पालन करना, शिक्षित करना’,जो कि बाहर, बाहरसे और बाहर लानेके साथ जुड़ा हुआ है। क्रिया के रूप में यह एडुकेयर या एडुशेयर से निकला है, जो डूशेयर को शिक्षित करने से या शिक्षित किया जाने से आता है, जिसका अर्थ है नेतृत्व करने या निकालने के लिए। यह शब्द क्रियापद से प्राप्त किया गया है, जिसका अर्थ है भीतर से आगे निकलना। यह सुकरात की मूल शिक्षण पद्धति थी, जो भीतर से आरेखित करने, लिखने या अपना रास्ता ढूँढने की थी। कबीर ने गुरू शिष्य परम्परा में कुम्हार और घड़ा निर्माण की प्रक्रिया में शिक्षा को देखा है।4  पश्चिम में शिक्षा संज्ञा के रूप में पहली बार 16वीं शताब्दी में अंग्रेजी में छपी थी। शेक्सपियर ने 1588 में सबसे पहले स्कूली शिक्षा प्रदान करना के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया था। अरस्तु का कहना है कि परिवार सामाजिक जीवन के लिए सबसे अच्छी पाठशाला है।

गांधीजी के अनुसार शिक्षा शरीर और मन की उत्तम क्षमताओं का सर्वांगीण विकास करना है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि सिर्फ अक्षर ज्ञान एक शस्त्र जैसा साधन है, जिसका उपयोग जान बचाने और जान लेने जैसे दोनों कार्यों के लिये हो सकता है। उनके अनुसार अक्षर ज्ञान न तो शिक्षा का आरम्भ है, न अंत। यह केवल जीविका का साधन भी नहीं है। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य नैतिकता की समझ, चरित्र निर्माण, कर्त्तव्य परायणता, नैतिकता के नियमों का ज्ञान और खुशहाली हासिल करना है। मौलिक एवं वास्तविक शिक्षा स्वाभाविक, सहज एवं पर्यावरण के अनुकूल होती है, जिससे श्रम के प्रति आदर एवं आत्मनिर्भरता के साथ व्यक्ति एवं समाज का सर्वांगीण (नैतिक, सांस्कृतिक एवं भौतिक) विकास होता है। ऐसी शिक्षा के लिये वे मातृभाषा को शिक्षा का सबसे अच्छा माध्यम मानते थे। शिक्षाशास्त्री हक्सली से प्रभावित गांधीजी के अनुसार सच्ची शिक्षा कुदरती कानून का पालन करना सिखाती है। गांधीजी ने हुनरमंद नयी तालीम पर ज़ोर दिया था। वे समाज और देश-निर्माण की आवश्यकता के लिये समाधानमूलक शिक्षा चाहते थे।

इस प्रकार, गांधीजी की दृष्टि से आजाद हिंदुस्तान के लिये आजाद शिक्षा व्यवस्था की जरूरत थी। गांधीजी के नेतृत्व में 1917 में चम्पारण सत्याग्रह के दौरान ही हिंदुस्तान की आजादी के लिये सत्याग्रह और आश्रम में राष्ट्रीय पाठशाला की शिक्षा का प्रयोग चल रहा था, जिसमें काका कालेलकर और मशरूवालाआदि शामिल थे। चम्पारण में सत्याग्रह के अनुभव से बुनियादी विद्यालय का प्रयोग इसका उदाहरण है। सन् 1921 में आजादी के लिये असहयोग आंदोलन के तेज होने के साथ ही हिन्दुस्तान में वैकल्पिक शिक्षा के विकास के लिये अनेक प्रयोग प्रयोग हुए और राष्ट्रीय शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की गयी। काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, यादवपुर राष्ट्रीय परिषद, गुरुकुल विद्यापीठ, जामिया मिलिया इस्लामिया, आन्ध्र राष्ट्रीय कला विद्यापीठ, तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, आदि प्रमुख थे। वर्धा सम्मेलन को संबोधित करते हुए महात्मा गांधी ने कहा थाः

मैं किसी व्यवसाय के बारे में आपसे नहीं कह रहा, जिसे शिक्षा के साथ-साथ अपनाना है। अब मैं यह कहना चाहता हूँ कि बच्चों को चाहे जो भी, जिस भी प्रकार की शिक्षा दी जाए, वह अनिवार्य रूप से पेशा या हस्तशिल्प के माध्यम से ही दी जाए। आप कह सकते हैं कि मध्यकाल में हमारे देश में बच्चों को पेशे (दस्तकारी) के माध्यम से ही शिक्षा दी जाती थी। मैं इस दावे को स्वीकार करता हूँ।लेकिन उन दिनों पेशा (दस्तकारी) के माध्यम से संपूर्ण शिक्षा प्रदान करने के बारे में विचार नहीं किया जाता था। एक पेशा (दस्तकारी) से संबंधित शिक्षा उसी तक सीमित रहती थी। हमारा लक्ष्य पेशे अथवा हस्तशिल्प के सहयोग से बुद्धि का विकास करना है।........... इसलिए मेरा सुझाव है कि सिर्फ पेशे अथवा व्यवसाय की पूर्ण जानकारी तक सीमित न होकर उस पेशे अथवा व्यवसाय के माध्यम से ही बच्चों को समग्र रूप से शिक्षित करें। उदाहरण के लिए तकली को देखिए। तकली का पाठ हमारे विद्यार्थियों के लिए पहला पाठ होगा, जिसके माध्यम से वे कपास के इतिहास के अतिरिक्त, लंकाशायर तथा ब्रिटिश साम्राज्य के बारे में पर्याप्त जानकारी अर्जित कर सकेंगे।....... यह तकली कैसे काम करती है? इसकी उपयोगिता क्या है? और इसके अंदर कौन सी शक्तियाँ निहित हैं? इस प्रकार इन सारे प्रश्नों का उत्तर बच्चा खेल-खेल में जान सकता है। इसी के बहाने वह थोड़ा-बहुत गणित का ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। जब उससे पूछा जाए कि तकली पर लिपटे कपास के सूतों की गिनती करो, अथवा उससे यह पूछा जाए कि तुमने कितनी तकली काटी, तो इस प्रक्रिया में धीरे-धीरे उसका गणितीय ज्ञान से भी परिचय बनता जाता है और खूबसूरत बात यह कि उसके दिमाग पर इससे जरा भी बोझ नहीं पड़ता। सीखने वाले को यह पता नहीं लगता कि वह सीख रहा है। खेलते हुए, गाते हुए वह तकली नचाता कितनी ही बातें सीखता जाता है।”(महात्मा गांधी, 1937)।

डॉ जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में 1937 में एक नौ सदस्यीय शिक्षा समिति गठित की गयी, जिसमें आर्यनायकम, आशा देवी, विनोबा भावे, काका कालेलकर, किशोर मशरूवाला, कृष्णदास जाजू, जे सी कुमारप्पा, ख्वाजा गुलाम सैयद्दीन एवं टी के शाह थे। इस समिति ने अपना प्रतिवेदन 1938 में दिया। कमिटी के प्रतिवेदन में समग्र व्यक्तित्व के विकास हेतु किताबी ज्ञान के दुष्प्रभाव से बचने के लिये मनोवैज्ञानिक दृष्टि से शिक्षा देने, मानसिक एवं शारीरिक श्रम के अन्तर को आवश्यक रूप से समाप्त करने एवं उत्पादक श्रम की प्रतिष्ठा के मूल्य का संस्कार देने की संस्तुति की। कमिटी की स्पष्ट राय थी कि नयी तालीम से देश उत्पादन में वृद्धि के साथ आत्मनिर्भर विकास की ओर अग्रसर होगा। इन सबके परिणामस्वरूप ज्ञान की सभी विधाओं के बीच सहज, प्राकृतिक, व्यावहारिक एवं सकारात्मक सम्बन्ध विकसित होंगे। (जाकिर हुसैन कमिटी रिपोर्ट, 1938)।

गांधीजी मानते थे कि समग्र व्यक्तित्व के विकास के लिये शिक्षा में क्रांतिकारी परिवर्तन करने की जरूरत है। उन्हीं के शब्दों में :  ‘‘हमारी शिक्षा में क्रांतिकारी परिवर्तन करने की जरूरत है। मस्तिष्क का शिक्षण हाथ से हो। अगर मैं कवि होता तो मैं पाँचों अंगुलियों में निहित संभावनाओं पर कविता लिखता। आपको ऐसा क्यों सोचना चाहिए कि बुद्धि ही सबकुछ है, हाथ और पैर कुछ भी नहीं? जो अपने हाथों को नहीं साधते और सिर्फ रटंत विद्या का वरण करते हैं उनके जीवन में संगीतनहीं होता। उनकी समस्त क्षमताओं का उपयोग नहीं हो पाता। केवल किताबी ज्ञान बच्चे में ऐसी रूचि पैदा नहीं करती कि उसका ध्यान पूर्ण रूप से एकाग्र हो सके। शब्दों से मस्तिष्क बोझिल हो जाता है और बच्चे का मन भटकने लगता है। इस स्थिति में हाथ वह करता है जो उसे नहीं करना चाहिए, आँख वह देखती है जो उसे नहीं देखना चाहिए, कान वह सुनता है जो उसे नहीं सुनना चाहिए, और वे वह सब नहीं करते, देखते और सुनते हैं जो कि उन्हें करना, देखना और सुनना चाहिए। उन्हें सही विकल्प चुनने की शिक्षा नहीं दी जाती, इसलिए उनकी विद्या प्रायः नष्ट हो जाती है। ऐसी शिक्षा जो हमें अच्छे और बुरे के बीच भेद करना ना सिखाये, जो एक से मिलाये और दूसरे से परहेज करे, वह अर्थहीन है।’’ (महात्मा गांधी, 1939)।

प्रारम्भ में नयी तालीम के प्रयोग में प्रान्तीय सरकारों के सहयोग से उत्साहवर्द्धक परिणाम भी आये। सन् 1940 तक 5000 से अधिक बुनियादी विद्यालय, 12 शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय, 2 शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय, और 7 पुनश्चर्या पाठ्यक्रम केन्द्र खुले। लेकिन दूसरे महायुद्ध के प्रभाव में प्रांतीय सरकारों ने अपना सहयोग समाप्त कर दिया, जिससे यह प्रयास कमजोर पड़ा। सन् 1939 के पुणे से लेकर 1959 के राजपुरा तक नयी तालीम के सम्मेलन होते रहे। अन्ततः समान शिक्षा के नाम पर लगभग सभी को मेकॉले शिक्षा की मुख्यधारा में शामिल कर दिया गया। बिहार के भी 391 विद्यालय एवं 1 महाविद्यालय इसके शिकार हुए। बिहार विद्यापीठ आज भी निस्तेज खड़ा है, जहाँ कभी देश के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डा0 राजेन्द्र प्रसाद और लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसे विभूतियों का साहचर्य रहा था। यद्यपि नयी तालीम का प्रयोग कुछ प्रांतों में (गुजरात, महाराट्र, केरल, पश्चिम बंगाल, आदि) चलते रहे, जो आज भी चल रहे हैं।

अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा की आवश्यकता को गांधीजी ने 1937 में ही रेखांकित किया था। वे मानते थे कि शिक्षा अनिवार्य एवं मुफ्त होनी चाहिये (हरिजन, 9-10,1937, पृ 292)। वे चाहते थे कि 7 से 14 वर्ष के बच्चों की शिक्षा की जिम्मेदारी राज्य ले ले (हरिजन, 11-9,1937, पृ 238), लेकिन जब वे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान आगा खॉ महल में नजरबंद थे तो उन्होंने आजीवन शिक्षा पर विचार किया। 1. पूर्व बुनियादी शिक्षा 7 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिये 2. बुनियादी शिक्षा 7 से 14 बर्ष की आयु के लिये 3. उत्तर बुनियादी शिक्षा 14 बर्ष से अधिक के लिये और 4. प्रौढ़ शिक्षा बड़े उम्र के स्त्री-पुरूषों के लिये (सुमन, 1968, पृ17)। राज्य का संरक्षण प्राथमिक शिक्षा को मिले, दस्तकारी के माध्यम से शिक्षा दी जाय और छात्रों द्वारा बनाये गये उत्पादों को राज्य खरीदे (हरिजन सेवक, 31-7,1937, पृ 191-92)। उनके अनुसारः ‘‘नयी तालीम के बिना हिन्दुस्तान के करोड़ों बालकों को शिक्षा देना लगभग असम्भव है। यह चीज सर्वमान्य हो चुकी कही जा सकती है। इसलिये ग्रामसेवक को उसका ज्ञान होना ही चाहिये। उसे नयी तालीम का शिक्षक होना चाहिये। इस तालीम के पीछे प्रौढ़ शिक्षण तो अपने आप चला आयेगा। जहॉ नयी तालीम ने घर कर लिया होगा, वहाँ बच्चे ही माता-पिता के शिक्षक बन जाने वाले हैं।’’ (हरिजनसेवक, 17.08.1940)। शिक्षा शब्द का अभी भी अनुदेशके बजाय परवरिशका अर्थ है। परन्तु आज भी सत्य यही है कि समाज के निचले पायदान के अधिकांश लोग शिक्षा और संसाधनों की पहुँच से ऐतिहासिक रूप से वंचित रहते हैं (अम्बेडकर, 1998: 125-150)।

दुनिया में बढ़ते अनुभव के साथ, शिक्षा को मुक्ति, समानता और न्याय का एक प्रभावी साधन माना गया है। शिक्षकों, विचारकों, प्रयोगधर्मियों, नीति निर्माताओं, कार्यान्वयन अभिकरणों और समाज में बडे़ पैमाने पर शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिये सदियों से चिंताएं रही हैं। ऐसा कहा जाता है कि शिक्षा मुक्ति का विज्ञान है। शिक्षा सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त होता है, यह केवल कौशल और कौशल की क्षमता का एक समुच्चय नहीं है। यह अकेले कार्यात्मक साक्षरता की तुलना में न केवल बहुत बड़ा क्षेत्र है बल्कि यह मानव और समाज बनाने के लिए एक विज्ञान है, जो स्वयं भी शिक्षा की विश्वदृष्टि पर निर्भर रहने के साथ-साथ एक सामाजिक प्रगति के परिप्रेक्ष्य और दृष्टि पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, यदि परिप्रेक्ष्य और दृष्टि समतामूलक समाज की है, तो शिक्षा का विश्व दर्शन भी समतामूलक होना चाहिए। शायद यह एक बड़ा कारण है कि बहु संरचना और बहु-वर्गीकृत शिक्षा का भेद-भावपूर्ण और बहिष्करण मिश्रित शिक्षा की प्रणाली, जो भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से विरासत में मिली है, एक समतामूलक समाज की रचना में सहायता नहीं कर सकती है।

अहिंसक समाज रचना महात्मा गांधी की प्रयोगधर्मिता थी और वे गरीबों के स्वराज्य को ही अपना स्वराज्य मानते थे। उनका मानना था कि वे आजाद तब होंगे जब कोई भूखा नहीं होगा, कोई नंगा नहीं होगा, कोई पहला नहीं होगा और ना कोई आखिरी होगा। देश में अमन चैन होगा। (गांधी, 1931)। जब देश आजाद हो रहा था और शीर्ष के नेतागण आजादी का जश्न मना रहे थे, गांधीजी अशांत क्षेत्र नोआखाली की यात्रा पर थे। पत्रकार के पूछने पर उन्होंने कहा थाः ‘‘हमारे लिये वास्तविक आजादी तब ही आयेगी जब हम अपने आपको पश्चिमी शिक्षा, संस्कृति, रहन-सहन से मुक्त करा पाते हैं।’’ (गांधी, खंड 87ः310) वे आजादी की और भी साफ तसवीर बनाते हैं : ‘‘जब तक देश से गरीबी और बेरोजगारी खत्म नहीं हो जाती तब तक मैं इससे सहमत नहीं होउंगा कि हमने आजादी पा ली है।’’ (गांधी, खंड 87ः463)। आज जब हम विचार करते हैं कि शिक्षा का स्वरूप कैसा हो तो यह इस दृष्टि पर निर्भर करता है कि हम कैसा आदर्श समाज बनाना चाहते हैं। हम जैसा समाज बनाना चाहते हैं, उसके अनुरूप ही शिक्षा दृष्टि होगी। गांधीजी की दृष्टि आदर्श समतामूलक, शोषणमुक्त अहिंसक समाज रचना की थी, जिसे उनकी कालजयी रचना हिन्दस्वराज्यमें देखा जा सकता है। हिन्दस्वराज्य के 18वें अध्याय में लगभग छह पृष्ठ में उन्होंने शिक्षा की तसवीर खिंची है। इसके अलावा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी जैसे, हरिजन, हरिजनसेवक में, तथा नयी तालीम, मेरे सपनों का भारत, ग्रामस्वराज्य, और गांधी समग्र रचना, आदि में भी विभिन्न अवसरों पर शिक्षा के सम्बन्ध में उनके विचारों की हिन्दस्वराज्य से निरंतरता दिखती है। गांधीजी की शिक्षा की अवधारणा मूलतः सत्याग्रह और स्वराज्य के लिये है।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं द्वारा अपनी शिक्षा प्रणाली की जरूरत को बहुत सिद्दत से महसूस किया गया था। गांधीजी ने वर्धा में बुनियादी तालिम (बेसिक शिक्षा) पर एक सम्मेलन बुलाया और 1937 में जाकिर हुसैन की अध्यक्षता वाली एक समिति का गठन किया गया, जिसने स्वतंत्र भारत के लिए स्वतंत्र शिक्षा प्रणाली की 1938 में सिफारिश की। सिफारिशों की महत्वपूर्ण अनुशंसाएं मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा प्रदान करना, मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच के अंतर को पाटना, श्रम का आदर, चरित्र निर्माण, कर्तव्य परायणता, नैतिकता, आत्मनिर्भरता और समानता के मूल्यों के साथ,जीवन, संस्कृति और संवृद्धि के लिए अंतर्निहित एकीकृत व्यक्तित्व विकास करना था। शैक्षिक नीति आयोग 1948 में समाज के मूल्यों, बुनियादी कौशल, स्वतंत्रता के विकास, समस्याओं को सुलझाने, मानवीय और रचनात्मक प्रतिभाओं के विकास और सामाजिक जिम्मेदारी और सहयोग के गुणों के विकास पर जोर दिया गया। राष्ट्रीय  शिक्षा, अनुसंधान एवं प्रशिक्षण 1970 में आत्मपरीक्षण, मानव संबंधों और नागरिक जिम्मेदारी पर जोर दिया। स्वतंत्र भारत में भी कोठारी आयोग पर व्यापक चर्चा हुई और आचार्य राममूर्ति आयोग ने भी कई सुधारों का सुझाव दिया।

निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा

आधुनिक दुनिया में बच्चों की निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा पर उनके विद्यालय जाने की उम्र (14 वर्ष से कम उम्र) पर मानव विकास के इतिहास की लगभग डेढ़ शतक पहले से चिंतन में है। यह मुद्दा पहली बार ग्रेट ब्रिटेन में 1870 में फोस्टर एजुकेशन एक्टके साथ उठाया गया था, जिसके द्वारा राज्य ने प्राथमिक शिक्षा की जिम्मेदारी ग्रहण की थी और 1880 में दस साल की उम्र तक स्कूल की उपस्थिति अनिवार्य कर दी गई थी। 1918 तक माध्यमिक शिक्षा स्पष्ट रूप से राज्य की जिम्मेदारी के रूप में परिभाषित नहीं हुई थी। दुनिया के लगभग 198 देशों में से लगभग 100 देशों में लोकतांत्रिक सरकार है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के साथ, भारत उन 130 देशों के समूह में शामिल हो गया है, जो बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए कानूनी गारंटी देता है। यूनेस्को की सबके लिए शिक्षाकी ग्लोबल मॉनिटरिंग रिपोर्ट 2010के मुताबिक, 135 देशों में सभी के लिए स्वतंत्र और गैर-भेद-भावपूर्ण शिक्षा के लिए संवैधानिक प्रावधान हैं। इसे 2005 के विश्व बैंक सर्वेक्षण में भी उल्लिखित किया गया था, जिसमें कहा गया था कि केवल 13 देश निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा पूरी तरह से प्रदान करते हैं। अधिकांश देशों में, कुछ प्रत्यक्ष लागतों की सूचना दी गई है, हालांकि कोई ट्यूशन शुल्क नहीं लिया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है: वास्तव में, निःशुल्क प्राथमिक विद्यालय अभी भी सामान्य नियम के बजाय अपवाद बना हुआ है।“बालिकाओं को 15 साल की उम्र तक के लिए मुफ्त शिक्षा प्रदान करने में देशों की सूची में सबसे ऊपर है। यह छह से 21 वर्ष के आयु वर्गो के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देता है। लैटिन अमेरिकी देश, जहाँ प्राथमिक शिक्षा दो दशक पहले सबसे खराब थी, ने 1990 में एक विशेष शिक्षा कार्यक्रम को लागू किया था, जिसमें प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यार्थियों में महत्वपूर्ण सुधार दर्ज किया गया था। जर्मनी, बेल्जियम, इटली और नॉर्वे जैसे सात देशों में है, जिनमें बच्चों को अपनी पूरी स्कूली शिक्षा अवधि को मुफ्त अनिवार्य शिक्षा के प्रावधान है। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान सार्वभौमिक शिक्षा की मांग को उठाया गया था और स्वतंत्र भारत के संविधान (अनुच्छेद 45) में विचार किया गया, जिसमें लिखा गया हैः संविधान के प्रारंभ से दस वर्षों की अवधि के भीतर राज्य 14 वर्ष की आयु पूरी करने तक सभी बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करेगा।केंद्र सरकार ने 1975 में संविधान में 42 वें संशोधन के बाद, समवर्ती सूचीमें इसे शामिल किया। आंध्र प्रदेश की राज्य सरकार 1993 में संविधान के अनुच्छेद 21, जो कि जीवन के मौलिक अधिकार और भारत के नागरिकों के लिए स्वतंत्रता की गारंटी देता है, के खिलाफ कानूनी मामले में प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उपयोग किया गया था। यह आगे बहस के माध्यम से जुड़ा था और 2002 में 86वें संशोधन की ओर इशारा किया, जिसके अनुसार राज्य 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगी, जैसा कि राज्य, कानून निर्धारित कर सकता है । भारत ने तेजी से समावेशी विकास हासिल करने के लिए 6 से 14 वर्ष के आयु के वर्ग के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीआई) 2009अधिनियमित किया। इस अधिनियम के जरिए, अप्रैल 2010 से लागू करने के लिए राज्यों को लागू करने के लिए इसे अनिवार्य कर दिया गया है। बिहार सरकार द्वारा निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम, 2009 जारी किया गया ताकि यह (राज्य सरकार) बच्चों के अधिकार को प्रभावी ढंग से और प्रभावी रूप से हूबहू लागू कर सके। उपलब्ध बुनियादी ढांचे और सहायता प्रणाली से राज्यों को केंद्र से सहायता के साथ अपने-अपने प्रयासों को लगाया गया है। हालाँकि, गुणात्मक और भौतिक बुनियादी ढाँचे, वित्तीय अपर्याप्तता, कमजोर वितरण प्रणाली, असंगत अध्यापन, पाठ्यचर्या संरचना, भाषा, प्रतीकों और पर्यावरण आदि में गंभीर अंतराल को देखते हुए राज्यों के माध्यम से इसका कार्यान्वयन एक कठिन काम रहा है, जिस पर एक गंभीर पुनर्विचार की आवश्यकता है। हालाँकि, यह अध्ययन इन सभी मुद्दों पर इस पत्र में विचार नहीं कर सकेगा। इसमें सीमित बाधाओं का विश्लेषण करने और उन्हें रेखांकित करने का मर्यादित प्रयास है, जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए और पता होना चाहिए।

सबको शिक्षा की वर्तमान स्थिति

सबको शिक्षा और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, दुनिया भर में बौद्धिक, नीति निर्माताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की चिंता रही है। शिक्षा प्रणाली और परिणाम, मात्रा और गुणवत्ता के मामले में आजादी के बाद काफी प्रगति हुई हैं। यह सवाल उठता है कि शिक्षा की गुणवत्ता क्या है? और हम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के माध्यम से क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या कार्यात्मक साक्षरता गरीबी उन्मूलन के लिए कौशल, रोजगार और आय उपलब्ध कराने का साधन है? विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों जैसे शिक्षा के लिए राष्ट्रीय नीति, 1968, 1996, सर्व शिक्षा अभियान, मध्याह्न भोजन, समेकित बाल विकास योजना, शिक्षा का अधिकार कानून के माध्यम से सबको गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए कई पहलें की गई हैं। राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय उच्च शिक्षा अभियान, आदि पहल भी महत्वपूर्ण हैं। हालांकि, इनका कार्यान्वयन एक गंभीर चुनौती रही है। नतीजतन, हालांकि देश शिक्षा की मात्रा और शिक्षा की गुणवत्ता के संदर्भ में काफी आगे बढ़ गया है, फिर भी अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिये लंबा रास्ता तय करना है।

हिन्दुस्तान में साक्षरता दर 1961 में 28.3 प्रतिशत से बढ़कर 2011 में बढ़कर 72.9 हो गई है। पुरूष साक्षरता दर भी 40.4 प्रतिशत से बढ़कर 80.9 प्रतिशत हो गई है। हालांकि, महिला साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत साक्षरता दर से काफी पीछे है। यह 15.4 प्रतिशत से बढ़कर 64.4 प्रतिशत हो सका है। हालांकि शिक्षा में लिंग अंतर 25.1 प्रतिशत से घटकर 16.3 प्रतिशत कम हो गया । बिहार के मामले में, इसी अवधि के लिए साक्षरता दर 22 प्रतिशत से बढ़कर 61.8 प्रतिशत हो गई। पुरूष साक्षरता दर 35.2 से बढ़कर 71.2 और महिला साक्षरता 8.2 से बढ़कर 51.5 प्रतिशत हो गई । शिक्षा में लिंग अंतर 27 प्रतिशत से घटाकर 19.7 प्रतिशत हो गया है। इस प्रकार, बिहार अभी भी राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे है । साक्षरता दर के तुलनात्मक अंतर से पता चलता है कि भारत की 2011 जनगणना में साक्षरता दर की सीढ़ी पर बिहार, झारखंड, राजस्थान और मध्यप्रदेश जैसे पिछड़े राज अभी भी सबसे पीछे हैं । बिहार न केवल राष्ट्रीय औसत से पीछे है, यह झारखंड, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और ओडिशा जैसे कई पिछडे़ राज्यों से भी पीछे है। अंतरराज्यीय असमानता अब भी बिहार में खतरनाक है।  बिहार के 30 से अधिक जिलों की साक्षरता राष्ट्रीय औसत से नीचे हैं। लगभग 12 जिलों में 60 प्रतिशत से कम है । केवल 8 जिले राष्ट्रीय औसत से अधिक और करीब हैं। बिहार के 29 से अधिक जिलों में जहाँ पुरूष साक्षरता दर राष्ट्रीय पुरूष साक्षरता दर से कम है। 13 से अधिक जिलों में सामान्य राष्ट्रीय साक्षरता स्तर के नीचे भी है और केवल नौ जिलों में या तो राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा या उससे अधिक है। महिला साक्षरता का अंतराल वितरण बहुत खतरनाक है । लगभग सभी जिलों में साक्षरता का राष्ट्रीय औसत दर से नीचे है।  (स्त्रोतः भारत जनगणना 2011)

लगभग 15 जिलों में भी 50 प्रतिशत से कम महिला साक्षरता है और 32 जिलों में राष्ट्रीय साक्षरता महिला साक्षरता के नीचे है। केवल छह जिले या तो राष्ट्रीय स्तर की महिला साक्षरता दर के करीब या उससे ऊपर हैं। इस प्रकार, महिला साक्षरता की अंतर जिलों की स्थिति को राष्ट्रीय औसत को पकड़ने के लिए विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है ।

सबको शिक्षा की चुनौतियाँ

बिहार के 12 जिलों (ग्रामीण और शहरी) के 33,661 बच्चों के अध्ययन से पता चला कि 65.9 प्रतिशत बच्चे स्कूल जा रहे हैं (6-14), जिनमें से 90.2 प्रतिशत दाखिला है और 9.8 प्रतिशत स्कूल से बाहर, कभी भी नामांकित नहीं (8.6 प्रतिशत) और ड्रॉप आउट (1.3 प्रतिशत) हैं। लगभग 79 प्रतिशत सरकारी स्कूल में नामांकित थे, जो आमतौर पर हिन्दी माध्यम के थे। लगभग 2.6 प्रतिशत बच्चों को एक से अधिक विद्यालयों में दाखिला लिया गया था। लगभग 2.5 प्रतिशत बच्चों को विशेष जरूरत थी, फिर भी उचित सहायता प्रणाली का इंतजार कर रहे थे (दिवाकर एवं कुमार, 2015)। हालांकि ये आंकड़े पूरे राज्य के लिए बहुत अधिक भी हो सकते हैं। नामांकन के छीजन को रोकने के लिए बिहार सरकार द्वारा अनेक प्रोत्साहन योजनायें लागू की गयी हैं, जैसे साईकिल, पोशाक और छात्रों के लिए वजीफा, बुनियादी ढाँचे का निर्माण, अर्थात् भवन, शौचालय और पेयजल, आदि जैसे कई कदम उठाये गए हैं। यद्यपि विद्यालय छोड़ने वालों की संख्या अभी भी बनी रहती है (बिहार सरकार, 2016)। हालांकि स्कूली शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर विद्यालय छोड़ने वालों की संख्या में समय के साथ में गिरावट आई है। बिहार में प्राथमिक शिक्षा में विद्यालय छोड़ने वालों की दर में परिवर्तन देखा गया है। प्राथमिक शिक्षा में लड़कियों की संख्या में कमी के कारण तीव्र गिरावट देखी गई, हालांकि यह अभी भी बहुत अधिक है । निचली कक्षाओं में कम छोड़ने वालों की संख्या और उपरी कक्षाओं में छीजन बढ़ने वाले छात्रों की संख्या में गिरावट आई है (दिवाकर एवं अन्य, 2015)। स्कूल से बाहर लड़कियों के मामले में बिहार में स्कूली बच्चों के बाहर2006 में 17.6 प्रतिशत से सबसे ज्यादा 5.7 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई (2014 में एएसईआर, 2014)। नमूना जिलों में लगभग 9.8 प्रतिशत बच्चे स्कूल से बाहर थे और लगभग 2.6 प्रतिशत बच्चों को एक से अधिक विद्यालय (दिवाकर और कुमार, 2015) में नामांकित किया गया था।

हाल ही में, शिक्षा क्षेत्र पर कुल राज्य सार्वजनिक व्यय में काफी बढ़ोतरी हुई थी। यह 5788.02 करोड़ रूपये का बजट था 2007-08 में, जो साल-दर-साल बढ़ा और 2013-14 में 13,667.23 करोड़ रूपये तक पहुंच गया। हालांकि शिक्षा के लिए कुल बजट का प्रतिशत 2007-08 में 18.3 से बढ़कर 2012-13 में 19.35 और 2013-14 में 17 हो गया है। योजना व्यय 1046.26 करोड़ रूपये से बढ़ाकर 5038.99 करोड़। इसके अलावा, यह क्षेत्र प्राथमिकता पर रहा और सामाजिक क्षेत्र का 54.3 प्रतिशत बजट अकेले शिक्षा पर 2007-08 में खर्च किया गया था, जो 2013-14 में 48 प्रतिशत के बराबर था। चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर 16.3 फीसदी थी (बिहार सरकार, 2016)। शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय में पर्याप्त वृद्धि के बावजूद, अंतराल अब भी भारी है । 1990 के दौरान सुधारों के नाम पर हर क्षेत्र में नियुक्ति पर अप्रत्यक्ष अधिस्थगन था उसके बाद, पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से विकेन्द्रीकरण और अनुबंध शिक्षकों की नियुक्ति के नाम पर भर्ती प्रक्रिया शुरू हुई। बाद में राज्य स्तर के शिक्षकों की योग्यता परीक्षा (एसटीईटी) के आधार पर सुधारात्मक पहल कदमियां, जिनमें शिक्षकों को भर्ती और प्रशिक्षण दिया गया था, को अपनाया गया था और स्थिति में मामूली सुधार हुआ था।

सबको शिक्षा में गुणवत्ता की दुविधाएं

सबको गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए शिक्षा के अधिकार के तहत अनेक प्रावधान किए गए हैं, जिसमें पूर्णकालिक स्कूलों के अनुपालन की आवश्यकता होती है। हर साल न्यूनतम संख्या, बुनियादी सुविधाओं और विद्यालय, स्कूल विकास योजना और स्कूल प्रबंधन समिति में प्रशिक्षण सामग्री, प्रशिक्षित और पूर्णकालिक शिक्षक, तथा छात्र केंद्रित शिक्षा। इसका अर्थ है कि किसी बच्चा की जरूरतों, बहुस्तरीय शिक्षा, कोई शारीरिक दंड या निरोध नहीं, किसी भी कठिनाई से सीखने का तनाव रहित वातावरण, कमजोर छात्र या देर से आने वाले छात्रों को शैक्षिक धारा में रखने के लिए अनुशासनिक शिक्षण, पाठ्यक्रम निर्धारित करने के लिए अनुकूलित शिक्षण, शैक्षिक प्राधिकरण द्वारा, आदि। इसके अलावा, स्कूलों में गुणवत्ता के वातावरण में कई पहलुओं के साथ अन्य बातों को संबोधित किया जाना है। गुणी शिक्षकों की उपलब्धता, कार्यों पर गुणवत्ता के समय को बनाए रखने, पाठ की योजना की गुणवत्ता और शिक्षण सीखने के तरीकों, कक्षा के कमरों की उपलब्धता, आकर्षक सीखने के माहौल, व्यक्तित्व विकास के लिए अतिरिक्त पाठ्यक्रम संबंधी गतिविधियाँ, शिक्षक माता-पिता की बातचीत, आदि।

हमें कुछ विद्यालयी शिक्षा में गुणवत्ता के अंतराल को समझने के लिए ऊपर वर्णित संकेतक को समझना श्रेयस्कर होगा। शिक्षकों का अंतर 1990 के दशक के दौरान सुधारों के नाम पर हर क्षेत्र में नियुक्ति पर अप्रत्यक्ष अधिस्थगन था। इसके बाद, विकेंद्रीकरण के नाम पर तदर्थ भर्ती प्रक्रियाओं से बहुत कम पारिश्रमिक, अकुशल श्रम के लिए न्यूनतम मजदूरी से भी नीचे पर शिक्षकों की कमी को भरने के लिए अपनाया गया। बाद में एसटीईटी आधारित भर्ती प्रक्रियाओं सहित सुधारात्मक पहलों को अपनाया गया है और  स्थिति में मामूली रूप से सुधार हुआ भी है, लेकिन अभी भी कई पद खाली हैं और भर्ती अभी तक की जानी बाकी है ।

वर्ष 2011 में, कुल प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में 74,189 थी कुल प्राथमिक और उच्च प्राथमिक छात्र 2,09,64,378 थे, और शिक्षकों की संख्या 3,31,487 थी। इस प्रकार, छात्र शिक्षक अनुपात 63 : 24 था । यदि छात्र शिक्षक अनुपात 30 : 1 हो तो आवश्यक शिक्षकों की संख्या 6,98,813 होनी चाहिये थी। इसलिए, शिक्षकों की संख्या में अंतर 3,67,326 था। 2021 में, कुल अनुमानित छात्रों की संख्या 2,35,30,914 होगी, इसलिए छात्र-शिक्षक अनुपात 30 : 1 के हिसाब से लगभग 7,35,041 शिक्षकों की आवश्यकता होगी। अंतराल निश्चित रूप से अधिक होगा (दिवाकर, 2014)। माध्यमिक विद्यालयों के मामलें में लगभग 30 प्रतिशत शिक्षकों के पद रिक्त हैं और कई जिलों में छात्र शिक्षक अनुपात 100 : 1 से भी अधिक (दिवाकर, घोष और चौधरी, 2015) है। हालांकि एएसईआर रिपोर्ट 2010 में शिक्षा का अधिकार कानून के हिसाब से - छात्र शिक्षक अनुपात स्कूलों में 8.8 फीसदी से सुधार के कुछ सुखदायक संकेतों को बताता है जो कि 2014 में 12.7 फीसदी है। केवल प्रदर्शन निष्कर्षों की नियुक्ति और उनका प्रशिक्षण गुणवत्ता के वातावरण को सुनिश्चित नहीं करता है । 529 कक्षा के अवलोकन का एक अध्ययन (186 मानक द्वितीय, 253 मानक चौथा और 9वीं कक्षा के कक्षा का निरीक्षण करने के लिए)

जिस पर 15,069 छात्र और 326 शिक्षकों को भी शामिल किया गया था, इस अध्ययन से पता चलता है कि अध्यापक की उपस्थिति स्कूल के प्रारम्भ के आधे घंटे के बाद 67 प्रतिशत और आधे घंटे के बंद होने से पहले 65 प्रतिशत (दिवाकर और बेहरा, 2014) के अनुसार थी। इस अध्ययन से पता चलता है कि कक्षा में बिताए गए समय की गुणवत्ता एक अन्य चिंता का विषय है। केवल 14 प्रतिशत फीडबैक पर छात्र केन्द्रित, 60.9 प्रतिशत शिक्षक केन्द्रित, 16.9 प्रतिशत शिक्षा पर और प्रबंधन और ऑफ क्लास गतिविधियों पर शेष । कक्षाओं में छात्र और शिक्षक केंद्रित गतिविधियों को पैटर्न अलग कम ही  होता है, भले ही वर्ग विज्ञान, गणित या भाषाओं के थे। लगभग 18 प्रतिशत सक्रिय शिक्षण गतिविधियों पर खर्च किया गया था, निष्क्रिय शिक्षा पर 45.9 प्रतिशत, जो धीरे-धीरे कक्षा के बढ़ते स्तर, यानी, द्वितीय, छठी और छठी के साथ बढ़ी । कक्षा 4 के लिए स्पष्टता और उच्चारण के संदर्भ में शोधकर्ता संतोषजनक प्रदर्शन, छठे और द्वितीय क्रमशः 22.8 प्रतिशत, 20.7 प्रतिशत और 18.9 प्रतिशत थे। स्पष्टता और उच्चारण के संदर्भ में शिक्षकों को संतोषजनक प्रदर्शन, कक्षा 4, द्वितीय और छठी के लिए क्रमशः 22.8 प्रतिशत, 18.9 प्रतिशत और 20.7 प्रतिशत थे । माना गया कि कुल कक्षाओं में लगभग 46 प्रतिशत बहु वर्गीकृत वर्ग थे । बहु-वर्गीकृत वर्ग से निपटने में कोई भी शिक्षक सक्षम नहीं पाए गए । शिक्षकों को चुनाव, जनगणना और बीआरसी, सीआरसी, लाइव स्टॉक जनगणना, पल्स पोलियो ड्राइव, इत्यादि जैसे अन्य कार्यों के लिए अध्यापन से वापस ले लिया गया । माता-पिता, शिक्षकों और छात्रों को सीखने के लिए एक अनुकूल माहौल बनाने के लिए शायद ही कोई रचनात्मक पहल है (दिवाकर और बेहराः 2014)। उचित सबक प्रणाली की कमी भी एक कारण है कि गुणवत्ता के निष्पादन और परिणाम प्राप्त करने में कठिनाईयॉ रही हैं। लगभग 60 से 80 प्रतिशत शिक्षक अध्यापन योजना और रचनात्मक पहलों को महत्व नहीं देते हैं। टीएलएम चिंता का दूसरा क्षेत्र है । दो तिहाई सकूलों ने टीएलएम का उपयोग नहीं किया, जो गंभीर चिंताओं का विषय है (यूसुफ, 2011)। विद्यालयों, शिक्षकों, छात्रों, कक्षाओं और सामुदायिक अवलोकन के आधार पर एक अध्ययन के निष्कर्ष बताते हैं कि शिक्षण कौशल के संदर्भ में लेनदेन में सुधार, छात्रों के साथ काम करना, शिक्षण सीखने के तरीकों (टीएलएम), बच्चे को केन्द्रित दृष्टिकोण, हाथ लेखन, समय की पाबंदी की कहानी कह रही है। खेल, गायन, अभिभावक शिक्षकों की बैठक, गृह यात्रा, सामुदायिक संपर्क, शिक्षा दौरे, आदि से सीखने जैसी अतिरिक्त पाठ्यचर्या संबंधी गतिविधियों ने स्कूल के वातावरण में महत्वपूर्ण सुधार किए है । हालांकि, बुजुर्ग शिक्षकों ने आमतौर पर बहुत कुछ नहीं बद में है। स्कूलों में प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी अभी भी एक गंभीर समस्या रही है । दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से शिक्षक प्रशिक्षण भी बहुत प्रभावी नहीं है (यूसुफ, 2011)। इसके अलावा, दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से शिक्षक प्रशिक्षण ने अदालत के समक्ष शपथ पत्र देने के उद्देष्य से कार्य किया हो, लेकिन इसका शिक्षण गुणवत्ता परिणाम पर थोड़ा भी असर नहीं पड़ता है। इस प्रकार, शिक्षकों का अभिविन्यास और प्रशिक्षण एक अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसे प्राथमिकता के आधार पर हल करने की आवश्यकता है । इसलिए, शिक्षकों के प्रदर्शन की गुणवत्ता में सुधार के लिए आंतरायिक प्रशिक्षण और सतत् प्रभावी निगरानी की आवश्यकता है।

प्रोत्साहनों के अनुपालन में स्कूली बच्चे को स्कूल में नामांकन बनाए रखने के लिए और उनके छीजन की दर को कम करने के लिए, बिहार सरकार ने कई अभिनव प्रयास किया है। विभिन्न योजनाओं के साथ अलग-अलग स्तरों पर छात्रवृति, स्कूली पोशाक, साइकिल वितरण और लड़कियों के लिए सैनिटरी नैपकिन, आदि। ऐसी योजनाओं की प्रभावकारिता के बारे में एक निगरानी और मूल्यांकन रिपोर्ट बताती है कि प्रवेश परीक्षा में केवल 69 प्रतिशत छात्र वर्ष 2013-14 में पात्र थे। साईकिल वितरण का आच्छादन छात्रवृति से बेहतर था। लड़कियों के छात्रों के लिए छात्रवृति का कवरेज अभी भी कम था। लगभग 44 प्रतिशत नमूना स्कूलों को सभी प्रकार की छात्रवृति के साथ कवर नहीं किया गया था। अपर्याप्त या देरी से धनराशि मिलना, स्कूल प्रशासन द्वारा अपर्याप्त तैयारी, डीईओ की उदासीन रवैया, निष्पादन में लगे एजेंसियों के बीच कमजोर समन्वय, कार्यक्रम के बारे में अनुचित जानकारी, दिशानिर्देशों और मानदंडों का पालन न करना, उदाहरण के लिए, वीडियो रिकॉडिंग, पुलिस संरक्षण और सुरक्षा की कमी, आदि। (दिवाकर, एवं अन्य, 2015)

(घ) सबको गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए, उचित बुनियादी ढाँचे और सुविधाओं की उपलब्धता, जैसे, कक्षाएं, फर्नीचर, पुस्तकालय, कम्प्यूटर और विज्ञान प्रयोगशाला, पेयजल, शौचालय, इत्यादि की उपलब्धता आवश्यक शर्तें हैं। अपर्याप्त कक्षा और शिक्षकों की बहु ग्रेड कक्षाएं प्रचलित हैं। लगभग 46 प्रतिशत वर्ग बहु-वर्गीकृत थे और मुश्किल से शिक्षक उन्हें संभालने में सक्षम थे (दिवाकर और बेहरा, 2014)। वर्गों को कक्षाओं की वांछित जगह और खुले स्थान पर भी आयोजित किया गया। कुछ मामलों में, कक्षाओं को एमडीएम या टीएलएम के लिए भंडार कक्ष में परिवर्तित किया गया था। एएसईआर की रिपोर्ट बताती है कि आरटीई-सीटीआर 2010 में 48.2 से बढ़कर 2014 में 60.3 हो गया। गुणवत्ता वाले कागजात के साथ समय-समय पर गुणवत्ता मुद्रण और उपलब्धता की गुणवत्ता एक गंभीर चिंता का विषय है। अगर पुस्तकालय को बनाए रखा जाता है, तो पाठ पुस्तकों की समय पर उपलब्धता में अंतराल कुछ हद तक हो सकेगा।

एएसईआर की रिपोर्ट में वर्ष 2010 में 52.9 से पुस्तकालय की पुस्तकों की उपलब्धता में सुधार का अनुमान है, जो 2014 में बढ़कर 76.3 हो गया । हालांकि, अभी तक यह 23.7 प्रतिशत स्कूलों तक नहीं पहुँच पाई है । एक अन्य अध्ययन से पता चलता है कि राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के माध्यमिक विद्यालय और विज्ञान प्रयोगशाला मूल्यांकन में 23 प्रतिशत से 75 प्रतिशत तक की पुस्तकालय सुविधा अलग-अलग बताती है कि 40 से 80 प्रतिशत स्कूलों में विज्ञान प्रयोगशाला (दिवाकर, घोष और चौधरी, 2015) नहीं थे। 2010 में कम्प्यूटर में 6.9 फीसदी स्कूलों में उपलब्ध था, जो 5.7 फीसदी (एएसईआर, 2014) में गिरावट आई थी। एसएआरआर रिपोर्ट में यह भी पता चलता है कि 2010 में 78.7 स्कूलों में पेयजल उपलब्ध था, जो आगे 90.4 फीसदी तक बढ़ गया। वर्ष 2010 में शौचालय की सुविधा 33.6 प्रतिशत से बढ़कर 60.6 प्रतिशत हो गई है। हालांकि, लड़कियों के लिए प्रयोग करने योग्य शौचालय केवल 18.1 प्रतिशत से 46.2 प्रतिशत तक धीरे-धीरे सुधार हुआ है। माध्यमिक विद्यालय के मामले में, 65 प्रतिशत शौचालय सुविधा और 60 प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय सुविधा है । (दिवाकर, घोष और चौधरी, 2015)। उपर्युक्त महत्वपूर्ण अंतराल के अलावा कुछ अन्य कमियाँ पाई गयीं जो कि गुणवत्ता वाले वातावरण को बनाए रखने में समान रूप से उलाव क्षेत्र थे। उदाहरण के लिए, 20 प्रतिशत स्कूलों के मामले में स्कूली पोशाक के नियमों का पालन नहीं किया जा रहा है। माता-पिता आम तौर पर गैर-शिक्षण मामलों जैसे एमडीएम ने 2010 में 57.2 फीसदी स्कूलों में काम किया था, जो कि 69.2 प्रतिशत में सुधार हुआ था। लगभग 20 प्रतिशत स्कूलों ने स्कूल पोशाक (दिवाकर और बेहरा, 2014) के नियमों का पालन नहीं किया। अधिकांश शिक्षकों ने शिक्षा के दौरे और सीखने के प्रर्दशन के महत्व को अस्वीकार कर दिया। माध्यमिक शिक्षा प्रबंधन में गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है। केवल 20 प्रतिशत स्कूल रोजाना आधार पर अपना नकदी रजिस्टर बनाए रखते हैं। इस प्रकार, पारदर्शिता के साथ गुणवत्ता बहाल करना एक गंभीर चुनौती है।

पलायनकारी शिक्षा

आधुनिक शिक्षा की उत्तीर्णता की उपाधि लेकर करोड़ों लोग बेरोजगार हैं। समाज पलायनकारी शिक्षा का शिकार है और अवसादी पलायन से ग्रसित है। अपवाद को छोड़कर यदि पढ़े-लिखे लोग गॉवों में होते हैं तो उन्हें भी गॅवार ही समझा जाता है। जो शहर चले गये वो होशियार, बड़े शहरों में रोजगार पाने वाले और अधिक होशियार तथा विदेशों में रोजगार पानेवालों को सर्वाधिक बुद्धिमान माना जाता है। अर्थात् जो चुनौतियों को पीछे छोड़ कर पलायन कर गया, शिक्षक और बुद्धिवादी लोग भी अक्सर उसे महिमामंडित कर गौरवान्वित होते हैं। गांधीजी ने शिक्षा का मूल उद्देश्य आत्मविकास, चरित्र निर्माण, सत्याग्रह और स्वराज्य माना था। किंतु आज की शिक्षा मुक्तिकामी होने के बजाय कारखाने के लिये गुलाम तैयार कर रही है और धन कमाने की शिक्षा आज चरित्र निर्माण की शिक्षा पर भारी पड़ रहा है। अच्छे शिक्षण संस्थानों में उनकी शुमार होती हैं, जिनके छात्रों को उॅची तनख्वाह का अनुबंध होता है, और वो ही छात्र कुशल माने जाएंगे। अर्थात्, अच्छी शिक्षण संस्थाएँ कुशल मनुष्य के बजाय उॅची कीमत की प्लास्टिक एटीएम कार्ड तैयार कर रही है। परिणामस्वरूप, छात्रों में कम अंक हासिल करने पर असफलता का आत्मग्लानि, और निराशा का भाव लाता है, जिससे आये दिन आत्यन्तिक अवसाद का शिकार होकर कई छात्र खुदकुशी तक कर लेते हैं। समाज निर्माण की जगह पर  उसका उजाड़ हो रहा है।

विश्वसनीयता का संकट

आज की शिक्षा की सबसे बड़ी समस्या उसकी विश्वसनीयता है, क्योंकि ज्ञान और प्रमाण के बीच तादात्म्य का संकट उत्पन्न हो गया है। अपवाद को छोड़कर अधिकांश के पास प्रमाण-पत्र है तो ज्ञान नहीं और ज्ञान है तो प्रमाण-पत्र नहीं। उदाहरण के तौर पर जो स्वीमिंग पुल में तैरकर प्रमाण-पत्र हासिल करते हैं, विरले ही नदी की तेज प्रवाह में डूबने वाले का जीवन बचा पाते हैं और नदी के किनारे बसनेवालों के बच्चे स्वाभाविक रूप से नदी की तेज प्रवाह में तैर कर पार तो कर जाते हैं, किंतु प्रमाण-पत्र के अभाव में विशेषज्ञ नहीं हो सकते हैं। यही हाल पतली रस्सी पर करतब दिखाते नट समुदाय के बच्चों का है। औपचारिक शिक्षा उपाधि धारकों का भी हाल भिन्न नहीं है। उनके पास साक्षरता तो है किंतु विरले के पास समाधानमूलक जीवन कौशल है। परीक्षा प्रतियोगितामूलक शिक्षा ने आत्मविश्वास के स्थान पर परस्पर अश्विास और संदेह का वातावरण तैयार कर दिया है। बरतानिया औपनिवेशिक शासनकाल में ज्ञान विनाशिनी अनिवार्य मानकीकरण परीक्षा और प्रमाण-पत्र का विचित्र दौर प्रारम्भ हुआ, जिसने शिक्षाशाला को शिक्षाबाजार में बदल दिया। अब प्रमाण-पत्र के इस बाजारवादी अंधी दौर में कालजयी शिक्षक कबीर, रैदास, कालीदास आदि भी आज होते तो प्रमाण-पत्र के अभाव में सेवा का अवसर शायद ही मिल पाता। रवीन्द्रनाथ टैगोर, लता मंगेशकर, सचिन तेंदुलकर, दशरथ मॉझी जैसे अनेक विभूतियों के अवदान से देश और दुनियॉ वंचित रह जाती। कोरोनायागी का तोमोय विद्यालय का प्रयोग एक उदाहरण नहीं है, जिससे तोतोचान जैसी आत्मकथा साकार होती है।

निरक्षर, किंतु अशिक्षित नहीं

गांधीजी ने कहा कि अक्षर ज्ञान न तो शिक्षा का आदि है और ना अंत। इस पर विचार करें तो अक्षरज्ञान का अत्यधिक महत्व के कारण प्रमाण-पत्र प्रमुख और जीवन कौशल गौण हो जाता है। यहीं से मानसिक और शारीरिक श्रम का अंतर बढ़ता जाता है। श्रम का अनादर भाव भी यहीं से प्रवेश पाता है। खेत में फसल उगाने वाले मजदूर किसान क्या सिर्फ इसलिये अशिक्षित माने जाएँ क्येंकि वे निरक्षर हैं? कलात्मक घर बनानेवाले कारीगर क्या इसलिये अशिक्षित समझे जाएँ क्योंकि वे अक्षर ज्ञान नहीं रखते। पशुपालक का ज्ञान क्या सिर्फ इसलिये अर्थहीन है क्योंकि वह पुस्तकों को पढ़ नहीं सकता है? गाँव की धाइ माँ का प्रसव ज्ञान क्या इसलिये निरर्थक है क्योंकि उनके पास परिचारिका का प्रमाण-पत्र नहीं है? नाव के खेवैया नाविक का तेज जल प्रवाह में भी नाव चलाने का ज्ञान क्या इसलिये अनुपयोगी है क्योंकि वह प्रमाण-पत्र धारी नहीं है?

इससे शायद ही कोई असहमत हो सकता है कि तकनीकी प्रगति ने इन कामों में थकान घटायी है और व्यक्ति की दक्षता को नई ऊँचाई मिली है, लेकिन क्या इससे असहमति हो सकती है कि मौलिक ज्ञान के साथ तकनीकी समन्वय बेहतर दक्षता परिणाम ला सकता है। उदाहरण के तौर पर हम आधुनिक प्रसव परिचारिका और धाई माँ की प्रसव कुशलता को ही लें। आधुनिक प्रसव परिचारिका की कमी से संस्थानिक प्रसव आज भी एक बड़ी चुनौती है। युद्धस्तर पर प्राथमिकता के आधार पर हम आधुनिक प्रसव परिचारिका तैयार करने के लिये संस्थान खोला भी जाय तो दशकों की अवधि चाहिये। ध्यान रखना होगा कि बच्चों का जन्म इसकी प्रतीक्षा नहीं कर सकती है। यदि प्रसव कार्य को सम्हाल रही धाई माँ को अभियान चलाकर तकनीकी कुशलता से लैस कर दिया जाय तो संस्थागत प्रसव के लक्ष्य को एक या दो सालों में शत-प्रतिशत हासिल किया जा सकता है। इसका एक दूसरा व्यावहारिक पक्ष भी है। गाँव और पिछड़े इलाके में आधारभूत सुविधाओं का घोर अभाव होने के कारण शहरी प्रशिक्षित आधुनिक प्रसव परिचारिका उन इलाकों में रहने से कतराती हैं। अक्सर काम के प्रति लापरवाही की शिकायतें भी आती हैं। इन कठिनाइयों से भी एक सीमा तक निजात मिल सकता है।

यह अभिजात्यमूलक शिक्षा स्वभाव से ही समावेशी नहीं है। मानसून की अनिश्चतता की कठिन परिस्थिति में किसानी करने वाले किसान और हल जोतनेवाले खेतिहर मजदूर को और पावर टीलर या ट्रैक्टर को चलाने का अवसर किसी और को। उनके बच्चे कृषि अभियांत्रिकी में जाने का अवसर नहीं। निगमित खेती, बीज और खेती उत्पाद का कारोबार कम्पनी के हवाले। कच्चे चमड़ों से जूते बनाने का काम दलित समाज करे, लेकिन चर्म अभियांत्रिकी में पढ़ने का अवसर किसी और को। नाव खेने का पुस्तैनी काम जलमजदूर का और जल जहाज चलाने का अवसर किसी और को। सामाजवादियों ने नारा दिया था, राष्ट्रपति का हो या चपरासी की संतान, सबको शिक्षा एक समान। समाजवाद तो नहीं आया लेकिन बाजारवाद आ गया। उदारीकरण के दौर में शिक्षा का निजीकरण और बाजारीकरण ने बहिष्करण को और तेज ही किया है। शिक्षा बाजार में प्रवेश के लिये शिक्षा खरीदने की ताकत प्रभावी होती जा रही है और सामान्य जन शिक्षा के अवसरों से दूर होते जा रहे हैं।

बोली और भाषा का संकट

शिक्षा के साथ बोली और भाषा का सामाजिक बदलाव से गहरा रिश्ता है। बच्चा परिवार में सामान्य दैनिक चर्या का ज्ञान व्यवहार से सीखता है। आंचलिक शब्दकोष से परिचित होता है। अपने इर्द गिर्द के संकेत, भाव-भंगिमा और पदार्थ से स्वाभाविक रूप से परिचित होता जाता है। बच्चों की स्वाभाविक सृजनशीलता विकसित होती जाती है। प्रारम्भिक शिक्षा में आंचलिक बोली और भाषा का सार्थक संवाद में महत्वपूर्ण योगदान होता है। सहजता से इसे व्यापक भाषा की परिधि में प्रवेश कराने की भूमिका परिवार, समाज और शिक्षकों की होती है। भाषा संवाद भी कुछ इसी तरह विकसित हुआ है। पाणिनी का शिव सूत्र जाल हो या रेयॉन का भाषा इतिहास। पाठ्यक्रम और कक्षा संचालन को सरल एवं बोधगम्य बनाने के लिये संकेत का प्रयोग आधुनिक शिक्षा में होता रहा है, किंतु भाषा और संकेत का समन्वय भी उतना ही संवेदनशील है। उदाहरण के लिये घड़ा का चित्र के साथ खड़ी हिन्दी का से घड़ाको लिया जा सकता है। सामान्यतः यह प्रारम्भिक कक्षा का प्रचलित शब्द पाठ रहा है, लेकिन आंचलिक विविधता में कहीं घैला, कहीं मटका या कहीं कुछ और प्रचलित है। जब बच्चा पाठशाला जाता है तो घ से घड़ामें चित्र और शब्द का द्वन्द होता है, माता-पिता, परिवार या समाज से वह घैला या मटका जानकर सीखा है। अतः चित्र देखकर उसे मटका या घैला समझता है और शिक्षक से शब्द घड़ासुनता है। बाल सहज भाव से वह अक्सर शिक्षक से पूछता भी है, लेकिन जबाब होता है कि जो विद्यालय में सिखाया जा रहा है, उसे सीखे और उनके माता-पिता गलत जानते हैं। यहाँ से शुरू होता है माता-पिता और विद्यालय की दूरी। यह अपवाद को छोड़कर सभी के लिये लगभग समान ही है, चाहे वह अंग्रेजी स्कूल का हो या सामान्य। जब इस मानसिकता से बच्चे बड़े होते हैं तो बात-बात में माता-पिता को नासमझ मानना स्वाभाविक परिस्थिति होती है। दूसरी तरफ बच्चों को सिखाते हैं कि माता-पिता का वे आदर करें। बच्चे इन परस्पर विरोधी परिस्थितियों में बड़े होते हैं। अरस्तु ने तो केवल साक्षर परिवार को सामाजिक जीवन की सर्वोत्तम पाठशाला नहीं कहा था। आज की शिक्षा शैली में अक्षर, बोली,भाषा और ज्ञान का तादात्म्य बनाने की गम्भीर चुनौतियॉ हैं।

भाषा के संबंध में गांधीजी की समझ बिल्कुल स्पष्ट थी कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में की जानी चाहिये। बाद में हिंदी और हिंदुस्तान के कम-से-कम एक अन्य राज्य की भाषा अनिवार्यतः सीखनी चाहिये। उनका मानना था कि मैकाले ने जो शिक्षा की बुनियाद डाली वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थीऔर हिंदुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जाननेवाले लोग ही हैं।इसीलिये वे कहते थे कि अंग्रेजी सीखें उसे मिटाने के इरादे से न कि उसके जरिये पैसे कमाने के इरादे से। वे चाहते थे कि दुनिया में ज्ञान की जो भी अच्छी पुस्तकें हैं, उनका अनुवाद हो। शायद इसीलिये भी कि दुनिया के किसी भी देश ने उधार की भाषा से प्रगति नहीं की है। अमेरिका, फ्रांस, इंगलैंड, जर्मनी, इटली, चीन, जापान आदि, शीर्ष के औद्योगिक देशों ने उधार की भाषा से प्रगति नहीं की है। फिर भी  आज तो भूमंडलीकरण की आंधी में हिन्दुस्तान के गाँव-गाँव तक अंग्रेजी भाषा का अभ्यास राज्य सरकारों के स्तर से हो रहा है। यह सोचना होगा कि यदि इतना दृढ़ संकल्प गाँव तक बुनियादी विद्यालय को पहुँचाने के लिये होता तो सामाजिक परिवर्तन को बेहतर गति मिलती।

विरोधाभाषी समन्वय की चुनौतियाँ

यद्यपि दुनिया में लगभग सहमति बन चुकी है कि शिक्षा गरीबी निवारण और समतामूलक समाज बनाने का सबसे प्रभावी साधन है। किन्तु शिक्षा के विकास के साथ बढ़ती बेरोजगारी, विषमता एवं निराश छात्रों की खुदकुशी, शिक्षा के स्वरूप पर विचार करने को बाध्य करता है। आज का दौर 1937 या 1947 से बहुत अर्थों में भिन्न है। लोकतंत्र के होते हुये भी पूँजी का वर्चस्व, बढ़ती बेरोजगारी, गरीबी, विषमता के बीच विकास के लाभों से आम आदमी का हाशियाकरण सबसे बड़ी चुनौती है। समन्वय की चुनौतियाँ सर्वोपरि हैं। श्रम एवं पूँजी का समन्वय, मानसिक श्रम एवं शारीरिक श्रम का समन्वय, परम्परा एवं आधुनिकता का समन्वय, तकनीकी समन्वय, वित्त पूँजी एवं स्वायत्तता का समन्वय, संरचनागत समन्वय - पूँजी संकेन्द्रण एवं हाशियाकरण की चुनौतियॉ, आदि प्रमुख हैं।

चम्पारण सत्याग्रह से सबक

जब हिन्दुस्तान चम्पारण सत्याग्रह के सौ साल पूरा होने का जश्न मना रहा हो तो देश को अपनी गौरवशाली विरासत पर नाज होने का पूरा हक है। चम्पारण सत्याग्रह ने हिन्दुस्तान को न केवल गांधीजी की नेतृत्व क्षमता से परिचय कराया बल्कि उनकी अगुआई में हिन्दुस्तान में अहिंसक लोकशक्ति और सार्थक लोकतंत्र के प्रकटीकरण के एक सफल प्रयोग की विरासत के साथ आजादी की लड़ाई का एक महत्वपूर्ण औजार दिया। साथ ही इस सत्याग्रह ने राजेन्द्र प्रसाद, अनुग्रह बाबू, राजकुमार शुक्ल, बत्तख मियॉ सरीखे समर्पित नेताओं और कार्यकर्ताओं की जमात खड़ी की।

लखनऊ में कांग्रेस के 31वें सम्मेलन में जब चम्पारण के किसानों का दर्द समझने का दायित्व गांधीजी को सौंपा गया और राजकुमार शुक्ल के प्रयास से गांधीजी 10 अप्रैल 1917 को बिहार आये थे तो गांधीजी ने भी इसकी उम्मीद नहीं की थी। मजरूलहक से पटना में और जे0 बी0 कृपलानी से मुजफ्फरपुर में और स्थानीय अधिकारियों से मिलते हुये 15 अप्रैल को मोतिहारी पहुँचे। चम्पारण में किसानों की दयनीय हालात देखकर उन्होंने दो ही दिन बाद कृपलानी जी को पत्र लिखा कि अब चम्पारण ही उनका निवास स्थान है (महात्मा गांधी, खंड 13पृ. 373)

गांधीजी ने चम्पारण में जन आंदोलन की एक प्रक्रिया विकसित की। कानूनी तौर पर निलहों के शोषण के खिलाफ और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ने के लिये किसानों में आत्मविश्वास भरा। किसानों का डर दूर किया और निलहों द्वारा अंग्रेजी हुकूमत से मिलीभगत से किसानों पर हो रहे अत्याचार और शोषण का किसानों की जुबानी बदस्तखत हलफनामा तैयार करवाया। उन तथ्यों का विश्लेषण कर गवर्नर से मिले और कानून बदलने के लिये बाध्य कर दिया। यह सब कुछ खुलेआम हुआ। अंग्रेजी प्रशासन के आदेश के बावजूद काम नहीं बंद करने की सविनय अवज्ञा का पूर्वाभ्यास और जेल जाने की तैयारी भी थी। हलफनामा की तैयारी चलती रहे, इसके लिये कार्यकर्ताओं की कतार बना ली गयी थी। लोग निर्भय होकर बयान कलमबंद करावा रहे थे। लाल टोपी और अंग्रेजों का डर जैसे समाप्त हो गया। यह गांधीजी के व्यक्तित्व का जादुई असर था। इस प्रकार लोकतंत्र के प्रकटीकरण और जन आंदोलन को चलाने की पद्धति विकसित की। 1. कानून सम्मत खुली रणनीति 2. प्रशासन, कारखाना मालिक और किसानों से समवेत संवाद, 3. कार्यकर्ताओं की पहचान एवं प्रशिक्षण, 4. प्रामाणिक तथ्यों का संग्रह, सुरक्षा एवं विश्लेषण 5. अबाध कार्य संचालन की रणनीति - सविनय अवज्ञा की दृढ़ता, जेल जाने की तैयारी, और अगली कतार के नेताओं की पहचान, आदि। 6. रचनात्मक कार्यक्रम, जैसे - शिक्षा एवं स्वास्थ्य की सुविधा के लिये चेतना विस्तार करना।

कार्यकर्ता और लोकशिक्षण की विधि इस बीच विकसित हुए। बडे़-छोटे, जाति-पाति और छूआछूत का भेद आंदोलन में मिटा। नौकर वापस लौट गये। सब अपना कपड़ा, थाली और बर्तन धोते, खाना पकाते औा साथ-साथ खाते। इस सत्याग्रह में सभी बराबर थे। यह गांधीजी की कार्यशैली की विशिष्टता थी। तथ्यों के विश्लेषण से उभरे विसंगतियों और किसानों के अहिंसक लामबंदी के सामने अंग्रेजी हुकूमत को झुकना पड़ा । जबरन प्रति बीघा तीन कट्ठा नील की खेती करानेवाला तीनकठिया कानूनसमाप्त कर दिये गये और नील के कारखाने बंद हो गये। हिन्दुस्तान के लिये इस उत्साह ने आजादी की लड़ाई को ऊँचा मुकाम दिया और विभिन्न पड़ावों से गुजरता हुआ अगले तीस सालों में हिन्दुस्तान आजाद हो गया।

चम्पारण सत्याग्रह के दौरान गांधीजी ने शिक्षा की जरूरतों को बड़ी सिद्दत से महसूस किया। उन्होंने भतिहरबा, बड़हरबा लखनसेन और मधुबन में तीन बुनियादी विद्यालयों की स्थापना की। इसी तर्ज पर बिहार में विभिन्न जिलों में बुनियादी विद्यालयों की स्थापना हुई, जिनकी कुल संख्या 391 हैं। हाल के वर्षों में इन्हें पुनर्जीवित करने के प्रयास कुछ पहल भी हुये हैं, किंतु अभी भी ये विद्यालय गतिशील नहीं हो पाये हैं।

चम्पारण सत्याग्रह से लेकर आजादी की लड़ाई के बीच हिन्दुस्तान की जनता ने जो सपना देखा था, उसे साकार करने के लिये संविधान के अधीन योजनाबद्ध विकास यात्रा में कई मुकाम हासिल किये हैं। जमींदारी उन्मूलन, सामुदायिक विकास एवं गरीबी निवारण के अनेक कदम उठाये गये हैं। खेती, उद्योग, व्यापार एवं सेवा के क्षेत्र में उत्पादन की बढ़ोत्तरी हुई है। साक्षरता, स्वास्थ्य एवं आधारभूत संरचना का भी विकास हुआ है। सामाजिक न्याय एवं समाज परिवर्तन की जनाकांक्षाओं ने नये नेतृत्व विकसित किये हैं। बीते सात दशक में बारह पंचवर्षीय योजनायें सम्पन्न होने को हैं। लेकिन आज भी गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, मॅहगाई, भ्रष्टाचार एवं क्षेत्रीय असमानता (दिवाकर, 2009) के बीच बढ़ती हुई अंतिम कतार में खड़ी हिन्दुस्तान की आम जनता अपनी बुनियादी जरूरतें पूरा होने की बाट जोह रही है। विकास की बिडम्बना ही है कि शिक्षा का अवसर कुछ लोगों के लिये वातानुकूलित दृश्य श्रव्य तकनीकी से लैस कक्षा, तो कहीं एक अदद सामान्य विद्यालय भी नहीं। एक तरफ फसल पैदा करनेवाले किसान संकटग्रस्त होकर अपनी जान देने को बाध्य हैं। ईमारत खड़ी करनेवाले मजदूर बेघर हैं। मेहनतकशों की बड़ी आवादी असंगठित क्षेत्र में बुनियादी जरूरतें नहीं जुटा पा रही है तो दूसरी तरफ मुट्ठी भर लोगों के पास धन और विलासिता का विशाल भंडार है।

निहितार्थ

उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर जहाँ एक ओर साक्षरता और सबको शिक्षा के लिये शिक्षकों की उपलब्धता, क्षमता, प्रदर्शन, प्रशिक्षण, पाठ्यपुस्तकों की उपलब्धता, पुस्तकालय, विज्ञान और कम्प्यूटर प्रयोगशाला, भैतिक और गुणत्मक बुनियादी ढाँचे के वातावरण की गुणवत्ता की चिंताओं और छात्रों को पढ़ने और लिखने के कौशल और भाषा, गणित, गुणवत्ता वाले शिक्षकों को प्रदान करने, कैंपस की गतिविधियों, अभिनव शिक्षण सीखने के माहौल आदि पर सरकारी विद्यालयों को प्राथमिकता देने की जरूरत है, वहीं दूसरी तरफ भौतिक और गुणात्मक बुनियादी ढाँचे के मात्रात्मक और गुणात्मक अंतराल को प्राथमिकता के साथ संबोधित करना होगा। समता और पारदर्शिता के साथ आधार विज्ञान और कम्प्यूटर प्रयोगशाला और पुस्तकालय को उचित ध्यान देने की जरूरत है। प्रशासनिक पुनर्निर्माण आवश्यक है। सामाजिक जागरूकता और सतर्कता उपयोगी हो सकता है। समानता सुनिश्चित करने के लिएराज्य को सक्रिय भूमिका निभानी है, क्योंकि निजीकरण बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे गरीब राज्यों में एक उचित और टिकाऊ समाधान नहीं है, जहाँ आय-वितरण में अत्याधिक विषमता है।

अब जरूरत है कि 70 वर्ष के प्रयोगों का मूल्यांकन हो और आजादी से पूर्व आजाद भारत के लिये आजाद शिक्षा प्रणाली के विकल्प पर विमर्श हो। आज की परिस्थिति 1937 की नहीं है, 1947 की भी नहीं है, 1974 की भी नहीं है। नवउदारवाद ने जिस तरह देश को पूँजी के बाजार में झोंक दिया है, उन विसंगतियों पर विचार करते हुये विकल्प तलाशने होंगे। हिन्दस्वराज्य में विसंगतियों का विश्लेषण और सभ्यता का संकट का आज की परिस्थिति गांधी के अनुभवों पर विचार करने को बाध्य करता है। देश में हुये और चल रहे प्रयोगों के अनुभव हमारा मार्गदर्शी हो सकता है। अनुभवों एवं चुनौतियों के आलोक में तदनुसार आज के संदर्भ में शिक्षाशास्त्र, पाठ्यक्रम, तकनीकी, संरचना, शासन एवं वित्त प्रबन्धन आदि विकसित करने की जरूरत है। मूलतः यह ध्यान देने योग्य है कि शिक्षा के अनुरूप ही विकास का प्रारूप और उसके अनुकूल ही उत्पादन, विनिमय एवं वितरण प्रणाली विकसित होता है। ऐसा विरले होता है कि विभेदकारी शिक्षा से समतामूलक शोषण मुक्त समाज का निर्माण बिना संघर्ष के हो जाय। अतः चम्पारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष में गांधीजी के द्वारा दिखाये लोकतांत्रिक सत्याग्रह के रास्ते अहिंसक समतामूलक शोषणमुक्त समाज बनाने के लिये और लोगों के लिये बुनियादी सुविधाओं की बहाली के लिये लोकतांत्रिक सत्याग्रह की शिक्षा का सशक्त विकल्प हमारे सामने है। राज्यसत्ता और जनता के बीच प्रभावी संवाद से लक्ष्य की ओर बढ़ा जा सकता है।

आज के संदर्भ में नयी तालीम को अद्यतन कर उसका नवीन संस्करण, आत्मविकास और चरित्र निर्माण के लिये पढ़ाने और सीखने के तरीके, क्षेत्र केन्द्रित विस्तार की रणनीति, और सांस्कृतिक समृद्धि एवं शांति, जनोपयोगी शिक्षा द्वारा बेरोजगारी, गरीबी एवं विषमता का व्यावहारिक समाधान ढूँढने की दिशा में प्राथमिकता के आधार पर लागू करने की जरूरत है। इससे समतामूलक अहिंसक समाज रचना की दिशा में अंतिम आदमी की अपेक्षाओं का हिन्दुस्तान का निर्माण करने में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करनेवाली नयी तालीम विकसित हो सकेगी, जो महात्मा गांधीजी के सपनों का हिन्दुस्तान के निर्माण की दिशा में बढ़ा हुआ कदम हो सकता है। आज सभी सहमत हैं कि शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण समतामूलक साधन एवं औजार है। इसलिये, आज के संदर्भ में जहाँ शिक्षा को उपयोगी बनाने की जरूरत है, वहीं उपयोगी शिक्षा को आम आदमी तक पहुँचाने की राष्ट्रीय जिम्मेदारी है।लेकिन उदारीकरण के बदलते परिस्थितियों में राष्ट्रीय पटल पर प्रभावी वित्तीय पूँजी के उभरते आयामों पर गहन चिंतन की आवश्यकता भी है। पूँजीपरस्त संसदीय लोकतांत्रिक संस्थाओं  का राजनीतिक अवसरवादी जश्न के बीच शायद ही ऐसा हो सकेगा कि जनपक्षीय शिक्षा और विकास की प्राथमिकता हो, जब तक प्रभावी जन सत्याग्रह उसे जनमुखी होने के लिये बाध्य न कर दे। अतः अहिंसक लोकतांत्रिक समाज रचना हेतु शिक्षा का विस्तार के लिये सत्याग्रह ही एक मात्र विकल्प है।

1*प्रोफेसर एवं निदेशक, विकास अध्ययन संस्थान, जलसैन 847411, अध्यक्ष, बिहार समाज विज्ञान अकादमी, पटना, ई-मेल -

2  विद्या ददाति विनयम्, विनयाद्याति पात्रताम्।

   पात्रत्वा धपमाप्नोति, धनात् धर्मः ततः सुखम्।। हितोपदेश, श्लोक 6।

 3 तत्कर्म यन्न बन्धय सा विद्या या विमुक्तये।

  आयासायापरम् कर्म विद्यअ्न्या शिल्प नैपुण्यम्।। श्री विष्णु पुराण, प्रथमस्कन्ध, 19वीं अध्याय, 41वीं श्लोक।    

   1-19-41.

 4 गुरू कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि गढ़ि काढ़े कोढ़।

   भीतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट।।

संदर्भ-सूची :

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बिहार में बाल्यावस्था शिक्षा की चुनौतियां क्या है?

बिहार में पहले से ही शिक्षा विभाग के सामने कई बड़ी चुनौतियां हैं, जिनमें प्रमुख तौर पर सरकारी स्कूलों की व्यवस्था ठीक करना, सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की व्यवस्था करना, शिक्षक छात्र अनुपात सही करना, कॉलेजों में आधारभूत संरचना बेहतर करना, रिसर्च और अन्य गतिविधियां बढ़ाने की चुनौती पहले से ही बिहार सरकार के सामने है.

शिक्षा में विभिन्न चुनौतियां कौन कौन सी है?

उपर्युक्त पृष्ठभूमि में शिक्षा की कुछ खास चुनौतियों को सही परिप्रेक्ष्य में समझा जाय :.
सबसे बड़ी चुनौती तो है शिक्षा की अर्थवत्ता और महत्ता को चिन्हित करना यानी यह समझना-समझाना कि शिक्षा आजीविका का नहीं जीवन का साधन है। ... .
दूसरी चुनौती है शिक्षा को शिक्षण संस्थाओं की कैद से मुक्त करने की।.

प्राथमिक शिक्षा की प्रमुख समस्याएं क्या है?

प्राथमिक शिक्षा में अनुशासन, समय की पाबंदी और प्रेरणा की कमी है। छात्रों को स्कूलों से उचित और पूर्ण शिक्षा नहीं मिलती है, इसलिए माता-पिता निजी ट्यूशन का विकल्प चुनते हैं और इससे छात्रों पर अधिक दबाव पड़ता है। चौथी कक्षा के छात्र शायद ही पैराग्राफ पढ़ने में सक्षम हों और वे अपने स्कूल स्तर तक नहीं हैं।

बिहार में शिक्षा की स्थिति क्या है?

बिहार में पिछले दशक में साक्षरता वृद्धि की दर 17 फीसदी बढ़कर 63.8 प्रतिशत हो गई है फिर भी यह देश के अन्य राज्यों से कम है। सूबे में 99 फीसदी से अधिक बच्चों का स्कूलों में दाखिला हो चुका है। साक्षरता और शिक्षा के बीच बुनियादी फर्क को समझना होगा। बच्चों के लिए क्वालिटी एजुकेशन जरूरी है।