स्वतंत्र पत्रकारिता से आप क्या समझते हैं - svatantr patrakaarita se aap kya samajhate hain

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अब स्वतंत्र पत्रकारिता की रक्षा कौन करेगा मिस्टर मीडिया?

आंचलिक पत्रकारों की यह संघर्ष भावना यकीनन सम्मान की हकदार है। अफसोस है कि मुख्यधारा की पत्रकारिता में इस महत्वपूर्ण मुद्दे को व्यापक समर्थन नहीं मिला।

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Published - Wednesday, 27 April, 2022

Last Modified:
Wednesday, 27 April, 2022

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।  

उत्तर प्रदेश में एक के बाद एक लगातार परीक्षाओं के प्रश्नपत्र लीक हुए। जब पत्रकारों ने यह खबर छापी तो पुलिस ने उनके खिलाफ सख्त धाराएं लगाकर जेल में डाल दिया। इसके विरोध में पत्रकार सड़कों पर आते हैं। जब अदालत ने पुलिस की धाराओं का परीक्षण किया तो पाया कि यह पत्रकारों का उत्पीड़न है और उन धाराओं की जरूरत ही नहीं है। पत्रकारों को इसके बाद छोड़ दिया गया।

इससे पहले पुलिस और प्रशासन पत्रकारों से प्रश्नपत्र लीक होने का स्त्रोत जानने के लिए दबाव डालता रहा। अब पत्रकार जमानत पर बाहर हैं। आजमगढ़ पत्रकारों के विरोध का केंद्र बिंदु बना रहा। वहां के डॉक्टर अरविन्द सिंह ने इसका नेतृत्व किया।

आंचलिक पत्रकारों की यह संघर्ष भावना यकीनन सम्मान की हकदार है। अफसोस है कि मुख्यधारा की पत्रकारिता में इस महत्वपूर्ण मुद्दे को व्यापक समर्थन नहीं मिला। पत्रकारों में अपने पेशे को लेकर इतनी संवेदनहीनता निश्चित ही शर्मनाक है।

ऐसी ही एक घटना कानपुर से मिली है, जहां पुलिस ने एक पत्रकार को निर्वस्त्र करके उसके गले में प्रेसकार्ड डालकर उसे सार्वजनिक रूप से घुमाया। इससे पहले मध्य प्रदेश के सीधी में भी पुलिस ने थाने में पत्रकारों के कपड़े उतरवाकर उनकी तस्वीरें सार्वजनिक कीं। भारतीय हिंदी पत्रकारिता का यह दौर क्रूर कथाएं लिख रहा है और इस पवित्र कार्य से जुड़े अधिकतर लोग चुप्पी साधे हुए हैं। समाज के अन्य बौद्धिक तबके भी समर्थन में खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं। स्थिति यह है कि पड़ोसी के घर हमला होता है तो हम चुप रहते हैं और जब हम पर आक्रमण होता है तो पड़ोसी चुप्पी साधे रहता है।

मुझे याद है कि 1980 में एक जुलूस पर गोलीकांड की मजिस्ट्रेटी जांच की गोपनीय रिपोर्ट हम लोगों ने प्रकाशित की थी तो पुलिस-प्रशासन हम लोगों के खिलाफ ज्यादतियों और उत्पीड़न की लोमहर्षक दबंगई पर उतर आया था। हम लोग प्रदेश की राजधानी में भटके थे और उस समय के तथाकथित बड़े पत्रकारों ने हमें कोई समर्थन नहीं दिया था। मुफस्सिल पत्रकारों का संगठन आंचलिक पत्रकार संघ हमारी मदद के लिए सामने आया। मुख्यमंत्री को विधानसभा में न्यायिक जांच का ऐलान करना पड़ा था।

भारत में पत्रकार उत्पीड़न के मामले में यह पहला था, जिसकी ज्यूडिशियल जांच हुई और हम लोग जीते। यही नहीं, प्रेस काउंसिल ने भी अपनी ओर से इसकी जांच कराई थी। उसमें भी जिला प्रशासन को दोषी माना गया था। आमतौर पर किसी एक मामले की दो अर्ध न्यायिक जांचें नहीं होतीं। मगर, इस मामले में हुईं और पत्रकारों दोनों जांचों में जीते। न्यायिक जांच आयोग ने स्पष्ट कहा था कि पत्रकारों को अपना स्रोत बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

केंद्र और राज्य-दोनों में उन दिनों कांग्रेस की सरकार थी और पत्रकारों को न्याय मिला था। मुझे याद है कि उस मामले में हमारे समर्थन में समाज का हर वर्ग सड़कों पर उतर आया था। वकील, शिक्षक, व्यापारी, डॉक्टर आदि हमारे साथ खड़े थे। केवल सत्ताधारी विधायक हमारे विरोध में थे और जिला प्रशासन को बचा रहे थे। पर, वह काम नहीं आया। आज तक आजाद भारत का यह अपने किस्म का अकेला मामला है।

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की घटनाएं पत्रकारों के लिए सामूहिक संघर्ष का संदेश देती हैं। यही नहीं, हुक़ूमतों के लिए भी इनमें एक चेतावनी छिपी है। अगर वे इस तरह दुर्व्यवहार करती रहीं तो एक दिन वह भी आएगा, जब उनका  सहयोग करने में अवाम भी आगे नहीं आएगी। सच सर चढ़कर बोलता है और झूठ के पांव नहीं होते। दमन का प्रतिरोध करने के लिए तैयार रहिए मिस्टर मीडिया!

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल की 'मिस्टर मीडिया' सीरीज के अन्य कॉलम्स आप नीचे दी गई हेडलाइन्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं-

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विचार की स्वतंत्रता के खिलाफ सियासी षड्यंत्र लोकतंत्र में बर्दाश्त नहीं मिस्टर मीडिया!

हिंदी पत्रकारिता के लिए यकीनन यह अंधकार काल है मिस्टर मीडिया!

एक तरह से यह आचरण पत्रकारिता के लिए आचार संहिता बनाने पर मजबूर करने वाला है मिस्टर मीडिया!

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'इस बड़ी वजह से मीडिया के लिए बेहद अहम रहेगा आने वाला साल'

2022 में मीडिया के कामकाज पर कई सवाल खड़े हुए, खासकर टीआरपी के विवाद को लेकर। मीडिया की विश्वसनीयता इस विवाद से कठघरे में आ खड़ी हुई।

Last Modified:
Monday, 19 December, 2022

विनीता यादव।।

2022 में मीडिया के कामकाज पर कई सवाल खड़े हुए, खासकर टीआरपी के विवाद को लेकर। मीडिया की विश्वसनीयता इस विवाद से कठघरे में आ खड़ी हुई। लेकिन, इसका फायदा उन चैनल्स को हुआ, जिनका नुकसान टीआरपी के आधार पर था। उन्हें व्यापार के लिए कुछ समय मिला। यह स्थिति टीवी के लिए काफी चुनौती वाली थी।

वहीं, डिजिटल मीडिया के लिए वर्ष 2022 बेहतर रहा। लगातार दर्शक बढ़ते रहे और कई राज्यों खासकर जनसंख्या में सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के चुनाव ने साल की शुरुआत में सबको व्यस्त रखा, जिससे कई डिजिटल चैनल्स को काफी फायदा हुआ। कई पत्रकारों ने प्रेरित होकर अपने चैनल शुरू कर दिए और उन्होंने इसी दौरान लाखों व्युअर्स को अपने साथ जोड़ भी लिया। 

हालांकि, कोरोना महामारी के चलते कई साथियों को वर्ष 2021 में खोने के बाद किसी तरह मीडिया वापस अपनी पटरी पर आया। वो कहते हैं न कि ‘शो मस्ट गो ऑन ‘ की विचारधारा पर आगे बढ़ने लगा। मेरी नजर में वर्ष 2023 भी मीडिया के लिए बेहद अहम रहेगा, क्योंकि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले तमाम चैनल व्यस्त रहेंगे और 2023 में भी कई राज्यों जैसे-राजस्थान, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ में चुनाव हैं।

आजकल तमाम न्यूज चैनल्स चाहे टीवी हो या डिजिटल, सबसे ज्यादा राजनीति की खबरों पर ही व्यस्त होते हैं तो वर्ष 2023 काफी व्यस्त रहने वाला है। क्योंकि चुनाव सिर्फ खबर नहीं व्यापार भी है।

(यह लेखिका के निजी विचार हैं। लेखिका डिजिटल न्यूज प्लेटफॉर्म ‘न्यूज नशा’ की एडिटर-इन-चीफ और सीईओ हैं।

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वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष चतुर्वेदी के नजरिये से जानिए साल 2022 की कुछ खट्टी-मीठी यादें

आप पसंद करें या न करें, न्यू मीडिया से आप बच नहीं सकते हैं। अखबार हैं और रहेंगे। न्यूज चैनल्स हैं और रहेंगे, लेकिन मोबाइल पर वॉट्सऐप या फेसबुक के जरिये जो सूचनाएं आप तक पहुंच रही हैं, वे बढ़ेंगी।

Last Modified:
Monday, 19 December, 2022

आशुतोष चतुर्वेदी।।

देश के सभी अखबार कागज के दामों में अभूतपूर्व वृद्धि के कारण संकट के दौर से गुजर रहे हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध ने इस संकट में आग में घी का काम किया है। हालांकि, कोरोना काल के दौरान ही अखबारी कागज की किल्लत शुरू हो गई थी। इस दौरान दुनिया भर में अनेक पेपर मिल बंद हो गईं, जिसके कारण अखबारी कागज की कमी हो गई और इसकी कीमतों में भारी वृद्धि होनी शुरू हो गई थी।

यूक्रेन युद्ध के कारण रूस पर तमाम प्रतिबंध लग गए, जिससे रूस से अखबारी कागज की आपूर्ति पूरी तरह से बंद हो गई। इससे रही सही कसर भी पूरी हो गई है। भारत अपनी अखबार कागज की जरूरतों का 50 फीसदी से ज्यादा विदेश से आयात करता है, बाकी 50 फीसदी देश की अखबारी मिलों से आपूर्ति होती है।

आप पसंद करें या न करें, न्यू मीडिया से आप बच नहीं सकते हैं। अखबार हैं और रहेंगे। न्यूज चैनल्स हैं और रहेंगे, लेकिन मोबाइल पर वॉट्सऐप या फेसबुक के जरिये जो सूचनाएं आप तक पहुंच रही हैं, वे लगातार बढ़ेंगी। फेक न्यूज और प्रोपेगंडा आज के कड़वे सच हैं। ऐसे में प्रामाणिक खबरों की जरूरत बढ़ेगी, लेकिन यह जान लीजिए कि लोग आज भी अच्छी पत्रकारिता को महत्व देते हैं और आपदाओं अथवा बड़ी घटनाओं पर समाचार माध्यमों से चिपके रहते हैं।

लोग समाचार पढ़ना-देखना चाहते हैं, लेकिन वे तत्काल इसे जानना चाहते हैं। यूक्रेन युद्ध का उदाहरण हमारे सामने हैं। देश के टीवी पत्रकारों ने जान हथेली पर रखकर युद्धभूमि से शानदार रिपोर्टिंग की और लोगों ने इसे सराहा। कोरोना काल से पहले मुझे ‘बीबीसी’ के लंदन में आयोजित एक सेमिनार में शामिल होने का मौका मिला। उसमें एक बात बड़ी दिलचस्प सामने आयी कि कंटेट अब भी महत्वपूर्ण है, लेकिन उसका प्रचार प्रसार भी उतना ही महत्वपूर्ण हो गया है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक ‘प्रभात खबर’ के प्रधान संपादक हैं।)

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'छियालीस साल की पत्रकारिता में पहली बार मैंने इस तरह की विभाजन रेखा इस बरस देखी'

स्वभाव से मैं कभी भी निराशावादी नहीं रहा। जिंदगी में कई बार आशा और निराशा के दौर आए और चले गए, लेकिन यह साल जिस तरह पत्रकारिता और पत्रकारों को बांटकर जा रहा है, वह अवसाद बढ़ाने वाला है।

Last Modified:
Monday, 19 December, 2022

राजेश बादल।।

स्वभाव से मैं कभी भी निराशावादी नहीं रहा। जिंदगी में कई बार आशा और निराशा के दौर आए और चले गए, लेकिन यह साल जिस तरह पत्रकारिता और पत्रकारों को बांटकर जा रहा है, वह अवसाद बढ़ाने वाला है। ऐसा लगता है कि यह दौर थोड़ा लंबा चलेगा। पर, जब यह कुहासा छंटेगा, तब तक पत्रकारिता को बड़ा नुकसान हो चुका होगा। इस साल ने भारत के तथाकथित चौथे स्तंभ को जिस तरह खंडों में विभाजित किया है, वह हुक्मरानों की सेहत के लिए तो फायदेमंद है, मगर लोकतंत्र की नींव को सौ फीसदी कमजोर करने वाला है।

अखबारों के संपादक अब कसमसाते हुए अपने संस्करण निकालते हैं। संपादकीय लिखते हुए विषय नहीं, बहुत सारी लक्ष्मण रेखाएं दिमाग के आर-पार जाती हैं। तमाम टीवी चैनल्स के मुखिया जानते हैं कि वे अपनी भूमिका के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। अब उनके सामने अपने हित सर्वोपरि होते हैं। चैनल मालिक अपना हित देखता है और पत्रकार अपना। वह मालिक के बड़े जूते में अपना पैर डाल देता है।

यही वजह है कि पत्रकारिता के हित हाशिए पर हैं। आज महात्मा गांधी जैसा साहस किसके पास है, जो 1919 में अंग्रेजी शासकों के कानून की धज्जियां उड़ाते हुए अखबार निकाल सकते थे और ऐलान कर सकते थे कि न मैं परदेसी शासकों से समाचार पत्र निकालने की इजाजत लूंगा और न ही एक भी शब्द लिखने की अनुमति मांगूंगा। आजादी के बाद भी राजेंद्र माथुर, गिरिलाल जैन, सुरेंद्र प्रताप सिंह और प्रभाष जोशी जैसे रौशनदान हमारे सामने रहे। उनके रहते भी तमाम सियासी और बाजार के दबाव होते थे, लेकिन उनका होना ही इन दबावों का विनाश कर देता था।

छियालीस साल की पत्रकारिता में पहली बार मैंने इस तरह की विभाजन रेखा इस बरस देखी। कभी गोरी हुकूमत ने अपने स्वार्थों के लिए हिंदुस्तान के समाज को बांट दिया था। मौजूदा कालखंड भी सियासत के हाथों हमें बांट रहा है और हम बेखबर हैं। हम अपने घर में छिपे इस अदृश्य दुश्मन को कैसे पहचानें? इस साल यह अपने सबसे विकराल रूप में सामने आया।

किससे तू जंग छेड़ता, कुछ गौर से तो देख/

है दुश्मनों की फौज, तेरे घर में छिपी हुई/

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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'मीडिया के लिए सबसे खराब रहा 2022, इन मायनों में बेहतर रहेगा नया साल'

पिछले पांच सालों में देखें तो वर्ष 2022 मीडिया के लिए सबसे खराब साल रहा, जबकि इस साल से उम्मीदें सबसे ज्यादा थीं।

Last Modified:
Monday, 19 December, 2022

शमशेर सिंह।।

पिछले पांच सालों में देखें तो वर्ष 2022 मीडिया के लिए सबसे खराब साल रहा, जबकि इस साल से उम्मीदें सबसे ज्यादा थीं। लगातार दो साल कोरोना की चपेट में रहा। उसके बाद उम्मीद की जा रही थी कि यह साल बेहतर होगा। करीब एक साल से ज्यादा समय से बंद टीआरपी भी फिर से शुरू होनी थी, कोरोना से उबरने के बाद रेवेन्यू को लेकर उम्मीदें थीं और जाहिर सी बात है कि जॉब की सुरक्षा का मामला भी था। जॉब के विकल्प और अवसर भी बढ़ते।

वर्ष 2022 में कई नए प्लेयर्स की भी एंट्री होनी थी। यानी सब गदगद थे 2022 को लेकर। उम्मीदें आसमान पर थीं। प्रमोटर की भी, रेवेन्यू से जुड़े लोगों की भी, जॉब करने वालों की भी और जॉब तलाशने वालों की भी।

शुरुआत अच्छी रही, टीआरपी आई, एक विश्वास बना फिर से, रेवेन्यू भी बढ़ा, डिजिटल एक्सपेंशन खूब हुआ, लोगों ने खूब जॉब स्विच किए, भर्तियाँ खूब रहीं, खूब ब्रेक मिले। हर जगह अप्रैजल भी ठीक हुए।   हालत ये थी कि लोगों को उस नौकरी में बनाए रखना मुश्किल हो रहा था। लेकिन ये चमक जून के बाद से फीकी पड़ने लगी।

अगस्त तक तो हालात काफी खराब हो गई। टीआरपी को लेकर सवाल उठने लगे, रेवेन्यू,टारगेट से काफी कम आने लगा, हालत बिगड़ने लगी। अक्टूबर आते-आते स्थिति बदतर हो गई। कई चैनल ‘बार्क’ से बाहर हो गए, ‘बार्क’ संदेह के घेरे में आ गया। रेवेन्यू और गिर गया। और फिर कॉस्ट कटिंग के नाम पर छंटनी शुरू हो गई। जिस रफ्तार से साल के शुरू में विस्तार और जॉब के अवसर बढ़े थे, उससे दोगुनी रफ्तार में चैनल बंद होने शुरू हुए। सैकड़ों लोगों को रातों रात निकाल दिया गया। कई संस्थानों ने सैलरी कट की।

रही बात 2023 की तो नए साल को लेकर काफी आशान्वित हूं। इतनी उम्मीद तो है कि आने वाला साल इस साल से बेहतर होगा। कुछ बड़े प्लेयर्स आ रहे हैं। नौकरियों के अवसर बढ़ेंगे। कई लोग जो अभी बेरोजगार हुए हैं, वो सैटल हो जाएंगे। आम चुनाव का माहौल बनना शुरू हो जाएगा, रेवेन्यू पर असर पड़ेगा और इसमें बढ़ोतरी होगी।

अप्रैजल को लेकर शक है। एक-दो को छोड़ शायद ही कोई ऑर्गेनाइजेशन अपने एंप्लॉयीज को अप्रैजल या Variable pay देने की सोचेगा भी। बार्क को लेकर भी अच्छी खबर आ सकती है। नए सिरे से सब इससे जुड़ सकते हैं। डिजिटल का जबर्दस्त विस्तार होगा। हर लिहाज से डिजिटल बढ़ेगा। कुल मिलाकर यही कह सकते है कि इस साल की क्षतिपूर्ति वर्ष 2023 में होने की उम्मीद है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक हिंदी न्यूज चैनल ‘भारत24’ के मैनेजिंग एडिटर हैं।)

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डॉ. वैदिक ने बताया- चुनाव में जीत से गदगद तीनों पार्टियों को कैसे मिला सबक

गुजरात, दिल्ली और हिमाचल के चुनाव परिणामों का सबक क्या है? दिल्ली और हिमाचल में भाजपा हारी है और गुजरात में उसकी ऐतिहासिक विजय हुई है।

Last Modified:
Friday, 09 December, 2022

डॉ. वेदप्रताप वैदिक, वरिष्ठ पत्रकार ।।

तीनों पार्टियां गदगद: तीनों को सबक

गुजरात, दिल्ली और हिमाचल के चुनाव परिणामों का सबक क्या है? दिल्ली और हिमाचल में भाजपा हारी है और गुजरात में उसकी ऐतिहासिक विजय हुई है। हमारी इस चुनाव-चर्चा के केंद्र में तीन पार्टियां हैं- भाजपा, कांग्रेस और आप! इन तीनों पार्टियों के हाथ एक-एक प्रांत लग गया है।

दिल्ली का चुनाव तो स्थानीय था लेकिन इसका महत्व प्रांतीय ही है। दिल्ली का यह स्थानीय चुनाव प्रांतीय आईने से कम नहीं है। दिल्ली में आप पार्टी को भाजपा के मुकाबले ज्यादा सीटें जरूर मिली हैं, लेकिन उसकी विजय को चमत्कारी नहीं कहा जा सकता है। भाजपा के वोट पिछले चुनाव के मुकाबले बढ़े हैं लेकिन आप के घटे हैं। आप के मंत्रियों पर लगे आरोपों ने उसके आकाशी इरादों पर पानी फेर दिया है।

भाजपा ने यदि सकारात्मक प्रचार किया होता और वैकल्पिक सपने पेश किए होते तो उसे शायद ज्यादा सीटें मिल जातीं। भाजपा ने तीनों स्थानीय निगमों को मिलाकर सारी दिल्ली का एक स्थानीय प्रशासन लाने की कोशिश इसीलिए की थी कि अरविंद केजरीवाल के टक्कर में वह अपने एक मजबूत महापौर को खड़ा कर दे। भाजपा की यह रणनीति असफल हो गई है। कांग्रेस का सूंपड़ा दिल्ली और गुजरात, दोनों में ही साफ हो गया है।

गुजरात में कांग्रेस दूसरी पार्टी बनकर उभरेगी, यह तो लग रहा था लेकिन वह इतनी दुर्दशा को प्राप्त होगी, इसकी भाजपा को भी कल्पना नहीं थी। भाजपा के पास गुजरात में न तो कोई बड़ा चेहरा था और न ही राहुल गांधी वगैरह ने चुनाव-प्रचार में कोई सक्रियता दिखाईं। सबसे ज्यादा धक्का लगा, आम आदमी पार्टी को! गुजरात में आम आदमी पार्टी ने बढ़-चढ़कर क्या-क्या दावे नहीं किए थे, लेकिन मोदी और शाह ने गुजरात को अपनी इज्जत का सवाल बना लिया था।

मुझे याद नहीं पड़ता कि भारत के किसी प्रधानमंत्री ने अपने प्रांतीय चुनाव में इतना पसीना बहाया हो, जितना मोदी ने बहाया है। आप पार्टी का प्रचारतंत्र इतना जबर्दस्त रहा कि उसने भाजपा के पसीने छुड़ा दिए थे। अरविंद केजरीवाल का यह पैंतरा भी बड़ा मजेदार है कि दिल्ली का स्थानीय प्रशासन चलाने में उन्होंने मोदी का आशीर्वाद मांगा है। इस चुनाव में आप पार्टी को अपेक्षित सफलता नहीं मिली, लेकिन उसकी अखिल भारतीय छवि को मजबूती जरूर मिली है। ऐसा लगता है कि 2024 के आम चुनाव में मोदी के मुकाबले अरविंद केजरीवाल का नाम सशक्त विकल्प की तरह उभर सकता है। फिर भी इन तीनों चुनावों में ऐसा संकेत नहीं मिल रहा है कि 2024 में मोदी को अपदस्थ किया जा सकता है।

दिल्ली और हिमाचल में भाजपा की हार के असली कारण स्थानीय ही हैं। मोदी को कांग्रेस जरूर चुनौती देना चाहती है, लेकिन उसके पास न तो कोई नेता है और न ही नीति है। हिमाचल में उसकी सफलता का असली कारण तो भाजपा के आंतरिक विवाद और शिथिल शासन है। जब तक सारे प्रमुख विरोधी दल एक नहीं होते, 2024 में मोदी को कोई चुनौती दिखाई नहीं पड़ती। इन तीनों चुनावों ने तीनों पार्टियों को गदगद भी किया है और तीनों को सबक भी सिखा दिया है।

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'नई नहीं है मीडिया में पूंजीपति घरानों और सत्ता की भूमिका'

एक बार फिर हंगामा। मीडिया में कारपोरेट समूह और सत्ता की राजनीति के प्रभाव को लेकर सोशल मीडिया तथा अन्य मंचों पर विवाद जारी है।

by आलोक मेहता
Published - Monday, 05 December, 2022

Last Modified:
Monday, 05 December, 2022

आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार।।

एक बार फिर हंगामा। मीडिया में कारपोरेट समूह और सत्ता की राजनीति के प्रभाव को लेकर सोशल मीडिया तथा अन्य मंचों पर विवाद जारी है। न्यूज चैनल एनडीटीवी कंपनी को अडानी ग्रुप द्वारा ख़रीदे जाने पर एक वर्ग आशंका व्यक्त कर रहा है कि यह काम सत्ता के इशारे पर हो रहा है, क्योंकि यह चैनल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की नीतियों, कामकाज पर निरंतर अभियान सा चलाते दिखता रहा है।

कुछ अति प्रगतिशील लोग इसे मीडिया में पूंजीपतियों के समूहों द्वारा प्रभावित होने के खतरे की आवाज उठा रहे हैं। लेकिन क्या भारत में पहली बार औद्योगिक व्यापारिक समूह मीडिया में प्रवेश कर रहा है? असली पृष्ठभूमि का अध्ययन किया जाए तो यही तथ्य सामने आएगा कि आजादी के बाद से बिड़ला, डालमिया, गोयनका और टाटा जैसे बड़े समूह मीडिया और राजनीति से जुड़े रहे हैं। नब्बे के दशक से अंबानी समूह भी मैदान में आ गया। इसी तरह मोदी के समर्थन और विरोध को लेकर मीडिया में विभाजन पर भी क्यों आश्चर्य होना चाहिए? क्या पहले सत्तारूढ़ कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों और सरकारों के प्रबल समर्थन और विरोध वाला मीडिया या संपादक नहीं थे?

इसमें कोई शक नहीं कि दिल्ली, मुंबई, कोलकाता में बिड़ला, गोयनका, डालमिया-जैन परिवारों के मीडिया संस्थानों का दबदबा और कुछ हद तक टाटा समूह और ट्रस्ट के प्रभाव वाले प्रकाशन का असर था। दिलचस्प बात यह थी कि ऐसे बड़े पूंजीपति और उनके मीडिया संस्थान कभी सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी और सरकार के शीर्ष नेताओं के करीब रहे और कभी सबसे बड़े विरोधी बनकर उभरे। इनमें रामनाथ गोयनका और उनके इंडियन एक्सप्रेस को सबसे अग्रणी कहा जा सकता है।

यों रामनाथ गोयनका को सत्ता से टकराने वाले बड़े सेनापति के रूप में याद कराया जाता है, लेकिन असलियत यह है कि वह स्वयं कांग्रेस पार्टी की आंतरिक राजनीति के भागीदार भी थे। नेहरू युग से वह कांग्रेस नेतृत्व की खींचातानी में सक्रिय भूमिका निभाते रहे। लाल बहादुर शास्त्री के बाद मोरारजी देसाई के बजाय इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनवाने के अभियान में शामिल रहे। फिर कुछ वर्षों के बाद घोर विरोधी बनकर मोरारजी देसाई और जयप्रकाश नारायण के साथ सक्रिय राजनीति तथा अपने अखबारों का उपयोग करते रहे। गोयनका स्वयं लोक सभा के चुनाव भी लड़े। इस दृष्टि से इंदिरा गांधी और उनके समर्थक एक्सप्रेस की पत्रकारिता को पूरी तरह निष्पक्ष नहीं मानकर राजनीतिक पूर्वाग्रहों पर आधारित एवं सत्ता विरोधी ठहराते रहे।

गोयनका के विरोधाभासी कदमों का अहसास बहुत रोचक है। जब वह नेहरू के करीबी थे, तो उन्होंने उनके एसोसिएटेड प्रेस लिमिटेड के अखबार नेशनल हेराल्ड के लिए लखनऊ में करीब दो लाख रुपये की प्रिटिंग प्रेस उपहार में दे दी। फिर उनके दामाद फिरोज गांधी को एक्सप्रेस के प्रबंधन में नौकरी दे दी। फिरोज गांधी आधे दिन एक्सप्रेस में काम करते और बाद में संसदीय कामकाज करते। इसका लाभ यह हुआ कि उन्होंने संसदीय कार्यवाही के उचित प्रकाशन पर अखबारों को विशेषाधिकार हनन की कार्रवाई से बचाने का ‘निजी विधेयक’ संसद में रखा।

फिरोज गांधी ने नेहरू से पारिवारिक रिश्तों के बावजूद अपनी सरकार की गड़बड़ियों के विरुद्ध आवाज उठाई। दूसरी तरफ बीमा कंपनयों पर नियंत्रण के लिए बीमा संशोधन विधेयक लाने में अहम भूमिका निभाई। इससे डालमिया बीमा कंपनी जांच-पड़ताल के घेरे में आ गई। मूंधड़ा समूह को सरकार से अनुचित लाभ मिलने का मुद्दा उठाने से वित्त मंत्री टी.टी. कृष्णमाचारी रामनाथ गोयनका के मित्र थे, नाराज होकर गोयनका ने फिरोज गांधी को नौकरी से बर्खास्त कर दिया।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर असली हमले सत्ताधारियों के साथ बड़े मालिकों द्वारा होते रहे हैं। बहरहाल, इंदिरा गांधी ने मुश्किल के दिनों में अपने पति फिरोज गांधी को नौकरी देने का अहसान हमेशा याद रखा। गंभीर मामलों और सीधे टकराव के बावजूद इमरजेंसी में गोयनका की गिरफ्तारी जैसे कदम नहीं उठाए गए। इसी तरह बाद में संजय गांधी की दुर्घटना में असामयिक मृत्यु पर गहरी संवदेना देने के लिए गोयनका भी पहुंचे। गोयनका ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के प्रारंभिक सत्ताकाल में उनका समर्थन किया।

नेहरू-इंदिरा परिवार से संबंधों के बावजूद राजनीतिक धारा अपने अनुकूल नहीं होने के कारण गोयनका और एक्सप्रेस समूह ने 1973-74 से इंदिरा सरकार की कुछ विफलतओं तथा भ्रष्टाचार के मामलों के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया। गोयनका श्रीमती गांधी द्वारा नीलम संजीव रेड्डी के बजाय वी.वी. गिरि को राष्ट्रपति बनवाए जाने से भी खफा थे। ललित नारायण मिश्र-तुलमोहन राम भ्रष्टाचार कांड, गुजरात और बिहार में महंगाई,बेरोजगारी और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को लेकर एक्सप्रेस के तेवर गर्म होते चले गए।

इसका असर दिल्ली तथा प्रादेशिक राजधानियों के अखबारों-पत्रिकाओं पर भी देखने को मिला। गुजरात के नव निर्माण आंदोलन में युवाओं की भूमिका महत्वपूर्ण थी। इसी तरह बिहार में छात्र युवा संघर्षवाहिनी को जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व मिल गया। जयप्रकाश जी के अभियान के समर्थन के लिए रामनाथ गोयनका ने इंडियन एक्सप्रेस के अलावा साप्ताहिक अखबार ‘एवरीयेन्स’ और हिंदी में ‘प्रजानिति’ शुरू किए। गांधीवादी पत्रकार अजीत भट्टाचार्य को अंग्रेजी तथा दिनमान के संस्थापक संपादक अज्ञेय को हिंदी साप्ताहिक का संपादक नियुक्त किया गया। दोनों बुद्धजीवी सैद्धांतिक आधार पर तीखी टिप्पणियों से पाठकों को सत्ता की गड़बड़ियों के विरोध की आवश्यकता निरुपित करते रहे।

जनता पार्टी बिखरने और इंदिरा गांधी की वापसी,राजीव गांधी के अभ्युदय,वी.पी. सिंह, नरसिंह राव, इंदर कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के सत्ता काल तक मीडिया अलग-अलग खेमों के साथ या विरोध में खड़ा दिखने लगा। बदलती उदारवादी अर्थव्यवस्था के साथ मीडिया विचारधाराओं की अपेक्षा बैलेन्स शीट की चिंता करने लगा। सत्ताधारियों से अधिकाधिक लाभ पाने की होड़ हो गई। मतलब अब सत्ताधारी मीडिया की चौखट पर नहीं, अधिकांश बड़े मालिक और संपादक सरकार के दरवाजे पर दस्तक देने लगे। कुछ क्षेत्रीय प्रकाशन इसके अपवाद हैं। उन्होंने अपनी तटस्थता,निष्पक्षता बरकरार रखी। इसे प्रेम-नफरत रिश्तों का दौर कहा जा सकता है। यानी अवसर,लाभ-हानि के साथ सत्ता और मीडिया के रिश्ते बनते-बिगड़ते रहे।

इस पृष्ठभूमि में एक और बिजनेस समूह के मीडिया जगत में प्रवेश पर कष्ट क्यों होना चाहिए? कोई अखबार या न्यूज चैनल वित्तीय संकट में आने पर बिकता है और नया प्रबंधन नए-पुराने स्टाफ को रखकर नए लक्ष्य रखता है तो इससे देश-विदेश में मीडिया का प्रभाव और भारत की छवि ही बनेगी। सत्ता के पक्ष-विपक्ष की स्वतंत्रता पर भी किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन मीडिया की आड़ में अवैध व्यापार, कमाई और संदिग्ध विदेशी फंडिंग होने पर तो कानूनी कार्रवाई उचित ही कही जाएगी। लोकतंत्र में अमृत मंथन होने पर जहर भी निकलता है तो उसे पीने के बजाय नष्ट करना भी जरूरी होगा।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक आईटीवी नेटवर्क, इंडिया न्यूज और दैनिक आज समाज के संपादकीय निदेशक हैं।)

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पत्रकारिता का अनमोल दस्तावेज है राजेंद्र माथुर के ये सात मुद्दे: राजेश बादल

एनडीटीवी के बारे में कल मैंने जो टिप्पणी की, उस पर अनेक मित्रों ने कहा कि इसमें रवीश कुमार का जिक्र होना चाहिए था।

by राजेश बादल
Published - Friday, 02 December, 2022

Last Modified:
Friday, 02 December, 2022

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।

प्रसंग : अस्ताचल की ओर एनडीटीवी, लेख पार्ट- 2

व्यक्ति को संस्था, समाज और देश गढ़ता है

एनडीटीवी के बारे में कल मैंने जो टिप्पणी की, उस पर अनेक मित्रों ने कहा कि इसमें रवीश कुमार का जिक्र होना चाहिए था। वे सच हो सकते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि किसी व्यक्ति का निर्माण करने वाली संस्था बड़ी होती है। इसलिए चिंता इन संस्थाओं के क्षीण और दुर्बल होते जाने पर करनी चाहिए। कुछ संस्थान ऐसे भी हैं, जो सत्ता समर्थक मीडिया की फसल उगा रहे हैं। अर्थ यह कि यदि कोई संस्था चाह ले तो वह लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति का प्रतीक बन सकती है और ढेर सारे गिरि लाल जैन, राजेंद्र माथुर, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, एसपी सिंह, विनोद दुआ, प्रभाष जोशी, अरुण शौरी से लेकर रवीश कुमार तक को रच सकती हैं। मैंने स्वयं भी कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।

यह भी पढ़ें: अस्ताचल की ओर एनडीटीवी, लेख पार्ट- 1

मेरे पत्रकारिता संस्कारों की जब नींव पड़ रही थी तो उसमें राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर, एसपी सिंह, प्रभाष जोशी, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती का बड़ा योगदान रहा। दूसरी ओर हम कुछ संस्थानों के प्रतीक पुरुषों को सत्ता प्रतिष्ठानों की जी हुजूरी करते पाते हैं। वे अपने मातहत ऐसे ही पत्रकारों की पौध विकसित करते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसे तथाकथित पत्रकार पीआर या लाइजनिंग तो कर सकते हैं, लेकिन पत्रकारिता का कर्तव्य अलग है।  

आपातकाल के बाद राजेंद्र माथुर के लिखे सात गंभीर मुद्दे याद आ रहे हैं। भारतीय हिंदी पत्रकारिता का यह अदभुत दस्तावेज है और भारत में अधिनायकवाद पर अंकुश लगाता है। माथुर जी तब ‘नईदुनिया’ में संपादक थे और उनके प्रधान संपादक राहुल बारपुते थे।  करोड़ों नागरिकों के दिलो दिमाग को मथने वाले सवाल राजेंद्र माथुर को भी झिंझोड़ते थे।  उन दिनों बड़े नामी गिरामी पत्रकार व्यवस्था के आगे घुटने टेक चुके थे। लेकिन ‘नईदुनिया’ ने ऐसा नहीं किया। उसके विज्ञापन बंद करने की नौबत आ गई, लेकिन उस समय के प्रबंधन और प्रधान संपादक ने पत्रकारिता के मूल्यों को बचाने का फैसला किया। इस तरह राजेंद्र माथुर का वह अनमोल दस्तावेज सामने आया। मैं अपनी पत्रकारिता के सफर में उस पड़ाव का साक्षी हूं।

आगे बढ़ते हैं। उन्नीस सौ तिरासी में बिहार के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र प्रेस बिल लाए। एक बार फिर अभिव्यक्ति के प्रतीकों पर हमला हमने देखा। देशभर में हम लोग सड़कों पर आए। तब टीवी से अधिक अखबार प्रभावी थे। इंदिरा गांधी जैसी ताकतवर नेत्री प्रधानमंत्री थीं। आपातकाल में सेंसरशिप के लिए खेद प्रकट कर चुकी थीं। उन्होंने सबक सीखा था।  फिर इस देश के लोकतंत्र ने बिहार सरकार को निर्देश दिया कि प्रेस बिल वापस लिया जाए। ऐसा ही हुआ। संस्था ने पत्रकारिता को संरक्षण दिया था।

इसके बाद उन्नीस सौ सतासी आया। तब तक  देश में ‘दूरदर्शन’ जोरदार दस्तक दे चुका था। राजीव गांधी सरकार मानहानि विधेयक लाई। एक बार फिर हम लोगों ने मोर्चा संभाला। राजीव गांधी की सरकार को झुकना पड़ा। विधेयक रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया। आज तो संपादक प्रधानमंत्री के कदमों में बिछ जाते हैं। उस समय पूरा पीएमओ राजेंद्र माथुर से विराट बहुमत वाले प्रधानमंत्री राजीव गांधी का साक्षात्कार लेने का आग्रह करता रहा। लेकिन राजेंद्र माथुर नहीं गए। उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय को बता दिया कि पेशेवर कर्तव्य कहता है कि साक्षात्कार कोई संवाददाता लेगा अथवा संवाददाताओं की टीम का प्रमुख। यह संपादक का काम नहीं है। ऐसा ही हुआ।  

इन्हीं दिनों दूरदर्शन अपनी निष्पक्षता की छटा बिखेर रहा था। एक उदाहरण उसका भी। विनोद दुआ तब एक कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे। उसमें महत्वपूर्ण लोगों के साक्षात्कार दिखाए जाते थे। अशोक गहलोत नए नए केंद्रीय मंत्री बने थे। विनोद जी ने उन्हें बुलाया। अशोक जी को अपने मंत्रालय के बारे में कोई अधिक जानकारी नहीं थी, न ही उन्होंने तैयारी की थी। परिणाम यह कि वे अधिकतर सवालों का उत्तर ही न दे सके। रुआंसे हो गए।  दूरदर्शन पर वैसा ही प्रसारण हुआ। अशोक जी की छबि पर प्रतिकूल असर पड़ा। कुछ राजनेता, मंत्री और सरकार के शुभचिंतक प्रधानमंत्री राजीव गांधी के पास गए। उनसे कहा कि एक बाहरी प्रस्तोता पत्रकार विनोद दुआ हमारे मंच, संसाधन और पैसे का उपयोग करता है और हमारे ही मंत्री का उपहास होता है। राजीव गांधी ने कहा, सवाल उपहास का नहीं है।  मंत्री की काबिलियत का है। अगर किसी मंत्री को अपने मंत्रालय की जानकारी नहीं है तो वह कैसे देश भर का प्रशासन करेगा। अगले दिन अशोक गहलोत का इस्तीफा हो गया। तो यहां संस्था दूरदर्शन और सरकार, दोनों ही पत्रकारिता के अधिकार को संरक्षण दे रही थीं।

क्या आज आप कल्पना कर सकते हैं ? इसी दौर में चुनाव परिणाम तीन चार दिन तक आते थे और दूरदर्शन उनका सजीव प्रसारण करता था। प्रणॉय रॉय और विनोद दुआ की जोड़ी सरकार के कामकाज और मंत्रियों पर ऐसी तीखी टिप्पणियां करती थी कि सत्ताधीश बिलबिला कर रह जाते थे। लेकिन कुछ नही करते थे। स्वतंत्र पत्रकारिता का अर्थ यही था।

कितने उदाहरण गिनाऊं। भारत की पहली साप्ताहिक समाचार पत्रिका ‘परख’ हम लोगों ने 1992 में शुरू की। विनोद दुआ ही उसके प्रस्तोता थे। मैं इस पत्रिका में विशेष संवाददाता था।  दूरदर्शन पर हर सप्ताह प्रसारित होने वाली यह पत्रिका करीब साढ़े तीन साल चली।  मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश से मेरी कम से कम पचास रिपोर्टें ऐसी थीं, जिनसे केंद्र और राज्य सरकारें हिल जाती थीं। परंतु कोई रिपोर्ट न रोकी गई और न सेंसर हुई। हां पत्रकारिता की निष्पक्षता और संतुलन के धर्म का हमने हरदम पालन किया। तो संस्था और सरकार की ओर से कभी दिक्कत नहीं आई।

इसके बाद सुरेंद्र प्रताप सिंह के नेतृत्व में ‘आजतक’ शुरू हुआ।  दूरदर्शन के मेट्रो चैनल पर।  दूरदर्शन का नियम था कि प्रसारण से पूर्व एक बार ‘आजतक’ का टेप देखा जाना चाहिए था।  मगर एसपी की इतनी धमाकेदार प्रतिष्ठा थी कि कभी कोई अंक रोका नहीं गया और सरकार के साथ-साथ समूचे तंत्र की विसंगतियों और खामियों पर हम लोग करारे हमले करते थे।  हमारी नीयत में खोट नहीं था, इसलिए सरकार और ब्यूरोक्रेसी ने कभी अड़ंगा नही लगाया।  आज तो चुनाव आयोग ही कटघरे में है। हमने टीएन शेषन का दौर देखा है, जब प्रधानमंत्री से लेकर सारे मंत्री, मुख्यमंत्री और नौकरशाह थर-थर कांपते थे। ऐसा तब होता है, जब हुकूमतें भी लोकतांत्रिक परंपराओं और सिद्धांतों का आदर करती हैं। पर जब बागड़ ही खेत को खाने लग जाए तो कोई क्या करे ?

एक अंतिम उदाहरण। भारत का पहला स्वदेशी चैनल ‘आजतक’ हम लोगों ने शुरू किया।  तब एनडीए सरकार थी। चूंकि उपग्रह प्रसारण की अनुमति उस समय की सूचना-प्रसारण मंत्री सुषमा स्वराज ने दी थी, इसलिए कभी-कभी सरकार की अपेक्षा होती थी कि संवेदनशील मामलों में हम सरकार का समर्थन करें। पर ऐसा कभी नहीं हुआ। हमारी स्वतंत्र और निर्भीक पत्रकारिता पर एसपी सिंह का प्रभाव बना रहा। जब भारत के पहले टीवी ट्रेवलॉग के तहत मैने अरुणाचल से लेकर कन्याकुमारी तक यात्रा की तो एनडीए के पक्ष में कोई फील गुड नहीं पाया। मैंने प्रसारण में साफ ऐलान कर दिया था कि सरकार जा रही है।  उस समय सारे अखबार और चैनल एनडीए की वापसी करा रहे थे। आशय यह कि सच कहने, बोलने और लिखने की आजादी का स्वर्णकाल हमने देख लिया है। आज का दौर भी देख रहे हैं और यह भी गुजर जाएगा।

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मीडिया इंडस्ट्री में प्रणय-राधिका रॉय के योगदान को राजदीप सरदेसाई ने यूं किया याद

'इंडिया टुडे' के वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने मीडिया इंडस्ट्री में प्रणय और राधिका रॉय के योगदान को उत्साहपूर्वक याद किया है।

Last Modified:
Thursday, 01 December, 2022

अडानी समूह द्वारा ‘एनडीटीवी’ (NDTV) के अधिग्रहण के बाद हाल के दिनों में भारतीय मीडिया परिदृश्य में एक बड़ा बदलाव आया है। मीडिया समूह की प्रमोटर फर्म आरआरपीआर होल्डिंग प्राइवेट लिमिटेड (RRPR Holding Private Limited) ने अपने शेयरों का 99.5% शेयर अडानी समूह को हस्तांतरित कर दिया, जिसके बाद फाउंडर्स प्रणय और राधिका रॉय ने डायरेक्टर्स के पद से इस्तीफा दे दिया, जो कि भारतीय न्यूज मीडिया की दुनिया में एक ऐतिहासिक क्षण था।

रॉय परिवार ने भारतीय न्यूज मीडिया के ईकोसिस्टम को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 1984 में उन्होंने NDTV की सह-स्थापना की, जिसने भारत में स्वतंत्र न्यूज ब्रॉडकास्ट करने का बीड़ा उठाया। इन दोनों ने देश का पहला 24X7 न्यूज चैनल और लाइफस्टाइल चैनल भी लॉन्च किया। उनके पद छोड़ने के बाद से मीडिया बिरादरी में मिली-जुली प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है, जिनमें 'इंडिया टुडे' के वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई का नाम भी शामिल हैं, जिन्होंने मीडिया इंडस्ट्री में रॉय के योगदान को उत्साहपूर्वक याद किया है।

उन्होंने एक फेसबुक पोस्ट साझा किया, जिसमें उन्होंने रॉय परिवार के साथ काम करने की सुखद यादें ताजा कीं।

उन्होंने लिखा, ‘जिंदगी में कई बार आप पूछते हैं: ये कहां आ गए हम! पिछली रात कुछ ऐसी ही थी। दिन भर गुजरात की सड़कों पर घूम-घूमकर थका-मांदा जब मैं वापस होटल के कमरे में एनडीटीवी होल्डिंग कंपनी के बोर्ड से प्रणय और राधिका रॉय के इस्तीफा देने की खबर पढ़ने के लिए लौटा, तो उनसे जुड़ीं भावनाएं उमड़ने लगीं और पुरानी यादों की एक लहर दौड़ गई लेकिन इससे बढ़कर मेरे अंदर थी एक उदासी की भावना।

जब भारतीय टीवी न्यूज का इतिहास लिखा जाएगा, तो रॉय परिवार को अरुण पुरी जैसे शुरुआती दिग्गजों के साथ खड़े होने का गौरव प्राप्त होगा। रॉय एक न्यूज संस्था का निर्माण करने के लिए प्रतिबद्ध थे, जिन्होंने कई प्रतिभाओं को निखारा व हम जैसे कई लोगों को ऊंची उड़ान भरने के लिए पंख दिए, अब वह चिरस्थाई विरासत बनी रहेगी। विशेष तौर पर मैं हमेशा उस मानवीय तरीके का सम्मान करूंगा, जिसमें प्रत्येक स्टाफ मेंबर के साथ अच्छे और बुरे समय में व्यवहार किया गया। यही एक कारण है कि इतने सारे लोगों के लिए एनडीटीवी हमेशा एक 'परिवार' रहा है। यहां एक समानाधिकारवादी वाली कार्य नीति रही, जहां एक कैमरापर्सन या ओबी ड्राइवर भी अकसर जिंदगी भर के लिए आपके दोस्त बन जाते थे।

व्यक्तिगत स्तर पर कहूं तो डॉ. रॉय के साथ लाइव चुनाव करना एक अविस्मरणीय स्मृति बनी हुई है। क्योंकि मुझे उस टीम का हिस्सा बनने का मौका मिला था, जिसने एक ऐसा नेटवर्क बनाया जो घर-घर में जाना जाने वाला नाम बन चुका था। मैं उन दिनों का हिस्सा बनने के लिए आभारी हूं। शायद यह बेहद ही शांति भरा वो समय था, जब प्रतिस्पर्धा बहुत ही कम थी। हो सकता है कि हम इसे हमेशा सही न समझें, लेकिन यह निश्चित रूप से एक ऐसा समय था, जब हमें इस बात की चिंता करने के लिए ऊपर देखने की जरूरत नहीं थी कि सत्ता में कौन किस खबर या लाइव डिबेट में तीखी टिप्पणी से नाराज हो सकता है।

 मुझे नहीं पता कि एनडीटीवी और रॉय परिवार के लिए आगे की राह क्या है। लेकिन मैं हमेशा उनका शुभचिंतक और प्रशंसक रहूंगा। आठ साल पहले, मैंने एक चैनल/नेटवर्क देखा, जिसे बनाने के लिए किसी की रातों की मेहनत थी। जिसे मुझे मजबूरन छोड़ना पड़ा। इससे उबरने में मुझे कुछ समय लगा। मुझे एहसास हुआ कि वास्तव में मेरे दोस्त कौन हैं। लेकिन अब मुझे विश्वास है कि यह सब जीवन की अनिश्चित यात्रा का हिस्सा है। ऐसा ही एक गाना याद आ रहा है, ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया....।

भले ही ‘एनडीटीवी’ के अब नए मालिक होंगे, जिनके अपने आइडियाज होंगे, लेकिन चैनल का नाम हमेशा के लिए रॉय परिवार के साथ जुड़ा रहेगा, जिन्होंने जीके-1 बेसमेंट से एक छोटे से ऑपरेशन से इसे शुरू किया और इसके लिए अपना पसीना बहाया और कड़ी मेहनत की। मैं पहली बार 1994 में एक जीवंत नेशनल नेटवर्क में शामिल हुआ था। इस समय मैं बहुत अधिक नहीं कहना चाहिए, लेकिन इस पोस्ट को एक तस्वीर के साथ छोड़ रहा हूं, जो बहुत कुछ कहती है, जोकि 1998-99 के आम चुनाव की है।

बाईं ओर बैठे शख्स का अनुमान लगाइए! जैसा कि मैंने कहा: कहां गए वो दिन जब एक टीवी स्टूडियो वैकल्पिक दृष्टिकोण के साथ बुद्धिमत्ता बातचीत के लिए जगह थी और किसी को भी 'राष्ट्र-विरोधी' का तमगा नहीं दिया जाता था!  

वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई का पूरा फेसबुक पोस्ट आप यहां भी पढ़  सकते हैं-

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उम्मीद है कि NDTV अपनी इन Values और Standards को बनाए रखेगा: तहसीन जैदी

‘एनडीटीवी’ (NDTV) बोर्ड से प्रणय रॉय और राधिका रॉय के अलग होने के बाद Syngenta India की मैनेजर (Public Affairs) तहसीन जैदी ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट लिखी है।

Last Modified:
Thursday, 01 December, 2022

‘एनडीटीवी’ (NDTV) बोर्ड से प्रणय रॉय और राधिका रॉय के अलग होने के बाद ‘सिन्जेंटा इंडिया’ (Syngenta India’ की मैनेजर (Public Affairs) तहसीन जैदी ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट लिखी है। ‘लिंक्डइन’ पर लिखी अपनी इस पोस्ट में तहसीन जैदी ने उन दिनों को भी याद किया है, जब वह ‘एनडीटीवी’ का हिस्सा हुआ करती थीं। इसके अलावा उन्होंने उम्मीद जताई है कि एनडीटीवी पूर्व की तरह अपने मानकों को बनाए रखेगा। तहसीन जैदी ने लिखा है-

एक युग का अंत!!!!!! प्रणय रॉय द्वारा संचालित और पोषित एक ईमानदार टेलीविजन पत्रकारिता का अंत। यदि डॉ. रॉय के इस्तीफे की खबर सच है तो यह एक संस्था और एक बड़े परिवार का अंत है, जिसे डॉ. रॉय और श्रीमती रॉय ने मिलकर तैयार किया और उसे सींचा। एनडीटीवी में जब मेरा आखिरी दिन था, तो उस समय मेरी आंखों में आंसू आ गए थे। उस समय डॉ. रॉय, श्रीमती रॉय और मेरी मार्गदर्शक सोनिया सिंह बड़ी ही गर्मजोशी से मुझसे मिले और मुझे नया काम करने के लिए प्रोत्साहित किया। उस दौरान मैंने एक प्रतिद्वंद्वी संस्थान में काम करने से इनकार कर दिया, हालांकि, उन्होंने मुझे 40 प्रतिशत सैलरी बढ़ोतरी की पेशकश की थी, लेकिन मुझे लगा कि मुझमें एनडीटीवी का प्रतियोगी बनने की हिम्मत नहीं होगी और मैंने एक एनजीओ में शामिल होने का फैसला किया। यहां से गुडबाय कहते समय मेरा सिर्फ एक ही वाक्य था कि मुझे इन सीढ़ियों से प्यार हो गया था।

एनडीटीवी का अधिग्रहण होते हुए देखना मेरे लिए भूकंप के बाद अपने बचपन के घर को मलबे में तब्दील होते हुए देखने जैसा है। मुझे पता है कि ये सब चीजें बेहतरी के लिए हो रही हैं, लेकिन इससे हमारी पुरानी यादें जुड़ी हुई हैं, इससे मन में थोड़ा विषाद है। एनडीटीवी की विरासत हम में से हर एक के अंदर है, हम जहां भी जाते हैं, एनडीटीवी की सीख और मूल्यों को अपने साथ ले जाते हैं।

एनडीटीवी एक ऐसा परिवार है और रहेगा, जिसमें प्रणय रॉय और राधिका रॉय (प्यार से हम उन्हें श्रीमती रॉय बुलाते हैं) की ओर से हम में से हर एक के लिए बहुत सारा प्यार, स्नेह और देखभाल है। मैं कुछ प्वाइंटस के जरिये अपनी बात रखूंगी।

1: मीडिया के प्रति पैशन और एनडीटीवी के प्रति प्यार के चलते एक युवा के रूप में यहां जॉइन करना मेरे लिए एक सपने के सच होने जैसा था। एनडीटीवी के साथ काम करने के कुछ महीनों बाद मैंने नैतिक रिपोर्टिंग (ethical reporting) सीखी। ऐसी रिपोर्टिंग जो तथ्यात्मक रूप से सही हो। हमने टीआरपी के बारे में कभी चिंता नहीं की। हमारे लिए कंटेंट और नैतिक रिपोर्टिंग सबसे महत्वपूर्ण थी। डॉ. रॉय ने 26/11 के विजुअल्स को यह कहते हुए स्टोरी में डालने से इनकार कर दिया था कि उन्हें टीआरपी नहीं चाहिए और मुझसे कहा था कि इस तरह की गलती न करें, क्योंकि इससे कई लोगों की जान दांव पर लग जाएगी।  

2: मुझे एनडीटीवी में ही अपना जीवनसाथी मिला। सिर्फ यही ऐसा मीडिया संस्थान था, जिसने हमारे जैसे जोड़ों को प्रोत्साहित किया। यहां क्रेच की सुविधा थी, जहां डॉ. नाजली छोटे बच्चों की पढ़ाई और खेलने-कूदने समेत उनकी सभी जरूरतों का व्यक्तिगत रूप से ध्यान रखती थीं। चौबीसों घंटे बच्चों की हर जरूरत की पूर्ति के लिए सात एम्प्लॉयीज की ड्यूटी लगाई गई थी। हमें एनडीटीवी क्रेच में जाकर बच्चों के साथ थोड़ा समय बिताने की पूरी आजादी थी। तमाम सुविधाओं के साथ छह महीने का मातृत्व अवकाश केवल एनडीटीवी द्वारा प्रदान किया गया था।

3: हमारे भोजन पानी का एनडीटीवी द्वारा पूरा ध्यान रखा जाता था। यह एक बड़ा परिवार था, जो हमेशा मदद और समर्थन के लिए मौजूद रहता था। डॉ. रॉय ने हमें ऑफिस के सहायकों और ड्राइवर को 'सर' के रूप में संबोधित करने के लिए कहा था। इस तरह के मूल्य हमने एनडीटीवी में सीखे। एनडीटीवी में हमारा जन्मदिन विशेष रूप से मनाया जाता था, हम साथ में केक काटते थे। डॉ. रॉय हम सभी को व्यक्तिगत रूप से जानते थे और हमें हमारे नाम से संबोधित करते थे। जब भी हम मिलते थे, वह मेरे लिए अंदर आने के लिए दरवाजा खोल देते थे और फिर अपने विनम्र स्वर में पूछते थे, आप हमारे लिए कबाब कब बना रही हैं?

देर रात तक काम करने वाली महिला एंप्लॉयीज को घर से लाने-ले जाने के लिए विशेष सुविधा थी। गार्ड्स को निर्देश थे कि महिला एंप्लॉयीज को उनके घर के दरवाजे तक सुरक्षित छोड़कर आएं। किसी मंत्री अथवा बड़ी हस्ती के घर के बाहर इंटरव्यू की प्रतीक्षा करते समय हमें अपना भोजन, जूस और फल अच्छी तरह से पैक करके मिलते थे। मुझे उम्मीद है कि प्रणय रॉय के साथ अथवा उनके बिना एनडीटीवी इन मानकों (Standards) को बनाए रखने में सक्षम होगा।

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‘रवीश कुमार सर, जहां रहेंगे चमक बिखेरते रहेंगे’

कल रात इस्तीफे के बाद से रवीश कुमार सर के बारे में इतनी बातें दिमाग के फ्लैशबैक में चल रही हैं कि सबकुछ कई बार गड्डमड्ड् हो जा रहा है।

Last Modified:
Thursday, 01 December, 2022

कल रात इस्तीफे के बाद से रवीश कुमार सर के बारे में इतनी बातें दिमाग के फ्लैशबैक में चल रही हैं कि सबकुछ कई बार गड्डमड्ड् हो जा रहा है। अब तक जो कुछ भी मीडिया करियर में किया या करने की कोशिश कर रहा हूं, उसमें उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है।

एक बॉस से बढ़कर वो मेरे लिए एक मार्गदर्शक हैं। कई बार उनसे डांट खाई, बहुत से मौके पर सराहना भी। हर बार जब कंधे पर हाथ रखते तो अपने आप को बहुत जिम्मेदार होने का अहसास बस ऐसे ही हो जाता था।

रवीश कुमार के विचारों से आप सहमत या असहमत हो सकते हैं। उनको प्यार करने वालों की भी बहुत बड़ी तादात है और नफरत करने वालों की भी। लेकिन लोकप्रियता के शिखर पर होने के बावजूद उनकी ईमानदारी, उनकी लेखनशैली, बोलने का अंदाज, उनकी समझदारी और उनके साफ चरित्र पर किसी को रंच मात्र भी शक नहीं होना चाहिए। ये बात 20 साल से जान-पहचान के आधार पर पूरी जिम्मेदारी से लिख रहा हूं।

खैर, कभी सोचा नहीं था कि NDTV और रवीश कुमार अलग होंगे। कभी सोचा नहीं था कि उनके इस्तीफे पर लिखना पड़ेगा, कभी सोचा नहीं था कि हमारी पीढ़ी इस पल का भी गवाह बनेगी। लेकिन जिंदगी यही है...। रवीश कुमार सर, जहां रहेंगे चमक बिखेरते रहेंगे। गांव गिंराव और अभावों में पले गरीब युवाओं को प्रभावित करते रहेंगे। फिर मिलेंगे संघर्ष के तूफानों में...

(एनडीटीवी में सीनियर स्पेशल करेसपॉन्डेंट रवीश शुक्ला की फेसबुक पोस्ट से साभार)

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स्वतंत्र पत्रकारिता से आप क्या समझते है?

विभिन्न एलेक्ट्रॉनिक माध्यमों सहित परम्परागत रूप से प्रकाशित अखबारों को प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रेस की स्वतंत्रता कहा जाता है। किन्तु इस समस्या का एक दूसरा पहलू भी है। दुनियाभर में मीडिया कार्पोरेट के हाथ में है जिसका एकमात्र उद्देश्य अधिक से अधिक फ़ायदा कमाना है।

स्वतंत्र स्वतंत्र पत्रकार कौन होते हैं?

स्वतंत्र पत्रकार से आशय ऐसे पत्रकार से हैं जो स्वतंत्र रूप से किसी भी अखबार या चैनल के लिए सेवा देते हैं। अंग्रेजी में इन्हें फ्रीलांस जर्नलिस्ट कहते हैं। ऐसे पत्रकार किसी भी विशेष समाचार पत्र या न्यूज़ चैनल के साथ नही जुड़ते बल्कि सभी के लिए सेवाएं देते हैं। प्रिंट मीडिया में इनका अहम रोल होता है।

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