18 वीं शताब्दी का अरस्तु किसे कहा जाता है - 18 veen shataabdee ka arastu kise kaha jaata hai

सरकार की तीन शक्तियों व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के अलग-अलग कार्य करने की स्वतंत्रता का नाम शक्ति पृथक्करण सिद्धांत है। विद्वानों का मत है कि सरकार की ये तीनों शक्तियाँ अलग-अलग हाथों मे रहने मे जनता के हितों की सूरक्षा होगी। इस प्रकार शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के अनुसार व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को एक-दूसरे के कार्यों मे हस्तक्षेप नही करना चाहिए।

शक्ति पृथक्करण की परिभाषा (shakti prithakkaran ki paribhasha)

गैटिक के अनुसार " यह सिद्धांत कि शासन के विभिन्न कार्य व्यक्तियों की विभिन्न संस्थाओं द्वारा किये जाने चाहिए, प्रत्येक विभाग दूसरे विभागों मे हस्तक्षेप किये बिना अपने कार्यक्षेत्र तक ही सीमित रहे और अपने क्षेत्र मे पूर्णतया स्वतंत्र रहे, शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत कहा जाता है। 

डाॅ. इकबाल नारायण के अनुसार " राजशक्ति की अभिव्यक्ति तथा प्रयोग तीनों रूपों मे स्वतंत्रतापूर्वक हो, व्यवस्थापन, कार्यपालन तथा न्याय। इन तीनों से संबंधित शक्तियाँ पृथक- पृथक हाथों मे रहे, इनसे संबंधित विभाग अपने-अपने क्षेत्र मे पूर्ण स्वतंत्र हो तथा कोई भी एक-दूसरे विभाग की शक्ति तथा उसके अधिकारों मे हस्तक्षेप न करे, इस सिद्धांत को राजशक्ति के पृथक्करण का सिद्धांत कहते है। 

शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का समर्थन 

शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के समर्थकों का मत है कि कानून बनाने, कानून चलाने तथा न्याय करने के लिए अलग-अलग योग्यताओं की तथा क्षमताओं की आवश्यकता है। अतएव सरकार की ये तीनों शक्तियाँ एक ही व्यक्ति के हाथों मे न होकर अलग-अलग व्यक्तियों के हाथों मे होनी चाहिए। मांटेक्यू ने कहा था," यदि विधान परिषद् तथा  कार्यपालिका की शक्तियों को एक ही व्यक्ति अथवा निकाय मे केन्द्रित कर दिया गया तो स्वतंत्रता का अन्त हो जाएगा।" 

हैमिल्टन ने स्पष्ट रूप से कहा था," विधानपालिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका इन सब शक्तियों का एक स्थान पर केन्द्रित हो जाना अत्याचार की परिभाषा है।" 

शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का विकास (The theory of history of separation of power) 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की दृष्टि से शक्ति पृथक्करण सिद्धांत 18वीं शताब्दी के फ्रांसीसी विचारक माण्टेस्क्यू के नाम के साथ जुड़ा हुआ है। परंतु माण्टेस्क्यू के पूर्व इस सिद्धांत के प्रतिपादन एवं विकास मे यूनानी विचारक प्लेटों, अरस्तु, रोमन चिंतक सिसरों, पालिवियस, 14 वीं शताब्दी मे मर्सिलियो ऑफ पेडुआ, 16 वीं शताब्दी मे फ्रांसीसी विचारक बोदां, 17 वीं शताब्दी मे जाॅन लाॅक आदि के  विचारों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। 

माण्टेस्क्यू से पूर्व शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के प्रतिपादकों ने इस बात पर जोर दिया है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए शासन के तीनों अंगों मे पृथक्करण आवश्यक है। पर व्यवहार मे शक्ति पृथक्करण नागरिक स्वतंत्रता की गारंटी नही है। यह आशंका कम महत्व की नही है कि शक्ति पृथक्करण के परिणामस्वरूप एक के स्थान पर तीन सत्ता केन्द्र विकसित हो सकते है और पृथक्करण के परिणामस्वरूप एक के स्थान पर तीन सत्ता केन्द्र विकसित हो सकते है और नागरिक इन सत्ता केन्द्रों के बीच पिस सकता है। नागरिक स्वतंत्रता के लिए विधि का शासन, मौलिक अधिकारों की व्यवस्था, "सूचना के अधिकार" की स्थापना आदि व्यवस्थाएँ महत्वपूर्ण है।

13 वीं शताब्दी के महान् दार्शनिक सेण्ट थॉमस एक्विनास का जन्म 1225 ई0 में नेपल्स राज्य (इटली) के एक्वीनो नगर में हुआ। उसका पिता एकवीनी का काऊण्ट था उसकी माता थियोडोरा थी। सेण्ट थॉमस एक्विनास का बचपन सम्पूर्ण सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण था। उसकी जन्मजात प्रतिभा को देखकर उसके माता-पिता उसे एक उच्च राज्याधिकारी बनाना चाहते थे। इसलिए उसे 5 वर्ष की आयु में मौंट कैसिनो की पाठशाला में भेजा गया। इसके बाद उसने नेपल्स में शिक्षा ग्रहण की। लेकिन उसके धार्मिक रुझान ने उसके माता-पिता के स्वप्न को चकनाचूर कर दिया और उसने 1244 ई0 में ‘डोमिनिकन सम्प्रदाय’ की सदस्यता स्वीकार कर ली। उसके माता-पिता ने उसे अनेक प्रलोभन देकर इसकी सदस्यता छोड़ने के लिए विवश किया लेकिन उसके दृढ़ निश्चय ने उनकी बात नहीं मानी। इसलिए वह धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए पेरिस चला गया। वहाँ पर उसने आध् यात्मिक नेता अल्बर्ट महान् के चरणों में बैठकर धार्मिक शिक्षा ग्रहण की। 


इसके बाद उसने 1252 ई0 में अध्ययन व अध्यापन कार्य में रुचि ली और उसने इटली के अनेक शिक्षण संस्थानों में पढ़ाया। इस दौरान उसने विलियम ऑफ मोरवेक के सम्पर्क में आने पर अरस्तू व उसके तर्कशास्त्र पर अनेक टीकाएँ लिखीं। उस समय भिक्षुओं के लिए पेरिस विश्वविद्यालय में उपाधि देने का प्रावधान नहीं था। इसलिए पोप के हस्तक्षेप पर ही उसे 1256 ई0 में ‘मास्टर ऑफ थियोलोजी’ (Master of Theology) की उपाधि दी गई। इसके उपरान्त उसने ईसाई धर्म के बारे में अनेक ग्रन्थ लिखकर ईसाईयत की बहुत सेवा की। पोप तथा अन्य राजा भी अनेक धार्मिक विषयों पर उसकी सलाह लेने लग गए। इस समय उसकी ख्याति चारों ओर फैल चुकी थी। अपने समय के महान् प्रकाण्ड विद्वान की अल्पायु में ही 1274 ई0 में मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद 16 वीं शताब्दी में उसे ‘डॉक्टर ऑफ दि चर्च’ (Doctor of the Church) की उपाधि देकर सम्मानित किया गया।

थॉमस एक्विनास की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ

सेण्ट थॉमस एक्विनास के राज-दर्शन का प्रतिबिम्ब उसकी दो रचनाएँ ‘डी रेजिमाइन प्रिन्सिपम’ (De Regimine Principum) तथा ‘कमेण्ट्री ऑन अरिस्टॉटिल्स पॉलिटिक्स’ (Commentary on Aristotle's Politics) है। इन रचनाओं में राज्य व चर्च के सम्बन्धों के साथ-साथ अन्य समस्याओं पर भी चर्चा हुई है। ये रचनाएँ राज्य व चर्च के सम्बन्धों का सार मानी जाती हैं। ये रचनाएँ राज्य व चर्च के सम्बन्धों का सार मानी जाती हैं। ‘सुम्मा थियोलॉजिका’ (Summa Theologica) भी एक्विनास का एक ऐसा महान् ग्रन्थ माना जाता है, जिसमें प्लेटो तथा अरस्तू के दर्शनशास्त्र का रोमन कानून और ईसाई धर्म-दर्शन के साथ समन्वय स्थापित किया गया है। इस ग्रन्थ में कानून की संकुचित रूप से व्याख्या व विश्लेषण किया गया है। ‘रूल ऑफ प्रिन्सेस’ (Rule of Princess), ‘सुम्मा कण्ट्रा जेंटाइल्स’ (Summa Contra Gentiles) ‘टू दि किंग ऑफ साइप्रस’ (To the King of Cyprus) ‘ऑन किंगशिप’ (On Kingship) भी एक्विनास की अन्य रचनाएँ हैं। ‘ऑन किंगशिप’ (On Kingship) में एक्विनास राजतन्त्र व नागरिक शासन पर चर्चा की है। उसकी सभी रचनाएँ उसके महान् विद्वतावादी होने के दावे की पुष्टि करती हैं।

थॉमस एक्विनास की अध्ययन पद्धति : विद्वतावाद

सेण्ट थॉमस एक्विनास का युग बौद्धिक और धार्मिक दृष्टि से एक असाधारण युग था। यह युग पूर्ण संश्लेषण का युग था। यह युग पूर्ण संश्लेषण का युग था जिसमें समन्यवादी दृष्टिकोण पर जोर दिया जा रहा था। यह विद्वतावाद का युग था जिसमें जीवन दर्शन की नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व अन्य समस्याओं का सुन्दर समावेश था। विद्वतावाद के दो प्रमुख लक्षण - युक्ति व विश्वास थे। इस युग में चर्च के सर्वोच्चता सिद्धान्त की तार्किक या युक्तिपरक व्याख्या करके यह स्पष्ट किया गया कि चर्च सिद्धान्त तर्क के विपरीत नहीं है। विद्वतावाद विश्वास और युक्ति (तर्क) में तथा यूनानीवाद और चर्चवाद में समन्वय स्थापित करने तथा सब प्रकार के ज्ञान का एकीकरण करने का प्रयास है। सेण्ट आगस्टाइन के विश्वास (Faith) तथा अरस्तू के विवेक (Reason) या तर्क में समन्वय स्थापित करने का प्रयास एक्विनास ने किया। उसमे मतानुसार विद्वतावाद (Scholasticism) तीन मंजिले भवन की तरह है। इसकी पहली मंजिल विज्ञान तथा दूसरी मंजिल दर्शनशास्त्र की प्रतीक है। 


दर्शनशास्त्र विज्ञान के मूल तत्त्वों को एकत्रित कर उनमें सह-सम्बन्ध स्थापित करता है तथा उसके सार्वभौमिक प्रयोग तथा मान्यता के सिद्धान्तों को निर्धारित करने का प्रयास करता है। यह विज्ञानों का सामान्यकृत व सुविवेचित सार (Essence) है। ये दोनों मंजिल मानव तर्क का प्रतीक हैं जिनका समन्वय व नियन्त्रण धर्मदश्रन द्वारा होना चाहिए। धर्म-दर्शन ज्ञान इमारत की सबसे महत्त्वपूर्ण मंजिल है। यह धर्म-दर्शन ईसाई प्रकाशना (Revelation) पर निर्भर है जो दर्शनशास्त्र तथा विज्ञान से सर्वश्रेष्ठ है। धर्म-विज्ञान या धर्म-दर्शन उस प्रणाली को पूरा कर देता है जिसके आरम्भ बिन्दु विज्ञान और दर्शन हैं। जिस प्रकार विवेक दर्शन का आधार है, उसी प्रकार धर्म-विज्ञान का आधार विश्वास है। इन दोनों में कोई विरोध नहीं है। वे एक-दूसरे के पूरक हैं। 


अत: दोनों का मिश्रण ज्ञान की इमारत को मजबूत बनाता है। एक्विनास का मानना है कि धर्म-विज्ञान ही सर्वोच्च ज्ञान है जो ज्ञान की अन्य शाखाओं - नीतिशास्त्र, राजनीतिशास्त्र तथा अर्थशास्त्र को अपने अधीन रखता है। इस प्रकार एक्विनास ने मध्ययुग की तीन महान् बौद्धिक विचारधाराओं - सार्वभौमिकतावाद, विद्वतावाद और अरस्तूवाद में समन्वय स्थापित किया है। उसने समन्वयात्मक तथा सकारात्मक पद्धति का ही अनुसरण किया है।

संत थॉमस एक्विनास के राजनीतिक विचार

  1. संत थॉमस एक्विनास के राज्य का सिद्धांत
  2. संत थॉमस एक्विनास के सरकार का सिद्धांत
  3. राजतन्त्र पर विचार
  4. निरंकुश सरकार
  5. सरकार के कार्य
  6. चर्च और राज्य का सम्बन्ध
  7. संत थॉमस एक्विनास के दासता सम्बन्धी विचार
  8. संत थॉमस एक्विनास के सम्पत्ति पर विचार
  9. कानून का वर्गीकरण
  10. कानून की परिभाषा
  11. कानून के प्रकार
  12. शाश्वत कानून 
  13. प्राकृतिक कानून 
  14. दैवीय कानून 
  15. मानवीय कानून 

संत थॉमस एक्विनास के राज्य का सिद्धांत

जिस प्रकार एक्विनास ने धर्म से पृथक् तर्क का अस्तित्व माना है, उसी प्रकार उसने चर्च से पृथक् राज्य का अपना औचित्य भी स्वीकार किया है। आरम्भिक मध्ययुगीन ईसाई विचारकों का मानना था कि राज्य की उत्पत्ति मनुष्य के आरम्भिक पाप (Original Sin) के कारण हुई है। एक्विनास ने मध्ययुगीन तथा उससे पहले से प्रचलित राज्य-उत्पत्ति के सभी सिद्धान्तों को नकारते हुए अपने ग्रन्थ सुम्मा ‘थियोलोजिका’ में राज्य सम्बन्धी विचारों को प्रस्तुत किया, उसने राज्य की उत्पत्ति की पापमयी धारणा को सरेआम अस्वीकार कर दिया। वह अरस्तू तथा प्लेटो जैसे यूनानी दार्शनिकों की तरह यह मानता था कि मनुष्य राजनीतिक तथा सामाजिक प्राणी है और राज्य की आवश्यकता केवल इसलिए नहीं है कि वह मानसव बुराइयों को रोकता है, बल्कि इसलिए भी है कि राज्य के बिना व्यक्ति अपना सम्पूर्ण विकास नहीं कर सकता। एक्विनास एक ऐसा प्रथम ईसाई दार्शनिक था जिसने यह कहने का साहस किया कि राज्य मनुष्य के लिए स्वाभाविक है और जो नियन्त्रण राज्य अपने अपने सदस्यों पर आरोपित करता है, वह उनके लिए बाधा न होकर उनके नैतिक विकास में सहायक होता है। '


उसका मानना था कि समाज प्राकृतिक है, इसलिए राज्य भी प्राकृतिक है। इस प्रकार एक्विनास ने राज्य की उत्पत्ति के बारे में एक विशिष्ट मध्ययुगीन धारणा अपनाकर राज्य की उत्पत्ति के आगस्टाइन के सिद्धांत को अरस्तू के तर्क के अनुसार संशोधित करने का प्रयास किया। उसने स्पष्ट किया कि निर्दोषता की अवस्था (State of Innocence) में (पापमयी जीवन से पहले) भी राज्य किसी न किसी रूप में विद्यमान था। उसने आगस्टाइन तथा अन्य ईसाई विचारकों की इस अभिधारणा को अस्वीकार किया कि निर्दोषता की अवस्ािा में राज्य नाम की कोई वस्तु नहीं थी। एक्विनास ने यह स्पष्ट करने के लिए कि राज्य एक कृत्रिम, पापमयी, परम्परागत संस्था न होकर एक प्राकृतिक संस्था है, के पक्ष में अनेक तर्क प्रस्तुत किए। उसके प्रमुख तर्क इस प्रकार से हैं:-

  1. “मनुष्य स्वभाव से ही एक सामाजिक प्राणी है।” एक्विनास ने अरस्तू के इस तर्क का विस्तार करते हुए कहा कि एक प्रधान (Head) के बिना व्यक्ति एक व्यवस्थित समाज में नहीं रह सकता। प्रधान या मुखिया जनहित की देखभाल करके समाज के निर्देशक तथा दण्डनायकिक शक्ति का केन्द्र बना रहता है। यदि श्रेष्ठ का निम्नतर पर शासन स्वीकार कर लिया जाए तो मनुष्य का मनुष्य के ऊपर शासन की धारणा स्वाभाविक बन जाती है। अत: राज्य मनुष्य के लिए प्राकृतिक है।
  2. यदि अधिक सद्गुणी, श्रेष्ठ, प्रज्ञावान व्यक्तियों का निम्न पर शासन प्रकृति के अनुकूल है तो राज्य एक प्राकृतिक संस्था है। यह प्राकृतिक होने के साथ-साथ निम्न लोगों के लिए लाभदायक भी है। इससे उनको अपने व्यक्तित्व का विकास करने के अवसर प्राप्त होंगे।
एक्विनास का मानना है कि व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर आश्रित होता है। इससे अच्छे जीवन के लिए सेवाओं का स्वाभाविक आदान-प्रदान होता रहता है। इसलिए समाज और राज्य मानव-प्रकृति की पूर्ति पर आधारित हैं। वह मनुष्य के पापमयी जीवन पर आधारित नहीं है। एक्विनास का यह विचार कि राज्य का लक्ष्य सद्गुणों का विकास करना है, सरकार के कर्त्तव्यों के सम्बन्ध में एक रचनात्मक दृष्टिकोण प्रकट करता है। उसके मतानुसार शासक का पद समस्त समाज के लिए होता है। सामाजिक हित में योगदान देने में ही उसकी सार्थकता है। उसका मानना है कि समुदाय को सद्गुणयुक्त जीवन की प्राप्ति में सहयोग देना ही शासक का प्रमुख कर्त्तव्य है। इसमें समाज में शान्ति व न्याय-व्यवस्था कायम रखना भी शामिल है। इसके अतिरिक्त समुदाय को जीवनयापन की वस्तुओं के बारे में आत्मनिर्भर बनाना भी शासक का प्रमुख कर्त्तव्य है। इसके लिए जो भोज्य पदार्थों की पर्याप्त आपूर्ति की व्यवस्था करनी चाहिए। उसे शिक्षालयों, चर्चों व बाजारों का अच्छा प्रबन्ध करना चाहिए। माप-तौल की समुचित प्रणाली का विकास करना, गरीबों के भरण-पोषण की व्यवस्था करना, सड़कों को चोर-डाकुओं के भय से मुक्त रखना, जनसंख्या पर नियन्त्रण रखना, पुरस्कार व दण्ड की व्यवस्था के माध्यम से प्रजा पर नियन्त्रण रखना, उसके प्रमुख कर्त्तव्य हैं। उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि राज्य की भौतिक अवस्थाएँ उच्चतर लक्ष्य अर्थात् मोक्ष-प्राप्ति में सहायक हों। इस प्रकार सेण्ट थॉमस एक्विनास ने शिष्टाचार व रीति-रिवाजों की समानता को राज्य का आचार बताकर आधुनिक राष्ट्रीय राज्य समर्थन किया है।

यद्यपि सेण्ट एक्विनास ने काफी हद तक अरस्तू का अनुसरण करके शासक के कर्त्तव्यों पर जोर दिया लेकिन वे भी ईसाइत के प्रभाव से बच नहीं सके। उसने यह कहा कि राज्य मानव-प्रकृति पर आधारित है, परन्तु वह यह कहने को भी विवश हुआ कि राज्य ईश्वर द्वारा स्थापित किया जाता है। राजनीतिक समाज की उत्पत्ति सहज सामाजिक प्रवृत्तियों का ही परिणाम है। उसका विचार है कि सभी राजनीतिक अधिकारों का स्रोत ईश्वर है जो सभी वस्तुओं का सर्वोच्च शासक है। शासन करने का वैध अधिकार समूचे समुदाय को ईश्वर से ही प्राप्त होता है। मनुष्य में राजनीतिक समुदाय के विकास की प्रवृत्ति ईश्वर ने ही आरोपित की है। इस प्रकार सेण्ट थॉमस एक्विनास ने अरस्तू के राज्य की उत्पत्ति के सिद्धांत का ईसाइयत विचारधारा में समनव्य करके अपने सिद्धांत की आधारशिला रखी। आगे चलकर 18 वीं शताब्दी में रूसो, बर्क तथा अन्य विचारकों ने इस सिद्धांत की प्रशंसा की।

संत थॉमस एक्विनास के सरकार का सिद्धांत

सेण्ट एक्विनास ने मनुष्य का मनुष्य के ऊपर शासन दो प्रकार का बताया है। पहला, पाप से उत्पन्न दासता का रूप होता है। दूसरा सहज सामाजिक प्रवृत्ति से उत्पन्न नागरिक सत्कार के रूप में होता है। ऐसी नागरिक सरकार कई प्रकार की होती है - (i) पुरोहितवादी (Sacerdotal) (ii) राजसी (Royal) (iii) राजनीतिक (Political) (iv) आर्थिक ;म्बवदवउपबद्ध। इनमें से पहली पोपतन्त्र के रूप में सर्वोच्च किस्म होती है। सामान्य रूप से राज्य का शासन राजसी अथवा राजनीतिक सरकारों द्वारा चलाया जाता है। राजसी सरकार में शासक के पास निरंकुश शक्तियाँ न होकर विशाल शक्तियाँ होती हैं। राजनीतिक सरकार में शासक की शक्तियाँ कानूनों से सीमित होती हैं। एक्विनास का मानना है कि सरकारों का अच्छा या बुरा होना ‘सब की भलाई’ के मापदण्ड पर ही निर्भर करता है। एक्विनास ने इस बात पर जोर दिया है कि राज्य या सरकार का प्रमुख लक्ष्य मनुष्यों के बीच सद्गुणों का विकास करना है ताकि वे मोक्ष-प्राप्ति करने में सफल हो सकें। इस उद्देश्य या लक्ष्य की प्राप्ति में सफल सरकार अच्छी तथा असफल सरकार निकृष्ट होती है। इस प्रकार सरकारों का वर्गीकरण करने में एक्विनास ने अरस्तू का अनुसरण करते हुए राजतन्त्र, अभिजाततन्त्र, सर्वजनतन्त्र, निरंकुशतन्त्र, धनिकतन्त्र तथा जनतन्त्र में बाँटा है। इनमें से राजतन्त्र सरकार का सर्वोत्तम तथा जनतन्त्र निकृष्ट रूप होता है।

राजतन्त्र पर विचार

एक्विनास ने राज्य के स्थायित्व, एकता व नियमितता के लिए राजतन्त्र का ही समर्थन किया है। उसने इसे सबसे सर्वश्रेष्ठ सरकार मानकर इसकी प्रशंसा की है। उसके समर्थन के आधार हैं :-
  1. समाज में एकता तथा शान्ति राजतन्त्र में ही सम्भव है।
  2. अव्यवस्था तथा अराजकता की समाप्ति राजतन्त्र में ही सम्भव है।
  3. जिस तरह ईश्वर एक है और उसका पूरे ब्रह्माण्ड पर शासन है, उसी प्रकार समाज में एक राजा ही ठीक है। जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अवयवों पर दिल, मधुमक्खियों के छत्ते पर रानी मधुमक्खी का शासन अच्छा रहता है, वैसे ही समाज में एक ही व्यक्ति का शासन सर्वोत्तम होता है।
  4. ऐतिहासिक अनुभव भी यह बताता है कि राजतन्त्रात्मक सरकारें ही अन्य सरकारों की तुलना में सर्वश्रेष्ठ रही हैं। राजतन्त्र में ही शान्ति व समृद्धि का वातावरण रहा है। लोकतन्त्रात्मक सरकारारें फूट व अराजकता से भरपूर रही हैं।
इस प्रकार एक्विनास ने राजतन्त्र को सर्वोत्तम सरकार माना है।

निरंकुश सरकार

एक्विनास का मानना है कि राजतन्त्र पथभ्रष्ट होकर अत्याचारी शासन में बदल सकता है। यही राजतन्त्र का सबसे गम्भीर दोष हैं यह सरकार की सबसे बुरी किस्म है। इसमें शासक प्रजा के हित में शासन न करके अपने हितार्थ शासन करता है। उसने बताया है कि राजतन्त्र को निरंकुश बनने से रोकने के लिए राजतन्त्र को लचीला बनाना आवश्यक होता है। उसका मानना है कि तानाशाही के अन्तिम काल अर्थात् स्वयं लोगों के अन्याय को दूर किया जाना चाहिए ताकि राजतन्त्र को तानाशाही में परिवर्तित होने से रोका जा सके। लेकिन उसने यह नहीं बताया कि राजतन्त्र में लचीलापन कैसे लाया जाए। एक्विनास अत्याचारी शासक के वध का विरोध करते हैं। उनका मानना है कि यह भी सम्भव है कि निरंकुशतन्त्र जनतन्त्र में बदलने पर और अधिक अत्याचारी शासन कायम हो सकता है। एक्विनास स्वयं राजतन्त्र को निरंकुश नहीं बनाते क्योंकि वे स्पष्ट करते हैं कि राजा को सदैव अपने उत्तरदायित्व निभाने चाहिएं। राजा का प्रमुख उत्तरदायित्व ईश्वर के प्रति होता है। पोप ईश्वर का प्रतिनिधि होने के कारण उसको अपने अधीन रख सकता है। जनता को भी शान्तिपूर्वक तरीके से उसे हटाने की शक्ति प्राप्त है। उसको हटाना तो उचित है लेकिन उसके पद का हनन करना अनुचित है। वह तानाशाही की हत्या के सिद्धांत की निन्दा करते हैं। इस प्रकार एक्विनास राजतन्त्र को सर्वोत्तम सरकार मानते हुए उसको बनाए रखने के पक्षधर हैं। उसके अनुसार राजा को अत्याचारी बनने से रोकने के लिए राजा को संविधान-पालन की शपथ दिलाने की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि शपथ का उल्लंघन करने पर राजा को न्यायोचित आधार पर गद्दी से उतारा जा सके।

सरकार के कार्य

एक्विनास के मतानुसार शासन का अधिकार एक न्यास (Ttrust) का पद है जो समूचे समाज के लिए अस्तित्व में लाया जाता है। उसके लिए कुछ उत्तरदायित्व या कर्त्तव्य निश्चित किए गए हैं, जिनके पूरा होने पर ही शासक का पद कायम रह सकता है। एक्विनास के अनुसार राज्य या सरकार के निम्न कार्य हैं :-
  1. सरकार को राज्य में एकता को बढ़ावा देना चाएि ताकि शान्ति कायम हो सके। फूट और दलबन्दी को समाप्त करना चाहिए।
  2. सरकार का यह भी कर्त्तव्य है कि वह अपनी प्रजा पर नाजायज कर न लगाए और न ही उसकी सम्पत्ति का हरण करे।
  3. सरकार को मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं की वस्तुओं की पूर्ति बनाए रखनी चाहिए।
  4. बाहरी आक्रमणों से बाहरी शत्रुओं से अपनी सीमाओं और नागरिकों की रक्षा करनी चाहिए।
  5. शासक का यह कर्त्तव्य है कि वह गरीबों के भरण-पोषण की व्यवस्था करे।
  6. सरकार का यह कर्त्तव्य है कि वह राज्य के लिए विशेष मुद्रा और नाप-तौल की प्रणाली लागू करे।
  7. चोर-डाकुओं के भय से सड़कों को मुक्त रखे।
  8. योग्य व्यक्तियों को पुरस्कृत तथा अपराधियों को दण्ड देने की व्यवस्था करे।
  9. अपने अधिकार क्षेत्र में शान्ति औरा व्यवस्था बनाए रखे। राज्य में अराजकता, अव्यवस्था तथा उपद्रवों से निपटने में सक्षम सरकार का होना जरूरी है।
  10. सरकार को अपने नागरिकों में धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए। उसे प्रजा को सदाचारी बनाने पर जोर देना चाहिए।
  11. सरकार को व्यक्तिगत हितों की बजाय लोकहित को बढ़ावा देना चाहिए।
इस प्रकार एक्विनास ने सरकार के जो कर्त्तव्य या कार्य निर्धारित किए हैं, वे आधुनिक सरकारों के कार्यों से मिलते-जुलते हैं। लेकिन एक्विनास का शासक आधुनिक राज्य की तरह सम्प्रभु नहीं है। उसके कार्य तो सकारात्मक हैं लेकिन उनको पूरा करने के लिए उसके पास सर्वोच्च सत्ता नहीं है। उस पर पोप या चर्च का पूर्ण नियन्त्रण है। शासक को नियन्त्रण या मर्यादा में रहकर ही अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करना पड़ता है।

चर्च और राज्य का सम्बन्ध

सेण्ट थॉमस एक्विनास ने लौकिक सत्ता (राज्य) तथा पारलौकिक सत्ता (चर्च) में सम्बन्ध स्थापित करके राजसत्ता तथा धर्मसत्ता के मध्य चल रहे लम्बे संघर्ष का समाधान करने का प्रयास किया। एक्विनास ने बताया कि मनुष्य सांसारिक सुख व आत्मिक सुख की प्राप्ति चाहता है। सांसारिक सुख की प्राप्ति राज्य द्वारा तथा आत्मिक सुख की प्राप्ति चर्च द्वारा ही कराई जा सकती है। थॉमस एक्विनास का मत है कि सद्गुणी व्यक्ति भी चर्च की सहायता के बिना अपने परम लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त नहीं कर सकता। यह परम सत्य (मोक्ष) श्रद्धा और विश्वास पर ही आधारित होता है। अत: यह चर्च का मामला होता है। राजा का कर्त्तव्य बनताहै कि वह इस प्रकार शासन करे कि ईश्वर की इच्छा पूरी और धर्म की वृद्धि हो। एक्विनास के अनुसार व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य तो मोक्ष प्राप्त करना है। इसे प्राप्त कराने के लिए दोनों (चर्च व राज्य) को संगठित प्रयास करना चाहिए। राज्य का कर्त्तव्य है कि वह नागरिकों को सद्गुणी बनाने के प्रयास करे और चर्च का कर्त्तव्य है कि वह मनुष्यों को मोक्ष प्राप्ति कराने के लिए उनकी आत्मशुद्धि में वृद्धि करे। 


एक्विनास का कहना है कि राज्य चर्च के अधीन रहते हुए अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करे ताकि परम लक्ष्य को आसानी से प्राप्त किया जा सके। एक्विनास ने राज्य की तुलना समुद्री जहाज के बढ़ई से तथा चर्च की तुलना जहाज के चालक से करके अपना मत प्रस्तुत किया है कि चालक ही जहाज का दिशा निर्देशन और दिनगमन करता है। इसका अर्थ यह है कि सांसारिक शासक चर्च के सहयोग और उसके मार्गदर्शन के अन्तर्गत ही समुचित रूप से अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन कर सकता है। मोक्ष तर्क के द्वारा नहीं धर्म में विश्वास के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है और धर्म के सारे मामलों में चर्च ही सर्वोच्च सत्ता है। चर्च राज्य का नियन्त्रक व मार्गदर्शक है, इसलिए पोप की सत्ता सांसारिक सत्ता (राज्य) से श्रेष्ठ है। आत्मा पर नियन्त्रण रखना भौतिक वस्तुओं पर नियन्त्रण रखने से श्रेष्ठ है। इसलिए सभी व्यक्तियों को चर्च की सर्वोच्च सत्ता को स्वीकार करना चाहिए। एक्विनास ने कहा कि शासक ईश्वर की छाया हो सकता है, लेकिन यदि वह चर्च की अवहेलना करे, तो उसे धर्म बहिष्कृत किया जा सकता है। पोप के पास सांसारिक शासकों के कर्त्तव्यों का नियमन करने, उन्हें दण्ड देने और प्रजा को उनके प्रति निष्ठा से मुक्त करने की शक्ति है। 


एक्विनास ने कहा है- “जिस प्रकार शरीर मस्तिष्क के अधीन है वैसे ही सांसारिक सत्ता आध्यात्मिक सत्ता के अधीन है।” इसलिए यदि चर्च शासक के कार्यों में हस्तक्षेप करता है तो वह अनुचित नहीं है। इसके बावजूद भी चर्च और राज्य एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं जिसमें चर्च राज्य से श्रेष्ठ है। थॉमस एक्विनास ने यह भी स्पष्ट किया है कि पोप की राज्य क्षेत्रीय प्रभुसत्ता न्यायोचित है। चर्च का प्रधान होने के नाते उसकी अपनी भूमि हो सकती है, लेकिन वह उसका स्वामी नहीं हो सकात। उसने राज्य के दैवी उत्पत्ति के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए, राज्य को सांसारिक मामलों में कुछ छूट प्रदान करके मध्यमार्गी होने का परिचय दिया है। एक समन्वयवादी विचारक होने के नाते उसने पोप को राजा के ऊपर कोई प्रत्यक्ष अधिकार नहीं सौंपा है। उसने सांसारिक मामलों में राजा को ही सम्प्रभु माना है। 

18 वीं शताब्दी का आउटस्टैंडिंग शासक कौन है?

Tipu Sultan Birthday18वीं शताब्दी का महान शासक टीपू सुल्तान, जिसने अंग्रेजों को भारत से निकालने का प्रयत्न किया 20 नवंबर, आज टीपू सुल्तान का जन्मदिन है। उनका जन्म 20 नवंबर 1750 में कर्नाटक के देवनाहल्ली में हुआ था।

अरस्तु कौन थे हिंदी में?

अरस्तु (384 ईपू – 322 ईपू) यूनानी दार्शनिक थे। वे प्लेटो के शिष्य व सिकंदर के गुरु थे। उनका जन्म स्टेगेरिया नामक नगर में हुआ था। अरस्तु ने भौतिकी, आध्यात्म, कविता, नाटक, संगीत, तर्कशास्त्र, राजनीति शास्त्र, नीतिशास्त्र, जीव विज्ञान सहित कई विषयों पर रचना की।

अरस्तु किसका शिष्य था?

प्लेटो यूनान के महान दार्शनिक सुकरात के शिष्य थे और अरस्तु के गुरु थे। सम्राट सिकंदर अरस्तु का शिष्य था। प्लेटो का जन्म करीब 428 ईसा पूर्व हुआ था

अरस्तु सद्गुण का क्या अर्थ बताते हैं?

अरस्तू सद्गुण की परिभाषा करते हुए कहते हैं कि यह मानव की स्थायी मानसिक अवस्था है जिसके सहारे मानव अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। मानव का लक्ष्य सुख या आनन्द प्राप्त करना है। हम कोई भी कार्य इसलिये करते हैं कि हम सुखी हों, सानन्द – हों।