2 स तम बर क इत ह स - 2 sa tam bar ka it ha sa

प्रकरण 1
सामान्य परिचय


हिन्दी काव्य अब पूर्ण प्रौढ़ता को पहुँच गया था। संवत् 1598 में कृपाराम थोड़ा बहुत रसनिरूपण भी कर चुके थे। उसी समय के लगभग चरखारी के मोहनलाल मिश्र ने 'श्रृंगारसागर', नामक एक ग्रंथ श्रृंगारसंबंधी लिखा। नरहरि कवि के साथी करनेस कवि ने 'कर्णाभरण', श्रुतिभूषण' और 'भूपभूषण' नामक तीन ग्रंथ अलंकार संबंधी लिखे। रसनिरूपण और अलंकारनिरूपण का इस प्रकार सूत्रपात हो जाने पर केशवदासजी ने काव्य के सब अंग का निरूपण शास्त्रीय पद्ध ति पर किया। इसमें संदेह नहीं कि काव्यरीति का सम्यक् समावेश पहले पहल आचार्य केशव ने ही किया। पर हिन्दी में रीतिग्रंथों की अविरल और अखंडित परंपरा का प्रवाह केशव की 'कविप्रिया' के प्राय: 50 वर्ष पीछे चला और वह भी एक भिन्न आदर्श को लेकर, केशव के आदर्श को लेकर नहीं।
केशव के प्रसंग में यह पहले कहा जा चुका है कि वे काव्य में अलंकारों का स्थान प्रधान समझने वाले चमत्कारवादी कवि थे। उनकी इस मनोवृत्ति के कारण हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक विचित्र संयोग घटित हुआ। संस्कृत साहित्य के विकासक्रम की एक संक्षिप्त उद्ध रणी हो गई। साहित्य की मीमांसा क्रमश: बढ़ते बढ़ते जिस स्थिति पर पहुँच गई थी, उस स्थिति से सामग्री न लेकर केशव ने उसके पूर्व की स्थिति से सामग्री ली। उन्होंने हिन्दी पाठकों को काव्यांगनिरूपण की उस पूर्व दशा का परिचय कराया जो भामह और उद्भट के समय में थी; उस उत्तर दशा का नहीं जो आनंदवर्धानाचार्य, मम्मट और विश्वनाथ द्वारा विकसित हुई। भामह और उद्भट के समय से अलंकार और अलंकार्य का स्पष्ट भेद नहीं हुआ था; रस, रीति, अलंकार आदि सबके लिए 'अलंकार' शब्द का व्यवहार होता था। यही बात हम केशव की 'कविप्रिया' में भी पाते हैं। उसमें 'अलंकार' के 'सामान्य' और 'विशेष' दो भेद करके 'सामान्य' के अंतर्गत वर्ण्य-विषय और 'विशेष' के अंतर्गत वास्तविक अलंकार रखे गए हैं। 1
पर केशवदास के उपरांत तत्काल रीतिग्रंथों की परंपरा चली नहीं। कविप्रिया के 50 वर्ष पीछे उसकी अखंड परंपरा का आरंभ हुआ। यह परंपरा केशव के दिखाए हुए पुराने आचार्यों (भामह, उद्भट आदि) के मार्ग पर न चलकर परवर्ती आचार्यों के परिष्कृत मार्ग पर चली जिसमें अलंकार अलंकार्य का भेद हो गया था। हिन्दी के अलंकारग्रंथ अधिकतर 'चंद्रालोक' और 'कुवलयानंद' के अनुसार निर्मित हुए। कुछ ग्रंथों में 'काव्यप्रकाश' और 'साहित्यदर्पण' का भी आधार पाया जाता है। काव्य के स्वरूप और अंगों के संबंध में हिन्दी के रीतिकार कवियों ने संस्कृत के इन परवर्ती ग्रंथों का मत ग्रहण किया। इस प्रकार दैवयोग से संस्कृत साहित्यशास्त्र के इतिहास की संक्षिप्त उद्ध रणी हिन्दी में हो गई।
हिन्दी रीतिग्रंथों की परंपरा चिंतामणि त्रिपाठी से चली, अत: रीतिकाल का आरंभ उन्हीं से मानना चाहिए। उन्होंने संवत् 1700 के कुछ आगे पीछे 'काव्यविवेक', 'कविकुलकल्पतरु' और 'काव्यप्रकाश' ये तीन ग्रंथ लिखकर काव्य के सब अंगों का पूरा निरूपण किया और पिंगल या छंदशास्त्र पर भी एक पुस्तक लिखी। उसके उपरांत तो लक्षणग्रंथों की भरमार सी होने लगी। कवियों ने कविता लिखने की एक प्रणाली ही बना ली कि पहले दोहे में अलंकार या रस का लक्षण लिखना फिर उसके उदाहरण के रूप में कवित्त या सवैया लिखना। हिन्दी साहित्य में यह अनूठा दृश्य खड़ा हुआ। संस्कृत साहित्य में कवि और आचार्य दो भिन्न भिन्न श्रेणियों के व्यक्ति रहे। हिन्दी काव्यक्षेत्र में यह भेद लुप्त सा हो गया। इस एकीकरण का प्रभाव अच्छा नहीं पड़ा। आचार्यत्व के लिए जिस सूक्ष्म विवेचन या पर्यालोचन शक्ति की अपेक्षा होती है उसका विकास नहीं हुआ। कवि लोग एक दोहे में अपर्याप्त लक्षण देकर अपने कविकर्म में प्रवृत्त हो जाते थे। काव्यांगों का विस्तृत विवेचन, तर्क द्वारा खंडन मंडन, नए नए सिध्दांतों का प्रतिपादन आदि कुछ भी न हुआ। इसका कारण यह भी था कि उस समय गद्य का विकास नहीं हुआ था। जो कुछ लिखा जाता था वह पद्य में ही लिखा जाता था। पद्य में किसी बात की सम्यक् मीमांसा या उस पर तर्क वितर्क हो नहीं सकता। इस अवस्था में 'चंद्रालोक' की यह पद्ध ति ही सुगम दिखाई पड़ी कि एक श्लोक या एक चरण में ही लक्षण कहकर छुट्टी ली।
उपर्युक्त बातों पर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दी में लक्षणग्रंथ की परिपाटी पर रचना करने वाले जो सैकड़ों कवि हुए हैं वे आचार्य की कोटि में नहीं आ सकते। वे वास्तव में कवि ही थे। उनमें आचार्य के गुण नहीं थे। उनके अपर्याप्त लक्षण साहित्यशास्त्र का सम्यक् बोध कराने में असमर्थ हैं। बहुत स्थलों पर तो उनके द्वारा अलंकार आदि के स्वरूप का भी ठीक ठीक बोध नहीं हो सकता। कहीं कहीं तो उदाहरण भी ठीक नहीं हैं। 'शब्दशक्ति' का विषय तो दो ही चार कवियों ने नाममात्र के लिए लिया है जिससे उस विषय का स्पष्ट बोध होना तो दूर रहा, कहीं कहीं भ्रांत धारणा अवश्य उत्पन्न हो सकती है। काव्य के साधारणत: दो भेद किए जाते हैं,श्रव्य और दृश्य। इनमें से दृश्य काव्य का निरूपण तो छोड़ ही दिया गया। सारांश यह कि इन रीतियों पर ही निर्भर रहनेवाले व्यक्ति का साहित्यज्ञान कच्चा ही समझना चाहिए। यह सब लिखने का अभिप्राय यहाँ केवल इतना ही है कि यह न समझा जाय की रीतिकाल के भीतर साहित्यशास्त्र पर गंभीर और विस्तृत विवेचन तथा नई नई बातों की उद्भावना होती रही। 
केशवदास के वर्णन में यह दिखाया जा चुका है कि उन्होंने सारी सामग्री कहाँ कहाँ से ली। आगे होने वाले लक्षण ग्रंथकार कवियों ने भी सारे लक्षण और भेद संस्कृत की पुस्तकों से लेकर लिखे हैं जो कहीं कहीं अपर्याप्त हैं। अपनी ओर से उन्होंने न तो अलंकार क्षेत्र में कुछ मौलिक विवेचन किया, न रस क्षेत्र में। काव्यांगों का विस्तृत समावेश दास जी ने अपने 'काव्यनिर्णय' में किया है। अलंकारों को जिस प्रकार उन्होंने बहुत से छोटे छोटे प्रकरणों में बाँटकर रखा है उससे भ्रम हो सकता है कि शायद किसी आधार पर उन्होंने अलंकारों का वर्गीकरण किया है। पर वास्तव में उन्होंने किसी प्रकार के वर्गीकरण का प्रयत्न नहीं किया है। दासजी की एक नई योजना अवश्य ध्यान देने योग्य है। संस्कृत काव्य में अंत्यानुप्रास या तुक का चलन नहीं था, इससे संस्कृत के साहित्यग्रंथों में उसका विचार नहीं हुआ है। पर हिन्दी काव्य में वह बराबर आरंभ से ही मिलता है। अत: दासजी ने अपनी पुस्तक में उसका विचार करके बड़ा ही आवश्यक कार्य किया।
भूषण का 'भाविक छवि' एक नया अलंकार सा दिखाई पड़ता है, पर वास्तव में संस्कृत ग्रंथों के 'भाविक' का ही एक दूसरा या प्रवर्धित रूप है। 'भाविक' का संबंध कालगत दूरी से है; इसका देशगत से। बस इतना ही अंतर है।
दासजी के 'अतिशयोक्ति' के पाँच नए दिखाई पड़नेवाले भेदों में से चार तो भेदों के भिन्न भिन्न योग हैं। पाँचवाँ 'संभावनातिशयोक्ति' तो संबंधातिशयोक्ति हीहै।
देव कवि का संचारियों के बीच छल बढ़ा देना कुछ लोगों को नई सूझ समझ पड़ा है। उन्हें समझना चाहिए कि देव ने जैसे और सब बातें संस्कृत की 'रसतरंगिणी' से ली हैं वैसे ही यह 'छल' भी। सच पूछिए तो छल का अंतर्भाव अवहित्था में हो जाता है।
इस बात का संकेत पहले किया जा चुका है कि हिन्दी के पद्यबद्ध लक्षणग्रंथों में दिए हुए लक्षणों और उदाहरणों में बहुत जगह गड़बड़ी पाई जाती है। अब इस गड़बड़ी के संबंध में दो बातें कही जा सकती हैं। या तो यह कहें कि कवियों ने अपना मतभेद प्रकट करने के लिए जानबूझकर भिन्नता कर दी है अथवा प्रमादवशऔरकाऔर समझकर। मतभेद तो तब कहा जाता जब कहीं कोई नूतन विचारपद्ध ति मिलती। अत: दूसरा कारण ही ठहरता है। कुछ उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाएगा,
1. केशवदास ने रूपक के तीन भेद दंडी से लिए,अद्भुत रूपक, विरुद्ध रूपक और रूपक रूपक। इनमें से प्रथम का लक्षण भी स्वरूप व्यक्त नहीं करता और उदाहरण भी अधिकताद्रूप्य रूपक का हो गया है। विरुद्ध रूपक भी दंडी से नहीं मिलता और रूपकातिशयोक्ति हो गया है। रूपक रूपक दंडी के अनुसार वहाँ होता है जहाँ प्रस्तुत पर एक अप्रस्तुत का आरोप करके फिर दूसरे अप्रस्तुत का भी आरोप कर दिया जाता है। केशव के न तो लक्षण से यह बात प्रकट होती है, न उदाहरण से। उदाहरण में दंडी के उदाहरण का ऊपरी ढाँचा भर झलकता है, पर असल बात का पता नहीं है। इससे स्पष्ट है कि बिना ठीक तात्पर्य समझे ही लक्षण और उदाहरण हिन्दी में दे दिए गए हैं।
2. भूषण क्या, प्राय: सब हिन्दी कवियों ने 'भ्रम', 'संदेह' और 'स्मरण' अलंकारों के लक्षणों में सादृश की बात छोड़ दी है। इससे बहुत जगह उदाहरण अलंकार के न होकर भाव के हो गए हैं। भूषण का उदाहरण सबसे गड़बड़ है। 
3. शब्दशक्ति का विषय दास ने थोड़ा सा लिया है, पर उससे उसका कुछ भी बोध नहीं हो सकता। 'उपादान लक्षण' का लक्षण भी विलक्षण है और उदाहरण भी असंगत। उदाहरण से साफ झलकता है कि इस लक्षण का स्वरूप ही समझने में भ्रम हुआ है।
जबकि काव्यांगों का स्वतंत्र विवेचन ही नहीं हुआ तब तरह तरह के 'वाद' कैसे प्रतिष्ठित होते? संस्कृत साहित्य में जैसे अलंकारवाद, रीतिवाद, रसवाद, ध्वनिवाद, वक्रोक्तिवाद इत्यादि अनेक वाद पाए जाते हैं, वैसे वादों के लिए हिन्दी के रीतिक्षेत्र में रास्ता ही नहीं निकला। केशव को ही अलंकार आवश्यक मानने के कारण अलंकारवादी कह सकते हैं। केशव के उपरांत रीतिकाल में होनेवाले कवियों ने किसी वाद का निर्देश नहीं किया। वे रस को ही काव्य की आत्मा या प्रधान वस्तु मानकर चले। महाराज जसवंत सिंह ने अपने 'भाषाभूषण' की रचना 'चंद्रालोक' के आधार पर की, पर उसके अलंकार की अनिवार्यता वाले सिध्दांत का समावेश नहीं किया।
इन रीतिग्रंथों के कर्ता भावुक, सहृदय और निपुण कवि थे। उनका उद्देश्य कविता करना था, न कि काव्यांगों का शास्त्रीय पद्ध ति पर निरूपण करना। अत: उनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों (विशेषत: श्रृंगाररस) और अलंकारों के बहुत ही सरस और हृदयग्राही उदाहरण अत्यंत प्रचुर परिमाण में प्रस्तुत हुए। ऐसे सरस और मनोहर उदाहरण संस्कृत के सारे लक्षणों से चुनकर इकट्ठा करें तो भी उनकी इतनी अधिक संख्या न होगी। अलंकारों की अपेक्षा नायिकाभेद की ओर कुछ अधिक झुकाव रहा। इससे श्रृंगाररस के अंतर्गत बहुत सुंदर मुक्तक रचना हिन्दी में हुई। इस रस का इतना अधिक विस्तार हिन्दी साहित्य में हुआ कि इसके एक एक अंग को लेकर स्वतंत्र ग्रंथ रचे गए। इस रस का सारा वैभव कवियों ने नायिकाभेद के भीतर दिखाया। रसग्रंथ वास्तव में नायिकाभेद के ही ग्रंथ हैं जिनमें और दूसरे रस पीछे से संक्षेप में चलते कर दिए गए हैं। नायिका श्रृंगाररस का आलंबन है। इस आलंबन के अंगों का वर्णन एक स्वतंत्र विषय हो गया और न जाने कितने ग्रंथ केवल नख शिख वर्णन के लिखे गए। इसी प्रकार उद्दीपन के रूप में षट् ऋतुवर्णन पर भी कई अलग पुस्तकें लिखी गईं। विप्रलंभ संबंधी 'बारहमासा' भी कुछ कवियों ने लिखे। 
रीतिग्रंथों की इस परंपरा द्वारा साहित्य के विस्तृत विकास में कुछ बाधा भी पड़ी। प्रकृति की अनेकरूपता, जीवन की भिन्न भिन्न चिंत्य बातों तथा जगत् के नाना रहस्यों की ओर कवियों की दृष्टि नहीं जाने पाई। वह एक प्रकार से बद्ध और परिमित सी हो गई। उसका क्षेत्र संकुचित हो गया। वाग्धारा बँधी हुई नालियों में ही प्रवाहित होने लगी जिससे अनुभव के बहुत से गोचर और अगोचर विषय रससिक्त होकर सामने आने से रह गए। दूसरी बात यह हुई कि कवियों की व्यक्तिगत विशेषता की अभिव्यक्ति का अवसर बहुत ही कम रह गया। कुछ कवियों के बीच भाषाशैली, पदविन्यास, अलंकारविधान आदि बाहरी बातों का भेद हम थोड़ा बहुत दिखा सकें, तो दिखा सकें, पर उनकी आभ्यंतर प्रवृत्ति के अन्वीक्षण में समर्थ उच्चकोटि की आलोचना की सामग्री बहुत कम पा सकते हैं। 
रीतिकाल में एक बड़े भारी अभाव की पूर्ति हो जानी चाहिए थी, पर वह नहीं हुई। भाषा जिस समय सैकड़ों कवियों द्वारा परिमार्जित होकर प्रौढ़ता को पहुँची उसी समय व्याकरण द्वारा उसकी व्यवस्था होनी चाहिए थी कि जिससे उस च्युतसंस्कृति दोष का निराकरण होता तो ब्रजभाषा काव्य में थोड़ा बहुत सर्वत्र पाया जाता है। और नहीं तो वाक्यदोषों का पूर्ण रूप से निरूपण होता जिससे भाषा में कुछ और सफाई आती। बहुत थोडे कवि ऐसे मिलते हैं, जिनकी वाक्यरचना सुव्यवस्थित पाई जाती है। भूषण अच्छे कवि थे। जिस रस को उन्होंने लिया उसका पूरा आवेश उनमें था, पर भाषा उनकी अनेक स्थलों पर सदोष है।2 यदि शब्दों के रूप स्थिर हो जाते और शुद्ध रूपों के प्रयोग पर जोर दिया जाता तो शब्दों को तोड़ मरोड़ कर विकृत करने का साहस कवियों को न होता। पर इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं हुई, जिससे भाषा में बहुत कुछ गड़बड़ी बनी रही।
भाषा की गड़बड़ी का एक कारण ब्रज और अवधी इन दोनों काव्यभाषाओं का कवि के इच्छानुसार सम्मिश्रण भी था। यद्यपि एक सामान्य साहित्यिक भाषा किसी प्रदेश विशेष के प्रयोगों तक ही परिमित नहीं रह सकती, पर वह अपना ढाँचा बराबर बनाए रहती है। काव्य की ब्रजभाषा के संबंध में भी अधिकतर यही बात रही। सूरदास की भाषा में यत्रा तत्रा पूरबी प्रयोग, जैसेमोर, हमार, कीन, अस, जस इत्यादि,बराबर मिलते हैं। बिहारी की भाषा भी 'कीन', 'दीन' आदि से खाली नहीं। रीतिग्रंथों का विकास अधिकतर अवध में हुआ। अत: इस काल में काव्य की ब्रजभाषा में अवधी के प्रयोग और अधिक मिले। इस बात को किसी किसी कवि ने लक्ष्य भी किया। दासजी ने अपने 'काव्यनिर्णय' में काव्यभाषा पर भी कुछ दृष्टिपात किया। मिश्रित भाषा के समर्थन में वे कहते हैं,
ब्रजभाषा भाषा रुचिर कहैं सुमति सब कोइ
मिल संस्कृत पारस्यौ पै अति प्रगट जु होइ
ब्रज मागधी मिलै अमर, नाग यवन भाखानि
सहज पारसी हू मिलै, षट विधि कहत बखानि
उक्त दोहों में 'मागधी' शब्द से पूरबी भाषा का अभिप्राय है। अवधी अर्ध्दमागधी से निकली मानी जाती है और पूरबी हिन्दी के अंतर्गत है। जबाँदानी के लिए ब्रज का निवास आवश्यक नहीं है, आप्त कवियों की वाणी भी प्रमाण है, इस बात को दासजी ने स्पष्ट कहा है,
सूर, केशव, मंडन, बिहारी, कालिदास, ब्रह्म,
चिंतामणि, मतिराम, भूषन सु जानिए
लीलावर, सेनापति, निपट नेवाज, निधि,
नीलकंठ, मिश्र सुखदेव, देव मानिए
आलम, रहीम, रसखान, सुंदरादिक,
अनेकन सुमति भए कहाँ लौ बखानिए
ब्रजभाषा हेत ब्रजवास ही न अनुमानौ,
ऐसे-ऐसे कविन की बानी हू सों जानिए
मिलीजुली भाषा के प्रमाण में दासजी कहते हैं कि तुलसी और गंग तक ने, जो कवियों के शिरोमणि हुए हैं, ऐसी भाषा का व्यवहार किया है,
तुलसी गंग दुवौ भए, सुकविन के सरदार।
इनके काव्यन में मिली, भाषा विविधा प्रकार
इस सीधे सादे दोहे का जो यह अर्थ लें कि तुलसी और गंग इसीलिए कवियों के सरदार हुए कि उनके काव्यों में विविधा प्रकार की भाषा मिली है, उनकी समझ को क्या कहा जाय?
दासजी ने काव्यभाषा के स्वरूप का जो निर्णय किया वह कोई 100 वर्षों की काव्यपरंपरा के पर्यालोचन के उपरांत। अत: उनका स्वरूप निरूपण तो बहुत ठीक है। उन्होंने काव्यभाषा ब्रजभाषा ही कही है जिसमें और भाषाओं के शब्दों का भी मेल हो सकता है। पर भाषा संबंधी और अधिक मीमांसा न होने के कारण कवियों ने अपने को अन्य बोलियों के शब्दों तक ही परिमित नहीं रखा; उनके कारक चिद्दों और क्रिया के रूपों का भी वे मनमाना व्यवहार बराबर करते रहे। ऐसा वे केवल सौंदर्य की दृष्टि से करते थे, किसी सिध्दांत के अनुसार नहीं। 'करना' के भूतकाल के लिए वे छंद की आवश्यकता के अनुसार 'कियो', 'कीनो', 'करयो', 'करियो', 'कीन' यहाँ तक कि 'किय' तक रखने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि भाषा को वह स्थिरता न प्राप्त हो सकी जो किसी साहित्यिक भाषा के लिए आवश्यक है। रूपों के स्थिर न होने से यदि कोई विदेशी काव्य की ब्रजभाषा का अध्ययन करना चाहे तो उसे कितनी कठिनता होगी। 
भक्तिकाल की प्रारंभिक अवस्था में ही किस प्रकार मुसलमानों के संसर्ग से कुछ फारसी के शब्द और चलते भाव मिलने लगे थे, इसका उल्लेख हो चुका है। नामदेव और कबीर आदि की तो बात ही क्या, तुलसीदास ने भी गनी, गरीब, साहब, इताति, उमरदराज आदि बहुत से शब्दों का प्रयोग किया। सूर में ऐसे शब्द अवश्य कम मिलते हैं। फिर मुसलमानी राज्य की दृढ़ता के साथ साथ इस प्रकार के शब्दों का व्यवहार ज्यों ज्यों बढ़ता गया त्यों त्यों कवि लोग उन्हें अधिाकाधिक स्थान देने लगे। राजा महाराजाओं के दरबार में विदेशी शिष्टता और सभ्यता के व्यवहार का अनुकरण हुआ और फारसी के लच्छेदार शब्द वहाँ चारों ओर सुनाई देने लगे। अत: भाट या कवि लोग 'आयुष्मान' और 'जयजयकार' तक ही अपने को कैसे रख सकते थे? वे भी दरबार में खड़े होकर 'उमरदराज महाराज तेरी चाहिए' पुकारने लगे। 'बख्त', 'बलंद' आदि शब्द उनकी जबान पर भी नाचने लगे।
यह तो हुई व्यावहारिक भाषा की बात। फारसी काव्य के शब्दों को भी थोड़ा बहुत कवियों ने अपनाना आरंभ किया। रीतिकाल में ऐसे शब्दों की संख्या कुछ और बढ़ी। पर यह देखकर हर्ष होता है कि अपनी भाषा की सरसता का ध्यान रखनेवाले उत्कृष्ट कवियों ने ऐसे शब्दों को बहुत ही कम स्थान दिया। परंपरागत साहित्य का कम अभ्यास रखनेवाले साधारण कवियों ने कहीं कहीं बड़े बेढंगे तौर पर ऐसे विदेशी शब्द रखे हैं। कहीं कहीं 'खुसबोयन' आदि उनके विकृत शब्दों को देखकर शिक्षितों को एक प्रकार की विरक्ति सी होती है और उनकी कविता गँवारों की रचना सी लगती है। शब्दों के साथ साथ कुछ थोड़े से कवियों ने इश्क की शायरी की पूरी अलंकार सामग्री तक उठाकर रख ली है और उनके भाव भी बाँधा गए हैं। रसनिधि-कृत'रतनहजारा' में यह बात अरुचिकर मात्रा में पाई जाती है। बिहारी ऐसे परम उत्कृष्ट कवि भी यद्यपि फारसी भावों के प्रभाव से नहीं बचे हैं, पर उन्होंने उन भावों को अपने देशी साँचे में ढाल लिया है जिससे वे खटकते क्या सहसा लक्ष्य भी नहीं होते। उनकी विरहताप की अत्युक्तियों में दूर की सूझ और नाजुक खयाली बहुत कुछ फारसी की शैली की है। पर बिहारी रसभंग करने वाले बीभत्स रूप कहीं नहीं लाए हैं। 
यहाँ पर यह उल्लेख कर देना भी आवश्यक जान पड़ता है कि रीतिकाल के कवियों के प्रिय छंद कवित्त और सवैये ही रहे। कवित्त तो श्रृंगार और वीर दोनों रसों के लिए समान रूप से उपयुक्त माना गया था। वास्तव में पढ़ने के ढंग में थोड़ा विभेद कर देने से उसमें दोनों के अनुकूल नादसौंदर्य पाया जाता है। सवैया, श्रृंगार और करुण इन दो कोमल रसों के लिए बहुत उपयुक्त होता है, यद्यपि वीररस की कविता में भी इसका व्यवहार कवियों ने जहाँ तहाँ किया है। वास्तव में श्रृंगार और वीर इन्हीं दो रसों की कविता इस काल में हुई। प्रधानता श्रृंगार की ही रही। इससे इस काल को रस के विचार से कोई श्रृंगारकाल कहे तो कह सकता है। श्रृंगार के वर्णन को बहुतेरे कवियों ने अश्लीलता की सीमा तक पहुँचा दिया था। इसका कारण जनता की रुचि थी जिनके लिए कर्मण्यता और वीरता का जीवन बहुत कम रह गया था।
संदर्भ
1. विशेष, दे. केशवदास।
2. देखो, अगले प्रकरण में भूषण का परिचय।

प्रकरण 2
रीति ग्रंथकार कवि

हिन्दी साहित्य की गति का ऊपर जो संक्षिप्त उल्लेख हुआ, उससे रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्ति का पता चल सकता है। अब इस काल के मुख्य मुख्य कवियों का विवरण दिया जाता है।
1. चिंतामणि त्रिपाठी ये तिकवाँपुर (जिला-कानपुर) के रहनेवाले और चार भाई थे,चिंतामणि, भूषण, मतिराम और जटाशंकर। चारों कवि थे, जिनमें प्रथम तीन तो हिन्दी साहित्य में बहुत यशस्वी हुए। इनके पिता का नाम रत्नाकर त्रिपाठी था। कुछ दिन से यह विवाद उठाया गया है कि भूषण न तो चिंतामणि और मतिराम के भाई थे, न शिवाजी के दरबार में थे। पर इतनी प्रसिद्ध बात का जब तक पर्याप्त विरुद्ध प्रमाण न मिले तब तक वह अस्वीकार नहीं की जा सकती। चिंतामणि का जन्मकाल संवत् 1666 के लगभग और कविताकाल संवत् 1700 के आसपास ठहरता है। इनका 'कविकुलकल्पतरु' नामक ग्रंथ संवत् 1707 का लिखा है। इनके संबंध में शिवसिंहसरोज में लिखा है कि 'ये बहुत दिन तक नागपुर में सूर्यवंशी भोसला मकरंदशाह के यहाँ रहे और उन्हीं के नाम पर 'छंद विचार' नामक पिंगल का बहुत भारी ग्रंथ बनाया और 'काव्य विवेक', 'कविकुलकल्पतरु', 'काव्यप्रकाश', 'रामायण' ये पाँच ग्रंथ इनके बनाए हुए हमारे पुस्तकालय में मौजूद हैं। इनकी बनाई रामायण कवित्त और अन्य नाना छंदों में बहुत अपूर्व है। बाबू रुद्रसाहि सोलंकी, शाहजहाँ बादशाह और जैनदीं अहमद ने इनको बहुत दान दिए हैं। इन्होंने अपने ग्रंथ में कहीं कहीं अपना नाम मणिमाल भी कहा है।'
ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि चिंतामणि ने काव्य के सब अंगों पर ग्रंथ लिखे। इनकी भाषा ललित और सानुप्रास होती थी। अवध के पिछले कवियों की भाषा देखते हुए इनकी ब्रजभाषा विशुद्ध दिखाई पड़ती है। विषय वर्णन की प्रणाली भी मनोहर है। ये वास्तव में एक उत्कृष्ट कवि थे। रचना के कुछ नमूने देखिए,
येई उधारत हैं तिन्हैं जे परे मोह महोदधि के जल फेरे।
जे इनको पल ध्यान धारैं मन, ते न परैं कबहूँ जम घेरे
राजै रमा रमनी उपधान अभै बरदान रहैं जन नेरे।
हैं बलभार उदंड भरे हरि के भुजदंड सहायक मेरे

इक आजु मैं कुंदन बेलि लखी मनिमंदिर की रुचिवृंद भरैं।
कुरविंद के पल्लव इंदु तहाँ अरविंदन तें मकरंद झरैं
उत बुंदन के मुकतागन ह्वै फल सुंदर द्वै पर आनि परै।
लखि यों दुति कंद अनंद कला नँदनंद सिलाद्रव रूप धारैं

ऑंखिन मुँदिबे के मिस आनि अचानक पीठि उरोज लगावै।
कैहूँ कहूँ मुसकाय चितै अंगराय अनूपम अंग दिखावै
नाह छुई छल सो छतियाँ हँसि भौंह चढ़ाय अनंद बढ़ावै।
जोबन के मद मत्ता तिया हित सों पति को नित चित्त चुरावै
2. बेनी ये असनी के बंदीजन थे और संवत् 1700 के आसपास विद्यमान थे। इनका कोई ग्रंथ नहीं मिलता पर फुटकल कवित्त बहुत से सुने जाते हैं जिनसे यह अनुमान होता है कि इन्होंने नख शिख और षट् ऋतु पर पुस्तकें लिखी होंगी। कविता इनकी साधारणत: अच्छी होती थी। भाषा चलती होने पर भी अनुप्रासयुक्त होती थी। दो उदाहरण नीचे दिए जाते हैं,
छहरैं सिर पै छवि मोरपखा, उनकी नथ के मुकुता थहरैं।
फहरै पियरो पट बेनी इतै, उनकी चुनरी के झबा झहरैं
रसरंग भिरे अभिरे हैं तमाल दोऊ रसख्याल चहैं लहरैं।
नित ऐसे सनेह सों राधिका स्याम हमारे हिए में सदा बिहरैं

कवि बेनी नई उनई है घटा, मोरवा बन बोलत कूकन री।
छहरै बिजुरी छितिमंडल छ्वै, लहरै मन मैन भभूकन री।
पहिरौ चुनरी चुनिकै दुलही, सँग लाल के झूलहु झूकन री।
ऋतु पावस यों ही बितावत हौ, मरिहौ, फिरि बावरि! हूकन री
3. महाराज जसवंत सिंह ये मारवाड़ के प्रसिद्ध महाराज थे जो अपने समय के सबसे प्रतापी हिंदू नरेश थे और जिनका भय औरंगजेब को बराबर बना रहता था। इनका जन्म संवत् 1683 में हुआ। वे शाहजहाँ के समय में ही कई लड़ाइयों पर जा चुके थे। महाराज गजसिंह के ये दूसरे पुत्र थे और उनकी मृत्यु के उपरांत संवत् 1695 में गद्दी पर बैठे। इनके बड़े भाई अमरसिंह अपने उद्ध त स्वभाव के कारण पिता द्वारा अधिकारच्युत कर दिए गए थे। महाराज जसवंत सिंह बडे अच्छे साहित्यमर्मज्ञ और तत्वज्ञानसंपन्न पुरुष थे। उनके समय में राज्य भर में विद्या की बड़ी चर्चा रही और अच्छे अच्छे कवियों और विद्वानों का बराबर समागम होता रहा। महाराज ने स्वयं तो अनेक ग्रंथ लिखे ही, अनेक विद्वाना और कवियों से न जाने कितने ग्रंथ लिखवाए। औरंगजेब ने इन्हें कुछ दिनों के लिए गुजरात का सूबेदार बनाया था। वहाँ से शाइस्ता खाँ के साथ ये छत्रापति शिवाजी के विरुद्ध दक्षिण भेजे गए थे। कहते हैं कि चढ़ाई में शाइस्ताखाँ की जो दुर्गति हुई वह बहुत कुछ इन्हीं के इशारे से। अंत में ये अफगानों को सर करने के लिए काबुल भेजे गए जहाँ संवत् 1745 में इनका परलोकवास हुआ।
ये हिन्दी साहित्य के प्रधान आचार्यों में माने जाते हैं और इनका 'भाषाभूषण' ग्रंथ अलंकारों पर एक बहुत ही प्रचलित पाठयग्रंथ रहा है। इस ग्रंथ को इन्होंने वास्तव में आचार्य के रूप में लिखा है, कवि के रूप में नहीं। प्राक्कथन में इस बात का उल्लेख हो चुका है कि रीतिकाल के भीतर जितने लक्षण ग्रंथ लिखने वाले हुए वे वास्तव में कवि थे और उन्होंने कविता करने के उद्देश्य से ही वे ग्रंथ लिखे थे, न कि विषय प्रतिपादन की दृष्टि से। पर महाराज जसवंत सिंह जी इस नियम के अपवाद थे। वे आचार्य की हैसियत से हिन्दी साहित्य क्षेत्र में आए, कवि की हैसियत से नहीं। उन्होंने अपना 'भाषाभूषण' बिल्कुल 'चंद्रलोक' की छाया पर बनाया और उसी की संक्षिप्त प्रणाली का अनुसरण किया। जिस प्रकार चंद्रालोक में प्राय: एक ही श्लोक के भीतर लक्षण और उदाहरण दोनों का सन्निवेश है उसी प्रकार 'भाषाभूषण' में भी प्राय: एक ही दोहे में लक्षण और उदाहरण दोनों रखे गए हैं। इससे विद्यार्थियों को अलंकार कंठ करने में बड़ा सुबीता हो गया और 'भाषाभूषण' हिन्दी काव्य रीति के अभ्यासियों के बीच वैसा ही सर्वप्रिय हुआ जैसा कि संस्कृत के विद्यार्थियों के बीच चंद्रालोक। भाषाभूषण बहुत छोटा सा ग्रंथ है।
भाषाभूषण के अतिरिक्त जो और ग्रंथ इन्होंने लिखा है वे तत्वज्ञान संबंधी हैं; जैसे अपरोक्षसिध्दांत, अनुभवप्रकाश, आनंदविलास, सिध्दांतबोध, सिध्दांतसार, प्रबोधचंद्रोदय नाटक। ये सब ग्रंथ भी पद्य में ही हैं, जिनसे पद्य रचना की पूरी निपुणता प्रकट होती है। पर साहित्य से जहाँ तक संबंध है, ये आचार्य या शिक्षक के रूप में ही हमारे सामने आते हैं। अलंकारनिपुणता की इनकी पद्ध ति का परिचय कराने के लिए 'भाषाभूषण' के दो दोहे नीचे दिए जाते हैं,
अत्युक्ति, अलंकार अत्युक्ति यह बरनत अतिसय रूप।
जाचक तेरे दान तें भए कल्पतरु भूप
पर्यस्तापह्नुति, पर्यस्त जु गुन एक को और विषय आरोप।
होइ सुधाधर नाहिं यह वदन सुधाधर ओप
ये दोहे चंद्रालोक के इन श्लोकों की स्पष्ट छाया हैं,
अत्युक्तिरद्भुतातथ्य शौर्यौ दार्यादि वर्णनम्।
त्वयि दातारि राजेंद्र याचका: कल्पशाखिन:।
पर्य्यास्तापह्नुतिर्यत्रा धर्ममात्रां निषिधयते।
नायं सुधांशु: किं तर्हि सुधांशु: प्रेयसीमुखम्
भाषाभूषण पर पीछे तीन टीकाएँ रची गईं,'अलंकार रत्नाकर' नाम की टीका जिसे बंशीधार ने संवत् 1792 में बनाया, दूसरी टीका प्रतापसाहि की और तीसरी गुलाब कवि की 'भूषणचंद्रिका'।
4. बिहारीलाल,ये माथुर चौबे कहे जाते हैं और इनका जन्म ग्वालियर के पास बसुवा गोविंदपुर गाँव में संवत् 1660 के लगभग माना जाता है। एक दोहे के अनुसार इनकी बाल्यावस्था बुंदेलखंड में बीती और तरुणावस्था में ये अपनी ससुराल मथुरा में आ रहे। अनुमानत: ये संवत् 1720 तक वर्तमान रहे। ये जयपुर के मिर्जा राजा जयसाह (महाराज जयसिंह) के दरबार में रहा करते थे। कहा जाता है कि जिस समय ये कवीश्वर जयपुर पहुँचे उस समय महाराज अपनी छोटी रानी के प्रेम में इतने लीन रहा करते थे कि राजकाज देखने के लिए महलों के बाहर निकलते ही न थे। इस पर सरदारों की सलाह से बिहारी ने यह दोहा किसी प्रकार महाराज के पास भीतर भिजवाया,
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल।
अली कली ही सों बँधयो आगे कौन हवाल
कहते हैं कि इस पर महाराज बाहर निकले और तभी से बिहारी का मान बहुत अधिक बढ़ गया। महाराज ने बिहारी को इसी प्रकार के सरस दोहे बनाने की आज्ञा दी। बिहारी दोहे बनाकर सुनाने लगे और प्रति दोहे पर एक अशरफी मिलने लगी। इस प्रकार सात सौ दोहे बने जो संगृहीत होकर 'बिहारी सतसई' के नाम से प्रसिद्ध हुए।
श्रृंगाररस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और जितना मान 'बिहारी सतसई' का हुआ उतना और किसी का नहीं। इसका एक एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक एक रत्न माना जाता है। इसकी पचासों टीकाएँ रची गईं। इन टीकाओं में 4-5 टीकाएँ तो बहुत प्रसिद्ध हैं,कृष्ण कवि की टीका जो कवित्तों में है, हरिप्रकाश टीका, लल्लूजी लाल की लाल चंद्रिका, सरदार कवि की टीका और सूरति मिश्र की टीका। इन टीकाओं के अतिरिक्त बिहारी के दोहों के भाव पल्लवित करने वाले छप्पय, कुंडलियाँ, सवैया आदि कई कवियों ने रचे। पठान सुलतान की कुंडलियाँ इन दोहों पर बहुत अच्छी हैं, पर अधूरी हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कुछ और कुंडलियाँ रचकर पूर्ति करनी चाही थी। पं. अंबिकादत्त व्यास ने अपने 'बिहारी बिहार' में सब दोहों के भावों को पल्लवित करके रोला छंद लगाए हैं। पं. परमानंद ने 'श्रृंगार सप्तशती' के नाम से दोहों का संस्कृत अनुवाद किया है। यहाँ तक कि उर्दू शेरों में भी एक अनुवाद थोड़े दिन हुए बुंदेलखंड के मुंशी देवीप्रसाद (प्रीतम) ने लिखा। इस प्रकार बिहारी संबंधी एक अलग साहित्य ही खड़ा हो गया है। इतने से ही इस ग्रंथ की सर्वप्रियता का अनुमान हो सकता है। बिहारी का सबसे उत्तम और प्रामाणिक संस्करण बड़ी मार्मिक टीका के साथ थोड़े दिन हुए प्रसिद्ध साहित्यमर्मज्ञ और ब्रजभाषा के प्रधान आधुनिक कवि बाबू जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ने निकाला। जितने श्रम और जितनी सावधानी से यह संपादित हुआ है, आज तक हिन्दी का और कोई ग्रंथ नहीं हुआ।
बिहारी ने इस सतसई के अतिरिक्त और कोई ग्रंथ नहीं लिखा। यही एक ग्रंथ उनकी इतनी बड़ी कीर्ति का आधार है। यह बात साहित्य क्षेत्र के इस तथ्य की स्पष्ट घोषणा कर रही है कि किसी कवि का यश उसकी रचनाओं के परिमाण के हिसाब से नहीं होता, गुण के हिसाब से होता है। मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा है, इसमें कोई संदेह नहीं। मुक्तक में प्रबंध के समान रस की धारा नहीं रहती जिसमें कथा प्रसंग की परिस्थिति में अपने को भूला हुआ पाठक मग्न हो जाता है और हृदय में एक स्थायी प्रभाव ग्रहण करता है। इसमें तो रस के ऐसे छींटे पड़ते हैं जिनसे हृदयकलिका थोड़ी देर के लिए खिल उठती है। यदि प्रबंधकाव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है। इसी से यह सभा समाजों के लिए अधिक उपयुक्त होता है। उसमें उत्तरोत्तर अनेक दृश्यों द्वारा संगठित पूर्ण जीवन या उसके किसी एक पूर्ण अंग का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि कोई एक रमणीय खंडदृश्य इस प्रकार सहसा सामने ला दिया जाता है कि पाठक या श्रोता कुछ क्षणों के लिए मंत्रमुग्धा सा हो जाता है। इसके लिए कवि को अत्यंत मनोरम वस्तुओं और व्यापारों का एक छोटा सा स्तवक कल्पित करके उन्हें अत्यंत संक्षिप्त और सशक्त भाषा में प्रदर्शित करना पड़ता है। अत: जिस कवि में कल्पना की समाहारशक्ति के साथ भाषा की समाहारशक्ति जितनी अधिक होगी उतनी ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी। इसी से वे दोहे ऐसे छोटे छंद में इतना रस भर सके हैं। इनके दोहे क्या हैं, रस के छोटे छोटे छींटे हैं। इसी से किसी ने कहा है,
सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर।
देखत में छोटे लगैं बेधौं सकल शरीर
बिहारी की रसव्यंजना का पूर्ण वैभव उनके अनुभावों के विधान में दिखाई पड़ता है। अधिक स्थलों पर तो इनकी योजना की निपुणता और उक्तिकौशल के दर्शन होते हैं, पर इस विधान से इनकी कल्पना की मधुरता झलकती है। अनुभावों और हावों की ऐसी सुंदर योजना कोई श्रृंगारी कवि नहीं कर सका है। नीचे की हावभरी सजीव मूर्तियाँ देखिए,
बतरस लालच लाल की मुरली धारि लुकाइ।
सौंह करै, भौंहनि हँसे, देन कहै, नटि जाइ
नासा मोरि, नचाइ दृग, करी कका की सौंह।
काँटे सी कसकै हिए, गड़ी कँटीली भौंह
ललन चलनु सुनि पलनु में अंसुवा झलके आइ।
भई लखाइ न सखिनु हँ, झूठैं ही जमुहाइ
भावव्यंजना या रसव्यंजना के अतिरिक्त बिहारी ने वस्तुव्यंजना का सहारा भी बहुत लिया है,विशेषत: शोभा या कांति, सुकुमारता, विरहताप, विरह की क्षीणता आदि के वर्णन में। कहीं कहीं वस्तुव्यंजना औचित्य की सीमा का उल्लंघन करके खेलवाड़ के रूप में हो गई है; जैसेइन दोहों में,
पत्रा की तिथि पाइयै, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यौईं रहै आनन ओप उजास
छाले परिबे के डरनु सकै न हाथ छुवाइ।
झिझकति हियैं गुलाब कैं झवा झवावति पाइ
इत आवति चलि जात उत चली छ सातक हाथ।
चढ़ी हिंडोरे सैं रहै लगी उसासन साथ
सीरैं जतननि सिसिर ऋतु सहि बिरहिनि तनताप।
बसिबे कौं ग्रीषम दिनन परयो परोसिनि पाप
आड़े दै आले बसन जाड़े हूँ की राति।
साहसु ककै सनेहबस, सखी सबै ढिग जाति
अनेक स्थानों पर इनके व्यंग्यार्थ को स्फुट करने के लिए बड़ी क्लिष्ट कल्पना अपेक्षित होती है। ऐसे स्थलों पर केवल रीति या रूढ़ि ही पाठक की सहायता करती है और उसे पूरे प्रसंग का आक्षेप करना पड़ता है। ऐसे दोहे बिहारी में बहुत से हैं, पर यहाँ दो एक उदाहरण ही पर्याप्त होंगे,
ढीठि परोसिनि ईठ ह्वै कहे जु गहे सयान।
सबै सँदेसे कहि कह्यो मुसुकाहट मैं मान
नए बिरह बढ़ती बिथा खरी बिकल जिय बाल।
बिलखी देखि परोसिन्यौं हरषि हँसी तिहि काल
इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि बिहारी का 'गागर में सागर' भरने का जो गुण इतना प्रसिद्ध है वह बहुत कुछ रूढ़ि की स्थापना से ही संभव हुआ है। यदि नायिकाभेद की प्रथा इतने जोर शोर से न चल गई होती तो बिहारी को इस प्रकार की पहेली बुझाने का साहस न होता।
अलंकारों की योजना भी इस कवि ने बड़ी निपुणता से की है। किसी किसी दोहे में कई अलंकार उलझ पड़े हैं, पर उनके कारण कहीं भद्दापन नहीं आया है। 'असंगति' और 'विरोधाभास' की ये मार्मिक और प्रसिद्ध उक्तियाँ कितनी अनूठी हैं,
दृग अरुझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।
परति गाँठ दुरजन हियैं; दई, नई यह रीति
तंत्रीनाद कबित्ता रस, सरस राग रति रंग।
अनबूड़े बूड़े, तिरे जे बूड़े सब अंग
दो-एक जगह व्यंग्य अलंकार भी बड़े अच्छे ढंग से आए हैं। इस दोहे में रूपक व्यंग्य है,
करे चाह सों चुटकि कै खरे उड़ौहैं मैन।
लाज नवाए तरफरत करत खूँद सी नैन
श्रृंगार के संचारी भावों की व्यंजना भी ऐसी मर्मस्पर्शिनी है कि कुछ दोहे सहृदयों के मुँह से बार बार सुने जाते हैं। इस स्मरण में कैसी गम्भीर तन्मयता है,
सघन कुंज छाया सुखद सीतल सुरभि समीर।
मन ह्वै जात अजौं वहै उहि जमुना के तीर
विशुद्ध काव्य के अतिरिक्त बिहारी ने सूक्तियाँ भी बहुत सी कही हैं जिनमेंबहुतसीनीतिसंबंधिनी हैं। सूक्तियों में वर्णनवैचित्रय या शब्दवैचित्रय ही प्रधान रहता है। अत: उनमें से कुछ एक की ही गणना असल काव्य में हो सकती है। केवलशब्दवैचित्रय के लिए बिहारी ने बहुत कम दोहे रचे हैं। कुछ दोहे यहाँ दिए जाते हैं,
यद्यपि सुंदर सुघर पुनि सगुणौ दीपक देह।
तऊ प्रकास करै तितो भरिए जितो सनेह
कनक-कनक तें सौ गुनी मादकता अधिाकाय।
वह खाए बौराय नर, यह पाए बौराय।
तो पर वारौं उरबसी, सुनि राधिाके सुजान।
तू मोहन कैं उर बसी, ह्वै उरबसी समान
बिहारी के बहुत से दोहे 'आर्यासप्तशती' और 'गाथासप्तशती' की छाया लेकर बने हैं, इस बात को पं. पद्मसिंह शर्मा ने विस्तार से दिखाया है। पर साथ ही, उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि बिहारी ने गृहीत भावों को अपनी प्रतिभा के बल से किस प्रकार एक स्वतंत्र और कहीं कहीं अधिक सुंदर रूप दे दिया है। 
बिहारी की भाषा चलती होने पर भी साहित्यिक है। वाक्य रचना व्यवस्थित है और शब्दों के रूप का व्यवहार एक निश्चित प्रणाली पर है। यह बात बहुत कम कवियों में पाई जाती है। ब्रजभाषा के कवियों में शब्दों को तोड़ मरोड़ कर विकृत करने की आदत बहुतों में पाई जाती है। 'भूषण' और 'देव' ने शब्दों का बहुत अंग भंग किया है और कहीं कहीं गढ़ंत शब्दों का व्यवहार किया है। बिहारी की भाषा इस दोष से भी बहुत कुछ मुक्त है। दो एक स्थल पर ही 'स्मर' के लिए 'समर' ऐसे कुछ विकृत रूप मिलेंगे। जो यह भी नहीं जानते कि क्रांति को 'संक्रमण' (अप. सक्रोन) भी कहते हैं, 'अच्छ' साफ के अर्थ में संस्कृत शब्द है, 'रोज' रुलाई के अर्थ में आगरे के आसपास बोला जाता है और कबीर, जायसी आदि द्वारा बराबर व्यवहृत हुआ है, 'सोनजाइ' शब्द 'स्वर्णजाति' से निकला है,जुही से कोई मतलब नहीं, संस्कृत में 'वारि' और 'वार' दोनों शब्द हैं और 'वार्द' का अर्थ भी बादल है, 'मिलान' पड़ाव या मुकाम के अर्थ में पुरानी कविता में भरा पड़ा है, चलती ब्रजभाषा में 'पिछानना' रूप ही आता है, 'खटकति' का रूप बहुवचन में भी यही रहेगा, यदि पचासों शब्द उनकी समझ में न आएँ तो बेचारे बिहारी का क्या दोष?
बिहारी ने यद्यपि लक्षण ग्रंथ के रूप में अपनी 'सतसई' नहीं लिखी है, पर 'नखशिख', 'नायिकाभेद', 'षट् ऋतु' के अंतर्गत उनके सब श्रृंगारी दोहे आ जाते हैं और कई टीकाकारों ने दोहों को इस प्रकार के साहित्यिक क्रम के साथ रखा भी है। जैसा कि कहा जा चुका है, दोहों को बनाते समय बिहारी का ध्यान लक्षणों पर अवश्य था। इसीलिए हमने बिहारी को रीतिकाल के फुटकल कवियों में न रख, उक्त काल के प्रतिनिधि कवियों में ही रखा है।
बिहारी की कृति का मूल्य जो बहुत अधिक ऑंका गया है उसे अधिकतर रचना की बारीकी या काव्यांगों के सूक्ष्म विन्यास की निपुणता की ओर ही मुख्यत: दृष्टि रखनेवाले पारखियों के पक्ष से समझना चाहिए, उनके पक्षों से समझना चाहिए जो किसी हाथी दाँत के टुकड़े पर महीन बेलबूटे देख घंटों वाह वाह किया करते हैं। पर जो हृदय के अंतस्तल पर मार्मिक प्रभाव चाहते हैं, किसी भाव की स्वच्छ निर्मल धारा में कुछ देर अपना मन मग्न रखना चाहते हैं, उनका संतोष बिहारी से नहीं हो सकता। बिहारी का काव्य हृदय में किसी ऐसी लय या संगीत का संचार नहीं करता जिसकी स्वरधारा कुछ काल तक गूँजती रहे। यदि घुले हुए भावों का आभ्यंतर प्रवाह बिहारी में होता तो वे एक एक दोहे पर ही संतोष न करते। मार्मिक प्रभाव का विचार करें तो देव और पद्माकर के कवित्त सवैयों का सा गूँजनेवाला प्रभाव बिहारी के दोहों का नहीं पड़ता।
दूसरी बात यह है कि भावों का बहुत उत्कृष्ट और उदात्ता स्वरूप बिहारी में नहीं मिलता। कविता उनकी श्रृंगारी है, पर प्रेम की उच्च भूमि पर नहीं पहुँचती, नीचे ही रह जाती है।
5. मंडन ये जैतपुर (बुंदेलखंड) के रहने वाले थे और संवत् 1716 में राजा मंगदसिंह के दरबार में वर्तमान थे। इनके फुटकल कवित्त सवैये बहुत सुने जाते हैं, पर कोई ग्रंथ अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है। पुस्तकों की खोज में इनके पाँच ग्रंथों का पता लगा है, रसरत्नावली, रसविलास, जनकपचीसी, जानकी जू को ब्याह, नैन पचासा।
प्रथम दो ग्रंथ रसनिरूपण पर हैं, यह उनके नामों से ही प्रकट होता है। संग्रह ग्रंथों में इनके कवित्त सवैये बराबर मिलते हैं। 'जेइ जेइ सुखद दुखद अब तेइ तेइ कवि मंडन बिछुरत जदुपत्ती' यह पद भी इनका मिलता है। इससे जान पड़ता है कि कुछ पद भी इन्होंने रचे थे। जो पद्य इनके मिलते हैं उनसे ये बड़ी सरस कल्पना के भावुक कवि जान पड़ते हैं। भाषा इनकी बड़ी स्वाभाविक, चलती और व्यंजनापूर्ण होती थी। उसमें और कवियों का सा शब्दाडंबर नहीं दिखाई पड़ता। यह सवैया देखिए,
अलि हौं तो गई जमुना जल को, सो कहा कहौं वीर! विपत्ति परी।
घहराय कै कारी घटा उनई, इतनेई में गागरि सीस धरी
रपटयो पग, घाट चढयो न गयो, कवि मंडन ह्वै कै बिहाल गिरी।
चिर जीवहु नंद के बारो, अरी, गहि बाँह गरीब ने ठाढ़ी करी
6. मतिराम, ये रीतिकाल के मुख्य कवियों में हैं और चिंतामणि तथा भूषण के भाई परंपरा से प्रसिद्ध हैं। ये तिकवाँपुर (जिला, कानपुर) में संवत् 1674 के लगभग उत्पन्न हुए थे और बहुत दिनों तक जीवित रहे। ये बूँदी के महाराव भावसिंह के यहाँ बहुत काल तक रहे और उन्हीं के आश्रय में अपना 'ललितललाम' नामक अलंकार का ग्रंथ संवत् 1716 और 1745 के बीच किसी समय बनाया। इनका 'छंदसार' नामक पिंगल ग्रंथ महाराज शंभुनाथ सोलंकी को समर्पित है। इनका परम मनोहर ग्रंथ 'रसराज' किसी को समर्पित नहीं है। इनके अतिरिक्त इनके दो ग्रंथ और हैं, 'साहित्यसार' और 'लक्षण श्रृंगार'। बिहारी सतसई के ढंग पर इन्होंने एक 'मतिराम सतसई' भी बनाई जो हिन्दी पुस्तकों की खोज में मिली है। इसके दोहे सरसता में बिहारी के दोहों के समान ही हैं।
मतिराम की रचना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसकी सरलता अत्यंत स्वाभाविक है, न तो उसमें भावों की कृत्रिमता है, न भाषा की। भाषा शब्दाडंबर से सर्वथा मुक्त है। केवल अनुप्रास के चमत्कार के लिए अशक्त शब्दों की भर्ती कहीं नहीं है। जितने शब्द और वाक्य हैं, वे सब भावव्यंजना में ही प्रयुक्त हैं। रीतिग्रंथ वाले कवियों में इस प्रकार की स्वच्छ, चलती और स्वाभाविक भाषा कम कवियों में मिलती है, पर कहीं कहीं वह अनुप्रास के जाल में बेतरह जकड़ी पाई जाती है। सारांश यह कि मतिराम की सी रसस्निग्ध और प्रसादपूर्ण भाषा रीति का अनुसरण करनेवालों में बहुत ही कम मिलती है।
भाषा के ही समान मतिराम के न तो भाव कृत्रिम हैं और न उनके व्यंजक व्यापार और चेष्टाएँ। भावों को आसमान पर चढ़ाने और दूर की कौड़ी लाने के फेर में ये नहीं पड़े हैं। नायिका के विरहताप को लेकर बिहारी के समान मजाक इन्होंने नहीं किया है। इनके भावव्यंजक व्यापारों की श्रृंखला सीधी और सरल है, बिहारी के समान चक्करदार नहीं। वचनक्रता भी इन्हें बहुत पसंद न थी। जिस प्रकार, शब्दवैचित्रय को ये वास्तविक काव्य से पृथक् वस्तु मानते थे, उसी प्रकार खयाल की झूठी बारीकी को भी। इनका सच्चा कविहृदय था। ये यदि समय की प्रथा के अनुसार रीति की बँधी लीकों पर चलने के लिए विवश न होते, अपनी स्वाभाविक प्रेरणा के अनुसार चलने पाते, तो और भी स्वाभाविक और सच्ची भावविभूति दिखाते, इसमें कोई संदेह नहीं। भारतीय जीवन से छाँटकर लिए हुए इनके मर्मस्पर्शी चित्रों में जो भाव भरे हैं, वे समान रूप से सबकी अनुभूति के अंग हैं।
'रसराज' और 'ललितललाम' मतिराम के ये दो ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध हैं, क्योंकि रस और अलंकार की शिक्षा में इनका उपयोग बराबर होता चला आया है। वास्तव में अपने विषय के ये अनुपम ग्रंथ हैं। उदाहरणों की रमणीयता से अनायास रसों और अलंकारों का अभ्यास होता चलता है। 'रसराज' का तो कहना ही क्या है। 'ललितललाम' में भी अलंकारों के उदाहरण बहुत सरस और स्पष्ट हैं। इसी सरसता और स्पष्टता के कारण ये दोनों ग्रंथ इतने सर्वप्रिय रहे हैं। रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में पद्माकर को छोड़ और किसी कवि में मतिराम की सी चलती भाषा और सरल व्यंजना नहीं मिलती। बिहारी की प्रसिद्धि का कारण बहुत कुछ वाग्वैदग्ध्य है। दूसरी बात यह है कि उन्होंने केवल दोहे कहे हैं, इससे उनमें वह नादसौंदर्य नहीं आ सका है जो कवित्त सवैये की लय के द्वारा संघटित होता है।
मतिराम के कविता के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं,
कुंदन को रँग फीको लगै, झलकै अति अंगनि चारु गोराई।
ऑंखिन में अलसानि चितौनि में मंजु विलासन की सरसाई
को बिनु मोल बिकात नहीं मतिराम लहे मुसकानि मिठाई।
ज्यों ज्यों निहारिए नेरे ह्वै नैननि त्यौं त्यौं खरी निकरै सी निकाई

क्यों इन ऑंखिन सों निहसंक ह्वै मोहन को तन पानिप पीजै।
नेकु निहारे कलंक लगै यहि गाँव बसे कहु कैसे कै जीजै
होत रहै मन यों मतिराम कहूँ बन जाय बड़ो तप कीजै।
ह्वै बनमाल हिए लगिए अरु ह्वै मुरली अधारारस पीजै

केलि कै राति अघाने नहीं दिन ही में लला पुनि घात लगाई।
प्यास लगी, कोउ पानी दै जाइयो, भीतर बैठि कै बात सुनाई
जेठी पठाई गई दुलही हँसि हेरि हरैं मतिराम बुलाई।
कान्ह के बोल पे कान न दीन्हीं सुगेह की देहरि पै धारि आई

दोऊ अनंद सो ऑंगन माँझ बिराजै असाढ़ की साँझ सुहाई।
प्यारी के बूझत और तिया को अचानक नाम लियो रसिकाई
आई उनै मुँह में हँसी, कोहि तिया पुनि चाप सी भौंह चढ़ाई।
ऑंखिन तें गिरे ऑंसुन के बूँद, सुहास गयो उड़ि हंस की नाई

सूबन को मेटि दिल्ली देस दलिबे को चमू, 
सुभट समूह निसि वाकी उमहति है।
कहै मतिराम ताहि रोकिबे को संगर में, 
काहू के न हिम्मत हिए में उलहति है
सत्रुसाल नंद के प्रताप की लपट सब, 
गरब गनीम बरगीन को दहति है।
पति पातसाह की, इजति उमरावन की, 
राखी रैया राव भावसिंह की रहति है
7. भूषण वीररस के ये प्रसिद्ध कवि चिंतामणि और मतिराम के भाई थे। इनका जन्मकाल संवत् 1670 है। चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्र ने इन्हें 'कविभूषण' की उपाधि दी थी। तभी से ये भूषण के नाम से ही प्रसिद्ध हो गए। इनका असली नाम क्या था, इसका पता नहीं। ये कई राजाओं के यहाँ रहे। अंत में इनके मन के अनुकूल आश्रयदाता, जो इनके वीरकाव्य के नायक हुए, छत्रापति महाराज शिवाजी मिले। पन्ना के महाराज छत्रसाल के यहाँ भी इनका बड़ा मान हुआ। कहते हैं कि महाराज छत्रसाल ने इनकी पालकी में अपना कंधा लगाया था जिस पर इन्होंने कहा था, 'सिवा को बखानौं कि बखानौं छत्रसाल को।' ऐसा प्रसिद्ध है कि इन्हें एक एक छंद पर शिवाजी से लाखों रुपये मिले। इनका परलोकवास संवत् 1772 में माना जाता है।
रीतिकाल के भीतर श्रृंगाररस की ही प्रधानता रही। कुछ कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की स्तुति में उनके प्रताप आदि के प्रसंग में उनकी वीरता का भी थोड़ा बहुत वर्णन अवश्य किया है पर वह शुष्क प्रथापालन के रूप में ही होने के कारण ध्यान देने योग्य नहीं है। ऐसे वर्णनों के साथ जनता की हार्दिक सहानुभूति कभी नहीं हो सकती थी। पर भूषण ने जिन दो नायकों की कृति को अपने वीर काव्य का विषय बनाया वे अन्यायदमन में तत्पर, हिंदू धर्म के संरक्षक, दो इतिहासप्रसिद्ध वीर थे। उनके प्रति भक्ति और सम्मान की प्रतिष्ठा हिंदू जनता के हृदय में उस समय भी थी और आगे भी बराबर बनी रही या बढ़ती गई। इसी से भूषण के वीररस के उद्गार सारी जनता के हृदय की संपत्ति हुए। भूषण की कविता कविकीर्ति संबंधी एक अविचल सत्य का दृष्टांत है। जिसकी रचना को जनता का हृदय स्वीकार करेगा उस कवि की कीर्ति तब तक बराबर बनी रहेगी, जब तक स्वीकृति बनी रहेगी। क्या संस्कृत साहित्य में, क्या हिन्दी साहित्य में, सहस्रों कवियों ने अपने आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा में ग्रंथ रचे जिनका आज पता तक नहीं है। पुरानी वस्तु खोजने वालों को ही कभी कभी किसी राजा के पुस्तकालय में, कहीं किसी घर के कोने में, उनमें से दो-चार इधर उधर मिल जाती हैं। जिस भोज ने दान दे देकर अपनी इतनी तारीफ कराई उसके चरितकाव्य भी कवियों ने लिखे होंगे। पर उन्हें आज कौन जानता है?
शिवाजी और छत्रसाल की वीरता के वर्णनों को कोई कवियों की झूठी खुशामद नहीं कह सकता। वे आश्रयदाताओं की प्रशंसा की प्रथा के अनुसरण मात्र नहीं हैं। इन दो वीरों का जिस उत्साह के साथ सारी हिंदू जनता स्मरण करती है उसी की व्यंजना भूषण ने की है। वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं। जैसा कि आरंभ में कहा गया है शिवाजी के दरबार में पहुँचने के पहले वे और राजाओं के पास भी रहे। उनके प्रताप आदि की प्रशंसा भी उन्हें अवश्य ही करनी पड़ी होगी। पर वह झूठी थी, इसी से टिक न सकी। पीछे भूषण को अपनी उन रचनाओं से विरक्ति ही हुई होगी। इनके 'शिवराजभूषण', 'शिवाबावनी' और 'छत्रसालदसक' ये ग्रंथ ही मिलते हैं। इनके अतिरिक्त 3 ग्रंथ और कहे जाते हैं, 'भूषणउल्लास', 'दूषणउल्लास', 'भूषणहजारा'।
जो कविताएँ इतनी प्रसिद्ध हैं उनके संबंध में यहाँ यह कहना है कि वे कितनी ओजस्विनी और वीरदर्पपूर्ण हैं, पिष्टपेषण मात्र होगा। यहाँ इतना ही कहना आवश्यक है कि भूषण वीररस के ही कवि थे। इधर इनके दो-चार कवित्त, श्रृंगार के भी मिले हैं, पर वे गिनती के योग्य नहीं हैं। रीतिकाल के कवि होने के कारण भूषण ने अपना प्रधान ग्रंथ 'शिवराजभूषण' अलंकार के ग्रंथ के रूप में बनाया। पर रीतिग्रंथ की दृष्टि से, अलंकारनिरूपण के विचार से यह उत्तम ग्रंथ नहीं कहा जा सकता। लक्षणों की भाषा भी स्पष्ट नहीं है और उदाहरण भी कई स्थलों पर ठीक नहीं हैं। भूषण की भाषा में ओज की मात्रा तो पूरी है पर वह अधिकतर अव्यवस्थित है। व्याकरण का उल्लंघन प्राय: है और वाक्यरचना भी कहीं कहीं गड़बड़ है। इसके अतिरिक्त शब्दों के रूप भी बहुत बिगाड़े गए हैं और कहीं कहीं बिल्कुल गढ़ंत के शब्द रखे गए हैं। पर जो कवित्त इन दोनों से मुक्त हैं वे बड़े ही सशक्त और प्रभावशाली हैं। कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं,
इंद्र जिमि जंभ पर, बाड़व सु अंभ पर,
रावन सदंभ पर रघुकुल राज हैं।
पौन वारिवाह पर, संभु रतिनाह पर, 
ज्यों सहस्रबाहु पर राम द्विजराज हैं
दावा द्रुमदंड पर, चीता मृगझुंड पर, 
भूषण वितुंड पर जैसे मृगराज हैं। 
तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर, 
त्यों मलेच्छ बंस पर सेर सिवराज हैं

डाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी-सी रहति छाती,
बाढ़ी मरजाद जस हद्द हिंदुवाने की। 
कढ़ि गई रैयत के मन की कसक सब,
मिटि गई ठसक तमाम तुरकाने की।
भूषन भनत दिल्लीपति दिल धाक धाक,
सुनि सुनि धाक सिवराज मरदाने की।
मोटी भई चंडी बिन चोटी के चबाय सीस,
खोटी भई संपति चकत्ता के घराने की

सबन के ऊपर ही ठाढ़ो रहिबे के जोग,
ताहि खरो कियो जाय जारन के नियरे।
जानि गैरमिसिल गुसीले गुसा धारि उर,
कीन्हों ना सलाम न बचन बोले सियरे
भूषन भनत महाबीर बलकन लाग्यो,
सारी पातसाही के उड़ाय गए जियरे।
तमक तें लाल मुख सिवा को निरखि भयो, 
स्याह मुख नौरँग, सिपाह मुख पियरे।

दारा की न दौर यह, रार नहीं खजुबे की,
बाँधिबो नहीं है कैधौं मीर सहवाल को।
मठ विस्वनाथ को, न बास ग्राम गोकुल को,
देवी को न देहरा, न मंदिर गोपाल को। 
गाढ़े गढ़ लीन्हें अरु बैरी कतलाम कीन्हें,
ठौर ठौर हासिल उगाहत हैं साल को।
बूड़ति है दिल्ली सो सँभारै क्यों न दिल्लीपति,
धाक्का आनि लाग्यौ सिवराज महाकाल को

चकित चकत्ता चौंकि चौंकि उठै बार बार,
दिल्ली दहसति चितै चाहि करषति है।
बिलखि बदन बिलखत बिजैपुर पति,
फिरत फिरंगिन की नारी फरकति है
थर थर काँपत कुतुब साहि गोलकुंडा,
हहरि हबस भूप भीर भरकति है।
राजा सिवराज के नगारन की धाक सुनि, 
केते बादसाहन की छाती धारकति है

जिहि फन फूतकार उड़त पहार भार,
कूरम कठिन जनु कमल बिदलिगो।
विषजाल ज्वालामुखी लवलीन होत जिन, 
झारन चिकारि मद दिग्गज उगलिगो
कीन्हो जिहि पान पयपान सो जहान कुल,
कोलहू उछलि जलसिंधु खलभलिगो।
खग्ग खगराज महाराज सिवराज जू को, 
अखिल भुजंग मुगलद्दल निगलिगो
8. कुलपति मिश्र ये आगरा के रहनेवाले माथुर चौबे थे और महाकवि बिहारी के भानजे प्रसिद्ध हैं। इनके पिता का नाम परशुराम मिश्र था। कुलपतिजी जयपुर के महाराज जयसिंह (बिहारी के आश्रयदाता) के पुत्र महाराज रामसिंह के दरबार में रहते थे। इनके 'रसरहस्य' का रचना काल कार्तिक कृष्ण 11, संवत् 1727 है। अब तक इनका यही ग्रंथ प्रसिद्ध और प्रकाशित है। पर खोज में इनके निम्नलिखित ग्रंथ और मिले हैं,
द्रोणपर्व (संवत् 1737), युक्तितरंगिणी (1743), नखशिख, संग्रहसार, गुण रसरहस्य (1724)।
अत: इनका कविता काल संवत् 1724 और संवत् 1743 के बीच ठहरता है।
रीतिकाल के कवियों में ये संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। इनका 'रसरहस्य' मम्मट के काव्यप्रकाश का छायानुवाद है। साहित्यशास्त्र का अच्छा ज्ञान रखने के कारण इनके लिए यह स्वाभाविक था कि प्रचलित लक्षणग्रंथों की अपेक्षा अधिक प्रौढ़ निरूपण का प्रयत्न करें। इसी उद्देश्य से इन्होंने अपना 'रसरहस्य' लिखा। शास्त्रीय निरूपण के लिए पद्य उपयुक्त नहीं होता, इसका अनुभव इन्होंने किया, इससे कहीं कहीं कुछ गद्य वार्तिक भी रखा। पर गद्य परिमार्जित न होने के कारण जिस उद्देश्य से इन्होंने अपना यह ग्रंथ लिखा वह पूरा न हुआ। इस ग्रंथ का जैसा प्रचार चाहिए था, न हो सका। जिस स्पष्टता से 'काव्यप्रकाश' में विषय प्रतिपादित हुए हैं वह स्पष्टता इनके ब्रजभाषा गद्य पद्य में न आ सकी। कहीं कहीं तो भाषा और वाक्यरचना दुरूह हो गई है।
यद्यपि इन्होंने शब्दशक्ति और भावादिनिरूपण में लक्षण, उदाहरण दोनों बहुत कुछ काव्यप्रकाश के ही दिए हैं, पर अलंकार प्रकरण में इन्होंने प्राय: अपने आश्रयदाता महाराज रामसिंह की प्रशंसा के स्वरचित उदाहरण दिए हैं। ये ब्रजमंडल के निवासी थे अत: इनको ब्रज की चलती भाषा पर अच्छा अधिकार होना ही चाहिए। हमारा अनुमान है, जहाँ इनको अधिक स्वच्छंदता रही होगी वहाँ इनकी रचना और सरस होगी। इनकी रचना का एक नमूना दिया जाता है,
ऐसिय कुंज बनी छबिपुंज रहै अलि गुंजत यों सुख लीजै।
नैन बिसाल हिए बनमाला बिलोकत रूप सुधा भरि पीजै
जामिनि जाम की कौन कहै जुग जात न जानिए ज्यों छिन छीजै।
आनंद यों उमग्योई रहै, पिय मोहन को मुख देखिबो कीजै
9. सुखदेव मिश्र दौलतपुर (जिला,रायबरेली) में इनके वंशज अब तक हैं। कुछ दिन हुए उसी ग्राम के निवासी सुप्रसिद्ध पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इनका एक अच्छा जीवनवृत्त 'सरस्वती' पत्रिका में लिखा था। सुखदेव मिश्र का जन्मस्थान 'कंपिला' था जिसका वर्णन इन्होंने अपने 'वृत्तविचार' में किया है। इनका कविताकाल संवत् 1720 से 1760 तक माना जा सकता है। इनके सात ग्रंथों का पता अब तक है,
वृत्तविचार (संवत् 1728), छंदविचार, फाजिलअलीप्रकाश, रसार्णव, श्रृंगारलता, अध्यात्मप्रकाश (संवत् 1755), दशरथ राय।
अध्यात्मप्रकाश में कवि ने ब्रह्मज्ञान संबंधी बातें कही हैं जिससे यह जनश्रुति पुष्ट होती है कि वे एक नि:स्पृह विरक्त साधु के रूप में रहते थे।
काशी से विद्याधययन करके लौटने पर ये असोथर (जिला,फतेहपुर) के राजा भगवंतराय खीची तथा डौडियाखेरे के राव मर्दनसिंह के यहाँ रहे। कुछ दिनों तक ये औरंगजेब के मंत्री फाजिलअलीशाह के यहाँ भी रहे। अंत में मुरारमऊ के राजा देवीसिंह के यहाँ गए जिनके बहुत आग्रह पर ये सकुटुंब दौलतपुर में जा बसे। राजा राजसिंह गौड़ ने इन्हें 'कविराज' की उपाधि दी थी। वास्तव में ये बहुत प्रौढ़ कवि थे और आचार्यत्व भी इनमें पूरा था। छंदशास्त्र पर इनका-सा विशद निरूपण और किसी कवि ने नहीं किया है। ये जैसे पंडित थे वैसे ही काव्यकला में भी निपुण थे। 'फाजिलअली प्रकाश' और 'रसार्णव' दोनों में श्रृंगाररस के उदाहरण बहुत ही सुंदर हैं। दो नमूने लीजिए,
ननद निनारी, सासु मायके सिधारी,
अहै रैन अंधिायारी भरी, सूझत न करु है।
पीतम को गौन कविराज न सोहात भौन, 
दारुन बहत पौन, लाग्यो मेघ झरु है
संग ना सहेली बैस नवल अकेली,
तन परी तलबेली महा, लाग्यो मैन सरु है। 
भई अधिारात, मेरो जियरा डरात,
जागु जागु रे बटोही! यहाँ चोरन को डरु है

जोहैं जहाँ मगु नंदकुमार तहाँ चलि चंदमुखी सुकुमार है।
मोतिन ही को कियो गहनो सब फूलि रही जनु कुंद की डार है
भीतर ही जो लखी सो लखी अब बाहिर जाहिर होति न दार है।
जोन्ह सी जोन्हैं गई मिलि यों मिलि जाति ज्यौं दूध में दूध की धार है
10. कालिदास त्रिवेदी ये अंतर्वेद के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका विशेष वृत्त ज्ञात नहीं। जान पड़ता है कि संवत् 1745 वाली गोलकुंडे की चढ़ाई में ये औरंगजेब की सेना में किसी राजा के साथ गए थे। इस लड़ाई का औरंगजेब की प्रशंसा से युक्त वर्णन इन्होंने इस प्रकार किया है,
गढ़न गढ़ी से गढ़ि, महल मढ़ी से मढ़ि,
बीजापुर ओप्यो दलमलि सुघराई में।
कालिदास कोप्यो वीर औलिया अलमगीर,
तीन तरवारि गही पुहुमी पराई में
बूँद तें निकसि महिमंडल घमंड मची,
लोहू की लहरि हिमगिरि की तराई में।
गाड़ि के सुझंडा आड़ कीनी बादशाह तातें,
डकरी चमुंडा गोलकुंडा की लराई में
कालिदास का जंबूनरेश जोगजीत सिंह के यहाँ भी रहना पाया जाता है जिनके लिए संवत् 1749 में इन्होंने 'वार वधाू विनोद' बनाया। यह नायिकाभेद और नखशिख की पुस्तक है। बत्ताीस कवित्तों की इनकी एक छोटी सी पुस्तक 'जँजीराबंद' भी है। 'राधा माधव बुधामिलन विनोद' नाम का एक कोई और ग्रंथ इनका खोज में मिला है। इन रचनाओं के अतिरिक्त इनका बड़ा संग्रह ग्रंथ 'कालिदास हजारा' बहुत दिनों से प्रसिद्ध चला आता है। इस संग्रह के संबंध में शिवसिंहसरोज में लिखा है कि इसमें संवत् 1481 से लेकर संवत् 1776 तक के 212 कवियों के 1000 पद्य संगृहीत हैं। कवियों के काल आदि के निर्णय में यह ग्रंथ बड़ा ही उपयोगी है। इनके पुत्र कवींद्र और पौत्र दूलह भी बड़े अच्छे कवि हुए। 
ये एक अभ्यस्त और निपुण कवि थे। इनके फुटकल कवित्त इधर उधर बहुत सुने जाते हैं जिनसे इनकी सहृदयता का अच्छा परिचय मिलता है। दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं, 
चूमौं करकंज मंजु अमल अनूप तेरो,
रूप के निधान कान्ह! मो तन निहारि दै।
कालिदास कहै मेरे पास हरै हेरि हेरि,
माथे धारि मुकुट, लकुट कर डारि दै
कुँवर कन्हैया मुखचंद की जुन्हैया चारु,
लोचन चकोरन की प्यासन निवारि दै।
मेरे कर मेहँदी लगी है, नंदलाल प्यारे!
लट उलझी है नकबेसर संभारि दै

हाथ हँसि दीन्हों भीति अंतर परसि प्यारी,
देखत ही छकी मति कान्हर प्रवीन की।
निकस्यो झरोखे माँझ बिगस्यो कमल सम,
ललित अंगूठी तामें चमक चुनीन की
कालिदास तैसी लाल मेहँदी के बुँदन की,
चारु नख चंदन की लाल अंगुरीन की।
कैसी छवि छाजति है छाप और छलान की सु,
कंकन चुरीन की जड़ाऊ पहुँचीन की
11. राम शिवसिंहसरोज में इनका जन्म संवत् 1703 लिखा है और कहा गया है कि इनके कवित्त कालिदास के हजारा में हैं। इनका नायिका भेद का एक ग्रंथ 'श्रृंगारसौरभ' है जिसकी कविता बहुत ही मनोरम है। खोज में एक 'हनुमान नाटक' भी इनका पाया गया है। शिवसिंह के अनुसार इनका कविताकाल संवत् 1730 के लगभग माना जा सकता है। इनका एक कवित्त नीचे दिया जाता है,
उमड़ि घुमड़ि घन छोड़त अखंड धार,
चंचला उठति तामें तरजि तरजि कै।
बरही पपीहा भेक पिक खग टेरत हैं,
धुनि सुनि प्रान उठे लरजि लरजि कै
कहै कवि राम लखि चमक खदोतन की,
पीतम को रही मैं तो बरजि बरजि कै।
लागे तन तावन बिना री मनभावन कै
सावन दुवन आयो गरजि गरजि कै
12. नेवाज ये अंतर्वेद के रहनेवाले ब्राह्मण थे और संवत् 1737 के लगभग वर्तमान थे। ऐसा प्रसिद्ध है कि पन्नानरेश महाराज छत्रसाल के यहाँ ये किसी भगवत् कवि के स्थान पर नियुक्त हुए थे जिसपर भगवत् कवि ने यह फबती छोड़ी थी,
भली आजु कलि करत हौ, छत्रसाल महराज।
जहँ भगवत् गीता पढ़ी तहँ कवि पढ़त नेवाज
शिवसिंह ने नेवाज का जन्म संवत् 1739 लिखा है जो ठीक नहीं जान पड़ता क्योंकि इनके 'शकुंतला नाटक' का निर्माणकाल संवत् 1737 है। दो और नेवाज हुए हैं जिनमें एक भगवंतराय खीची के यहाँ थे। प्रस्तुत नेवाज का औरंगजेब के पुत्र आजमशाह के यहाँ रहना भी पाया जाता है। इन्होंने 'शकुंतला नाटक' का आख्यान दोहा, चौपाई, सवैया आदि छंदों में लिखा। इनके फुटकल कवित्त बहुत स्थानों पर संगृहीत मिलते हैं जिनमें इनकी काव्यकुशलता और सहृदयता टपकती है। भाषा इनकी बहुत परिमार्जित, व्यवस्थित और भावोपयुक्त है। उसमें भरती के शब्द और वाक्य बहुत ही कम मिलते हैं। इनके अच्छे श्रृंगारी कवि होने में संदेह नहीं। संयोग श्रृंगार के वर्णन की प्रवृत्ति इनकी विशेष जान पड़ती है जिसमें कहीं कहीं ये अश्लीलता की सीमा के भीतर जा पड़ते हैं। दो सवैये इनके उध्दृत किए जाते हैं,
देखि हमैं सब आपुस में जो कछू मन भावै सोई कहती हैं। 
ये घरहाई लुगाई सबै निसि द्यौस नेवाज हमैं दहती हैं
बातें चवाव भरी सुनिकै रिस आवति पै चुप ह्वै रहती हैं।
कान्ह पियारे तिहारे लिए सिगरे ब्रज को हँसिबो सहती हैं

आगे तौ कीन्हीं लगालगी लोयन, कैसे छिपे अजहूँ जौ छिपावति।
तू अनुराग को सोधा कियो, ब्रज की बनिता सब यों ठहरावति
कौन सँकोच रह्यो है नेवाज जो तू तरसै उनहूँ तरसावति।
बावरी! जो पै कलंक लग्यो तौ निसंक ह्वै क्यों नहिं अंक लगावति
13. देव ये इटावा के रहनेवाले सनाढय ब्राह्मण थे। कुछ लोगों ने इन्हें कान्यकुब्ज सिद्ध करने का भी प्रयत्न किया है। इनका पूरा नाम देवदत्ता था। 'भावविलास' का रचनाकाल इन्होंने 1746 में दिया है और उस ग्रंथनिर्माण के समय अपनी अवस्था 16 ही वर्ष की कही है। इस हिसाब से इनका जन्म संवत् 1730 निश्चित होता है। इसके अतिरिक्त इनका और कुछ वृत्तांत नहीं मिलता। इतना अवश्य अनुमित होता है कि इन्हें कोई अच्छा उदार आश्रयदाता नहीं मिला जिसके यहाँ रहकर इन्होंने सुख से कालयापन किया हो। ये बराबर अनेक रईसों के यहाँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहे, पर कहीं जमे नहीं। इसका कारण या तो इनकी प्रकृति की विचित्रता मानें या इनकी कविता के साथ उस काल की रुचि का असामंजस्य। इन्होंने अपने 'अष्टयाम' और 'भावविलास' को औरंगजेब के बड़े पुत्र आजमशाह को सुनाया था जो हिन्दी कविता के प्रेमी थे। इसके पीछे इन्होंने भवानीदत्ता वैश्य के नाम पर 'भवानीविलास' और कुशलसिंह के नाम पर 'कुशलविलास' की रचना की। फिर मर्दनसिंह के पुत्र राजा उद्योत सिंह वैस के लिए 'प्रेमचंद्रिका' बनाई। इसके उपरांत ये बराबर अनेक प्रदेशों में भ्रमण करते रहे। इस यात्रा के अनुभव का इन्होंने अपने 'जातिविलास' नामक ग्रंथ में कुछ उपयोग किया। इस ग्रंथ में भिन्न भिन्न जातियों और भिन्न भिन्न प्रदेशों की स्त्रियों का वर्णन है। वर्णन में उनकी विशेषताएँ अच्छी तरह व्यक्त हुई हों, यह बात नहीं है। इतने पर्यटन के उपरांत जान पड़ता है कि इन्हें एक अच्छे आश्रयदाता राजा मोतीलाल मिले जिनके नाम पर संवत् 1783 में इन्होंने 'रसविलास' नामक ग्रंथ बनाया। इन राजा मोतीलाल की इन्होंने अच्छी तारीफ की है, जैसे 'मोतीलाल भूप लाख पोखर लेवैया जिन्ह लाखन खरचि रचि आखर खरीदे हैं।'
रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में शायद सबसे अधिक ग्रंथ रचना देव ने की है। कोई इनकी रची पुस्तकों की संख्या 52 और कोई 72 तक बतलाते हैं। जो हों इनके निम्नलिखित ग्रंथों का तो पता है,
(1) भावविलास, (2) अष्टयाम, (3) भवानीविलास, (4) सुजानविनोद, (5)प्रेमतरंग, (6) रागरत्नाकर, (7) कुशलविलास, (8) देवचरित, (9) प्रेमचंद्रिका, (10) जातिविलास, (11) रसविलास, (12) काव्यरसायन या शब्दरसायन, (13) सुखसागर तरंग, (14)वृक्षविलास, (15) पावसविलास, (16) ब्रह्मदर्शन पचीसी, (17) तत्वदर्शन पचीसी, (18) आत्मदर्शन पचीसी, (19) जगदर्शन पचीसी, (20) रसानंद लहरी, (21) प्रेमदीपिका, (22) नखशिख, (23) प्रेमदर्शन।
ग्रंथों की अधिक संख्या के संबंध में यह जान रखना भी आवश्यक है कि देव जी अपने पुराने ग्रंथों के कवित्तों को इधर दूसरे क्रम में रखकर एक नया ग्रंथ प्राय: तैयार कर दिया करते थे। इससे वे ही कवित्त बार बार इनके अनेक ग्रंथों में मिलेंगे। 'सुखसागर तरंग' प्राय: अनेक ग्रंथों से लिए हुए कवित्तों का संग्रह है। 'रागरत्नाकर' में राग रागनियों के स्वरूप का वर्णन है। 'अष्टयाम' तो रात दिन के भोगविलास की दिनचर्या है जो मानो उस काल के अकर्मण्य और विलासी राजाओं के सामने कालयापन विधि का ब्योरा पेश करने के लिए बनी थी। 'ब्रह्मदर्शन पचीसी' और 'तत्वदर्शन पचीसी' में जो विरक्ति का भाव है वह बहुत संभव है कि अपनी कविता के प्रति लोक की उदासीनता देखते देखते उत्पन्न हुई हो।
ये आचार्य और कवि दोनों रूपों में हमारे सामने आते हैं। यह पहले ही कहा जा चुका है कि आचार्यत्व के पद के अनुरूप कार्य करने में रीतिकाल के कवियों में पूर्ण रूप से कोई समर्थ नहीं हुआ। कुलपति और सुखदेव ऐसे साहित्यशास्त्र के अभ्यासी पंडित भी विशद रूप में सिध्दांतनिरूपण का मार्ग नहीं पा सके। बात यह थी कि एक तो ब्रजभाषा का विकास काव्योपयोगी रूप में ही हुआ, विचार पद्ध ति के उत्कर्ष साधन के योग्य वह न हो पाई। दूसरे उस समय पद्य में ही लिखने की परिपाटी थी। अत: आचार्य के रूप में देव को भी कोई विशेष स्थान नहीं दिया जा सकता। कुछ लोगों ने भक्तिवश अवश्य और बहुत-सी बातों के साथ इन्हें कुछ शास्त्रीय उद्भावना का श्रेय भी देना चाहा है। वे ऐसे ही लोग हैं जिन्हें 'तात्पर्य वृत्ति' एक नया नाम मालूम होता है और जो संचारियों में एक 'छल' और बढ़ा हुआ देखकर चौंकते हैं। नैयायिकों की तात्पर्य वृत्ति बहुत काल से प्रसिद्ध चली आ रही है और यह संस्कृत के सब साहित्य मीमांसकों के सामने थी। तात्पर्य वृत्ति वास्तव में वाक्य के भिन्न भिन्न पदों (शब्दों) के वाच्यार्थ को एक में समन्वित करनेवाली वृत्ति मानी गई है अत: यह अभिधा से भिन्न नहीं, वाक्यगत अभिधा ही है। रहा 'छलसंचारी' वह संस्कृत की 'रसतरंगिणी' से जहाँ से और बातें ली गई हैं, लिया गया है। दूसरी बात यह है कि साहित्य के सिध्दांत ग्रंथों से परिचित मात्र जानते हैं कि गिनाए हुए 33 संचार उपलक्षणमात्र हैं, संचारी और भी कितने हो सकते हैं।
अभिधा, लक्षणा आदि शब्दशक्तियों का निरूपण हिन्दी के रीतिग्रंथों में प्राय: कुछ भी नहीं हुआ। इस विषय का सम्यक् ग्रहण और परिपाक जरा है भी कठिन। इस दृष्टि से देव जी के इस कथन पर कि,
अभिधा उत्तम काव्य है; मध्य लक्षणा लीन।
अधम व्यंजना रस विरस, उलटी कहत नवीन
यहाँ अधिक कुछ कहने का अवकाश नहीं। व्यंजना की व्याप्ति कहाँ तक है, उसकी किस किस प्रकार क्रिया होती है इत्यादि बातों का पूरा विचार किए बिना कुछ कहना कठिन है। देव जी का यहाँ 'व्यंजना' से तात्पर्य पहेली बुझौवलवाली 'वस्तुव्यंजना' का ही जान पड़ता है। यह दोहा लिखते समय उसी का विकृत रूप उनके ध्यान में था।
कवित्वशक्ति और मौलिकता देव में खूब थी पर उनके सम्यक् स्फुरण में उनकी रुचि विशेष प्राय: बाधक हुई है। कभी कभी वे बड़े पेचीले मजमून का हौसला बाँधाते थे, पर अनुप्रास के आडंबर की रुचि बीच में ही उनका अंगभंग करके सारे पद्य को कीचड़ में फँसा छकड़ा बना देती थी। भाषा में स्निग्ध प्रवाह न आने का एक बड़ा भारी कारण यह भी था। इनकी भाषा में रसाद्रता और चलतापन बहुत कम पाया जाता है। कहीं कहीं शब्दव्यय बहुत अधिक है और अर्थ बहुत अल्प।
अक्षरमैत्री के ध्यान से इन्हें कहीं कहीं अशक्त शब्द रखने पड़ते थे जो कभी कभी अर्थ को आच्छन्न करते थे। तुकांत और अनुप्रास के लिए ये कहीं कहीं शब्दों को ही तोड़ते, मरोड़ते और बिगाड़ते न थे, वाक्य को भी अविन्यस्त कर देते थे। जहाँ अभिप्रेत भाव का निर्वाह पूरी तरह हो पाया है, या जहाँ उसमें कम बाधा पड़ी है, वहाँ की रचना बहुत ही सरस हुई है। इनका सा अर्थ सौष्ठव और नवोन्मेष विरले ही कवियों में मिलता है। रीतिकाल के कवियों में ये बड़े ही प्रगल्भ और प्रतिभासम्पन्न कवि थे, इसमें संदेह नहीं। इस काल के बड़े कवियों में इनका विशेष गौरव का स्थान है। कहीं कहीं इनकी कल्पना बहुत सूक्ष्म और दुरारूढ़ है। इनकी कविता के कुछ उत्तम उदाहरण नीचे दिए जाते हैं,
सुनो कै परम पद, ऊनो कै अनंत मद
नूनो कै नदीस नद, इंदिरा झुरै परी।
महिमा मुनीसन की, संपति दिगीसन की, 
ईसन की सिद्धि ब्रजवीथि बिथुरै परी
भादों की अंधेरी अधिाराति मथुरा के पथ, 
पाय के संयोग 'देव' देवकी दुरै परी।
पारावार पूरन अपार परब्रह्म रासि, 
जसुदा के कोरै एक बार ही कुरै परी

डार द्रुम पलना, बिछौना नवपल्लव के, 
सुमन झ्रगूला सोहै तन छबि भारी दै।
पवन झुलावै केकी कीर बहरावै देव, 
कोकिल हलावै हुलसावै कर तारी दै
पूरित पराग सों उतारो करै राई लोन, 
कंजकली नायिका लतानि सिर सारी दै।
मदन महीप जू को बालक बसंत, ताहि, 
प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै

सखी के सकोच, गुरु सोच मृगलोचनि, 
रिसानी पिय सों जो उन नेकु हँसि छुयोगात। 
देव वै सुभाय मुसकाय उठि गए, यहाँ
सिसकि सिसकि निसि खोई, रोय पायो प्रात
को जानै, री बीर! बिनु बिरही बिरह बिथा, 
हाय हाय करि पछिताय न कछू सुहात। 
बड़े बड़े नैनन सों ऑंसू भरि भरि ढरि,
गोरो गोरो मुख परि ओरे सो बिलाने जात

झहरि झहरि झीनी बूँद हैं परति मानो, 
घहरि घहरि घटा घेरी है गगन में।
आनि कह्यो स्याम मो सौं, 'चलौ झूलिबे को आज' 
फूली न समानी भई ऐसी हौं मगन मैं
चाहत उठयोई उठि गई सो निगोड़ी नींद, 
सोइ गए भाग मेरे जानि वा जगन में।
ऑंख खोलि देखों तौ न घन हैं न घनश्याम,
वेई छाईं बूँदें मेरे ऑंसु ह्वै दृगन में

साँसन ही में समीर गयो अरु ऑंसुन ही सब नीर गयो ढरि।
तेज गयो गुन लै अपनो अरु भूमि गई तनु की तनुता करि
'देव' जियै मिलिबेई की आस कै, आसहू पास अकास रह्यो भरि।
जा दिन तें मुख फेरि हरै हँसि हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि

जब तें कुवँर कान्ह रावरी कलानिधान!
कान परी वाके कहूँ सुजस कहानी सी।
तब ही तें देव देखी देवता सी हँसति सी,
रीझति सी, खीझति सी, रूठति रिसानी सी
छोही सी छली सी छीन लीनी सी छकी सी, छिन
जकी सी, टकी सी, लगी थकी थहरानी सी।
बींधी सी, बँधी सी, विष बूड़ति बिमोहित सी।
बैठी बाल बकति, बिलोकति बिकानी सी

'देव' मैं सीस बसायो सनेह सों भाल मृगम्मद बिंदु कै भाख्यौ।
कंचुकि में चुपरयो करि चोवा लगाय लियो उर सों अभिलाख्यो
लै मखतूल गुहे गहने, रस मूरतिवंत सिंगार कै चाख्यो।
साँवरे लाल को साँवरो रूप मैं नैनन को कजरा करि राख्यो

धार में धाय धाँसी निराधार ह्वै, आय फँसी, उकसी न उधोरी।
री! अंगराय गिरीं गहिगी, गहि फेरे फिरी न, घिरी नहिं घेरी
'देव' कछू अपनों बस ना, रस लालच लाल चितै भइँ चेरी।
बेगि ही बूड़ि गई पँखियाँ अंखियाँ मधु की मखियाँ भई मेरी
14. श्रीधर या मुरलीधर ये प्रयाग के रहनेवाले ब्राह्मण थे और संवत् 1737 के लगभग उत्पन्न हुए थे। यद्यपि अभी तक इनका 'जंगनामा' ही प्रकाशित हुआ है जिसमें फर्रुखसियर और जहाँदार के युद्ध का वर्णन है, पर स्वर्गीय बाबू राधाकृष्णदास ने इनके बनाए कई रीतिग्रंथों का उल्लेख किया है, जैसे नायिकाभेद, चित्रकाव्य आदि। इनका कविताकाल संवत् 1760 के आगे माना जा सकता है।
15. सूरति मिश्र ये आगरे के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे, जैसा कि इन्होंने स्वयं लिखा है, 'सूरति मिश्र कनौजिया, नगर आगरे बास' इन्होंने 'अलंकारमाला' संवत् 1766 में और बिहारी सतसई की 'अमरचंद्रिका' टीका संवत् 1794 में लिखी। अत: इनका कविताकाल विक्रम की अठारहवीं शताब्दी का अंतिम चरण माना जा सकता है।
ये नसरुल्ला खाँ नामक सरदार के यहाँ तथा दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के दरबार में आया जाया करते थे। इन्होंने 'बिहारी सतसई', 'कविप्रिया' और 'रसिकप्रिया' पर विस्तृत टीकाएँ रची हैं जिनसे इनके साहित्यज्ञान और मार्मिकता का अच्छा परिचय मिलता है। टीकाएँ ब्रजभाषा गद्य में हैं। इन टीकाओें के अतिरिक्त इन्होंने 'वैताल पंचविंशति' का ब्रजभाषा गद्य में अनुवाद किया है और निम्नलिखित रीतिग्रंथ रचे हैं,
(1) अलंकारमाला, (2) रसरत्नमाला, (3) रससरस, (4) रसग्राहकचंद्रिका, (5)नखशिख, (6) काव्यसिध्दांत, (7) रसरत्नाकर।
अलंकारमाला की रचना इन्होंने 'भाषाभूषण' के ढंग पर की है। इसमें भी लक्षण और उदाहरण प्राय: एक ही दोहे में मिलते हैं; जैसे
(क) हिम सो, हर के हास सो जस मालोपम ठानि
(ख) सो असंगति, कारन अवर, कारज औरै थान।
चलि अहि श्रुति आनहि डसत, नसत और के प्रान
इनके ग्रंथ सब मिले नहीं हैं। जितने मिले हैं उनसे ये अच्छे साहित्यमर्मज्ञ और कवि जान पड़ते हैं। इनकी कविता में तो कोई विशेषता नहीं जान पड़ती, पर साहित्यकाउपकार इन्होंने बहुत कुछ किया है। 'नखशिख' से इनका एक कवित्त दिया जाता है,
तेरे ये कपोल बाल अतिही रसाल, 
मन जिनकी सदाई उपमा बिचारियत है।
कोऊ न समान जाहि कीजै उपमान, 
अरु बापुरे मधूकन की देह जारियत है
नेकु दरपन समता की चाह करी कहूँ,
भए अपराधी ऐसो चित्त धारियत है।
'सूरति' सो याही तें जगत बीच आजहूँ लौ,
उनके बदन पर छार डारियत है
16. कवींद्र (उदयनाथ) ये कालिदास त्रिवेदी के पुत्र थे और संवत् 1736 के लगभग उत्पन्न हुए थे। इनका 'रसचंद्रोदय' नामक ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त 'विनोदचंद्रिका' और 'जोगलीला' नामक इनकी दो और पुस्तकों का पता खोज में लगा है। 'विनोदचंद्रिका' संवत् 1777 और 'रसचंद्रोदय' संवत् 1804 में बना। अत: इनका कविताकाल संवत् 1804 या उसके कुछ आगे तक माना जा सकता है। ये अमेठी के राजा हिम्मतसिंह और गुरुदत्तासिंह (भूपति) के यहाँ बहुत दिन रहे।
इनका 'रसचंद्रोदय' श्रृंगार का एक अच्छा ग्रंथ है। इनकी भाषा मधुर और प्रसादपूर्ण है। वर्ण्य विषय के अनुकूल कल्पना भी ये अच्छी करते थे। इनके दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं,
शहर मँझार ही पहर एक रागि जैहै,
छोर पै नगर के सराय है उतारे की।
कहत कविंद मग माँझ ही परैगी साँझ,
खबर उड़ानी है बटोही द्वैक मारे की
घर के हमारे परदेस को सिधारे,
या तें दया कै बिचारी हम रीति राहबारे की।
उतरौ नदी के तीर, बर के तरे ही तुम,
चौकौं जनि चौकी तहाँ पाहरू हमारे की

राजै रसमै री तैसी बरखा समै री चढ़ी, 
चंचला नचै री चकचौंध कौंध बारै री।
व्रती व्रत हारै हिए परत फुहारैं,
कछु छोरैं कछू धारैं जलधार जलधारैं री
भनत कविंद कुंजभौन पौन सौरभ सों, 
काके न कँपाय प्रान परहथ पारै री?
कामकंदुका से फूल डोलि डोलि डारैं, मन
औरै किए डारै ये कदंबन की डारैं री
17. श्रीपति ये कालपी के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इन्होंने संवत् 1777 में 'काव्यसरोज' नामक रीति ग्रंथ बनाया। इसके अतिरिक्त इनके निम्नलिखित ग्रंथ और हैं,
(1) कविकल्पद्रुम, (2) रससागर, (3) अनुप्रासविनोद, (4) विक्रमविलास, (5)सरोज कलिका, (6) अलंकारगंगा।
श्रीपति ने काव्य के सब अंगों का निरूपण विशद रीति से किया है। दोषों का विचार पिछले ग्रंथों से अधिक विस्तार के साथ किया है और दोषों के उदाहरणों में केशवदास के बहुत से पद्य रखे हैं। इससे इनका साहित्यिक विषयों का सम्यक् और स्पष्ट बोध तथा विचार स्वातंत्रय प्रकट है। 'काव्यसरोज' बहुत ही प्रौढ़ ग्रंथ है। काव्यांगों का निरूपण जिस स्पष्टता के साथ इन्होंने किया है उससे इनकी स्वच्छ बुद्धि का परिचय मिलता है। यदि गद्य में व्याख्या की परिपाटी चल गई होती तो आचार्यत्व ये और भी अधिक पूर्णता के साथ प्रदर्शित कर सकते थे। दासजी तो इनके बहुत अधिक ऋणी हैं। उन्होंने इनकी बहुत सी बातें ज्यों की त्यों अपने 'काव्यनिर्णय' में चुपचाप रख ली हैं। आचार्यत्व के अतिरिक्त कवित्व भी इनमें ऊँची कोटि का था। रचनाविवेक इनमें बहुत ही जागृत और रुचि अत्यंत परिमार्जित थी। झूठे शब्दाडंबर के फेर में ये बहुत कम पड़े हैं। अनुप्रास इनकी रचनाओं में बराबर आए हैं, पर उन्होंने अर्थ या भावव्यंजना में बाधा नहीं डाली है। अधिकतर अनुप्रास रसानुकूल वर्णविन्यास के रूप में आकर भाषा में कहीं ओज, कहीं माधुर्य घटित करते पाए जाते हैं। पावस ऋतु का तो इन्होंने बड़ा ही अच्छा वर्णन किया है। इनकी रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं,
जलभरे झूमैं मानौ भूमै परसत आय,
दसहु दिसान घूमैं दामिनि लए लए।
धूरिधार धूमरे से, धूम से धुंधारे कारे,
धुरवान धारे धावैं छवि सों छए छए
श्रीपति सुकवि कहै घेरि घेरि घहराहिं, 
तकत अतन तन ताव तें तए तए।
लाल बिनु कैसे लाजचादर रहैगी आज, 
कादर करत मोहिं बादर नये नये

सारस के नादन को बाद ना सुनात कहूँ,
नाहक ही बकवाद दादुर महा करै।
श्रीपति सुकवि जहाँ ओज ना सरोजन की,
फूल न फुलत जाहि चित दै चहा करै
बकन की बानी की बिराजति है राजधानी,
काई सों कलित पानी फेरत हहा करे। 
घोंघन के जाल, जामें नरई सेवाल ब्याल, 
ऐसे पापी ताल को मराल लै कहा करै?

घूँघट उदयगिरिवर तैं निकसि रूप
सुधा सो कलित छवि कीरति बगारो है। 
हरिन डिठौना स्याम सुख सील बरषत, 
करषत सोक, अति तिमिर बिदारो है
श्रीपति बिलोकि सौति बारिज मलिन होत,
हरषि कुमुद फूलै नंद को दुलारो है।
रंजन मदन, तन गंजन बिरह, बिबि, 
खंजन सहित चंदबदन तिहारो है
18. बीर ये दिल्ली के रहने वाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इन्होंने 'कृष्णचंद्रिका' नामक रस और नायिकाभेद का एक ग्रंथ संवत् 1779 में लिखा। कविता साधारण है। वीररस का कवित्त देखिए,
अरुन बदन और फरकै बिसाल बाहु,
कौन को हियौ है करै सामने जो रुख को। 
प्रबल प्रचंड निसिचर फिरैं धाए, 
धूरि चाहत मिलाए दसकंधा अंधा मुख को
चमकै समरभूमि बरछी, सहस फन, 
कहत पुकारे लंक अंक दीह दुख को।
बलकि - बलकि बोलैं बीर रघुबीर धीर,
महि पर मीड़ि मारौं आज दसमुख को
19. कृष्ण कवि ये माथुर चौबे थे और बिहारी के पुत्र प्रसिद्ध हैं। इन्होंने बिहारी के आश्रयदाता महाराज जयसिंह के मंत्री राजा आयामल्ल की आज्ञा से बिहारी सतसई की जो टीका की उसमें महाराज के लिए वर्तमानकालिक क्रिया का प्रयोग किया है और उनकी प्रशंसा भी की है। अत: यह निश्चित है कि यह टीका जयसिंह के जीवनकाल में ही बनी। महाराज जयसिंह संवत् 1799 तक वर्तमान थे। अत: यह टीका संवत् 1785 और 1790 के बीच की होगी। इस टीका में कृष्ण ने दोहों के भाव पल्लवित करने के लिए सवैये लगाए हैं और वार्तिक में काव्यांग स्फुट किए हैं। काव्यांग इन्होंने अच्छी तरह दिखाए हैं और वे इस टीका के प्रधान अंग हैं, इसी से ये रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों के बीच ही रखे गए हैं। 
इनकी भाषा सरल और चलती है तथा अनुप्रास आदि की ओर बहुत कम झुकी है। दोहों पर जो सवैये इन्होंने लगाए हैं उनसे इनकी सहृदयता, रचनाकौशल और भाषा पर अधिकार अच्छी तरह प्रमाणित होता है। इनके दो सवैये देखिए,
सीस मुकुट कटि काछनी, कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन सदा, बसौ बिहारी लाल
छबि सों फबि सीस किरीट बन्यो रुचिसाल हिए बनमाल लसै।
कर कंजहि मंजु रली मुरली, कछनी कटि चारु प्रभा बरसै
कबि कृष्ण कहैं लखि सुंदर मूरति यों अभिलाष हिए सरसै।
वह नंद किसोर बिहारी सदा यहि बानिक मों हिय माँझ बसै

थोरेई गुन रीझते बिसराई वह बानि।
तुमहू कान्ह मनौ भए आजुकाल के दानि
ह्वै अति आरत मैं बिनती बहु बार करी करुना रस भीनी।
कृष्ण कृपानिधि दीन के बंधु सुनी असुनी तुम काहे को कीनी
रीझते रंचक ही गुन सों वह बानि बिसारि मनो अब दीनी।
जानि परी तुमहू हरि जू! कलिकाल के दानिन की गति लीनी
20. रसिक सुमति ये ईश्वरदास के पुत्र थे और संवत् 1785 में वर्तमान थे। इन्होंने 'अलंकारचंद्रोदय' नामक एक अलंकारग्रंथ कुवलयानंद के आधार पर दोहों में बनाया। पद्यरचना साधारणत: अच्छी है। 'प्रत्यनीक' का लक्षण और उदाहरण एक ही दोहे में देखिए,
प्रत्यनीक अरि सों न बस, अरि हितूहि दुख देय।
रवि सों चलै, न कंज की दीपति ससि हरि लेय
21. गंजन ये काशी के रहने वाले गुजराती ब्राह्मण थे। इन्होंने संवत् 1786 में 'कमरुद्दीन खाँ हुलास' नामक श्रृंगाररस का एक ग्रंथ बनाया जिसमें भावभेद, रसभेद के साथ षट् ऋतु का विस्तृत वर्णन किया है। इस ग्रंथ में इन्होंने अपना पूरा वंशपरिचय दिया है और अपने प्रपितामह मुकुटराय के कवित्व की प्रशंसा की है। कमरुद्दीन खाँ दिल्ली के बादशाह के वजीर थे और भाषाकाव्य के अच्छे प्रेमी थे। इनकी प्रशंसा गंजन ने खूब जी खोलकर की है जिससे जान पड़ता है उनके द्वारा कवि का बड़ा अच्छा सम्मान हुआ था। उपर्युक्त ग्रंथ एक अमीर को खुश करने लिए लिखा गया है इससे ऋतुवर्णन के अंतर्गत उसमें अमीरी शौक और आराम के बहुत से सामान गिनाए गए हैं। इस बात में ये ग्वाल कवि से मिलते जुलते हैं। इस पुस्तक में सच्ची भावुकता और प्रकृतिरंजन की शक्ति बहुत अल्प है। भाषा भी शिष्ट और प्रांजल नहीं। एक कवित्त नीचे दिया जाता है,
मीना के महल जरबाफ दर परदा हैं,
हलबी फनूसन में रोसनी चिराग की
गुलगुली गिलम गरक आब पग होत, 
जहाँ बिछी मसनद लालन के दाम की
केती महताबमुखी खचित जवाहिरन, 
गंजन सुकवि कहै बौरी अनुराग की। 
एतमाद्दौला कमरुद्दीन खाँ की मजलिस,
सिसिर में ग्रीषम बनाई बड़ भाग की
22. अली मुहिब खाँ (प्रीतम), ये आगरे के रहने वाले थे। इन्होंने संवत् 1787 में 'खटमल बाईसी' नाम की हास्यरस की एक पुस्तक लिखी। इस प्रकरण के आरंभ में कहा गया है कि रीतिकाल में प्रधानता श्रृंगाररस की रही; यद्यपि वीररस लेकर भी रीतिग्रंथ रचे गए। पर किसी और रस को अकेला लेकर मैदान में कोई नहीं उतरा था। यह हौसले का काम हजरत अली मुहिब खाँ साहिब ने कर दिखाया। इस ग्रंथ का साहित्यिक महत्व कई पक्षों में दिखाई पड़ता है। हास्य आलंबन प्रधान रस है। आलंबन मात्र का वर्णन ही इस रस में पर्याप्त होता है। इस बात का स्मरण रखते हुए जब हम अपने साहित्य क्षेत्र में हास के आलंबनों की परंपरा की जाँच करते हैं तब एक प्रकार की बँधी रूढ़ि सी पाते हैं। संस्कृत के नाटकों में खाऊपन और पेट की दिल्लगी बहुत कुछ बँधी सी चली आई। भाषासाहित्य में कंजूसों की बारी आई। अधिकतर ये ही हास्य रस के आलंबन रहे। खाँ साहब ने शिष्ट हास का एक बहुत अच्छा मैदान दिखाया। इन्होंने हास्यरस के लिए खटमल को पकड़ा जिस पर यह संस्कृत उक्ति प्रसिद्ध है,
कमला कमले शेते, हरश्शेते हिमालये।
क्षीराब्धौ च हरिश्शेते मन्ये मत्कुणशंकया
इनका हास गंभीर हास है। क्षुद्र और महत् के अभेद की भावना उसके भीतर कहीं छिपी हुई है। इन सब बातों के विचार से हम खाँ साहब या प्रीतमजी को एकउत्तम श्रेणी का पथप्रदर्शक कवि मानते हैं। इनका और कोई ग्रंथ नहीं मिलता, न सही; इनकी 'खटमल बाईसी' ही बहुत काल तक इनका स्मरण बनाए रखने के लिए काफीहै,
'खटमल बाईसी' के दो कवित्त देखिए,
जगत के कारन करन चारौ वेदन के
कमल में बसे वै सुजान ज्ञान धारि कै।
पोषन अवनि, दुखसोषन तिलोकन के,
सागर मैं जाय सोए सेस सेज करि कै
मदन जरायो जो सँहारे दृष्टि ही में सृष्टि,
बसे है पहार वेऊ भाजि हरबरि कै।
बिधि हरि हर, और इनतें न कोऊ, तेऊ
खाट पै न सोवैं खटमलन कों डरिकै

बाघन पै गयो, देखि बनन में रहे छपि, 
साँपन पै गयो, ते पताल ठौर पाई है।
गजन पै गयो,धूल डारत हैं सीस पर,
बैदन पै गयो काहू दारू ना बताई है
जब हहराय हम हरि के निकट गए, 
हरि मोसों कही तेरी मति भूल छाई है।
कोऊ ना उपाय, भटकत जनि डोलै, सुन,
खाट के नगर खटमल की दुहाई है
23. दास (भिखारी दास), ये प्रतापगढ़ (अवध) के पास टयोंगा गाँव के रहने वाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इन्होंने अपना वंशपरिचय पूरा दिया है। इनके पिता कृपालदास, पितामह वीरभानु, प्रपितामह राय रामदास और वृद्ध प्रपितामह राय नरोत्ताम दास थे। दासजी के पुत्र अवधोश लाल और पौत्र गौरीशंकर थे जिनके अपुत्र मर जाने से वंशपरंपरा खंडित हो गई। दासजी के इतने ग्रंथों का पता लग चुका है,
रससारांश (संवत् 1799), छंदार्णव पिंगल (संवत् 1799) काव्यनिर्णय (संवत् 1803), श्रृंगारनिर्णय (संवत् 1807), नामप्रकाश कोश (संवत् 1795), विष्णुपुराण भाषा (दोहे चौपाई में); छंद प्रकाश, शतरंजशतिका, अमरप्रकाश (संस्कृत अमरकोष भाषा पद्य में)। 
'काव्यनिर्णय' में दासजी ने प्रतापगढ़ के सोमवंशी राजा पृथ्वीसिंह के भाई बाबू हिंदूपतिसिंह को अपना आश्रयदाता लिखा है। राजा पृथ्वीपति संवत् 1791 में गद्दी पर बैठे थे और 1807 में दिल्ली के वजीर सफदरजंग द्वारा छल से मारे गए थे। ऐसा जान पड़ता है कि संवत् 1807 के बाद इन्होंने कोई ग्रंथ नहीं लिखा अत: इनका कविताकाल संवत् 1785 से लेकर संवत् 1807 तक माना जा सकता है।
काव्यांगों के निरूपण में दासजी को सर्वप्रधान स्थान दिया जाता है क्योंकि इन्होंने छंद, रस, अलंकार, रीति, गुण, दोष शब्दशक्ति आदि सब विषयों का औरों से विस्तृत प्रतिपादन किया है। जैसा पहले कहा जा चुका है, श्रीपति से इन्होंने बहुत कुछ लिया है। इनकी विषयप्रतिपादन शैली उत्तम है और आलोचनशक्ति भी इनमें कुछ पाई जाती है; जैसे हिन्दी काव्यक्षेत्र में इन्हें परकीया के प्रेम की प्रचुरता दिखाई पड़ी, जो रस की दृष्टि से रसाभास के अंतर्गत आता है। बहुत से स्थलों पर तो राधाकृष्ण का नाम आने से देवकाव्य का आरोप हो जाता है और दोष का कुछ परिहार हो जाता है, पर सर्वत्र ऐसा नहीं होता। इससे दासजी ने स्वकीया का लक्षण ही कुछ अधिक व्यापक करना चाहा और कहा,
श्रीमाननि के भौन में भोग्य भामिनी और।
तिनहूँ को सुकियाह में गनैं सुकवि सिरमौर
पर यह कोई बड़े महत्व की उद्भावना नहीं कही जा सकती है। जो लोग दासजी के दस और हावों के नाम लेने पर चौंके हैं उन्हें जानना चाहिए कि साहित्यदर्पण में नायिकाओं के स्वभावज अलंकार 18 कहे गए हैं,लीला, विलास, विच्छित्तिा, विव्वोक, किलकिंचित, मोट्टायित्ता, कुट्टमित्ता, विभ्रम, ललित, विहृत, मद, तपन, मौग्धय, विक्षेप,कुतूहल,हसित, चकित और केलि। इनमें से अंतिम आठ को लेकर यदि दासजीने भाषा में प्रचलित दस हावों में जोड़ दिया तो क्या नई बात की? यह चौंकनातब तक बना रहेगा जब तक हिन्दी में संस्कृत के मुख्य सिध्दांत ग्रंथों के सब विषयों का यथावत् समावेश न हो जाएगा और साहित्यशास्त्र का सम्यक् अध्ययन न होगा।
अत: दासजी के आचार्यत्व के संबंध में भी हमारा यही कथन है जो देव आदि के विषय में। यद्यपि इस क्षेत्र में औरों को देखते दासजी ने अधिक काम किया है, पर सच्चे आचार्य का पूरा रूप इन्हें भी प्राप्त नहीं हो सका है। परिस्थिति से ये भी लाचार थे। इनके लक्षण भी व्याख्या के बिना अपर्याप्त और कहीं कहीं भ्रामक हैं और उदाहरण भी कुछ स्थलों पर अशुद्ध हैं। जैसे उपादान लक्षणा लीजिए। इसका लक्षण भी गड़बड़ है और उसी के अनुरूप उदाहरण भी अशुद्ध है। अत: दासजी भी औरों के समान वस्तुत: कवि के रूप में ही हमारे सामने आते हैं।
दासजी ने साहित्यिक और परिमार्जित भाषा का व्यवहार किया है। श्रृंगार ही उस समय का मुख्य विषय रहा है। अत: इन्होंने भी उसका वर्णन विस्तार देव की तरह बढ़ाया है। देव ने भिन्न भिन्न देशों और जातियों की स्त्रियों के वर्णन के लिए जाति विलास लिखा, जिसमें नाइन, धोबिन, सब आ गईं, पर दास जी ने रसाभाव के डर से या मर्यादा के ध्यान से इनको आलंबन के रूप में न रखकर दूती के रूप में रखा है। इनके 'रससारांश' में नाइन, नटिन, धोबिन, कुम्हारिन, बरइन, सब प्रकार की दूतियाँ मौजूद हैं। इनमें देव की अपेक्षा अधिक रसविवेक था। इनका श्रृंगारनिर्णय अपने ढंग का अनूठा काव्य है। उदाहरण मनोहर और सरस है। भाषा में शब्दाडंबर नहीं है। न ये शब्द चमत्कार पर टूटे हैं, न दूर की सूझ के लिए व्याकुल हुए हैं। इनकी रचना कलापक्ष में संयत और भावपक्ष में रंजनकारिणी है। विशुद्ध काव्य के अतिरिक्त इन्होंने नीति की सूक्तियाँ भी बहुत सी कही हैं जिनमें उक्तिवैचित्रय अपेक्षित होता है। देव की सी ऊँची आकांक्षा या कल्पना जिस प्रकार इनमें कम पाई जाती है उसी प्रकार उनकी सी असफलता भी कहीं नहीं मिलती। जिस बात को ये जिस ढंग से,चाहे वह ढंग बहुत विलक्षण न हो,कहना चाहते थे उस बात को उस ढंग से कहने की पूरी सामर्थ्य इनमें थी। दासजी ऊँचे दरजे के कवि थे। इनकी कविता के कुछ नमूने लीजिए,
वाही घरी तें न सान रहै, न गुमान रहै, न रहै सुघराई।
दास न लाज को साज रहै न रहै तनकौ घरकाज की घाई
ह्याँ दिखसाधा निवारे रहौ तब ही लौ भटू सब भाँति भलाई।
देखत कान्हैं न चेत रहै, नहिं चित्त रहै, न रहै चतुराई

नैनन को तरसैए कहाँ लौं, कहाँ लौ हियो बिरहागि मै तैए।
एक घरी न कहूँ कल पैए, कहाँ लगि प्रानन को कलपैए?
आवै यही अब जी में बिचार सखी चलि सौति हुँ, कै घर जैए।
मान घटै ते कहा घटि है जु पै प्रानपियारे को देखन पैए

ऊधो! तहाँई चलौ लै हमें जहँ कूबरि कान्ह बसैं एक ठौरी।
देखिए दास अघाय अघाय तिहारे प्रसाद मनोहर जोरी
कूबरी सों कछु पाइए मंत्र, लगाइए कान्ह सों प्रीति की डोरी।
कूबरिभक्ति बढ़ाइए बंदि, चढ़ाइए चंदन बंदन रोरी

कढ़ि कै निसंक पैठि जाति झुंड झुंडन में,
लोगन को देखि दास आनंद पगति है।
दौरि दौरि जहीं तहीं लाल करि डारति है,
अंक लगि कंठ लगिबे को उमगति है
चमक झमक वारी, ठमक जमक वारी,
रमक तमक वारी जाहिर जगति है।
राम! असि रावरे की रन में नरन में,
निलज बनिता सी होरी खेलन लगति है

अब तो बिहारी के वे बानक गए री, तेरी
तन दूति केसर को नैन कसमीर भो।
श्रौन तुव बानी स्वाति बूँदन के चातक भे,
साँसन को भरिबो दु्रपदजा को चीर भो
हिय को हरष मरु धारनि को नीर भो, री!
जियरो मनोभव सरन को तुनीर भो।
एरी! बेगि करि कैं मिलापु थिर थापु, न तौ 
आपु अब चहत अतनु को सरीर भो

अंखियाँ हमारी दईमारी सुधि बुधि हारीं, 
मोहूँ तें जु न्यारी दास रहै सब काल में।
कौन गहै ज्ञानै, काहि सौंपत सयाने, कौन 
लोक ओक जानै, ये नहीं हैं निज हाल में
प्रेम पगि रही, महामोह में उमगि रहीं, 
ठीक ठगि रहीं, लगि रहीं बनमाल में।
लाज को अंचै कै, कुलधरम पचै कै, वृथा
बंधान सँचै कै भई मगन गोपाल में
24. भूपति (राज गुरुदत्ता सिंह) ये अमेठी के राजा थे। इन्होंने संवत् 1791 में श्रृंगार के दोहों की एक सतसई बनाई। उदयनाथ कवींद्र इनके यहाँ बहुत दिनों तक रहे। ये महाशय जैसे सहृदय और काव्यमर्मज्ञ थे वैसे ही कवियों का आदर सम्मान करने वाले भी थे। क्षत्रियों की वीरता भी इनमें पूरी थी। एक बार अवध के नवाब सआदतखाँ से ये बिगड़ खड़े हुए। सआदतखाँ ने जब इनकी गढ़ी घेरी तब ये बाहर सआदतखाँ के सामने ही बहुतों को मार-काट कर गिराते हुए जंगल की ओर निकल गए। इनका उल्लेख कवींद्र ने इस प्रकार किया है,
समर अमेठी के सरेष गुरुदत्तसिंह, 
सादत की सेना समरसेन सों भानी है। 
भनत कवींद्र काली हुलसी असीसन को,
सीसन को ईस की जमाति सरसानी है 
तहाँ एक जोगिनी सुभट खोपरी लै उड़ी,
सोनित पियत ताकी उपमा बखानी है।
प्यालो लै चिनी को नीके जोबन तरंग मानो, 
रंग हेतु पीवत मजीठ मुगलानी है
'सतसई' के अतिरिक्त भूपतिजी ने 'कंठाभूषण' और 'रसरत्नाकर' नाम के दो रीतिग्रंथ भी लिखे जो कहीं देखे नहीं गए हैं। शायद अमेठी में हों। सतसई के दोहे दिए जाते हैं,
घूँघट पट की आड़ दै हँसति जबै वह दार।
ससिमंडल ते कढ़ति छनि जनु पियूष की धार
भए रसाल रसाल हैं भरे पुहुप मकरंद।
मानसान तोरत तुरत भ्रमत भ्रमर मदमंद
25. तोषनिधि ये एक प्रसिद्ध कवि हुए हैं। ये शृंगवेरपुर (सिंगरौर, जिला, इलाहाबाद) के रहनेवाले चतुर्भुज शुक्ल के पुत्र थे। इन्होंने संवत् 1791 में 'सुधानिधि' नामक एक अच्छा बड़ा ग्रंथ रसभेद और भावभेद का बनाया। खोज में इनकी दो पुस्तकें और मिली हैं,विनयशतक और नखशिख। तोषजी ने काव्यांगों के बहुत अच्छे लक्षण और सरस उदाहरण दिए हैं। उठाई हुई कल्पना का अच्छा निर्वाह हुआ है और भाषा स्वाभाविक प्रवाह के साथ आगे बढ़ती है। तोषजी एक बड़े ही सहृदय और निपुण कवि थे। भावों का विधान सघन होने पर भी कहीं उलझा नहीं है। बिहारी के समान इन्होंने भी कहीं कहीं ऊहात्मक अत्युक्ति की है। कविता के कुछ नमूने दिए जाते हैं,
भूषन भूषित दूषन हीन प्रवीन महारस मैं छबि छाई।
पूरी अनेक पदारथ तें जेहि में परमारथ स्वारथ पाई
औ उकतैं मुकतै उलही कवि तोष अनोषभरी चतुराई।
होत सबै सुख की जनिता बनि आवति जौं बनिता कविताई

एक कहैं हँसि ऊधावजू! ब्रज की जुवती तजि चंद्रप्रभा सी। 
जाय कियो कहँ तोष प्रभू! इक प्रानप्रिया लहि कंस की दासी
जो हुते कान्ह प्रवीन महा सो हहा! मथुरा में कहा मति नासी।
जीव नहीं उबियात जबै ढिग पौढ़ति हैं कुबिजा कछुआ सी

श्रीहरि की छबि देखिबे को अंखियाँ प्रति रोमहि में करि देतो।
बैनन को सुनिबे हित स्रौन जितै तित सो करतौ करि हेतो
मो ढिग छाँड़ि न काम कहूँ रहै तोष कहै लिखितो बिधि एतो।
तौ करतार इती करनी करिकै कलि में कल कीरति लेतो

तौ तन में रवि को प्रतिबिंब परे किरनै सो घनी सरसाती।
भीतर हू रहि जात नहीं, अंखियाँ चकचौंधि ह्वै जाति हैं राती
बैठि रहौ, बलि, कोठरी में कह तोष करौं बिनती बहु भाँती।
सारसीनैनि लै आरसी सो अंग काम कहा कढ़ि घाम में जाती?
26-27. दलपति राय और बंशीधर दलपति राय महाजन और बंसीधार ब्राह्मण थे। दोनों अहमदाबाद (गुजरात) के रहने वाले थे। इन लोगों ने संवत् 1792 में उदयपुर के महाराणा जगतसिंह के नाम पर 'अलंकाररत्नाकर' नामक ग्रंथ बनाया। इसका आधार महाराज जसवंत सिंह का 'भाषाभूषण' है। इसका 'भाषाभूषण' के साथ प्राय: वही संबंध है जो 'कुवलयानंद' का 'चंद्रालोक' के साथ। इस ग्रंथ में विशेषता यह है कि इसमें अलंकारों का स्वरूप समझाने का प्रयत्न किया गया है। इस कार्य के लिए गद्य व्यवहृत हुआ है। रीतिकाल के भीतर व्याख्या के लिए कभी कभी गद्य का उपयोग कुछ ग्रंथकारों की सम्यक् निरूपण की उत्कंठा सूचित करता है। इस उत्कंठा के साथ ही साथ गद्य की उन्नति की आकांक्षा का सूत्रपात समझना चाहिए जो सैकड़ों वर्ष बाद पूरी हुई।
'अलंकाररत्नाकर' में उदाहरणों पर अलंकार घटा कर बताए गए हैं और उदाहरण दूसरे अच्छे कवियों के भी बहुत से हैं। इससे यह अध्ययन के लिए बहुत उपयोगी है। दंडी आदि कई संस्कृत आचार्यों के उदाहरण भी लिए गए हैं। हिन्दी कवियों की लंबी नामावली ऐतिहासिक खोज में बहुत उपयोगी है। 
कवि भी ये लोग अच्छे थे। पद्य रचना की निपुणता के अतिरिक्त इनमें भावुकता और बुद्धि वैभव दोनों हैं। इनका एक कवित्त नीचे दिया जाता है,
अरुन हरौल नभ मंडल मुलुक पर
चढयो अक्क चक्कवै कि तानि कै किरिनकोर।
आवत ही साँवत नछत्रा जोय धाय धाय, 
घोर घमासान करि काम आए ठौर ठौर
ससहर सेत भयो, सटक्यो सहमि ससी,
आमिल उलूक जाय गिरे कंदरन ओर। 
दुंद देखि अरविंद बंदीखाने तें भगाने, 
पायक पुलिंद वै मलिंद मकरंद चोर
28. सोमनाथ ये माथुर ब्राह्मण थे और भरतपुर के महाराज बदनसिंह के कनिष्ठ पुत्र प्रतापसिंह के यहाँ रहते थे। इन्होंने संवत् 1794 में 'रसपीयूषनिधि' नामक रीति का एक विस्तृत ग्रंथ बनाया जिसमें पिंगल, काव्यलक्षण, प्रयोजन, भेद, शब्दशक्ति, ध्वनि, भाव, रस, रीति, गुण, दोष इत्यादि सब विषयों का निरूपण है। यह दास जी के काव्यनिर्णय से बड़ा ग्रंथ है। काव्यांगनिरूपण में ये श्रीपति और दास के समान ही हैं। विषय को स्पष्ट करने की प्रणाली इनकी बहुत अच्छी है। 
विषयनिरूपण के अतिरिक्त कविकर्म में भी ये सफल हुए हैं। कविता में ये अपना उपनाम 'ससिनाथ' भी रखते थे। इनमें भावुकता और सहृदयता पूरी थी, इससे इनकी भाषा में कृत्रिमता नहीं आने पाई। इनकी एक अन्योक्ति कल्पना की मार्मिकताऔरप्र्रसादपूर्ण व्यंग्य के कारण बहुत प्रसिद्ध है। सघन और पेचीले मजमून गाँठने के फेर में न पड़ने के कारण इनकी कविता को साधारण समझना सहृदयता के सर्वथाविरुद्ध है। 'रसपीयूषनिधि' के अतिरिक्त खोज में इनके तीन और ग्रंथ मिले हैं,
1. कृष्ण लीलावती पंचाध्यायी (संवत् 1800)
2. सुजानविलास (सिंहासन बत्तीसी, पद्य में; संवत् 1807)
3. माधवविनोद नाटक (संवत् 1809)
उक्त ग्रंथों के निर्माणकाल की ओर ध्यान देने से इनका कविताकाल संवत् 1790 से 1810 तक ठहरता है।
रीतिग्रंथ और मुक्तक रचना के सिवा इस सत्कवि ने प्रबंधकाव्य की ओर भी ध्यान दिया। सिंहासनबत्तीसी के अनुवाद को यदि हम काव्य न मानें तो कम से कम पद्यप्रबंध अवश्य ही कहना पड़ेगा। 'माधवविनोद' नाटक शायद मालतीमाधव के आधार पर लिखा हुआ प्रेमप्रबंध है। पहले कहा जा चुका है कि कल्पित कथा लिखने की प्रथा हिन्दी के कवियों में प्राय: नहीं के बराबर रही। जहाँगीर के समय में संवत् 1673 में बना पुहकर कवि का 'रसरत्न' अब तक नाम लेने योग्य कल्पित प्रबंधकाव्य था। अत: सोमनाथ जी का यह प्रयत्न उनके दृष्टिविस्तार का परिचारक है। नीचे सोमनाथ जी की कुछ कविताएँ दी जाती हैं,
दिसि बिदिसन तें उमड़ि मढ़ि लीनो नभ,
छाँड़ि दीने धुरवा जवासे-जूथ जरिगे।
डहडहे भये दु्रम रंचक हवा के गुन, 
कहूँ कहूँ मोरवा पुकारि मोद भरिगे
रहि गए चातक जहाँ के तहाँ देखत ही, 
सोमनाथ कहै बूँदाबूँदि हू न करिगे।
सोर भयो घोर चारों ओर महिमंडल में, 
'आये घन, आये घन' आयकै उघरिगे

प्रीति नयी नित कीजत है, सब सों छल की बतरानि परी है।
सीखी डिठाई कहाँ ससिनाथ, हमैं दिन द्वैक तें जानि परी है
और कहा लहिए, सजनी! कठिनाई गरै अति आनि परी है।
मानत है बरज्यो न कछू अब ऐसी सुजानहिं बानि परी है

झमकतु बदन मतंग कुंभ उत्तंग अंग वर।
बंदन बलित भुसुंड कुंडलित सुंड सिद्धि धार
कंचन मनिमय मुकुट जगमगै सुघर सीस पर।
लोचन तीनि बिसाल चार भुज धयावत सुर नर
ससिनाथ नंद स्वच्छंद, निति कोटि बिघन छरछंदहर।
जय बुद्धि बिलंद अमंद दुति इंदुभाल आनंदकर
29. रसलीन इनका नाम सैयद गुलाम नबी था। ये प्रसिद्ध बिलग्राम (जिला हरदोई) के रहनेवाले थे, जहाँ अच्छे अच्छे विद्वान मुसलमान होते आए हैं। अपने नाम के आगे 'बिलगरामी' लगाना एक बड़े सम्मान की बात यहाँ के लोग समझते थे। गुलाम नबी ने अपने पिता का नाम बाकर लिखा है। इन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'अंगदर्पण' संवत् 1794 में लिखी जिसमें अंगों का, उपमा उत्प्रेक्षा से युक्त चमत्कारपूर्ण वर्णन है। सूक्तियों के चमत्कार के लिए यह ग्रंथ काव्यरसिकों में बराबर विख्यात चला आया है। यह प्रसिद्ध दोहा जिसे जनसाधारण बिहारी का समझा करते हैं, अंगदर्पण का ही है,
अमिय हलाहल मदभरे सेत स्याम रतनार।
जियत मरत झुकि झुकि परत जेहि चितवत इक बार
'अंगदर्पण' के अतिरिक्त रसलीनजी ने संवत् 1798 में 'रसप्रबोध' नामक रसनिरूपण का ग्रंथ दोहों में बनाया। इसमें 1155 दोहे हैं और रस, भाव, नायिकाभेद, षट्ऋतु, बारहमासा आदि अनेक प्रसंग आए हैं। रसविषय का अपने ढंग का यह छोटा सा अच्छा ग्रंथ है। रसलीन ने स्वयं कहा है कि इस छोटे से ग्रंथ को पढ़ लेने पर रस का विषय जानने के लिए और ग्रंथ पढ़ने की आवश्यकता न रहेगी। पर यह ग्रंथ अंगदर्पण के ऐसा प्रसिद्ध न हुआ।
रसलीन ने अपने को दोहों की रचना तक ही रखा जिनमें पदावली की गति द्वारा नादसौंदर्य का अवकाश बहुत ही कम रहता है। अत: चमत्कार और उक्तिवैचित्रय की ओर इन्होंने अधिक ध्यान रखा। नीचे इनके कुछ दोहे दिए जाते हैं,
धारति न चौकी नगजरी यातें उर में लाय।
छाँह परे पर पुरुष की जनि तिय धरम नसाय
चख चलि स्रवन मिल्यो चहत कच बढ़ि छुवन छवानि।
कटि निज दरब धारयो चहत वक्षस्थल में आनि
कुमति चंद प्रति द्यौस बढ़ि मास मास कढ़ि आय।
तुव मुख मधुराई लखे फीको परि घटि जाय
रमनी मन पावत नहीं लाज प्रीति को अंत।
दुहुँ ओर ऐंचो रहै, जिमि बिबि तिय को कंत
तिय सैसव जोबन मिले भेद न जान्यो जात।
प्रात समय निसि द्यौस के दुवौ भाव दरसात
30. रघुनाथ ये बंदीजन एक प्रसिद्ध कवि हुए हैं जो काशिराज महाराजा बरिबंडसिंह की सभा को सुशोभित करते थे। काशीनरेश ने इन्हें चौरा ग्राम दिया था। इनके पुत्र गोकुलनाथ, पौत्र गोपीनाथ और गोकुलनाथ के शिष्य मणिदेव ने महाभारत का भाषा अनुवाद किया जो काशिराज के पुस्तकालय में है। ठाकुर शिवसिंह ने इनके चार ग्रंथों के नाम लिखे हैं,
काव्यकलाधार, रसिकमोहन, जगतमोहन और इश्कमहोत्सव। बिहारी सतसई की एक टीका का भी उन्होंने उल्लेख किया है। इनका कविता काल संवत् 1790 से 1810 तक समझना चाहिए।
'रसिकमोहन' (संवत् 1796) अलंकार का ग्रंथ है। इसमें उदाहरण केवल श्रृंगार के ही नहीं हैं, वीर आदि अन्य रसों के भी बहुत हैं। एक अच्छी विशेषता तो यह है कि इसमें अलंकारों के उदाहरणों में जो पद्य आए हैं उनके प्राय: सब चरण प्रस्तुत अलंकार के सुंदर और स्पष्ट उदाहरण होते हैं। इस प्रकार इनके कवित्त या सवैये का सारा कलेवर अलंकार को उदाहृत करने में प्रयुक्त हो जाता है। भूषण आदि बहुत से कवियों ने अलंकारों के उदाहरण में जो पद्य रखे हैं उनका अंतिम या और कोई चरण ही वास्तव में उदाहरण होता है। उपमा के उदाहरण में इनका यह प्रसिद्ध कवित्त लीजिए,
फूलि उठे कमल से अमल हितू के नैन
कहै रघुनाथ भरे चैन रस सियरे।
दौरि आए भौंर से करत गुनी गुनगान, 
सिद्ध से सुजान सुखसागर सों नियरे
सुरभी सी खुलन सुकवि की सुमति लागी, 
चिरिया सी जागी चिंता जनक के जियरे।
धानुष पै ठाढ़े राम रवि से लसत आजु, 
भोर के से नखत नरिंद भए पियरे
'काव्यकलाधर' (संवत् 1802) रस का ग्रंथ है। इसमें प्रथानुसार भावभेद, रसभेद थोड़ा बहुत कहकर नायिकाभेद और नायकभेद का ही विस्तृत वर्णन है। विषयनिरूपणइसकाउद्देश्य नहीं जान पड़ता। 'जगतमोहन' (संवत् 1807) वास्तव में एक अच्छे प्रतापी और ऐवर्श्यवान् राजा की दिनचर्या बताने के लिए लिखा गया है। इसमें कृष्ण भगवान की 12 घंटे की दिनचर्या कही गई है। इसमें ग्रंथकार ने अपनी बहुज्ञता अनेक विषयों, जैसे राजनीति, सामुद्रिक, वैद्यक, ज्योतिष, शालिहोत्रा, मृगया, सेना, नगर, गढ़ रक्षा, पशुपक्षी, शतरंज इत्यादि के विस्तृत और अरोचक वर्णनों द्वारा प्रदर्शित की है। इस प्रकार वास्तव में पद्य में होने पर भी यह काव्यग्रंथ नहीं है। 'इश्कमहोत्सव' में आपने 'खड़ी बोली' की रचना का शौक दिखाया है। उससे सूचित होता है कि खड़ी बोली की धारणा तब तक अधिकतर उर्दू के रूप में ही लोगों को थी।
कविता के कुछ नमूने उध्दृत किए जाते हैं,
ग्वाल संग जैबो ब्रज, गैयन चरैबो ऐबो, 
अब कहा दाहिने ये नैन फरकत हैं।
मोतिन की माल वारि डारौं गुंजमाल पर, 
कुंजन की सुधि आए हियो धारकत हैं
गोबर को गारो रघुनाथ कछु यातें भारो,
कहा भयो महलनि मनि मरकत हैं।
मंदिर हैं मंदर तें ऊँचे मेरे द्वारका के, 
ब्रज के खरिक तऊ हिये खरकत हैं

कैधौं सेस देस तें निकसि पुहुमी पे आय, 
बदन ऊचाय बानी जस असपंद की।
कैधौं छिति चँवरी उसीर की दिखावति है,
ऐसी सोहै उज्ज्वल किरन जैसे चंद की
जानि दिनपाल श्रीनृपाल नंदलाल जू को, 
कहैं रघुनाथ पाय सुघरी अनंद की। 
छूटत फुहारे कैधौं फूल्यो है कमल, तासों, 
अमल अमंद मढ़े धार मकरंद की

सुधरे सिलाह राखैं, वायुवेग वाह राखैं, 
रसद की राह राखैं, राखे रहै बन को।
चोर को समाज राखैं, बजा औ नजर राखैं,
खबरि के काज बहुरूपी हर फन को
आगम भखैया राखैं, सगुन लेवैया राखैं, 
कहै रघुनाथ औ बिचार बीच मन को।
बाजी हारैं कबहूँ न औसर के परे जौन,
ताजी राखै प्रजन को, राजी सुभटन को

आप दरियाव, पास नदियों के जाना नहीं, 
दरियाव पास नदी होयगी सो धावैगी।
दरखत बेलि आसरे को कभी राखता न, 
दरखत ही के आसरे को बेलि पावैगी
मेरे तो लायक जो था कहना सो कहा मैंने,
रघुनाथ मेरी मति न्याव ही की गावैगी।
वह मुहताज आपकी है, आप उसके न,
आप क्यों चलोगे? वह आप पास आवैगी
31. दूलह,ये कालिदास त्रिवेदी के पौत्र और उदयनाथ 'कवींद्र' के पुत्र थे। ऐसा जान पड़ता है कि ये अपने पिता के सामने ही अच्छी कविता करने लगे थे। ये कुछ दिनों तक अपने पिता के समसामयिक रहे। कवींद्र के रचे ग्रंथ 1804 तक के मिले हैं। अत: इनका कविताकाल संवत् 1800 से लेकर संवत् 1825 के आसपास तक माना जा सकता है। इनका बनाया एक ही ग्रंथ 'कविकुलकंठाभरण' मिला है जिसमें निर्माणकाल नहीं दिया है। पर इनके फुटकल कवित्त और भी सुने जाते हैं। 
'कविकुलकंठाभरण' अलंकार का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसमें यद्यपि लक्षण और उदाहरण एक ही पद में कहे गए हैं, पर कवित्त और सवैया के समान बड़े छंद लेने से अलंकार-स्वरूप और उदाहरण दोनों के सम्यक् कथन के लिए पूरा अवकाश मिला है। भाषाभूषण आदि दोहों में रचे हुए इस प्रकार के ग्रंथों से इसमें यही विशेषता है। इसके द्वारा सहज में अलंकारों का चलता बोध हो सकता है। इसी से दूलहजी ने इसके संबंध में आप कहा है,
जो या कंठाभरण को कंठ करै चित लाय।
सभा मध्य सोभा लहै अलंकृती ठहराय
इनके कविकुलकंठाभरण में केवल 85 पद्य हैं। फुटकल जो कवित्त मिलते हैं वे अधिक से अधिक 15 या 20 होंगे। अत: इनकी रचना बहुत थोड़ी है, पर थोड़ी होने पर भी उसने इन्हें बड़े अच्छे प्रतिभासम्पन्न कवियों की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया है। देव, दास, मतिराम आदि के साथ दूलह का भी नाम लिया जाता है। इनकी इस सर्वप्रियता का कारण इनकी रचना की मधुर कल्पना, मार्मिकता और प्रौढ़ता है। इनके वचन अलंकारों के प्रमाण में भी सुनाए जाते हैं और सहृदय श्रोताओं के मनोरंजन के लिए भी। किसी कवि ने इन पर प्रसन्न होकर यहाँ तक कहा है कि 'और बराती सकल कवि, दूलह दूलहराय'। 
इनकी रचना के कुछ उदाहरण देखिए,
माने सनमाने तेइ माने सनमाने सन, 
माने सनमाने सनमान पाइयतु है।
कहैं कवि दूलह अजाने अपमाने, 
अपमान सों सदन तिनही को छाइयतु है
जानत हैं जेऊ तेऊ जात हैं विराने द्वार,
जानि बूझि भूले तिनको सुनाइयतु है।
कामबस परे कोऊ गहत गरूर तौ वा,
अपनी जरूर जाजरूर जाइयतु है

धारी जब बाँहीं तब करी तुम 'नाहीं', 
पायँ दियौ पलिकाही, 'नाहीं नाहीं' कै सुहाई हौ।
बोलत मैं नाहीं, पट खोलत मैं नाहीं, कवि 
दूलह उछाही लाख भाँतिन लहाई हौ
चुंबन में नाहीं परिरंभन में नाहीं, सब 
आसन बिलासन में नाहीं ठीक ठाई हौ।
मेलि गलबाहीं, केलि कीन्हीं चितचाही, यह
'हाँ' ते भली 'नाहीं' सो कहाँ न सीखि आई हौ

उरज उरज धाँसे, बसे उर आड़े लसे, 
बिन गुन माल गरे धारे छवि छाए हौ।
नैन कवि दूलह हैं राते, तुतराते बैन, 
देखे सुने सुख के समूह सरसाए हौ।
जावक सों लाल भाल, पलकन पीकलीक, 
प्यारे ब्रजचंद सुचि सूरज सुहाए हौ।
होत अरुनोद यहि कोद मति बसी आजु,
कौन घरबसी घर बसी करि आए हौ?

सारी की सरौट सब सारी में मिलाय दीन्हीं, 
भूषन की जेब जैसे जेब जहियतु है।
कहै कवि दूलह छिपाए रदछद मुख, 
नेह देखे सौतिन की देह दहियतु है
बाला चित्रसाला तें निकसि गुरुजन आगे, 
कीन्हीं चतुराई सो लखाई लहियतु है। 
सारिका पुकारै हम नाहीं, हम नाहीं
'एजू! राम राम कहौ', 'नाहीं नाहीं', कहियतुहै

फल विपरीत को जतन सों, 'विचित्र', 
हरि ऊँचे होत वामन भे बलि के सदन में। 
आधार बड़े तें बड़ो आधोय 'अधिक' जानौ, 
चरन समायो नाहिं चौदहो भुवन में
आधोय अधिक तें आधार की अधिकताई, 
'दूसरो अधिक' आयो ऐसो गननन में।
तीनों लोक तन में, अमान्यो ना गगन में।
बसैं ते संत मन में कितेक कहौ, मन में
32. कुमारमणिभट्ट इनका कुछ वृत्त ज्ञात नहीं। इन्होंने संवत् 1803 के लगभग 'रसिकरसाल' नामक एक बहुत अच्छा रीतिग्रंथ बनाया। ग्रंथ में इन्होंने अपने को हरिबल्लभ का पुत्र कहा है। शिवसिंह ने इन्हें गोकुलवासी कहा है। इनका सवैया देखिए,
गावैं बधू मधुरै सुर गीतन प्रीतम संग न बाहिर आई।
छाई कुमार नई छिति में छबि मानो बिछाई नई दरियाई
ऊँचे अटा चढ़ि देखि चहूँ दिसि बोली यों बाल गरो भरिआई।
कैसी करौं हहरैं हियरा, हरि आए नहीं उलही हरियाई
33. शंभुनाथ मिश्र इस नाम के कई कवि हुए हैं जिनमें से एक संवत् 1806 में, दूसरे 1867 में, तीसरे 1901 में हुए हैं। यहाँ प्रथम का उल्लेख किया जाता है, जिन्होंने 'रसकल्लोल', 'रसतरंगिणी' और 'अलंकारदीप' नामक तीन रीतिग्रंथ बनाए हैं। ये 'असोथर (जिला फतेहपुर) के राजा भगवंतराय खीची के यहाँ रहते थे।' 'अलंकारदीप' में अधिकतर दोहे हैं, कवित्त सवैया कम। उदाहरण श्रृंगारवर्णन में अधिक प्रयुक्त न होकर आश्रयदाता के यश और प्रतापवर्णन में अधिक प्रयुक्त हैं। एक कवित्त दिया जाता है,
आजु चतुरंग महाराज सेन साजत ही, 
धौंसा की धुकार धूरि परी मुँह माही के।
भय के अजीरन तें जीरन उजीर भए, 
सूल उठी उर में अमीर जाही ताही के
बीर खेत बीच बरछी लै बिरुझानो, इतै
धीरज न रह्यो संभु कौन हू सिपाही के।
भूप भगवंत बीर ग्वाही कै खलक सब, 
स्याही लाई बदन तमाम पातसाही के
34. शिवसहायदास ये जयपुर के रहनेवाले थे। इन्होंने संवत् 1809 में 'शिवचौपाई' और 'लोकोक्तिरस कौमुदी' दो ग्रंथ बनाए। लोकोक्तिरस कौमुदी में विचित्रता यह है कि पखानों या कहावतों को लेकर नायिकाभेद कहा गया है झ्र जैसे
करौ रुखाई नाहिंन बाम। बेगिहिं लै आऊँ घनस्याम
कहै पखानो भरि अनुराग। बाजी ताँत की बूझ्यो राग
बोलै निठुर पिया बिनु दोस। आपुहि तिय बैठी गहि रोस
कहै पखानो जेहि गहि मोन। बैल न कूद्यौ, कूदी गोन
35. रूपसाहि ये पन्ना के रहनेवाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इन्होंने संवत् 1813 में 'रूपविलास' नामक ग्रंथ लिखा जिसमें दोहे में ही कुछ पिंगल, कुछ अलंकार, नायिकाभेद आदि हैं। दो दोहे नमूने के लिए दिए जाते हैं,
जगमगाति सारी जरी झलमल भूषन जोति। 
भरी दुपहरी तिया की भेंट पिया सों होति
लालन बेगि चलौ न क्यों बिना तिहारे बाल।
मार मरोरनि सो मरति करिए परसि निहाल
36. ऋषिनाथ ये असनी के रहने वाले बंदीजन, प्रसिद्ध कवि ठाकुर के पिता और सेवक के प्रपितामह थे। काशिराज के दीवान सदानंद और रघुबर कायस्थ के आश्रय में इन्होंने 'अलंकारमणिमंजरी' नाम की एक अच्छी पुस्तक बनाई जिसमें दोहों की संख्या अधिक है, यद्यपि बीच बीच में घनाक्षरी और छप्पय भी हैं। इसका रचना काल संवत् 1831 है जिससे यह इनकी वृध्दावस्था का ग्रंथ जान पड़ता है। इनका कविताकाल संवत् 1790 से 1831 तक माना जा सकता है। कविता ये अच्छी करते थे। एक कवित्त दिया जाता है,
छाया छत्र ह्वै करि करति महिपालन को, 
पालन को पूरो फैलो रजत अपार ह्वै।
मुकुत उदार ह्वै लगत सुख श्रौनन में, 
जगत जगत हंस, हास, हीरहार ह्वै
ऋषिनाथ सदानंद सुजस बिलंद, 
तमवृंद के हरैया चंद्रचंद्रिका सुढार ह्वै, 
हीतल को सीतल करत घनसार ह्वै, 
महीतल को पावन करत गंगधार ह्वै
37. बैरीसाल ये असनी के रहने वाले ब्रह्मभट्ट थे। उनके वंशधर अब तक असनी में हैं। इन्होंने 'भाषाभरण' नामक एक अच्छा अलंकारग्रंथ संवत् 1825 में बनाया जिसमें प्राय: दोहे ही हैं। दोहे बहुत सरस हैं और अलंकारों के अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। दो दोहे उध्दृत किए जाते हैं,
नहिं कुरंग नहिं ससक यह, नहिं कलंक नहिं पंक।
बीस बिसे बिरहा वही, गही दीठि ससि अंक
करत कोकनद मदहि रद, तुव पव हर सुकुमार।
भए अरुन अति दबि मनो पायजेब के भार
38. दत्ता,ये माढ़ी (जिला कानपुर) के रहने वाले ब्राह्मण थे और चरखारी के महाराज खुमान सिंह के दरबार में रहते थे। इनका कविताकाल संवत् 1830 माना जा सकता है। इन्होंने 'लालित्यलता' नाम की एक अलंकार की पुस्तक लिखी है जिससे ये बहुत अच्छे कवि जान पड़ते हैं। एक सवैया दिया जाता है,
ग्रीषम में तपै भीषम भानु, गई बनकुंज सखीन की भूल सों।
घाम सों बामलता मुरझानी, बयारि करैं घनश्याम दुकूल सों
कंपत यों प्रगटयो तन स्वेद उरोजन दत्ता जू ठोड़ी के मूल सों।
द्वै अरविंद कलीन पै मानो गिरै मकरंद गुलाल के फूल सों
39. रतनकवि इनका वृत्त कुछ ज्ञात नहीं। शिवसिंह ने इनका जन्मकाल संवत् 1798 लिखा है। इससे इनका कविताकाल संवत् 1830 के आसपास माना जा सकता है। ये श्रीनगर (गढ़वाल) के राजा फतहसिंह के यहाँ रहते थे। उन्हीं के नाम पर 'फतेहभूषण्' नामक एक अच्छा अलंकार का ग्रंथ इन्होंने बनाया। इसमें लक्षणा, व्यंजना, काव्यभेद, ध्वनि, रस, दोष आदि का विस्तृत वर्णन है। उदाहरण में श्रृंगार के ही पद्य न रखकर इन्होंने अपने राजा की प्रशंसा के कवित्त बहुत रखे हैं। संवत् 1827 में इन्होंने 'अलंकारदर्पण' लिखा। इनका निरूपण भी विशद है और उदाहरण भी बहुत मनोहर और सरस है। ये एक उत्तम श्रेणी के कुशल कवि थे, इसमें संदेह नहीं । कुछ नमूने लीजिए,
बैरिन की बाहिनी को भीषन निदाघ रवि, 
कुबलय केलि को सरस सुधाकरु है। 
दान झरि सिंधुर है, जग को बसुंधार है, 
बिबुधा कुलनि को फलित कामतरु है
पानिप मनिन को, रतन रतनाकर को, 
कुबेर पुन्यजनन को, छमा महीधारु है।
अंग को सनाह, बनराह को रमा को नाह, 
महाबाह फतेसाह एकै नरबरु है

काजर की कोरवारे भारे अनियारे नैन, 
कारे सटकारे बार छहरे छवानि छ्वै।
स्याम सारी भीतर भभक गोरे गातन की, 
ओपवारी न्यारी रही बदन उजारी ह्वै
मृगमद बेंदी भाल में दी, याही आभरन, 
हरन हिए को तू है रंभा रति ही अवै।
नीके नथुनी के तैसे सुंदर सुहात मोती, 
चंद पर च्वै रहै सु मानो सुधाबुंद द्वै
40. नाथ (हरिनाथ),ये काशी के रहनेवाले गुजराती ब्राह्मण थे। इन्होंने संवत् 1826 में 'अलंकारदर्पण' नामक एक छोटा सा ग्रंथ बनाया जिसमें एक एक पद के भीतर कई कई उदाहण हैं। इनका क्रम औरों से विलक्षण है। ये पहले अनेक दोहों में बहुत से लक्षण कहते गए हैं फिर एक साथ सबके उदाहरण कवित्त आदि में देते गए हैं। कविता साधारणत: अच्छी है। एक दोहा देखिए,
तरुनी लसति प्रकास तें मालति लसति सुबास।
गोरस गोरस देत नहिं गोरस चहति हुलास
41. मनीराम मिश्र ये कन्नौज निवासी इच्छाराम मिश्र के पुत्र थे। इन्होंनेसंवत् 1829 में 'छंदछप्पनी' और 'आनंदमंगल' नाम की दो पुस्तकें लिखीं। 'आनंदमंगल'भागवत दशम स्कंध का पद्य में अनुवाद है। 'छंदछप्पनी' छंदशास्त्र का बड़ा ही अनूठा ग्रंथहै।
42. चंदन ये नाहिल पुवायाँ (जिला शाहजहाँपुर) के रहनेवाले बंदीजन थे और गौड़ राजा केशरीसिंह के पास रहा करते थे। 'श्रृंगारसागर', 'काव्याभरण', 'कल्लोलतरंगिणी' ये तीन रीतिग्रंथ लिखे। इनके अतिरिक्त इनके निम्नलिखित ग्रंथ और हैं,
(1) केसरीप्रकाश, (2) चंदन सतसई, (3) पथिकबोध, (4) नखशिख, 
(5) नाममाला (कोश), (6) पत्रिकाबोध, (7) तत्वसंग्रह, (8) सीतबसंत (कहानी), (9) कृष्णकाव्य, (10) प्राज्ञविलास।
ये एक अच्छे चलते कवि जान पड़ते हैं। इन्होंने 'काव्याभरण' संवत् 1845 में लिखा। फुटकल रचना तो इनकी अच्छी है ही। सीतबसंत की कहानी भी इन्होंने प्रबंध काव्य के रूप में लिखी है। सीतबसंत की रोचक कहानी इन प्रांतों में बहुत प्रचलित है। उसमें विमाता के अत्याचार से पीड़ित सीतबसंत नामक दो राजकुमारों की बड़ी लंबी कथा है। इनकी पुस्तकों की सूची देखने से यह धारणा होती है कि इनकी दृष्टि रीतिग्रंथों तक ही बद्ध न रहकर साहित्य के और अंगों पर भी थी।
ये फारसी के भी अच्छे शायर थे और अपना तखल्लुस 'संदल' रखते थे। इनका 'दीवाने संदल' कहीं कहीं मिलता है। इनका कविताकाल संवत् 1820 से 1850 तक माना जा सकता है। इनका एक सवैया नीचे दिया जाता है,
ब्रजवारी गँवारी दै जानै कहा, यह चातुरता न लुगायन में।
पुनि बारिनी जानि अनारिनी है, रुचि एती न चंदन नायन में
छबि रंग सुरंग के बिंदु बने, लगै इंद्रबधू लघुतायन में।
चित जो चहैं दी चकि सी रहैं दी, केहि दी मेहँदी इन पाँयन में
43. देवकीनंदन दये कन्नौज के पास मकरंदनगर ग्राम के रहनेवाले थे। इनके पिता का नाम सषली शुक्ल था। इन्होंने संवत् 1841 में 'श्रृंगारचरित्र' और 1857 मंत 'अवधूतभूषण' और 'सरफराजचंद्रिका' नामक रस और अलंकार के ग्रंथ बनाए। संवत् 1843 में ये कुँवर सरफराज गिरि नामक किसी धानाढय महंत के यहाँ थे जहाँ इन्होंने 'सरफराजचंद्रिका' नामक अलंकार का ग्रंथ लिखा। इसके उपरांत ये रुद्दामऊ (जिला हरदोई) के रईस अवधूत सिंह के यहाँ गए जिनके नाम पर 'अवधूतभूषण' बनाया। इनका एक नखशिख भी है। शिवसिंह को इनके इस नखशिख का ही पता था, दूसरे ग्रंथों का नहीं। 
'श्रृंगारचरित्र' में रस, भाव, नायिकाभेद आदि के अतिरिक्त अलंकार भी आ गए हैं। 'अवधूतभूषण' वास्तव में इसी का कुछ प्रवर्धित रूप है। इनकी भाषा मँजी हुई और भाव प्रौढ़ हैं। बुद्धि वैभव भी इनकी रचना में पाया जाता है। कहीं कहीं कूट भी इन्होंने कहे हैं। कलावैचित्रय की ओर अधिक झुकी हुई होने पर भी इनकी कविता में लालित्य और माधुर्य पूरा है। दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं,
बैठी रंग रावटी में हेरत पिया की बाट, 
आए न बिहारी भई निपट अधीर मैं। 
देवकीनंदन कहै स्याम घटा घिरि आई, 
जानि गति प्रलय की डरानी बहु, बीर मैं
सेज पै सदासिव की मूरति बनाय पूजी, 
तीनि डर तीनहू की करी तदबीर मैं।
पाखन में सामरे, सुलाखन में अखैवट, 
ताखन में लाखन की लिखी तसवीर मैं

मोतिन की माल तोरि चीर सब चीरि डारै, 
फेरि कै न जैहौं आली, दुख बिकरारे हैं।
देवकीनंदन कहै धोखे नागछौनन के, 
अलकैं प्रसून नोचि नोचि निरबारे हैं
मानि मुख चंदभाव चोंच दई अधारन, 
तीनौ ये निकुंजन में एकै तार तारे हैं।
ठौर ठौर डोलत मराल मतवारे, तैसे, 
मोर मतवारे त्यों चकोर मतवारे हैं
44. महाराज रामसिंह,ये नरवलगढ़ के राजा थे। इन्होंने रस और अलंकार पर तीन ग्रंथ लिखे हैं अलंकार दर्पण, रसनिवास (संवत् 1839) और रसविनोद (संवत् 1860)। अलंकार दर्पण दोहों में है। नायिकाभेद भी अच्छा है। ये एक अच्छे और प्रवीण कवि थे। उदाहरण लीजिए,
सोहत सुंदर स्याम सिर, मुकुट मनोहर जोर।
मनो नीलमनि सैल पर, नाचत राजत मोर
दमकन लागी दामिनी, करन लगे घन रोर।
बोलति माती कोइलै, बोलत माते मोर
45. भान कवि इनके पूरे नाम तक का पता नहीं। इन्होंने संवत् 1845 में 'नरेंद्रभूषण' नामक अलंकार का एक ग्रंथ बनाया जिससे केवल इतना ही पता लगता है कि ये राजा जोरावरसिंह के पुत्र थे और राजा रनजोरसिंह बुंदेल के यहाँ रहते थे। इन्होंने अलंकारों के उदाहरण श्रृंगाररस के प्राय: बराबर ही वीर, भयानक, अद्भुत आदि रसों के रखे हैं। इससे इनके ग्रंथ में कुछ नवीनता अवश्य दिखाई पड़ती है जो श्रृंगार के सैकड़ों वर्ष के पिष्टपेषण से ऊबे हुए पाठक को विराम सा देती है। इनकी कविता में भूषण की सी फड़क और प्रसिद्ध शृंगारियों की सी तन्मयता और मधुरता तो नहीं है, पर रचना प्राय: पुष्ट और परिमार्जित है,
रनमतवारे ये जोरावर दुलारे तव, 
बाजत नगारे भए गालिब दिगीस पर। 
दल के चलत खर भर होत चारों ओर, 
चालति धारनि भारी भार सों फनीस पर
देखि कै समर सनमुख भयो ताहि समै,
बरनत भान पैज कै कै बिसे बीस पर।
तेरी समसेर की सिफत सिंह रनजोर, 
लखी एकै साथ हाथ अरिन के सीस पर

घन से सघन स्याम, इंदु पर छाय रहे, 
बैठी तहाँ असित द्विरेफन की पाँति सी।
तिनके समीप तहाँ खंज की सी जोरी, लाल!
आरसी से अमल निहारे बहु भाँति सी
ताके ढिग अमल ललौहैं बिबि विदु्रम से, 
फरकति ओप जामैं मोतिन की कांतिसी।
भीतर से कढ़ति मधुर बीन कैसी धुनि, 
सुनि करि भान परि कानन सुहाति सी
46. थान कवि ये चंदन बंदीजन के भानजे थे और डौंड़ियाखेरे (जिला रायबरेली) में रहते थे। इनका पूरा नाम थानराय था। इनके पिता निहालराय, पितामह महासिंह और प्रपितामह लालराय थे। इन्होंने संवत् 1848 में 'दलेलप्रकाश' नामक एक रीतिग्रंथ चँड़रा (बैसवारा) के रईस दलेल सिंह के नाम पर बनाया। इस ग्रंथ में विषयों का कोई क्रम नहीं है। इसमें गणविचार, रस, भाव भेद, गुण दोष आदि का कुछ निरूपण है और कहीं कहीं अलंकारों के कुछ लक्षण आदि भी दे दिए गए हैं। कहीं रागरागिनियों के नाम आए, तो उनके भी लक्षण कह दिए। पुराने टीकाकारोंकी सी गति है। अंत में चित्रकाव्य भी रखे हैं। सारांश यह कि इन्होंने कोई सर्वांगपूर्ण ग्रंथ बनाने के उद्देश्य से इसे नहीं लिखा है। अनेक विषयों में अपनी निपुणता का प्रमाण सा इन्होंने उपस्थित किया है। ये इसमें सफल हुए हैं, यह अवश्य कहना पड़ता है कि जो विषय लिया है उस पर उत्तम कोटि की रचना की है। भाषा में मंजुलता और लालित्य है। Ðस्व वर्णों की मधुर योजना इन्होंने सुंदर की है। यदि अपने ग्रंथ को इन्होंने भानमती का पिटारा न बनाया होता और एक ढंग पर चले होते तो इनकी बड़े कवियों की सी ख्याति होती; इसमें संदेह नहीं। इनकी रचना के दो नमूने देखिए,
दासन पै दाहिनी परम हंसवाहिनी हौ, 
पोथी कर, वीना सुरमंडल मढ़त है।
आसन कँवल, अंग अंबर धवल, 
मुख चंद सो अंवल, रंग नवल चढ़त है
ऐसी मातु भारती की आरति करत थान, 
जाको जस बिधि ऐसो पंडित पढ़त है।
ताकी दयादीठि लाख पाथर निराखर के, 
मुख ते मधुर मंजु आखर कढ़त है

कलुषहरनि सुखकरनि सरनजन
बरनि बरनि जस कहत धारनिधार।
कलिमलकलित बलित अघ खलगन,
लहत परमपद कुटिल कपटतर
मदनकदन सुरसदन बदन ससि, 
अमल नवल दुति भजन भगतवर।
सुरसरि! तव जल दरस परस करि, 
सुरसरि! सुभगति लहत अधम नर
47. बेनी बंदीजन ये बैंती (जिला रायबरेली) के रहनेवाले थे और अवध के प्रसिद्ध वजीर महाराज टिकैत राय के आश्रय में रहते थे। उन्हीं के नाम पर इन्होंने 'टिकैतरायप्रकाश' नामक अलंकारग्रंथ, संवत् 1849 में बनाया। अपने दूसरे ग्रंथ 'रसविलास' में इन्होंने रसनिरूपण किया है। ये अपने दोनों ग्रंथों के कारण इतने प्रसिद्ध नहीं हैं जितने कि अपने भँड़ौवों के लिए। इनके भँड़ौवों का एक संग्रह 'भँड़ौवासंग्रह' के नाम से 'भारत जीवन प्रेस' द्वारा प्रकाशित हो चुका है।
भँड़ौवा हास्यरस के अंतर्गत आता है। इसमें किसी की उपहासपूर्ण निंदा रहती है। यह प्राय: सब देशों में साहित्य का अंग रहा है। जैसे फारसी और उर्दू की शायरी में 'हजो' का एक विशेष स्थान है वैसे ही अंग्रेजी में सटायर (ेंजपतम) का। पूरबी साहित्य में 'उपहासकाव्य' के लक्ष्य अधिकतर कंजूस अमीर या आश्रयदाता ही रहे हैं और योरपीय साहित्य में समसामयिक कवि और लेखक। इसमें योरप के उपहास काव्य में साहित्यिक मनोरंजन की सामग्री अधिक रहती थी। उर्दू साहित्य में सौदा 'हजो' के लिए प्रसिद्ध है। उन्होंने किसी अमीर के दिए घोड़े की इतनी हँसी की है कि सुननेवाले लोटपोट हो जाते हैं। इसी प्रकार किसी कवि ने औरंगजेब की दी हुई हथिनी की निंदा की है,
तिमिरलंग लइ मोल, चली बाबर के हलके।
रही हुमायूँ संग फेरि अकबर के दल के
जहाँगीर जस लियो पीठि को भार हटायो।
साहजहाँ करि न्याव ताहि पुनि माँड़ि चटायो
बलरहित भई पौरुष थक्यो, भगी फिरत बन स्यार डर।
औरंगजेब करिनी सोई लै दीन्हीं कविराज कर
इस पद्ध ति के अनुयायी बेनीजी ने भी कहीं बुरी रजाई पाई तो उसकी निंदा की, कहीं छोटे आम पाए तो उसकी निंदा जी खोल कर की।
पर जिस प्रकार उर्दू के शायर कभी कभी दूसरे कवि पर भी छींटा दे दिया करते हैं उसी प्रकार बेनीजी ने भी लखनऊ के ललकदास महंत (इन्होंने 'सत्योपाख्यान' नामक एक ग्रंथ लिखा है, जिसमें रामकथा बड़े विस्तार से चौपाइयों में कही है) पर कुछ कृपा की है। जैसे 'बाजे बाज ऐसे डलमऊ में बसंत जैसे मऊ के जुलाहे, लखनऊ के ललकदास'। इनका 'टिकैतप्रकाश' संवत् 1849 में और 'रसविलास' संवत् 1874 में बना। अत: इनका कविताकाल संवत् 1849 से 1880 तक माना जा सकता है। इनकी कविता के कुछ नमूने देखिए,
अलि डसे अधार सुगंधा पाय आनन को, 
कानन में ऐसे चारु चरन चलाए हैं।
फटि गई कंचुकी लगे तें कंट कुंजन के, 
बेनी बरहीन खोली, बार छबि छाए हैं
बेग तें गवन कीनी, धाक धाक होत सीनो,
ऊरधा उसासैं तन सेद सरसाए हैं।
भली प्रीति पाली बनमाली के बुलाइबे को, 
मेरे हेत आली बहुतेरे दुख पाए हैं

घर घर घाट घाट बाट बाट ठाट ठटे, 
बेला औ कुबेला फिरै चेला लिए आस पास।
कविन सौ बाद करैं, भेद बिन नाद करैं, 
महा उनमाद करैं, धरम करम नास
बेनी कवि कहैं बिभिचारिन को बादसाह, 
अतन प्रकासत न सतन सरम तास।
ललना ललक, नैन मैन की झलक, 
हँसि हेरत अलक रद खलक ललकदास

चींटी को चलावै को? मसा के मुख आपु जाय, 
स्वास की पवन लागे कोसन भगत है।
ऐनक लगाए मरु मरु के निहारे जात, 
अनु परमानु की समानता खगत है
बेनी कवि कहै हाल कहाँ लौं बखान करौं 
मेरी जान ब्रह्म को बिचारिबो सुगत है।
ऐसे आम दीन्हें दयाराम मन मोद करि, 
जाके आगे सरसों सुमेरु सी लगत है
48. बेनी प्रवीन ये लखनऊ के वाजपेयी थे और लखनऊ के बादशाह गाजीउद्दीन हैदर के दीवान राजा दयाकृष्ण कायस्थ के पुत्र नवलकृष्ण उर्फ ललन जी के आश्रय में रहते थे जिनकी आज्ञा से संवत् 1874 में इन्होंने 'नवरसतरंग' नामक ग्रंथ बनाया। इसके पहले 'श्रृंगारभूषण' नामक एक ग्रंथ ये बना चुके थे। ये कुछ दिन के लिए महाराज नानाराव के पास बिठूर भी गए थे और उनके नाम पर 'नानारावप्रकाश' नामक अलंकार का एक बड़ा ग्रंथ कविप्रिया के ढंग पर लिखा था। खेद है इनका कोई ग्रंथ अब तक प्रकाशित न हुआ। इनके फुटकल कवित्त तो इधर उधर बहुत कुछ संगृहीत और उध्दृत मिलते हैं। कहते हैं कि बेनी बंदीजन (भँड़ौवावाले) से इनसे एक बार कुछ वाद हुआ था जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने इन्हें 'प्रवीन' की उपाधि दी थी। पीछे से रुग्ण होकर ये सपत्नीक आबू चले गए और वहीं इनका शरीरपात हुआ। इन्हें कोई पुत्र न था।
इनका 'नवरसतरंग' बहुत ही मनोहर ग्रंथ है। उसमें नायिकाभेद के उपरांत रसभेद और भावभेद का संक्षेप में निरूपण हुआ है। उदाहरण और रसों के भी दिए हैं पर रीतिकाल के रस संबंधी और ग्रंथों की भाँति यह श्रृंगार का ही ग्रंथ है। इनमें नायिकाभेद के अंतर्गत प्रेमक्रीड़ा की बहुत ही सुंदर कल्पनाएँ भरी पड़ी हैं। भाषा इनकी बहुत साफ सुथरी और चलती है, बहुतों की भाषा की तरह लद्दू नहीं। ऋतुओं के वर्णन भी उद्दीपन की दृष्टि से जहाँ तक रमणीय हो सकते हैं किए गए हैं, जिनमें प्रथानुसार भोगविलास की सामग्री भी बहुत कुछ आ गई है। अभिसारिका आदि कुछ नायिकाओं के वर्णन बड़े ही सरस हैं। ये ब्रजभाषा के मतिराम ऐसे कवियों के समकक्ष हैं और कहीं कहीं तो भाषा और भाव के माधुर्य में पद्माकर तक से टक्कर लेते हैं। जान पड़ता है, श्रृंगार के लिए सवैया ये विशेष उपयुक्त समझते थे। कविता के कुछ नमूने उध्दृत किए जाते हैं,
भोर ही न्योति गई ती तुम्है वह गोकुल गाँव की ग्वालिनि गोरी।
आधिक राति लौं बेनी प्रवीन कहा ढिग राखि करी बरजोरी
आवै हँसी मोहिं देखत लालन, भाल में दीन्हीं महावर घोरी।
एते बड़े ब्रजमंडल में न मिली कहुँ माँगेहु रंचक रोरी
जान्यौं न मैं ललिता अलि ताहि जो सोवत माँहि गई करि झाँसी।
लाए हिए नख केहरि के सम, मेरी तऊ नहिं नींद बिनाँसी
लै गयी अंबर बेनी प्रवीन ओढ़ाय लटी दुपटी दुखरासी।
तोरि तनी, तन छोरि अभूषन भूलि गई गर देन को फाँसी
घनसार पटीर मिलै मिलै नीर चहै तन लावै न लावै चहै।
न बुझे बिरहागिन झार, झरी हू चहै घन लागे न लावै चहै
हम टेरि सुनावतिं बेनी प्रवीन चहै मन लावै, न लावै चहै।
अब आवै बिदेस तें पीतम गेह चहै धान लावै, न लावै चहै
काल्हि की गूँथी बाबा की सौं मैं गजमोतिन की पहिरी अतिआला।
आई कहाँ ते यहाँ पुखराज की, संग एई जमुना तट बाला
न्हात उतारी हौं बेनी प्रवीन, हसैं सुनि बैनन नैन रसाला।
जानति ना अंग की बदली, सब सों, 'बदली-बदली' कहै माला

सोभा पाई कुंज भौन जहाँ जहाँ कीन्हों गौन, 
सरस सुगंधा पौन पाई मधुपनि है।
बीथिन बिथोरे मुकताहल मराल पाए,
आली दुसाल साल पाए अनगनि हैं
रैन पाई चाँदनी फटक सी चटक रुख, 
सुख पायो पीतम प्रबीन बेनी धानि है।
बैन पाई सारिका, पढ़न लागी कारिका, 
सो आई अभिसारिका कि चारु चिंतामनि है
49. जसवंत सिंह द्वितीय ये बघेल क्षत्रिय और तेरवाँ (कन्नौज के पास) के राजा थे और बड़े विद्याप्रेमी थे। इनके पुस्तकालय में संस्कृत और भाषा के बहुतसे ग्रंथ थे। इनका कविताकाल संवत् 1856 अनुमान किया गया है। इन्होंने दो ग्रंथ लिखे एक 'शालिहोत्रा' और दूसरा 'श्रृंगारशिरोमणि'। यहाँ इसी दूसरे ग्रंथ से प्रयोजन है, जो श्रृंगाररस का एक बड़ा ग्रंथ है। कविता साधारण है। एक कवित्त देखिए,
घनन के घोर, सोर चारों ओर मोरन के, 
अति चितचोर तैसे अंकुर मुनै रहैं। 
कोकिलन कूक हूक होति बिरहीन हिय, 
लूक से लगत चीर चारन चुनै रहैं
झिल्ली झनकार तैसो पिकन पुकार डारी, 
मारि डारी डारी दु्रम अंकुर सु नै रहैं।
लुनै रहैं प्रान प्रानप्यारे जसवंत बिनु, 
कारे पीरे लाल ऊदे बादर उनै रहैं
50. यशोदानंदन इनका कुछ भी वृत्त ज्ञात नहीं। शिवसिंहसरोज में इनका जन्म संवत् 1828 लिखा पाया जाता है। इनका एक छोटासा ग्रंथ 'बरवै नायिका भेद' ही मिलता है जो निस्संदेह अनूठा है और रहीम वाले से अच्छा नहीं तो उसकी टक्कर का है। इनमें 9 बरवै संस्कृत में और 53 ठेठ अवधी भाषा में हैं। अत्यंत मृदु और कोमल भाव अत्यंत सरल और स्वाभाविक रीति से व्यंजित हैं। भावुकता ही कवि की प्रधान विभूति है। इस दृष्टि से इनकी यह छोटी सी रचना बहुत ही बड़ी बड़ी रचनाओं से मूल्य में बहुत अधिक है। कवियों की श्रेणी में ये निस्संदेह उच्च स्थान के अधिकारी हैं। इनके बरवै के नमूने देखिए,
(संस्कृत) यदि च भवति बुधामिलनं किं त्रिादिवेन।
यदि च भवति शठमिलनं किं निरयेण

(भाषा) अहिरिनि मन कै गहिरिनि उतरु न देइ।
नैना करै मथनिया, मन मथि लेइ
तुरकिनि जाति हुरुकिनी अति इतराइ।
छुवन न देइ इजरवा मुरि मुरि जाइ
पीतम तुम कचलोइया हम गजबेलि।
सारस के असि जोरिया फिरौं अकेलि
51. करन कवि ये षट्कुल कान्यकुब्जों के अंतर्गत पाँड़े थे और छत्रसाल के वंशधर पन्नानरेश महाराज हिंदूपति की सभा में रहते थे। इनका कविताकाल संवत् 1860 के लगभग माना जा सकता है। इन्होंने 'साहित्यरस' और 'रसकल्लोल' नामक दो रीतिग्रंथ लिखे हैं। 'साहित्यरस' में इन्होंने लक्षणा, व्यंजना,ध्वनिभेद, रसभेद, गुण दोष आदि काव्य के प्राय: सब विषयों का विस्तार से वर्णन किया है। इस दृष्टि से यह एक उत्तम रीतिग्रंथ है। कविता भी इनकी सरस और मनोहर है। इससे इनका एक सुविज्ञ कवि होना सिद्ध होता है। एक कवित्त देखिए,
कंटकित होत गात बिपिन समाज देखि, 
हरी हरी भूमि हेरि हियो लरजतु है। 
एते पै करन धुनि परति मयूरन की, 
चातक पुकारि तेह ताप सरजतु है
निपट चवाई भाई बंधु जे बसत गाँव, 
पाँव परे जानि कै न कोऊ बरजतु है।
अरज्यो न मानी तू न गरज्यो चलत बार, 
एरे घन बैरी! अब काहे गरजतु है

खल खंडन मंडन धारनि, उद्ध त उदित उदंड। 
दलमंडन दारुन समर, हिंदुराज भुजदंड
52. गुरदीन पांडे इनके संबंध में कुछ ज्ञात नहीं। इन्होंने संवत् 1860 में 'बागमनोहर' नामक एक बहुत ही बड़ा रीतिग्रंथ कविप्रिया की शैली पर बनाया। 'कविप्रिया' से इसमें विशेषता यह है कि इसमें पिंगल भी आ गया है। इस एक ही ग्रंथ में पिंगल, रस, अलंकार, गुण, दोष, शब्दशक्ति आदि सब कुछ अध्ययन के लिए रख दिया गया है। इससे वह साहित्य का एक सर्वांगपूर्ण ग्रंथ कहा जा सकता है। इसमें हर प्रकार के छंद हैं। संस्कृत के वर्णवृत्तों में बड़ी सुंदर रचना है। यह अत्यंत रोचक और उपादेय ग्रंथ है। कुछ पद्य देखिए,
मुखससी ससि दून कला धरे । कि मुकुतागन जावक में भरे।
ललितकुंदकलीअनुहारिके । दसन हैं वृषभानु कुमारि के
सुखद जंत्रा कि भाल सुहाग के । ललित मंत्र किधौं अनुरागके।
भ्रकुटियोंवृषभानुसुतालसै । जनु अनंग सरासन को हँसै
मुकुर तौ पर दीपति को धानी । ससि कलंकित, राहु बिथा घनी।
अपर ना उपमा जग में लहै । तव प्रिया! मुख के सम को कहै?
53. ब्रह्मदत्त ये ब्राह्मण थे और काशीनरेश महाराज उदितनारायण सिंह के छोटे भाई बाबू दीपनारायण सिंह के आश्रित थे। इन्होंने संवत् 1860 में 'विद्वद्विलास' और 1865 में 'दीपप्रकाश' नामक एक अच्छा अलंकार का ग्रंथ बनाया। इनकी रचना सरल और परिमार्जित है। आश्रयदाता की प्रशंसा में यह कवित्त देखिए,
कुसल कलानि में, करनहार कीरति को, 
कवि कोविदन को कलप तरुवर है।
सील सनमान बुद्धि विद्या को निधान ब्रह्म, 
मतिमान हंसन को मानसरवर है
दीपनारायन, अवनीप को अनुज प्यारो, 
दीन दुख देखत हरत हरबर है।
गाहक गुनी को, निरबाहक दुनी को नीको,
गनी गज बकस गरीबपरवर है
54. पद्माकर भट्ट रीतिकाल के कवियों में सहृदय समाज इन्हें बहुत श्रेष्ठ स्थान देता आया है। ऐसा सर्वप्रिय कवि इस काल के भीतर बिहारी को छोड़ दूसरा नहीं हुआ है। इनकी रचना की रमणीयता ही इस सर्वप्रियता का एकमात्र कारण है। रीतिकाल की कविता इनकी और प्रतापसाहि की वाणी द्वारा अपने पूर्ण उत्कर्ष को पहुँचकर फिर विकासोन्मुख हुई। अत: जिस प्रकार ये अपनी परंपरा के परमोत्कृष्ट कवि हैं उसी प्रकार प्रसिद्धि में अंतिम भी। देश में जैसा इनका नाम गूँजा वैसा फिर आगे चलकर किसी और कवि का नहीं।
ये तैलंग ब्राह्मण थे। इनके पिता मोहनलाल भट्ट का जन्म बाँदा में हुआ था। ये पूर्ण पंडित और अच्छे कवि भी थे। जिसके कारण इनका कई राजधानियों में अच्छा सम्मान हुआ था। ये कुछ दिनों तक नागपुर के महाराज रघुनाथ राव (अप्पा साहब) के यहाँ रहे, फिर पन्ना के महाराज हिंदूपति के गुरु हुए और कई गाँव प्राप्त किए। वहाँ से वे फिर जयपुर नरेश महाराजा प्रतापसिंह के यहाँ जा रहे जहाँ इन्हें 'कविराजशिरोमणि'की पदवी और अच्छी जागीर मिली। उन्हीं के पुत्र सुप्रसिद्ध पद्माकरजी हुए। पद्माकरजी का जन्म संवत् 1810 में बाँदा में हुआ। इन्होंने 80 वर्ष की आयु भोगकर अंत में कानपुर गंगातट पर संवत् 1890 में शरीर छोड़ा। ये कई स्थानों पर रहे। सुगरा के नोने अर्जुनसिंह ने इन्हें अपना मंत्रगुरु बनाया। संवत् 1849 में ये गोसाईं अनूपगिरि उपनाम हिम्मतबहादुर के यहाँ गए जो बड़े अच्छे योध्दा थे और पहले बाँदे के नवाब के यहाँ थे, फिर अवध बादशाह के यहाँ सेना के बड़े अधिकारी हुए थे। इनके नाम पर पद्माकरजी ने 'हिम्मतबहादुर विरुदावली' नाम की एक वीर रस की बहुत ही फड़कती हुई पुस्तक लिखी। संवत् 1856 में ये सितारे के महाराज रघुनाथ राव (प्रसिद्ध राघोवा) के यहाँ गए और एक हाथी, एक लाख रुपया और दस गाँव पाए। इसके उपरांत पद्माकरजी जयपुर के महाराज प्रतापसिंह के यहाँ पहुँचे और वहाँ बहुत दिनों तक रहे। महाराज प्रतापसिंह के पुत्र महाराज जगतसिंह के समय में भी ये बहुत काल तक जयपुर रहे और उन्हीं के नाम पर अपना प्रसिद्ध ग्रंथ 'जगद्विनोद' बनाया। ऐसा जान पड़ता है कि जयपुर में ही इन्होंने अपना अलंकार ग्रंथ 'पद्माभरण' बनाया जो दोहों में है। ये एक बार उदयपुर के महाराजा भीमसिंह के दरबार में भी गए थे जहाँ इनका बहुत अच्छा सम्मान हुआ था। महाराणा साहब की आज्ञा से इन्होंने 'गनगौर' के मेले का वर्णन किया था। महाराज जगतसिंह का परलोकवास संवत् 1860 में हुआ। अत: उसके अनंतर ये ग्वालियर के महाराज दौलत राव सेंधिया के दरबार में गए और यह कवित्त पढ़ा ,

मीनागढ़ बंबई सुमंद मंदराज बंग, 
बंदर को बंद करि बंदर बसावैगो।
कहै पदमाकर कसकि कासमीर हू को, 
पिंजर सों घेरि के कलिंजर छुड़ावैगो।
बाँका नृप दौलत अलीजा महाराज कबौं, 
साजि दल पकरि फिरंगिन दबावैगो।
दिल्ली दहपट्टि, पटना हू को झपट्ट करि,
कबहूँक लत्ता कलकत्ता को उड़ावैगो।
सेंधिया के दरबार में भी इनका अच्छा मान हुआ। कहते हैं कि वहाँ सरदार ऊदाजी के अनुरोध से इन्होंने हितोपदेश का भाषानुवाद किया था। ग्वालियर से ये बूँदी गए और वहाँ से फिर अपने घर बाँदे में आ रहे। आयु के पिछले दिनों में ये रोगग्रस्त रहा करते थे। उसी समय इन्होंने 'प्रबोधपचासा' नामक विराग और भक्तिरस से पूर्ण ग्रंथ बनाया। अंतिम समय निकट जान पद्माकरजी गंगा तट के विचार से कानपुर चले आए और वहीं अपने जीवन के शेष सात वर्ष पूरे किए। अपनी प्रसिद्ध 'गंगालहरी' इन्होंने इसी समय के बीच बनाई थी।
'रामरसायन' नामक वाल्मीकि रामायण का आधार लेकर लिखा हुआ एक चरितकाव्य भी इनका दोहे चौपाइयों में है पर उसमें इन्हें काव्यसंबंधिनी सफलता नहीं हुई है। संभव है वह इनका न हो।
मतिरामजी के 'रसराज' के समान पद्माकरजी का 'जगद्विनोद' भी काव्यरसिकों और अभ्यासियों दोनों का कंठहार रहा है। वास्तव में यह श्रृंगार रस का सारग्रंथसा प्रतीत होता है। इनकी मधुर कल्पना ऐसी स्वाभाविक और हावभावपूर्ण मूर्तिविधान करती है कि पाठक मानो प्रत्यक्ष अनुभूति में मग्न हो जाता है। ऐसी सजीव मूर्तिविधान करनेवाली कल्पना बिहारी को छोड़कर और किसी कवि में नहीं पाई जाती। ऐसी कल्पना के बिना भावुकता कुछ नहीं कर सकती, या तो वह भीतर ही भीतर लीन हो जाती है अथवा असमर्थ पदावली के बीच व्यर्थ फड़फड़ाया करती है। कल्पना और वाणी के साथ जिस भावुकता का संयोग होता है वही उत्कृष्ट काव्य के रूप में विकसित हो सकती है। भाषा की सब प्रकार की शक्तियों पर इस कवि का अधिकार दिखाई पड़ता है। कहीं तो इनकी भाषा स्निग्ध, मधुर पदावली द्वारा एक सजीव भावभरी प्रेममूर्ति खड़ी करती है, कहीं भाव या रस की धारा बहाती है, कहीं अनुप्रासों की मीलित झंकार उत्पन्न करती है, कहीं वीरदर्प से क्षुब्ध वाहिनी के समान अकड़ती हुई और कड़कती हुई चलती है और कहीं प्रशांत सरोवर के समान स्थिर और गंभीर होकर मनुष्य जीवन को विश्रांति की छाया दिखाती है। सारांश यह कि इनकी भाषा में वह अनेकरूपता है जो एक बड़े कवि में होनी चाहिए। भाषा की ऐसी अनेकरूपता गोस्वामी तुलसीदास जी में दिखाई पड़ती है। 
अनुप्रास की प्रवृत्ति तो हिन्दी के प्राय: सब कवियों में आवश्यकता से अधिक रही है। पद्माकरजी भी उनके प्रभाव से नहीं बचे हैं। पर थोड़ा ध्यान देने पर यह प्रवृत्ति इनमें अरुचिकर सीमा तक कुछ विशेष प्रकार के पद्यों में ही मिलेगी। जिनमें ये जानबूझकर शब्द चमत्कार प्रकट करना चाहते थे। अनुप्रास की दीर्घ श्रृंखला अधिकतर इनके वर्णनात्मक (डिस्क्रिप्टिव) पद्यों में पाई जाती है। जहाँ मधुर कल्पना के बीच सुंदर कोमल भावतरंग का स्पंदन है वहाँ की भाषा बहुत ही चलती, स्वाभाविक और साफ सुथरी है। वहाँ अनुप्रास भी है तो बहुत संयत रूप में। भावमूर्तिविधायिनी कल्पना का क्या कहना है? ये ऊहा के बल पर कारीगरी के मजमून बाँधाने के प्रयासी कवि न थे। हृदय की सच्ची स्वाभाविक प्रेरणा इनमें थी। लाक्षणिक शब्दों के प्रयोग द्वारा कहीं कहीं ये मन की अव्यक्त भावना को ऐसा मूर्तिमान कर देते हैं कि सुनने वालों का हृदय आप से आप हामी भरता है। यह लाक्षणिकता भी इनकी एक बड़ी भारी विशेषता है। 
पद्माकरजी की कविता के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं , 
फागु की भीर, अभीरिन में गहि गोंवदै लै गई भीतर गोरी।
भाई करी मन की पद्माकर, ऊपर नाई अबीर की झोरी
छीनि पितंबर कम्मर तें सु बिदा दई मीड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाय कही मुसुकाय, 'लला फिर आइयो खेलन होरी'

आई संग आलिन के ननद पठाई नीठि, 
सोहत सोहाई सीस ईड़री सुपट की। 
कहैं पद्माकर गंभीर जमुना के तीर, 
लागी घट भरन नवेली नेह अटकी।
ताही समै मोहन जो बाँसुरी बजाई, तामें,
मधुर मलार गाई ओर बंसीवट की। 
तान लागे लटकी, रही न सुधि घूँघट की, 
घर की, न घाट की, न बाट की, न घट की

गोकुल के, कुल के, गली के गोप गाँवनके
जौ लगि कछू को कछू भाखत भनैनहीं।
कहैं पद्माकर परोस पिछवारन के
द्वारन के दौरे गुन-औगुन गनै नहीं 
तौ लौं चलि चातुर सहेली! याही कोद कहूँ
नीके कै निहारै ताहि, भरत मनै नहीं।
हौं तौ स्याम रंग में चोराइ चित चोराचोरी
बोरत तौ बोरयो, पै निचोरत बनै नहीं

आरस सो आरत, सँभारत न सीस पट, 
गजब गुजारति गरीबन की धार पर।
कहैं पद्माकर सुरा सों सरसार तैसे, 
बिथुरि बिराजै बार हीरन के हार पर
छाजत छबीले छिति छहरि छरा के छोर, 
भोर उठि आई केलिमंदिर के द्वार पर।
एक पग भीतर औ एक देहरी पै धारे, 
एक कर कंज, एक कर है किवार पर

मोहि लखि सोवत बिथोरिगो सुबेनीबनी, 
तोरिगो हिए को हार, छोरिगो सुगैया को। 
कहैं पद्माकर त्यों घोरिगो घनेरो दुख, 
बोरिगो बिसासी आज लाज ही की नैयाको
अहित अनैसो ऐसो कौन उपहास?यातें, 
सोचन खरी मैं परी जोवति जुन्हैया को। 
बूझिहैं चवैया तब कैहौं कहा, दैया! 
इत पारिगो को मैया! मेरी सेज पै कन्हैयाको?

एहो नंदलाल! ऐसी व्याकुल परी है बाल, 
हाल ही चलौ तौ चलौ, जोरे जुरि जायगी। 
कहैं पद्माकर नहीं तौ ये झकोरे लगै, 
ओरे लौं अचाका बिन घोरे घुरि जायगी
सीरे उपचारन घनेरे घनसारन सों,
देखत ही देखौ दामिनी लौं दुरि जायगी।
तौही लगि चैन जौलौं चेतिहै न चंदमुखी, 
चेतैगी कहूँ तौ चाँदनी में चुरि जायगी

चालो सुनि चंदमुखी चित में सुचैन करि, 
तित बन बागन घनेरे अलि घूमि रहे। 
कहैं पद्माकर मयूर मंजु नाचत हैं, 
चाय सों चकोरनी चकोर चूमि चूमि रहे
कदम, अनार, आम, अगर, असोक थोक, 
लतनि समेत लोने लोने लगि भूमि रहे।
फूलि रहे, फलि रहे, फबि रहे, फैलि रहे, 
झपि रहे, झलि रहे, झुकि रहे, झूमि रहे

तीखे तेगवाही जे सिलाही चढ़ै घोड़न पै, 
स्याही चढ़ै अमित अरिंदन की ऐल पै।
कहैं पद्माकर निसान चढ़ै हाथिन पै, 
धूरि धार चढ़ै पाकसासन के सैल पै
साजि चतुरंग चमू जंग जीतिबे के हेतु,
हिम्मत बहादुर चढ़त फर फैल पै।
लाली चढ़ै मुख पै, बहाली चढ़ै बाहन पै,
काली चढ़ै सिंह पै, कपाली चढ़ै बैल पै

ऐ ब्रजचंद गोविंद गोपाल! सुन्यो क्यों न एते कलाम किए मैं।
त्यों पद्माकर आनंद के नद हौ नंदनंदन! जानि लिए मैं
माखन चोरी कै खोरिन ह्वै चले भाजि कछू भय मानि जिए मैं।
दूरि न दौरि दुरयो जौ चहौ तौ दुरौ किन मेरे अंधेरे हिए मैं
55. ग्वाल कवि , ये मथुरा के रहनेवाले बंदीजन सेवाराम के पुत्र थे। ये ब्रजभाषाके अच्छे कवि हुए हैं। इनका कविताकाल संवत् 1879 से संवत् 1918 तक है। अपना पहला ग्रंथ 'यमुना लहरी' इन्होंने संवत् 1879 में और अंतिम ग्रंथ 'भक्तभावना'संवत्1919 में बनाया। रीति ग्रंथ इन्होंने चारलिखे हैं , रसिकानंद (अलंकार), रसरंग (संवत् 1904), कृष्णजू को नखशिख (संवत् 1884) और दूषणदर्पण (संवत् 1891)। इनके अतिरिक्त इनके दो ग्रंथ और मिले हैं , हम्मीर हठ (संवत् 1881) और गोपीपच्चीसी।
और भी दो ग्रंथ इनके लिखे कहे जाते हैं , 'राधामाधव मिलन' और 'राधा अष्टक'। 'कविहृदयविनोद' इनकी बहुत सी कविताओं का संग्रह है।
रीतिकाल की सनक इनमें इतनी अधिक थी कि इन्हें 'यमुना लहरी' नामक देवस्तुति में भी नवरस और षट् ऋतु सुझाई पड़ी है। भाषा इनकी चलती और व्यवस्थित है। वाग्विदग्धाता भी इनमें अच्छी है। षट् ऋतुओं का वर्णन इन्होंने विस्तृत किया है, पर वही श्रृंगारी उद्दीपन के ढंग का। इनके ऋतुवर्णन के कवित्त लोगों के मुँह से अधिक सुने जाते हैं जिसमें बहुत से भोगविलास के अमीरी सामान भी गिनाए गए हैं। ग्वाल कवि ने देशाटन अच्छा किया था और इन्हें भिन्न भिन्न प्रांतों की बोलियों का अच्छा ज्ञान हो गया था। इन्होंने ठेठ पूरबी हिन्दी, गुजराती और पंजाबी भाषा में भी कुछ कवित्त, सवैया लिखे हैं। फारसी अरबी शब्दों का इन्होंने बहुत प्रयोग किया है। सारांश यह कि ये एक विदग्धा और कुशल कवि थे पर कुछ फक्कड़पन लिए हुए। इनकी बहुतसी कविता बाजारी है। थोड़ेसे उदाहरण नीचे दिए जाते हैं , 
ग्रीषम की गजब धुकी है धूप धाम धाम,
गरमी झुकी है जाम जाम अति तापिनी।
भीजे खसबीजन झलेहू ना सुखात स्वेद, 
गात न सुहात, बात दावा सी डरापिनी
ग्वाल कवि कहैं कोरे कुंभन तें कूपन तें, 
लै लै जलधार बार बार मुख थापिनी।
जब पियो तब पियो, अब पियो फेर अब,
पीवत हूँ पीवत मिटै न प्यास पापिनी

मोरन के सोरन की नैको न मरोर रही, 
घोर हू रही न घन घने या फरद की।
अंबर अमल, सर सरिता विमल भल
पंक को न अंक औ न उड़न गरद की
ग्वाल कवि चित्त में चकोरन के चैन भए,
पंथिन की दूर भई, दूषन दरद की।
जल पर, थल पर, महल, अचल पर, 
चाँदी सी चमक रही चाँदनी सरद की

जाकी खूबखूबी खूब खूबन की खूबी यहाँ, 
ताकी खूबखूबी खूबखूबी नभ गाहना।
जाकी बदजाती बदजाती यहाँ चारन में, 
ताकी बदजाती बदजाती ह्वाँ उराहना
ग्वाल कवि वे ही परमसिद्ध सिद्ध जो है जग, 
वे ही परसिद्ध ताकी यहाँ ह्वाँ सराहना।
जाकी यहाँ चाहना है ताकी वहाँ चाहनाहै, 
जाकी यहाँ चाह ना है ताकी वहाँ चाहना

दिया है खुदा ने खूब खुसी करो ग्वाल कवि, 
खाव पियो, देव लेव, यहीं रह जाना है।
राजा राव उमराव केते बादशाह भए, 
कहाँ ते कहाँ को गए, लग्यो न ठिकाना है
ऐसी जिंदगानी के भरोसे पै गुमान ऐसे, 
देस देस घूमि घूमि मन बहलाना है। 
आए परवाना पर चलै ना बहाना, यहाँ,
नेकी कर जाना, फेर आना है न जानाहै
56. प्रतापसाहि ये रतनसेन बंदीजन के पुत्र थे और चरखारी (बुंदेलखंड) के महाराज विक्रमसाहि के यहाँ रहते थे। इन्होंने संवत् 1882 में 'व्यंग्यार्थकौमुदी' और संवत् 1886 में 'काव्यविलास' की रचना की। इन दोनों परम प्रसिद्ध ग्रंथों के अतिरिक्त निम्नलिखित पुस्तकें इनकी बनाइ हुई और हैं , 
जयसिंहप्रकाश (संवत् 1882), श्रृंगारमंजरी (संवत् 1889), श्रृंगारशिरोमणि (1894), अलंकारचिंतामणि (संवत् 1894), काव्यविनोद (संवत् 1896), रसराज की टीका (संवत् 1896), रत्नचंद्रिका (सतसई की टीका, संवत् 1896), जुगल नखशिख (सीता राम का नखशिख वर्णन), बलभद्र नखशिख की टीका।
इस सूची के अनुसार इनका कविताकाल संवत् 1880 से 1900 तक ठहरता है। पुस्तकों के नाम से ही इनकी साहित्यमर्मज्ञता और पांडित्य का अनुमान हो सकता है। आचार्यत्व में इनका नाम मतिराम, श्रीपति और दास के साथ आता है और एक दृष्टि से इन्होंने उनके चलाए हुए कार्य को पूर्णता को पहुँचाया था। लक्षणा व्यंजना का उदाहरणों द्वारा विस्तृत निरूपण पूर्ववर्ती तीन कवियों ने नहीं किया था। इन्होंने व्यंजना के उदाहरणों की एक अलग पुस्तक ही 'व्यंग्यार्थ कौमुदी' के नाम से रची। इसमें कवित्त, दोहे, सवैये मिलाकर 130 पद्य हैं जो सब व्यंजना या ध्वनि के उदाहरण हैं। साहित्यमर्मज्ञ तो बिना कहे ही समझ सकते हैं कि ये उदाहरण अधिकतर वस्तुव्यंजना के ही होंगे। वस्तुव्यंजना को बहुत दूर तक घसीटने पर बड़े चक्करदार ऊहापोह का सहारा लेना पड़ता है और व्यंग्यार्थ तक पहुँच केवल साहित्यिक रूढ़ि के अभ्यास पर अवलंबित रहती है। नायिकाओं के भेदों, रसादि के सब अंगों तथा भिन्न-भिन्न बँधो उपमान का अभ्यास न रखनेवाले के लिए ऐसे पद्य पहेली ही समझिए। उदाहरण के लिए 'व्यंग्यार्थ कौमुदी' का यह सवैया लीजिए , 
सीख सिखाई न मानति है, बर ही बस संग सखीन के आवै।
खेलत खेल नए जल में, बिना काम बृथा कत जाम बितावै
छोड़ि कै साथ सहेलिन को, रहि कै कहि कौन सवादहि पावै।
कौन परी यह बानि, अरी! नित नीरभरी गगरी ढरकावै
सहृदयों की सामान्य दृष्टि में तो वय:संधि की मधुर क्रीड़ावृत्ति का यह एक परम मनोहर दृश्य है। पर फन में उस्ताद लोगों की ऑंखें एक और ही ओर पहुँचती हैं। वे इसमें से यह व्यंग्यार्थ निकालते हैं , घड़े के पानी में अपने नेत्रा का प्रतिबिंब देख उसे मछलियों का भ्रम होता है। इस प्रकार का भ्रम एक अलंकार है। अत: भ्रम या भ्रांति अलंकार, यहाँ व्यंग्य हुआ। और चलिए। 'भ्रम' अलंकार में 'सादृश्य' व्यंग्य रहा करता है अत: अब इस व्यंग्यार्थ परपहुँचे कि 'नेत्रा मीन के समान हैं'। अब अलंकार का पीछा छोड़िए, नायिकाभेद की तरफ आइए। वैसा भ्रम जैसा ऊपर कहा गया है 'अज्ञात यौवना' को हुआ करता है। अत: ऊपर का सवैया अज्ञात यौवना का उदाहरण हुआ। यह इतनी बड़ी अर्थयात्रा रूढ़ि के ही सहारे हुई है। जब तक यह ज्ञात न हो कि कविपरंपरा में ऑंख की उपमा मछली से दिया करते हैं, तब तक यह सब अर्थ स्फुट नहीं हो सकता।
प्रतापसाहि का यह कौशल अपूर्व है कि उन्होंने एक रस ग्रंथ के अनुरूप नायिकाभेद के क्रम से सब पद्य रखे हैं जिससे उनके ग्रंथ को जी चाहे तो नायिकाभेद का एक अत्यंत सरस और मधुर ग्रंथ भी कह सकते हैं। यदि हम आचार्यत्व और कवित्व दोनों के एक अनूठे संयोग की दृष्टि से विचार करते हैं तो मतिराम, श्रीपति और दास से ये कुछ बीस ही ठहरते हैं। इधर भाषा की स्निग्ध सुख सरल गति, कल्पना की मूर्तिमत्ता और हृदय की द्रवणशीलता मतिराम, श्रीपति और बेनीप्रवीन के मेल में जाती है तो उधर आचार्यत्व इन तीनों में भी और दास से भी कुछ आगे दिखाई पड़ता है। इनकी प्रखर प्रतिभा ने मानो पद्माकर की प्रतिभा के साथ रीतिबद्ध काव्यकला को पूर्णता पर पहुँचाकर छोड़ दिया। पद्माकर की अनुप्रासयोजना कभीकभी रुचिकर सीमा के बाहर जा पड़ी है, पर इस भावुक और प्रवीण की वाणी में यह दोष कहीं नहीं आने पाया है। इनकी भाषा में बड़ा भारी गुण यह है कि यह बराबर एक समान चलती है , उसमें न कहीं कृत्रिम आडंबर का अड़ंगा है, न गति का शैथिल्य और न शब्दों की तोड़ मरोड़। हिन्दी के मुक्तक कवियों में समस्यापूर्ति की पद्ध ति पर रचना करने के कारण एक अत्यंत प्रत्यक्ष दोष देखने में आता है। उनके अंतिम चरण की भाषा तो बहुत ही गँठी हुई, व्यवस्थित और मार्मिक होती है पर शेष तीन चरणों में यह बात बहुत ही कम पाई जाती है। बहुत से स्थलों पर तो प्रथम तीन चरणों की वाक्यरचना बिल्कुल अव्यवस्थित और बहुत सी पदयोजना निरर्थक होती है। पर 'प्रताप' की भाषा एकरस चलती है। इन सब बातों के विचार से हम प्रतापजी को पद्माकर के समकक्ष ही बहुत बड़ा कवि मानते हैं।
प्रतापजी की कुछ रचनाएँ उध्दृत की जाती हैं ,

चंचलता अपनी तजि कै रस ही रस सों रस सुंदर पीजियो।
कोऊ कितेक कहै तुमसों तिनकी कही बातन को न पतीजियो
चोज चवाइन के सुनियो न यही इक मेरी कही नित कीजियो।
मंजुल मंजरी पै हौ, मलिंद! विचारि कै भार सँभारि कै दीजियो

तड़पै तड़िता चहुँ ओरन तें, छिति छाई समीरन की लहरैं।
मदमाते महा गिरिशृंगन पै, गन मंजु मयूरन के कहरैं
इनकी करनी बरनी न परै, मगरूर गुमानन सों गहरैं।
घन ये नभमंडल में छहरैं, घहरैं कहुँ जाय, कहूँ ठहरैं

कानि करै गुरुलोगन की, न सखीन की सीखन ही मन लावति।
एेंड़ भरी अंगराति खरी, कत घूँघट में नए नैन नचावति
मंजन कै दृग अंजन ऑंजति, अंग अनंग उमंग बढ़ावति।
कौन सुभाव री तेरो परयो, खिन ऑंगन में खिन पौरि में आवति

कहा जानि, मन में मनोरथ विचारि कौन, 
चेति कौन काज, कौन हेतु उठि आई प्रात।
कहै परताप छिन डोलिबो पगन कहूँ, 
अंतर को खोलिबो न बोलिबो हमैं सुहात
ननद जिठानी सतरानी, अनखानी अति, 
रिस कै रिसानी, सो न हमैं कछु जानीजात।
चाहौ पल बैठ रहौ, चाहौ उठि जाव तौन, 
हमको हमारी परी, बूझै को तिहारी बात?

चंचल चपला चारु चमकत चारों ओर,
झूमि झूमि धाुरवा धारनि परसत है।
सीतल समीर लगै दुखद वियोगिन्ह, 
सँयोगिन्ह समाज सुखसाज सरसत है
कहैं परताप अति निविड़ अंधेरी माँह, 
मारग चलत नाहि नेकु दरसत है।
झुमड़ि झलानि चहुँ कोद तें उमड़ि आज, 
धाराधार धारन अपार बरसत है

महाराज रामराज रावरो सजत दल,
होत मुख अमल अनंदित महेस के।
सेवत दरीन केते गब्बर गनीम रहैं, 
पन्नग पताल त्यों ही डरन खगेस के
कहैं परताप धारा धाँसत त्रासत, 
कसमसत कमठ पीठि कठिन कलेस के।
कहरत कोल, हहरत हैं दिगीस दल,
लहरत सिंधु, थहरत फन सेस के
57. रसिक गोविंद ये निंबार्क संप्रदाय के एक महात्मा हरिव्यास की गद्दी के शिष्य थे और वृंदावन में रहते थे। हरिव्यास जी की शिष्यपरंपरा में सर्वेश्वरशरण देव जी बड़े भारी भक्त हुए हैं। रसिक गोविंदजी उन्हीं के शिष्य थे। ये जयपुर (राजपूताना) के रहनेवाले और नटाणी जाति के थे। इनके पिता का नाम शालिग्राम, माता का गुमाना, चाचा का मोतीराम और बड़े भाई का बालमुकुंद था। इनका कविताकाल संवत् 1850 से 1890 तक अर्थात् विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से लेकर अंत तक स्थिर होता है। अब तक इनके 9 ग्रंथों का पता चला है , संभवत: और भी दोहे होंगे। 9 ग्रंथ ये हैं , 
¼प½ रामायण सूचनिका 33 दोहों में अक्षरक्रम से रामायण की कथा संक्षेप में कही गई है। यह संवत् 1858 के पहले की रचना है। इसके ढंग का पता इन दोहों से लग सकता है , 
चकित भूप बानी सुनत, गुरु बसिष्ठ समुझाय।
दिए पुत्र तब, ताड़का मग में मारी जाय
छाँड़त सर मारिच उड़्यो, पुनि प्रभु हत्यो सुबाह।
मुनि मख पूरन, सुमन सुर बरसत अधिक उछाह
¼ii½ रसिक गोविंदानंदघन यह सात आठ सौ पृष्ठों का बड़ा भारी रीति ग्रंथ है जिसमें रस, नायकनायिका भेद, अलंकार, गुण, दोष आदि का विस्तृत वर्णन है। इसे इनका प्रधान ग्रंथ समझना चाहिए। इसका निर्माणकाल वसंतपंचमी संवत् 1858 है। यह चार प्रबंधों में विभक्त है। इसकी बड़ी भारी विशेषता यह है कि लक्षण गद्य में है और रसों, अलंकारों आदि के स्वरूप पद्य में समझाने का प्रयत्न किया गया है। संस्कृत के बड़े-बड़े आचार्यों के मतों का उल्लेख भी स्थान स्थान पर है। जैसे , रस का निरूपण इस प्रकार है , 
'अन्य ज्ञानरहित जो आनंद सो रस। प्रश्न , अन्य ज्ञानरहित आनंद तो निद्रा ही है। उत्तर , निद्रा जड़ है, यह चेतन। भरत आचार्य सूत्रकर्ता को मत-विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के जोग से रस की सिद्धि । अथ काव्यप्रकाश को मत , कारण कारज सहायक हैं जे लोक में इन ही को नाटय में, काव्य में, विभाव संज्ञा है। अब टीकाकर्ता को मत तथा साहित्यदर्पण को मत-सत्व, विशुद्ध , अखंड स्वप्रकाश, आनंद, चित, अन्य ज्ञान नहि संग, ब्रह्मास्वाद, सहोदर रस।'
इसके आगे अभिनवगुप्ताचार्य का मत कुछ विस्तार से दिया है। सारांश यह कि यह ग्रंथ आचार्यत्व की दृष्टि से लिखा गया है और इसमें संदेह नहीं कि और ग्रंथों की अपेक्षा इसमें विवेचन भी अधिक है और छूटी हुई बातों का समावेश भी। दोषों का वर्णन हिन्दी के लक्षण ग्रंथों में बहुत कम पाया जाता है, इन्होंने काव्यप्रकाश के अनुसार विस्तार से किया है। रसों, अलंकारों आदि के उदाहरण कुछ तो अपने हैं, पर बहुतसे दूसरे कवियों के। उदाहरणों के चुनने में इन्होंने बड़ी सहृदयता का परिचय दिया है। संस्कृत के उदाहरणों के अनुवाद भी बहुत सुंदर करके रखे हैं। साहित्यदर्पण के मुग्धा के उदाहरण (दत्तोसालसमंथर...इत्यादि) को देखिए हिन्दी में ये किस सुंदरता से लाए हैं , 
आलस सों मंद मंद धारा पै धारति पाय,
भीतर तें बाहिर न आवै चित्त चाय कै।
रोकति दृगनि छिन छिन प्रति लाज साज, 
बहुत हँसी की दीनी बानि बिसराय कै
बोलति बचन मृदु मधुर बनाय, उर
अंतर के भाव की गंभीरता जनाय कै।
बात सखी सुंदर गोविंद की कहात तिन्हैं,
सुंदर बिलोकै बंक भृकुटी नचाय कै
¼पपप½ लछिमन चंद्रिका , 'रसिक गोविंदानंदघन' में आए लक्षणों का संक्षिप्त संग्रह जो संवत् 1886 में लछिमन कान्यकुब्ज के अनुरोध से कवि ने किया था।
¼iv½ अष्टदेशभाषा , इसमें ब्रज, खड़ी बोली, पंजाबी, पूरबी आदि आठ बोलियों में राधाकृष्ण की श्रृंगारलीला कही गई है।
¼अ½ पिंगलA
¼vi½ समयप्रबंध , राधाकृष्ण की ऋतुचर्या 85 पद्यों में वर्णित है।
¼अपप½ कलियुगरासो , इसमें 16 कवित्तों में कलिकाल की बुराइयों का वर्णन है। प्रत्येक कवित्त के अन्त में 'कीजिए सहाय जू कृपाल श्रीगोविंदराय, कठिन कराल, कलिकाल चलि आयो है' यह पद आता है। निर्माणकाल संवत् 1865 है। 
¼अपपप½ रसिक गोविंद , चंद्रालोक या भाषाभूषण के ढंग की अलंकार की एक छोटी पुस्तक जिसमें लक्षण और उदाहरण एक ही दोहे में हैं। रचनाकाल संवत् 1890 है। 
¼ix½ युगलरस माधुरी , रोलाछंद में राधाकृष्ण बिहार और वृंदावन का बहुत ही सरल और मधुर भाषा में वर्णन है जिससे इनकी सहृदयता और निपुणता पूरी पूरी टपकती है कुछ पंक्तियाँ दी जाती हैं , 
मुकलित पल्लव फूल सुगंधा परागहि झारत।
जुग मुख निरखि बिपिन जनु राई लोन उतारत
फूल फलन के भार डार झुकि यों छबि छाजै।
मनु पसारि दइ भुजा देन फल पथिकन काजै
मधु मकरंद पराग लुब्धा अलि मुदित मत्ता मन।
बिरद पढ़त ऋतुराज नृपति के मनु बंदीजन

प्रकरण 3
रीतिकाल के अन्य कवि

रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों का, जिन्होंने लक्षणग्रंथ के रूप में रचनाएँ की हैं, संक्षेप में वर्णन हो चुका है। अब यहाँ पर इस काल के भीतर होनेवाले उन कवियों का उल्लेख होगा जिन्होंने रीतिग्रंथ न लिखकर दूसरे प्रकार की पुस्तकें लिखी हैं। ऐसे कवियों में कुछ ने तो प्रबंध काव्य लिखे हैं, कुछ ने नीति या भक्ति संबंधी पद्य और कुछ ने श्रृंगार रस की फुटकल कविताएँ लिखी हैं। ये पिछले वर्ग के कवि प्रतिनिधि कवियों से केवल इस बात में भिन्न हैं कि इन्होंने क्रम से रसों, भावों, नायिकाओं और अलंकारों के लक्षण कहकर उनके अंतर्गत अपने पद्यों को नहीं रखा है। अधिकांश में ये भी श्रृंगारी कवि हैं और इन्होंने भी श्रृंगाररस के फुटकल पद्य कहे हैं। रचनाशैली में किसी प्रकार का भेद नहीं है। ऐसे कवियों में घनानंद सर्वश्रेष्ठ हुए हैं। इस प्रकार के अच्छे कवियों की रचनाओं में प्राय: मार्मिक और मनोहर पद्यों की संख्या कुछ अधिक पाई जाती है। बात यह है कि इन्हें कोई बंधान नहीं था। जिस भाव की कविता जिस समय सूझी ये लिख गए। रीतिबद्ध ग्रंथ जो लिखने बैठते थे उन्हें प्रत्येक अलंकार या नायिका को उदाहृत करने के लिए पद्य लिखना आवश्यक था जिनमें सब प्रसंग उनकी स्वाभाविक रुचि या प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं हो सकते थे। रसखान, घनानंद, आलम, ठाकुर आदि जितने प्रेमोन्मत्त कवि हुए हैं उनमें किसी ने लक्षणबद्ध रचना नहीं की है।
प्रबंधकाव्य की उन्नति इस काल में कुछ विशेष न हो पाई। लिखे तो अनेक कथा प्रबंध गए, पर उनमें से दो ही चार में कवित्त का यथेष्ट आकर्षण पाया जाता है। सबलसिंह का महाभारत, छत्रासिंह की विजय मुक्तावली, गुरु गोविंदसिंहजी का चंडीचरित्र, लाल कवि का छत्रप्रकाश, जोधराज का हम्मीररासो, गुमान मिश्र का नैषधचरित, सरयूराम का जैमिनीपुराण, सूदन का सुजान चरित्र, देवीदत्ता की वैतालपच्चीसी, हरनारायण की माधावानल कामकंदला, ब्रजवासी दास का ब्रजविलास, गोकुलनाथ आदि का महाभारत, मधाूसूदनदास का रामाश्वमेधा, कृष्णदास की भाषा भागवत, नवलसिंह कृत भाषा सप्तशती, आल्हारामायण, आल्हाभारत, मूलढोला तथा चंद्रशेखर का हम्मीरहठ, श्रीधार का जंगनामा, पद्माकर का रामरसायन, ये इस काल के मुख्य कथानक काव्य हैं। इनमें से चंद्रशेखर के हम्मीरहठ, लालकवि के छत्राप्रकाश, जोधाराज के हम्मीररासो, सूदन के सुजानचरित्र और गोकुलनाथ आदि के महाभारत में ही काव्योपयुक्त रसात्मकता भिन्न भिन्न परिणाम में पाई जाती है। 'हम्मीररासो' कीरचना बहुत ही प्रशस्त है। 'रामाश्वमेधा' की रचना भी साहित्यिक है। 'ब्रजविलास'में यद्यपि काव्य के गुण अल्प हैं, पर उसका थोड़ाबहुत प्रचार कम पढ़ेलिखे कृष्णभक्तों मेंहै।
कथात्मक प्रबंधों से भिन्न एक और प्रकार की रचना भी बहुत देखने में आती है जिसे हम वर्णनात्मक प्रबंध कह सकते हैं। दानलीला, मानलीला, जलविहार, वनविहार, मृगया, झूला, होलीवर्णन, जन्मोत्सववर्णन, मंगलवर्णन, रामकलेवा इत्यादि इसी प्रकार की रचनाएँ हैं। बड़ेबड़े प्रबंधकाव्यों के भीतर इस प्रकार के वर्णनात्मक प्रसंग रहा करते हैं। काव्यपद्ध ति में जैसे श्रृंगाररस के क्षेत्र से 'नखशिख', 'षट्ऋतु' आदि लेकर स्वतंत्र पुस्तकें बनने लगीं वैसे ही कथात्मक महाकाव्यों के अंग भी निकालकर अलग पुस्तकें लिखी गईं। इनमें बड़े विस्तार के साथ वस्तु वर्णन चलता है। कभी कभी तो इतने विस्तार के साथ कि परिमार्जित साहित्यिक रुचि के सर्वथा विरुद्ध हो जाता है। जहाँ कवि जी अपने वस्तु परिचय का भंडार खोलते हैं , जैसे बरात का वर्णन है तो घोड़ों की सैकड़ों जातियों के नाम, वस्त्रों का प्रसंग आया तो पचीसों प्रकार के कपड़ों के नाम और भोजन की बात आई तो, सैंकड़ों मिठाइयों, पकवानों, मेवों के नाम , वहाँ तो अच्छे अच्छे धीरों का धौर्य छूट जाता है।
चौथा वर्ग नीति के फुटकल पद्य कहनेवालों का है। इनको हम कवि कहना ठीक नहीं समझते। इनके तथ्यकथन के ढंग में कभीकभी वाग्वैदग्ध्य रहता है पर केवल वाग्वैदग्ध्य के द्वारा काव्य की सृष्टि नहीं हो सकती। यह ठीक है कि कहीं कहीं ऐसे पद्य भी नीति की पुस्तकों में आ जाते हैं जिनमें कुछ मार्मिकता होती है, जो हृदय की अनुभूति से भी संबंध रखते हैं, पर उनकी संख्या बहुत ही अल्प होती है। अत: ऐसी रचना करनेवालों को हम 'कवि' न कहकर 'सूक्तिकार' कहेंगे। रीतिकाल के भीतर वृंद, गिरिधर, घाघ और बैताल अच्छे सूक्तिकार हुए हैं।
पाँचवाँ वर्ग ज्ञानोपदेशकों का है जो ब्रह्मज्ञान और वैराग्य की बातों को पद्य में कहते हैं। ये कभीकभी समझने के लिए उपमा, रूपक आदि का प्रयोग कर देते हैं, पर समझाने के लिए ही करते हैं, रसात्मक प्रभाव उत्पन्न करने के लिए नहीं। इनका उद्देश्य अधिकतर बोधवृत्ति जागृत करने का रहता है, मनोविकार उत्पन्न करने का नहीं। ऐसे ग्रंथकारों को हम केवल 'पद्यकार' कहेंगे। हाँ, इनमें जो भावुक और प्रतिभासम्पन्न हैं, जो अन्योक्ति आदि का सहारा लेकर भगवत्प्रेम, संसार के प्रति विरक्ति, करुणा आदि उत्पन्न करने में समर्थ हुए हैं वे अवश्य ही कवि क्या, उच्च कोटि के कवि कहे जा सकते हैं।
छठा वर्ग कुछ भक्त कवियों का है जिन्होंने भक्ति और प्रेमपूर्ण विनय के पद आदि पुराने भक्तों के ढंग पर गाए हैं। 
इनके अतिरिक्त आश्रयदाताओं की प्रशंसा में वीर रस की फुटकल कविताएँ भी बराबर बनती रहीं, जिनमें युद्ध वीरता और दानवीरता दोनों की बड़ी अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसा भरी रहती थी। ऐसी कविताएँ थोड़ीबहुत तो रसग्रंथों आदि में मिलती हैं, कुछ अलंकारग्रंथों के उदाहरण रूप, जैसे , 'शिवराजभूषण' और कुछ अलग पुस्तकाकार जैसे 'शिवाबावनी', 'छत्रसालदशक', 'हिम्मतबहादुरविरुदावली' इत्यादि। ऐसी पुस्तकों में सर्वप्रिय और प्रसिद्ध वे ही हो सकी हैं जो या तो देवकाव्य के रूप में हुई हैं अथवा जिनके नायक कोई देशप्रसिद्ध वीर या जनता के श्रध्दाभाजन रहे हैं, जैसे , शिवाजी, छत्रसाल, महाराणा प्रताप आदि। जो पुस्तकें यों ही खुशामद के लिए आश्रित कवियों के रूढ़ि के अनुसार लिखी गईं, जिनके नायकों के लिए जनता के हृदय में कोई स्थान न था, वे प्राकृतिक नियमानुसार प्रसिद्धि न प्राप्त कर सकीं। बहुत-सी तो लुप्त हो गईं। उनकी रचना में सच पूछिए तो कवियों ने अपनी प्रतिभा का अपव्यय ही किया। उनके द्वारा कवियों को अर्थसिद्धि भर प्राप्त हुई, यश का लाभ न हुआ। यदि बिहारी ने जयसिंह की प्रशंसा में ही अपने सात सौ दोहे बनाए होते तो उनके हाथ केवल अशर्फियाँ ही लगी होतीं। संस्कृत और हिन्दी के न जाने कितने कवियों का प्रौढ़ साहित्यिक श्रम इस प्रकार लुप्त हो गया। काव्यक्षेत्र में यह एक शिक्षाप्रद घटना हुई है।
भक्तिकाल के समान रीतिकाल में भी थोड़ाबहुत गद्य इधरउधर दिखाई पड़ जाता है पर अधिकांश कच्चे रूप में। गोस्वामियों की लिखी 'वैष्णववार्ताओं' के समान कुछ पुस्तकों में ही पुष्ट ब्रजभाषा मिलती है। रही खड़ी बोली। वह पहले कुछ दिनों तक तो मुसलमानों के व्यवहार की भाषा समझी जाती रही। मुसलमानों के प्रसंग में उसका कभी कभी प्रयोग कवि लोग कर देते थे, जैसे , अफजल खान को जिन्होंने मैदान मारा (भूषण)। पर पीछे दिल्ली राजधानी होने से रीतिकाल के भीतर ही खड़ी बोली शिष्ट समाज के व्यवहार की भाषा हो गई थी और उसमें अच्छे गद्य ग्रंथ लिखे जाने लगे थे। संवत् 1798 में रामप्रसाद निरंजनी ने 'भाष योगवाशिष्ठ' बहुत ही परिमार्जित गद्य में लिखा। 1
इसी रीतिकाल के भीतर रीवाँ के महाराज विश्वनाथ सिंह ने हिन्दी का प्रथम नाटक (आनंदरघुनंदन) लिखा। इसके उपरांत गणेश कवि ने 'प्रद्युम्नविजय' नामक एक पद्यबद्ध नाटक लिखा जिसमें पात्रप्रवेश, विष्वंभक, प्रवेशक आदि रहने पर भी इतिवृत्तात्मक पद्य रखे जाने के कारण नाटक का प्रकृत स्वरूप न दिखाई पड़ा।
1. बनवारी ये संवत् 1690 और 1700 के बीच वर्तमान थे। इनका विशेष वृत्त ज्ञात नहीं। इन्होंने महाराज जसवंत सिंह के बड़े भाई अमरसिंह की वीरता की बड़ी प्रशंसा की है। यह इतिहास प्रसिद्ध बात है कि एक बार शाहजहाँ के दरबार में सलावत खाँ ने किसी बात पर अमरसिंह को गँवार कह दिया, जिस पर उन्होंने चट तलवार खींचकर सलावत खाँ को वहीं मार डाला। इस घटना का बड़ा ओजपूर्ण वर्णन इनके इन पद्यों में मिलता है।
धान्य अमर छिति छत्रापति, अमर तिहारो मान।
साहजहाँ की गोद में, हन्यो सलावत खान
उत गकार मुख ते कढ़ी, इतै कढ़ी जमधार।
'वार' कहन पायो नहीं, भई कटारी पार

आनि कै सलावत खाँ जोर कै जनाई बात,
तोरि धार पंजर करेजे जाय करकी।
दिलीपति साहि को चलन चलिबे को भयो, 
गाज्यो गजसिंह को, सुनी जो बात बर की
कहै बनवारी बादसाही के तखत पास, 
फरकि-फरकि लोथ लोथिन सों अरकी।
कर की बड़ाई, कै बड़ाई बाहिबे की करौं,
बाढ़ की बड़ाई, कै बड़ाई जमधार की
बनवारी कवि की श्रृंगार रस की कविता भी बड़ी चमत्कारपूर्ण होती थी। यमक लाने का ध्यान इन्हें विशेष रहा करता था। एक उदाहरण लीजिए , 
नेह बर साने तेरे नेह बरसाने देखि,
यह बरसाने बर मुरली बजावैंगे।
साजु लाल सारी, लाल करैं लालसा री, 
देखिबे की लालसारी, लाल देखे सुख पावैंगे
तू ही उरबसी, उरबसी नाहि और तिय, 
कोटि उरबसी तजि तोसों चित लावैंगे।
सजे बनवारी बनवारी तन आभरन,
गोरे तन वारी बनवारी आज आवैंगे
2. सबलसिंह चौहान इनके निवासस्थान का ठीक निश्चय नहीं। शिवसिंहजी ने यह लिखकर कि कोई इन्हें चन्दागढ़ का राजा और कोई सबलगढ़ का राजा बतलाते हैं, यह अनुमान किया है कि ये इटावा के किसी गाँव के जमींदार थे। सबलसिंहजीने औरंगजेब के दरबार में रहनेवाले किसी राजा मित्रसेन के साथ अपना संबंध बतायाहै। इन्होंने सारे महाभारत की कथा दोहों चौपाइयों में लिखी है। इनका महाभारत बहुतबड़ा ग्रंथ है जिसे इन्होंने संवत् 1718 और संवत् 1781 के बीच पूरा किया। इस ग्रंथके अतिरिक्त इन्होंने 'ऋतुसंहार का भाषानुवाद', 'रूपविलास' और एक पिंगलग्रंथ भी लिखा था पर वे प्रसिद्ध नहीं हुए। ये वास्तव में अपने महाभारत के लिए ही प्रसिद्ध हैं। इसमें यद्यपि भाषा का लालित्य या काव्य की छटा नहीं है पर सीधी सादी भाषामें कथा अच्छी तरह समझाई गई है। रचना का ढंग नीचे के अवतरण से विदित होगा , 
अभिमनु धाइ खड़ग परिहारे।
भूरिश्रवा बान दस छाँटे।
तीन बान सारथि उर मारे।
सारथि जूझि गिरे मैदाना।
यहि अंतर सेना सब धाई।
रथ को खैंचि कुँवर कर लीन्हें।
अभिमनु कोपि खंभ परहारे।
अर्जुनसुत इमि मार किय महाबीर परचंड।
रूप भयानक देखियत जिमि जम लीन्हेंदंड
3. वृंद , ये मेड़ता (जोधपुर) के रहनेवाले थे और कृष्णगढ़ नरेश महाराज राजसिंह के गुरु थे। संवत् 1761 में ये शायद कृष्णगढ़ नरेश के साथ औरंगजेब की फौज में ढाके तक गए थे। इनके वंशधर अब तक कृष्णगढ़ में वर्तमान हैं। इनकी 'वृंदसतसई' (संवत् 1761), जिसमें नीति के सात सौ दोहे हैं, बहुत प्रसिद्ध हैं। खोज में 'श्रृंगारशिक्षा' (संवत् 1748), और 'भावपंचाशिका' नाम की दो रससंबंधी पुस्तकें और मिली हैं, पर इनकी ख्याति अधिकतर सूक्तिकार के रूप में ही है। वृंदसतसई के कुछ दोहे नीचे दिए जाते हैं , 
भले बुरे सब एक सम, जौ लौं बोलत नाहिं।
जान परत हैं काग पिक, ऋतु बसंत के माहिं
हितहू कौं कहिए न तेहि, जो नर होय अबोध।
ज्यों नकटे को आरसी, होत दिखाए क्रोध
4. छत्रासिंह कायस्थ , ये बटेश्वर क्षेत्र के अटेर नामक गाँव के रहनेवाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इनके आश्रयदाता अमरावती के कोई कल्याणसिंह थे। इन्होंने 'विजयमुक्तावली' नाम की पुस्तक संवत् 1757 में लिखी जिसमें महाभारत की कथा एक स्वतंत्र प्रबंधकाव्य के रूप में कई छंदों में वर्णित है। पुस्तक में काव्य के गुण यथेष्ट परिमाण में हैं और कहीं कहीं की कविता बड़ी ही ओजस्विनी है। कुछ उदाहरण लीजिए , 
निरखत ही अभिमन्यु को, बिदुर डुलायो सीस।
रच्छा बालक की करौ, ह्नै कृपाल जगदीस
आपुन काँधौं युद्ध नहिं, धानुष दियो भुव डारि।
पापी बैठे गेह कत, पांडुपुत्र तुम चारि
पौरुष तजि लज्जा तजी, तजी सकल कुलकानि।
बालक रनहिं पठाय कै, आपु रहे सुख मानि

कवच कुंडल इंद्र लीने बाण कुंती लै गई।
भई बैरिनि मेदिनी चित कर्ण के चिंताभई
5. बैताल ये जाति के बंदीजन थे और राजा विक्रमसाहि की सभा में रहते थे। यदि ये विक्रम सिंह चरखारी वाले प्रसिद्ध विक्रमसाहि ही हैं जिन्होंने 'विक्रम सतसई' आदि कई ग्रंथ लिखे हैं और जो खुमान, प्रताप कई कवियों के आश्रयदाता थे, तो बैताल का समय संवत् 1839 और 1886 के बीच मानना पड़ेगा। पर शिवसिंहसरोज में इनका जन्मकाल संवत् 1734 लिखा हुआ है। बैताल ने गिरिधर राय के समान नीति की कुंडलियों की रचना की हैं और प्रत्येक कुंडलियाँ विक्रम को संबोधनकरके कही हैं। इन्होंने लौकिक व्यवहार संबंधी अनेक विषयों पर सीधे सादे पर जोरदार पद्य कहे हैं। गिरिधर राय के समान इन्होंने भी वाक्चातुर्य या उपमा रूपक आदि लाने का प्रयत्न नहीं किया है। बिल्कुल सीधी सादी बात ज्योंकी त्यों छंदोबद्ध कर दी गई है। फिर भी कथन के ढंग में अनूठापन है। एक कुंडलिया नीचे दी जाती है , 
मरै बैल गरियार, मरै वह अड़ियल टट्टू।
मरै करकसा नारि, मरै वह खसम निखट्टू
बाम्हन सो मरि जाय, हाथ लै मदिरा प्यावै।
पूत वही मर जाय, जो कुल में दाग लगावै
अरु बेनियाव राजा मरै, तबै नींद भर सोइए।
बैताल कहै विक्रम सुनौ, एते मरे न रोइए
6. आलम ये जाति के ब्राह्मण थे, पर शेख नाम की रँगरेजिन के प्रेम में फँसकर पीछे से मुसलमान हो गए और उसके साथ विवाह करके रहने लगे। आलम को शेख से जहान नामक एक पुत्र भी हुआ। ये औरंगजेब के दूसरे बेटे मुअज्जम के आश्रय में रहते थे जो पीछे बहादुरशाह के नाम से गद्दी पर बैठा। अत: आलम का कविताकाल संवत् 1740, से संवत् 1760 तक माना जा सकता है। इनकी कविताओं का एक संग्रह 'आलमकेलि' के नाम से निकला है। इस पुस्तक में आए पद्यों के अतिरिक्त इनके और बहुत से सुंदर और उत्कृष्ट पद्य ग्रंथों में संगृहीत मिलते हैं और लोगों के मुँह से सुने जाते हैं।
शेख रँगरेजिन भी अच्छी कविता करती थी। आलम के साथ प्रेम होने की विचित्र कथा प्रसिद्ध है। कहते हैं कि आलम ने एक बार उसे पगड़ी रँगने को दी जिसकी खूँट में भूल से कागज का एक चिट बँधा चला गया। उस चिट में दोहे की यह आधी पंक्ति लिखी थी 'कनक छरीसी कामिनी काहे को कटि छीन'। शेख ने दोहा इस तरह पूरा करके 'कटि को कंचन कटि बिधि कुचन मध्य धरि दीन', उस चिट को फिर ज्योंकी त्यों पगड़ी की खूँट में बाँधकर लौटा दिया। उसी दिन से आलम शेख के पूरे प्रेमी हो गए और अंत में उसके साथ विवाह भी कर लिया। शेख बहुत ही चतुर और हाजिरजवाब स्त्री थी। एक बार शाहजादा मुअज्जम ने हँसी में शेख से पूछा , 'क्या आलम की औरत आप ही हैं?' शेख ने चट उत्तर दिया कि 'हाँ, जहाँपनाह जहान की माँ मैं ही हूँ।' 'आलमकेलि' में बहुत से कवित्त शेख के रचे हुए हैं। आलम के कवित्त सवैयों में भी बहुत-सी रचना शेख की मानी जाती है। जैसे नीचे लिखे कवित्त में चौथा चरण शेख का बनाया कहा जाता है , 
प्रेमरंग-पगे जगमगे जगे जामिनि के, 
जोबन की जोति जगी जोर उमगत हैं।
मदन के माते मतवारे ऐसे घूमत हैं, 
झूमत हैं झुकिझुकि झ्रपि उघरत हैं
आलम सो नवल निकाई इन नैनन की,
पाँखुरी पदुम पै भँवर थिरकत हैं।
चाहत हैं उड़िबे को, देखत मयंकमुख, 
जानत हैं रैनि तातें ताहि में रहत हैं
आलम रीतिबद्ध रचना करने वाले कवि नहीं थे। ये प्रेमोन्मत्त कवि थे और अपनी तरंग के अनुसार रचना करते थे। इसी से इनकी रचनाओं में हृदयतत्व की प्रधानता है। 'प्रेम की पीर' या 'इश्क का दर्द' इनके एकएक वाक्य में भरा पाया जाता है। उत्प्रेक्षाएँ भी इन्होंने बड़ी अनूठी और बहुत अधिक कही हैं। शब्द वैचित्रय, अनुप्रास आदि की प्रवृत्ति इनमें विशेष रूप से कहीं नहीं पाई जाती। श्रृंगार रस की ऐसी उन्मादमयी उक्तियाँ इनकी रचना में मिलती हैं कि पढ़ने और सुननेवाले लीन हो जाते हैं। यह तन्मयता सच्ची उमंग में ही सम्भव है। रेखता या उर्दू भाषा में भी इन्होंने कवित्त कहे हैं। भाषा भी इस कवि की परिमार्जित और सुव्यवस्थित है पर उसमें कहींकहीं 'कीन, दीन, जीन' आदि अवधी या पूरबी हिन्दी के प्रयोग भी मिलते हैं। कहींकहीं फारसी की शैली के रसबाधकभाव भी इनमें मिलते हैं। प्रेम की तन्मयता की दृष्टि से आलम की गणना 'रसखान' और 'घनानंद' की कोटि में ही होनी चाहिए। इनकी कविता के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं , 
जा थल कीने बिहार अनेकन ता थल काँकरी बैठि चुन्यो करैं।
जा रसना सों करी बहु बातन ता रसना सों चरित्र गुन्यो करैं
आलम जौन से कुंजन में करी केलि तहाँ अब सीस धुन्योकरैं।
नैनन में जे सदा रहते तिनकी अब कान कहानी सुन्यो करैं

कैधौं मोर सोर तजि गए री अनत भाजि, 
कैधौं उत दादुर न बोलत हैं, एदई।
कैधौं पिक चातक महीप काहू मारि डारे,
कैधौं बगपाँति उत अंतगति ह्नै गई?
आलम कहै, आली! अजहूँ न आए प्यारे,
कैधौं उत रीत विपरीत बिधि ने ठई?
मदन महीप की दुहाई फिरिबे ते रही,
जूझि गये मेघ, कैधौं बीजुरी सती भई?

रात कें उनींदे अरसाते, मदमाते राते, 
अति कजरारे दृग तेरे यों सुहात हैं।
तीखी तीखी कोरनि करोरि लेत काढ़े जीउ, 
केते भए घायल औ केते तलफात हैं
ज्यों ज्यों लै सलिल चख 'सेख' धोवै बार बार,
त्यों त्यों बल बुंदन के बार झुकि जात हैं।
कैबर के भाले, कैधौं नाहर नहनवाले,
लोहू के पियासे कहूँ पानी तें अघात हैं?

दाने की न पानी की, न आवै सुधा खाने की,
याँ गली महबूब की अराम खुसखाना है।
रोज ही से है जो राजी यार की रजाय बीच,
नाज की नजर तेज तीर का निशाना है
सूरत चिराग रोसनाई आसनाई बीच, 
बार बार बरै बलि जैसे परवाना है।
दिल से दिलासा दीजै हाल के न ख्याल हूजै,
बेखुद फकीर, वह आशिक दिवाना है
7. गुरु गोविंदसिंह जी ये सिक्खों के महापराक्रमी दसवें या अंतिम गुरु थे। इनका जन्म संवत् 1723 में और सत्यलोकवास संवत् 1765 में हुआ। यद्यपि सब गुरुओं ने थोड़े बहुत पद, भजन आदि बनाए हैं, पर ये महाराज काव्य के अच्छे ज्ञाता और ग्रंथकार थे। सिखों में शास्त्रज्ञान का अभाव इन्हें बहुत खटका था और इन्होंने बहुत से सिखों को व्याकरण, साहित्य, दर्शन आदि के अध्ययन के लिए काशी भेजा था। ये हिंदू भावों और आर्य संस्कृति की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करते रहे। 'तिलक' और 'जनेऊ' की रक्षा में इनकी तलवार सदा खुली रहती थी। यद्यपि सिख संप्रदाय की निर्गुण उपासना है, पर सगुण स्वरूप के प्रति इन्होंने पूरी आस्था प्रकट की है और देवकथाओं की चर्चा बड़े भक्तिभाव से की है। यह बात प्रसिद्ध है कि ये शक्ति के आराधक थे। इनके इस पूर्ण हिंदू भाव को देखने से यह बात समझ में नहीं आती कि वर्तमान समय में सिखों की एक शाखा विशेष के भीतर पैगंबरी मजहबों का कट्टरपन कहाँ से और किसकी प्रेरणा से आ घुसाहै।
इन्होंने हिन्दी में कई अच्छे और साहित्यिक ग्रंथों की रचना की है जिनमें से कुछ के नाम ये हैं , सुनीतिप्रकाश, सर्वलोहप्रकाश, प्रेमसुमार्ग, बुद्धि सागर और चंडीचरित्र। चंडीचरित्र की रचना पद्ध ति बड़ी ही ओजस्विनी है। ये प्रौढ़ साहित्यिक ब्रजभाषा लिखते थे। चंडीचरित्र की दुर्गासप्तशती की कथा बड़ी सुंदर कविता में कही गई है। इनकी रचना के उदाहरण नीचे दिए जाते हैं , 
निर्जर निरूप हौ, कि सुंदर सरूप हौ,
कि भूपन के भूप हौ, कि दानी महादान हौ?
प्रान के बचैया, दूध-पूत के देवैया,
रोग-सोग के मिटैया, किधौं मानी महामानहौ?
विद्या के विचार हौ, कि अद्वैत अवतार हौ,
कि सुद्ध ता की मूर्ति हौ कि सिद्ध ता की सान हौ?
जोबन के जाल हौ, कि कालहू के काल हौ,
कि सत्रुन के साल हौ कि मित्रन के प्रान हौ?
8. श्रीधर या मुरलीधर , ये प्रयाग के रहनेवाले थे। इन्होंने कई पुस्तकें लिखीं और बहुत सी फुटकल कविता बनाई। संगीत की पुस्तक, नायिकाभेद, जैन मुनियों के चरित्र, कृष्णलीला के फुटकल पद्य, चित्रकाव्य इत्यादि के अतिरिक्त इन्होंने 'जंगनामा' नामक ऐतिहासिक प्रबंध काव्य लिखा जिसमें फर्रुखसियर और जहाँदारशाह के युद्ध का वर्णन है। यह ग्रंथ काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हो चुका है। इस छोटी सी पुस्तक में सेना की चढ़ाई, साज सामान आदि का कवित्त सवैया में अच्छा वर्णन है। इनका कविताकाल संवत् 1767 के आसपास माना जा सकता है। 'जंगनामा' का एक कवित्त नीचे दिया जाता है , 
इत गलगाजि चढयो फर्रुखसियर साह,
उत मौजदीन करी भारी भट भरती।
तोप की डकारनि सों बीर हहकारनि सों,
धौंसे की धुकारनि धामकि उठी धारती
श्रीधार नवाब फरजंदखाँ सुजंग जुरे,
जोगिनी अघाई जुग जुगन की बरती।
हहरयो हरौल, भीर गोल पै परी ही, तू न,
करतो हरौली तौ हरौले भीर परती
9. लाल कवि , इनका नाम गोरे लाल पुरोहित था और ये मऊ (बुंदेलखंड) के रहनेवाले थे। इन्होंने प्रसिद्ध महाराज छत्रसाल की आज्ञा से उनका जीवनचरित दोहों चौपाइयों में बड़े ब्योरे के साथ वर्णन किया है। इस पुस्तक में छत्रसाल का संवत् 1764 तक का ही वृत्तांत आया है। इससे अनुमान होता है कि या तो यह ग्रंथ अधूरा ही मिला है अथवा लाल कवि का परलोकवास छत्रसाल के पूर्व ही हो गया था। जो कुछ हो इतिहास की दृष्टि से 'छत्रप्रकाश' बड़े महत्व की पुस्तक है। इसमें सब घटनाएँ सच्ची और सब ब्योरे ठीक ठीक दिए गए हैं। इसमें वर्णित घटनाएँ और संवत् आदि ऐतिहासिक खोज के अनुसार बिल्कुल ठीक हैं, यहाँ तक कि जिस युद्ध में छत्रसाल को भागना पड़ा है उसका भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है। यह ग्रंथ नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हो चुका है।
ग्रंथ की रचना प्रौढ़ और काव्यगुणयुक्त है। लाल कवि में प्रबंधपटुता पूरी थी। संबंध का निर्वाह भी अच्छा है और वर्णन विस्तार के लिए मार्मिक स्थलों का चुनाव भी। वस्तुपरिगणन द्वारा वर्णनों का अरुचिकर विस्तार बहुत ही कम मिलता है। सारांश यह कि लाल कवि का सा प्रबंध कौशल हिन्दी के कुछ इने गिने कवियों में ही पाया जाता है। शब्दवैचित्रय और चमत्कार के फेर में इन्होंने कृत्रिमता कहीं से नहीं आने दी है। भावों का उत्कर्ष जहाँ दिखाना हुआ है, वहाँ भी कवि ने सीधी और स्वाभाविक उक्तियों का ही समावेश किया है, न तो कल्पना की उड़ान दिखाई है और न ऊहा की जटिलता। देश की दशा की ओर भी कवि का पूरा ध्यान जान पड़ता है। शिवाजी का जो वीरव्रत था वही छत्रसाल का भी था। छत्रसाल का जो भक्तिभाव शिवाजी पर कवि ने दिखाया है तथा दोनों के सम्मिलन का जो दृश्य खींचा है, दोनों इस संबंध में ध्यान देने योग्य हैं।
'छत्रप्रकाश' में लाल कवि ने बुंदेल वंश की उत्पत्ति, चंपतराय के विजयवृत्तांत, उनके उद्योग और पराक्रम, चंपतराय के अंतिम दिनों में उनके राज्य का उध्दार, फिर क्रमश: विजय पर विजय प्राप्त करते हुए मुगलों का नाकोंदम करना इत्यादि बातोंका विस्तार से वर्णन किया है। काव्य और इतिहास दोनों की दृष्टि से यह ग्रंथ हिन्दी में अपने ढंग का अनूठा है। लाल कवि का एक और ग्रंथ 'विष्णुविलास' है जिसमें बरवै छंद में नायिकाभेद कहा गया है। पर इस कवि की कीर्ति का स्तंभ 'छत्रप्रकाश' ही है।
'छत्रप्रकाश' से नीचे कुछ पद्य उध्दृत किए जाते हैं , 
(छत्रसाल प्रशंसा)
लखत पुरुष लच्छन सब जाने।
सतकबि कबित सुनत रस पागे।
रुचि सो लखत तुरंग जो नीके।
चौंकि चौंकि सब दिसि उठै सूबा खान खुमान।
अब धौं धावै कौन पर छत्रसाल बलवान
(युद्ध वर्णन)
छत्रसाल हाड़ा तहँ आयो।
भयो हरौल बजाय नगारो।
दौरि देस मुगलन के मारौ।
एक आन शिवराज निबाही।
आठ पातसाही झकझोरे।
काटि कटक किरबान बल, बाँटि जंबुकनि देहु।
ठाटि युद्ध यहि रीति सों, बाँटि धारनि धारि लेहु
चहुँ ओर सों सूबनि घेरो।
पजरे सहर साहि के बाँके।
कबहूँ प्रगटि युद्ध में हाँके।
बानन बरखि गयंदन फोरै।
कबहूँ उमड़ि अचानक आवै।
कबहूँ हाँकि हरौलन कूटै।
कबहूँ देस दौरि कै लावै।
10. घनआनंद ये साक्षात् रस मूर्ति और ब्रजभाषा काव्य के प्रधान स्तंभों में हैं। इनका जन्म संवत् 1746 के लगभग हुआ था और ये संवत् 1796 में नादिरशाही में मारे गए। ये जाति के कायस्थ और दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के मीर मुंशी थे। कहते हैं कि एक दिन दरबार में कुछ कुचक्रियों ने बादशाह से कहा कि मीर मुंशी साहब गाते बहुत अच्छा हैं। बादशाह से इन्होंने बहुत टालमटोल किया। इस पर लोगों ने कहा कि ये इस तरह न गाएँगे, यदि इनकी प्रेमिका सुजान नाम की वेश्या कहे तब गाएँगे। वेश्या बुलाई गई। इन्होंने उसकी ओर मुँह और बादशाह की ओर पीठ करके ऐसा गाना गाया कि सब लोग तन्मय हो गए। बादशाह इनके गाने पर जितना खुश हुआ उतना ही बेअदबी पर नाराज। उसने इन्हें शहर से निकाल दिया। जब ये चलने लगे तब सुजान से भी साथ चलने को कहा पर वह न गई। इस पर इन्हें विराग उत्पन्न हो गया और ये वृंदावन जाकर निंबार्क संप्रदाय के वैष्णव हो गए और वहीं पूर्ण विरक्त भाव से रहने लगे। वृंदावन भूमि का प्रेम इनके इस कवित्त से झलकता है , 
गुरनि बतायो, राधा मोहन हू गायो सदा,
सुखद सुहायो वृंदावन गाढ़े गहि रे।
अद्भुत अभूत महिमंडन, परे तें परे, 
जीवन को लाहु हा हा क्यों न ताहि लहिरे
आनंद को घन छायो रहत निरंतर ही,
सरस सुदेस सो, पपीहापन बहि रे।
जमुना के तीर केलि कोलाहल भीर ऐसी,
पावन पुलिन पै पतित परि रहि रे
संवत् 1796 में जब नादिरशाह की सेना के सिपाही मथुरा तक आ पहुँचे तब कुछ लोगों ने उनसे कह दिया कि वृंदावन में बादशाह का मीर मुंशी रहता है, उसके पास बहुत कुछ माल होगा। सिपाहियों ने इन्हें आ घेरा और 'जरजरजर' (अर्थात् धन, धन, धन लाओ) चिल्लाने लगे। घनानंद जी ने शब्द को उलटकर 'रज रज रज' कह कर तीन मुट्ठी वृंदावन की धूल उन पर फेंक दी। उनके पास सिवा इसके और था ही क्या? सैनिकों ने क्रोध में आकर इनका हाथ काट डाला। कहते हैं कि मरते समय इन्होंने अपने रक्त से यह कवित्त लिखा था , 
बहुत दिनान को अवधि आसपास परे,
खरे अरबरन भरे हैं उठि जान को।
कहि कहि आवन छबीले मनभावन को,
गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को
झूठी बतियानि को पत्यानि तें उदास ह्वै के,
अब ना घिरत घन आनंद निदान को।
अधर लगे हैं आनि करि कै पयान प्रान,
चाहत चलन ये सँदेसो लै सुजान को।
घनआनंदजी के इतने ग्रंथों का पता लगता है , सुजानसागर, विरहलीला, कोकसागर, रसकेलिवल्ली और कृपाकंद। इसके अतिरिक्त इनके कवित्त सवैयों के फुटकल संग्रह डेढ़ सौ से लेकर सवा चार सौ कवित्तों तक मिलते हैं, कृष्णभक्ति संबंधी इनका एक बहुत बड़ा ग्रंथ छत्रापुर के राजपुस्तकालय में है जिसमें प्रियाप्रसाद, ब्रजव्यवहार, वियोगवेली, कृपाकंदनिबंध, गिरिगाथा, भावनाप्रकाश, गोकुलविनोद, धामचमत्कार, कृष्णकौमुदी, नाममाधुरी, वृंदावनमुद्रा, प्रेमपत्रिका, रसबसंत इत्यादिअनेक विषय वर्णित हैं। इनकी 'विरहलीला' ब्रजभाषा में, पर फारसी के छंद में है।
इनकी सी विशुद्ध , सरस और शक्तिशालिनी ब्रजभाषा लिखने में और कोई कवि समर्थ नहीं हुआ। विशुद्ध ता के साथ प्रौढ़ता और माधुर्य भी अपूर्व ही है। विप्रलंभश्रृंगार ही अधिकतर इन्होंने लिखा है। ये वियोग श्रृंगार के प्रधान मुक्तक कवि हैं। 'प्रेम की पीर' ही को लेकर इनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ। प्रेममार्ग का ऐसा प्रवीण और धाीर पथिक तथा जबाँदानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ। अत: इनके संबंध में निम्नलिखित उक्ति बहुत ही संगत है , 
नेही महा, ब्रजभाषाप्रवीन और सुंदरताहु के भेद को जानै।
योग वियोग की रीति में कोविद, भावना भेद स्वरूप को ठानै
चाह के रंग में भीज्यो हियो, बिछुरे मिले प्रीतम सांति न मानै।
भाषाप्रवीन, सुछंद सदा रहै सो घन जू के कबित्ता बखानै
इन्होंने अपनी कविताओं में बराबर 'सुजान' को संबोधन किया है जो श्रृंगार में नायक के लिए और भक्तिभाव में भगवान कृष्ण के लिए प्रयुक्त मानना चाहिए। कहते हैं कि इन्हें अपनी पूर्वप्रेयसी 'सुजान' का नाम इतना प्रिय था कि विरक्त होने पर भी इन्होंने उसे नहीं छोड़ा। यद्यपि अपने पिछले जीवन में घनानंद विरक्त भक्त के रूप में वृंदावन जा रहे, पर इनकी अधिकांश कविता भक्तिभाव की कोटि में नहीं आएगी, श्रृंगार की ही कही जाएगी। लौकिक प्रेम की दीक्षा पाकर ही ये पीछे भगवत्प्रेम में लीन हुए। कविता इनकी भावपक्ष प्रधान है। कोरे विभावपक्ष का चित्रण इनमें कम मिलता है। जहाँ रूप छटा का वर्णन इन्होंने किया भी है वहाँ उसके प्रभाव का ही वर्णन मुख्य है। इनकी वाणी की प्रवृत्ति अंतर्वृत्ति निरूपण की ओर ही विशेष रहने के कारण बाह्यार्थ निरूपक रचना कम मिलती है। होली के उत्सव, मार्ग में नायक नायिका की भेंट, उनकी रमणीय चेष्टाओं आदि के वर्णन के रूप में ही वह पाई जाती है। संयोग का भी कहीं कहीं बाह्य वर्णन मिलता है, पर उसमें भी प्रधानता बाहरी व्यापारों की चेष्टाओं की नहीं है, हृदय के उल्लास और लीनता की ही है।
प्रेमदशा की व्यंजना ही इनका अपना क्षेत्र है। प्रेम की गूढ़ अंतर्दशा का उद्धाटनजैसा इनमें है वैसा हिन्दी के अन्य श्रृंगारी कवि में नहीं। इस दशा का पहला स्वरूपहै हृदय या प्रेम का आधिापत्य और बुद्धि का अधीन पद, जैसा कि घनानंद ने कहाहै , 
'रीझ सुजान सची पटरानी, बची बुधि बापुरी ह्वै करि दासी।'
प्रेमियों की मनोवृत्ति इस प्रकार की होती है कि वे प्रिय की कोई साधारण चेष्टा भी देखकर उसका अपनी ओर झुकाव मान लिया करते हैं और फूले फिरते हैं। इसका कैसा सुंदर आभास कवि ने नायिका के इस वचन द्वारा दिया है जो मन को संबोधन करके कहा गया है , 
'रुचि के वे राजा जान प्यारे हैं आनंदघन,
होत कहा हेरे, रंक! मानि लीनो मेल सो'
कवियों की इसी अंतर्दृष्टि की ओर लक्ष्य करके एक प्रसिद्ध मनस्तत्ववेत्ता ने कहा है कि भावों या मनोविकारों के स्वरूप परिचय के लिए कवियों की वाणी का अनुशीलन जितना उपयोगी है उतना मनोविज्ञानियों के निरूपण का नहीं।
प्रेम की अनिर्वचनीयता का आभास घनानंद ने विरोधाभासों के द्वारा दिया है। उनके विरोधमूलक वैचित्रय की प्रवृत्ति का कारण यही समझना चाहिए।
यद्यपि इन्होंने संयोग और वियोग दोनों पक्षों को लिया है, पर वियोग की अंतर्दशाओं की ओर दृष्टि अधिक है। इसी से इनके वियोग संबंधी पद्य प्रसिद्ध हैं। वियोगवर्णन भी अधिकतर अंतर्वृत्तिानिरूपक हैं, बाह्यार्थ निरूपक नहीं। घनानंद ने न तो बिहारी की तरह विरहताप को बाहरी माप से मापा है, न बाहरी उछलकूद दिखाई है। जो कुछ हलचल है वह भीतर की है , बाहर से यह वियोग प्रशांत और गंभीर है, न उसमें करवटें बदलना है, न सेज का आग की तरह तपना है, न उछलउछल कर भागना है। उनकी 'मौनमधि पुकार' है। 
यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि भाषा पर जैसा अचूक अधिकार इनका था वैसा और किसी कवि का नहीं। भाषा मानो इनके हृदय के साथ जुड़कर ऐसी वशवर्तिनी हो गई थी कि ये उसे अपनी अनूठी भावभंगी के साथ साथ जिस रूप में चाहते थे उस रूप में मोड़ सकते थे। उनके हृदय का योग पाकर भाषा की नूतन गतिविधि का अभ्यास हुआ और वह पहले से कहीं अधिक बलवती दिखाई पड़ी। जब आवश्यकता होती थी तब ये उसे बँधी प्रणाली पर से हटाकर अपनी नई प्रणालीपरले जाते थे। भाषा की पूर्व अर्जित शक्ति से ही काम न चलाकर इन्होंने उसे अपनी ओर से नई शक्ति प्रदान की है। घनानंद जी उन विरले कवियों में हैं जो भाषा की व्यंजकता बढ़ाते हैं। अपनी भावनाओं के अनूठे रूपरंग की व्यंजना के लिए भाषा का ऐसा बेधाड़क प्रयोग करनेवाला हिन्दी के पुराने कवियों में दूसरा नहीं हुआ। भाषा के लक्षक और व्यंजक बल की सीमा कहाँ तक है, इसकी पूरी परख इन्हीं को थी।
लक्षणा का विस्तृत मैदान खुला रहने पर भी हिन्दी कवियों ने उसके भीतर बहुत ही कम पैर बढ़ाया। एक घनानंद ही ऐसे कवि हुए हैं जिन्होंने इस क्षेत्र में अच्छी दौड़ लगाई। लाक्षणिक मूर्तिमत्ता और प्रयोगवैचित्रय की जो छटा इनमें दिखाई पड़ी, खेद है कि वह फिर पौने दो सौ वर्ष पीछे जाकर आधुनिककाल के उत्तारार्धा में, अर्थात् वर्तमानकाल की नूतन काव्यधारा में ही, 'अभिव्यंजनावाद' के प्रभाव से कुछ विदेशी रंग लिए प्रकट हुई। घनानंद का प्रयोग वैचित्रय दिखाने के लिए कुछ पंक्तियाँ नीचे उध्दृत की जाती हैं , 
(क) अरसानि गही वह बानि कछू, सरसानि सो आनि निहोरत है।
(ख) ह्वै है सोऊ घरी भाग उघरी अनंदघन सुरस बरसि, लाल! देखिहौ हरी हमें! 
('खुले भाग्यवाली घड़ी' में विशेषण-विपर्यय)।
(ग) उघरो जग, छाय रहे घन आनंद, चातक ज्यों तकिए अब तौ। (उघरो जग=संसार जो चारों ओर घेरे था वह दृष्टि से हट गया)।
(घ) कहिए सु कहा, अब मौन भली, नहिं खोवते जौ हमें पावते जू। (हमें=हमारा हृदय) विरोधमूलक वैचित्रय भी जगह जगह बहुत सुंदर मिलता है, जैसे , 
(च) झूठ की सचाई छाक्यौ, त्यों हित कचाई पाक्यो, ताके गुनगन घनआनंद कहा गनौ।
(छ) उजरनि बसी है हमारी अंखियानि देखो, सुबस सुदेस जहाँ रावरे बसत हो।
(ज) गति सुनि हारी, देखि थकनि मैं चली जाति, थिर चर दसा कैसी ढकी उघरति है।
(झ) तेरे ज्यों न लेखो, मोहि मारत परेखो महा, जान घनआनंद पे खोयबो लहत हैं।
इन उद्ध रणों से कवि की चुभती हुई वचनवक्रता पूरी पूरी झलकती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि कवि की उक्ति ने वक्र पथ हृदय के वेग के कारण पकड़ा है।
भाव का स्रोत जिस प्रकार टकराकर कहीं कहीं वक्रोक्ति के छींटे फेंकता है उसी प्रकार कहीं कहीं भाषा के स्निग्ध, सरल और चलते प्रवाह के रूप में भी प्रकट होता है। ऐसे स्थलों पर अत्यंत चलती और प्रांजल ब्रजभाषा की रमणीयता दिखाई पड़ती है , 
कान्ह परे बहुतायत में, इकलैन की वेदन जानौ कहा तुम?
हौ मनमोहन, मोहे कहूँ न, बिथा बिमनैन की मानौ कहा तुम?
बौरे बियोगिन्ह आप सुजान ह्वै, हाय कछू उर आनौ कहा तुम?
आरतिवंत पपीहन को घनआनंद जू! पहिचानो कहा तुम?

कारी कूर कोकिला कहाँ को बैर काढ़ति री,
कूकि-कूकि अबही करेजो किन कोरि रै।
पैंड़ परै पापी ये कलापी निसि द्यौस ज्यों ही, 
चातक रे घातक ह्वै तुहू कान फोरि लै
आनंद के घन प्रान जीवन सुजान बिना,
जानि कै अकेली सब घेरो दल जोरि लै।
जौ लौं करै आवन विनोद बरसावन वे,
तौ लौं रे डरारे बजमारे घन घोरि लै
इस प्रकार की सरल रचनाओं में कहीं कहीं नादव्यंजना भी बड़ी अनूठी है। एक उदाहरण लीजिए , 
ए रे बीर पौन! तेरो सबै ओर गौन, वारि
तो सों और कौन मनै ढरकौं ही बानि दै।
जगत के प्रान, ओछे बड़े को समान, घन
आनंदनिधान सुखदान दुखियानि दै
जान उजियारे, गुनभारे अति मोहि प्यारे
अब ह्वै अमोही बैठे पीठि पहिचानि दै। 
बिरहबिथा की मूरि ऑंखिन में राखौं पूरि,
धूरि तिन्ह पाँयन की हा हा! नैकु आनि दै
ऊपर के कवित्त के दूसरे चरण में आए हुए 'आनंदनिधान सुखदान दुखियानि दै' में मृदंग की ध्वनि का बड़ा ही सुंदर अनुकरण है। 
उक्ति का अर्थगर्भत्व भी घनानंद का स्वतंत्र और स्वावलंबी होता है, बिहारी के दोहों के समान साहित्य की रूढ़ियों (जैसे , नायिकाभेद) पर आश्रित नहीं रहता। उक्तियों की सांगोपांग योजना या अन्विति इनकी निराली होती है। कुछ उदाहरण लीजिए , 
पूरन प्रेम को मंत्र महा पन जा मधि सोधि सुधारि है लेख्यो।
ताही के चारु चरित्र विचित्रनि यों पचि कै रचि राखि बिसेख्यो
ऐसो हियो हित पत्र पवित्र जो आन कथा न कहूँ अवरेख्यो।
सो घनआनंद जान अजान लौं टूक कियो, पर बाँचि न देख्यो

आनाकानी आरसी निहारिबो करौगे कौलौं?
कहा मो चकित दसा त्यों न दीठि डोलिहै?
मौन हू सों देखिहौं कितेक पन पालिहौ जू, 
कूकभरी मूकता बुलाय आप बोलिहै
जान घनआनंद यों मोहि तुम्हें पैज परी,
जानियैगो टेक टरें कौन धौं मलोलिहै।
रुई दिए रहौगे कहाँ लौं बहरायबे की?
कबहूँ तौ मेरियै पुकार कान खोलिहै

अंतर में बासी पै प्रवासी कैसो अंतर है, 
मेरी न सुनत दैया! आपनीयौ ना कहौ।
लोचननि तारे ह्वै सुझायो सब, सूझौ नाँहिं,
बूझि न परति ऐसी सोचनि कहा दहौ
हौ तौ जानराय, जाने जाहु न, अजान यातें,
आनंद के घन छाया छाय उघरे रहौ।
मूरति मया की हा हा! सूरति दिखैये नेकु, 
हमैं खोय या बिधि हो! कौन धौं लहालहौ

मूरति सिंगार की उजारी छबि आछी भाँति,
दीठि लालसा के लोयननि लैलै ऑंजिहौं।
रतिरसना सवाद पाँवड़े पुनीतकारी पाय, 
चूमि चूमि कै कपोलनि सों माँजिहौं
जान प्यारे प्रान अंग अंग रुचि रंगिन में, 
बोरि सब अंगन अनंग दुख भाँजिहौं।
कब घनआनंद ढरौही बानि देखें, 
सुधा हेत मनघट दरकनि सुठि राँजिहौं
(राँजना , फूटे बरतन में जोड़ या टाँका लगाना)।
निसि द्यौस खरी उर माँझ अरी छबि रंगभरी मुरि चाहनि की।
तकि मोरनि त्यों चख ढोरि रहैं, ढरिगो हिय ढोरनि बाहनिकी
चट दै कटि पै बट प्रान गए गति सों मति में अवगाहनि की।
घनआनंद जान लख्यो जब तें जक लागियै मोहि कराहनि की
इस अंतिम सवैये के प्रथम तीन चरणों में कवि ने बहुत सूक्ष्म कौशल दिखाया है। 'मुरि चाहनि' और 'तकि मोरनि' से यह व्यक्त किया गया है कि एक बार नायक ने नायिका की ओर मुड़कर देखा फिर देखकर मुड़ गए और अपना रास्ता पकड़ा। देखकर जब वे मुड़े तब नायिका का मन उनकी ओर इस प्रकार ढल पड़ा जैसे पानी नारी में ढल जाता है। कटि में बल देकर प्यारे नायिका के मन में डूबने के भय से निकल गए।
घनानंद के ये दो सवैये बहुत प्रसिद्ध हैं , 
परकारज देह को धारे फिरौ परजन्य! जथारथ ह्वै दरसौ।
निधि नीर सुधा के समान करौ, सबही बिधि सुंदरता सरसौ
घनआनंद जीवनदायक हो, कबौं मेरियौ पीर हिये परसौ।
कबहूँ वा बिसासी सुजान के ऑंगन में अंसुवान को लै बरसौ

अति सूधो सनेह को मारग है, जहँ नैकु सयानप बाँक नहीं।
तहँ साँचे चलै तजि आपनपौ, झिझकैं कपटी जो निसाँक नहीं
घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ, इत एक तें दूसरो ऑंक नहीं।
तुम कौन सी पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं
('विरहलीला' से)
सलोने स्याम प्यारे क्यों न आवौ।
कहाँ हौ जू, कहाँ हौ जू, कहाँ हौ।
रहौ किन प्रान प्यारे नैन आगैं।
सजन! हित मान कै ऐसी न कीजै।
11. रसनिधि इनका नाम पृथ्वीसिंह था और ये दतिया के एक जमींदार थे। इनका संवत् 1717 तक वर्तमान रहना पाया जाता है। ये अच्छे कवि थे। इन्होंने बिहारी सतसई के अनुकरण पर 'रतनहजारा' नामक दोहों का एक ग्रंथ बनाया। कहीं कहीं तो बिहारी के वाक्य तक रख लिए हैं। इनके अतिरिक्त इन्होंने और भी बहुत से दोहे बनाए जिनका संग्रह बाबू जगन्नाथ प्रसाद (छत्रापुर) ने किया है। 'अरिल्ल और माँझों का संग्रह भी खोज में मिला है। ये श्रृंगाररस के कवि थे। अपने दोहों में इन्होंने फारसी कविता के भाव भरने और चतुराई दिखाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है। फारसी की आशिकी कविता के शब्द भी इन्होंने इस परिमाण में कहीं कहीं रखे हैं कि सुकवि और साहित्यिक शिष्टता को आघात पहुँचाता है। पर जिस ढंग की कविता इन्होंने की है उसमें इन्हें सफलता हुई है। कुछ दोहे उध्दृत किए जाते हैं , 
अद्भुत गति यहि प्रेम की, बैनन कही न जाय।
दरस भूख लागै दृगन, भूखहिं देत भगाय
लेहु न मजनू गोर ढिग, कोऊ लैला नाम।
दरदवंत को नेकु तौ, लेन देहु बिसराम

चतुर चितेरे तुव सबी लिखत न हिय ठहराय।
कलस छुवत कर ऑंगुरी कटी कटाछन जाय
मनगयंद छबि मद छके तोरि जँजीर भगात।
हिय के झीने तार सों सहजै ही बँधि जात
12. महाराज विश्वनाथ सिंह ये रीवाँ के बड़े ही विद्यारसिक और भक्त नरेश तथा प्रसिद्ध कवि महाराज रघुराजसिंह के पिता थे। आप संवत् 1778 से लेकर 1797 तक रीवाँ की गद्दी पर रहे। ये जैसे भक्त थे वैसे ही विद्याव्यसनी तथा कवियों और विद्वानों के आश्रयदाता थे। काव्यरचना में भी ये सिद्ध हस्त थे। यह ठीक है कि इनके नाम से प्रख्यात बहुत से ग्रंथ दूसरे कवियों के रचे हैं पर इनकी रचनाएँ भी कम नहीं हैं। नीचे इनकी बनाई पुस्तकों के नाम दिए जाते हैं जिनसे विदित होगा कि कितने विषयों पर इन्होंने लिखा है , 
(1) अष्टयाम आह्निक, (2) आनंदरघुनंदन (नाटक), (3) उत्तमकाव्यप्रकाश, (4) गीतारघुनंदन शतिका, (5) रामायण, (6) गीता रघुनंदन प्रामाणिक, (7) सर्वसंग्रह, (8) कबीर बीजक की टीका, (9) विनयपत्रिका की टीका, (10) रामचंद्र की सवारी, (11) भजन, (12) पदार्थ, (13) धानुर्विद्या, (14) आनंद रामायण, (15) परधर्म निर्णय, (16) शांतिशतक, (17) वेदांत पंचकशतिका, (18) गीतावली पूर्वार्ध्द, (19) धा्रुवाष्टक, (20) उत्तम नीतिचंद्रिका, (21) अबोधनीति, (22) पाखंड खंडिका, (23) आदिमंगल, (24) बसंत चौंतीसी, (25) चौरासी रमैनी, (26) ककहरा, (27) शब्द, 
(28) विश्वभोजनप्रसाद, (29) ध्यान मंजरी, (30) विश्वनाथ प्रकाश, (31) परमतत्व, (32) संगीत रघुनंदन इत्यादि।
यद्यपि ये रामोपासक थे, पर कुलपरंपरा के अनुसार निर्गुणसंत मत की बानी का भी आदर करते थे। कबीरदास के शिष्य धर्मदास का बांधावनरेश के यहाँ जाकर उपदेश सुनाना परंपरा से प्रसिद्ध है। 'ककहरा', 'शब्द', 'रमैनी' आदि उसी प्रभाव के द्योतक हैं। पर इनकी साहित्यिक रचना प्रधानत: रामचरित संबंधिनी है। कबीर बीजक की टीका इन्होंने निर्गुणब्रह्म के स्थान पर सगुण राम पर घटाई है। ब्रजभाषा में नाटक पहले पहल इन्होंने लिखा। इस दृष्टि से इनका 'आनंदरघुनंदन नाटक' विशेष महत्व की वस्तु है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इसे हिन्दी का प्रथम नाटक माना है। यद्यपि इसमें पद्यों की प्रचुरता है, पर संवाद सब ब्रजभाषा गद्य में है, अंकविधान और पात्रविधान भी है। हिन्दी के प्रथम नाटककार के रूप में ये चिरस्मरणीय हैं। 
इनकी कविता अधिकतर या तो वर्णनात्मक है अथवा उपदेशात्मक। भाषा स्पष्ट और परिमार्जित है। इनकी रचना के कुछ नमूने दिए जाते हैं , 
भाइन भृत्यन विष्णु सो रैयत, भानु सो सत्रुन काल सो भावै।
सत्रु बली सों बचे करि बुद्धि औ अस्त्रा सों धर्म की रीति चलावै
जीतन को करै केते उपाय औ दीरघ दृष्टि सबै फल पावै।
भाखत है बिसुनाथ धा्रुवै नृप सो कबहूँ नहिं राज गँवावै

बाजि गज सोर रथ सुतूर कतार जेते, 
प्यादे ऐंड़वारे जे सबीह सरदार के।
कुँवर छबीले जे रसीले राजबंस वारे,
सूर अनियारे अति प्यारे सरकार के
केते जातिवारे, केते केते देसवारे,
जीव स्वान सिंह आदि सैलवारे जे सिकार के।
डंका की धुकार ह्वै सवार सबैं एक बार, 
राजैं वार पार कार कोशलकुमार के

उठौ कुँवर दोउ प्रान पियारे।
हिमरितु प्रात पाय सब मिटिगे नभसर पसरे पुहकर तारे
जगवन महँ निकस्यो हरषित हिय बिचरन हेत दिवस मनियारो।
विश्वनाथ यह कौतुक निरखहु रविमनि दसहु दिसिन उजियारो

करि जो कर में कयलास लियो कसिके अब नाक सिकोरतहै।
दइ तालन बीस भुजा झहराय झुको धानु को झकझोरत है
तिल एक हलै न हलै पुहुमी रिसि पीसि के दाँतन तोरत है।
मन में यह ठीक भयो हमरे मद काको महेस न मोरत है
13. भक्तवर नागरीदासजी यद्यपि इस नाम से कई भक्त कवि ब्रज में हो गए, पर उनमें सबसे प्रसिद्ध कृष्णगढ़ नरेश महाराज सावंतसिंह जी हैं जिनका जन्म पौष कृष्ण 12 संवत् 1756 में हुआ था। ये बाल्यावस्था से ही बड़े शूरवीर थे। 13 वर्ष की अवस्था में इन्होंने बूँदी के हाड़ा जैत सिंह को मारा था। संवत् 1804 में ये दिल्ली के शाही दरबार में थे। इसी बीच में इनके पिता महाराज राजसिंह का देहांत हुआ। बादशाह अहमदशाह ने इन्हें दिल्ली में ही कृष्णागढ़ राज्य का उत्तराधिकार दिया, पर जब ये कृष्णगढ़ पहुँचे तब राज्य पर अपने भाई बहादुरसिंह का अधिकार पाया जो जोधपुर की सहायता से सिंहासन पर अधिकार कर बैठे थे। ये ब्रज की ओर लौट आए और मरहठों से सहायता लेकर इन्होंने अपने राज्य पर अधिकार किया। इस पर गृहकलह से इन्हें कुछ ऐसी विरक्ति हो गई कि ये सब छोड़ छाड़कर वृंदावन चले गए और वहाँ विरक्त भक्त के रूप में रहने लगे। अपनी उस समय की चित्तवृत्ति का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है , 
जहाँ कलह तहँ सुख नहीं, कलह सुखन को सूल।
सबै कलह इक राज में, राज कलह को मूल
कहा भयो नृप हू भए, ढोवत जग बेगार।
लेत न सुख हरि भक्ति को, सकल सुखन को सार
मैं अपने मन मूढ़ तें, डरत रहत हौं हाय।
वृंदावन की ओर तें, मति कबहूँ फिर जाय
वृंदावन पहुँचने पर वहाँ के भक्तों ने इनका बड़ा आदर किया। ये लिखते हैं कि पहले तो 'कृष्णगढ़ के राजा' यह व्यावहारिक नाम सुनकर वे कुछ उदासीन से रहे पर जब उन्होंने मेरे 'नागरीदास' (नागरी शब्द श्रीराधा के लिए आता है) नाम को सुना तब तो उन्होंने उठकर दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया , 
सुनि व्यवहारिक नाम को ठाढ़े दूरि उदास।
दौरि मिले भरि नैन सुनि नाम नागरीदास
इक मिलत भुजन भरि दौर दौर।
इक टेरि बुलावत और ठौर
वृंदावन में उक्त समय बल्लभाचार्य जी की गद्दी की पाँचवीं पीढ़ी थी। वृंदावन से इन्हें इतना प्रेम था कि एक बार ये वृंदावन के उस पार जा पहुँचे। रात को जब यमुना के किनारे लौटकर आए तब वहाँ कोई नाव बेड़ा न था। वृंदावन का वियोग इन्हें इतना असह्य हो गया कि ये यमुना में कूद पड़े और तैरकर वृंदावन आए। इस घटना का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है , 
देख्यो श्रीवृंदा बिपिन पार।
नहिं नाव, नाहिं कछु और दाव।
रहे बार लगन की लगै लाज।
यह चित्त माहिं करिकै विचार।
वृंदावन में इनके साथ इनकी उपपत्नी 'बणीठणीजी' भी रहती थीं, जो कविता भी करती थीं।
ये भक्त कवियों में बहुत ही प्रचुर कृति छोड़ गए हैं। इनका कविताकाल संवत्1780 से 1819 तक माना जा सकता है। इनका पहला ग्रंथ 'मनोरथमंजरी' संवत् 1780 में पूरा हुआ। इन्होंने संवत् 1814 में आश्विन शुक्ल 10 को राज्य पर अपने पुत्र सरदारसिंह जी को प्रतिष्ठित करके घरबार छोड़ा। इससे स्पष्ट है कि विरक्त होने के बहुत पहले ही ये कृष्णभक्ति और ब्रजलीला संबंधिनी बहुत सी पुस्तकें लिख चुके थे। कृष्णगढ़ में इनकी लिखी छोटी बड़ी सब मिलाकर 73 पुस्तकें संग्रहीत हैं जिनके नाम ये हैं , 
सिंगारसार, गोपीप्रेमप्रकाश (संवत् 1800), पदप्रसंगमाला, ब्रजबैकुंठ तुला, ब्रजसार (संवत् 1799), भोरलीला, प्रातरसमंजरी, बिहारचंद्रिका, (संवत् 1788), भोजनानंदाष्टक, जुगलरस माधुरी, फूलविलास, गोधान-आगमन दोहन, आनंदलग्नाष्टक, फागविलास, ग्रीष्मबिहार, पावसपचीसी, गोपीबैनविलास, रासरसलता, नैनरूपरस, शीतसागर, इश्कचमन, मजलिस मंडन, अरिल्लाष्टक, सदा की माँझ, वर्षा ऋतु की माँझ, होरी की माँझ, कृष्णजन्मोत्सव कवित्त, प्रियाजन्मोत्सव कवित्त, साँझी के कवित्त, रास के कवित्त, चाँदनी के कवित्त, दिवारी के कवित्त, गोवर्ध्दनधारन के कवित्त, होरी के कवित्त, फागगोकुलाष्टक, हिंडोरा के कवित्त, वर्षा के कवित्त, भक्तिमगदीपिका (1802), तीर्थानंद (1810), फागबिहार (1808), बालविनोद, वनविनोद (1809), सुजानानंद (1810), भक्तिसार (1799), देहदशा, वैराग्यवल्ली, रसिकरत्नावली (1782), कलिवैराग्यवल्लरी (1795), अरिल्लपचीसी, छूटक विधि, पारायण विधि प्रकाश (1799), शिखनख, नखशिख छूटक कवित्त, चचरियाँ, रेखता, मनोरथमंजरी (1780), रामचरित्रमाला, पदप्रबोधमाला, जुगल भक्तिविनोद (1808) रसानुक्रम के दोहे, शरद की माँझ, साँझी फूल बीनन संवाद, वसंतवर्णन, रसानुक्रम के कवित्त, फाग खेलन समेतानुक्रम के कवित्त, निकुंजविलास (1794), गोविंद परिचयी, वनजन प्रशंसा, छूटक दोहा, उत्सवमाला, पदमुक्तावली।
इनके अतिरिक्त 'वैनविलास' और 'गुप्तरसप्रकाश' नाम की दो अप्राप्य पुस्तकें भी हैं। इस लंबी सूची को देखकर आश्चर्य करने के पहले पाठक को यह जान लेना चाहिए कि ये नाम भिन्न भिन्न प्रसंगों वा विषयों के कुछ पद्यों में वर्णनमात्र हैं, जिन्हें यदि एकत्र करें तो 5 या 7 अच्छे आकार की पुस्तकों में आ जाएँगे। अत: ऊपर लिखे नामों को पुस्तकों के नाम न समझकर वर्णन के शीर्षकमात्र समझना चाहिए। इनमें से बहुतों को पाँच पाँच, दस दस, पचीस पचीस, पद्य मात्र समझिए। कृष्णभक्त कवियों की अधिकांश रचनाएँ इसी ढंग की हैं। भक्तिकाल के इतने अधिक कवियों की कृष्णलीला संबंधिनी फुटकल उक्तियों से ऊबे हुए और केवल साहित्यिक दृष्टि रखनेवाले पाठकों को नागरीदासजी की ये रचनाएँ अधिकांश में पिष्टपेषण सी प्रतीत होंगी। पर ये भक्त थे और साहित्यरचना की नवीनता आदि से कोई प्रयोजन नहीं रखते थे। फिर भी इनकी शैली और भावों में बहुत कुछ नवीनता और विशिष्टता है। कहीं कहीं बड़े सुंदर भावों की व्यंजना इन्होंने की है। कालगति के अनुसार फारसी काव्य का आशिकी और सूफियाना रंग ढंग भी कहीं कहीं इन्होंने दिखाया है। इन्होंने गाने के पदों के अतिरिक्त कवित्त, सवैया, अरिल्ल, रोला आदि कई छंदों का व्यवहार किया है। भाषा भी सरस और चलती है विशेषत: पदों की। कवित्तों की भाषा में वह चलतापन नहीं है। कविता के नमूने नीचे देखिए , 
(वैराग्यसागर से)
काहे को रे नाना मत सुनै तू पुरातन के, 
तै ही कहा? तेरी मूढ़ गूढ़ मति पंग की।
वेद के विवादनि को पावैगो न पार कहूँ,
छाँड़ि देहु आस सब दान न्हान गंग की
और सिद्धि सोधो अब, नागर, न सिद्ध कछू, 
मानि लेहु मेरी कही वात्तराा सुढंग की।
जाइ ब्रज भोरे! कोरे मन को रँगाइ ले रे, 
वृंदावन रेनु रची गौर स्याम रंग की
(अरिल्ल)
अंतर कुटिल कठोर भरे अभिमान सों, 
तिनके गृह नहिं रहैं संत सनमान सों,
उनकी संगति भूलि न कबहूँ जाइए, 
ब्रजनागर नँदलाल सु निसिदिन गाइए
(पद)
जौ मेरे तन होते दोय। 
मैं काहू तें कछु नहिं कहतो, मोतें कछु कहतो नहिं कोय
एक जो तन हरिविमुखन के सँग रहतो देस विदेस।
विविधा भाँति के जग दुख सुख जहँ, नहीं भक्ति लवलेस
एक जौ तन सतसंग रंग रँगि रहतो अति सुखपूर।
जनम सफल करि लेतो ब्रज बसि जहँ ब्रज जीवन मूर
द्वै तन बिन द्वै काज न ह्वै हैं, आयु तौ छिन छिन छीजै।
नागरिदास एक तन तें अब कहौ काह करि लीजै
(मनोरथ मंजरी से)
चरन छिदत काँटेनि तें स्रवत रुधिर सुधि नाहिं।
पूछति हौं फिरि हौं भटू खग मृग तरु बन माहिं
कबै झुकत मो ओर को ऐहैं मदगज चाल।
गरबाहीं दीने दोऊ प्रिया नवल नंदलाल

(इश्क चमन से)
सब मजहब सब इल्म अरु सबै ऐश के स्वाद।
अरे इश्क के असर बिनु ये सबही बरबाद
आया इश्क लपेट में, लागी चश्म चपेट। 
सोई आया खलक में, और भरैं सब पेट
(वर्षा के कवित्त से)
भादों की कारी अंधयारी निसा झुकि बादर मंद फुही बरसावै।
स्यामा जू आपनी ऊँची अटा पै छकी रसरीति मलारहि गावै
ता समै मोहन के दृग दूरि तें आतुर रूप की भीख यों पावै।
पौन मया करि घूँघट टारै, दया करि दामिनि दीप दिखावै
14. जोधाराज ये गौड़ ब्राह्मण बालकृष्ण के पुत्र थे। इन्होंने नीवँगढ़ (वर्तमान नीमराणा अलवर) के राजा चंद्रभान चौहान के अनुरोध से 'हम्मीररासो' नामक एक बड़ा प्रबंधकाव्य संवत् 1875 में लिखा जिसमें रणथंभौर के प्रसिद्ध वीर महाराज हम्मीरदेव का चरित्र वीरगाथाकाल की छप्पय पद्ध ति पर वर्णन किया गया है। हम्मीरदेव सम्राट पृथ्वीराज के वंशज थे। उन्होंने दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन को कई बार परास्त किया था और अंत में अलाउद्दीन की चढ़ाई में ही वे मारे गए थे। इस दृष्टि से इस काव्य के नायक देश के प्रसिद्ध वीरों में हैं। जोधाराज ने चंद आदि प्राचीन कवियों की पुरानी भाषा का भी यत्रा तत्रा अनुकरण किया है; जैसे जगह जगह 'हि' विभक्ति के प्राचीन रूप 'ह' का प्रयोग। 'हम्मीररासो' की कविता बड़ी ओजस्विनी है। घटनाओं का वर्णन ठीक ठीक और विस्तार के साथ हुआ है। काव्य का स्वरूप देने के लिए कवि ने कुछ घटनाओं की कल्पना भी की है जैसे महिमा मंगोल का अपनी प्रेयसी वेश्या के साथ दिल्ली से भागकर हम्मीरदेव की शरण में आना और अलाउद्दीन का दोनों को माँगना। यह कल्पना राजनीतिक उद्देश्य हटाकर प्रेम प्रसंग को युद्ध का कारण बताने के लिए, प्राचीन कवियों की प्रथा के अनुसार की गई है। पीछे संवत् 1902 में चंद्रशेखर वाजपेयी ने जो हम्मीरहठ लिखा उसमें भी यह घटना ज्यों की त्यों ले ली गई है। ग्वाल कवि के हम्मीरहठ में भी बहुत संभव है कि, यह घटना ली गई होगी।
प्राचीन वीरकाल के अंतिम राजपूत वीर का चरित जिस रूप में और जिस प्रकार की भाषा में अंकित होना चाहिए था उसी रूप में उसी प्रकार की भाषा में जोधाराज अंकित करने में सफल हुए हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। इन्हें हिन्दी काव्य की ऐतिहासिक परंपरा की अच्छी जानकारी थी, यह बात स्पष्ट लक्षित होती है। नीचे इनकी रचना के कुछ नमूने उध्दृत किए जाते हैं , 
कब हठ करै अलावदी रणथँभवर गढ़ आहि।
कबै सेख सरनै रहै बहुरयो महिमा साहि
सूर सोच मन में करौ, पदवी लहौ न फेरि।
जो हठ छंडो राव तुम, उत न लजै अजमेरि
सरन राखि सेख न तजौ, तजौ सीस गढ़ देस।
रानी राव हमीर को यह दीन्हौं उपदेस

कहँ पवार जगदेव सीस आपन कर कट्टयो।
कहाँ भोज विक्रम सुराव जिन परदुख मिट्टयो
सवा भार नित करन कनक विप्रन को दीनो।
रह्यो न रहिए कोय देव नर नाग सु चीनो
यह बात राव हम्मीर सूँ रानी इमि आसा कही।
जो भई चक्कवै मंडली सुनौ राव दीखै नहीं

जीवन मरन सँजोग जग कौन मिटावै ताहि।
जो जनमै संसार में अमर रहै नहिं आहि
कहाँ जैत कहँ सूर, कहाँ सोमेस्वर राणा।
कहाँ गए प्रथिराज साह दल जीति न आणा
होतब मिटै न जगत में कीजै चिंता कोहि।
आसा कहै हमीर सौं अब चूकौ मति सोहि

पुंडरीक सुत सुता तासु पद कमल मनाऊँ।
बिसद बरन बर बसन बिषद भूषन हिय धयाऊँ
बिषद जंत्रा सुर सुद्ध तंत्र सुंदर जेत सोहै।
विषद ताल इक भुजा, दुतिय पुस्तक मन मोहै
मति राजहंस हंसन चढ़ी रटी सुरन कीरति बिमल।
जय मातु सदा बरदायिनी, देहु सदा बरदान बल
15. बख्शी हंसराज ये श्रीवास्तव कायस्थ थे। इनका जन्म संवत् 1799 में पन्ना में हुआ था। इनके पूर्वज बख्शी हरिकिशुन जी पन्ना राज्य के मंत्री थे। हंसराज जी पन्नानरेश श्री अमानसिंह जी के दरबारियों में थे। ये ब्रज की व्यास गद्दी के 'विजयसखी' नामक महात्मा के शिष्य थे, जिन्होंने इनका सांप्रदायिक नाम 'प्रेमसखी' रखा था। 'सखी भाव' के उपासक होने के कारण इन्होंने अत्यंत प्रेम माधुर्यपूर्ण रचनाएँ की हैं। इनके चार ग्रंथ पाए जाते हैं , 
(1) सनेहसागर, (2) विरहविलास, (3) रामचंद्रिका, (4) बारहमासा (संवत् 1811)। 
इनमें से प्रथम बड़ा ग्रंथ है। दूसरा शायद इनकी पहली रचना है। 'सनेहसागर' का संपादन श्रीयुत् लाला भगवानदीनजी बड़े अच्छे ढंग से कर चुके हैं। शेष ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुए हैं।
'सनेहसागर' नौ तरंगों में समाप्त हुआ है जिनमें कृष्ण की विविधा लीलाएँ सार छंद में वर्णन की गई हैं। भाषा बहुत ही मधुर, सरस और चलती है। भाषा का ऐसा स्निग्ध सरल प्रवाह बहुत ही कम देखने में आता है। पदविन्यास अत्यंत कोमल और ललित है। कृत्रिमता का लेश नहीं। अनुप्रास बहुत ही संयत मात्रा में और स्वाभाविक है। माधुर्य प्रधानत: संस्कृत की पदावली का नहीं, भाषा की सरल सुबोध पदावली का है। एक शब्द का भी समावेश व्यर्थ केवल पादपर्ूत्यअर्थ नहीं है। सारांश यह कि इनकी भाषा सब प्रकार से आदर्श भाषा है। कल्पना भावविधान में ही पूर्णतया प्रवृत्त है, अपनी अलग उड़ान दिखाने में नहीं। भावविकास के लिए अत्यंत परिचित और स्वाभाविक व्यापार ही रखे गए हैं। वास्तव में 'सनेहसागर' एक अनूठा ग्रंथ है। उसके कुछ पद नीचे उध्दृत किए जाते हैं , 
दमकति दिपति देह दामिनि सी चमकत चंचल नैना।
घूँघट बिच खेलत खंजन से उड़ि उड़ि दीठि लगै ना
लटकति ललित पीठ पर चोटी बिच बिच सुमन सँवारी। 
देखे ताहि मैर सो आवत, मनहु भुजंगिनी कारी

इत ते चली राधिका गोरी सौंपन अपनी गैया।
उत तें अति आतुर आनंद सों आये कुँवर कन्हैया
कसि भौहैं, हँसि कुँवरि राधिका कान्ह कुँवर सों बोली।
अंग अंग उमगि भरे आनंद सौं, दरकति छिन छिन चोली

एरे मुकुटवार चरवाहे! गाय हमारी लीजौ।
जाय न कहूँ तुरत की ब्यानी, सौंपि खरक कै दीजौ
होहु चरावनहार गाय के बाँधानहार छुरैया।
कलि दीजौ तुम आय दोहनी, पावै दूध लुरैया

कोऊ कहूँ आय बनवीथिन या लीला लखि जैहै। 
कहि कहि कुटिल कठिन कुटिलन सों सिंगरे ब्रजबगरैहै
जो तुम्हरी इनकी ये बातैं सुनिहैं कीरति रानी।
तौ कैसै पटिहै पाटे तें, घटिहै कुल को पानी
16. जनकराज किशोरीशरण ये अयोध्या के एक वैरागी थे और संवत् 1797में वर्तमान थे। इन्होंने भक्ति, ज्ञान और रामचरित संबंधिनी बहुत सी कविता की है। कुछ ग्रंथ संस्कृत में भी लिखे हैं। हिन्दी कविता साधारणत: अच्छी है। इनकी बनाई पुस्तकों के नाम ये हैं , 
आंदोलनरहस्य दीपिका, तुलसीदासचरित्र, विवेकसार चंद्रिका, सिध्दांत चौंतीसी, बारहखड़ी, ललित श्रृंगार दीपक, कवितावली, जानकीशरणाभरण, सीताराम सिध्दांतमुक्तावली, अनन्यतरंगिणी, रामरसतरंगिणी, आत्मसंबंधदर्पण, होलिकाविनोददीपिका, वेदांतसार, श्रुतिदीपिका, रसदीपिका, दोहावली, रघुवर करुणाभरण।
उपर्युक्त सूची से प्रकट है कि इन्होंने राम सीता के श्रृंगार, ऋतुबिहार आदि के वर्णन में ही भाषा कविता की है। इनका एक पद्य आगे दिया जाता है , 
फूले कुसुम द्रुम विविधा रंग सुगंधा के चहुँ चाब।
गुंजत मधुप मधुमत्ता नाना रंग रज अंग फाब
सीरो सुगंधा सुमंद बात विनोद कंत बहंत। 
परसत अनंग उदोत हिय अभिलाष कामिनिकंत
17. अलबेली अलि ये विष्णुस्वामी संप्रदाय के महात्मा 'वंशीअलि' जी के शिष्य थे। इनके अतिरिक्त इनका कोई वृत्त ज्ञात नहीं। अनुमान से इनका कविताकाल विक्रम की 18वीं शताब्दी का अंतिम भाग आता है। ये भाषा के सत्कवि होने के अतिरिक्त संस्कृत में भी सुंदर रचना करते थे जिसका प्रमाण इनका लिखा 'श्रीस्त्रोत' है। इन्होंने 'समयप्रबंध पदावली' नामक एक ग्रंथ लिखा है जिसमें 313 बहुत ही भावभरे पद हैं। नीचे कुछ पद उध्दृत किए जाते हैं , 
लाल तेरे लोभी लोलुप नैन।
केहि रस छकनि छके हौ छबीले मानत नाहिन चैन
नींद नैन घुरि घुरि आवत अति, घोरि रही कछु नैन
अलबेली अलि रस के रसिया, कत बिसरत ये बैन

बने नवल प्रिय प्यारी।
सरद रैन उजियारी
सरद रैन सुखदैन मैनमय जमुनातीर सुहायो।
सकल कलापूरन ससि सीतल महिमंडल पर आयो
अतिसय सरस सुगंधा मंद गति बहत पवन रुचिकारी।
नव नव रूप नवल नव जोबन बने नवल पिय प्यारी
18. चाचा हित वृंदावन दास ये पुष्कर क्षेत्र के रहने वाले गौड़ ब्राह्मण थे और संवत् 1765 में उत्पन्न हुए थे। ये राधाबल्लभीय गोस्वामी हितरूपजी के शिष्य थे। तत्कालीन गोसाईं जी के पिता के गुरु भ्राता होने के कारण गोसाईं जी की देखा देखी सब लोग इन्हें 'चाचाजी' कहने लगे। ये महाराज नागरीदास जी के भाई बहारदुरसिंह जी के आश्रय में रहते थे, पर जब राजकुल में विग्रह उत्पन्न हुआ तब ये कृष्णगढ़ छोड़कर वृंदावन चले आए और अंत समय तक वहीं रहे। संवत् 1800 से लेकर संवत् 1844 तक की इनकी रचनाओं का पता लगता है। जैसे सूरदास के सवा लाख पद बनाने की जनश्रुति है, वैसे ही इनके भी एक लाख पद और छंद बनाने की बात प्रसिद्ध है। इनमें से 20,000 के लगभग पद्य तो इनके मिले हैं। इन्होंने नखशिख, अष्टयाम, समयप्रबंध, छर्लिंीला आदि असंख्य प्रसंगों का विशद वर्णन किया है। छिर्लंीलाओं का वर्णन तो बड़ा ही अनूठा है। इनके ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुए हैं। रागरत्नाकर आदि ग्रंथों में इनके बहुत से पद संगृहीत मिलते हैं। छत्रपुर के राजपुस्तकालय में इनकी बहुत सी रचनाएँ सुरक्षित हैं।
इतने अधिक परिमाण में होने पर भी इनकी रचना शिथिल या भरती की नहीं है। भाषा पर इनका पूरा अधिकार प्रकट होता है। लीलाओं के अंतर्गत वचन और व्यापार की योजना भी इनकी कल्पना की स्फूर्ति का परिचय देती है। इनके दो पद नीचे दिए जाते हैं , 
(मनिहारी लीला से)
मिठबोलनी नवल मनिहारी।
भौंहें गोल गरूर हैं, याके नयन चुटीले भारी।
चूरी लखि मुख तें कहै, घूँघट में मुसकाति।
ससि मनु बदरी ओट तें दुरि दरसत यहि भाँति।
चूरो बड़ो है मोल को, नगर न गाहक कोय। 
मो फेरी खाली परी, आई सब घर टोय

प्रीतम तुम मो दृगन बसत हो। 
कहा भरोसे ह्वै पूछत हौ, कै चतुराई करि जु हँसत हौ
लीजै परखि स्वरूप आपनो, पुतरिन में तुमहीं तौ लसतहौ।
वृंदावन हित रूप रसिक तुम, कुंज लड़ावत हिय हुलसतहौ
19. गिरधर कविराय इनका कुछ भी वृत्तांत ज्ञात नहीं। नाम से भाट जान पड़ते हैं। शिवसिंह ने इनका जन्म संवत् 1770 दिया है जो संभवत: ठीक हो। इस हिसाब से इनका कविता काल संवत् 1800 के उपरांत ही माना जा सकता है। इनकी नीति की कुंडलियाँ ग्राम ग्राम में प्रसिद्ध हैं। अनपढ़ लोग भी दो-चार चरण जानते हैं। इस सर्वप्रियता का कारण है बिल्कुल सीधी सादी भाषा में तथ्याभाव का कथन। इनमें न तो अनुप्रास आदि द्वारा भाषा की सजावट है, न उपमा, उत्प्रेक्षा आदि का चमत्कार। कथन की पुष्टि मात्र के लिए (अलंकार की दृष्टि से नहीं) दृष्टांत आदि इधर उधर मिलते हैं। कहीं कहीं पर बहुत कम, कुछ अन्योक्ति का सहारा इन्होंने लिया है। इन सब बातों के विचार से ये कोरे 'पद्यकार' ही कहे जा सकते हैं; सूक्तिकार भी नहीं। वृंद कवि में और इनमें यही अंतर है। वृंद ने स्थान स्थान पर अच्छी घटती हुई और सुंदर उपमाओं आदि का भी विधान किया है। पर इन्होंने कोरा तथ्यकथन किया है। कहीं कहीं तो इन्होंने शिष्टता का ध्यान भी नहीं रखा है। घर गृहस्थी के साधारण व्यवहार, लोक व्यवहार आदि का बड़े स्पष्ट शब्दों में इन्होंने कथन किया है। यही स्पष्टता इनकी सर्वप्रियता का एकमात्र कारण है। दो कुंडलियाँ दी जाती हैं , 
साईं बेटा बाप के बिगरे भयो अकाज।
हरनाकुस अरु कंस को गयो दुहुन को राज
गयो दुहुन को राज बाप बेटा के बिगरे।
दुसमन दावागीर भए महिमंडल सिगरे
कह गिरिधर कविराय जुगन याही चलि आई। 
पिता पुत्र के बैर नफा कहु कौने पाई

रहिए लटपट काटि दिन बरु घामहिं में सोय।
छाँह न वाकी बैठिए जो तरु पतरो होय
जो तरु पतरो होय एक दिन धोखा दैहै।
जा दिन बहै बयारि टूटि तब जर से जैहै
कह गिरधार कविराय छाँह मोटे की गहिए।
पाता सब झरि जाय तऊ छाया में रहिए
20. भगवत रसिक ये टट्टी संप्रदाय के महात्मा स्वामी ललित मोहनीदास के शिष्य थे। इन्होंने गद्दी का अधिकार नहीं लिया और निर्लिप्त भाव से भगवद्भजन में लगे रहे। अनुमान से इनका जन्म संवत् 1795 के लगभग हुआ। अत: इनका रचनाकाल संवत् 1830 और 1850 के बीच माना जा सकता है। इन्होंने अपनी उपासना से संबंध रखनेवाले अनन्य प्रेमरसपूर्ण बहुत से पद, कवित्त, कुंडलियाँ, छप्पय आदि रचे हैं जिनमें एक ओर तो वैराग्य का भाव और दूसरी ओर अनन्य प्रेम का भाव छलकता है। इनका हृदय प्रेमरसपूर्ण था। इसी से इन्होंने कहा है कि 'भगवत रसिक रसिक की बातें रसिक बिना कोउ समुझि सकै ना।' ये कृष्णभक्ति में लीन एक प्रेमयोगी थे। इन्होंने प्रेमतत्व का निरूपण बड़े ही अच्छे ढंग से किया है। कुछ पद्य नीचे दिए जाते हैं , 
कुंजन तें उठि प्रात गात जमुना में धोवैं।
निधुवन करि दंडवत बिहारी को मुख जोवैं
करैं भावना बैठि स्वच्छ थल रहित उपाधा।
घर घर लेय प्रसाद लगै जब भोजन साधा
संग करै भगवत रसिक, कर करवा गूदरि गरे।
बृंदावन बिहरत फिरै, जुगल रूप नैनन भरै

हमारो वृंदावन उर और।
माया काल तहाँ नहिं व्यापै जहाँ रसिक सिरमौर
छूटि जाति सत असत वासना, मन की दौरादौर।
भगवत रसिक बतायो श्रीगुरु अमल अलौकिक ठौर
21. श्री हठीजी ये श्री हितहरिवंश जी की शिष्य परंपरा में बड़े ही साहित्यमर्मज्ञ और कलाकुशल कवि हो गए हैं। इन्होंने संवत् 1837 में 'राधासुधाशतक' बनाया जिसमें 11 दोहे और 103 कवित्त सवैया हैं। अधिकांश भक्तों की अपेक्षा इनमें विशेषता यह है कि इन्होंने कलापक्ष पर भी पूरा जोर दिया है। इनकी रचना में यमक, अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि का बाहुल्य पाया जाता है। पर साथ ही भाषा या वाक्य विन्यास में लद्ध ड़पन नहीं आने पाया है। वास्तव में 'राधासुधाशतक' छोटा होने पर भी अपने ढंग का अनूठा ग्रंथ है। भारतेंदु हरिश्चंद्र को यह ग्रंथ अत्यंत प्रिय था। उससे कुछ अवतरण नीचे दिए जाते हैं , 
कलप लता के किधौं पल्लव नवीन दोऊ,
हरन मंजुता के कंज ताके बनिता के हैं।
पावन पतित गुन गावैं मुनि ताके छबि
छलै सबिता के जनता के गुरुताके हैं
नवौं निधि ताके सिद्ध ता के आदि आलै हठी, 
तीनौ लोकता के प्रभुता के प्रभु ताके हैं।
कटै पाप ताकै बढ़ै पुन्य के पताके जिन, 
ऐसे पद ताके वृषभानु की सुता के हैं

गिरि कीजै गोधान मयूर नव कुंजन को, 
पसु कीजै महराज नंद के नगर को। 
नर कौन, तौन जौन राधो राधो नाम रटै, 
तट कीजै बर कूल कालिंदी कगर को
इतने पै जोई कछु कीजिए कुँवर कान्ह, 
राखिए न आन फेर हठी के झगर को। 
गोपी पद पंकज पराग कीजै महाराज, 
तृन कीजै रावरेई गोकुल नगर को
22. गुमान मिश्र ये महोबे के रहनेवाले गोपालमणि के पुत्र थे। इनके तीन भाई और थे। दीपसाहि, खुमान और अमान। गुमान ने पिहानी के राजा अकबरअली खाँ के आश्रय में संवत् 1800 में श्री हर्षकृत नैषधा काव्य का पद्यानुवाद नाना छंदों में किया। यही ग्रंथ इनका प्रसिद्ध है और प्रकाशित भी हो चुका है। इसके अतिरिक्त खोज में इनके दो ग्रंथ और मिले हैं , कृष्णचंद्रिका और छंदाटवी (पिंगल)। कृष्णचंद्रिका का निर्माणकाल संवत् 1838 है। अत: इनका कविताकाल संवत् 1800 से 1840 तक माना जा सकता है। इन तीनों ग्रंथों के अतिरिक्त रस, नायिकाभेद, अलंकार आदि कई और ग्रंथ सुने जाते हैं।
यहाँ केवल इनके नैषधा के संबंध में ही कुछ कहा जा सकता है। इस ग्रंथ में इन्होंने बहुत से छंदों का प्रयोग किया है और बहुत जल्दी जल्दी छंद बदले हैं। इंद्रवज्रा, वंशस्थ, मंदाक्रांता, शार्दूलविक्रीड़ित आदि कठिन वर्णवृत्तों से लेकर दोहा चौपाई तक मौजूद हैं। ग्रंथारंभ में अकबरअली खाँ की प्रशंसा में जो बहुत से कवित्त इन्होंने कहे हैं, उनसे इनकी चमत्कारप्रियता स्पष्ट प्रकट होती है। उनमें परिसंख्या अलंकार की भरमार है। गुमान जी अच्छे साहित्यमर्मज्ञ और काव्यकुशल थे, इसमें कोई संदेह नहीं। भाषा पर भी इनका पूरा अधिकार था। जिन श्लोकों के भाव जटिल नहीं हैं उनका अनुवाद बहुत ही सरस और सुंदर है। वह स्वतंत्र रचना के रूप में प्रतीत होता है पर जहाँ कुछ जटिलता है वहाँ की वाक्यावली उलझी हुई और अर्थ अस्पष्ट है। बिना मूल श्लोक सामने आए ऐसे स्थानों का स्पष्ट अर्थ निकालना कठिन ही है। अत: सारी पुस्तक के संबंध में यही कहना चाहिए कि अनुवाद में वैसी सफलता नहीं हुई है। संस्कृत के भावों के सम्यक् अवतरण में यह असफलता गुमान ही के सिर नहीं मढ़ी जा सकती। रीतिकाल के जिन जिन कवियों ने संस्कृत से अनुवाद करने का प्रयत्न किया है उनमें बहुत से असफल हुए हैं। ऐसा जान पड़ता है कि इस काल में जिस मधुर रूप में ब्रजभाषा का विकास हुआ वह सरल व्यंजना के तो बहुत ही अनुकूल हुआ पर जटिल भावों और विचारों के प्रकाश में वैसा समर्थ नहीं हुआ। कुलपति मिश्र ने 'रसरहस्य' में काव्यप्रकाश का जो अनुवाद किया है उसमें भी जगह जगह इसी प्रकार अस्पष्टता है। 
गुमानजी उत्तम श्रेणी के कवि थे, इसमें संदेह नहीं। जहाँ वे जटिल भाव भरने की उलझन में नहीं पड़े हैं वहाँ की रचना अत्यंत मनोहारिणी हुई है। कुछ पद्य उध्दृत किए जाते हैं , 
दुर्जन की हानि, बिरधापनोई करै पीर, 
गुन लोप होत एक मोतिन के हार ही। 
टूटे मनिमालै निरगुन गायताल लिखै, 
पोथिन ही अंक, मन कलह विचारही
संकर बरन पसु पच्छिन में पाइयत,
अलक ही पारै अंसभंग निराधार ही।
चिर चिर राजौ राज अली अकबर, सुरराज
के समाज जाके राज पर बारही

दिग्गज दबत दबकत दिगपाल भूरि,
धूरि की धुंधोरी सों अंधेरी आभा भान की।
धाम औ धारा को, माल बाल अबला को अरि,
तजत परान राह चाहत परान की
सैयद समर्थ भूप अली अकबर दल, 
चलत बजाय मारू दुंदुभी धुकान की।
फिर फिर फननि फनीस उलटतु ऐसे, 
चोली खोलि ढोली ज्यों तमोली पाके पानकी

न्हाती जहाँ सुनयना नित बावलीमें, 
छूटे उरोजतल कुंकुम नीर ही में।
श्रीखंड चित्र दृग अंजन संग साजै,
मानौ त्रिबेनि नित ही घर ही बिराजै

हाटक हंस चल्यो उड़िकै नभ में दुगुनी तन ज्योति भई। 
लीक सी खैंचि गयो छन में छहराय रही छबि सोनमई।
नैनन सों निरख्यो न बनायकै कै उपमा मन माहिं लई।
स्यामल चीर मनौ पसरयो तेहि पै कल कंचन बेलि नई
23. सरजूराम पंडित इन्होंने 'जैमिनीपुराण भाषा' नामक एक कथात्मक ग्रंथ संवत् 1805 में बनाकर तैयार किया। इन्होंने अपना कुछ भी परिचय अपने ग्रंथ में नहीं दिया है। जैमिनीपुराण दोहों, चौपाइयों में तथा और कई छंदों में लिखा गया है और 36 अधयायों में समाप्त हुआ है। इसमें बहुतसी कथाएँ आई हैं; जैसे युधिष्ठर का राजसूय यज्ञ, संक्षिप्त रामायण, सीतात्याग, लवकुश युद्ध , मयूरधवज, चंद्रहास आदि राजाओं की कथाएँ। चौपाइयों का ढंग 'रामचरितमानस' का सा है। कविता इनकी अच्छी हुई है। उसमें गांभीर्य है। नमूने के लिए कुछ पद नीचे दिए जाते हैं , 
गुरुपद पंकज पावन रेनू।
गुरुपद रज अज हरिहर धामा।
तब लगि जग जड़ जीव भुलाना।
श्री गुरु पंकज पाँव पसाऊ।
सुमिरत होत हृदय असनाना।
24. भगवंत राय खीची ये असोथर (जिला , फतेहपुर) के बड़े गुणग्राही राजा थे जिनके यहाँ बराबर अच्छे अच्छे कवियों का सत्कार होता रहता था। शिवसिंहसरोज में लिखा है कि इन्होंने सातों कांड रामायण बड़े सुंदर कवित्तों में बनाई है। यह रामायण तो इनकी नहीं मिलती पर हनुमान जी की प्रशंसा के 50 कवित्त इनके अवश्य पाए गए हैं जो संभव है रामायण के ही अंश हों। खोज में इनकी 'हनुमत् पचीसी' मिली है उसमें निर्माणकाल 1817 दिया है। इनकी कविता बड़ी ही उत्साहपूर्ण और ओजस्विनी है। एक कवित्त देखिए , 
विदित बिसाल ढाल भालु कपि जाल की है, 
ओट सुरपाल की है तेज के तुमार की।
जाहि सों चपेटि कै गिराए गिरि गढ़ जासों,
कठिन कपाट तोरे, लंकनी सो मार की
भनै भगवंत जासों लागि लागि भेंटे प्रभु,
जाके त्रास लखन को छुभिता खुमार की।
ओढ़े ब्रह्म अस्त्रा की अवाती महाताती, बंदौ
युद्ध मत माती छाती पवनकुमार की
25. सूदन , ये मथुरा के रहनेवाले माथुर चौबे थे। इनके पिता का नाम बसंत था। सूदन भरतपुर के महाराज बदनसिंह के पुत्र सुजानसिंह उपनाम सूरजमल के यहाँ रहते थे। उन्हीं के पराक्रमपूर्ण चरित्र का वर्णन इन्होंने 'सुजानचरित' नामक प्रबंधकाव्य में किया है। मुगल साम्राज्य के गिरे दिनों में भरतपुर के जाट राजाओं का कितना प्रभाव बढ़ा था यह इतिहास में प्रसिद्ध है। उन्होंने शाही महलों और खजानों को कई बार लूटा था। पानीपत की अंतिम लड़ाई के संबंध में इतिहासज्ञों की धारणा है कि यदि पेशवा की सेना का संचालन भरतपुर के अनुभवी महाराज के कथनानुसार हुआ होता और ये रूठकर न लौट आए होते तो मराठों की हार कभी न होती। इतने ही से भरतपुर वालों के आतंक और प्रभाव का अनुमान हो सकता है। अत: सूदन को एक सच्चा वीर चरित्रनायक मिल गया।
'सुजानचरित' बहुत बड़ा ग्रंथ है। इसमें संवत् 1802 से लेकर 1810 तक की घटनाओं का वर्णन है। अत: इसकी समाप्ति 1810 के दस पंद्रह वर्ष पीछे मानी जा सकती है। इस हिसाब से इनका कविताकाल संवत् 1820 के आसपास मानाजा सकता है। सूरजमल की वीरता की जो घटनाएँ कवि ने वर्णित की हैं वे कपोलकल्पित नहीं, ऐतिहासिक हैं। जैसे अहमदशाह बादशाह के सेनापति असद खाँ के फतहअली पर चढ़ाई करने पर सूरजमल का फतहअली के पक्ष में होकर असद खाँ का ससैन्य नाश करना, मेवाड़, माड़ौगढ़ आदि जीतना, संवत् 1804 में जयपुर की ओर होकर मरहठों को हटाना, 1805 में बादशाही सेनापति सलावतखाँ बख्शी को परास्त करना, संवत् 1806 में शाही वजीर सफदरजंग मंसूर की सेना से मिलकर बंगश पठानों पर चढ़ाई करना, बादशाह से लड़कर दिल्ली लूटना, इत्यादि। इन सब बातों के विचार से 'सुजानचरित' का ऐतिहासिक महत्व भी बहुत कुछ है। 
इस काव्य की रचना के संबंध में सबसे पहली बात जिस पर ध्यान जाता है वह वर्णनों का अत्यधिक विस्तार और प्रचुरता है। वस्तुओं की गिनती गिनाने की प्रणाली का इस कवि ने बहुत अधिक अवलंबन किया है, जिससे पाठकों को बहुत से स्थलों पर अरुचि हो जाती है। कहीं घोड़ों की जातियों के नाम ही गिनते चले गए हैं, कहीं अस्त्रों और वस्त्रों की सूची की भरमार है, कहीं भिन्न भिन्न देशवासियों और जातियों की फिहरिस्त चल रही है। इस कवि को साहित्यिक मर्यादा का ध्यान बहुत ही कम था। भिन्न भिन्न भाषाओं, बोलियों को लेकर कहीं कहीं इन्होंने पूरा खेलवाड़ किया है। ऐसे चरित्र को लेकर जो गांभीर्य काव्य में होना चाहिए था वह इनमें नहीं पाया जाता। पद्य में व्यक्तियों और वस्तुओं के नाम भरने की निपुणता इस कवि की एक विशेषता समझिए। ग्रंथारंभ में ही 175 कवियों के नाम गिनाए गए हैं। सूदन में युद्ध , उत्साहपूर्ण भाषण, चित्त की उमंग आदि वर्णन करने की पूरी प्रतिभा थी पर उक्त त्रुटियों के कारण उनके ग्रंथ का साहित्यिक महत्व बहुत कुछ घटा हुआ है। प्रगल्भता और प्रचुरता का प्रदर्शन सीमा का अतिक्रमण कर जाने के कारण जगह जगह खटकता है। भाषा के साथ भी सूदनजी ने पूरी मनमानी की है। पंजाबी, खड़ी बोली, सबका पुट मिलता है। न जाने कितने गढ़ंत के और तोड़े मरोड़े शब्द लाए गए हैं। जो स्थल इन सब दोषों से मुक्त हैं वे अवश्य मनोहर हैं, पर अधिकतर शब्दों की तड़ातड़ भड़ाभड़ से जी ऊबने लगता है। यह वीररसात्मक ग्रंथ है और इसमें भिन्न भिन्न युध्दों का ही वर्णन है इससे अधयायों का नाम जंग रखा गया है। सात जंगों में ग्रंथ समाप्त हुआ है। छंद बहुत से प्रयुक्त हुए हैं। कुछ पद्य नीचे उध्दृत किए जाते हैं , 
बखत बिलंद तेरी दुंदुभी धुकारन सों,
दुंद दबि जात देस देस सुख जाही के। 
दिन दिन दूनो महिमंडल प्रताप होत,
सूदन दुनी में ऐसे बखत न काही के
उद्ध त सुजानसुत बुद्धि बलवान सुनि, 
दिल्ली के दरनि बाजै आवज उछाही के।
जाही के भरोसे अब तखत उमाही करैं,
पाही से खरे हैं जो सिपाही पातसाही के

दुहुँ ओर बंदूक जहँ चलत बेचूक,
रव होत धुकधूक, किलकार कहुँ कूक।
कहुँ धानुष टंकार जिहि बान झंकार
भट देत हुंकार संकार मुँह सूक
कहुँ देखि दपटंत, गज बाजि झपटंत, 
अरिब्यूह लपटंत, रपटंत कहुँ चूक।
समसेर सटकंत, सर सेल फटकंत, 
कहुँ जात हटकंत, लटकंत लगि झूक

दब्बत लुत्थिनु अब्बत इक्क सुखब्बत से।
चब्बत लोह, अचब्बत सोनित गब्बत से
चुट्टित खुट्टित केस सुलुट्टित इक्क मही।
जुट्टित फुट्टित सीस, सुखुट्टित तेग गही
कुट्टित घुट्टित काय बिछुट्टित प्रान सही।
छुट्टित आयुधा; हुट्टित गुट्टित देह दही

धड़धद्ध रं धड़धद्ध रं भड़भब्भरं भड़भब्भरं।
तड़तत्तारं तड़तत्तारं कड़कक्करं कड़कक्करं
घड़घग्घरं घड़घग्घरं झड़झज्झरं झड़झज्झरं।
अररर्ररं अररर्ररं सररर्ररं सररर्ररं

सोनित अरघ ढारि, लुत्थ जुत्थ पाँवड़े दै, 
दारुधूम धूपदीप, रंजक की ज्वालिका
चरबी को चंदन, पुहुप पल , टूकन के, 
अच्छत अखंड गोला गोलिन की चालिका
नैवेद्य नीको साहि सहति दिली को दल, 
कामना विचारी मनसूर पन पालिका
कोटरा के निकट बिकट जंग जोरि सूजा,
भली विधि पूजा कै प्रसन्न कीन्हीं कालिका

इसी गल्ल धारि कन्न में बकसी मुसक्याना।
हमनूँ बूझत हौं तुसी 'क्यों किया पयाना'
'असी आवने भेदनूँ तूने नहिं जाना।
साह अहम्मद ने तुझे अपना करि माना'

डोलती डरानी खतरानी बतरानी बेबे, 
कुड़िए न बेखी अणी मी गुरुन पावाँ हाँ।
कित्थे जला पेऊँ, कित्थे उज्जले भिड़ाऊँ असी, 
तुसी को लै गीवा असी जिंदगी बचावा हाँ
भट्टररा साहि हुआ चंदला वजीर बेखो, 
एहा हाल कीता, वाह गुरुनूँ मनावा हाँ।
जावाँ कित्थे जावाँ अम्मा बाबे केही पावाँजली, 
एही गल्ल अक्खैं लक्खौं लक्खौं गली जावाँ हाँ
26. हरनारायण इन्होंने 'माधवानल कामकंदला' और 'बैताल पचीसी' नामकदोकथात्मक काव्य लिखे हैं। 'माधावानल कामकंदला' का रचनाकाल संवत् 1812 है। इनकी कविता अनुप्रास आदि से अलंकृत हैं। एक कवित्त दिया जाताहै , 
सोहैं मुंड चंद सों, त्रिपुंड सों विराजै भाल, 
तुंड राजै रदन उदंड के मिलन तें।
पाप रूप पानिप विघन जल जीवन के
कुंड सोखि सुजन बचावै अखिलन तें
ऐसे गिरिनंदिनी के नंदन को ध्यान ही में
कीबे छोड़ सकल अपानहि दिलन तें।
भुगुति मुकुति ताके तुंड तें निकसि तापै, 
कुंड बाँधि कढ़ती भूसुंड के विलन तें
27. ब्रजवासी दास , ये वृंदावन के रहने वाले और बल्लभ संप्रदाय के अनुयायी थे। इन्होंने संवत् 1827 में 'ब्रजविलास' नामक एक प्रबंधकाव्य तुलसीदास के अनुकरण पर दोहों चौपाइयों में बनाया। इसके अतिरिक्त इन्होंने 'प्रबोध चंद्रोदय' नाटक का अनुवाद भी विविधा छंदों में किया है। पर इनका सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ 'ब्रजविलास' ही है जिसका प्रचार साधारण श्रेणी के पाठकों में है। इस ग्रंथ में कथा भी सूरसागर क्रम से ली गई है और बहुत से स्थलों पर सूर के शब्द और भाव भी चौपाइयों में रख दिए गए हैं। इस बात को ग्रंथकार ने स्वीकार भी किया है , 
यामैं कछुक बुद्धि नहिं मेरी। उक्ति युक्ति सब सूरहि केरी।
इन्होंने तुलसी का छंदक्रम ही लिया है, भाषा शुद्ध ब्रजभाषा ही है। उसमें कहीं अवधी या बैसवाड़ी का नाम तक नहीं है। जिनको भाषा की पहचान तक नहीं, जो वीररस वर्णन परिपाटी के अनुसार किसी पद्य में वर्णों का द्वित्व देख उसे प्राकृत भाषा कहते हैं, वे चाहे जो कहें। ब्रजविलास में कृष्ण की भिन्न भिन्न लीलाओं का जन्म से लेकर मथुरा गमन तक का वर्णन किया गया है। भाषा सीधी सादी, सुव्यवस्थित और चलती हुई है। व्यर्थ शब्दों की भरती न होने से उसमें सफाई है। यह सब होने पर भी इसमें वह बात नहीं है जिसके बल से गोस्वामी जी के रामचरितमानस का इतना देशव्यापी प्रचार हुआ। जीवन की परिस्थितियों की वह अनेकरूपता, गंभीरता और मर्मस्पर्शिता इसमें कहाँ जो रामचरित और तुलसी की वाणी में है? इसमें तो अधिकतर क्रीड़ामय जीवन का ही चित्रण है। फिर भी साधारण श्रेणी के कृष्णभक्त पाठकों में इसका प्रचार है। नीचे कुछ पद्य दिए जाते हैं , 
कहति जसोदा कौन बिधि, समझाऊँ अब कान्ह।
भूलि दिखायो चंद मैं, ताहि कहत हरि खान
यहै देत नित माखन मोको । छिन छिन देति तात सो तोको
जो तुम श्याम चंद को खैहो । बहुरो फिर माखन कह पैहौ?
देखत रहौ खिलौना चंदा । हठ नहिं कीजै बालगोविंदा
पा लागौं हठ अधिक न कीजै । मैं बलि, रिसहि रिसहि तनछीजै।
जसुमति कहति कहा धौं कीजै । माँगत चंद कहाँ तें दीजै
तब जसुमति इक जलपुट लीनो । कर मैं लै तेहि ऊँचो कीनो
ऐसे कहि स्यामै बहरावै । आव चंद, तोहि लाल बुलावै
हाथ लिए तेहि खेलत रहिए । नैकु नहीं धारनी पै धारिए
28. गोकुलनाथ, गोपीनाथ और मणिदेव इन तीनों महानुभावों ने मिलकर हिन्दी साहित्य में बड़ा भारी काम किया है। इन्होंने समग्र महाभारत और हरिवंश (जो महाभारत का ही परिशिष्ट माना जाता है) का अनुवाद अत्यंत मनोहर विविधा छंदों में पूर्ण कवित्त के साथ किया है। कथाप्रबंध का इतना बड़ा काव्य हिन्दी साहित्य में दूसरा नहीं बना। यह लगभग दो हजार पृष्ठों में समाप्त हुआ है। इतना बड़ा ग्रंथ होने पर भी न तो इसमें कहीं शिथिलता आई है और न ही रोचकता और काव्यगुण में कमी हुई है। छंदों का विधान इन्होंने ठीक उसी रीति से किया है जिस रीति से इतने बड़े ग्रंथ में होना चाहिए। जो छंद उठाया है उसका कुछ दूर तक निर्वाह किया है। केशवदास की तरह छंदों का तमाशा नहीं दिखाया है। छंदों का चुनाव भी बहुत उत्तम हुआ है। रूपमाला, घनाक्षरी, सवैया आदि मधुर छंद अधिक रखे गए हैं, बीच बीच में दोहे और चौपाइयाँ भी हैं। भाषा प्रांजल और सुव्यवस्थित है। अनुप्रास का अधिक आग्रह न होने पर भी आवश्यक विधान है। रचना सब प्रकार से साहित्यिक और मनोहर है और लेखकों की काव्यकुशलता का परिचय देती है। इस ग्रंथ के बनने में भी पचास वर्ष से ऊपर लगे हैं। अनुमानत: इसका आरंभ संवत् 1830 में हो चुका था और संवत् 1884 में जाकर समाप्त हुआ है। इसकी रचना काशीनरेश महाराज उदितनारायण सिंह की आज्ञा से हुई जिन्होंने इसके लिए लाखों रुपये व्यय किए। इस बड़े भारी साहित्यिक यज्ञ के अनुष्ठान के लिए हिन्दी प्रेमी उक्त महाराज के सदा कृतज्ञ रहेंगे।
गोकुलनाथ और गोपीनाथ प्रसिद्ध कवि रघुनाथ बंदीजन के पुत्र और पौत्र थे। मणिदेव बंदीजन भरतपुर राज्य के जहानपुर नामक गाँव के रहनेवाले थे और अपनी विमाता के दर्ुव्यवहार से रुष्ट होकर काशी चले आए थे। काशी में वे गोकुलनाथजी के यहाँ ही रहते थे। और स्थानों पर भी उनका बहुत मान हुआ था। जीवन के अंतिम दिनों में वे कभी कभी विक्षिप्त भी हो जाया करते थे। उनका परलोकवास संवत् 1920 में हुआ। 
गोकुलनाथ ने इस महाभारत के अतिरिक्त निम्नलिखित और भी ग्रंथ लिखेहैं , 
चेतचंद्रिका, गोविंद सुखदविहार, राधाकृष्ण विलास, (संवत् 1858), राधानखशिख, नामरत्नमाला (कोश) (संवत् 1870), सीताराम गुणार्णव, अमरकोष भाषा (संवत् 1870), कविमुखमंडन। 
चेतचंद्रिका अलंकार का ग्रंथ है जिसमें काशिराज की वंशावली भी दी गई है। 'राधाकृष्ण विलास' रससंबंधी ग्रंथ है और 'जगतविनोद' के बराबर है। 'सीताराम गुणार्णव' अध्यात्म रामायण का अनुवाद है जिसमें पूरी रामकथा वर्णित है। 'कविमुखमंडन' भी अलंकार संबंधी ग्रंथ है। गोकुलनाथ का कविताकाल संवत् 1840 से 1870 तक माना जा सकता है। ग्रंथों की सूची से यह स्पष्ट है कि ये कितने निपुण कवि थे। रीति और प्रबंध दोनों ओर इन्होंने प्रचुर रचना की है। इतने अधिक परिमाण में और इतने प्रकार की रचना वही कर सकता है जो पूर्ण साहित्यमर्मज्ञ, काव्यकला में सिद्ध हस्त और भाषा पर पूर्ण अधिकार रखनेवाला हो। अत: महाभारत के तीनों अनुवादकों में तो ये श्रेष्ठ ही हैं, साहित्य के क्षेत्र में भी ये बहुत ऊँचे पद के अधिकारी हैं। रीतिग्रंथ रचना और प्रबंध रचना दोनों में समान रूप से कुशल और दूसरा कोई कवि रीतिकाल के भीतर नहीं पाया जाता। 
महाभारत के जिस जिस अंश का अनुवाद जिसने जिसने किया है उस उस अंश में उसका नाम दिया हुआ है। नीचे तीनों कवियों की रचना के कुछ उदाहरण दिए जाते हैं , 
गोकुलनाथ
सखिन के श्रुति में उकुति कल कोकिलकी।
गुरुजन हू पै पुनि लाज के कथान की।
गोकुल अरुन चरनांबुज पै गुंजपुंज
धुनि सी चढ़ति चंचरीक चरचान की
पीतम के श्रवन समीप ही जुगुति होति
मैन मंत्र तंत्र सू बरन गुनगान की।
सौतिन के कानन में हलाहल ह्वै हलति,
एरी सुखदानि! तौ बजनि बिछुवान की
(राधाकृष्ण विलास)
दुर्ग अतिही महत रक्षित भटन सों चहुँ ओर। 
ताहि घेरयो शाल्व भूपति सेन लै अति घोर
एक मानुष निकसिबे की रही कतहुँ न राह।
परी सेना शाल्व नृप की भरी जुद्ध उछाह

लहि सुदेष्णा की सुआज्ञा नीच कीचक जौन। 
जाय सिंहिनि पास जंबुक तथा कीनी गौन
लग्यो कृष्णा सों कहन या भाँति सस्मित बैन।
यहाँ आई कहाँ तें? तुम कौन हौ छबि ऐन

नहीं तुम सी लखी भू पर भरी सुषमा बाम।
देवि, जच्छिनी, किन्नरी, कै श्री, सची अभिराम।
कांति सों अति भरी तुम्हरो लखन बदन अनूप।
करैगो नहिं स्वबस काको महा मन्मथ भूप
(महाभारत)
गोपीनाथ
सर्व दिसि में फिरत भीषम को सुरथ मन मान।
लखे सब कोउ तहाँ भूप अलातचक्र समान
सर्व थर सब रथिन सों तेहि समय नृप सब ओर।
एक भीषम सहस सम रन जुरो हो तहँ जोर

मणिदेव
बचन यह सुनि कहत भो चक्रांग हंस उदार।
उड़ौगे मम संग किमि तुम कहहु सो उपचार
खाय जूठो पुष्ट, गर्वित काग सुनि ये बैन।
कह्यौ जानत उड़न की शत रीति हम बल ऐन
29. बोधा ये राजापुर (जिला , बाँदा) के रहनेवाले सरयूपारी ब्राह्मण थे। पन्ना के दरबार में इनके संबंधियों की अच्छी प्रतिष्ठा थी। उसी संबंध से ये बाल्यकाल ही में पन्ना चले गए। इनका नाम बुद्धि सेन था, पर महाराज इन्हें प्यार से 'बोधा' कहने लगे और वही नाम इनका प्रसिद्ध हो गया। भाषाकाव्य के अतिरिक्त इन्हें संस्कृत और फारसी का भी अच्छा बोध था। शिवसिंहसरोज में इनका जन्म संवत् 1804 दिया हुआ है। इनका कविताकाल संवत् 1830 से 1860 तक माना जा सकताहै।
बोधा एक बड़े रसिक जीव थे। कहते हैं कि पन्ना के दरबार में सुभान (सुबहान) नाम की एक वेश्या थी जिसपर इनका प्रेम हो गया। इस पर रुष्ट होकर महाराज ने इन्हें छह महीने देशनिकाले का दंड दिया। सुभान के वियोग में छह महीने इन्होंने बड़े कष्ट से बिताए और उसी बीच में 'विरहवारीश' नामक एक पुस्तक लिखकर तैयार की। छह महीने पीछे जब ये फिर दरबार में लौटकर आए तब अपने 'विरहवारीश' के कुछ कवित्त सुनाए। महाराज ने प्रसन्न होकर उनसे कुछ माँगने को कहा। इन्होंने कहा 'सुभान अल्लाह'। महाराज ने प्रसन्न होकर सुभान को इन्हें दे दिया और इनकी मुराद पूरी हुई।
'विरहवारीश' के अतिरिक्त 'इश्कनामा' भी इनकी एक प्रसिद्ध पुस्तक है। इनके बहुत से फुटकल कवित्त, सवैये, इधर उधर पाए जाते हैं। बोधा एक रसोन्मत्त कवि थे, इससे इन्होंने कोई रीतिग्रंथ न लिखकर अपनी मौज के अनुसार फुटकल पद्यों की रचना की है। ये अपने समय के एक प्रसिद्ध कवि थे। प्रेममार्ग के निरूपण में इन्होंने बहुत से पद्य कहे हैं। 'प्रेम की पीर' की व्यंजना भी इन्होंने बड़े मर्मस्पर्शिनी युक्ति से की है। यत्रा तत्रा व्याकरण दोष रहने पर भी इनकी भाषा चलती और मुहावरेदार होती थी। उससे प्रेम की उमंग छलकी पड़ती है। इनके स्वभाव में फक्कड़पन भी कम नहीं था। 'नेजे', 'कटारी' और 'कुरबान' वाली बाजारू ढंग की रचना भी इन्होंने कहीं कहीं की है। जो कुछ हो, ये भावुक और रसज्ञ कवि थे, इसमें कोई संदेह नहीं। कुछ पद्य इनके नीचे दिए जाते हैं , 
अति खीन मृनाल के तारहु तें तेहि ऊपर पाँव दै आवनो है। 
सुई बेह कै द्वार सकै न तहाँ परतीति को टाँड़ो लदावनो है
कवि बोधा अनी घनी नेजहु तें चढ़ि तापै न चित्त डरावनो है। 
यह प्रेम को पंथ कराल महा तरवारि की धार पै धाावनो है

एक सुभान के आनन पै कुरबान जहाँ लगि रूप जहाँ को। 
कैयो सतक्रतु की पदवी लुटिए लखि कै मुसकाहट ताको
सोक जरा गुजरा न जहाँ कवि बोधा जहाँ उजरा न तहाँ को।
जान मिलै तो जहान मिलै, नहिं जान मिलै तौ जहान कहाँ को

कबहूँ मिलिबो, कबहूँ मिलिबो, वह धीरज ही में धारैबो करै।
उर ते कढ़ि आवै, गरे ते फिरै, मन की मन ही में सिरैबो करै
कवि बोधा न चाँड़ सरी कबहूँ, नितही हरवा सो हिरैबो करै।
सहते ही बनै, कहते न बनै, मन ही मन पीर पिरैबो करै

हिलि मिलि जानै तासों मिलि कै जनावै हेत,
हित को न जानै ताकौ हितू न विसाहिए।
होय मगरूर तापै दूनी मगरूरी कीजै, 
लघु ह्वै चलै जो तासों लघुता निबाहिए
बोधा कवि नीति को निबेरो यही भाँति अहै, 
आपको सराहै ताहि आपहू सराहिए।
दाता कहा, सूर कहा, सुंदर सुजान कहा, 
आपको न चाहै ताके बाप को न चाहिए
30. रामचंद्र इन्होंने अपना कुछ भी परिचय नहीं दिया है। भाषा महिम्न के कर्ता काशीवासी मनियारसिंह ने अपने को 'चाकर अखंडित श्री रामचंद्र पंडित के' लिखा है। मनियारसिंह ने अपना 'भाषा महिम्न' संवत् 1841 में लिखा। अत: इनका समय संवत् 1840 माना जा सकता है। इनकी एक पुस्तक 'चरणचंद्रिका' ज्ञात है। जिसपर इनका सारा यश स्थिर है। यह भक्तिरसात्मक ग्रंथ केवल 62 कवित्तों का है। इसमें पार्वतीजी के चरणों का वर्णन अत्यंत रुचिकर और अनूठे ढंग से किया गया है। इस वर्णन से अलौकिक सुषमा, विभूति, शक्ति और शांति फूटी पड़ती है। उपास्य के एक अंग में अनंत ऐश्वर्य की भावना भक्ति की चरम भावुकता के भीतर ही संभव है। भाषा लाक्षणिक और पांडित्यपूर्ण है। कुछ और अधिक न कहकर इनके दो कवित्त ही सामने रख देना ठीक है , 
नूपुर बजत मानि मृग से अधीन होत, 
मीन होत जानि चरनामृत झरनि को। 
खंजन से नचैं देखि सुषमा सरद की सी, 
सचैं मधुकर से पराग केसरनि को 
रीझि रीझि तेरी पदछबि पै तिलोचन के
लोचन ये, अंब! धारैं केतिक धारनि को।
फूलत कुमुद से मयंक से निरखि नख;
पंकज से खिलै लखि तरवा तरनि को

मानिए करींद्र जो हरींद्र को सरोष हरै, 
मानिए तिमिर घेरै भानु किरनन को। 
मानिए चटक बाज जुर्रा को पटकि मारै, 
मानिए झटकि डारै भेक भुजगन को 
मानिए कहै जो वारिधार पै दवारि औ
अंगार बरसाइबो बतावै बारिदन को। 
मानिए अनेक विपरीत की प्रतीति, पै न
भीति आई मानिए भवानी - सेवकनको
31. मंचित ये मऊ (बुंदेलखंड) के रहनेवाले ब्राह्मण थे और संवत् 1836 में वर्तमान थे। इन्होंने कृष्णचरित संबंधी दो पुस्तकें लिखी हैं , 'सुरभी दानलीला' और 'कृष्णायन'। सुरभी दानलीला में बाललीला, यमलार्जुन पतन और दानलीला का विस्तृत वर्णन सार छंद में किया गया है। इसमें श्रीकृष्ण का नखशिख भी बहुत अच्छा कहा गया है। कृष्णायन तुलसीदास जी की 'रामायण' के अनुकरण पर दोहों चौपाइयों में लिखी गई है। इन्होंने गोस्वामी जी की पदावली तक का अनुकरण किया है। स्थान स्थान पर भाषा अनुप्रासयुक्त और संस्कृतगर्भित है, इससे ब्रजवासीदास की चौपाइयों की अपेक्षा इनकी चौपाइयाँ गोस्वामी जी की चौपाइयों से कुछ अधिक मेल खाती हैं। पर यह मेल केवल कहीं कहीं दिखाई पड़ जाता है। भाषा मर्मज्ञ को दोनों का भेद बहुत जल्दी स्पष्ट हो जाता है। इनकी भाषा ब्रज है, अवधी नहीं। उसमें वह सफाई और व्यवस्था कहाँ? कृष्णायन की अपेक्षा इनकी सुरभी दानलीला की रचना अधिक सरस है। दोनों से कुछ अवतरण नीचे दिए जाते हैं , 
कुंडल लोल अमोल कान के छुवत कपोलन आवैं।
डुलै आपसे खुलैं जोर छबि बरबस मनहिं चुरावैं
खौर बिसाल भाल पर सोभित केसर की चित्तभावैं।
ताके बीच बिंदु रोरी के, ऐसो बेस बनावैं
भ्रुकुटी बंक नैन खंजन से कंजन गंजनवारे।
मदभंजन खग मीन सदा जे मनरंजन अनियारे
(सुरभी दानलीला)
अचरज अमित भयो लखि सरिता।
कृष्णदेव कहँ प्रिय जमुना सी।
अति विस्तार पार पद पावन।
बनचर बनज बिपुल बहु पच्छी।
नाना जिनिस जीव सरि सेवैं।
32. मधुसूदनदास ये माथुर चौबे थे। इन्होंने गोविंददास नामक किसी व्यक्ति के अनुरोध से संवत् 1839 में 'रामाश्वमेधा' नामक एक बड़ा और मनोहर प्रबंधकाव्य बनाया जो सब प्रकार से गोस्वामी जी के रामचरितमानस का परिशिष्ट ग्रंथ होने के योग्य है। इसमें श्रीरामचंद्र द्वारा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान, घोड़े के साथ गई हुई सेना के साथ सुबाहु, दमन, विद्युन्माली राक्षस, वीरमणि, शिव, सुरथ आदि का घोर युद्ध , अंत में राम के पुत्र लव और कुश के साथ भयंकर संग्राम, श्रीरामचंद्र द्वारा युद्ध का निवारण और पुत्रों सहित सीता का अयोध्या में आगमन, इन सब प्रसंगों का पद्मपुराण के आधार पर बहुत ही विस्तृत और रोचक वर्णन है। ग्रंथ की रचना बिल्कुल रामचरितमानस की शैली पर हुई है। प्रधानता दोहों के साथ चौपाइयों की है, पर बीच बीच में गीतिका आदि और छंद भी हैं। पदविन्यास और भाषासौष्ठव रामचरितमानस का सा ही है। प्रत्यय और रूप भी बहुत कुछ अवधी के रखे गए हैं। गोस्वामी जी की प्रणाली के उनसरण में मधाूसूदनदासजी को पूरी सफलता हुई है। इनकी प्रबंधकुशलता, कवित्वशक्ति और भाषा की शिष्टता तीनों उच्चकोटि की हैं। इनकी चौपाइयाँ अलबत्ता गोस्वामी जी चौपाइयों में बेखटक मिलाई जा सकती हैं। सूक्ष्म दृष्टिवाले भाषामर्मज्ञों को केवल थोड़े ही से ऐसे स्थलों में भेद लक्षित हो सकता है जहाँ बोलचाल की भाषा होने के कारण भाषा का असली रूप अधिक स्फुटित है। ऐसे स्थलों पर गोस्वामी जी के अवधी के रूप और प्रत्यय न देखकर भेद का अनुभव हो सकता है। पर जैसा कहा जा चुका है, पदविन्यास की प्रौढ़ता और भाषा का सौष्ठव गोस्वामी जी के मेल का है। 
सिय रघुपति पद कंज पुनीता।
मृदु मंजुल सुंदर सब भाँती।
प्रणत कल्पतरु तर सब ओरा।
त्रिविधा कलुष कुंजर घनघोरा।
चिंतामणि पारस सुरधोनू।
जन-मन मानस रसिक मराला।
निरखि कालजित कोपि अपारा।
महावेगयुत आवै सोई।
अयुत भार भरि भार प्रमाना।
देखि ताहि लव हनि इषु चंडा।
जिमि नभ माँह मेघ समुदाई।
तिमि प्रचंड सायक जनु ब्याला।
भए विकल अति पवन कुमारा।
33. मनियार सिंह ये काशी के रहनेवाले क्षत्रिय थे। इन्होंने देवपक्ष में ही कविता की है और अच्छी की है। इनके निम्नलिखित ग्रंथों का पता है , 
भाषा महिम्न, सौंदर्यलहरी (पार्वती या देवी की स्तुति), हनुमतछबीसी, सुंदरकांड। भाषा महिम्न इन्होंने संवत् 1841 में लिखा। इनकी भाषा सानुप्रास, शिष्ट और परिमार्जित है और उसमें ओज भी पूरा है। ये अच्छे कवि हो गए हैं। रचना के कुछ उदाहरण लीजिए , 
मेरो चित्त कहाँ दीनता में अति दूबरो है,
अधरम धूमरो न सुधि के सँभारे पै। 
कहाँ तेरी ऋद्धि कवि बुद्धि धारा ध्वनि तें, 
त्रिगुण तें परे ह्वै दरसात निरधारे पै
मनियार यातें मति थकित जकित ह्वै कै, 
भक्तिबस धारि उर धीरज बिचारे पै।
बिरची कृपाल वाक्यमाला या पुहुपदंत, 
पूजन करन काज करन तिहारे पै

तेरे पद पंकज पराग राजै राजेश्वरी!
वेद बंदनीय बिरुदावली बढ़ी रहै।
जाकी किनुकाई पाय धाता ने धारित्री रची, 
जापे लोक लोकन की रचना कढ़ी रहै।
मनियार जाहि विष्णु सेवैं सर्व पोषत में, 
सेस ह्नै के सदा सीस सहस मढ़ी रहै।
सोई सुरासुर के सिरोमनि सदाशिव के, 
भसम के रूप ह्वै सरीर पै चढ़ी रहै

अभय कठोर बानी सुनि लछमन जू की, 
मारिबे को चाहि जो सुधारी खल तरवारि।
वीर हनुमंत तेहि गरजि सुहास करि, 
उपटि पकरि ग्रीव भूमि लै परे पछारि।
पुच्छ तें लपेटि फेरि दंतन दरदराइ, 
नखन बकोटि चोंथि देत महि डारि टारि।
उदर बिदारि मारि लुत्थन को टारि बीर, 
जैसे मृगराज गजराज डारे फारि-फारि
34. कृष्णदास ये मिरजापुर के रहनेवाले कोई कृष्णभक्त जान पड़ते हैं। इन्होंने संवत् 1853 में 'माधुर्य लहरी' नाम की एक बड़ी पुस्तक 420 पृष्ठों की बनाई जिसमें विविधा छंदों में कृष्णचरित का वर्णन किया गया है। कविता इनकी साधारणत: अच्छी है। एक कविता देखिए , 
कौन काज लाज ऐसी करै जो अकाज अहो,
बार बार कहो नरदेव कहाँ पाइए।
दुर्लभ समाज मिल्यो सकल सिध्दांत जानि, 
लीला गुन नाम धाम रूप सेवा गाइए।
बानी की सयानी सब पानी में बहाय दीजै, 
जानी, सो न रीति जासों दंपति रिझाइए।
जैसी जैसी गही जिन लही तैसी नैननहू, 
धान्य धान्य राधाकृष्ण नित ही गनाइए
35. गणेश ये नरहरि बंदीजन के वंश में लाल कवि के पौत्र और गुलाब कवि के पुत्र थे। संवत् 1850 से लेकर 1910 तक वर्तमान थे। ये काशिराज महाराज उदितनारायण सिंह के दरबार में थे और महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह के समय तक जीवित रहे। इन्होंने तीन ग्रंथ लिखे , (1) वाल्मीकि रामायण श्लोकार्थ प्रकाश (बालकांड समग्र और किषकिंधा के पाँच अध्याय), (2) प्रद्युम्न विजय नाटक, 
(3) हनुमत पचीसी।
प्रद्युम्नविजय नाटक समग्र पद्यबद्ध है और अनेक प्रकार के छंदों में सात अंकों में समाप्त हुआ है। इसमें दैत्यों के वज्रनाभपुर नामक नगर में प्रद्युम्न के जाने और प्रभावती से गंधर्व विवाह होने की कथा है। यद्यपि इसमें पात्रप्रवेश, विष्कंभक, प्रवेशक आदि नाटक के अंग रखे गए हैं पर इतिवृत्त का भी वर्णन पद्य में होने के कारण नाटकत्व नहीं आया है । एक उदाहरण दिया जाता है , 
ताही के उपरांत, कृष्ण इंद्र आवत भए। 
भेंटि परस्पर कांत, बैठ सभासद मध्य तहँ

बोले हरि इंद्र सों बिनै कै कर जोरि दोऊ, 
आजु दिगबिजय हमारे हाथ आयो है। 
मेरे गुरु लोग सब तोषित भए हैं आजु,
पूरो तप, दान, भाग्य सफल सुहायो है
कारज समस्त सरे, मंदिर में आए आप, 
देवन के देव मोहि धान्य ठहरायो है।
सो सुन पुरंदर उपेंद्र लखि आदर सों, 
बोले सुनौ बंधु! दानवीर नाम पायो है
36. सम्मन ये मल्लावाँ (जिला हरदोई) के रहनेवाले ब्राह्मण थे और संवत् 1834 में उत्पन्न हुए थे। इनके नीति के दोहे गिरधार की कुंडलिया के समान गाँवों तक में प्रसिद्ध हैं। इनके कहने के ढंग में कुछ मार्मिकता है। 'दिनों के फेर' आदि के संबंध में इनके मर्मस्पर्शी दोहे स्त्रियों के मुँह से बहुत सुने जाते हैं। इन्होंने संवत् 1879 में 'पिंगल काव्यभूषण' नामक एक रीतिग्रंथ भी बनाया। पर ये अधिकतर अपने दोहों के लिए ही प्रसिद्ध हैं। इनका रचनाकाल संवत् 1860 से 1880 तक माना जा सकता है। कुछ दोहे देखिए , 
निकट रहे आदर घटे, दूरि रहे दुख होय।
सम्मन या संसार में, प्रीति करौ जनि कोय
सम्मन चहौ सुख देह कौ तौ छाँड़ौ ये चारि।
चोरी, चुगली, जामिनी और पराई नारि
सम्मन मीठी बात सों होत सबै सुख पूर।
जेहि नहिं सीखो बोलिबो, तेहि सीखो सब धूर
37. ठाकुर , इस नाम के तीन कवि हो गए हैं जिसमें दो असनी के ब्रह्मभट्ट थे और एक बुंदेलखंड के कायस्थ। तीनों की कविताएँ ऐसी मिल-जुल गई हैं कि भेद करना कठिन है। हाँ, बुंदेलखंडी ठाकुर की वे कविताएँ पहचानी जा सकती हैं जिनमें बुंदेलखंडी कहावतें या मुहावरे आए हैं।
असनी वाले प्राचीन ठाकुर
ये रीतिकाल के आरंभ में संवत् 1700 के लगभग हुए थे। इनका कुछ वृत्त नहीं मिलता; केवल फुटकल कविताएँ इधर उधर पाई जाती हैं। संभव है, इन्होंने रीतिबद्ध रचना न करके अपने मन की उमंग के अनुसार समयसमय पर कवित्त सवैये बनाए हों जो चलती और स्वच्छ भाषा में हैं। इनके ये दो सवैये बहुत सुने जाते हैं , 
सजि सूहे दुकूलन बिज्जुछटा सी अटान चढ़ी घटा जोवति हैं। 
सुचिती ह्वै सुनैं धुनि मोरन की, रसमाती संयोग सँजोवति हैं
कवि ठाकुर वै पिय दूरि बसैं, हम ऑंसुन सों तन धोवति हैं।
धानि वै धनि पावस की रतियाँ पति की छतियाँ लगि सोवतिहैं

बौरे रसालन की चढ़ि डारन कूकत क्वैलिया मौन गहै ना।
ठाकुर कुंजन कुंजन गुंजन भौरन भीर चुपैबो चहै ना
सीतल मंद सुगंधित, बीर समीर लगे तन धीर रहै ना।
व्याकुल कीन्हों बसंत बनाय कै, जाय कै कंत सों कोऊ कहै ना
असनी वाले दूसरे ठाकुर
ये ऋषिनाथ कवि के पुत्र और सेवक कवि के पितामह थे। सेवक के भतीजे श्रीकृष्ण ने अपने पूर्वजों का जो वर्णन लिखा है, उसके अनुसार ऋषिनाथजी के पूर्वज देवकीनंदन मिश्र गोरखपुर जिले के एक कुलीन सरयूपारी ब्राह्मणा , पयासी के मिश्र थे , और अच्छी कविता करते थे। एक बार मँझौली के राजा के यहाँ विवाह के अवसर पर देवकीनंदनजी ने भाटों की तरह कुछ कवित्त पढ़े और पुरस्कार लिया। इस पर उनके भाई-बन्धुओं ने उन्हें जातिच्युत कर दिया और वे असनी के भाट नरहर कवि की कन्या के साथ अपना विवाह करके असनी में जा रहे और भाट हो गए। उन्हीं देवकीनंदन के वंश में ठाकुर के पिता ऋषिनाथ कवि हुए। 
ठाकुर ने संवत् 1861 में 'सतसई बरनार्थ' नाम की 'बिहारी सतसई' की एक टीका (देवकीनंदन टीका) बनाई। अत: इनका कविताकाल संवत् 1860 के इधरउधर माना जा सकता है। ये काशिराज के संबंधी काशी के नामी रईस (जिनकी हवेली अब तक प्रसिद्ध है) बाबू देवकीनंदन के आश्रित थे। इनका विशेष वृत्तांत स्व. पं. अंबिकादत्त व्यास ने अपने 'बिहारी बिहार' की भूमिका में दिया है। ये ठाकुर भी बड़ी सरस कविता करते थे। इनके पद्यों में भाव या दृश्य का निर्वाह अबाध रूप में पाया जाता है। दो उदाहरण लीजिए , 
कारे लाज करहे पलासन के पुंज तिन्हैं
अपने झकोरन झुलावन लगी है री।
ताही को ससेटी तृन पत्रन लपेटी धारा , 
धाम तैं अकास धूरि धावन लगी है री
ठाकुर कहत सुचि सौरभ प्रकाशन मों
आछी भाँति रुचि उपजावन लगी है री।
ताती सीरी बैहर बियोग वा संयोगवारी, 
आवनि बसंत की जनावन लगी है री

प्रात झुकामुकि भेष छपाय कै गागर लै घर तें निकरी ती।
जानि परी न कितीक अबार है, जाय परी जहँ होरी धारी ती
ठाकुर दौरि परे मोहिं देखि कै, भागि बची री, बड़ी सुघरी ती।
बीर की सौं जो किवार न देऊँ तौ मैं होरिहारन हाथ परी ती॥ 
तीसरे ठाकुर बुंदेलखंडी
ये जाति के कायस्थ थे और इनका पूरा नाम लाला ठाकुरदास था। इनके पूर्वज काकोरी (जिला , लखनऊ) के रहनेवाले थे और इनके पितामह खड्गरायजी बड़े भारी मंसबदार थे। उनके पुत्र गुलाबराय का विवाह बड़ी धूमधाम से ओरछे (बुंदेलखंड) के रावराजा (जो महाराज ओरछा के मुसाहब थे) की पुत्री के साथ हुआ था। ये ही गुलाबराय ठाकुर कवि के पिता थे। किसी कारण से गुलाबराय अपनी ससुराल ओरछे में ही आ बसे जहाँ संवत् 1823 में ठाकुर का जन्म हुआ। शिक्षा समाप्त होने पर ठाकुर अच्छे कवि निकले और जैतपुर में सम्मान पाकर रहने लगे। उस समय जैतपुर के राजा केसरी सिंहजी थे। ठाकुर के कुल के कुछ लोग बिजावर में भी जा बसे थे। इससे ये कभी वहाँ भी रहा करते थे। बिजावर के राजा ने एक गाँव देकर ठाकुर का सम्मान किया। जैतपुर नरेश राजा केसरी सिंह के उपरांत जब उनके पुत्र राजा पारीछत गद्दी पर बैठे तब ठाकुर उनकी सभा के रत्न हुए। ठाकुर की ख्याति उसी समय से फैलने लगी और वे बुंदेलखंड के दूसरे राजदरबारों में भी आने जाने लगे। बाँदा के हिम्मतबहादुर गोसाईं के दरबार में कभी कभी पद्माकरजी के साथ ठाकुर की कुछ नोंक झोंक की बातें हो जाया करती थीं। एक बार पद्माकरजी ने कहा, 'ठाकुर कविता तो अच्छी करते हैं पर पद कुछ हलके पड़ते हैं।' इस पर ठाकुर बोले, 'तभी तो हमारी कविता उड़ी उड़ी फिरती है।'
इतिहास में प्रसिद्ध है कि हिम्मतबहादुर कभी अपनी सेना के साथ अंग्रेजों का कार्य साधन करते थे और कभी लखनऊ के नवाब के पक्ष में लड़ते। एक बार हिम्मतबहादुर ने राजा पारीछत के साथ कुछ धोखा करने के लिए उन्हें बाँदे बुलाया। राजा पारीछत वहाँ जा रहे थे कि मार्ग में ठाकुर कवि मिले और दो ऐसे संकेत भरे सवैये पढ़े कि राजा पारीछत लौट गए। एक सवैया यह है , 
कैसे सुचित्त भए निकसौ बिहँसौ बिलसौ हरि दै गलबाहीं।
ये छल छिद्रन की बतियाँ छलती छिन एक घरी पल माहीं
ठाकुर वै जुरि एक भईं, रचिहैं परपंच कछू ब्रज माहीं।
हाल चवाइन की दुहचाल की लाल तुम्हें है दिखात कि नाहीं
कहते हैं कि यह हाल सुनकर हिम्मतबहादुर ने ठाकुर को अपने दरबार में बुला भेजा। बुलाने का कारण समझकर भी ठाकुर बेधाड़क चले गए। जब हिम्मतबहादुर इन पर झल्लाने लगे तब इन्होंने यह कवित्त पढ़ा , 
वेई नर निर्नय निदान में सराहे जात, 
सुखन अघात प्याला प्रेम को पिए रहैं।
हरि रस चंदन चढ़ाय अंग अंगन में, 
नीति को तिलक, बेंदी जस की दिएरहैं।
ठाकुर कहत मंजु कंजु ते मृदुल मन, 
मोहनी सरूप, धारे, हिम्मत हिए रहैं।
भेंट भए समये असमये, अचाहे चाहे, 
और लौं निबाहैं, ऑंखैं एकसी किएरहैं
इस पर हिम्मतबहादुर ने जब कुछ और कटु वचन कहा तब सुना जाता है कि ठाकुर ने म्यान से तलवार निकाल ली और बोले , 
सेवक सिपाही हम उन रजपूतन के, 
दान जुद्ध जुरिबे में नेकु जे न मुरके।
नीत देनवारे हैं मही के महीपालन को, 
हिए के विसुद्ध हैं, सनेही साँचे उर के
ठाकुर कहत हम बैरी बेवकूफन के, 
जालिम दमाद हैं अदानियाँ ससुर के।
चोजिन के चोजी महा, मौजिन के महाराज, 
हम कविराज हैं, पै चाकर चतुर के
हिम्मतबहादुर यह सुनते ही चुप हो गए। फिर मुस्कारते हुए बोले , 'कविजी बस! मैं तो यही देखना चाहता था कि आप कोरे कवि ही हैं या पुरखों की हिम्मत भी आप में है।' इस पर ठाकुर जी ने बड़ी चतुराई से उत्तर दिया , 'महाराज! हिम्मततो हमारे ऊपर सदा अनूप रूप से बलिहार रही है, आज हिम्मत कैसे गिर जाएगी?' (गोसाईं हिम्मत गिरि का असल नाम अनूप गिरि था, हिम्मतबहादुर शाही खिताबथा।)
ठाकुर कवि का परलोकवास संवत् 1880 के लगभग हुआ। अत: इनका कविताकाल संवत् 1850 से 1880 तक माना जा सकता है। इनकी कविताओं का एक अच्छा संग्रह 'ठाकुर ठसक' के नाम से श्रीयुत् लाला भगवानदीनजी ने निकाला है। पर इसमें भी दूसरे दो ठाकुर की कविताएँ मिली हुई हैं। इस संग्रह में विशेषता यह है कि कवि का जीवनवृत्त भी कुछ दे दिया गया है। ठाकुर के पुत्र दरियाव सिंह (चतुर) और पौत्र शंकरप्रसाद भी कवि थे। 
ठाकुर बहुत ही सच्ची उमंग के कवि थे। इनमें कृत्रिमता का लेश नहीं। न तो कहीं व्यर्थ का शब्दाडंबर है, न कल्पना की झूठी उड़ान और न अनुभूति के विरुद्ध भावों का उत्कर्ष। जैसे भावों का जिस ढंग से मनुष्य मात्र अनुभव करते हैं वैसे भावों को उसी ढंग से यह कवि अपनी स्वाभाविक भाषा में उतार देता है। बोलचाल की चलती भाषा में भाव को ज्यों का त्यों सामने रख देना इस कवि का लक्ष्य रहा है। ब्रजभाषा की श्रृंगारी कविताएँ प्राय: स्त्री पात्रों के ही मुख की वाणी होती हैं अत: स्थान स्थान पर लोकोक्तियों का जो मनोहर विधान इस कवि ने किया उनसे उक्तियों में और भी स्वाभाविकता आ गई है। यह एक अनुभूत बात है कि स्त्रिायाँ बात बात में कहावतें कहा करती हैं। उनके हृदय के भावों की भरपूर व्यंजना के लिए ये कहावतें मानो एक संचित वाङ्मय हैं। लोकोक्तियों का जैसा मधुर उपयोग ठाकुर ने किया है वैसा और किसी कवि ने नहीं। इन कहावतों में से कुछ तो सर्वत्र प्रचलित हैं और कुछ खास बुंदेलखंड की हैं। ठाकुर सच्चे उदार, भावुक और हृदय के पारखी कवि थे इसी से इनकी कविताएँ विशेषत: सवैये इतने लोकप्रिय हुए। ऐसा स्वच्छंद कवि किसी क्रम से बद्ध होकर कविता करना भला कहाँ पसंद करता? जब जिस विषय पर जी में आया कुछ कहा।
ठाकुर प्रधानत: प्रेमनिरूपक होने पर भी लोक व्यापार के अनेकांगदर्शी कवि थे। इसी से प्रेमभाव की अपनी स्वाभाविक तन्मयता के अतिरिक्त कभी तो ये अखती, फाग, बसंत, होली, हिंडोरा आदि उत्सवों के उल्लास में मग्न दिखाई पड़ते हैं; कभी लोगों की क्षुद्रता, कुटिलता, दु:शीलता आदि पर क्षोभ प्रकट करते पाए जाते हैं और कभी काल की गति पर खिन्न और उदास देखे जाते हैं। कविकर्म को ये कठिन समझते थे। रूढ़ि के अनुसार शब्दों की लड़ी जोड़ चलने को ये कविता नहीं कहते थे। नमूने के लिए यहाँ इनके थोड़े ही से पद्य दिए जाते हैं , 
सीखि लीन्हों मीन मृग खंजन कमल नैन, 
सीखि लीन्हों जस औ प्रताप को कहानो है। 
सीखि लीन्हों कल्पवृक्ष कामधोनु चिंतामनि,
सीखि लीन्हों मेरु औ कुबेर गिरि आनो है
ठाकुर कहत याकी बड़ी है कठिन बात, 
याको नहिं भूलि कहूँ बाँधियत बानो है।
ढेल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच, 
लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है

दस बार, बीस बार, बरजि दई है जाहि, 
एतै पै न मानै जौ तौ जरन बरन देव।
कैसो कहा कीजै कछू आपनो करो न होय, 
जाके जैसे दिन ताहि तैसेई भरन देव।
ठाकुर कहत मन आपनो मगन राखो, 
प्रेम निहसंक रसरंग बिहरन देव।
बिधि के बनाए जीव जेते हैं जहाँ के तहाँ,
खेलत फिरत तिन्हैं खेलन फिरन देव

अपने अपने सुठि गेहन में चढ़े दोऊ सनेह की नाव पै री!
अंगनान में भीजत प्रेमभरे, समयो लखि मैं बलि जाऊँ पै री! 
कहै ठाकुर दोउन की रुचि सो रंग ह्वै उमड़े दोउ ठाँव पै री। 
सखी, कारी घटा बरसे बरसाने पै, गोरी घटा नंदगाँव पै री

वा निरमोहिनी रूप की रासि जऊ उर हेतु न ठानति ह्वै है।
बारहि बार बिलोकि घरी घरी सूरति तौ पहिचानति ह्वै है
ठाकुर या मन की परतीति है; जो पै सनेहु न मानति ह्वै है।
आवत हैं नित मेरे लिए, इतनी तो विसेष कै जानति ह्वै है

यह चारहु ओर उदौ मुखचंद की चाँदनी चारु निहारि लै री।
बलि जौ पै अधीन भयो पिय, प्यारी! तौ एतौ बिचार बिचारि लैरी
कबि ठाकुर चूकि गयो जौ गोपाल तौ तैं बिगरी कौं सभारि लै री।
अब रैहै न रैहै यहै समयो, बहती नदी पाँय पखारि लै री

पावस में परदेस ते आय मिले पिय औ मनभाई भई है।
दादुर मोर पपीहरा बोलत; ता पर आनि घटा उनई है॥ 
ठाकुर वा सुखकारी सुहावनी दामिनी कौंधा कितै को गई है। 
री अब तौ घनघोर घटा गरजौ बरसौ तुम्हैं धूर दई है

पिय प्यार करैं जेहि पै सजनी तेहि की सब भाँतिन सैयत है।
मन मान करौं तौ परौं भ्रम में, फिर पाछे परे पछतैयत है
कवि ठाकुर कौन की कासौं कहौं? दिन देखि दसा बिसरैयत है।
अपने अटके सुन ए री भटू! निज सौत के मायके जैयत है
38. ललकदास , बेनी कवि के भँड़ौवा से ये लखनऊ के कोई कंठीधारी महंत जान पड़ते हैं जो अपनी शिष्यमंडली के साथ इधर उधर फिरा करते थे। अत: संवत् 1860 और 1880 के बीच इनका वर्तमान रहना अनुमान किया जा सकता है। इन्होंने 'सत्योपाख्यान' नामक एक बड़ा वर्णनात्मक ग्रंथ लिखा है जिसमें रामचंद्र के जन्म से लेकर विवाह तक की कथा बड़े विस्तार के साथ वर्णित है। इस ग्रंथ का उद्देश्य कौशल के साथ कथा चलाने का नहीं बल्कि जन्म की बधााई, बाललीला, होली, जलक्रीड़ा, झूला, विवाहोत्सव आदि का बड़े ब्योरे और विस्तार के साथ वर्णन करने का है। जो उद्देश्य महाराज रघुराज सिंह के रामस्वयंवर का है वही इसका भी समझिए। पर इसमें सादगी है और यह केवल दोहों चौपाइयों में लिखा गया है। वर्णन करने में ललकदासजी ने भाषा के कवियों के भाव तो इकट्ठे ही किए हैं; संस्कृत कवियों के भाव भी कहीं कहीं रखे हैं। रचना अच्छी जान पड़ती है। कुछ चौपाइयाँ देखिए , 
धारि निज अंक राम को माता।
दंतकुंद मुकुता सम सोहै। 
किसलय सधार अधार छबि छाजैं। 
सुंदर चिबुक नासिका सौहै। 
कामचाप सम भ्रुकुटि बिराजै। 
यहि बिधि सकल राम के अंगा।
39. खुमान , ये बंदीजन थे और चरखारी (बुंदेलखंड) के महाराज विक्रमसाहि के यहाँ रहते थे। इनके बनाए इन ग्रंथों का पता है , 
अमरप्रकाश (संवत् 1836), अष्टयाम (संवत् 1852), लक्ष्मणशतक (संवत् 1855), हनुमान नखशिख, हनुमान पंचक, हनुमान पचीसी, नीतिविधान, समरसार (युद्ध यात्रा के मुहूर्त आदि का विचार) नृसिंह चरित्र (संवत् 1879), नृसिंह पचीसी।
इस सूची के अनुसार इनका कविताकाल संवत् 1830 से 1880 तक माना जा सकता है। 'लक्ष्मणशतक' में लक्ष्मण और मेघनाद का युद्ध बड़े फड़कते हुए शब्दों में कहा गया है। खुमान कविता में अपना उपनाम 'मान' रखते थे। नीचे एक कवित्त दिया जाता है , 
आयो इंद्रजीत दसकंधा को निबंध बंधा,
बोल्यो रामबंधु सों प्रबंध किरवान को। 
को है अंसुमाल, को है काल विकराल, 
मेरे सामुहें भए न रहै मान महेसान को
तू तौ सुकुमार यार लखन कुमार! मेरी
मार बेसुमार को सहैया घमासान को।
बीर न चितैया, रनमंडल रितैया, काल 
कहर बितैया हौं जितैया मघवान को
40. नवलसिंह कायस्थ , ये झाँसी के रहनेवाले थे और समथर नरेश राजा हिंदूपति की सेवा में रहते थे। इन्होंने बहुत से ग्रंथों की रचना की है जो भिन्नभिन्न विषयों पर और भिन्न भिन्न शैली के हैं। ये अच्छे चित्रकार भी थे। इनका झुकाव भक्ति और ज्ञान की ओर विशेष था। इनके लिखे ग्रंथों के नाम ये हैं , 
रासपंचाध्यायी, रामचंद्रविलास, शंकामोचन (संवत् 1873)े, जौहरिनतरंग (1875), रसिकरंजनी (1877), विज्ञान भास्कर (1878), ब्रजदीपिका (1883), शुकरंभासंवाद (1888), नामचिंतामणि (1903), मूलभारत (1911), भारतसावित्री (1912), भारत कवितावली (1913), भाषा सप्तशती (1917), कवि जीवन (1918), आल्हा रामायण (1922), रुक्मिणीमंगल (1925), मूल ढोला (1925), रहस लावनी (1926), अध्यात्मरामायण, रूपक रामायण, नारी प्रकरण, सीतास्वयंबर, रामविवाहखंड, भारत वार्तिक, रामायण सुमिरनी, पूर्व श्रृंगारखंड, मिथिलाखंड, दानलोभसंवाद, जन्म खंड।
उक्त पुस्तकों में यद्यपि अधिकांश बहुत छोटी हैं फिर भी इनकी रचना बहुरूपता का आभास देती है। इनकी पुस्तकें प्रकाशित नहीं हुई हैं। अत: इनकी रचना के संबंध में विस्तृत और निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। खोज की रिपोर्टों में उध्दृत उदाहरणों के देखने से रचना इनकी पुष्ट और अभ्यस्त प्रतीत होती है। ब्रजभाषा में कुछ वार्तिक या गद्य भी इन्होंने लिखा है। इनके कुछ पद्य नीचे देखिए , 
अभव अनादि अनंत अपारा । अमन, अप्रान, अमर, अविकारा
अग अनीह आतम अबिनासी । अगम अगोचर अबिरल वासी
अकथनीय अद्वैत अरामा । अमल असेष अकर्म अकामा

सगुन सरूप सदा सुषमा निधान मंजु, 
बुद्धि गुन गुनन अगाधा बनपति से। 
भनै नवलेस फैल्यो बिशद मही में यस, 
बरनि न पावै पार झार फनपति से
जक्त निज भक्तन के कलषु प्रभंजै रंजै, 
सुमति बढ़ावै धान धान धानपति से। 
अवर न दूजो देव सहस प्रसिद्ध यह, 
सिद्धि बरदैन सिद्ध ईस गनपति से
41. रामसहाय दास , ये चौबेपुर (जिला , बनारस) के रहनेवाले लाला भवानीदास कायस्थ के पुत्र थे और काशीनरेश महाराज उदितनारायण सिंह के आश्रय में रहते थे। 'बिहारी सतसई' के अनुकरण पर इन्होंने 'रामसतसईं' बनाई। बिहारी के अनुकरण पर बनी हुई पुस्तकों में इसी को प्रसिद्धि प्राप्त हुई। इसके बहुत से दोहे सरस उद्भावना में बिहारी के दोहों के पास तक पहुँचते हैं, पर यह कहना कि ये दोहे बिहारी के दोहों में मिलाए जा सकते हैं, रसज्ञता और भावुकता से ही पुरानी दुश्मनी निकालना ही नहीं, बिहारी को भी कुछ नीचे गिराने का प्रयत्न समझा जाएगा। बिहारी में क्या क्या मुख्य विशेषताएँ हैं यह उनके प्रसंग में दिखाया जा चुका है। जहाँ तक शब्दों की कारीगरी और वाग्वैदग्ध्य से संबंध है वहीं तक अनुकरण करने का प्रयत्न किया गया है और सफलता भी हुई है। पर हावों का वह सुंदर व्यंजना विधान, चेष्टाओं का वह मनोहर चित्रण, भाषा का वह सौष्ठव, संचारियों की वहसुंदर व्यंजना इस सतसई में कहाँ? नकल ऊपरी बातों की हो सकती है, हृदय की नहीं, पर हृदय पहचानने के लिए हृदय चाहिए, चेहरे पर की दो ऑंखों से ही काम नहीं चल सकता। इस बड़े भारी भेद के होते हुए भी 'रामसतसईं' श्रृंगार रस का उत्तम ग्रंथ है इस सतसई के अतिरिक्त इन्होंने तीन पुस्तकें और लिखी हैं , 
वाणीभूषण, वृत्ततरंगिणी (संवत्र् 1873) और ककहरा।
वाणीभूषण अलंकार का ग्रंथ है और वृत्ततरंगिणी पिंगल का। ककहरा जायसीकी'अखरावट' के ढंग की छोटी सी पुस्तक है और शायद सबसे पिछली रचना है, क्योंकि इसमें धर्म और नीति के उपदेश हैं। रामसहाय का कविताकाल संवत् 1760से 1880 तक माना जा सकता है। नीचे सतसई के कुछ दोहे उध्दृत किए जाते हैं , 
गड़े नुकीले लाल के नैन रहैं दिन रैनि।
तब नाजुक ठोढ़ी न क्यों गाड़ परै मृदुबैनि
भटक न, झटपट चटक कै अटक सुनट के संग।
लटक पीतपट की निपट हटकति कटक अनंग
लागे नैना नैन में कियो कहा धौ मैन।
नहिं लागै नैना रहैं लागे नैना नैन
गुलुफनि लगि ज्यों त्यों गयो, करि करि साहस जोर।
फिर न फिरयो मुरवान चपि, चित अति खात मरोर
यौ बिभाति दसनावली ललना बदन मँझार।
पति को नातो मानि कै मनु आई उडुमार
42. चंद्रशेखर ये वाजपेयी थे। इनका जन्म संवत् 1855 में मुअज्जमाबाद (जिला , फतेहपुर) में हुआ था। इनके पिता मनीरामजी भी अच्छे कवि थे। ये कुछ दिनों तक दरभंगे की ओर, फिर 6 वर्ष तक जोधपुर नरेश महाराज मानसिंह के यहाँ रहे। अंत में ये पटियाला नरेश महाराज कर्मसिंह के यहाँ गए और जीवन भर पटियाला में ही रहे। इनका देहांत संवत् 1932 में हुआ। अत: ये महाराज नरेंद्रसिंह के समय तक वर्तमान थे और उन्हीं के आदेश से इन्होंने अपना प्रसिद्ध वीरकाव्य 'हम्मीरहठ' बनाया। इसके अतिरिक्त इनके रचे ग्रंथों के नाम ये हैं , 
विवेकविलास, रसिकविनोद, हरिभक्तिविलास, नखशिख, वृंदावनशतक, गृहपंचाशिका, ताजकज्योतिष, माधावी वसंत।
यद्यपि श्रृंगार की कविता करने में भी ये बहुत ही प्रवीण थे पर इनकी कीर्ति को चिरकाल तक स्थिर रखने के लिए 'हम्मीरहठ' ही पर्याप्त है। उत्साह के, उमंग की व्यंजना जैसी चलती स्वाभाविक और जोरदार भाषा में इन्होंने की है उस प्रकार से करने में बहुत ही कम कवि समर्थ हुए हैं। वीररस के वर्णन में इस कवि ने बहुत ही सुंदर साहित्यिक विवेक का परिचय दिया है। सूदन आदि के समान शब्दों की तड़ातड़ और भड़ाभड़ के फेर में न पड़कर उग्रोत्साह व्यंजक उक्तियों का ही अधिक सहारा इस कवि ने लिया है, जो वीररस की जान है। दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि वर्णनों के अनावश्यक विस्तार को जिसमें वस्तुओं की बड़ी लंबीचौड़ी सूची भरी जाती है, स्थान नहीं दिया गया है। सारांश यह है कि वीररस वर्णन की श्रेष्ठ प्रणाली का अनुसरण चंद्रशेखर जी ने किया है।
रही प्रसंगविधान की बात। इस विषय में कवि ने नई उद्भावनाएँ न करके पूर्ववर्ती कवियों का ही सर्वथा अनुसरण किया है। एक रूपवती और निपुण स्त्री के साथ महिमा मंगोल का अलाउद्दीन के दरबार से भागना, अलाउद्दीन का उसे हम्मीर से वापस माँगना, हम्मीर का उसे अपनी शरण में लेने के कारण उपेक्षापूर्वक इनकार करना, ये सब बातें जोधाराज क्या उसके पूर्ववर्ती अपभ्रंश कवियों की ही कल्पना है, जो वीरगाथाकाल की रूढ़ि के अनुसार की गई थी। गढ़ के घेरे के समय गढ़पति की निंश्चतता और निर्भीकता व्यंजित करने के लिए पुराने कवि गढ़ के भीतर नाचरंग का होना दिखाया करते थे। जायसी ने अपने पद्मावत में अलाउद्दीन के द्वारा चित्तौरगढ़ के घेरे जाने पर राजा रतनसेन का गढ़ के भीतर नाच कराना और शत्रु के फेंके हुए तीर से नर्तकी का घायल होकर मरना वर्णित किया है। ठीक उसी प्रकार का वर्णन 'हम्मीरहठ' में रखा गया है। यह चंद्रशेखर की अपनी उद्भावना नहीं, एक बँधी हुई परिपाटी का अनुसरण है। नर्तकी के मारे जाने पर हम्मीरदेव का यह कह उठना कि 'हठ करि मंडयो युद्ध वृथा ही' केवल उनके तात्कालिक शोक के आधिाक्य की व्यंजना मात्र करता है। उसे करुण प्रलाप मात्र समझना चाहिए। इसी दृष्टि से इस प्रकरण के करुण प्रलाप राम ऐसे सत्यसंध और वीरव्रती नायकों से भी कराए गए हैं। इनके द्वारा उनके चरित्र में कुछ भी लांछन लगता हुआ नहीं माना जाता। 
एक त्रुटि हम्मीरहठ की अवश्य खटकती है। सब अच्छे कवियों ने प्रतिनायक के प्रताप और पराक्रम की प्रशंसा द्वारा उससे भिड़नेवाले या उसे जीतनेवाले नायकके प्रताप और पराक्रम की व्यंजना की है। राम का प्रतिनायक रावण कैसा था?इंद्र, मरुत, यम, सूर्य आदि सब देवताओं से सेवा लेनेवाला; पर हम्मीरहठ में अलाउद्दीनएक चुहिया के कोने में दौड़ने से डर के मारे उछल भागता है और पुकार मचाता है। 
चंद्रशेखर का साहित्यिक भाषा पर बड़ा भारी अधिकार था। अनुप्रास की योजना प्रचुर होने पर भी भद्दी कहीं नहीं हुई, सर्वत्र रस में सहायक ही है। युद्ध , मृगया आदि के वर्णन तथा संवाद आदि सब बड़ी मर्मज्ञता से रखे गए हैं। जिस रस का वर्णन है ठीक उसके अनुकूल पदविन्यास है। जहाँ श्रृंगार का प्रसंग है वहाँ यही प्रतीत होता है कि किसी सर्वश्रेष्ठ श्रृंगारी कवि की रचना पढ़ रहे हैं। तात्पर्य यह है कि 'हम्मीरहठ' हिन्दी साहित्य का एक रत्न है। 'तिरिया तेल हम्मीर हठ चढ़ै न दूजी बार' वाक्य ऐसे ही ग्रंथ में शोभा देता है। आगे कविता के कुछ नमूने दिए जाते हैं , 
उदै भानु पच्छिम प्रतच्छ, दिन चंद प्रकासै। 
उलटि गंग बरु बहै, काम रति प्रीति विनासै
तजै गौरि अरधांग, अचल धा्रुव आसन चल्लै।
अचल पवन बरु होय, मेरु मंदर गिरिहल्लै
सुरतरु सुखाय, लोमस मरै, मीर! संक सब परिहरौ।
मुखबचन बीर हम्मीर को बोलि न यह कबहूँटरौ

आलम नेवाज सिरताज पातसाहन के
गाज ते दराज कोप नजर तिहारी है।
जाके डर डिगत अडोल गढ़धारी डग
मगत पहार औ डुलति महि सारी है
रंक जैसो रहत ससंकित सुरेस भयो, 
देस देसपति में अतंक अति भारी है।
भारी गढ़धारी, सदा जंग की तयारी, 
धाक मानै ना तिहारी या हमीर हठधाारी है

भागे मीरजादे पीरजादे औ अमीरजादे, 
भागे खानजादे प्रान मरत बचाय कै।
भागे गज बाजि रथ पथ न सँभारैं, परैं
गोलन पै गोल, सूर सहमि सकाय कै 
भाग्यो सुलतान जान बचत न जानि बेगि, 
बलित बितुंड पै विराजि बिलखाय कै
जैसे लगे जंगल में ग्रीषम की आगि
चलै भागि मृग महिष बराह बिललाय कै

थोरी थोरी बैसवारी नवल किसोरी सबै, 
भोरी भोरी बातन बिहँसि मुख मोरतीं।
बसन बिभूषन बिराजत बिमल वर, 
मदन मरोरनि तरकि तन तोरतीं
प्यारे पातसाह के परम अनुराग रँगी, 
चाय भरी चायल चपल दृग जोरतीं।
कामअबला सी, कलाधार की कला सी, 
चारु चंपक लता सी चपला सी चित्त चोरतीं
43. बाबा दीनदयाल गिरि , ये गोसाईं थे। इनका जन्म शुक्रवार वसंतपंचमी, संवत् 1859 में काशी के गायघाट मुहल्ले में एक पाठक के कुल में हुआ था। जब ये 5 या 6 वर्ष के थे तभी इनके माता पिता इन्हें महंत कुशागिरि को सौंप चल बसे। महंत कुशागिरि पंचक्रोशी के मार्ग में पड़नेवाले देहली विनायक स्थान के अधिकारी थे। काशी में महंतजी के और भी कई मठ थे। ये विशेषत: गायघाट वाले मठ में रहा करते थे। जब महंत कुशागिरि के मरने पर बहुत सी जायदाद नीलाम हो गई तब ये देहली विनायक के पास मठोली गाँव वाले मठ में रहने लगे। बाबाजी संस्कृत और हिन्दी दोनों के अच्छे विद्वान थे। बाबू गोपालचंद्र (गिरिधरदास) से इनका बड़ा स्नेह था। इनका परलोकवास संवत् 1915 में हुआ। ये एक अत्यंत सहृदय और भावुक कवि थे। इनकी सी अन्योक्तियाँ हिन्दी के और किसी कवि की नहीं हुईं। यद्यपि इन अन्योक्तियों के भाव अधिकांश संस्कृत से लिये हुए हैं, पर भाषा शैली की सरसता और पदविन्यास की मनोहरता के विचार से वे स्वतंत्र काव्य के रूप में हैं। बाबा जी का भाषा पर बहुत ही अच्छा अधिकार था। इनकी सी परिष्कृत, स्वच्छ और सुव्यवस्थित भाषा बहुत थोड़े कवियों की है। कहीं कहीं कुछ पूरबीपन या अव्यवस्थित वाक्य मिलते हैं, पर बहुत कम। इसी से इनकी अन्योक्तियाँ इतनी मर्मस्पर्शिनी हुई हैं। इनका 'अन्योक्तिकल्पद्रुम' हिन्दी साहित्य में एक अनमोल वस्तु है। अन्योक्ति के क्षेत्र में कवि की मार्मिकता और सौंदर्य भावना के स्फुरण का बहुत अच्छा अवकाश रहता है। पर इसमें अच्छे भावुक कवि ही सफल हो सकते हैं। लौकिक विषयों पर तो इन्होंने सरल अन्योक्तियाँ कही ही हैं; अध्यात्मपक्ष में भी दो-एक रहस्यमयी उक्तियाँ इनकी हैं। 
बाबाजी का जैसा कोमल व्यंजक पदविन्यास पर अधिकार था वैसा ही शब्द चमत्कार आदि के विधान पर भी। यमक और श्लेषमयी रचना भी इन्होंने बहुत सी की है। जिस प्रकार ये अपनी भावुकता हमारे सामने रखते हैं उसी प्रकार चमत्कार कौशल दिखाने में भी नहीं चूकते हैं। इससे जल्दी नहीं कहते बनता कि इनमें कलापक्ष प्रधान है या हृदयपक्ष। बड़ी अच्छी बात इनमें यह है कि इन्होंने दोनों को प्राय: अलग अलग रखा है। अपनी मार्मिक रचनाओं के भीतर इन्होंने चमत्कार प्रवृत्ति का प्रवेश प्राय: नहीं होने दिया है। 'अन्योक्तिकल्पद्रुम' के आदि में कई श्लिष्ट पद्य आए हैं पर बीच में बहुत कम। इसी प्रकार अनुरागबाग में भी अधिकांश रचना शब्दवैचित्रय आदि से मुक्त है। यद्यपि अनुप्रासयुक्त सरस कोमल पदावली का बराबर व्यवहार हुआ है, पर जहाँ चमत्कार का प्रधान उद्देश्य रखकर ये बैठे हैं वहाँ श्लेष, यमक, अंतर्लापिका, बहिर्लापिका सब कुछ मौजूद है। सारांश यह कि ये एक बहुरंगी कवि थे। रचना की विविधा प्रणालियों पर इनका पूर्ण अधिकार था। 
इनकी लिखी इतनी पुस्तकों का पता है , 
अन्योक्तिकल्पद्रुम (संवत् 1912), अनुरागबाग (संवत् 1888), वैराग्य दिनेश (संवत् 1906), विश्वनाथ नवरत्न और दृष्टांत तरंगिणी (संवत् 1879)। 
इस सूची के अनुसार इनका कविताकाल संवत् 1879 से 1912 तक माना जा सकता है। 'अनुरागबाग' में श्रीकृष्ण की विविधा लीलाओं का बड़े ही ललित कवित्तों में वर्णन हुआ है। मालिनीछंद का भी बड़ा मधुर प्रयोग हुआ है। 'दृष्टांत तरंगिणी' में नीतिसंबंधी दोहे हैं। 'विश्वनाथ नवरत्न' शिव की स्तुति है। 'वैराग्य दिनेश' में एक ओर तो ऋतुओं आदि की शोभा का वर्णन है और दूसरी ओर ज्ञान, वैराग्य आदि का। इनकी कविता के कुछ नमूने दिए जाते हैं , 
केतो सोम कला करौ, करौ सुधा को दान।
नहीं चंद्रमणि जो द्रवै यह तेलिया पखान
यह तेलिया पखान, बड़ी कठिनाई जाकी।
टूटी याके सीस बीस बहु बाँकी टाँकी
बरनै दीनदयाल, चंद! तुमही चित चेतौ। 
कूर न कोमल होहिं कला जो कीजे केतौ

बरखै कहा पयोद इत मानि मोद मन माहिं।
यह तौ ऊसर भूमि है अंकुर जमिहैं नाहिं
अंकुर जमिहैं नाहिं बरष सत जौ जल दैहै।
गरजै तरजै कहा? बृथा तेरो श्रम जैहै
बरनै दीनदयाल न ठौर कुठौरहि परखै।
नाहक गाहक बिना, बलाहक! ह्याँ तू बरखै

चल चकई तेहि सर विषै, जहँ नहिं रैन बिछोह।
रहत एक रस दिवस ही, सुहृद हंस संदोह।
सुहृद हंस संदोह कोह अरु द्रोह न जाको।
भोगत सुख अंबोह, मोह दुख होय न ताको
बरनै दीनदयाल भाग बिन जाय न सकई। 
पिय मिलाप नित रहै, ताहि सर तू चल चकई

कोमल मनोहर मधुर सुरताल सने
नूपुर निनादनि सों कौन दिन बोलिहैं।
नीके मन ही के वृंद वृंदन सुमोतिन को
गहि कै कृपा की अब चोंचन सो तौलिहैं
नेम धारि छेम सों प्रमुद होय दीनद्याल
प्रेम कोकनद बीच कब धौं कलोलिहैं।
चरन तिहारे जदुबंस राजहंस! कब
मेरे मन मानस में मंद मंद डोलिहैं

चरन कमल राजैं, मंजु मंजीर बाजैं।
गमन लखि लजावैं, हंसऊ नाहिं पावैं
सुखद कदमछाहीं, क्रीड़ते कुंज माहीं।
लखि लखि हरि सोभा, चित्त काको न लोभा

बहु छुद्रन के मिलन तें हानि बली की नाहिं।
जूथ जंबुकन तें नहीं केहरि कहुँ नसि जाहिं
पराधीनता दुख महा सुखी जगत स्वाधीन।
सुखी रमत सुक बन विषै कनक पींजरे दीन
44. पजनेस , ये पन्ना के रहनेवाले थे। इनका कुछ विशेष वृत्तांत प्राप्त नहीं। कविताकाल इनका संवत् 1900 के आसपास माना जा सकता है। कोई पुस्तक तो इनकी नहीं मिलती, पर इनकी बहुत सी फुटकल कविता संग्रह ग्रंथों में मिलती और लोगों के मुँह से सुनी जाती है। इनका स्थान ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवियों में है। ठाकुर शिवसिंहजी ने 'मधुरप्रिया' और 'नखशिख' नाम की इनकी दो पुस्तकों का उल्लेख किया है, पर वे मिलती नहीं। भारतजीवन प्रेस ने इनकी फुटकल कविताओं का एक संग्रह 'पजनेस प्रकाश' के नाम से प्रकाशित किया है जिसमें 127 कवित्त-सवैया हैं। इनकी कविताओं को देखने से पता चलता है कि ये फारसी भी जानते थे। एक सवैया में इन्होंने फारसी के शब्द और वाक्य भरे हैं। इनकी रचना श्रृंगाररस की ही है, पर उसमें कठोर वर्णों (जैसे ट, ठ, ड) का व्यवहार यत्रा तत्रा बराबर मिलता है। ये 'प्रतिकूलवर्णन' की परवाह कम करते थे। पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि कोमल अनुप्रासयुक्त ललित भाषा का व्यवहार इनमें नहीं है। पदविन्यास इनका अच्छा है। इनके फुटकल कवित्त अधिकतर अंगवर्णन के मिलते हैं जिससे अनुमान होता है कि इन्होंने कोई नखशिख लिखा होगा। शब्दचमत्कार पर इनका ध्यान विशेष रहता था जिससे कहीं कहीं कुछ भद्दापन आ जाता था। कुछ नमूने देखिए , 
छहरै छबीली छटा छूटि छितिमंडल पै, 
उमग उजेरो महाओज उजबक सी।
कवि पजनेस कंज मंजुल मुखी के गात, 
उपमाधिकाति कल कुंदन तबक सी
फैली दीप दीप दीप दीपति दीपति जाकी।
दीपमालिका की रही दीपति दबक सी।
परत न ताब लखि मुख माहताब जब, 
निकसी सिताब आफताब की भभक सी

पजनेस तसद्दुक ता बिसमिल जुल्फष फुरकत न कबूल कसे।
महबूब चुनाँ बदमस्त सनम अजश्दस्त अलाबल जुल्फ फँसे
मजमूए, न काफष् शिगाफष् रुए सम क्यामत चश्म से खूँ बरसे।
मिजश्गाँ सुरमा तहरीर दुताँ नुकते, बिन बे, किन ते, किन से
45. गिरिधरदास ये भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के पिता थे और ब्रजभाषा के बहुत ही प्रौढ़ कवि थे। इनका नाम तो बाबू गोपालचंद्र था पर कविता में अपना उपनाम ये 'गिरिधरदास', 'गिरधार', 'गिरिधरन' रखते थे। भारतेंदु ने इनके संबंध में लिखा है कि 'जिन श्री गिरिधरदास कवि रचे ग्रंथ चालीस'। इनका जन्म पौष कृष्ण 15, संवत् 1890 को हुआ। इनके पिता काले हर्षचंद, जो काशी के एक बड़े प्रतिष्ठित रईस थे इन्हें ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही छोड़कर परलोक सिधाारे। इन्होंने अपनेनिज के परिश्रम से संस्कृत और हिन्दी में बड़ी स्थिर योग्यता प्राप्त की और पुस्तकों काएक बहुत बड़ा अनमोल संग्रह किया। पुस्तकालय का नाम इन्होंने 'सरस्वती भवन' रखा जिसका मूल्य स्वर्गीय डॉ. राजेंद्र लाल मित्र एक लाख रुपया तक दिलवाते थे। इनके यहाँ उस समय के विद्वानों और कवियों की मंडली बराबर जमी रहती थी और इनका समय अधिकतर काव्यचर्चा में ही जाता था। इनका परलोकवास संवत् 1917 में हुआ। 
भारतेंदुजी ने इनके लिखे 40 ग्रंथों का उल्लेख किया है जिनमें बहुतों का पता नहीं। भारतेंदु के दौहित्र, हिन्दी के उत्कृष्ट लेखक श्रीयुत् बाबू ब्रजरत्नदासजी हैं जिन्होंने अपनी देखी हुई इन अठारह पुस्तकों के नाम इस प्रकार दिए हैं , 
जरासंधवध महाकाव्य, भारतीभूषण (अलंकार), भाषा व्याकरण (पिंगल संबंधी), रसरत्नाकर, ग्रीष्म वर्णन, मत्स्यकथामृत, वराहकथामृत, नृसिंहकथामृत, वामनकथामृत, परशुरामकथामृत, रामकथामृत, बलराम कथामृत, कृष्णचरित (4701 पदों में), बुद्ध कथामृत, कल्किकथामृत, नहुष नाटक, गर्गसंहिता, (कृष्णचरित का दोहे चौपाइयों में बड़ा ग्रंथ), एकादशी माहात्म्य।
इनके अतिरिक्त भारतेंदुजी के एक नोट के आधार पर स्वर्गीय बाबू राधाकृष्णदास ने इनकी 21 और पुस्तकों का उल्लेख किया है , 
वाल्मीकि रामायण (सातों कांड पद्यानुवाद), छंदार्णव, नीति, अद्भुत रामायण, लक्ष्मीनखशिख, वार्ता संस्कृत, ककारादिसहस्रनाम, गयायात्रा, गयाष्टक, द्वादशदलकमल, कीर्तन, संकर्षणाष्टक, दनुजारिस्त्रोत, गोपालस्त्रोत, भगवतस्त्रोत, शिवस्त्रोत, श्री रामस्त्रोत, श्री राधास्त्रोत, रामाष्टक, कालियकालाष्टक।
इन्होंने दो ढंग की रचनाएँ की हैं। गर्गसंहिता आदि भक्तिमार्ग की कथाएँ तो सरल और साधारण पद्यों में कही हैं, पर काव्यकौशल की दृष्टि से जो रचनाएँ की हैं जैसे जरासंधवध, भारतीभूषण, रसरत्नाकर, ग्रीष्मवर्णन , ये यमक और अनुप्रास आदि से इतनी लदी हुई हैं कि बहुत स्थलों पर दुरूह हो गई हैं। सबसे अधिक इन्होंने यमक और अनुप्रास का चमत्कार दिखाया है। अनुप्रास और यमक का ऐसा विधान जैसा जरासंधावध में है और कहीं नहीं मिलेगा। जरासंधवध अपूर्ण है, केवल 11 सर्गों तक लिखा गया है, पर अपने ढंग का अनूठा है। जो कविताएँ देखी गई हैं उनसे यही धारणा होती है कि इनका झुकाव चमत्कार की ओर अधिक था। रसात्मकता इनकी रचनाओं में वैसी नहीं पाई जाती। अट्ठाइस वर्ष की ही आयु पाकर इतनी अधिक पुस्तकें लिख डालना पद्य रचना का अद्भुत अभ्यास सूचित करता है। इनकी रचना के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं।
(जरासंध वध से)
चल्यो दरद जेहि फरद रच्यो बिधि मित्र दरद हर।
सरद सरोरुह बदन जाचकन बरद मरद बर
लसत सिंह सम दुरद नरद दिसि दुरद अरद कर।
निरखि होत अरि सरद, हरद, सम जरद कांति धार
कर करद करत बेपरद जब गरद मिलत बपु गाज को।
रन जुआ नरद वित नृप लस्यो करद मगध महराज को

सबके सब केशव के सबके हित के गज सोहते सोभा अपार हैं। 
जब सैलन सैलन सैलन ही फिरैं सैलन सैलहि सीस प्रहार हैं
'गिरिधरन' धारन सों पद कंज लै धारन लै बसु धारन फारहैं
अरि बारन बारन बारन पै सुर वारन वारन वारन वार हैं
(भारती भूषण से)
असंगति , सिंधु जनित गर हर पियो, मरे असुर समुदाय।
नैन बान नैनन लग्यो, भयो करेजे घाय
(रसरत्नाकर से)
जाहि बिबाहि दियो पितु मातु नै पावक साखि सबै जन जानी।
साहब से 'गिरिधरन जू' भगवान समान कहै मुनि ज्ञानी
तू जो कहै वह दच्छिन है तो हमैं कहा बाम हैं, बाम अजानी।
भागन सों पति ऐसो मिलै सबहीन को दच्छिन जो सुखदानी
(ग्रीष्मवर्णन से)
जगह जड़ाऊ जामे जड़े हैं जवाहिरात, 
जगमग जोति जाकी जग में जमति है। 
जामे जदुजानि जान प्यारी जातरूप ऐसी,
जगमुख ज्वाल ऐसी जोन्ह सी जगति है 
'गिरिधरदास' जोर जबर जवानी को है, 
जोहि जोहि जलजा हू जीव में जकति है।
जगत के जीवन के जिय को चुराए जोय, 
जोए जोषिता को जेठ जरनि जरति है
46. द्विजदेव (महाराज मानसिंह) ये अयोध्या के महाराज थे और बड़ी ही सरस कविता करते थे। ऋतुओं के वर्णन इनके बहुत ही मनोहर हैं। इनके भतीजे भुवनेश जी (श्री त्रिलोकीनाथ जी, जिनसे अयोध्या नरेश ददुआ साहब से राज्य के लिए अदालत हुई थी) ने द्विजदेव जी की दो पुस्तकें बताई हैं, 'श्रृंगारबत्तीसी' और 'श्रृंगारलतिका'।'श्रृंगारलतिका' का एक बहुत ही विशाल और सटीक संस्करण महारानी अयोध्या की ओर से हाल में प्रकाशित हुआ है। इसके टीकाकार हैं भूतपूर्व अयोध्या नरेश महाराज प्रतापनारायण सिंह। 'श्रृंगारबत्तीसी' भी एक बार छपी थी। द्विजदेव के कवित्त काव्यप्रेमियों में वैसे ही प्रसिद्ध हैं जैसे पद्माकर के। ब्रजभाषा के श्रृंगारी कवियों की परंपरा में इन्हें अंतिम प्रसिद्ध कवि समझना चाहिए। जिस प्रकार लक्षण ग्रंथ लिखनेवाले कवियों में पद्माकर अंतिम प्रसिद्ध कवि हैं उसी प्रकार समूची श्रृंगार परंपरा में ये। इनकी सी सरस और भावमयी फुटकल श्रृंगारी कविता फिर दुर्लभ हो गई।
इनमें बड़ा भारी गुण है भाषा की स्वच्छता। अनुप्रास आदि चमत्कारों के लिए इन्होंने भाषा भद्दी कहीं नहीं होने दी है। ऋतुवर्णनों में इनके हृदय का उल्लास उमड़ पड़ता है। बहुत से कवियों के ऋतुवर्णन हृदय की सच्ची उमंग का पता नहीं देते, रस्म सी अदा करते जान पड़ते हैं। पर इनके चकोरों की चहक के भीतर इनके मन की चहक भी साफ झलकती है। एक ऋतु के उपरांत दूसरी ऋतु के आगमन पर इनका हृदय अगवानी के लिए मानो आप से आप आगे बढ़ता था। इनकी कविता के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं , 
मिलि माधावी आदिक फूल के ब्याज विनोद-लवा बरसायो करैं।
रचि नाच लतागन तानि बितान सबै विधि चित्त चुरायो करैं।
द्विजदेव जू देखि अनोखी प्रभा अलिचारन कीरति गायो करैं।
चिरजीवो बसंत! सदा द्विजदेव प्रसूननि की झरि लायो करैं

सुर ही के भार सूधो सबद सुकीरन के
मंदिरन त्यागि करैं अनत कहूँ न गौन।
द्विजदेव त्यौं ही मधुभारन अपारन सों
नेकु झुकि झूमि रहै मोगरे मरुअ दौन
खोलि इन नैनन निहारौं तौ निहारौं कहा?
सुषमा अभूत छाय रही प्रति भौन भौन।
चाँदनी के भारन दिखात उनयो सो चंद,
गंधा ही के भारन बहत मंद मंद पौन

बोलि हारे कोकिल, बुलाय हारे केकीगन, 
सिखै हारी सखी सब जुगुति नई नई।
द्विजदेव की सौं लाज बैरिन कुसंग इन
अंगन हू आपने अनीति इतनी ठई
हाय इन कुंजन तें पलटि पधारे स्याम, 
देखन न पाई वह मूरति सुधामई।
आवन समै में दुखदाइनि भई री लाज, 
चलत समैं मे चल पलन दगा दई

आजु सुभायन ही गई बाग, बिलोकि प्रसून की पाँति रही पगि।
ताहि समय तहँ आये गोपाल, तिन्हें लखि औरौ गयो हियरो ठगि
पै द्विजदेव न जानि परयो धौं कहा तेहि काल परे अंसुवा जगि।
तू जो कही सखि! लोनो सरूप सो मो अंखियान कों लोनी गईलगि

बाँके संकहीने राते कंज छबि छीने माते, 
झुकि झुकि, झूमि झूमि काहू को कछू गनैन।
द्विजदेव की सौं ऐसी बनक बनाय बहु,
भाँतिन बगारे चित चाहन चहूँधा चैन
पेखि परे प्रात जौ पै गातिन उछाह भरे, 
बार बार तातें तुम्हैं बूझती कछूक बैन। 
एहो ब्रजराज! मेरो प्रेमधान लूटिबे को, 
बीरा खाय आये कितै आपके अनोखे नैन

भूले भूले भौंर बन भाँवरें भरैंगे चहूँ, 
फूलि फूलि किंसुक जके से रहि जायहैं।
द्विजदेव की सौं वह कूजन बिसारि कूर, 
कोकिल कलंकी ठौर ठौर पछिताय हैं 
आवत बसंत के न ऐहैं जो पै स्याम तौ पै, 
बावरी! बलाय सों हमारेऊ उपाय हैं। 
पीहैं पहिलेई तें हलाहल मँगाय या, 
कलानिधि की एकौ कला चलन न पायहैं

घहरि घहरि घन सघन चहूँधा घेरि, 
छहरि छहरि विष बूँद बरसावै ना। 
द्विजदेव की सौं अब चूक मत दाँव, एरे
पातकी पपीहा! तू पिया की धुनि गावै ना।
फेरि ऐसो औसर न ऐहै तेरे हाथ, एरे
मटकि मटकि मोर सोर तू मचावै ना। 
हौं तौ बिन प्रान, प्रान चाहत तजोई अब, 
कत नभ चंद तू अकास चढ़ि धावै ना
संदर्भ
1. विशेष, दे. आधुनिक काव्य।


>>पीछे>> >>आगे>>