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Published in Journal
Year: Jul, 2013
Volume: 6 / Issue: 11
Pages: 1 - 7 (7)
Publisher: Ignited Minds Journals
Source:
E-ISSN: 2230-7540
DOI:
Published URL: //ignited.in/I/a/293307
Published On: Jul, 2013
Article Details
वैदिक काल में नारी की स्थिति का ऐतिहासिक अध्ययन | Original Article
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Published in Journal
Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education [JASRAE] (Vol:15/ Issue: 1) DOI: 10.29070/JASRAE |
Authors: Bala Devi*, |
Subjects: Multidisciplinary Academic Research |
Year: Apr, 2018
Volume: 15 / Issue: 1
Pages: 137 - 142 (6)
Publisher: Ignited Minds Journals
Source:
E-ISSN: 2230-7540
DOI:
Published URL: //ignited.in/a/57110
Published On:
Apr, 2018
Article Details
भारत में महिलाओं की वर्तमान स्थिति की, वैदिक तथा मध्यकाल की स्थिति की तुलनात्मक सामाजिक विवेचना | Original Article
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भारतीय महिलाओं का शोषण: वैदिक काल से अब तक
औरतों के पक्ष में लिखना मेरे लिए बडे़ गौरव की बात है सदियों से उपेक्षाओं और त्रासदी की मार झेल रही औरतों को सम्मान का दर्जा/हक दिला पाने में जिस प्रकार की कोशिशें की जा रही हैं उसमें अंश मात्र भी मेरे योगदान से ये औरतें अपने आपको उपेक्षाओं से बचा सकें, तो मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा। इस आलोक में देखा जाए तो समाज की बात यथार्थ रूप से बेमानी लगने लगती है, जिस समाज में नारी को देवी का ओहदा हासिल है वहीं नारी के साथ अत्याचारों की लंबी कतार भी खड़ी दिखाई देती है। ये बात सही है कि पूर्व काल में नारी का अधिपत्य था। नारी ही पुरूषों, बच्चों और बुर्जुगों का पालन-पोषण करती रही है। बच्चों की पहचान भी माता के नाम से होती थी। वक्त के परिवर्तन के साथ पुरूषों ने नारी की सत्ता का दोहन कर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। अपनी सत्ता छीन जाने के बाद नारी के इतिहास में तरह-तरह के उतार-चढ़ाव देखने को मिलते हैं।
वैदिक काल में ‘‘महिलाओं की स्थिति समाज में काफी ऊंची थी और उन्हें अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी। वे धार्मिक क्रियाओं में भाग ही
नहीं लेती थीं बल्कि, क्रियाएं संपन्न कराने वाले पुरोहितों और ऋषियों का दर्जा भी उन्हें प्राप्त था।’’ उस समय महिलाएं धर्म शास्त्रार्थ इत्यादि में पुरूषों की तरह ही भाग लेती थी। उन्हें ‘‘गृहणी, अर्धांगिनी कह कर संबोधित किया जाता था। पुत्र-पुत्री के पालन-पोषण में कोई भेदभाव नहीं किया जाता था।’’ उपनयन संस्कार और शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार भी स्त्रियों को पुरूषों की भांति समान रूप से प्राप्त था। तत्कालीन युग में महिलाएं सार्वजनिक जीवन में भाग लेती थी। ‘‘अस्पृश्यता, सती प्रथा, पर्दा प्रथा तथा बाल
विवाह जैसी कुप्रथा का प्रचलन भी इस युग में नहीं था।’’ ‘‘महिलाओं की शादी एक परिपक्व उम्र में होती थी, संभवतः उनको अपना जीवन साथी के चुनाव का पूर्ण अधिकार प्राप्त था।’’ ‘‘यद्यपि विधवा पुर्नविवाह प्रचलित नहीं था लेकिन विधवाओं के साथ सम्मानजनक व्यवहार किया जाता था और उन्हें अपने पति की सम्पत्ति पर अधिकार प्राप्त था।’’ यूं कहा जा सकता है कि, स्त्रियां किसी भी क्षेत्र में पुरूषों से पीछे नहीं थी। ‘‘भारतीय समाज के वैदिक काल में नारी को पुरूषों के समाज में शिक्षा, धर्म, राजनीति और सम्पत्ति के अधिकार एवं
सभी मामलों में समानाधिकार प्राप्त थे।’’ इसके बाद धीरे-धीरे नारी को प्रदत्त अधिकारों में हा्रस बढ़ता गया और नारी को प्रदान अधिकारों, शिक्षा, स्वतंत्रता, धार्मिक अनुष्ठानों आदि से वंचित किया जाने लगा। जिससे वह पूर्ण रूप से पुरूषों पर आश्रित हो गयी। वहीं मनु ने कहा कि ‘‘नारी का बचपन में पिता के अधीन, यौवनवास्था में पति के आधिपत्य में, तथा पति की मृत्यु के उपरांत पुत्र के संरक्षण में रहना चाहिए।’’ इस फतवे के बाद नारी की बची-खुची आजादी का भी हनन हो गया और नारी का स्तर दोयम दर्जे की ओर बढ़ता चला गया।
भारतीय इतिहास का वास्तविक काल वैदिक सभ्यता से जुड़ा हुआ है। ‘‘चतुर्वेदों में ऋग्वेद को सबसे अधिक प्राचीन वेद माना है। इसके बाद यजुर्वेद, समार्वेद और अर्थर्ववेद को माना जाता है।’’ ऋग्र्वेद में ब्रम्हज्ञानी पुरूषों के साथ-साथ ब्रम्हवादिनी महिलाओं का भी नाम आता है। इनमें विश्ववारा लोप, मुद्रा, घोषा, इन्द्राणी, देवयानी आदि प्रमुख महिलाएं हैं।
‘‘एक तरफ जहां भारतीय संस्कृति में नारी को सदा ऊंचा स्थान मिला है। नारी को मर्यादा के क्षेत्र में पुरूषों से अधिक श्रेष्ठ माना गया है, तथा स्त्री और श्री में
कोई भेद नहीं किया गया है।’’ वहीं उसी नारी के साथ अत्याचारों का सिलसिला शुरू हो चुका था। नारी के ऊपर तरह-तरह की बंदिसें जैसे-पर्दे में रहना, पुरूषों की आज्ञा का पालन करना, प्रति उत्तर न देना, चारदीवारी में रहना आदि। इन सब बंदिसों ने नारी को नारी से भोग्या के रूप में परिवर्तित कर दिया, तब नारी मात्र संतान पैदा करने की मशीन के रूप में प्रयोग की जाने लगी। द्वापर में द्रौपदी के साथ जैसा हुआ वैसा किसी भी युग की नारी के साथ देखने को नहीं मिलता हैं। वह विवाहिता हुई अर्जुन की, और पांच पाण्डवों में बंटी।
किसी वस्तु की तरह जुए में दांव पर लगा दी गई, और हारने के उपरांत दुर्योधन के हाथों में ऐसे सौंप दी गई जैसे किसी कसाई के हाथों में बकरी सौंप दी जाती है।
हालांकि उत्तर वैदिक काल ईसा के 600 वर्ष पूर्व से लेकर ईसा के 300 वर्ष बाद तक का युग उत्तर वैदिक काल कहा जाता है। इस काल में महिलाओं की स्थिति में गिरवट आने लगी थी। वैदिक काल में पिण्डदान इत्यादि के लिए पुत्र जन्म की कामना रहती थी, लेकिन पुत्री के जन्म पर भी कोई विशेष आपत्ति नहीं होती थी। उत्तर वैदिक युग में पुत्री के जन्म को बुरा माना जाने लगा। इस युग में महिलाओं के धार्मिक अधिकारों को सीमित कर दिया गया। ‘‘इस काल में महिलों को यज्ञादि कर्मो, बाल विवाहों का प्रचलन तथा विधवा पुनर्विवाह पर रोक लगाना शुरू हो गया था।’’ अनुलोम-प्रतिलोम विवाहों के प्रतिबंध, स्त्री शिक्षा को सीमित करना, उपनयन संस्कार की औपचारिकता, कर्मकाण्डों की जटिलता की शुरूआत इसी काल में हुई। मनु और याज्ञवल्क्य जैसे स्मृतिकारों के द्वारा महिलाओं पर प्रतिबंधात्मक निर्देश तथा पतिव्रत धर्म का पालन करना, और पति को परमेश्वर का रूप माना जाना आदि के निर्देश दिए गए। इस युग में वैदिक युग का प्रभाव बना हुआ था। इस कारण से उनकी स्थिति विपरीत रूप से अधिक प्रभावित नहीं हो सकी। इससे केवल अशिक्षित और अल्प-शिक्षित तथा निम्न वर्ग की स्त्रियां ही प्रभावित हुई। अभिजात वर्ग की कुलीन महिलाएं अपनी शिक्षा और सम्पन्नता के बल पर पुरूषों के साथ समानता का व्यवहार पाती थी।
गौर तलब है कि 11वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी के काल को मध्यकाल कहा जा सकता है। इस काल को स्त्रियों की दृष्टिकोण में काला युग कहा जा सकता है। भारत में राजाओं की आपसी फूट का फायदा मुसलमानों ने उठाया और भारत देश पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया। कुछ एक बादशाहों ने जोर-जबरदस्ती करके धर्म परिवर्तन करवाया तथा महिलाओं के साथ ज्यादतियां शुरू कर दी। जिसके परिणामस्वरूप ‘हिन्दुओं ने स्त्रियों पर अनेक प्रतिबंधात्मक निर्देशों और स्मृतिकारों की मनगढ़न्त बातों को धार्मिक स्वीकृति प्रदान की गई।’ यह भी कहा गया कि, स्त्री को कभी अकेली नहीं रहना चाहिए उसे हमेशा किसी न किसी के संरक्षण में ही रहना चाहिए। ‘‘बाल्यावस्था में पिता के, युवावस्था में पति के और वृद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में रहने का विधान भी इसी युग में दिया गया।’’ इस काल में नारी की दशा दयनीय हो गई। ‘‘पर्दा प्रथा ने नारी को घर की चारदीवारी की कैद में रहने के लिए मजबूर कर दिया, और बाल विवाहों का बाहुल्य हो गया तथा शिक्षा के द्वारा उसके लिए लगभग बंद कर दिये गयें। इसके साथ-साथ सती-प्रथा भी अपने शिखर पर पहुंच गई थी।’’ इस काल में महिलाओं को घर के कामकाज तक ही सीमित कर दिया गया। ‘पति परमेश्वर’ ‘पतिव्रत धर्म’ और पति के आदेशों पर महिलाओं को चलने की नैतिकता का कड़ाई से पालन इसी काल में हुआ। वस्तुतः मध्यकाल में स्त्रियों की स्वतंत्रता सब प्रकार से छीन ली गई और उन्हें जन्म से मृत्यु तक पुरूषों के अधीन कर दिया गया।
यदि इसे भारतीय नारी का दुर्भाग्य कहें या कुछ और कि उसे एक तरफ देवी बनाकर पूजा जाता है, तो दूसरी ओर सेविका बनाकर शोषण किया जाता है। एक युग था, जब नारी को पत्थर की मूर्तियों के भेंट चढ़ाया जाता था और अंत में वेश्यालयों में बेच दिया जाता था। आज भी दक्षिण भारत में कुंआरी कन्याओं का विवाह पूर्व मंदिरों में किया जाता है तथा उनका पण्डों द्वारा शोषण होता है। यह सभ्य समाज में पुरूष प्रधान व्यवस्था के कारण है। पुरूष अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए नारी का उपयोग एक वस्तु की तरह करता आया है। अतिथि को देवता समझकर भोजन और मदिरा की तरह रात को कुंआरी कन्या का सौंपना क्या था। इन सब के पीछे पुरूष की कामुक भावना और चतुराई काम करती है। पुरूष ने स्त्री के खून में यह भावना, संस्कार की तरह कूट-कूटकर भर दी है कि वह सिर्फ और सिर्फ शरीर है। शरीर के सिवा पुरूष किसी और पहचान से इंकार करता है। वही पन्त कहते हैं कि, ‘‘योनि मात्र रह गई मानवी।’’ और ‘‘कंकाल’ उपन्यास में प्रसाद ने स्वीकार किया है कि, ‘‘पुरूष नारी को उतनी ही शिक्षा देता है, जितनी उसके स्वार्थ में बाधक न हो।’’ तभी तो कन्याओं को जन्म लेते ही मार दिया जाता था। अब विज्ञान भी ‘‘औरत को मारने के तथा उसे जड़ से मिटाने के नित नए तरीके ईजाद करता जा रहा है। यदि भू्रण को ही मार दिया जाए तो शिशु को मारने की नौवत नहीं आएगी।
एक भयानक सच यह भी है कि हमारे सभ्रांत समाज में आज भी बेटियों को टेंटुआ दबाकर मार दिया जाता है। बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में बेटी का जन्म होते ही, उसे पैदा करवाने वाली दाई कुछ अतिरिक्त पैसा लेकर नवजात का गला दबाकर, उसे आक का दूध पिलाकर, धान की भूसी मुंह में डालकर या सुतली गले में लपेटकर, उसे मरोड़कर अथवा सर्दी के दिनों में गीला कपड़ा लपेटकर बच्ची की जान ले ली जाती हैं।’’ इसका एक मात्र कारण ‘‘समाज में औरतों को बराबरी का दर्जा न मिल पाना/मिल सके।’’ क्योंकि पुरूष आज भी नहीं चाहता कि, नारी उसके समकक्ष आकर खड़ी हो। ‘‘हमारे समाज में औरतों पर लगी पाबंदियां आज भी ज्यों की त्यों हैं। पुरूष चार जगह प्रेम करें या तीन शादियां, वह स्वतंत्र है। उसे समाज बहिष्कृत नहीं करता। उसे कुलटा और करमजली नहीं कहा जाता। औरत यदि अपना जीवन अपने अनुसार बिताना चाहे तो सारे नियम बदल जाते हैं।’’ उसे तरह-तरह के नामों से संबोधित किया जाता है जिसको नारी कभी सपने में नहीं सोच सकती कि जिस पुरूष पर अपना सब कुछ निछावर कर देती है, वही पुरूष उसके साथ अत्याचार करता है। और नारी की विवसता का अनुचित लाभ उठाने से भी नहीं चूकता।
वर्तमान परिवेश में तो नारी पर दहेज के नाम पर, बलात्कार का शिकार बनाकर, मारपीट करके अपना गुलाम बनाना आम बात हो चुकी है। बहुत बार तो ‘‘परिवारों में महिला को निकटतम् संबंधियों की भूख का शिकार होना पड़ता है।’’ जिनसे वो आस लगती हैं अपनी सुरक्षा की, वो ही ईज्जत का तार-तार करते रहते हैं। जिसको अपना नसीब मानकर जुल्मों को बर्दास्त करती है और ईश्वर से जरूर कहती है कि ‘‘अगले जनम मोहे बिटिया न की जो।’’
संदर्भ-ग्रंथ
1. ब्होरा, आशा रानी, प्राचीन काल से मध्यकाल तक, srijangatha.com , 1 नवम्बर, 2007
2. पुरूषों को भी न्याय मिले, सरोकार की मीडिया, gajendra-shani.blogspot.com, 21 मई, 2010
3. वैदिक काल,
//hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%95_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
4. भारत में महिलाएं, वही
5. लता, डॉ. मजु, अनुसूचित जाति में महिला उत्पीड़न, अर्जुन पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 2010, पृ. 5
6. कौर, डॉ. अजुमन दीप, कामकाजी नारीः उपलब्धि और संताप के दायरों में, दीपक पब्लिशर्ज़, 2006,पृ. 29
7. कृष्णकांत, सुमन, शीला झुन झुनवाला, इक्कीसवीं सदी की ओर, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2001, पृ. 25
8. पाटिल, डॉ. अशोक डी., डॉ. एस.एस. भदौरिया, भारतीय समाज, 2007, मध्य प्रदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल
9. सिंह, चेतन, चन्द्र, क्या अपराध है औरत होना?, ग्रंथ विकास, जयपुर, 2009, पृ. 17
10.
वही, पृ. 30
11. वर्मा, डॉ. ओ.पी., भारतीय सामाजिक व्यवस्था, विकास प्रकाशन, कानपुर, 2004, पृ. 371
12. लता, डॉ. मजु, अनुसूचित जाति में महिला उत्पीड़न, अर्जुन पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 2010, पृ. 6
13. यादव, राजेन्द्र, आदमी की निगाह में औरत, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2007, पृ. 15
14. वही
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16. वही, पृ. 14
17. वही, पृ. 31
18. जैन, डां. सुधा, आधुनिक नारी दशा और दिशाएं, सूर्य भारती प्रकाशन, दिल्ली, 2004, पृ.
46
19. सिंह, चेतन, चन्द्र, क्या अपराध है औरत होना?, ग्रंथ विकास, जयपुर, 2009, पृ. 51