1974 की रेल हड़ताल पर टिप्पणी

पटना। जॉर्ज फर्नांडीस करीब पांच साल पहले तक बिहार की राजनीति में ऊंचा मुकाम रखते थे। इन दिनों वह अल्जाइमर से पीड़ित हैं। 8 मई 1974 को देश में जॉर्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में अब तक की सबसे बड़ी रेल हड़ताल शुरू हुई थी। जॉर्ज उस समय रेल मजदूरों के संगठन ऑल इंडिया रेलवे फेडरेशन के अध्यक्ष थे। देश में हुए इस आंदोलन के बाद भारत की राजनीति की दिशा ही बदल गई। कहा जाता है कि इस आंदोलन ने ही देश में इमरजेंसी की नींव डाली थी।

जॉर्ज फर्नांडीस की अगुआई में हुई इस हड़ताल ने पूरे देश के मजदूर आंदोलन और भारतीय राजनीति पर प्रभाव डाला था। 1974 में हुई इस हड़ताल से देश में मजदूरों के लिए बुनियादी बहस की शुरुआत हुई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि बोनस इज द डेफर्ड वेज और इसी सिद्धांत के आधार पर रेल कर्मचारियों के संगठन ने बोनस की मांग की थी। फर्नांडीस और रेल मजदूर संगठनों का यह आकलन था कि रेल कर्मचारियों की सारी मांगें पूरी करने पर भारत सरकार पर मुश्किल से 200 करोड़ रुपए का बोझ आएगा। रेल हड़ताल को तोड़ने के ऊपर सरकार ने इससे दस गुनी राशि करीब दो हजार करोड़ रुपए खर्च किए थे।

आगे की स्लाइड्स में पढ़ें रेल आंदोलन की पूरी कहानी...

1974 की रेल हड़ताल पर टिपण्णी लिखें?...


1974 की रेल हड़ताल पर टिप्पणी

चेतावनी: इस टेक्स्ट में गलतियाँ हो सकती हैं। सॉफ्टवेर के द्वारा ऑडियो को टेक्स्ट में बदला गया है। ऑडियो सुन्ना चाहिये।

प्रश्न है उन्हें से 74 की रेल हड़ताल पर देनी है इसका आंसर होगा सन 1974 में भारतीय रेलवे के कर्मचारी द्वारा 20 दिन की हड़ताल की गई थी इस हड़ताल में 1700000 कर्मचारी ने भाग लिया था और यह अब तक की सबसे बड़ी ज्ञात हड़ताल है इसका नेतृत्व जॉर्ज फर्नाडीज ने किया था जो उस समय इंडिया रेलवे मेंस फेडरेशन के अध्यक्ष थे 20 दिन चली रेलगाड़ी हड़ताल से भारत में हाहाकार मच गया था

Romanized Version

1974 की रेल हड़ताल पर टिप्पणी

1 जवाब

Vokal App bridges the knowledge gap in India in Indian languages by getting the best minds to answer questions of the common man. The Vokal App is available in 11 Indian languages. Users ask questions on 100s of topics related to love, life, career, politics, religion, sports, personal care etc. We have 1000s of experts from different walks of life answering questions on the Vokal App. People can also ask questions directly to experts apart from posting a question to the entire answering community. If you are an expert or are great at something, we invite you to join this knowledge sharing revolution and help India grow. Download the Vokal App!

यूक्रेन पर रूसी आक्रमण - साम्राज्यवादियों के बीच बढ़ते टकराव का परिणाम

आखिरकार वही हुआ जिसकी लंबे समय से उम्मीद की जा रही थी। पहले रूस ने दोनबास क्षेत्र के दो राज्यों- दोनेत्सक और लुहान्स्क- को स्वतंत्र देशों का दर्जा दे दिया और फिर उनके आग्रह के नाम पर रूसी सेना द्वारा बड़े पैमाने पर यूक्रेन पर आक्रमण कर दिया गया। रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने इस आक्रमण का मकसद यूक्रेन व इस इलाके का ‘‘असैन्यीकरण’’ और ‘‘अनाजीकरण’’ बताया। रूसी राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि रूस यूक्रेन पर कब्जा नहीं करना चाहता।

इस हमले से पहले रूस लगातार पश्चिमी यूरोप के देशों और विशेष तौर पर अमेरिकी शासकों से यह समझौता करने की कोशिश कर रहा था कि पश्चिमी देश नाटो में यूक्रेन को शामिल ना करें। यूक्रेन नाटो की सदस्यता चाह रहा है। रूसी शासक यूक्रेन के शासकों को लगातार यह सलाह और धमकी दे रहे थे कि वह अपनी तटस्थता बनाए रखे। रूसी शासक यह नहीं चाहते थे कि नाटो का विस्तार ठीक उसकी सीमा तक आ जाए। दूसरी बात, रूसी शासक यूक्रेन में रूसी भाषा-भाषी नागरिकों के साथ होने वाले भेदभाव के विरुद्ध यूक्रेन के शासकों को लगातार चेतावनी दे रहे थे। लेकिन यूक्रेन के शासक भाषायी भेदभाव बढ़ाते जा रहे थे और रूसी भाषा की द्वितीय सरकारी भाषा की हैसियत को समाप्त कर चुके थे। इसके विरुद्ध यूक्रेन के दोनबास क्षेत्र में यूक्रेन की सत्ता के विरुद्ध लंबे समय से रूसी भाषा-भाषी लोगों का विरोध बढ़ता जा रहा था। इस समस्या के समाधान के लिए भी यूरोपीय देशों के साथ रूस, यूक्रेन की सत्ता, रूसी भाषा-भाषी विद्रोहियों के बीच एक समझौता- मिंस्क समझौता- हुआ था। इस समझौते के तहत रूसी भाषा-भाषी इलाकों को यूक्रेन राज्य के भीतर स्वायत्तता दी जानी थी तथा उनके विरुद्ध यूक्रेन की सरकार द्वारा दमनात्मक कदमों को ना उठाने की बात की गई थी। लेकिन 2015 में हुए इस समझौते का यूक्रेन की सरकार लगातार उल्लंघन कर रही थी। अमेरिकी साम्राज्यवादी और उसके समर्थक पश्चिमी साम्राज्यवादी देश लगातार यूक्रेन की सरकार को भड़का रहे थे तथा उसकी सैनिक साजो-समान सहित अन्य आर्थिक मदद कर रहे थे। यूक्रेन की मौजूदा सरकार ने दोनबास क्षेत्र के विद्रोहियों के विरुद्ध करीब डेढ़ लाख की फौज तैनात की हुई थी।

यहां यह भी ध्यान में रखने की बात है कि 2014 में अमेरिकी शह पर यूक्रेन में तख्तापलट हुआ था। इस तख्तापलट के जरिए यूक्रेन में दक्षिणपंथी सत्ता आई थी। इस तख्तापलट के पहले यान्कोविच राष्ट्रपति थे। वे रूस के साथ अच्छा संबंध बनाने की ओर कदम बढ़ा रहे थे लेकिन दक्षिणपंथी और नव नाजीवादी ताकतों के सत्तासीन होने के बाद क्रीमिया में जनमत संग्रह हुआ और इस जनमत संग्रह के बाद क्रीमिया ने यूक्रेन से अलग होने की घोषणा कर दी। इसके बाद क्रीमिया का रूस के साथ विलय हो गया। क्रीमिया की 80 प्रतिशत से ज्यादा आबादी रूसी भाषा-भाषी है। क्रीमिया 18 वीं सदी से रूस का हिस्सा रहा था। 1954 में सोवियत संघ के तहत ख्रुश्चेव ने क्रीमिया को यूक्रेन के साथ मिला दिया था।

क्रीमिया के रूस के साथ विलय के विरोध में अमरीकी साम्राज्यवादी और उसके सहयोगी पश्चिमी साम्राज्यवादी देश लगातार सक्रिय थे। वे इसे रूसी कब्जे के बतौर पेश कर रहे थे।

दरअसल, रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला और भीषण बमबारी की जड़ें अमरीकी साम्राज्यवादी, पश्चिमी यूरोप के साम्राज्यवादी और रूस के बीच के टकराव में हैं। इसकी जड़ें 1989-91 में सोवियत संघ के विघटन और पूर्वी यूरोप के देशों में खुली पूंजीवादी सत्ताओं के आने के समय तक जाती हैं। 1990 में जब पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी का एकीकरण हो रहा था, उस समय इस एकीकरण के लिए सोवियत समर्थन हासिल करने के लिए अमरीकी साम्राज्यवादियों और नाटो ने वादा किया था कि वे नाटो का और आगे पूर्व की तरफ विस्तार पहले के वारसा संधि के देशों में नहीं करेंगे। लेकिन यह वायदा अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए कोई मायने नहीं रखता था। 1999 में बिल क्लिंटन से लेकर बाद के सभी अमरीकी राष्ट्रपतियों ने इस वायदे को तोड़ा और उसे इस हद तक तोड़ा कि इस समय पूर्ववर्ती सोवियत संघ के तीन देशों को नाटो में शामिल कर लिया गया है। अमरीकी साम्राज्यवादी इस समय यूक्रेन और जार्जिया को भी नाटो में शामिल करने की योजना रखते हैं।

यह सर्वविदित है कि नाटो की स्थापना 1949 में हुई थी। इसकी स्थापना में अमरीकी और ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की प्रमुख भूमिका थी। द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर दुनिया में कम्युनिज्म के प्रसार को रोकने के मकसद से यह एक सोवियत विरोधी सैनिक गठबंधन था। यह दावा बिल्कुल बकवास है कि पश्चिमी यूरोप पर सोवियत हमले के खतरे के विरुद्ध नाटो एक रक्षात्मक गठबंधन था। हकीकत यह थी कि द्वितीय विश्व युद्ध में सोवियत संघ बहुत ज्यादा तबाह-बर्बाद हो गया था। उसे उस समय शांति की जरूरत सबसे ज्यादा थी। सोवियत संघ के विघटन (1991) के बाद रूस खुद एक छुट्टा पूंजीवादी देश हो चुका था। सभी पूर्वी यूरोप के देश भी राज्य पूंजीवाद से खुले पूंजीवादी देशों में तब्दील हो चुके थे। ऐसी स्थिति में नाटो की मौजूदगी का यह बहाना खत्म हो गया था कि वारसा संधि के देशों का मुकाबला करने के लिए इसकी जरूरत है।

सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस छुट्टे पूंजीवाद पर चल पड़ा। अमरीकी साम्राज्यवादियों की निगाहें रूसी बाजार पर थीं। लेकिन वह अपनी फौजी पकड़ को भी मजबूत करता रहा। इससे रूसी शासक सतर्क हो गए। जैसे ही रूसी शासक संकट से एक हद तक बाहर आए तो वे अमरीकी साम्राज्यवादियों और नाटो के निर्देशों को मानने से इंकार करने लगे। नाटो ने मध्यम दूरी की मार करने वाली मिसाइलें पोलैंड और रोमानिया में स्थापित कर दीं। ये नाटो के नए सदस्य देश थे। रूसी शासकों ने इसे अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बढ़ा हुआ खतरा समझा। अमरीकी साम्राज्यवादी सोचते थे कि इस कदम के जरिए वे रूसी शासकों को और ज्यादा झुकाने में कामयाब हो सकेंगे। इन मिसाइलों की तैनाती ने आई.एन.एफ. संधि का भी उल्लंघन किया था।

अमरीकी साम्राज्यवादी और नाटो यहीं नहीं रुके। इन्होंने रूसी सीमा के पास नाटो के नए सदस्य देशों में आक्रामक सैन्य अभ्यास किया। यह सीधे-सीधे रूस पर आक्रमण की तैयारी की प्रक्रिया थी। जहां एक तरफ, अमरीकी साम्राज्यवादी नाटो का विस्तार रूसी सीमा तक कर रहे हैं, वहीं जब रूस ने नाटो में शामिल होने की बात की, तो उसे सदस्य बनाने से साफ तौर पर मना कर दिया गया। वस्तुतः नाटो अमरीकी व पश्चिमी साम्राज्यवादियों की एक अति महत्वपूर्ण सैन्य शक्ति है। इसका मकसद रूसी साम्राज्यवादियों को अपनी सीमाओं में सीमित रखना है जिससे कि यह खुद अपनी सीमा से बाहर जाकर कहीं भी प्रभाव ना डाल सके।

केंद्रीय और पूर्वी यूरोप के अधिकांश देश द्वितीय विश्व युद्ध तक रूस के प्रति दुश्मनीपूर्ण रवैय्या रखते रहे हैं। दोनों विश्व युद्धों के बीच के काल के दौरान पोलैंड, रोमानिया और बाल्टिक देशों में आम तौर पर दक्षिणपंथी सत्तायें कायम रही थीं। और भी, हंगरी, रोमानिया, स्लोवाकिया और बाल्टिक देशों की सरकारें द्वितीय विश्व युद्ध में सोवियत संघ के विरुद्ध युद्ध में नाजी जर्मनी के साथ हो गई थी ।

इस पृष्ठभूमि में यूक्रेन में 1990 के बाद के घटनाक्रम को समझना चाहिए। 1990 के दशक से अमरीकी साम्राज्यवादी नेशनल एंडोवमेंट फार डेमोक्रेसी और सी.आई.ए. के जरिए यूक्रेन में पश्चिम समर्थक और रूस विरोधी शक्तियों की मदद करते रहे हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन को यूरोपीय संघ और नाटो में शामिल करने की उम्मीदें पाले हुए हैं। यह लगातार अंधराष्ट्रवादी यूक्रेनी राष्ट्रवादियों के बीच उकसावे की कार्यवाही करता रहा है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि अमरीकी साम्राज्यवादियों ने 2014 में राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच का तख्तापलट करा दिया था। यह तख्तापलट इसलिए कराया गया था क्योंकि उसने यूरोपीय संघ के एक आर्थिक प्रस्ताव को रद्द कर दिया था जिसके मुताबिक यूक्रेन पश्चिमी यूरोपीय देशों के साथ संबंद्ध हो जाता। विक्टर यानुकोविच रूस और पश्चिमी देशों के बीच एक तटस्थ स्थिति बनाकर चल रहे थे।

विक्टर यानुकोविच के तख्तापलट के लिए हो रहे प्रदर्शनों में कई अमरीकी बड़े अधिकारी और सांसद तक मौजूद थे। जिन लोगों ने तख्तापलट किया था उसमें रूस विरोधी नव नाजी समूह प्रमुख थे। इसमें एक स्वोबोदा पार्टी का दक्षिणपंथी अर्धसैनिक हिस्सा था। जहां एक तरफ मौजूदा सत्ता कम्युनिस्ट पार्टी को गैरकानूनी घोषित किए हुए है, वहीं दूसरी तरफ युद्धकालीन नाजियों के साथ सहयोग करने वालों की याद में स्मारक खड़े कर रही है। इस हुकूमत ने अपने राष्ट्रीय सशस्त्र बलों में नव नाजीवादी अर्ध-सैनिक बलों को शामिल कर लिया है। इस नव नाजीवादी अर्ध सैनिक बल का इस्तेमाल दोनबास इलाके में दमन के लिए किया जा रहा है।

यहां कुछ शब्द ऊपर बताए गए संगठन नेशनल एंडोवमेंट फार डेमोक्रेसी (एन.ई.डी.) के बारे में कहना उपयुक्त होगा। इस संगठन का गठन अमरीकी संसद (कांग्रेस) द्वारा 1983 में किया गया था। इसका कुल कोष अमरीकी सरकार से आता है। इसका घोषित उद्देश्य तो ‘‘जनवाद’’ का प्रोत्साहन है, लेकिन इसका मतलब यह है कि ऐसे विरोधी गुटों का उन देशों में समर्थन करना जहां की सरकारें अमरीकी साम्राज्यवाद की विदेश नीति का और पर राष्ट्रीय पूंजी द्वारा बरपाये गए कहर का विरोध करती हैं। एन.ई.डी. समूची दुनिया में सी.आई.ए. की तरह ही फैली हुई है। जहां सी.आई.ए. गुप्त कार्रवाईयों (हत्याओं व अन्य तोड़फोड़ की कार्रवाईयों) में संलग्न रहती है, वहीं एन.ई.डी. मीडिया और ‘‘नागरिक समाज’’ संगठनों में सक्रिय रहती है। इसने अपने डैने फैलाकर यूक्रेन, वेनेजुएला, निकारागुआ और सीरिया जैसे देशों में कहर बरपाया है।

आज साम्राज्यवादियों की बिसात बिछी हुई है। रूसी साम्राज्यवादी भी यूरेशियाई आर्थिक संघ, शंघाई सहकार संगठन और ब्रिक्स जैसे गठबंधनों के माध्यम से अपनी ताकत बढ़ा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्थाएं अभी तक पश्चिमी साम्राज्यवादियों के हाथ का खिलौना रही हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक आदि के जरिए अमरीकी साम्राज्यवादी अपना प्रभुत्व कायम किए हुए हैं। वे इस समय इनका इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध कर रहे हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी रूस पर व्यापक प्रतिबंध घोषित कर चुके हैं। रूसी बैंकों को भी बाहर काम करने से रोक दिया गया है। रूस के व्यापार को तहस-नहस करने के लिए उसे स्विफ्ट प्रणाली से बाहर कर दिया गया है।

इस समय अमरीकी साम्राज्यवादी चाहते हैं कि इस युद्ध में रूस कमजोर हो जाए, आर्थिक तौर पर तबाह हो जाए। तब अमरीकी साम्राज्यवादी अपनी गिरती हुई आर्थिक स्थिति से उबरने में इससे फायदा उठा सकेंगे लेकिन इधर चीन भी अपने डैने फैलाए हुए है। वह भी ताइवान और दक्षिण चीन सागर में अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए चुनौती बना हुआ है।

इस प्रकार, अमरीकी और पश्चिमी यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने रूसी साम्राज्यवादियों को ललकार कर और उसे पीछे धकेलते हुए ऐसी जगह पहुंचा दिया है जहां से वे और पीछे जाने को तैयार नहीं हैं। रूसी साम्राज्यवादी यूक्रेन पर बड़े पैमाने पर आक्रमण कर चुके हैं। वे यूक्रेन में बड़े पैमाने पर तबाही बरपा कर रहे हैं। अमरीकी और अन्य साम्राज्यवादी पैसे और हथियारों से यूक्रेन के सत्ताधारियों की मदद कर रहे हैं। रूस का हमला इतना बड़ा है कि लगता है कि राजधानी कीव पर कब्जा करना कुछ दिनों की बात है। यूक्रेन का मौजूदा राष्ट्रपति जेलेंस्की दक्षिणपंथी है। उसके साथ नव नाजीवादी शक्तियां हैं। ओजेव बटालियन अर्ध सैनिक नव नाजीवादी गिरोह है। ये सभी रूसी हमले के विरोध में सक्रिय हैं। इन्हें अमरीकी और पश्चिमी साम्राज्यवादी आर्थिक मदद व सैनिक साजो-सामान मुहैय्या करा रहे हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी दूर से तमाशा देख रहे हैं। रूसी साम्राज्यवादियों के हमले का डटकर मुकाबला करने की बात यह दक्षिणपंथी राष्ट्रपति कर रहे हैं। यूक्रेनी राष्ट्रपति ने कीव राजधानी छोड़ने से इनकार कर दिया है। उनका कहना है कि वे अंतिम दम तक रूसी हमलावरों के विरुद्ध लड़ेंगे। इस युद्ध में रूसी आक्रमक हैं। यूक्रेन की मजदूर-मेहनतकश आबादी को रूसी आक्रमण के साथ-साथ अपने शासकों की बढ़ती अमेरिकापरस्ती का पुरजोर विरोध करना चाहिए। दूसरी तरफ रूस की मजदूर-मेहनतकश आबादी को अपने आक्रमणकारी शासकों का विरोध करना चाहिए। ये दोनों देश के शासक अपने-अपने हितों में अपने देशों की मजदूर-मेहनतकश जनता को बांटे हुए हैं। जहां यूक्रेन की मजदूर-मेहनतकश जनता को रूसी आक्रमणकारियों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए आगे आना चाहिए, वहीं अमरीकी साम्राज्यवादियों और पश्चिमी यूरोपीय साम्राज्यवादियों के हाथ की कठपुतली बनने के लिए तैयार यूक्रेन के शासकों के विरुद्ध भी अपनी लड़ाई तेज करनी चाहिए

यह बहुत ही विकट स्थिति है। मजदूर-मेहनतकश आबादी घरेलू दुश्मन और बाहरी दुश्मनों के बीच पिस रही है। लेकिन इसका समाधान निष्क्रिय शांति की मांग नहीं है। युद्ध विभीषिका लाता है। लेकिन यह शिक्षित भी करता है। व्यापक मजदूर आबादी के लिए यह नकारात्मक शिक्षण है।

दुनिया भर के मजदूर वर्ग को रूसी हमलावरों के विरोध में खड़ा होना होगा। इसके साथ ही अमरीकी व पश्चिमी यूरोपीय साम्राज्यवादियों की साजिशों और दुनिया पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के मंसूबों के विरुद्ध खड़ा होना होगा।

ये दुनिया भर के कुछ मुट्ठी भर साम्राज्यवादी न सिर्फ अपने देश के मजदूरों-मेहनतकशों को भयंकर शोषण का शिकार बना रहे हैं। बल्कि लूट के लिए अलग-अलग देशों के मजदूरों-मेहनतकशों को एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ने और मारने के लिए विवश कर रहे हैं।
क्लिक करें।