12 ड ल म क स न

10 अगस्त 2020

12 ड ल म क स न

इमेज स्रोत, Reuters

5 अगस्त 2019 को भारत सरकार ने कश्मीर को संवैधानिक रूप से दिए गए खास दर्जे को खत्म कर दिया और इस पूरे इलाक़े को दो केंद्र शासित हिस्सों में बाँट दिया. एक सख़्त कर्फ़्यू लागू किया गया और हज़ारों लोगों को हिरासत में ले लिया गया. संचार माध्यमों पर रोक लगा दी गई.

मार्च से इस लॉकडाउन में ढील दी जानी शुरू हुई, लेकिन कोविड-19 महामारी के चलते इसे फिर से लगाना पड़ गया.

यह पूरा साल शटडाउन, ग़ुस्से और डर का रहा है. बीबीसी ने 12 अलग-अलग कश्मीरियों से बात की है ताकि यह पता किया जा सके कि इस एक साल के दौरान उनकी ज़िंदगी कैसी रही है.

सना इरशद मट्टू, 26 साल

पिछले चार साल से बतौर जर्नलिस्ट काम कर रहीं मट्टू बताती हैं, "हमारे काम में आप निजी और पेशेवर ज़िंदगी को अलग-अलग नहीं कर सकते हैं."

वे कहती हैं, "हम गुज़रे सालों में भी लॉकडाउन में रहे हैं. लेकिन, पिछले साल एक डर का माहौल रहा था. हमें नहीं पता था कि क्या हो रहा है. हमारे संचार के ज़रिए बदल गए थे. हमने अपनी आवाज़ सुनाने के लिए नए तरीक़े ईजाद किए."

मट्टू कहती हैं कि पिछले साल अगस्त के बाद से ही सुरक्षा बलों का रिपोर्टरों को लेकर रवैया सख़्त हो गया था.

वे बताती हैं, "अब पत्रकारों से पूछताछ होती है, उन्हें अरेस्ट किया जाता है और सूत्र बताने के लिए मजबूर किया जाता है. अगर मुझे सोशल मीडिया पर कुछ डालना होता है तो मैं दो-तीन बार सोचती हूं क्योंकि मुझे काम भी करना है. यहाँ हर वक़्त डर है. मैं अपने पेशेवर काम के बारे में घर पर चर्चा नहीं करती हूँ. कई बार झूठ भी बोलना पड़ता है."

अल्ताफ़ हुसैन, 55 साल

सरकार के 5 अगस्त के आदेश के बाद कश्मीर में हुई पहली मौतों में से एक अल्ताफ़ हुसैन के बेटे की मौत थी.

17 साल के उसैब अल्ताफ़ के पीछे सुरक्षा बल पड़े थे और ऐसे में उन्होंने एक नदी में छलांग लगा दी और डूबकर मर गए. सुरक्षा बल इस आरोप को ख़ारिज करते हैं.

एक साल बाद उनकी मौत अभी तक आधिकारिक तौर पर मानी नहीं गई है. यहाँ तक कि जिस हॉस्पिटल में उनकी मौत हुई, उसने भी परिवार को उनकी मृत्यु का प्रमाणपत्र देने से इनकार कर दिया.

वे कहते हैं, "वह फुटबॉल खेलने गया था, लेकिन कफ़न में वापस आया. पुलिस ज़ोर देती है कि उस दिन किसी की मौत नहीं हुई. वे यह नहीं मान रहे कि उसकी हत्या हुई है. मेरे पास गवाह हैं, लेकिन वे अभी भी केस फ़ाइल नहीं कर रहे हैं. हम पुलिस स्टेशन और अदालत गए, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं है."

मुनीफा नाजिर, 6 साल

प्रदर्शनकारियों और सुरक्षा बलों की झड़प के बीच मुनीफ़ा फँस गई थीं. उनकी दाईं आँख में छर्रा लग गया.

वे कहती हैं, "मैं कई दिनों तक अस्पताल रही. अब मुझे ज़्यादा याद नहीं है. मैं मेरे स्कूल के लेसन भूल चुकी हूँ. मुझे 100 में से 100 नंबर मिलते थे. मेरी आँख ठीक हो जाने के बाद मैं डॉक्टर बनना चाहती हूँ. मुझे डॉक्टर पसंद हैं क्योंकि वे दूसरों की मदद करते हैं."

उनके पिता एक स्थानीय न्यूज़ एजेंसी के कैमरामैन हैं. वे कहते हैं कि उनकी बेटी की आँख पूरी तरह से जा चुकी है और फ़ीस नहीं भर पाने के चलते उन्हें अपनी बेटी को स्कूल से निकालना पड़ा है.

वे कहती हैं, "मुझे केवल साये दिखाई देते हैं. मैं किताब नहीं पढ़ सकती हूँ. मैं कहीं जा नहीं सकती. डॉक्टरों ने कहा था कि मैं 15 दिन बाद स्कूल जा पाऊँगी, लेकिन एक साल गुज़र गया है."

फारूख़ अहमद, 34

अहमद की कहानी एक फ़र्श से अर्श पर पहुँचे शख़्स की दास्तान है.

उन्होंने कम उम्र में ही काम शुरू कर दिया था. वे श्रीनगर के बस अड्डे पर ड्राइवरों की मदद करते थे.

2003 में अपनी पत्नी के गहनों और अपनी बचत के साथ उन्होंने एक बस ख़रीदी.

एक पार्टनर और बैंक लोन की मदद से आज उनके पास सात बसें हैं. लेकिन, ये सभी बसें खड़ी हैं. इस साल इस पूरे इलाक़े में ट्रांसपोर्ट सबसे बुरी तरह से प्रभावित सेवाओं में रही है.

वे कहते हैं, "हाल में ही हमने इन बसों का बीमा रिन्यू कराया है. इस पर क़रीब 4 लाख रुपए ख़र्च करने पड़े हैं. जबकि कमाई एक पैसे की नहीं हो रही है. मेरे सात कर्मचारी भूखों मरने की नौबत पर हैं. लेकिन, मैं उनकी कैसे मदद करूं जबकि मैं ख़ुद मुश्किल में चल रहा हूं. मेरे जैसे लोगों जिन्होंने अपनी जमापूँजी लगाकर धंधा शुरू किया था, उनके लिए यह बेहद मुश्किल दौर है."

अहमद अब एक लेबर के तौर पर काम करते हैं और अपना क़र्ज़ चुकाने की कोशिश कर रहे हैं.

इकरा अहमद, 28

अहमद अपना फ़ैशन डिजाइनिंग का काम करती हैं. वे किसी की नौकरी नहीं करना चाहती थीं इसलिए उन्होंने अपना काम शुरू करने का फ़ैसला किया था.

वे कहती हैं कि वे अपने काम के ज़रिए कश्मीर की संस्कृति को प्रोत्साहित करना चाहती हैं. वे अपने सामान ऑनलाइन बेचती हैं.

इकरा बताती हैं, "इंटरनेट के बंद होने से मेरे कारोबार पर बुरा असर पड़ा और 2जी किसी काम का नहीं है. यूएस, दुबई और ऑस्ट्रेलिया समेत पूरी दुनिया में मेरे कस्टमर्स हैं."

वे कहती हैं, "लेकिन, मेरे अधिकतर कस्टमर्स कश्मीर से हैं और वे मेरे प्रोडक्ट्स की तस्वीरें नहीं देख पाते हैं क्योंकि 2जी स्पीड पर तस्वीरें खुलती ही नहीं हैं. मुझे हर सप्ताह 100 से 110 ऑर्डर मिलते थे. अब यह संख्या 5-6 रह गई है."

इंटरनेशनल कस्टमर्स को ऑर्डरों में देरी होने का अंदेशा रहता है. एक ने उन्हें छह महीने बाद ऑर्डर डिलीवर करने के लिए बधाई दी. एक कस्टमर ने उन्हें गेट लॉस्ट बोला क्योंकि इंटरनेट बंद होने के चलते वे उनके टेक्स्ट मैसेज का जवाब वक़्त पर नहीं दे पाई थीं.

बदरुद दुजा, 24

"लॉ स्टूडेंट होने से मैं संविधान, डेमोक्रेसी की भावना, मूल अधिकार, और क़ानूनी प्रक्रियाओं को पढ़ता हूँ. लेकिन, ये सब महज शब्द हैं. हम व्यक्तिगत आज़ादी को खो रहे हैं. सभी छात्रों और शिक्षकों के लिए क़ानून की पढ़ाई एक मज़ाक बन गई है."

दुजा का अपने चुने गए पेशे से तेज़ी से मोहभंग हो रहा है.

वे कहते हैं, "अभिव्यक्ति एक राहत होती थी, लेकिन अब कुछ बोलने पर आपको जेल में डाल दिया जाता है. कश्मीर में मानव अधिकारों की वकालत करने वाले एक समूह के एक इंटर्न के तौर पर मैंने एक शख़्स को मीडिया से बात करने के लिए पुलिस वैन में घसीटकर डाले जाते देखा है. हम पूरी तरह से निराश हैं."

मंजूर बट, 29

बट देश की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की मीडिया विंग की अगुवाई करते हैं. वे कहते हैं कि बीजेपी से जुड़ने के चलते उनके परिवार और दोस्तों ने उनका बहिष्कार कर दिया है.

लेकिन, वे कहते हैं कि वे ऐसा करने की वजह से जहन्नुम में नहीं जाएँगे. इसके उलट उन्हें लगता है कि वे इस इलाक़े के लोगों की मदद कर रहे हैं.

वे कहते हैं, "मेरा मक़सद सत्ता में आना या पैसा कमाना नहीं है, बल्कि मैं दूसरों की मदद करना चाहता हूँ. हमारे युवा बंदूक़ उठा रहे हैं, लेकिन यह हल नहीं है. कश्मीर में मरने वाले मेरे भी भाई हैं- लेकिन, हिंसा इसका जवाब नहीं है."

जावेद अहमद, 35

जावेद गुज़रे 25 साल से श्रीनगर की डल झील में बोट ऑपरेटर के तौर पर काम कर रहे थे. उनकी ज़िंदगी इस कमाई से अच्छी चल रही थी. वे रोज़ाना क़रीब 500 रुपए कमा लेते थे.

वे कहते हैं, "अब मैं सब्जियाँ बेचकर गुज़ारा कर रहा हूँ. लेकिन, लॉकडाउन में ग्राहक भी नदारद हैं."

वे कहते हैं कि उन्हें अपने बच्चों की पढ़ाई का खर्चा निकालना भी मुश्किल हो रहा है.

वे कहते हैं, "हमारा भविष्य ख़त्म हो गया है. डर के चलते टूरिस्ट नहीं आ रहे हैं. यह कश्मीर में हरेक के लिए एक मुश्किल वक़्त है. लेकिन, टूरिज्म पर सबसे बुरा असर पड़ा है."

अहमद कहते हैं कि सरकार ने हर बोटमैन को 1,000 रुपए देने का वादा किया था, लेकिन वे कहते हैं कि इससे तो वे अपने बिजली का बिल भी नहीं भर पाएँगे.

फ़लाह शाह, 12

फ़हाल पूछती हैं, "बाक़ी के भारत में छात्रों के पास पढ़ाई के बेहतरीन मौक़े हैं. मेरे लिए बेसिक शिक्षा के लिए भी मुश्किल है. अगर हम इस वक़्त अहम कॉन्सेप्ट्स हासिल नहीं कर पाएँगे, तो हम भविष्य में कैसे प्रतिस्पर्धी परीक्षाएँ पास कर पाएँगे."

वे कहती हैं, "मैं साइंस और मैथ्स में बेसिक कॉन्सेप्ट्स नहीं समझ पा रही हूँ. इंटरनेट न होने से हालात और ख़राब हो गए हैं. अब इंटरनेट तो है, लेकिन इसकी स्पीड बेहद कम है."

वे कहती हैं कि वे स्कूल, अपने शिक्षकों और दोस्तों को मिस कर रही हैं.

वे कहती हैं, "मैं घर से बाहर नहीं जा सकती हूँ. पिछले एक साल से मैं इसी जगह पर क़ैद हूं. अगर किसी और जगह पर एक साल तक का लॉकडाउन होता, तो छात्रों ने विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिए होते. लेकिन, हम ऐसा नहीं कर सकते."

साजिद फारूक़, 43

फारूक़ होटल चलाते हैं. पिछली तीन पीढ़ियों से उनका परिवार होटल चला रहा है, लेकिन वे कहते हैं कि उन्हें कश्मीर में इसका कोई भविष्य नज़र नहीं आता.

वे 1990 के दशक से शुरू हुए हत्याओं और हिंसा के दौर की बात करते हैं. वे कहते हैं, "हमें यह होटल बनाने में तीन पीढ़ियाँ लगी हैं. लेकिन 90 के दशक से ही हम बस किसी तरह से रोज़ी-रोटी चला रहे हैं."

वे कहते हैं कि कारोबार टिकने लायक नहीं रह गया है.

वे कहते हैं, "बिजली के लिए मुझे 2 लाख रुपए देने पड़ते हैं चाहे होटल चले या न चले. दूसरे सर्विस चार्ज भी हैं. मुझे हालात बेहतर होते नज़र नहीं आ रहे."

बिलाल अहमद, 35

अहमद कश्मीर के फल बिक्रेता हैं. वे कहते हैं कि ख़राब मौसम और लॉकडाउन ने उन्हें ऐसी परिस्थिति में ला खड़ा किया है, जहाँ उन्हें अपनी ज़मीन तक बेचनी पड़ सकती है.

वक़्त से पहले बर्फबारी ने उनके सेब और आड़ू के बाग को नुकसान पहुँचाया है. मज़दूरों की कमी से फसल पर छिड़काव का काम नहीं हो पाया और कम फसल हुई.

वे कहते हैं, "हम पिछले एक साल से बेकार बैठे हैं. सेब से हर साल एक से डेढ़ लाख रुपए की कमाई हो जाती थी, लेकिन इस साल केवल 30,000 रुपए की कमाई हुई है. अगर ऐसे हालात बने रहे, तो मुझे अपनी ज़मीन बेचनी पड़ सकती है. मैं कम पढ़ा हूँ और मुझे कोई दूसरा काम नहीं आता है."

मोहम्मद सिद्दीक़, 49

सिद्दीक़ मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करते हैं, लेकिन वे कहते हैं कि उन्हें अपना काम बंद करना पड़ा है क्योंकि उन्हें कच्चा माल नहीं मिल पा रहा है.

राज्य सरकार ने हाल में ही बालू और पत्थर खनन के परमिट बाहरी कॉन्ट्रैक्टर्स को दिए हैं, इस तरह से सिद्दीक़ जैसे हज़ारों स्थानीय कारोबारी धंधे से बाहर हो गए हैं.

वे कहते हैं, "सरकार ने मिट्टी खुदाई पर रोक लगा दी है. वे कहते हैं कि कोर्ट का ऐसा आदेश है. लेकिन, अब तक यह काम कैसे हो रहा था? क्या जजों ने मेरे जैसे ग़रीब परिवारों के बारे में नहीं सोचा? क्या वे चाहते हैं कि हम भूख से मर जाएँ? मैंने काम बंद कर दिया है और एक लेबर के तौर पर काम करने लगा हूँ."

तस्वीरेः आबिद भट्ट, रिपोर्टः जहांगीर अली