1991 क ह द क ल डर - 1991 ka ha da ka la dar

1991 क ह द क ल डर - 1991 ka ha da ka la dar

अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन.

Russia-Ukraine Conflict: जो यूक्रेन इस वक्त रूस के सामने बेहद कमजोर दिख रहा है, आज से 30 साल पहले वह ऐसी स्थिति में बिल्कुल नहीं था. वर्ष 1991 तक यूक्रेन के पास 5000 से अधिक परमाणु हथियार थे. इसके अलावा यूक्रेन के पास अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलें और सामरिक बमवर्षक विमान भी थे.

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  • News18Hindi
  • Last Updated : February 25, 2022, 23:36 IST

नई दिल्ली: यूक्रेन आज जिस संकट में है उसके लिए अमेरिका और नाटो को भी खलनायक के रूप में देखा जा रहा है. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने 22 फरवरी 2022 को पूर्वी यूक्रेन के दो राज्यों, दोनेत्स्क और लुहांस्क को अलग देश का दर्जा दे दिया. इसके बाद 24 फरवरी की सुबह यूक्रेन पर हमला कर दिया. यूक्रेन जब संकट में पड़ा तो न ही NATO और न ही अमेरिका, ने मदद के लिए अपने सैनिक उसकी धरती पर भेजे.

यूक्रेन की उदारता अब उस पर बुहत भारी पड़ रही?
जो यूक्रेन इस वक्त रूस के सामने बेहद कमजोर दिख रहा है, आज से 30 साल पहले वह ऐसी स्थिति में बिल्कुल नहीं था. इस कहानी को जानने के लिए हम आपको इतिहास में करीब 30 साल पीछे साल 1991 में ले चलते हैं. तारीख थी 25 दिसंबर, जब तत्कालीन सोवियत संघ (Union of Soviet Socialist Republics) के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव ने 10 मिनट तक भाषण दिया और सोवियत संघ के विघटन की घोषणा कर दी. इसके बाद सोवियत संघ 15 स्वतंत्र राष्ट्रों में बंट गया.

यूक्रेन कभी दुनिया की तीसरी बड़ी परमाणु शक्ति था
सोवियत संघ के विघटन से जो नए देश बने उनके बीच परमाणु हथियारों के असमान वितरण की समस्या खड़ी हो गई. रिपोर्ट्स की मानें तो बेलारूस के पास उस वक्त 100 के करीब परमाणु हथियार थे. कजाकिस्तान के पास 1400 तो, वहीं यूक्रेन के पास 5000 से अधिक परमाणु हथियार थे. इसके अलावा यूक्रेन के पास अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलें और सामरिक बमवर्षक विमान भी थे. सामरिक मामलों के जानकार बताते हैं कि यूक्रेन 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद परमाणु हथियारों का जखीरा रखने वाला दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश हुआ करता था.

यूक्रेन, बेलारूस, कजाकिस्तान के पास परमाणु हथियार तो थे, लेकिन इसके इस्तेमाल की जानकारी नहीं थी. इसको देखते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय जिसमें अमेरिका अगुवा था, ने यूक्रेन, बेलारूस, कजाकिस्तान को START I संधी और अप्रसार संधि (Non-Proliferation Treaty) के अंतर्गत आने को कहा. इसका मतलब था कि यूक्रेन, बेलारूस, कजाकिस्तान को अपने परमाणु हथियार रूस को देकर कुछ कम करने होंगे या उन्हें नष्ट करना होगा. ये तीनों देश ऐसा करने के लिए तैयार हो गए. इसे लेकर 1994 में रूस, यूक्रेन, अमेरिका, बेलारूस, कजाकिस्तान के बीच बुडापेस्ट ज्ञापन (Budapest Memorandum) पर हस्ताक्षर हुआ.

यूक्रेन के लिए अभिशाप बना परमाणु हथियार त्यागना?
यूक्रेन ने अपने परमाणु हथियार छोड़ दिए. साल 2014 में रूस ने बुडापेस्ट मेमोरैंडम का उलंघन करते हुए क्रीमिया पर हमला कर दिया और यूक्रेन से अलग कर अपना ​हिस्सा बना लिया. यूक्रेन ने जंग लड़े बिना क्रीमिया पर अपना कब्जा गंवा दिया था. फरवरी 2014 में यूक्रेन की राजधानी कीव में प्रदर्शन तेज हो गए, दर्जनों प्रदर्शनकारी मारे गए. तत्कालीन राष्ट्रपति यानुकोविच को देश छोड़कर जाना पड़ा और विपक्ष सत्ता में आ गया. यानुकोविच को रूस समर्थक नेता बताया जाता है. रूस ने 6 मार्च 2014 को क्रीमिया की संसद में जनमत संग्रह कराया, जिसमें 97 फीसदी लोगों ने रूस के साथ जाने के लिए वोट किया.

रूस लगाता है मिंस्क समझौते के उल्लंघन का अरोप
क्रीमिया के रूस में शामिल होने के बाद रूस और यूक्रेन के बीच शांति बहाल को लेकर दोनों देखों के राष्ट्राध्यक्षों ने बेलारूस की राजधानी Minsk में एक समझौते पर हस्ताक्षर किया, जिसे मिंस्क एग्रीमेंट कहते हैं. लेकिन रूस लगातार यूक्रेन पर इस एग्रीमेंट के उल्लंघन का आरोप लगाता है. अब जब रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया है तो सवाल उठता है कि अगर यूक्रेन परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र होता तो क्या रूस इतनी आसानी से उस पर आक्रमण करने का फैसला कर लेता? अब अमेरिका और NATO पर यह आरोप लग रहे हैं कि इन्होंने यूक्रेन से परमाणु हथियारों का त्याग तो करा दिया, लेकिन जब उस पर संकट आया तो मदद के लिए आगे नहीं आए.

यूक्रेन की मदद को आगे नहीं आए अमेरिका और नाटो
अमेरिका की तरफ से सिर्फ बयानबाजी की गई और रूस को रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया. NATO का भी यही हाल है. रूस-यूक्रेन के बीच जारी युद्ध में अमेरिका शांत क्यों पड़ गया है, वह सक्रिय भूमिका निभाने से क्यों बच रहा है? जानकारों की मानें तो अमेरिका को इस बात का अहसास है कि उसका असली दुश्मन रूस नहीं चीन है. अमेरिका और चीन के बीच सैन्य तो नहीं लेकिन कई दूसरे मोर्चों पर युद्ध चल रहा है. कभी ट्रेड वॉर तो कभी हिंद महासागर में टकराव. दरअसल, चीन अब खुद को आर्थिक महाशक्ति के रूप में पेश कर रहा है, जो अमेरिका के लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं.

वर्ल्ड ऑर्डर बदलने की महत्वकांक्षा पालकर बैठा है चीन
यह एक तरह से वर्ल्ड ऑर्डर को बदलने की चीन की महत्वकांक्षा है. इसी वजह से कहा जा रहा है कि अमेरिका, रूस के खिलाफ अपनी ज्यादा ऊर्जा नहीं लगाना चाहता. ऐसा होने पर चीन उस स्थिति को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकता है. अमेरिका की चिंता गलत भी नहीं है. क्योंकि चीन, रूस के मुकाबले अर्थव्यवस्था के लिहाज से ज्यादा शक्तिशाली है. चीन की अर्थव्यवस्था रूस से 10 गुना ज्यादा बड़ी है, वहीं जब दोनों की सैन्य शक्ति को भी देखा जाता है तो चीन इस मोर्चे पर भी चार गुना ज्यादा खर्च करता है.

रूस के खिलाफ युद्ध छेड़ने की स्थिति में नहीं है अमेरिका
इस समय चीन के पास दुनिया की सबसे बड़ी थल सेना और नौसेना मौजूद है. वह मैन्युफैक्चरिंग का बड़ा हब बन है. ऐसे में अमेरिका कहीं और फंसकर चीन को उस स्थिति का फायदा नहीं उठाने देना चाहता. जानकारों का यह भी कहना है कि अमेरिका ऐसी स्थिति में नहीं है कि वह रूस के खिलाफ युद्ध छेड़ सके. यही कारण है कि उसने यूक्रेन मुद्दे पर खुद को सिर्फ रूस की ‘निंदा’ और तमाम तरह के ‘प्रतिबंध’ लगाने तक सीमित रखा है.

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Tags: America, Russia, Ukraine

FIRST PUBLISHED : February 25, 2022, 23:36 IST