Show शादीशुदा ज़िंदगी में क्या है क्रूरता
11 अक्टूबर 2016 इमेज स्रोत, AP भारत में तलाक़ के एक केस में सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले की खूब चर्चा हो रही है. इस फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने पूरे परिवार को जोड़कर रखने की ज़िम्मेदारी, जीवनसाथी के बार-बार आत्महत्या की धमकी देने और एक दूसरे के चरित्र पर सवाल उठाने के मुद्दों की चर्चा की है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में 'क्रूरता' का ज़िक्र किया है. भारत में तलाक़ के लिए किए जाने वाले मुकदमों में क्रूरता को आधार बनाना सबसे आम वजहों में से एक है. क्रूरता की कोई परिभाषा देना शायद सबसे मुश्किल काम होगा. कानूनी तौर पर क्रूरता का पैमाना और इसकी परिभाषा हर केस में अलग-अलग होती है. यह किसी शादी की किसी ख़ास अवस्था और सामाजिक-आर्थिक हालात पर भी निर्भर करता है. जहां तक शारीरिक क्रूरता का सवाल है तो इसे पीड़ित के शरीर पर पड़े निशान के रूप में साफ़तौर पर देखा जा सकता है. लेकिन असल मामला मानसिक क्रूरता या प्रताड़ना का है, जिसे किसी की शादीशुदा ज़िंदगी के जीवन में पहचान पाना मुश्किल होता है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिशा-निर्देश तय किए हैं . इसके आधार पर वैवाहिक जीवन में क्रूरता की पहचान की जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट के अलग-अलग आदेशों के मुताबिक़ इन बातों को क्रूरता माना जा सकता है. 1. किसी शारीरिक या उचित कारण के बिना जीवनसाथी के साथ लंबे समय के लिए शारीरिक संबंध न बनाने के एकतरफा फ़ैसले को मानसिक क्रूरता माना जा सकता है. 2. पति या पत्नी का शादी के बाद कोई बच्चा पैदा न करने के एकतरफ़ा फ़ैसले को मानसिक क्रूरता माना जा सकता है. 3. अत्यधिक मानसिक तनाव, दर्द और दुख, जिसकी वजह से पति पत्नी का एक साथ रह पाना मुमकिन न हो पाए तो उसे भी मानसिक क्रूरता माना जा सकता है. 4. पूरी शादीशुदा ज़िंदगी का विस्तार से मूल्यांकन करने पर यदि यह साफ़तौर पर ज़ाहिर हो कि पति या पत्नी में जो भी पीड़ित हो तो उसे साथ रहने और सब कुछ सहने के लिए नहीं कहा जा सकता. तो यह हालात मानसिक क्रूरता को बयां करता है. 5. केवल सामान्य बर्ताव या जीवनसाथी से कम लगाव होने को मानसिक क्रूरता नहीं माना जा सकता है, हालांकि लगातर रूखा व्यवहार, चिड़चिड़ापन, बेरुख़ी और उपेक्षा से शादीशुदा ज़िंदगी ऐसी स्थिति में पहुंच जाए जो पीड़ित के लिए असहनीय हो तो इसे मानसिक क्रूरता माना जा सकता है. 6. पति या पत्नी के गहरे शोक, दुख या मायूसी की वजह यदि लंबे समय से उसके जीवनसाथी का बर्ताव है तो इसे मानसिक क्रूरता माना जा सकता है. 7. लगातार गाली-गलौच और अत्याचार या उत्पीड़न जिससे किसी एक की ज़िंदगी तकलीफ से भर जाए, तो उसे मानसिक क्रूरता माना जा सकता है. 8. जीवनसाथी में से किसी एक की मानसिक या शारीरिक सेहत इतनी बिगड़ गई हो, जिसका उचित कारण नहीं बताया जा सकता हो. जिसका ज़िक्र इलाज में बहुत गंभीर तौर पर, ठोस और सख़्त तरीके पर किया गया हो तो उसे मानसिक क्रूरता माना जा सकता है. 9. अगर कोई पति स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी वजह के बगैर या अपनी पत्नी को बिना बताए और उसकी सलाह के बगैर बंधियाकरण (स्टेरलाइजेशन) करा लेता है तो इसे मानसिक क्रूरता माना जा सकता है. 10. इसी तरह अगर कोई पत्नी किसी चिकित्सकीय कारण के बिना ही अपने पति को बिना बताए या उसकी अनुमति के बगैर नसबंदी या गर्भपात कराती है तो उसे भी मानसिक क्रूरता माना जा सकता है. 11. अगर किसी को बहुत ही बुरा बर्ताव सहना पड़ा हो, उसकी उपेक्षा की गई हो, या फिर उसके साथ शादीशुदा ज़िंदगी के आम बर्ताव से पूरी तरह अलग बर्ताव रहा हो. जिसकी वजह से उसके मानसिक स्वास्थ्य या उसके यौन सुख पर बुरा असर पड़ा हो तो उसे भी मानसिक क्रूरता माना जा सकता है. यह भी दिलचस्प है कि इन बातों को शादीशुदा ज़िंदगी की आम समस्याओं के दायरे में नहीं लाया जा सकता है. असल में हर किसी को शादीशुदा ज़िंदगी में थोड़ी बहुत परेशानियों के लिए तैयार रहना चाहिए, क्योंकि यह शादी के बाद ख़ुद को ढालने का समय होता है. हर परेशानी को मानसिक क्रूरता नहीं समझा जाना चाहिए. क्रूरता का कोई तय पैमाना नहीं है. यह नई शक्ल में आता रहता है. असल में ये क़ानून भी बदलते दौर के साथ सामने आए हैं. (बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.) ससुराल में प्रताड़ित पत्नी के लिए पति कितना ज़िम्मेदार?
11 मार्च 2021 इमेज स्रोत, SCIENCE PHOTO LIBRARY दहेज प्रताड़ना के एक मामले में पति की अग्रिम ज़मानत की याचिका को ख़ारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि ससुराल में पत्नी को पहुँचाई गई चोटों के लिए प्राथमिक तौर पर पति ज़िम्मेदार होता है, भले ही चोटें रिश्तेदारों की वजह से आई हों. न्यूज़ वेबसाइट टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, सुप्रीम कोर्ट में जिस मामले की सुनवाई चल रही थी उसमें पत्नी ने अपने पति, सास और ससुर के ख़िलाफ़ दहेज की माँग पूरी ना करने के कारण बुरी तरह पीटने का आरोप लगाया है. ये शिकायत पंजाब के लुधियाना में जून 2020 में दर्ज की गई थी. महिला का आरोप है कि उसे पति और ससुर ने क्रिकेट बैट से बुरी तरह पीटा और उसके मुंह पर तकिया रखकर उसका दम घोटने की कोशिश की. इसके बाद उन्हें सड़क पर फेंक दिया गया और उनके पिता और भाई उन्हें लेकर गए. महिला की मेडिकल रिपोर्ट में भी शरीर पर कई जगह चोटें आने की पुष्टि हुई है. जिसमें एक बड़े और ठोस हथियार से मारने की बात भी सामने आई है. पति ने ये कहते हुए अग्रिम ज़मानत की याचिका दायर की थी कि पत्नी की बैट से पिटाई उसने नहीं बल्कि उसके पिता ने की थी. लेकिन, मुख्य न्यायाधीश एसए बोबड़े की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि ये मायने नहीं रखता कि आपने या आपके पिता ने कथित तौर पर बैट का इस्तेमाल किया था. अगर किसी महिला को ससुराल में चोट पहुँचाई जाती है तो उसकी प्राथमिक ज़िम्मेदारी पति की होती है. कोर्ट ने पति की याचिका ख़ारिज कर दी. इस मामले में पति की प्राथमिक ज़िम्मेदारी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा वो मौजूदा क़ानून से अलग है. ऐसे में सवाल उठते हैं कि ये मात्र एक टिप्पणी या अवलोकन था जो केवल इस मामले तक ही सीमित है या इसके आगामी प्रभाव भी हो सकते हैं. साथ ही ससुराल में महिला को प्रताड़ित करने के ख़िलाफ़ बने मौजूदा क़ानूनों में पति की कितनी ज़िम्मेदारी तय की गई है. धारा 304बी में पति की ज़िम्मेदारीइस पर दिल्ली हाइकोर्ट में वकील सोनाली कड़वासरा कहती हैं कि शादी के बाद पत्नी के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी पति की तय की गई है. लेकिन, अगर पत्नी पर अत्याचार होता है तो पति कितना ज़िम्मेदार है ये इस बात पर निर्भर करता है कि अपराध क्या है, किस क़ानून के तहत दर्ज है और मामले के तथ्य क्या हैं. सोनाली कड़वासरा इसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 304बी का उदाहरण देती हैं. 304बी के तहत दहेज़ हत्या का मामला दर्ज होता है. इस क़ानून के तहत अगर शादी के सात सालों के अंदर महिला की मौत हो जाती है जिसके पीछे अप्राकृतिक कारण होते हैं और मृत्यु से पहले उसके साथ दहेज़ के लिए क्रूरता या उत्पीड़न हुआ हो, तो उस मौत को दहेज़ हत्या मान लिया जाएगा. सोनाली कड़वासरा कहती हैं, “अगर 304बी के तहत शिकायत में विशेष तौर पर किसी का नाम ना लिखा हो तो पति और ससुराल वालों का या जो भी उस घर में रहता है, उनका नाम इसमें अपने आप शामिल हो जाएगा. इसमें पति को भी ज़िम्मेदार माना गया है. भले ही उसने उत्पीड़न किया हो या नहीं.” “लेकिन, अगर मृतक पत्नी के परिवारजन अपनी शिकायत में ससुराल पक्ष पर आरोप लगाते हैं लेकिन पति पर नहीं तो पति को अपराध में शामिल नहीं माना जाएगा. परिकल्पना का खंडन तब हो जाता है जब आपकी कोई विशेष शिकायत होती है जो प्रकल्पना के विपरीत हो.” “इस धारा के तहत एक शादी में पत्नी की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी हमेशा पति पर ही डाली गई है. साक्ष्य अधिनियम की धारा 113बी में भी यही परिकल्पना की गई है. इसमें पति और उसके परिवार को खुद को निर्दोष साबित करना पड़ता है.” लेकिन, आईपीसी की धारा 498ए में इस तरह की प्रकल्पना नहीं की गई है. दहेज़ प्रताड़ना से बचाने के लिए 1986 में आईपीसी की धारा 498ए का प्रावधान किया गया था. अगर किसी महिला को दहेज़ के लिए मानसिक, शारीरिक या फिर अन्य तरह से प्रताड़ित किया जाता है तो महिला की शिकायत पर इस धारा के तहत केस दर्ज होता है. क्या कहता है घरेलू हिंसा क़ानूनइमेज स्रोत, Getty Creative Stock महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा से जुड़ा एक और क़ानून है, ‘घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005’. इसमें शारीरिक, आर्थिक, भावनात्मक और मानसिक हिंसा के ख़िलाफ़ क़ानून बनाया गया. इसके तहत केवल महिला ही शिकायत कर सकती है. सोनाली कड़वासरा कहती हैं कि इस क़ानून में 304बी की तरह कोई प्रकल्पना नहीं की गई है कि पत्नी के साथ होने वाले अत्याचार और प्रताड़ना के लिए पति ही ज़िम्मेदार है. अगर पत्नी घरेलू हिंसा के मामले में ससुराल के सदस्यों को अभियुक्त बनाती है लेकिन पति को नहीं तो पति इस मामले में कोई पक्ष नहीं बनाया जाएगा. लेकिन, इसमें एक और बात ध्यान रखने वाली है. अगर पत्नी ये कहती है कि पति ने शारीरिक रूप से तो प्रताड़ित नहीं किया लेकिन उसे इस प्रताड़ना की जानकारी थी. ऐसे में पति पर मानसिक या भावनात्मक प्रातड़ना का मामला बनता है. एडवोकेट जीएस बग्गा बताते हैं, “घरेलू हिंसा के मामलों में सबसे पहले ये देखा जाता है कि क्या जो हिंसा हुई है वो एक ही घर या एक ही छत के नीचे हुई है. अगर पति-पत्नी और सास-ससुर एक ही घर या एक ही छत के नीचे नहीं रहते हैं तो मामले को घरेलू हिंसा के तहत नहीं मान सकते. घरेलू हिंसा क़ानून में आने के बाद ही किसी अन्य की ज़िम्मेदारी तय होती है.” “हालांकि, 498ए में ऐसा नहीं होता. इसमें आप साथ रहते हों या नहीं लेकिन अगर लड़की प्रताड़ित है और वो जिनके भी नाम लेती है उन सब पर मामला चलाया जाता है.” सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के मायनेसोनाली कड़वासरा बताती हैं कि सुप्रीम कोर्ट की जिस टिप्पणी की बात की जा रही है उसका ज़िक्र इस मामले के आदेश में नहीं है. इसलिए अगर ऐसी टिप्पणी की गई है तो वो केवल इसी मामले पर लागू होगी. उसका मौजूदा किसी भी क़ानून पर असर नहीं पड़ेगा. कई बार कोर्ट किसी मामले के तथ्यों को देखते हुए अलग-अलग टिप्पणियां करते है. हालांकि, अगर इस टिप्पणी का कोई व्यापक प्रभाव होता या मौजूदा क़ानून के संदर्भ में कही गई होती तो उसके फायदे और नुक़सान दोनों हो सकते थे. सोनाली कड़वासरा बताती हैं, “ससुराल में महिला को पहुंचाई गई चोटों की प्राथमिक ज़िम्मेदारी अगर हर मामले में पति पर मानी जाती है तो उससे समस्या ये होगी कि अगर पत्नी केवल ससुराल वालों पर प्रताड़ना का आरोप लगाती है लेकिन पति पर नहीं तो भी पति आरोपी माना जाएगा. पत्नी उसे नहीं बचा पाएगी. क्योंकि पत्नी की सुरक्षा की प्राथमिक ज़िम्मेदारी पति पर आ जाएगी.” “वहीं, इससे मदद ये मिलेगी कि पत्नी को साबित नहीं करना पड़ेगा कि पति भी प्रताड़ना में शामिल है. तब साबित करने की पूरी ज़िम्मेदारी पति की होगी. कई मामलों में पति कहते हैं कि उन्हें प्रताड़ना के बारे में नहीं पता था. पति और पत्नी दोनों को अपनी बात साबित करनी होती है और मामले बहुत लंबे खिंच जाते हैं. हालांकि, ये सब बहुत दूर की बात है." इमेज स्रोत, Getty Creative जीएस बग्गा भी कहते हैं कि हर मामले में प्राथमिक तौर पर पति को ज़िम्मेदार मानना मुश्किलें खड़ी कर सकता है. जैसे अगर थप्पड़ ससुर ने मारा है और पति घर पर नहीं है तो आप कैसे कह सकते हैं कि पति इसके लिए प्राथमिक तौर पर ज़िम्मेदार है. इसलिए कोर्ट ने जो कहा है वो सिर्फ़ उसी मामले के लिए कहा गया है. पति की ज़िम्मेदारी है लेकिन अनुपालन नहींमहिला अधिकारों के लिए और उन पर हिंसा के ख़िलाफ़ काम करने वाली कोलकाता स्थित संस्था स्वयं की निदेशक अनुराधा कपूर कहती हैं कि शादीशुदा महिला तो अपने पति से ही अधिकार मांगेगी चाहे भरण-पोषण का हो या घर में सुरक्षित रहने का. हमारे क़ानून में पति की जिम्मेदारी भी तय की गई है. उनके ख़िलाफ़ मामले दर्ज होते हैं लेकिन, समस्या क़ानून को लागू करने की है. वह बताती हैं, “भारत में महिलाओं के लिए क़ानून तो अच्छे हैं. महिला अधिकारों की लंबी लड़ाई के बाद ये क़ानून आए हैं लेकिन इनका अनुपालन उतने बेहतर तरीके से नहीं हो पाता. जैसे अदालत से भरण-पोषण का आदेश मिलने के बाद भी जब पति रखरखाव की रकम देने से इनकार करता है तो पत्नी को कोर्ट के कई चक्कर लगाने पड़ते हैं.” “घरेलू हिंसा क़ानून में कहा गया है कि तीन दिनों के अंदर मामले की सुनवाई होगी और 60 दिनों के अंदर अंतिम आदेश आएगा. लेकिन, असल में तो पहली सुनवाई के लिए ही महीनों लग जाते हैं. अंतिम आदेश आने में सालों निकल जाते हैं.” वह कहती हैं कि क़ानून के स्तर पर ज़िम्मेदारियां तय होने के बाद भी महिलाएं संघर्ष कर रही हैं. उन्हें मेडिकल टेस्ट की जानकारी नहीं होती. वो समय रहते टेस्ट नहीं करातीं तो हिंसा के सबूत ही नहीं मिल पाते. मुकदमे लंबे चलते हैं इसलिए वो थककर पीछे ही हट जाती हैं. इसलिए क़ानून को तो पुख़्ता बनाया ही जाना चाहिए लेकिन उसके अनुपालन पर भी ध्यान देना चाहिए. मानसिक उत्पीड़न की धारा क्या है?पड़ोसी द्वारा मानसिक उत्पीड़न
भारतीय दंड संहिता की धारा 268 उपद्रव को परिभाषित करती है जब व्यक्ति किसी सार्वजनिक उपद्रव का दोषी होता है जब वह कोई ऐसा कार्य करता है जिससे जनता या आम तौर पर पड़ोस में संपत्ति पर रहने या कब्जा करने वाले लोगों को चोट, खतरे या झुंझलाहट होती है।
प्रताड़ना क्या है?लगातार आरोप लगाना,अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करना, प्रताड़ना और मानसिक क्रूरता की श्रेणी में आता है।
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