14 क्रीमिया युद्ध के बाद फ्रांस को क्या लाभ या हानि हुई? - 14 kreemiya yuddh ke baad phraans ko kya laabh ya haani huee?

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

पूर्वी समस्या का अभिप्राय उन अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं से है, जो यूरोप में टर्की साम्राज्य के पतन से उत्पन्न हुई थी। टर्की साम्राज्य ही एकमात्र ऐसा पूर्वी क्षेत्र था, जिसका यूरोप के राज्यों के साथ सामूहिक रूप से संबंध था। 17 वीं शताब्दी के अंत तक तुर्क साम्राज्य तथा ओटोमन साम्राज्य अत्यन्त ही शक्तिशाली था।

रूसी साम्राज्य के बाद, यूरोप में क्षेत्रफल की दृष्टि से यह सबसे बङा साम्राज्य था तथा बोस्निया, सर्बिया, यूनान, रूमानिया, बल्गेरिया आदि इस विशाल साम्राज्य के अंतर्गत थे। इस साम्राज्य के निवासी धर्म, भाषा और रक्त आदि में तुर्कों से सर्वथा भिन्न थे और तुर्कों ने इन लोगों को अपने साम्राज्य में आत्मसात करने का कोई प्रयत्न नहीं किया था बल्कि वे उनका शोषण करते थे। 18 वीं शताब्दी के आरंभ में इस साम्राज्य की निर्बलता के लक्षण प्रकट होने लगे थे।

1815 के बाद तो साम्राज्य की शक्ति तेजी से क्षीण होती गयी, क्योंकि साम्राज्य के अधीन कुछ देश तुर्क साम्राज्य के शोषण से मुक्त होकर स्वाधीन होने के लिये उतावले हो उठे थे। ऐसी परिस्थितियों में तुर्क साम्राज्य का विघटन अवश्यम्भावी हो गया था, अतः अब समस्या यह उत्पन्न हुई कि तुर्क साम्राज्य का अंत होने पर उसका स्थान कौन ग्रहण करे ? साम्राज्य के स्थान पर अन्य छोटे-छोटे राज्य हों अथवा तुर्क साम्राज्य को विघटित होने से रोका जाय ?इन्हीं समस्याओं को पूर्वी समस्या कहा गया है।

14 क्रीमिया युद्ध के बाद फ्रांस को क्या लाभ या हानि हुई? - 14 kreemiya yuddh ke baad phraans ko kya laabh ya haani huee?

पूर्वी समस्या भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट हुई थी। प्रारंभ में आस्ट्रिया ने तुर्की की पतनोन्मुख समस्या से लाभ उठाना चाहा और उसके बाद यह समस्या रूस और तुर्की की प्रतिद्वन्द्विता के रूप में प्रकट हुई। 1820 के बाद जब यह बात स्पष्ट हो गयी कि रूस तुर्की साम्राज्य की निर्बलता का लाभ उठाकर उसे हङप जाना चाहता है, तब इंग्लैण्ड, आस्ट्रिया और फ्रांस भी अपने हितों के लिये इस समस्या में कूद पङे। इस प्रकार यह एक अंतर्राष्ट्रीय समस्या बन गयी। पूर्वी समस्या के प्रति यूरोपीय महाशक्तियों के भिन्न-भिन्न हित तथा उनकी भिन्न-भिन्न नीतियाँ रही, अतः सर्वप्रथम इन यूरोपीय महाशक्तियों के हितों और उनकी नीतियों का उल्लेख किया गया है

यूरोपीय शक्तियों के स्वार्थ

रूस

पूर्वी समस्या में रूस की विशेष रुचि थी। रूस चाहता था, कि तुर्की साम्राज्य को विघटित कर दिया जाय तथा कांसटेण्टिनोपल पर रूस का अधिकार हो जाय। यदि कांसटेण्टिनोपल पर अधिकार करना संभव न हो तो तुर्की के सुल्तान पर रूस का प्रभुत्व स्थापित किया जाय ताकि सुल्तान रूस के आदेशानुसार कार्य करे। रूस की पूर्वी समस्या के प्रति इस नीति का कारण यह था, कि रूस के पास ऐसा कोई समुद्री तट नहीं था, जो व्यापार के लिये हर समय खुला रहे। इसके अलावा रूस अपनी जलशक्ति में वृद्धि करना चाहता था, इसलिये रूस काले सागर तथा उसके जलडमरुओं पर अपना नियंत्रण स्थापित करने को उत्सुक था। रूस ग्रीक चर्च को मानने वाला था, किन्तु इस चर्च के पवित्र स्थान तुर्की के अधिकार में थे, अतः रूस इन पवित्र स्थानों को अपने संरक्षण में लेना चाहता था। बाल्कन प्रायद्वीप में स्लाव जाति के लोग अधिक थे तथा बाल्कन रूस का पङोसी भी था, इसलिये धर्म, भाषा और जाति की एकरूपता के कारण दोनों के निवासियों का सांस्कृतिक संबंध भी था। इन सभी कारणों से रूस ने तुर्की सुल्तान से उसकी निर्बलता का लाभ उठाकर अनेक सुविधाएँ प्राप्त कर ली थी। 18 वीं शताब्दी के अंत तक रूस तुर्की साम्राज्य की ओर निरंतर बढता रहा तथा साम्राज्य को कमजोर बनाता रहा।

इंग्लैण्ड

पूर्वी समस्या में इंग्लैण्ड की रुचि के मुख्य रूप से दो कारण थे। प्रथम तो इंग्लैण्ड को इस बात का भय था कि तुर्क साम्राज्य पर रूस का प्रभुत्व हो जाने से उसके एशियाई साम्राज्य की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो जाएगा। इस भय के कारण इंग्लैण्ड के विदेश मंत्री पामर्स्टन ने तुर्क साम्राज्य को बनाए रखने की नीति अपनाई थी। इंग्लैण्ड चाहता था, कि तुर्की सुल्तान अपने साम्राज्य को यथावत बनाए रखे तथा रूस को आगे बढने से रोके। दूसरा, इंग्लैण्ड अपने व्यापारिक हितों के कारण भी तुर्की साम्राज्य को बनाए रखना चाहता था, क्योंकि तुर्की साम्राज्य पर किसी अन्य शक्ति का प्रभुत्व हो जाने से इंग्लैण्ड को अपने व्यापारिक हितों को हानि पहुँचने की भी आशंका थी, इसलिये जब भी पूर्वी समस्या को लेकर युद्ध आरंभ हुआ, इंग्लैण्ड ने तुर्की साम्राज्य को बनाए रखने की नीति का पालन किया।

आस्ट्रिया

पूर्वी समस्या में सबसे अधिक रुचि रखने वाला देश आस्ट्रिया था। आस्ट्रिया का देश चारों ओर से घिरा हुआ था, इसलिये आस्ट्रिया को समुद्र तक पहुँचने का मार्ग चाहिये था जो उसे तुर्की साम्राज्य में से ही प्राप्त हो सकता था। इससे न केवल उसे व्यापारिक लाभ था बल्कि उसे अपने साम्राज्य के विस्तार में आसानी हो जाती। आस्ट्रिया का व्यापार मुख्य रूप से डेन्यूब नदी से होता था। रूस काले सागर तक अपना प्रभाव बढाना चाहता था, अतः आस्ट्रिया नहीं चाहता था कि डेन्यूब के मुहाने काले सागर का प्रभाव स्थापित हो। इसलिए आस्ट्रिया रूस की महत्वाकांक्षाओं को बङी संदेह की दृष्टि से देखता था। उधर बाल्कन में सर्बिया के राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने में आस्ट्रिया अपना हित समझता था, क्योंकि सर्बिया की स्लाव जाति यदि अपने राष्ट्रीय आंदोलन में सफल होती है तो आस्ट्रिया में रहने वाली स्लाव जाति भी उससे प्रोत्साहित होकर आस्ट्रिया के विरुद्ध विद्रोह कर सकती है। रूस सर्वस्लाव आंदोलन को गुप्त रूप से प्रोत्साहित कर रहा था, अतः आस्ट्रिया की यह नीति थी, कि रूस को इस क्षेत्र में आगे बढने से रोका जाय तथा सर्बिया के राष्ट्रीय आंदोलन का दमन किया जाय तथा सर्बिया के राष्ट्रीय आंदोलन का दमन किया जाय।

फ्रांस

पूर्वी समस्या में फ्रांस की जो रुचि थी, वह राजनैतिक न होकर धार्मिक एवं व्यापारिक थी। तुर्की फ्रांस का पुराना मित्र था, इसलिए फ्रांस को तुर्की साम्राज्य में विशेष व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त थी। फ्रांस की धार्मिक रुचि यह थी, कि वह बहुत पहले से ही वहाँ के रोमन कैथोलिकों का संरक्षक था।

जर्मनी

पूर्वी समस्या में जर्मनी की केवल एकमात्र रुचि यह थी, कि वह इस क्षेत्र में रेल लाइन बनाना चाहता था ताकि उसके व्यापार का विस्तार हो सके।

वस्तुतः यूरोपीय महाशक्तियों के पारस्परिक स्वार्थों तथा टर्की साम्राज्य की पतनोन्मुख स्थिति के कारण ही पूर्वी समस्या उत्पन्न हुई थी। इस समस्या को एक गठिया रोग की संज्ञा दी जाती है, जो कभी टाँगों को तो कभी हाथों को अशक्त करता रहता है।इस समस्या की व्याख्या करते हुये जॉन मार्ले ने लिखा है, परस्पर विरोधी जातियों, धर्मों एवं स्वार्थों से उत्पन्न जटिल, असाध्य एवं परिवर्तनशील समस्या को ही पूर्वी समस्या के नाम से जाना जाता है।

सर्बिया का विद्रोह

वियना कांग्रेस के पूर्व ही बाल्कन प्रायद्वीप में स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हो चुका था। तुर्की साम्राज्य के विरुद्ध सर्वप्रथम 1804 में सर्बिया ने विद्रोह किया था। सर्बिया में यह विद्रोह किसान कारा जॉर्ज के नेतृत्व में हुआ। 1815 में मिलोश ओब्रिनोविच के नेतृत्व में सर्बों ने पुनः विद्रोह कर दिया। विवश होकर 1817 में तुर्की ने ओब्रिनोविच को राजा मानते हुये सर्बिया को स्वायत्त शासन के कुछ अधिकार दे दिये, किन्तु सर्बिया पर सुल्तान की संप्रभुता कायम रही। इससे भी जब स्थिति में कोई सुधार नहीं आया तब रूस के दबाव से बाध्य होकर 1826 में सर्बिया को पूर्ण आंतरिक स्वायत्तता प्रदान की गयी। 1830 तक सर्बिया अपने आंतरिक शासन में पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो गया। तुर्की का प्रभुत्व अब नाममात्र का रह गया। इस प्रकार 19 वीं शताब्दी में सर्बिया के विद्रोह से तुर्की साम्राज्य का विघटन आरंभ हो गया।

यूनान का स्वतंत्रता संग्राम

जिस समय सर्बिया में राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा था, लगभग उसी समय यूनान में भी राष्ट्रीय भावनाएँ जागृत हो रही थी।यहाँ के लगभग सभी लोग यूनानी चर्च के अनुयायी थे, अतः समान धार्मिक जीवन के कारण उनमें जातीय एकता भी थी। 19 वीं शताब्दी के अंत में यूनान में कुछ राष्ट्रवादी साहित्यकार हुए, जिनके राजनैतिक विचार तथा साहित्यिक प्रेरणा के कारण यूनानियों को अपनी पराधीनता अखरने लगी और वे तुर्की के दमनकारी शासन से मुक्त होकर अपने प्राचीन यूनानी साम्राज्य की पुनः स्थापना करने का स्वप्न देखने लगे। फ्रांसीसी क्रांति ने उनकी राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता की भावनाओं को आधिक प्रोत्साहित किया। इटली और स्पेन की भाँति यूनान में भी क्रांतिकारी युद्ध समितियों का गठन किया गया था। इनमें हिटेरिया फिल्के नामक संस्था अत्यधिक महत्त्वपूर्ण थी। इसका उद्देश्य यूरोप से तुर्की को निकालकर कुस्तुन्तुनिया में पुनः यूनानी साम्राज्य की स्थापना करना था।

अप्रैल, 1821 में मोरिया तथा एजियन सागर के कुछ द्वीपों में विद्रोह की आग भङक उठी। मोरिया का यह विद्रोह कुछ इने गिने नेताओं अथवा वर्ग विशेष का विद्रोह न होकर समस्त यूनानी जनता का विद्रोह था। आरंभ में इस विद्रोह को दबाया नहीं जा सका। यूनानियों ने असंख्य मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया तथा मुसलमानों ने असंख्य यूनानियों की हत्या कर दी। 1824 के प्रारंभ तक तुर्की की सेनाएँ अनेक स्थानों पर पराजित हुई। अतः तुर्की सुल्तान महमूद द्वितीय ने अनुभव किया कि तुर्की अकेला यूनानियों को पराजित नहीं कर सकता। इसलिये सुल्तान ने मिस्र के शासक मेहमत अली से सहायता माँगी। मेहमत अली ने अपने पुत्र इब्राहीम को एक सेना देकर यूनानियों के विरुद्ध भेजा। इब्राहीम बङी तेजी से बढा तथा क्रीट पर अधिकार कर संपूर्ण मोरिया को रौंद डाला। अनेक स्थानों पर यूनानियों का कत्लेआम किया गया। इब्राहीम ने अप्रैल, 1826 में मिसहांघी तथा जून 1827 में एथेन्स पर अधिकार कर लिया। वहाँ पर भी हजारों ईसाइयों को मौत के घाट उतार दिया गया तथा स्रियों व बच्चों को दास बनाकर बेच दिया गया। इब्राहीम की प्रशिक्षित एवं अनुशासित सेना के समक्ष विद्रोही यूनानी नहीं टिक सके तथा उनका विद्रोह लगभग समाप्त हो गया।

यूनानियों के इस संघर्ष में यूरोपीय राज्यों की जनता की सहानुभूति यूनानियों के साथ थी, किन्तु यूरोप के राजनीतिज्ञों के समक्ष यह एक अत्यन्त ही जटिल समस्या थी। रूस व ब्रिटेन ने यह अनुभव किया कि शक्ति के प्रयोग के बिना तुर्की कोई समझौता नहीं करेगा। रूस और ब्रिटेन ने अन्य यूरोपीय राज्यों से सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न किया। प्रशा और आस्ट्रिया सहयोग के लिये तैयार नहीं हुए, किन्तु फ्रांस सहयोग देने को तैयार हो गया। 6 जुलाई, 1827 को रूस, फ्रांस और ब्रिटेन के बीच लंदन की संधि हुई, जिसके अनुसार यूनान को तुर्की साम्राज्य के अधीन स्वशासित राज्य बनाने का निश्चय किया गया। अगस्त, 1827 में इन राज्यों ने इस आशय का एक प्रपत्र सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत किया।

तुर्की के सुल्तान ने संयुक्त प्रपत्र में प्रस्तावित योजना को अस्वीकार कर दिया, अतः मित्र राष्ट्रों का संयुक्त जंगी बेङा सक्रिय हो गया। 20 सितंबर, 1827 को यूनानी नौ-सेना ने तुर्की की नौ-सैनिक टुकङी पर आक्रमण कर उसे नष्ट कर दिया। इसके प्रत्युत्तर हेतु इब्राहीम (मिश्र के शासक का पुत्र) अपना जहाजी बेङा लेकर नेवेरिनों की खाङी से बाहर निकला, किन्तु ब्रिटिश नौ-सेना ने उसे रोक दिया। इसी समय रूसी बेङा भी ब्रिटिश व फ्रेंच बेङे से आ मिला। तीनों के जहाजी बेङे ने नेवेरिनों की खाङी में प्रवेश किया। तुर्की के जहाजों ने मित्र राष्ट्रों के जहाजों पर गोलियाँ चलानी आरंभ कर दी। 20 अक्टूबर, 1827 को नेवेरिनों का युद्ध आरंभ हुआ तथा उसी दिन सूर्यास्त से पहले ही मिश्र और तुर्की के सारे जहाज नष्ट कर दिए गए किन्तु इसी वर्ष ब्रिटिश विदेश मंत्री केनिंग की मृत्यु हो गयी तथा ब्रिटिश प्रधानमंत्री वेलिंगटन तुर्की को नाराज करना नहीं चाहता था, अतः उसने नेवेरिनों के युद्ध को अशुभ घटना बतलाकर उसके लिये तुर्की से खेद प्रकट किया और अंग्रेजी बेङे को वापस बुला लिया। जब इंग्लैण्ड ने युद्ध से अपना हाथ खींच लिया तो फ्रांस ने भी उसका अनुसरण किया। अब रूस को अकेले ही आगे बढने का अवसर मिल गया। दिसंबर, 1827 में सुल्तान ने रूस के विरुद्ध जिहाद की घोषणा कर दी। मई, 1828 में रूस के जार ने भी तुर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। मई, 1928 में मेहमतअली ने मोरिया से अपनी सेनाएँ हटा ली। रूस की सेना बाल्कन पर्वतमाला को पार कर एड्रियानोपल पर अधिकार करके कुस्तुन्तुनिया की ओर बढी। अतः 14 दिसंबर, 1829 को विवश होकर सुल्तान को एड्रियानोपल की संधि करनी पङी। इस संधि के अनुसार तुर्की के प्रभुत्व के अन्तर्गत यूनान के राज्य का निर्माण करना था, किन्तु यूनान के नेताओं ने गणतंत्र की घोषणा कर केपोडिस्ट्रियास को अपना राष्ट्रपित बना लिया था। केपोस्ट्रियास ने तुर्की के प्रभुत्व में यूनान के राज्य का निर्माण करने का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। ब्रिटेन चाहता था कि यूनान को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हो ताकि उस पर रूस का प्रभाव न रहे। आस्ट्रिया भी यही चाहता था, अतः फरवरी, 1830 में लंदन में एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार कोबर्ग के लियोपॉल्ड को स्वतंत्र यूनान का शासक बनाया जाना था। किन्तु यूनान के राष्ट्रपति ने इसे भी अस्वीकार कर दिया। उसके बाद 1830 में फ्रांस की क्रांति हो जाने से यूरोपीय शक्तियाँ यूनान की समस्या पर अधिक ध्यान नहीं दे सकी। अक्टूबर, 1831 में केपोडिस्ट्रियास की हत्या हो जाने से यूनान में अराजकता फैल गयी, अतः अब यूनान के संबंध में शीघ्र निर्णय लेना आवश्यक हो गया। ब्रिटेन के प्रयत्नों से सितंबर, 1833 में फ्रांस, ब्रिटेन व रूस में एक नया समझौता हुआ, जिसके अनुसार यूनान को पूर्ण स्वतंत्र राज्य स्वीकार किया गया तथा बवेरिया के शासक के द्वितीय पुत्र राजकुमार आटो को यूनान का राजा बनाने का निर्णय किया गया। 27 जनवरी, 1833 को राजकुमार आटो ने स्वतंत्र यूनान के प्रथम शासक के रूप में ग्रीस में प्रवेश किया। यह स्वतंत्रता एवं राष्ट्रीयता के सिद्धांत की विजय थी, जिसने पुरातन व्यवस्था पर घातक प्रहार किया।

क्रीमिया का युद्ध

1841 से 1852 तक पूर्वी समस्या शांत रही तथा तुर्की के सुल्तान अब्दुल मजीद को अपने साम्राज्य को पुनर्गठित करने का अवसर मिल गया। इधर यूरोपीय महाशक्तियाँ प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से तुर्की में अपने कूटनीतिक दाँव-पेच लगाती रही। अंत में इन कूटनीतिक दाँव-पेचों की एक चरम सीमा आ पहुँची तथा पूर्वी समस्या को लेकर 1854 में इतिहास प्रसिद्ध क्रीमिया का युद्ध भङक उठा। इस क्रीमिया युद्ध के भङक उठने के निम्नलिखित कारण थे –

14 क्रीमिया युद्ध के बाद फ्रांस को क्या लाभ या हानि हुई? - 14 kreemiya yuddh ke baad phraans ko kya laabh ya haani huee?

रूस और तुर्की का युद्ध

तुर्की के सुल्तान को इंग्लैण्ड व फ्रांस से सहायता मिलने की आशा थी, अतः 5 अक्टूबर, 1853 को उसने रूस को चेतावनी दी कि वह 15 दिन के अंदर डेन्यूब प्रदेश (मोल्दाविया और वालेशिया) खाली कर दे। रूस ने इस चेतावनी का कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया, अतः 23 अक्टूबर, 1853 को तुर्की ने रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

सिनोय का हत्याकाण्ड

जब तुर्की ने डेन्यूब प्रदेश पर रूस के विरुद्ध आक्रमण कर दिया तब 30 अक्टूबर, 1853 को रूस ने सिनोय की खाङी में स्थित तुर्की के जहाजी बेङे को नष्ट कर दिया। इस घटना को सिनोय का हत्याकाण्ड कहते हैं। इस घटना से इंग्लैण्ड और फ्रांस में सनसनी फैल गयी। इंग्लैण्ड व फ्रांस को यह विश्वास हो गया कि यदि रूस की प्रगति को रोका नहीं गया तो तुर्की का अस्तित्व ही खतरे में पङ जाएगा। अतः सतर्कता और सुरक्षा की दृष्टि से इंग्लैण्ड और फ्रांस का संयुक्त जहाजी बेङा काले सागर में प्रवेश कर गया। इसी समय युद्ध को टालने की दृष्टि से नेपोलियन तृतीय ने रूस के जार को एक व्यक्तिगत पत्र लिखा और प्रस्ताव किया कि रूस की सेना तुर्की के प्रदेश से तथा इंग्लैण्ड, फ्रांस की नौ-सेना काले सागर से हटा ली जाए और इसके बाद समझौते द्वारा समस्या का हल निकाला जाय, किन्तु रूस के जार ने इस पत्र का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया बल्कि अत्यन्त ही कङे शब्दों का प्रयोग करते हुये लिखा कि रूस आज भी वैसा ही है, जैसा 1812 में था। इस पर 27 फरवरी, 1854 को इंग्लैण्ड व फ्रांस ने संयुक्त रूप से रूस को चेतावनी दी कि 30 अप्रैल तक मोल्दाविया व वालेशिया खाली कर दे। 19 मार्च, को रूस ने इस चेतावनी को ठुकरा दिया तथा 28 मार्च, 1854 को इंग्लैण्ड व फ्रांस ने रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

मार्च-अप्रैल, 1854 में रूस को सिलिस्ट्रिया में तुर्की की सेनाओं से कङा संघर्ष करना पङा। मई के अंत तक इंग्लैण्ड तथा फ्रांस की सेनाएँ भी सहायता के लिये आगे बढ गई। उसी समय आस्ट्रिया ने रूस से मांग की कि वह मोल्दाविया एवं वालेशिया से अपनी सेनाएँ हटा ले। इसके साथ ही आस्ट्रिया ने अपनी सेनाओं को रूस की सीमा पर एकत्रित कर दिया, ताकि किसी भी समय रूस पर पीछे से आक्रमण हो सके। ऐसी परिस्थिति में रूस को विवश होकर डेन्यूब प्रदेशों से अपनी सेना हटानी पङी। रूस की सेना के हटते ही तुर्की से बातचीत करके आस्ट्रिया की यह शत्रुतापूर्ण तटस्थता की नीति आगे चलकर रूस की हार का प्रमुख कारण बनी…अधिक जानकारी

युद्ध का प्रमुख कारण

सिलिस्ट्रिया में तुर्की की सेनाओं से कङा संघर्ष होने के कारण रूसी सेनाओं को अधिक सफलता नहीं मिली। अप्रैल में ब्रिटिश एवं फ्रेंच सेनापति अपनी सेनाओं सहित तुर्की पहुँच गए, किन्तु जून में रूस ने डेन्यूबी प्रदेशों से अपनी सेनाएँ हटाना प्रारंभ कर दिया तथा अगस्त तक इस क्षेत्र में कोई भी रूसी सैनिक नहीं हा। डेन्यूबी प्रदेशों से रूसी सेनाएँ हट जाने से इंग्लैण्ड व फ्रांस का प्रारंभिक उद्देश्य पूरा हो गया तथा वे युद्ध बंद कर सकते थे, किन्तु मित्र राष्ट्र रूस की शक्ति को क्षीण कर उसे पंगु बना देना चाहते थे ताकि वह फिर उन्हें परेशान न कर सके। इसके अलावा वे रूस को नीचा दिखाना चाहते थे। जुलाई, 1854 में मित्र राष्ट्रों ने रूस के समक्ष निम्नलिखित चार प्रस्ताव रखे-

  • मोल्दाविया एवं वालेशिया पर रूस के संरक्षण अधिकारों को समाप्त कर दिया जाय।
  • डेन्यूब नदी में यूरोप के सभी राज्यों को व्यापार करने की सुविधआएँ प्राप्त हों।
  • तुर्की की यूनानी जनता पर रूस अपने संरक्षण के अधिकार को त्याग दे।
  • तुर्की को यूरोपीय राज्य मंडल में शामिल कर लिया जाय।
  • युद्ध का द्वितीय चरण – क्रीमिया पर आक्रमण

युद्ध का अंतिम चरण

सितंबर में मित्र राष्ट्रों की सेनाओं ने मालाकाफ पर अधिकार कर लिया। अब सिबास्टोपोल को बचाना असंभव हो गया। 9 सितंबर, 1855 को रूसी सेना ने अपने गोला बारूद में आग लगा दी तथा सिबास्टोपोल पर मित्र राष्ट्रों ने अधिकार कर लिया। सिबास्टोपोल के पतन के बाद भी कुछ दिन युद्ध चलता रहा। 28 नवम्बर, को रूस की सेनाओं ने तुर्की के महत्त्वपूर्ण दुर्ग कार्स पर अधिकार कर लिया और तत्पश्चात जार अलेक्जेण्डर द्वितीय संधि करने को तैयार हो गया।

पेरिस की संधि

25 फरवरी, 1856 को इंग्लैण्ड, फ्रांस, आस्ट्रिया, रूस, तुर्की और सार्डीनिया पीडमाण्ट के प्रतिनिधि संधि की शर्तों पर विचार विमर्श के लिये पेरिस में एकत्रित हुए। संधि के लिये आस्ट्रिया ने मध्यस्थता की। 30 मार्च, 1856 को सभी देशों ने एक संधि पर हस्ताक्षर किए, जिसे पेरिस की संधि कहा जाता कहा जाता है। इस संधि में निम्नलिखित शर्तें रखी गई…अधिक जानकारी

1856 से 1870 तक पूर्वी समस्या

पेरिस की संधि में तुर्की के सुल्तान ने बिना किसी भेदभाव के अपनी प्रजा की दशा सुधारने का वचन दिया था। 1856 में सुल्तान अब्दुल मजीद ने एक आज्ञा-पत्र प्रसारित किया। जिसके अनुसार साम्राज्य के प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता तथा शासकीय सेवाओं में नियुक्ति का अधिकार दिया गया, किन्तु यह आज्ञा-पत्र कभी कार्यान्वित नहीं हो सका। 1861 में अब्दुल मजीद की मृत्यु के बाद अब्दुल अजीज तुर्की का सुल्तान बना। उसने काफी सीमा तक धार्मिक पक्षपात की नीति का परित्याग कर शासन में सुधार किए, किन्तु राज्य के अधिकारियों की अयोग्यता एवं बेईमानी के कारण उसके प्रयत्न विफल रहे। कुछ समय बाद वह भी विलासिता में डूब गया, जिससे राज्य के अधिकारियों को मनमानी करने का अवसर मिल गया। ऐसी स्थिति में बाल्कन प्रायद्वीप की ईसाई जनता का तुर्क शासन से मुक्त होने हेतु विद्रोह करना स्वाभाविक था।

रूमानिया का निर्माण

पेरिस की संधि के अनुसार मोल्दाविया तथा वालेशिया के प्रदेशों को तुर्की के सुल्तान की अधीनता में आंतरिक स्वतंत्रता देने का निश्चय किया गया था। इन दोनों प्रदेशों के निवासी एक ही जाति के थे तथा एक ही भाषा बोलते थे। वे दोनों राज्यों का एकीकरण करके स्वतंत्र रूमानिया का राज्य बनाना चाहते थे। सुल्तान ने दोनों प्रांतों के प्रशासन के संबंध में निर्णय करने के लिये अलग-अलग दीवान (प्रतिनिधि सभा)आमंत्रित करने का निश्चय किया तथा चुनाव इस प्रकार कराए कि उनमें तुर्की के समर्थकों का बहुमत रहे। चुनाव इस प्रकार कराए कि उनमें तुर्की के समर्थकों का बहुमत रहे। चुनाव में इन अनियमितताओं को देखकर रूस, फ्रांस व प्रशा ने पुनः चुनाव कराने की माँग की, किन्तु इंग्लैण्ड ने रूस व फ्रांस के इस हस्तक्षेप का विरोध किया।इससे युद्ध की आशंका उत्पन्न हो गयी, किन्तु सुल्तान पुनः चुनाव कराने को तैयार हो गया। चुनाव के पश्चात् 1 अक्टूबर, 1857 में दोनों दीवानों में तुर्की की प्रभुसत्ता के अधीन दोनों प्रांतों को मिलाकर संयुक्त राज्य बनाने का निर्णय लिया, किन्तु यूरोप की बङी शक्तियों ने पेरिस के एक सम्मेलन में इन दोनों प्रांतों को अलग-अलग रखने का निश्चय किया, जिससे रूमानियन लोगों की राष्ट्रीय भावना को गहरा आघात लगा। 1859 के आरंभ में दोनों प्रदेशों की राष्ट्रीय सभाओं ने कर्नल एलेक्जेण्डर कूजा को दोनों राज्यों का शासन निर्वाचित कर लिया। यद्यपि इससे यूरोपीय राज्यों में उत्तेजना फैल गई, किन्तु अंत में विवश होकर यूरोपीय राज्यों को रूमानिया की जनता की इच्छाओं को स्वीकार करना पङा। दिसंबर, 1861 में रूमानिया के नए राज्य के निर्माण की विधिवत घोषणा कर दी गयी।

कर्नल अलेक्जेण्डर कूजा रूमानिया में संवैधानिक शासन स्थापित करने के पक्ष में नहीं था, अतः 1866 में उसे गद्दी से उतार दिया गया तथा प्रिंस चार्ल्स को वहाँ का राजा चुना गया, जिसने रूमानिया में संवैधानिक शासन की स्थापना की।

सर्बिया

यद्यपि 1829 में सर्बिया को आंतरिक स्वशासन का अधिकार दे दिया गया था, किन्तु यहाँ कुछ स्थानों पर तुर्की की सेनाएँ बनी रही, जिससे सर्बिया संतुष्ट नहीं था।1853 में सर्बिया, कुस्तुन्तुनिया के पेटार्क के आधार्मिक प्रभुत्व से मुक्त हो गया तथा अपना पृथक चर्च स्थापित कर लिया। 1867 में सर्बिया के नेताओं ने तुर्की के सुल्तान को अपनी सेनाएँ हटा लेने का अनुरोध किया। रूस, फ्रांस और ब्रिटेन ने इसका समर्थन किया, अतः मई, 1867 में सुल्तान ने सर्बिया से अपनी सेनाएँ हटा ली और इस प्रकार सर्बिया को पूर्ण आंतरिक स्वतंत्रता प्राप्त हो गयी।

सर्वस्लाव आंदोलन

क्रीमिया के बाद बाल्कन क्षेत्र में, विशेषकर स्लाव जाति में सर्वस्लाववाद की विचारधारा का प्रचार आरंभ हुआ। बाल्कन क्षेत्र के स्लाव लोग रूस, पोलैण्ड और आस्ट्रिया के स्लाव लोगों के साथ अपनी जातीय एकता का अनुभव करने लगे, जिसके परिणामस्वरूप सर्वस्लाव आंदोलन का जन्म हुआ। 1867 में मास्को में एक विराट सर्वस्लाव सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में एक केन्द्रीय सर्वस्लाव समिति बनाई गयी, जिसका मुख्यालय मास्को में रखा गया। पुस्तकों एवं छोटी पुस्तिकाओं द्वारा सर्वस्लाववाद का प्रचार किया जाने लगा। सर्बिया, बोस्निया, बल्गेरिया और माण्टीनीग्रो में सर्वस्लाववादियों की गुप्त समितियों का जाल बिछ गया। परिणाम यह हुआ कि तुर्की के विरुद्ध असंतोष बढता गया।

तुर्की की दमनकारी नीति

यद्यपि पेरिस की संधि में तुर्की के सुल्तान ने अपनी ईसाई प्रजा की दशा सुधारने का वचन दिया, किन्तु संधि के बाद उसकी दमनकारी नीति में कोई परिवर्तन नहीं आया बल्कि उसके अत्याचारों में वृद्धि हो गयी। 1860 में उसने सीरिया में ईसाइयों का कत्लेआम करवाया तथा 1859 में क्रीट में ईसाइयों को मौत के घाट उतारा गया। बोस्निया व हर्जीगोविना के किसानों में तुर्क अधिकारियों के अत्याचारों से असंतोष बढता गया। 1857 में इन किसानों ने विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह की लहर बल्गेरिया में पहुँच गयी, किन्तु तुर्की के सुल्तान ने बङी ही निर्दयता से इन विद्रोहों का दमन कर दिया। तुर्की के सुल्तान के अमानुषिक अत्याचारों से समस्त यूरोप काँप उठा।

इस प्रकार, तुर्की साम्राज्य की ईसाई जनता में असंतोष निरंतर बढता गया। 1870 तक तुर्की साम्राज्य के विघटन का मार्ग भी प्रशस्त हो गया। साम्राज्य की नींव दिन-प्रतिदिन कमजोर होती गयी और साम्राज्यवाद की निर्बलता ने यूरोपीय महाशक्तियों को परेशान कर दिया। पूर्वी समस्या इतनी जटिल बन गयी कि यह समस्या प्रथम विश्वयुद्ध का एक महत्त्वपूर्ण कारण सिद्ध हुई।

सर्वस्लाव आंदोलन और विद्रोह की लहर

क्रीमिया युद्ध के बाद काफी समय तक पूर्वी समस्या से संबंधित ऐसी कोई घटना घटित नहीं हुई, जिससे अन्तर्राष्ट्रीय तनाव उत्पन्न होता, किन्तु तुर्की साम्राज्य में राष्ट्रीयता की लहर प्रबल वेग से चलने लगी। रूमानिया के नए राज्य के निर्माण के बाद लगभग 10 वर्षों तक तुर्की साम्राज्य में कोई विद्रोह नहीं हुआ, किन्तु तुर्की सुल्तान के दमनकारी शासन में वृद्धि अवश्य हो गयी, जिससे राष्ट्रीयता की भावना प्रबल होती गयी। बाल्कन प्रदेश में तुर्की के अत्याचारी शासन के विरुद्ध षड्यंत्र रचे जाने लगे तथा सर्वस्लाव आंदोलन ने गति पकङी। सर्वस्लाव आंदोलन के प्रति रूस की सहानुभूति थी। सभी स्लावों के एक सूत्र में बाँधने का अर्थ था – तुर्की साम्राज्य का विघटन। अतः तुर्की का व्यवहार ईसाइयों के प्रति दिन-प्रतिदिन खराब होता गया।

क्रीमिया युद्ध के बाद पूर्व में विस्तार के लिये रूस के रास्ते में काफी अङचनें उत्पन्न हो गयी थी, अतः प्रत्यक्ष रूप से रूस इस क्षेत्र में अपना प्रभाव स्थापित नहीं कर सकता था, किन्तु जाति और धर्म के पर्दे के पीछे उन पर प्रभाव जमाया जा सकता था। इसलिये सर्वस्लाव आंदोलन को प्रोत्साहित करना रूस की बाल्कन नीति का प्रमुख आधार हो गया। रूस के जासूस बाल्कन राज्यों में छाए हुए थे तथा वे स्लावों के बीच जाकर तुर्की के विरुद्ध विद्रोह करने के लिये भङकाया करते थे। सर्वस्लाव आंदोलन पर सर्वस्लाव समिति पत्रिकाएँ प्रकाशित करती थी और बाल्कन राज्यों में उन्हें मुफ्त बाँटा जाता था। स्लाव विद्यार्थियों को मास्को विश्वविद्यालय में तरह-तरह की सुविधाएँ मिलती थी। वहाँ उन्हें सर्वस्लाव आंदोलन के उद्देश्य बताए जाते थे। कुस्तुन्तुनिया में स्थित रूसी दूतावास तथा बाल्कन राज्यों में फैले हुए रूसी वाणिज्य दूतावास इन आंदोलनों के अड्डे थे। रूस का सहयोग प्राप्त कर बाल्कन राज्यों के स्लाव लोग तुर्की साम्राज्य के विरुद्ध आंदोलन करने के अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।

बाल्कन प्रायद्वीप में रूस अपनी स्थिति मजबूत कर रहा था। 1870 में फ्रेंको-प्रशा युद्ध का लाभ उठाकर रूस ने पेरिस की संधि की काला सागर संबंधी शर्तों को अस्वीकार कर दिया। सेबास्टोपोल में उसने पुनः किलेबंदी करना आरंभ कर दिया तथा काले सागर तट पर अपनी नौ-सेना को पुनर्गठित करना शुरू कर दिया। रूस ने यह सब स्लाव लोगों को प्रभावित करने तथा तुर्की साम्राज्य में अपनी अभिलाषा पूरी करने हेतु किया था। दूसरी ओर जब आस्ट्रिया को जर्मनी से निष्कासित कर दिया गया तो उसने अपनी शक्ति के विस्तार का क्षेत्र बाल्कन प्रायद्वीप को चुना। बाल्कन प्रायद्वीप में रूस और आस्ट्रिया के एक ही उद्देश्य थे कि तुर्की के मूल्य पर अपने-अपने राज्य का विस्तार करना। फलतः बाल्कन प्रायद्वीह में रूस और आस्ट्रिया का संघर्ष अवशयम्भावी हो गया।

बोस्निया व हर्जीगोविना का विद्रोह

बोस्निया व हर्जीगोविना की ईसाई जनता जिनमें अधिकांश किसान थे, को कई वर्षों तक तुर्क अधिकारियों के अत्याचार सहन करने पङे। परिणामस्वरूप जुलाई, 1875 में बोस्निया व हर्जीगोविनामें विद्रोह फूट पङा। 1874 में वहाँ फसलों का खराब होना तथा तुर्क अधिकारियों द्वारा कठोरता से वहाँ कर वसूल करना, जुलाई, 1875 में बोस्निया व हर्जीगोविना के विद्रोह का तात्कालिक कारण माना जाता है। सुल्तान ने विद्रोह का दमन करने के लिये सेना भेजी, किन्तु विद्रोहियों ने उसे पराजित कर दिया। सर्बिया, माण्टीनीग्रो व डालमेशिया के लोग विद्रोहियों की सहायता करने लगे। विद्रोहियों ने यूरोप के प्रमुख राज्यों से प्रार्थना की कि वे उनकी स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करें। यूरोप की बङी शक्तियों ने वाणिज्य दूतों के माध्यम से दोनों पक्षों में समझौता कराने का प्रयत्न किया, किन्तु उसका परिणाम नहीं निकला। अंत में विवश होकर विद्रोहियों ने जून, 1876 में तुर्की के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया।

एण्ड्रासी नोट

तुर्की के सुल्तान से सुधार योजना को स्वीकार कराने तथा युद्ध को समाप्त कराने के उद्देश्य से आस्ट्रिया के विदेश मंत्री एण्ड्रासी ने रूस व जर्मनी के सहयोग से एक प्रस्ताव तैयार किया, जो एण्ड्रासी नोट के नाम से प्रसिद्ध है। नोट में मुख्य रूप से पाँच बातें कही गयी थी

ईसाइयों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करने, किसानों की दसा सुधारने, कर वसूली के लिये ठेके की प्रथा समाप्त करने, स्थानीय करों का उपयोग स्थानीय कार्यों के लिये करने तथा इन सुधारों को कार्यान्वित करने के लिये एक आयोग नियुक्त करने, जिसमें मुसलमान व ईसाई सदस्यों की संख्या बराबर रखने की माँग की गयी। 31 जनवरी, 1876 को यह नोट सुल्तान के पास भेजा गया। सुल्तान ने स्थानीय करों के उपयोग की शर्त को छोङकर शेष चार शर्तें स्वीकार कर ली। किन्तु विद्रोही सुल्तान के आश्वासनों से संतुष्ट नहीं हो सके, क्योंकि वे सुधारों को कार्यान्वित करने की ठोस गारंटी चाहते थे। इस प्रकार एण्ड्रासी नोट से युद्ध बंद नहीं हो सका।

बर्लिन का ज्ञापन

रूस और आस्ट्रिया के विदेश मंत्रियों ने मई, 1876 में बिस्मार्क से विचार-विमर्श के बाद एक नया प्रस्ताव किया। यही प्रस्ताव बर्लिन ज्ञापन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस ज्ञापन में दो माह के लिये युद्ध विराम करने तथा तुर्की के सुल्तान व विद्रोहियों के बीच समझौता कराने के लिये कुछ शर्तें रखी गयी। ज्ञापन में यह भी चेतावनी दी गयी कि यदि इस दो माह की अवधि में बङे राज्यों की इच्छानुसार सफलता नहीं मिली तो उन्हें शांति स्थापित करने के लिये कठोर कदम उठाने पङेंगे। फ्रांस और इटली ने ज्ञापन स्वीकार कर लिया, किन्तु ब्रिटेन ने इसे अस्वीकार कर दिया। ब्रिटेनकी अस्वीकृति से बर्लिन ज्ञापन निरर्थक सिद्ध हुआ तथा युद्ध रोकने की आशा क्षीण हो गयी। यदि ब्रिटेन अन्य यूरोपीय राज्यों से सहयोग करता तो तुर्की के सुल्तान को भी झुकना पङता। बङे राज्यों द्वारा ज्ञापन तैयार करने हेतु ब्रिटेन को आमंत्रित न करना, उनकी भूल थी। ब्रिटेन की अस्वीकृति से तुर्की प्रोत्साहित हुआ तथा उसने यूरोपीय राज्यों के विरोध की परवाह नहीं की।

बल्गेरिया हत्याकाण्ड

मई, 1876 में बल्गेरिया के ईसाइयों ने तुर्की के अधिकारियों की आज्ञाओं की अवहेलना की तथा कुछ अधिकारियों की हत्या कर दी गयी। इससे तुर्की सरकार का क्रोधित होना स्वाभाविक था। तुर्की के 18 हजार सैनिकों को बल्गेरिया भेजा गया तथा उनके हजारों खूंखार अनियमित सैनिकों को भी बल्गेरिया से बदला लेने के लिये छोङ दिया गया। इन सैनिक लुटेरों ने 60 गाँवों को जलाकर राख कर दिया। 12 हजार से अधिक पुरुष, स्री और बच्चों को निर्दयता के साथ मौत के घाट उतार दिया। जब बल्गेरिया के इन भयंकर अत्याचारों का समाचार यूरोप के समाचार-पत्रों में छपा तो समस्त यूरोप में खलबली मच गई। यहाँ तक कि ग्लैडस्टोन जैसे उदार प्रवृत्ति के व्यक्ति का दिल भी दहल उठा। उसने बल्गेरिया के अत्याचार पर एक छोटी सी पुस्तक प्रकाशित की तथा तुर्की के विरुद्ध बाल्कन राज्यों की सहायता के लिये आंदोलन छेङ दिया, किन्तु इस समय ब्रिटेन का प्रधानमंत्री ग्लैडस्टोन नहीं बल्कि महान साम्राज्यवादी डिजरैली था। डिजरैली ने इन अत्याचारों के प्रति उपेक्षा दिखाई, क्योंकि वह ब्रिटिश साम्राज्य के हितों की दृष्टि से तुर्की साम्राज्य को बनाए रखना आवश्यक मानता था।

सर्बिया एवं माण्टीनीग्रो का विद्रोह

बर्लिन ज्ञापन की असफलता से सर्बिया में युद्ध की भावना प्रबल हो गयी। इसके अलावा स्लाववादी एजेण्टों के षड्यंत्रों के कारण भी युद्ध की भावना बलवती होती गयी। 30 जून, 1876 को सर्बिया ने तथा जुलाई, 1876 को माण्टीनीग्रो ने तुर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। सर्बिया एवं माण्टीनीग्रो के युद्ध में सम्मिलित हो जाने से सर्वस्लाववादियों का उत्साह बढ गया तथा वे अपने भाइयों की सहायता के लिये व्यग्र हो उठे। अगस्त, 1876 में सर्बिया की सेनाएँ कई स्थानों पर पराजित हुई। इंग्लैण्ड ने युद्ध विराम करने का असफल प्रयत्न किया। दूसरी ओर अब रूस का धैर्य भी समाप्त हो गया। 31 अक्टूबर, 1876 को रूस ने तुर्की को 48 घंटे का अल्टीमेटम दिया, जिसमें 6 सप्ताह के लिये युद्ध विराम करने की माँग की गयी। रूस ने यह भी धमकी दी कि यदि तुर्की युद्ध विराम नहीं करता है, तो वह तुर्की से राजनयिक संबंध तोङ लेगा। तुर्की ने युद्ध विराम स्वीकार कर लिया। इस प्रकार रूस के हस्तक्षेप से सर्बिया विनाश से बच गया तथा यूरोप के राजनीतिज्ञों को बाल्कन समस्या का हल निकालने का एक और अवसर मिल गया।

कुस्तुन्तुनिया का सम्मेलन

बाल्कन समस्या पर विचार करने तथा तुर्की के सुल्तान से सुधार की योजनाएँ स्वीकार कराने के उद्दश्य से ब्रिटेन के विदेशमंत्री लॉर्ड डर्बी ने यूरोप की महाशक्तियों का एक सम्मेलन आमंत्रित किया। 23 दिसंबर, 1876 को कुस्तुन्तुनिया में सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन आरंभ हुआ। उसी दिन तुर्की के सुल्तान ने नए संविधान की घोषणा कर दी। तुर्की के विदेश मंत्री सफवत पाशा ने सम्मेलन में तुर्क प्रस्तुत किया कि नए संविधान द्वारा तुर्की साम्राज्य में नागरिक स्वतंत्रता के अधिकार प्रदान कर दिये गये हैं, अतः यह आवश्यक नहीं है, कि सम्मेलन कोई सुधार योजना प्रस्तुत करे। यूरोप के राजदूतों ने तुर्की के सुल्तान से माँग की कि सर्बिया, रूमानिया और माण्टीनीग्रो को स्वतंत्रता प्रदान कर दी जाय तथा बल्गेरिया, बोस्निया व हर्जीगोविना को तुर्की साम्राज्य के अधीन अर्द्ध-स्वतंत्र मान लिया जाय किन्तु तुर्की के सुल्तान ने इन मांगों को अस्वीकार कर दिया। अतः 20 जनवरी, 1877 को कुस्तुन्तुनिया सम्मेलन असफल ही समाप्त हो गया।

रूस व अस्ट्रिया का समझौता

कुस्तुन्तुनिया सम्मेलन की असफलता के पहले ही रूस को यह विश्वास हो गया था, कि भविष्य में तुर्की के विरुद्ध युद्ध अवश्य करना पङेगा, अतः उसने सम्मेलन के दौरान ही आस्ट्रिया के तटस्थ रहने का आश्वासन प्राप्त करने के लिये समझौता वार्ता आरंभ की। 15 जनवरी 1877 को दोनों के बीच बुडापेस्ट की संधि हो गयी, जिसके अनुसार रूस ने आस्ट्रिया को बोस्निया व हर्जीगोविना पर अधिकार करने की स्वीकृति प्रदान कर दी तथा सर्बिया व माण्टीनीग्रो को दोनों के बीच तटस्थ राज्य मान लिया गया।रूस ने यह भी वचन दिया कि तुर्की साम्राज्य का पतन हो जाने के बाद वह किसी बङे स्लाव राज्य का निर्माण नहीं करेगा। इसके बदले में आस्ट्रिया ने रूस-तुर्की युद्ध के समय तटस्थ रहने का वचन दिया।

लंदन प्रोटोकोल

मार्च, 1877 में लंदन में स्थित रूसी राजदूत शवाल्गॅव तथा ब्रिटिश विदेशमंत्री लॉर्ड डर्बी के बीच तुर्की से समझौता करने के लिये प्रोटोकोल के प्रारूप पर मतैक्य हो गया तथा कुछ दिन बाद अन्य यूरोपीय राज्यों ने भी उसे स्वीकार कर लिया। इस प्रोटोकोल में तुर्की से माँग की गई कि नए संविधान के अन्तर्गत दिए गए सुधारों को तुरंत लागू करे तथा यूरोपीय राज्यों के प्रतिनिधियों को यह देखभाल करने का अधिकार दिया जाय कि वास्तव में सुधार लागू करने के प्रयत्न किये जा रहे हैंं या नहीं। प्रोटोकोल के अंत में यह भी कहा गया था कि यदि तुर्की ने अपेक्षित सुधार नहीं किए तो ईसाइयों के हितों की रक्षा के लिये उन्हें उचित कदम उठाने का अधिकार होगा। 9 अप्रैल, 1877 को तुर्की ने लंदन प्रोटोकॉल को अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार बाल्कन समस्या को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने का अंतिम प्रयास भी विफल हो गया।

रूस-तुर्की युद्ध

तुर्की के व्यवहार से क्षुब्ध 24 अप्रैल, 1877 को रूस ने तुर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। रूस को आस्ट्रिया व फ्रांस के हस्तक्षेप का भय नहीं था, किन्तु वह इंग्लैण्ड की ओर से आशंकित था। इंग्लैण्ड भी रूस की सैनिक कार्यवाही से प्रसन्न नहीं था। इंग्लैण्ड ने मई, 1877 में रूस को चेतावनी दी कि वह युद्धकाल में स्वेज नहर के नौचालन में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न करे तथा कुस्तुन्तुनिया पर अधिकार करने का प्रयत्न न करे। 30 मई, 1877 को रूस के विदेश मंत्री गार्शकोव ने लॉर्ड डर्बी को इसके लिये आश्वासन दिया, फिर भी इंग्लैण्ड पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं हुआ।

मई, 1877 में रूमानिया ने तथा 12 जून, 1877 को माण्टीनीग्रो ने तुर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 22 जून, को रूस की सेना डेन्यूब नदी पार कर बाल्कन की पहाङियों की ओर बढने लगी। तुर्की की सेनाएँ उनकी प्रगति को न रोक सकी, किन्तु तुर्क सेनापति उस्मान पाशा ने प्लेवना में रूस की सेनाओं को रोक दिया। तत्पश्चात रूस व रूमानिया की सेनाओं ने प्लेवना का घेरा डाला। उस्मान पाशा ने पाँच महीने तक प्लेवना के किले की रक्षा की, किन्तु 10 दिसंबर को प्लेवना का पतन हो गया। 20 जनवरी, 1878 को रूसी सेनाएँ एड्रियानोपल तक पहुँच गयी, जहाँ से कुस्तुन्तुनिया के वल 160 मील दूर था। 31 जनवरी 1878 को तुर्की ने रूस की शर्तें मानते हुए युद्ध विराम की घोषणा कर दी। रूस की विजय से इंग्लैण्ड और आस्ट्रिया, दोनों ही चिन्तित थे। इंग्लैण्ड के विदेशमंत्री ने रूस को चेतावनी दी कि यदि उसने तुर्की से ऐसी कोई संधि की, जो 1856 और 1871 की संधियों द्वारा स्थापित व्यवस्था के विरुद्ध हो, तो यूरोपीय शक्तियों की सहमति के बिना उसे मान्यता नहीं दी जाएगी। रूसी सेनाएँ कुस्तुन्तुनिया के निकट सैन स्टीफेनो नामक स्थान पर पहुँच चुकी थी और तभी रूस ने तुर्की की युद्ध विराम की घोषणा को स्वीकार कर लिया।

सेन स्टीफेनों की संधि

3 मार्च, 1878 को रूसी सेनापति इग्नातेव ने तुर्की के सुल्तान को सेन स्टिफेनो नामक स्थान पर रूस को शर्तों के आधार पर संधि करने को बाध्य किया। उस संधि की शर्तें इस प्रकार थी…अधिक जानकारी

यूरोपीय राज्यों की प्रतिक्रिया

ज्यों ही सेन स्टीफेनो की संधि की शर्तें यूरोपीय समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुई, त्यों ही ब्रिटेन व आस्ट्रिया में खलबली मच गयी। जर्मनी से निष्कासित हो जाने के बाद आस्ट्रिया बाल्कन प्रदेशों की ओर गिद्ध दृष्टि से देख रहा था, किन्तु सेन स्टीफेनो की संधि के बाद उसे ऐसा लगा, मानो उस क्षेत्र में उसके लिये कुछ रह ही नहीं गया है। आस्ट्रिया ने बल्गेरिया के बङे स्लाव राज्य के निर्माण को बुडापेस्ट के समझौते का उल्लंघन बताया तथा एण्ड्रासी ने यूरोपीय राज्यों के सम्मेलन में संधि पर पुनर्विचार करने की माँग की। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बीकन्सफील्ड ने कहा कि स्टीफेनो की संधि ने यूरोप में आटोमन साम्राज्य को समाप्त कर दिया है। उसने यह भी कहा कि संधि की शर्तों का कुल प्रभाव यह होगा कि काला सागर अब रूस की झील बन जाएगा। ब्रटेन ने इस संधि को पेरिस की संधि (1856ई.)के विरुद्ध एक चुनौती माना तथा यूरोपीय राज्यों के सम्मेलन में उस पर पुनर्विचार करने की माँग की। रूस और बल्गेरिया को छोङकर कोई भी देश इस संधि से संतुष्ट नहीं था। रूमानिया ने रूस का साथ दिया था, किन्तु संधि की बातचीत प्रारंभ होने पर रूस ने उसे निमंत्रण तक नहीं भेजा। सर्बिया, माण्टीनीग्रो और यूनान, वृहत बल्गेरिया के निर्माण को देखकर जल रहे थे। यूनान तो इतना क्रोधित हुआ कि उसने थेसेली पर आक्रमण कर दिया। इधर आस्ट्रिया व ब्रिटेन संधि पर पुनर्विचार करने के लिये एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन की माँग कर रहे थे। रूस इसके लिये सहमत नहीं था, क्योंकि रूस के राजनीतिज्ञ इस कार्यवाही को अपमानजनक समझते थे। रूस ने इंग्लैण्ड को कूटनीति में अकेला करने के उद्देश्य से आस्ट्रिया से समझौता करने का प्रयत्न किया, किन्तु उसे सफलता नहीं मिली। इधर इंग्लैण्डकी सरकार रूस और आस्ट्रिया के बीच समझौते की संभावना से चिन्तित थी, अतः इंग्लैण्ड ने आस्ट्रिया से समझौता करने का प्रयत्न किया, किन्तु एण्ड्रासी केवल अपनी शर्तों के आधार पर ही समझौता करना चाहता था, इसलिए वार्ता विफल हो गई। 17 अप्रैल 1878 को डिजरैली ने 7000 भारतीय सैनिकों को माल्टा भेजने का आदेश दिया। इससे रूस को यह विश्वास हो गया कि यदि समझौता नहीं हुआ तो ब्रिटेन रूस के विरुद्ध युद्ध आरंभ कर देगा। रूस इंग्लैण्ड के विरुद्ध युद्ध करने की स्थिति में नहीं था, अतः उसने इंग्लैण्ड के साथ समझौता करना ही उचित समझा। 30 मई, 1878 को लंदन में स्थित रूसी राजदूत शूवालॉव तथा ब्रिटेन के विदेशमंत्री लॉर्ड सेलिसबरी के बीच मुख्य प्रश्नों पर समझौता हो गया। रूस को सेन स्टीफेनो की संधि पर पुनर्विचार करने के लिये सहमत होना पङा। सम्मेलन आमंत्रित करने का काम बिस्मार्क को सौंपा गया।

बर्लिन कांग्रेस सम्मेलन

बर्लिन कांग्रेस (13 जून – 13 जुलाई 1878) बर्लिन में सम्पन्न एक सम्मेलन था, जिसमें उस समय की महाशक्तियाँ (रूस, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रिया-हंगरी, इटली तथा जर्मनी), चार बाल्कन राज्य (ग्रीस, सर्बिया, रोमानिया, मान्टीनिग्रो) और उस्मानी साम्राज्य ने भाग लिया था। इसका उद्देश्य 1877-78 के रूस-तुर्की युद्ध के बाद बाल्कन प्रायद्वीप के राज्यों की सीमायें तय करना था। इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप बर्लिन की संधि पर हस्ताक्षर हुए जिसने रूस और उस्मानी साम्राज्य में मात्र तीन माह पूर्व सम्पन्न सेन स्टीफेनो की संधि का स्थान ग्रहण किया…अधिक जानकारी

14 क्रीमिया युद्ध के बाद फ्रांस को क्या लाभ या हानि हुई? - 14 kreemiya yuddh ke baad phraans ko kya laabh ya haani huee?
1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा
Online References
wikipedia : पूर्वी समस्या और बर्लिन कांग्रेस

क्रीमिया युद्ध के बाद फ्रांस को क्या लाभ या हानि हुई?

क्रीमिया युद्ध का औचित्य पेरिस की सन्धि की धाराएँ स्थायी सिद्ध न हो सकी। इस युद्ध का उद्देश्य रूस की शक्ति पर प्रतिबन्ध लगाना था, किन्तु इस उद्देश्य में भी सफलता न मिल सकी। रूस द्वारा पेरिस की सन्धि में हुए अपने अपमान को भुलाया नहीं जा सका। मित्र राष्ट्रों के लिए भी इस युद्ध के परिणाम विनाशकारी सिद्ध हुए।

क्रीमिया युद्ध के क्या कारण थे?

रुस पर इंगलैण्ड और फ्रांसने तुर्की को सहायता देने का आश्वसन दिया तुर्की को सहायता देने का आश्वसन दिया 27 फरवरी 1854 को इंगलैंड और फ्रांस ने रुस को संयुक्त चेतावनी दी कि रुस तुर्की का प्रदेश खाली कर दे। लेकिन संतोष जनक उत्तर न मिलने के कारण दोनों ने रुस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। यही युद्ध क्रीमिया का युद्ध था।

क्रीमिया का युद्ध कब से कब तक चला?

5 अक्तू॰ 1853 - 30 मार्च 1856 क्रीमिया का युद्ध तक काला सागर के आसपास चला युद्ध था, जिसमें फ्रांस, ब्रिटेन, सारडीनिया, तुर्की ने एक तरफ़ तथा रूस ने दूसरी तरफ़ से लड़ा था।

क्रीमिया का युद्ध कब प्रारंभ हुआ था?

5 अक्तूबर 1853क्रीमिया का युद्ध / शुरू होने की तारीखnull