रासो काव्य की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं? - raaso kaavy kee pramukh visheshataen kya hain?

रासो साहित्य की व्युत्पत्ति परक विवेचना करते हुए ‘रासो’ काव्य परम्परा का उल्लेख कीजिए तथा ‘पृथ्वीराज रासो’ का रासो काव्य परम्परा में मूल्यांकन कीजिए।

Contents

  • रासो साहित्य : परिचय एवं विशेषताएँ
  • रासो परम्परा के काव्यों की प्रमुख विशेषताएँ
  • कतिपय प्रमुख रासो ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय

रासो साहित्य : परिचय एवं विशेषताएँ

पश्चिमी अपभ्रंश के परवर्ती रूप डिंगल तथा पिंगल में ‘रास’, ‘रासक’, ‘रासो’, ‘रासा’, ‘रासउ’, ‘रसायन’, ‘रायसो’, तथा ‘रासु’ आदि ग्रन्थ बहुत बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। डॉ. दशरथ शर्मा इन शब्दों को एक-दूसरे का पर्यायवाची मानते हैं। किन्तु नरोत्तम स्वामी की मान्यता है कि वीर रस प्रधान रचनाओं को ‘रासो’ तथा वीर रसेतर रचनाओं को ‘राम’ कहा गया। वास्तव में रासो शब्द की व्युत्पत्ति तथा रासो काव्य के रचना-स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार की धारणाओं को व्यक्त किया है और इस सम्बन्ध में किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि उन धारणाओं पर विचार किया जाय। डॉ. गोवर्धन शर्मा ने अपने शोध-प्रबन्ध ‘डिंगल साहित्य’ में 23 धारणाओं का उल्लेख किया है-

(1) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार ‘बीसलदेव रासो’ में प्रयुक्त ‘रसायन’ शब्द ही कालान्तर में रासो बना।

(2) गार्सो-द-तासी- ये रासो की उत्पत्ति ‘राजसूय’ शब्द से मानते हैं।

(3) रामचंद्र वर्मा- ये इसकी उत्पत्ति ‘रहस्य’ से मानते हैं।

(4) मु. देवी प्रसाद – इनका मत है कि रासो का अर्थ है कथा और उसका एकवचन ‘रासो’ तथा बहुवचन ‘रासा’ है।

(5) प्रियर्सन- इनका मत है कि ‘रासो’ की उत्पत्ति संस्कृत ‘रास’ अथवा ‘रासक’ से है।

(6) गौरीशंकर ओझा- इनके अनुसार रासो की उत्पत्ति संस्कृत ‘रास’ अथवा ‘रासक’ से है।

(7) पं. मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या- इनके अनुसार ‘रासो’ की उत्पत्ति संस्कृति के ‘रास’ अथवा ‘रासक’ से हुई है।

(8) मोतीलाल मेनारिया- इनकी मान्यता है कि जिस प्रन्थ में राजा की कीर्ति, विजय, युद्ध तथा वीरता आदि का विस्तृत ‘वर्णन हो, उसे ‘रासो’ कहते हैं।

(9) विश्वनाथ प्रसाद मिश्र- इनके अनुसार रासो की व्युत्पत्ति का आधार ‘रासक’ शब्द है।

(10) कुछ विद्वानों – के अनुसार राजयश पदक रचना को ‘रासो’ कहते हैं।

(11) बैजनाथ खेतान- इनके अनुसार ‘रासो’ या ‘रायसो’ का अर्थ है, झगड़ा, पचड़ा या उद्यम और उसी से ‘रासो’ की उत्पत्ति है।

(12) के.का. शास्त्री तथा डोलर राय मांकड – इनके अनुसार ‘रास’ या ‘रासक’ मूलतः नृत्य के साथ गायी जाने वाली रचना विशेष है।

(13) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी- इनके अनुसार ‘रासो’ तथा ‘रासक’ पर्याय हैं और वह मिश्रित गेय रूपक हैं।

(14) कतिपय विद्वानों – के अनुसार गुजराती लोकगीत-नृत्य ‘गरबा’ रास का ही उत्तराधिकरी है।

(15) डॉ. माताप्रसाद गुप्त- आपके अनुसार विविध प्रकार के रास, रासावलय, रासा और रासक छन्दों और नाट्य- रासक, उपनाटकों, रासक, रास तथा रासो-नृत्यों से भी रासो प्रबन्ध परम्परा का सम्बन्ध रहा है, यह निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता।

(16) म.र. मजूमदार- इनके अनुसार रासाओं का मुख्य हेतु पहले धर्मोपदेश था और बाद में कथा-तत्व तथा चरित्र-संकीर्तन आदि का समावेश हुआ ।

(17) विजयराम वैद्य- इनके अनुसार ‘रास’ या ‘रासो’ में छन्द, राग तथा धार्मिकता आदि विविध तत्व रहते हैं।

(18) डॉ. दशरथ शर्मा- इनके अनुसार रास के नृत्य, अभिनय तथा गेय-वस्तु-तीन अंगों से तीन प्रकार के रासो (यस, रासक-उपरूपक तथा श्रव्य-रास) की उत्पत्ति हुई ।

(19) हरि बल्लभ भायाणी तथा विपिन बिहारी त्रिवेदी- ये ‘रासो’ छन्द के आधार पर रासो नामकरण स्वीकार करते हैं।

(20) कुछ विद्वानों के अनुसार रसपूर्ण होने के कारण ही ये रचनाएँ ‘रास’ कहलायीं।

(21) भागवत में ‘रास’ शब्द का प्रयोग गीत-नृत्य के लिए हुआ है।

(22) रास अभिनीत होते थे, इनका उल्लेख अनेक स्थानों पर हुआ है (जैसे ‘भाव प्रकाश’, ‘काव्यानुशासन तथा ‘साहित्य-दर्पण’ आदि)।

(23) ‘हिन्दी साहित्य कोश’ में रासो को दो रूपों की ओर संकेत किया गया है-

(i) गीत-नृत्यपरक (पश्चिमी राजस्थान तथा गुजरात में समृद्ध होने वाला) और (ii) छन्द वैविध्यपरक (पूर्वी राजस्थान तथा शेष हिन्दी में प्रचलित रूप) ।

रासो ग्रन्थों के तीन मुख्य रूप- डॉ. देवीशरण रस्तोगी की मान्यता है कि रासक या रासो आरम्भ में नृत्य-गीतपरक अभिनय रचना थी और कालान्तर में इसके तीन रूपों- शुद्ध गीत-नृत्यमय रचना ‘गरबा’ नाट्य- रूपक ‘रास’ या ‘ख्याल’ और साहित्यिक ‘रासो’ या ‘काव्यात्मक रास’ का विकास हुआ। साहित्यिक रासो का काव्यात्मक रास में कथा तत्व प्रधानता ग्रहण करने लगा। उसी के एक रूप के दर्शन हमें जैन रासाओं में प्राप्त होते हैं। जैन रासाओं में धार्मिक स्थलों (जैसे ‘देवन्तगिरि रास’, ‘आबू रास’, ‘कल्छुली रास’ तथा ‘सप्तक्षेत्रि रास’ आदि) या धर्म। पुरुषों (जैसे ‘भरतेश्वर बाहुबलि रास’, ‘जम्बूस्वामी रास’ तथा नेमिनाथ रास आदि) की स्तुति रहती थी। धीरे-धीरे रास-रचनाओं ने प्रबन्ध का रूप धारण कर लिया। डॉ. चन्द्रकान्त मेहता के अनुसार पन्द्रहवीं शती के उपरान्त ‘रास’ और ‘प्रबन्ध’ एक-दूसरे के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होने लगे। बाद में उनमें अन्य तत्वों का भी समावेश होने लगा और विभिन्न साहित्यिक रूढ़ियाँ बनती चली गई।

रासो काव्य परम्परा- अपभ्रंश में रास, रासा या रासक काव्यों की एक समृद्ध परम्परा मिलती है, इसको ही रासो काव्य परमपरा की पूर्व पीठिका माना जा सकता है।

डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने अपभ्रंश की इस रास या रासक-परम्परा के दो रूप माने हैं- (1) गीत-नृत्यपरक, (2) छन्द-वैविध्यपरक । प्रथम परम्परा के अन्तर्गत उन्होंने जैन कवियों द्वारा रचित काव्यों को लिया है। ये हैं-उपदेश रसायन रास, भरतेश्वर बाहुबली रास, बुद्धि रास, जीवदया रास, चन्दनबाला रास, जम्बूस्वामी रास, देवन्तगिरि रास। इनका प्रधान उद्देश्य कथा के माध्यम से अथवा मुक्तक रूप में जैन सिद्धान्तों का पोषण ही है। दूसरी कोटि में वे रचनाएँ हैं- जो धर्म-प्रधान रचनाएँ न होकर, वीरों के चरित्र वर्णन को लेकर सामने आई हैं। ये हैं-मूँज रास, हम्मीर रासो आदि.

डॉ. राजनाथ शर्मा की मान्यता है कि हिन्दी में इस दूसरी परम्परा ने ही विकास पाया था और यह ऐतिहासिक वीर पुरुषों के चरित-गायन के रूप में विकसित हुई थी। इसे ‘ऐतिहासिक रासो काव्य-परम्परा’ का नाम भी दिया जा सकता है।

रासो काव्य-परम्परा का सर्वप्रथम काव्य कवि अद्दहमाण (अब्दुलरहमान) का ‘सन्देशरासक’ है जिसमें विरह पक्ष की प्रधानता है। इसी क्रम में ‘भरतेश्वर बाहुबली रास’ में भरत और बाहुबली का युद्ध-वर्णन है। इसमें वीर और श्रृंगार की प्रधानता है। इस परम्परा में लिखे अन्य प्रमुख प्रन्थ इस प्रकार हैं-बुद्धि रास, जीवदया रास, चन्दनबाला रास, उपदेश रसायन रास, जयसुकुमाल रास, मुक्तावलि रास, बीसलदेव रासो, जम्बूस्वामी रास, देवन्तगिरि रास, कल्छुली रास, गौतम रास, दशार्णमद्रु रास, वस्तुपाल- तेजपाल रास, बूणिक रास, पेढड़ रास, समरसिंह रास, सप्तक्षेत्रि रास, कुमापाल रास आदि। पृथ्वीराज रासो के परवर्ती रासो काव्यों में हम्मीर रासो, परमाल रासो और विजयपाल रासो प्रमुख हैं।

डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने रासक या रासो परम्परा की चौबीस रचनाओं का उल्लेख किया है। वे इस प्रकार हैं-

(1) सन्देशरासक- अपभ्रंश भाषा का यह रासक अब्दुलरहमान (अद्दहमाण) द्वारा रचित है। (2) मुंज रासो- यह सं. 1150 के आस-पास की रचना है, अपभ्रंश में रचित है, पर अनुपलब्ध है। प्रबन्ध चिन्तामणि में इसके पद्य मिलते हैं, (3) पृथ्वीराज रासो, (4) हम्मीर रासो (शारंगधर रचित), (5) बुद्धि रासो (जल्ह कवि), (6) परमाल रासो, (7) राठजैतसी रासो (अज्ञात), (8) विजयपाल रासो (नल्हसिंह भाटा), (9) राम रासो (माधवदास चारणा), (10) राणा रासो, (11) रतन रासो, (12) कायम रासो, (13) शत्रुपाल रासो, (14) माकण रासो (15) गतसिंह रासो, (16) हम्मीर रासो (महेश कवि कृत), (17) हम्मीर रासो (जोधराज कृत), (18) खुम्माण रासो (दलपति विजय कृत), (19) रासा भगवन्तसिंह का, (20) वरहिया कौ रायसौ (गुलाब कवि), (21) रासा भइया बाहुदरसिंह का, (22) रायसा, (23) कलियुग रासो, (24) पारीछत रायसा (श्रीधर कृत)

रासो परम्परा के काव्यों की प्रमुख विशेषताएँ

(1) ये प्रायः वीरचरित काव्य हैं।

(2) इनमें अपभ्रंश के चरित काव्य की कथानक रूढ़ियाँ एवं काव्य रूढ़ियाँ प्रयुक्त हुई हैं। जैसे- संवाद तत्व, शुक शुकी संवाद आदि।

(3) ये रचनाएँ अधिकतर बड़ी हैं और उनमें प्रायः छन्द-वैविध्य भी अधिक है। पृथ्वीराज रासो में लगभग बहत्तर प्रकार के मात्रिक, वर्णिक, संयुक्त तथा फुटकर छन्दों का प्रयोग हुआ है।

(4) इन काव्यों में युद्धों का प्रसंग अधिक मिलता है।

(5) ये काव्य वीर रस प्रधान हैं, श्रृंगार की भी छटा निराली है।

(6) गेयता आदि लोक तत्व विद्यमान हैं।

(7) इनमें आश्रयदाता राजाओं की वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन मिलता है।

(8) इनमें इतिहास और कल्पना का समन्वय है।

(9) ये प्रबन्ध रचनाएँ हैं।

(10) इनका काव्य सौन्दर्य भी उत्कृष्ट है। अनुभूति और अभिव्यक्ति का सुन्दर समन्वय है।

(11) इनकी भाषा प्रायः मिश्रित है।

(12) ये काव्य प्रायः सर्गों में विभक्त हैं।

(13) कतिपय (17 से 19 शताब्दी) हास्य मिश्रित रासो ग्रन्थ भी लिखे गये। इनमें मैकण रासो ऊंन्दर रासो, खीचड़ रासो और गोधा रासो प्रमुख हैं।

(14) सभी रासो मन्थ की प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है।

कतिपय प्रमुख रासो ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय

(1) खुमाण रासो – इसमें जिस कथा का वर्णन है- चित्तौड़ के राजा खुमाड़ के युद्धों का वर्णन है वह किस काल की है, यह विवादास्पद है। इस कारण रचनाकाल भी विवादास्पद है। यह रचना दलपति विजय की है। शुक्ल जी जहाँ इसका रचना काल सम्वत् 1180-1205 मानते हैं तो कुछ अन्य विद्वान् इसका रचना काल सम्वत् 730 से 1760 तक मानते हैं।

यह पाँच हजार शब्दों का एक विशाल काव्य माना जाता है। इसमें युद्ध, विवाह, नायिकाभेद, पद-ऋतु आदि का वर्णन विस्तार के साथ हुआ है। श्रृंगार-वीर दोनों का समन्वय है, विविध छन्दों का प्रयोग है। इसमें बीच-बीच में पृथ्वीराज राठौड़, सुन्दरदास, विहारी आदि की उक्तियों का भी समावेश किया गया है। रीतिकालीन कवियों की उक्तियों का समावेश यह प्रमाणित करता है कि इसके कुछ छन्द अठारहवीं सदी में रचे गये। भाषा इसकी राजस्थानी है। भाषा-शैली और काव्य-सौन्दर्य की स्थिति इसे सफल काव्य घोषित करती है। इसकी भाषा के अधार पर इसे प्राचीन कृति नहीं माना जाता। इसकी भाषा की कतिपय पंक्तियाँ यहाँ उद्धत है-

पिउ चित्तौड़ न आविड, सावण पहली तीज ।

जोवै बाट विरहिणी, खिणखिण अणवै खीज।।

(2) बीसलदेव रासो – यह नरपति नाल्ह की कृति है। यह भी संदिग्ध रचना मानी जाती है। इसमें राजा भोज की कन्या राजमती के बीसलदेव के साथ विवाह की कथा है, जबकि राजा भोज का काल बीसलदेव से 110 वर्ष बाद का है। ऐतिहासिक विवाद की चर्चा छोड़कर जब इसकी भाषा पर विचार किया जाता है तो यह निश्चय हो जाता है कि कृति हिन्दी के प्रारम्भिक युग की ही रचना है। डॉ. रामकुमार वर्मा इसकी भाषा पर अपभ्रंश का गहरा प्रभाव मानते हैं-“बीसलदेव रासो का व्याकरण अपभ्रंश के नियमों का पालन कर रहा है। कारक, क्रियाओं और संज्ञाओं के रूप अपभ्रंश भाष के ही हैं। अतएव भाषा की दृष्टि से इस रासो को अपभ्रंश भाषा से सद्यः विकसित हिन्दी का ग्रन्थ कहने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए। डॉ. माताप्रसाद गप्त ने इसका अनेक प्राचीन प्रतियों के आधार पर सम्पादन किया है, जिनकी भाषा पर प्राचीनता की गहरी छाप है। इसलिए इसे सोलहवीं सदी की रचना तो किसी भी प्रकार नहीं माना जा सकता।

यह गेय-काव्य है, ऐसी विद्वानों की धारणा है, पर मोतीलाल मेनारिय, इसे गेय-काव्य नहीं मानते। यह उलझाव-प्रामाणिकता, रचना काल आदि का, तो इस परम्परा के सभी ग्रन्थों के साथ है। परन्तु विशेष बल है, इसका काव्य सौन्दर्य ।

डॉ. राजनाथ शर्मा के अनुसार- काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से ‘बीसलदेव रासो’ एक अत्यन्त सुन्दर रससिक्त रचना है। इसकी एक सबसे निराली विशेषता है कि यह हिन्दी के अन्य रासो-प्रन्थों के समान वीरता का प्रशस्ति-गान न होकर कोमल प्रेम के मधुर, मार्मिक और संवेदनशील रूप का अमर चित्र है। विप्रलम्भ श्रृंगार इसका प्रधान वर्ण्य विषय है। चार खण्डों में विभाजित सवा सौ छन्दों का यह छोटा-सा काव्य प्रणय-संवेदना का द्रवणशील हृदयग्राही रूप प्रस्तुत करता है। इसमें अजमेर-नरेश विग्रहराज उपनाम बीसलदेव और उनकी पत्नी राजा भोज की पुत्री राजमती के विवाह, कलह, विरह और मिलन के मार्मिक रूप चित्र अंकित हुए हैं। यह विवाद का विषय भले ही रहा हो कि बीसलदेव किस काल का था, पर काव्य-कला और वर्णन-शैली की दृष्टि से. बीसलदेव रासो, रासो काव्य परम्परा में महत्वपूर्ण स्थन रखता है।

विरह वर्णन इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। सुनियोजित कथा में आबद्ध होते हुए भी, यह मुक्तकों के कलामय, उदात्त, प्रभावशाली रूपों में भी महत्वपूर्ण है। विरह की मार्मिकता के उभरने का एक आधार संयोगकालीन मनोरम प्रसंगों की मदकता भी है। ये प्रसंग जितने अधिक मादक होंगे, विरह भी उतना ही प्रभावी हो सकेगा। कहा न होगा कि इस काव्य की यही विशेषता है। यद्यपि बारहमासा शैली को आधार बनाकर, प्रकृति के उद्दीपनकारी प्रभाव की छाया में विरह वर्णन हुआ हैं, पर उसमें भी कवि का ध्यान विरहिणी की पीड़ा की ओर अधिक रहा है-

अस्त्रीय जनम कोई दीघउ महेस ।

अवर जनम थारई रे नटेस।

रानिन सिर जीथ रोझड़ी।

घणह न सिरजीव घडलीय गाइ ।

वनखंड काली कोइली ।

डॉ. राजनाथ शर्मा के अनुसार, विरह के इन मार्मिक चित्रों ने इस काव्य को एक अपूर्व गरिमा प्रदान कर दी है। विरह की तरल, सूक्षम अनुभूतियाँ ही इसका आकर्षण हैं। सीधी तरल भाषा में कवि नारी-हृदय की वेदना, उसकी विवशता और असहायता के चित्रण करता चला जाता है। ऐसा करते समय कथा तथा अन्य बातें उसके लिए गौण हो जाती हैं।

(3) विजयपाल रासो- इसमें विजयपाल सिंह के युद्ध का वर्णन है, जिसका रचयिता नाल्ह सिंह भाट माना जाता है। इस पर भी विवादों की छाया गहरा रही है।

(4) हम्मीर रासो- इसकी कृति उपलब्ध नहीं है मात्र इसके 8 छन्द अपभ्रंश के ‘प्राकृत पैगलम्’ नामक एक ग्रन्थ में मिलें हैं। इसके रचनाकार शारंगधर माने जाते हैं। इस पर विवाद की छाया है।

(5) परमाल रासो – महोबा के परमार्दिदेव (परमाल) के राजकवि जगनिक द्वारा रचित यह काव्य ‘आल्ह खण्ड’ नाम से विख्यात है, जिसमें आल्हा ऊदल आदि के युद्धों का वर्णन है। श्रृंगार का पुट लिये यह वीर काव्य है।

रासो परम्परा में पृथ्वीराज रासो का मूल्यांकन- हिन्दी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण रासो काव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ है, जिसका रचयिता चन्दवरदायी माना जाता है। यद्यपि इसकी प्रामाणिकता पर भी गहरा विवाद है, पर काव्य-सौष्ठव, छन्द-योजना, अलंकार-विधान, वस्तु-वर्णन, भाव-योजना, प्रकृति-चित्रण आदि की दृष्टि से यह रासो परम्परा का श्रेष्ठतम ग्रन्थ है।

इसमें रासो काव्य-परम्परा के समस्त रूपों का प्रतिनिधित्व हुआ है। जिनमें श्रेष्ठ कला-पक्ष की छटा भी है। छन्दों का तो यह बादशाह ही माना जाता है। वस्तु-वर्णन, चरित्रांकन, भाव-व्यंजना, शैली-शिल्प आदि सभी दृष्टियों से यह रासो काव्य-परम्परा की श्रेष्ठतम कृति और उच्चकोटि की साहित्यिक रचना है।

जहाँ यह साहित्यिक कृति है वहीं ‘परमाल रासो’ जनकृति है। आज भी लोकप्रियता की दृष्टि से मात्र परमाल रासो इसके पीछे खड़ा दिखायी देता है। पृथ्वीराज की वीरता, शैर्य, पराक्रम, युद्ध-कौशल के साथ युद्धों का सजीव चित्रण, रानियों का रूप-चित्रण, प्रेम-विरह की अनूठी उक्तियाँ, अद्भुत प्रकृति-चित्रण के साथ तत्कालीन सामन्ती जीवन की यथार्थ झलक प्रस्तुत करने की विलक्षण क्षमता रासो में है। भाव-वर्णन तो उत्कृष्ट कोटि का है ही, वस्तु वर्णन के अन्तर्गत भी नगर, वन, उपवन, दुर्ग, सेना, युद्ध राजमहल, ज्यौनार आदि के चित्र प्रभावशाली और मार्मिक हैं। विद्वानों की यह भी मान्यता है कि इन सुन्दर चित्रों के प्रस्तुत करने में अच्छे-अच्छे कलावन्त चन्द की प्रतिभा के सम्मुख फीके पड़ जाते हैं। जहाँ कवि श्रृंगार वर्णन पर उतरता है, तो वय, सन्धि, नख-शिख, यौवन-उभार, अनुराग के विभिन्न रूप, नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ, प्रथम मिलन- आदि के सरस और हृदयग्राही चित्र प्रस्तुत करता चला जाता है। ‘पृथ्वीराज रासो’ पर प्रामाणिकता का जो विवाद चला, विद्वानों की अधिकांश शक्ति उसमें ही झलककर रह गयी। अतः इसका यथेष्ट मूल्यांकन सम्भव नहीं हो सका, अन्यथ ‘पृथ्वीराज रासो’ आदिकाल की अनुपम् श्रेष्ठ कृति है और रासो काव्य-परम्पना का रत्न है जिस पर हिन्दी-साहित्य गौरव का अनुभव कर सकता है।

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रासो काव्य की प्रमुख विशेषताएं क्या है?

रासो साहित्य की विशेषताRaso kavya ki visheshta इन रचनाओं में चारण कवियों के द्वारा अपने आश्रय दाता के शौर्य और ऐश्वर्य का वर्णन किया गया। चारण कवियों की संकुचित मानसिकता देखने को मिलती है। इनमें डिंगल और पिंगल शैली का प्रयोग हुआ है। युद्ध व प्रेम का अधिक वर्णन होने के कारण इसमें श्रृंगार और वीर रस की प्रधानता है।

रासो काव्य से क्या तात्पर्य है?

रासो काव्य हिन्दी के आदिकाल में रचित ग्रन्थ हैं। इसमें अधिकतर वीर-गाथाएं हीं हैं। पृथ्वीराजरासो प्रसिद्ध हिन्दी रासो काव्य है। रास साहित्य चारण परम्परा से संबंधित है तो रासो का संबंध अधिकांशत: वीर काव्य से, जो डिंगल भाषा में लिखा गया ।

रासो से क्या तात्पर्य है?

मुंशी देवीप्रसाद के अनुसार 'रासो' का अर्थ है कथा और उसका एकवचन 'रासो' तथा बहुवचन 'रासा' है। ग्रियर्सन के अनुसार 'रायसो' की उत्पत्ति राजादेश से हुई है। गौरीशंकर ओझा के अनुसार 'रासा' की उत्पत्ति संस्कत 'रास' से हुई है। पं० मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या के अनुसार 'रासो' की उत्पत्ति संस्कत 'रास' अथवा 'रासक' से हुई है।

रासो काव्य परंपरा क्या है?

रासो काव्य परम्परा में सर्वप्रथम ग्रन्थ "पृथ्वीराज रासो' माना जाता है। संस्कृत, जैन और बौद्ध साहित्य में "रास', "रासक' नाम की अनेक रचनायें लिखी गईं। गुर्जर एवं राजस्थानी साहित्य में तो इसकी एक लम्बी परम्परा पाई जाती है। यह निर्विवाद सत्य है कि संस्कृत काव्य ग्रन्थों का हिन्दी साहित्य पर बहुत प्रभाव पड़ा।

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