अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥5॥
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अपरा-निकृष्ट, इयम्-यह; इत:-इसके अतिरिक्त; तु–लेकिन; अन्याम्-अन्य; प्रकृतिम्–प्राकृत शक्ति; विद्धि-जानना; मे मेरी; परम-उत्कृष्ट; जीव-भूताम्-सभी जीव; महा-बाहो–बलिष्ठ भुजाओं वाला; यथा जिसके द्वारा; इदम्-यह; धार्यते-आधार पर; जगत्-भौतिक संसार।
BG 7.5: ये मेरी अपरा शक्तियाँ हैं किन्तु हे महाबाहु अर्जुन! इनसे अतिरिक्त मेरी परा शक्ति है। यह जीव शक्ति है जिसमें देहधारी आत्माएँ (जीवन रूप) सम्मिलित हैं जो इस संसार के जीवन का आधार हैं।
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परमात्मा ही है वास्तविक आनंद
मारा मन एक पुल का काम करता है। शरीर इसका एक छोर है और दूसरे छोर पर हो तुम; और मन बीच में एक पुल है। मन एक ऐसा पुल है, जो स्थूल शरीर और सूक्ष्म आत्मा को जोड़ रहा है। तुम भी अगर स्थूल होते और शरीर भी...
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 15 Sep 2014 09:21 PM
मारा मन एक पुल का काम करता है। शरीर इसका एक छोर है और दूसरे छोर पर हो तुम; और मन बीच में एक पुल है। मन एक ऐसा पुल है, जो स्थूल शरीर और सूक्ष्म आत्मा को जोड़ रहा है। तुम भी अगर स्थूल होते और शरीर भी स्थूल होता तो मन में इतना खिंचाव नहीं होता। पर बड़ी अद्भुत बात यह है कि शरीर है स्थूल, पर तुम हो अति सूक्ष्म, और मन इन दोनों को बांधने वाला पुल। इस शरीर में दिमाग मन का आसन है। वैसे तो मन न केवल शरीर में व्याप्त है, बल्कि शरीर के बाहर संसार में भी व्याप्त है। वास्तव में संसार मन के बाहर कुछ है ही नहीं। इसलिए अगर कोई संसार छोड़ना चाहे, संसार त्यागना चाहे तो नासमझी में वह अपना घर, परिवार, पत्नी, बच्चे छोड़ देता है। दुकान, व्यवसाय, नौकरी छोड़ देता है।
संसार तो सिर्फ एक मान्यता है और कुछ नहीं। मान्यताओं का जन्म तुम्हारे मन ही में होता है। अगर तुम दुकान, मकान छोड़ कर कहीं चले जाओ तो भी अपने मन को तो साथ ही लिए जाते हो। और जब तक यह मन तुम्हारे साथ है, याद रहे, यह संसार भी तुम्हारे साथ है। अद्भुत है यह मन। मन है सिर्फ विचार की तरंग, और कुछ भी नहीं। विचार की तरंगें न हों तो मन का अस्तित्व ही नहीं है। शरीर दिखता है, मन दिखता नहीं। शरीर का ही एक सूक्ष्म भाग है मन और मन का ही स्थूल रूप है शरीर। इसलिए तुम्हारे शरीर पर जो भी घटनाएं घटती हैं, उनका असर मन पर अवश्य आता है और जो घटनाएं तुम्हारे मन पर घटती हैं, उसका असर तुम्हारे शरीर पर अवश्य आता है।
कभी आपने सोचा कि आपके विचार किस चीज से बने हैं? ये विचार अगर अंधकार के हों तो तुम अज्ञानी। यही विचार परमात्मा के हो जाएं तो ज्ञानी। हालांकि ज्ञानी और अज्ञानी में भेद बस विचार का नहीं, इससे थोड़ा और आगे का भी है। जब तक सत्य का विचार कर रहा है, तब तक साधक है, खोजी है। विचार करते-करते जब निर्विचार हो जाए और अनंत में छलांग लग जाए तो अब परमात्मा प्रकट है, पास ही है, उसे वह अपने पास देख पाता है। अब यह कैसे होगा?
इस स्थिति तक पहुंचने के लिए निश्चित ही आवश्यकता है मन की दौड़ को बंद करने की। पर यह मन की दौड़ बंद कैसे होगी? मन की दौड़ बंद होगी ध्यान से। अक्सर लोग कहते हैं, ‘ध्यान तो योगियों, संन्यासी बाबाओं के लिए होता है। हमारे लिए ध्यान थोड़े है।’ लेकिन क्या सिर्फ बाबा लोगों को ही आनंद चाहिए? तुम्हें नहीं? याद रहे, मन की भूख शाश्वत आनंद है, संसार नहीं। तुम्हें क्या लगता है,
मन की भूख संसार है? जब तक संसार मिला नहीं, तब तक ही इसे संसार की भूख होती है। फिर जब संसार मिल जाए, तब बड़ी उदासी और निराशा हाथ लगती है। मन फिर भी भूखे का भूखा ही रह जाता है। तुम अपने इस बेचारे मन की प्यास को समझ नहीं पा रहे हो। मन को वह सब दे रहे हो, जो मन को चाहिए ही नहीं। छोटे बच्चों को नींद आने लगे तो वह रोता है। उसे इतनी समझ नहीं होती कि आंख बंद कर, सिर को सिरहाने पर टिकाने से नींद आ जाएगी। वह रोने लगता है, चिड़चिड़ा हो जाता है। लेकिन मां उसकी जरूरत को समझती है। वह उसे कंधे पर लेकर पीठ पर
थपकी देती है और बच्चा सो जाता है। तुम्हारा मन भी तो एक बच्चा है। वह भी रोता है, पर कभी तुमने इसके रोने का कारण पूछा कि ‘रे मन! तू क्यों दुखी है? रे मन! तू क्यों रोता है? क्यों परेशान है?’
तुम्हारा मन परम आनंद चाहता है और परम आनंद परमात्मा हैं। जब तक यह नहीं मिलेगा, मन ऐसे ही दुखी रहेगा। तो आप अपने आपको इस भूल में मत रखिए कि पैसे कम हैं या बीमारी है या कोई केस चल रहा है, इसलिए मन परेशान है। नहीं, सच बात तो यह है कि मन सिर्फ एक ही कारण से परेशान है कि वह परमात्मा से दूर है। मन जिससे
उपजा है, उसी के साथ जुड़ना चाहता है और जब तक अपने मूल से जुड़ नहीं जाएगा, मन को कभी शांति नहीं मिल सकेगी। जिस बालक को नींद चाहिए, उसे तुम चॉकलेट, टॉफियां, गुब्बारे, खिलौने दो तो वह सब चीजें फेंक देगा। ऐसे ही तुम अपने इस मन को खुश करने के लिए कितना कुछ दे रहे हो।
आप अपने ही मन को नहीं जानते। इसलिए मन कुछ भी कहे, उसे करने से पहले उस विचार की सार्थकता को, उस विचार के मूल को, उस विचार की गहराई को समझ लेना चाहिए। यह करने के लिए आपको निश्चित ही एक चीज की आवश्यकता है और वह है सजगता।