प्रकरण 1 प्रकरण 2 हिन्दी साहित्य की गति का ऊपर जो संक्षिप्त उल्लेख हुआ, उससे
रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्ति का पता चल सकता है। अब इस काल के मुख्य मुख्य कवियों का विवरण दिया जाता है। इक आजु मैं कुंदन बेलि लखी मनिमंदिर की रुचिवृंद भरैं। ऑंखिन मुँदिबे के मिस आनि अचानक पीठि उरोज लगावै। कवि बेनी नई उनई है घटा, मोरवा बन बोलत कूकन री। क्यों इन ऑंखिन सों निहसंक ह्वै मोहन को तन पानिप पीजै। केलि कै राति अघाने नहीं दिन ही में लला पुनि घात लगाई। दोऊ अनंद सो ऑंगन माँझ बिराजै असाढ़ की साँझ सुहाई। सूबन को मेटि दिल्ली देस दलिबे को चमू, डाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी-सी रहति छाती, सबन के ऊपर ही ठाढ़ो रहिबे के जोग, दारा की न दौर यह, रार नहीं खजुबे की, चकित चकत्ता चौंकि चौंकि उठै बार बार, जिहि फन फूतकार उड़त
पहार भार, जोहैं जहाँ मगु नंदकुमार तहाँ चलि चंदमुखी सुकुमार है। हाथ हँसि दीन्हों भीति अंतर परसि प्यारी, आगे तौ कीन्हीं लगालगी लोयन, कैसे छिपे अजहूँ जौ छिपावति। डार द्रुम पलना, बिछौना नवपल्लव के, सखी के सकोच, गुरु सोच मृगलोचनि, झहरि झहरि झीनी बूँद हैं परति मानो, साँसन ही में समीर गयो अरु ऑंसुन ही सब नीर गयो ढरि। जब तें कुवँर कान्ह रावरी कलानिधान! 'देव' मैं सीस बसायो सनेह सों भाल मृगम्मद बिंदु कै भाख्यौ। धार में धाय धाँसी निराधार ह्वै, आय फँसी, उकसी न उधोरी। राजै रसमै री तैसी बरखा समै री चढ़ी, सारस के नादन को बाद ना सुनात कहूँ, घूँघट उदयगिरिवर तैं निकसि रूप थोरेई गुन रीझते बिसराई वह बानि। बाघन पै गयो, देखि बनन में रहे छपि, नैनन को तरसैए कहाँ लौं, कहाँ लौ हियो बिरहागि मै तैए। ऊधो! तहाँई चलौ लै हमें जहँ कूबरि कान्ह बसैं एक ठौरी। कढ़ि कै निसंक पैठि जाति झुंड झुंडन में, अब तो बिहारी के वे बानक गए री, तेरी अंखियाँ हमारी दईमारी सुधि बुधि हारीं, एक कहैं हँसि ऊधावजू! ब्रज की जुवती तजि चंद्रप्रभा सी। श्रीहरि की छबि देखिबे को अंखियाँ प्रति रोमहि
में करि देतो। तौ तन में रवि को प्रतिबिंब परे किरनै सो घनी सरसाती। प्रीति नयी नित कीजत है, सब सों छल की बतरानि परी है। झमकतु बदन मतंग कुंभ उत्तंग अंग वर। कैधौं सेस देस तें निकसि पुहुमी पे आय, सुधरे सिलाह राखैं, वायुवेग वाह राखैं, आप दरियाव, पास नदियों के जाना नहीं, धारी जब बाँहीं तब करी तुम 'नाहीं', उरज उरज धाँसे, बसे उर आड़े
लसे, सारी की सरौट सब सारी में मिलाय दीन्हीं, फल विपरीत को जतन सों, 'विचित्र', काजर की कोरवारे भारे अनियारे नैन, मोतिन की माल तोरि चीर सब चीरि डारै, घन से सघन स्याम, इंदु पर छाय रहे, कलुषहरनि सुखकरनि सरनजन घर घर घाट घाट बाट बाट ठाट ठटे, चींटी को चलावै को? मसा के मुख आपु जाय, सोभा पाई कुंज भौन जहाँ जहाँ कीन्हों
गौन, (भाषा) अहिरिनि मन कै गहिरिनि उतरु न देइ। खल खंडन मंडन धारनि, उद्ध त उदित उदंड। मीनागढ़ बंबई सुमंद मंदराज बंग, आई संग आलिन के ननद पठाई नीठि, गोकुल के, कुल के, गली के गोप गाँवनके आरस सो आरत, सँभारत न सीस पट, मोहि लखि सोवत बिथोरिगो सुबेनीबनी, एहो नंदलाल! ऐसी व्याकुल परी है बाल, चालो सुनि चंदमुखी चित में सुचैन करि, तीखे तेगवाही जे सिलाही चढ़ै घोड़न पै, ऐ ब्रजचंद गोविंद गोपाल! सुन्यो क्यों न एते कलाम किए मैं। मोरन के सोरन की नैको न मरोर रही, जाकी खूबखूबी खूब खूबन की खूबी यहाँ, दिया है खुदा ने खूब खुसी करो ग्वाल कवि, चंचलता अपनी तजि कै रस ही रस सों रस सुंदर पीजियो। तड़पै तड़िता चहुँ ओरन तें, छिति छाई समीरन की लहरैं। कानि करै गुरुलोगन की, न सखीन की सीखन ही मन लावति। कहा जानि, मन में मनोरथ विचारि कौन, चंचल चपला चारु चमकत चारों ओर, महाराज
रामराज रावरो सजत दल, प्रकरण 3 रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों का, जिन्होंने लक्षणग्रंथ के रूप में रचनाएँ की हैं, संक्षेप में वर्णन हो चुका है। अब यहाँ पर इस काल के भीतर होनेवाले उन कवियों का उल्लेख होगा जिन्होंने रीतिग्रंथ न लिखकर दूसरे प्रकार की
पुस्तकें लिखी हैं। ऐसे कवियों में कुछ ने तो प्रबंध काव्य लिखे हैं, कुछ ने नीति या भक्ति संबंधी पद्य और कुछ ने श्रृंगार रस की फुटकल कविताएँ लिखी हैं। ये पिछले वर्ग के कवि प्रतिनिधि कवियों से केवल इस बात में भिन्न हैं कि इन्होंने क्रम से रसों, भावों, नायिकाओं और अलंकारों के लक्षण कहकर उनके अंतर्गत अपने पद्यों को नहीं रखा है। अधिकांश में ये भी श्रृंगारी कवि हैं और इन्होंने भी श्रृंगाररस के फुटकल पद्य कहे हैं। रचनाशैली में किसी प्रकार का भेद नहीं है। ऐसे कवियों में घनानंद सर्वश्रेष्ठ हुए हैं। इस
प्रकार के अच्छे कवियों की रचनाओं में प्राय: मार्मिक और मनोहर पद्यों की संख्या कुछ अधिक पाई जाती है। बात यह है कि इन्हें कोई बंधान नहीं था। जिस भाव की कविता जिस समय सूझी ये लिख गए। रीतिबद्ध ग्रंथ जो लिखने बैठते थे उन्हें प्रत्येक अलंकार या नायिका को उदाहृत करने के लिए पद्य लिखना आवश्यक था जिनमें सब प्रसंग उनकी स्वाभाविक रुचि या प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं हो सकते थे। रसखान, घनानंद, आलम, ठाकुर आदि जितने प्रेमोन्मत्त कवि हुए हैं उनमें किसी ने लक्षणबद्ध रचना नहीं की है। आनि कै सलावत खाँ जोर कै जनाई बात, कवच कुंडल इंद्र लीने बाण कुंती लै गई। कैधौं मोर सोर तजि गए री अनत भाजि, रात कें उनींदे अरसाते, मदमाते राते, दाने की न पानी की, न आवै सुधा खाने की, कारी कूर कोकिला कहाँ को बैर काढ़ति री, आनाकानी आरसी निहारिबो करौगे कौलौं? अंतर में बासी पै प्रवासी कैसो अंतर है, मूरति सिंगार की उजारी छबि आछी भाँति, अति सूधो सनेह को मारग है, जहँ नैकु सयानप बाँक नहीं। चतुर चितेरे तुव सबी लिखत न हिय ठहराय। बाजि गज सोर रथ सुतूर कतार जेते, उठौ कुँवर दोउ प्रान पियारे। करि जो कर में कयलास लियो कसिके अब नाक सिकोरतहै। (इश्क चमन से) कहँ पवार जगदेव सीस आपन कर कट्टयो। जीवन मरन सँजोग जग कौन मिटावै ताहि। पुंडरीक सुत सुता तासु पद कमल मनाऊँ। इत ते चली राधिका गोरी सौंपन अपनी गैया। एरे मुकुटवार चरवाहे! गाय हमारी लीजौ। कोऊ कहूँ आय बनवीथिन या लीला लखि जैहै। बने नवल प्रिय प्यारी। प्रीतम तुम मो दृगन बसत हो। रहिए लटपट काटि दिन बरु घामहिं में सोय। हमारो वृंदावन उर और। गिरि कीजै गोधान मयूर नव कुंजन को, दिग्गज दबत दबकत दिगपाल भूरि, न्हाती जहाँ सुनयना नित बावलीमें, हाटक हंस चल्यो उड़िकै नभ में दुगुनी तन ज्योति भई। दुहुँ ओर बंदूक जहँ चलत बेचूक, दब्बत
लुत्थिनु अब्बत इक्क सुखब्बत से। धड़धद्ध रं धड़धद्ध रं भड़भब्भरं भड़भब्भरं। सोनित अरघ ढारि, लुत्थ जुत्थ पाँवड़े दै, इसी गल्ल धारि कन्न में बकसी मुसक्याना। डोलती डरानी खतरानी बतरानी बेबे, लहि सुदेष्णा की सुआज्ञा नीच कीचक जौन। नहीं तुम सी लखी भू पर भरी सुषमा बाम। मणिदेव एक सुभान के आनन पै कुरबान जहाँ लगि रूप जहाँ को। कबहूँ मिलिबो, कबहूँ मिलिबो, वह धीरज ही में धारैबो करै। हिलि मिलि जानै तासों मिलि कै जनावै हेत, मानिए करींद्र जो हरींद्र को सरोष हरै, तेरे पद पंकज पराग राजै राजेश्वरी! अभय कठोर बानी सुनि लछमन जू की, बोले हरि इंद्र सों बिनै कै कर जोरि दोऊ, बौरे रसालन की चढ़ि डारन कूकत क्वैलिया मौन गहै ना। प्रात झुकामुकि भेष छपाय कै गागर लै घर तें निकरी ती। दस बार, बीस बार, बरजि दई है जाहि, अपने अपने सुठि गेहन में चढ़े दोऊ सनेह की नाव पै री! वा निरमोहिनी रूप की रासि जऊ उर हेतु न ठानति ह्वै है। यह चारहु ओर उदौ मुखचंद की चाँदनी चारु निहारि लै री। पावस में परदेस ते आय मिले पिय औ मनभाई भई है। पिय प्यार करैं जेहि पै सजनी तेहि की सब भाँतिन सैयत है। सगुन सरूप सदा सुषमा निधान मंजु, आलम नेवाज
सिरताज पातसाहन के भागे मीरजादे पीरजादे औ अमीरजादे, थोरी थोरी बैसवारी नवल किसोरी सबै, बरखै कहा पयोद इत मानि मोद मन माहिं। चल चकई तेहि सर विषै, जहँ नहिं रैन बिछोह। कोमल मनोहर मधुर सुरताल सने चरन कमल राजैं, मंजु मंजीर बाजैं। बहु छुद्रन के मिलन तें हानि बली की नाहिं। पजनेस तसद्दुक ता बिसमिल जुल्फष फुरकत न कबूल कसे। सबके सब केशव के सबके हित के गज सोहते सोभा अपार हैं। सुर ही के भार सूधो सबद सुकीरन के बोलि
हारे कोकिल, बुलाय हारे केकीगन, आजु सुभायन ही गई बाग, बिलोकि प्रसून की पाँति रही पगि। बाँके संकहीने राते कंज छबि छीने माते, भूले भूले भौंर बन भाँवरें भरैंगे चहूँ, घहरि घहरि घन सघन चहूँधा घेरि, >>पीछे>> >>आगे>> |