प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सेना की क्या भूमिका थी? - pratham vishv yuddh mein bhaarateey sena kee kya bhoomika thee?

जंग श्रम संबंधी मामलों को सुर्खियों में ला देती है. खासकर वे बड़े युद्ध जो मानव संसाधन, हथियारों और लामबंदी पर आधारित होते हैं. वे श्रमिक जो आमतौर पर नजर नहीं आते अचानक दिखाई देने लगते हैं. जवाहरलाल यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर और इतिहासकार राधिका सिंघा, जिनका काम उपनिवेश काल के आपराधिक कानूनों पर है, का कहना है कि ऐसा शायद इसलिए होता है क्योंकि युद्ध लड़ने के लिए श्रमिक वर्ग का होना बेहद महत्वपूर्ण होता है.

इसके बावजूद ये श्रमिक इतिहास के पन्नों से जल्द ही गायब कर दिए जाते हैं. 2014 प्रथम विश्व युद्ध का शताब्दी वर्ष था. तब दुनिया भर में मित्र देशों की ओर से लड़ने वाले अश्वेत सैनिकों के बलिदान को याद किया जा रहा था. लेकिन लैट्रिन साफ करने वाले, निर्माण कार्य करने वाले, खच्चरों को हांकने वाले, स्ट्रेचर उठाने वाले, पानी ढोने वाले, मालियों, लोहारों, खानसामों, झाड़ू लगाने वाले, कपड़े धोने वाले, मिट्टी के बर्तन बनाने वाले और झाड़ू लगाने वाले जैसे सहायक कामगारों पर कोई बात नहीं हो रही थी.

इसी गैर सैनिक श्रमिक वर्ग की स्थिति पर प्रकाश डालती है सिंघा की किताब दि कुलीज ग्रेट वॉर : इंडियन लेबर इन ए ग्लोबल कॉनफ्लिक्ट, 1914-1921.

यह गंभीर शोध पर आधारित इतीहास है. गंभीर विषय होने पर भी सिंघा की लेखनी सहज और व्यंग भरी है. ज्यादातर वह आर्काइव सामग्री को ही अपने दावों को साबित करने देती हैं. इस किताब को उन्होंने 10 साल से अधिक समय लगा कर लिखा है और इसमें भारी तादाद में फुटनोट हैं. भारतीय मजूदर दस्ते का आर्काइव बिखरा हुआ है. सामग्री जुटाने के लिए सिंघा को डायरी एंट्री, संस्मरणों, रिपोर्टों, कुरुक्षेत्र, भुवनेश्वर और बेंगलुरु के दर्जनों आर्काइवों की खाक छाननी पड़ी.

ऐसे कई कारण हैं जिनके चलते हम इन युद्धों में भारतीय श्रमिकों के योगदान बारे में बहुत कम जानते हैं. शायद ऐसा इसलिए कि उनका इतिहास तड़क-भड़क वाला नहीं है. इतिहास हमेशा उन लोगों को गौरव से याद करता है जो ट्रेंच से गोलियां दागते हैं, न कि उनको जो ये ट्रेंच खोदते और बनाते हैं.

भारत से ब्रिटेन की ओर से युद्ध करने गए 10 लाख से ज्यादा सैनिकों में 60 हजार से ज्यादा शव बन कर लौटे. 70 हजार से ज्यादा जख्मी हालत में आए. किसी का हाथ नहीं रहा तो किसी का पैर नहीं था, किसी की आंख नहीं थी तो कोई किसी काम के लायक ही नहीं बचा था. इसके अलावा हजारों जवान इस युद्ध में लापता भी हुए जिनके बारे में कुछ पता नहीं चल सका.

ब्रिटेन के गुलाम भारत की ओर से लड़ने गए ज्यादातर जवान इसे अपनी स्वामीभक्ति का ही हिस्सा मानते थे. इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा बताते हैं, "भारत की जनता के लिए जो ब्रिटेन का दुश्मन था उसे वो अपना दुश्मन मानती थी, उस वक्त तक सरकार को माई बाप समझने की प्रवृत्ति थी और इसलिए जो भी सहयोग ब्रिटेन की भारत सरकार ने चाहा वो भारत के लोगों ने दिया."

महात्मा गांधी ने भी प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों को भेजने के लिए अभियान चलाया.तस्वीर: Getty Images/Hulton Archive

युद्ध के लिए गांव-गांव शहर-शहर अभियान चला. लोगों ने भारी चंदा भी जुटाया और इसके साथ ही बड़ी तादाद में युवा सेना में भर्ती हुए. जिस भी मोर्चे पर उन्हें लड़ने के लिए भेजा गया वहां वो जीजान से लड़े. विश्व युद्ध में ओटोमन साम्राज्य के खिलाफ मेसोपोटेमिया (इराक) की लड़ाई से लेकर पश्चिम यूरोप, पूर्वी एशिया के कई मोर्चे पर और मिस्र तक जा कर भारतीय जवान लड़े.

सेना में ज्यादातर जवान खुशी खुशी शामिल हुए लेकिन कई जगहों पर जहां लोगों ने आनाकानी की वहां ब्रिटिश सरकार ने जोर जबरदस्ती से भी काम लिया. बहुत से जवानों को जबरन सेना में भर्ती कर जंग के मोर्चे पर भेजा गया. इतना ही नहीं सेना के अंदर भी उनके साथ भेदभाव किया जाता था. राशन से लेकर वेतन भत्ते और दूसरी सुविधाओं के मामले में वे ब्रिटिश सैनिकों से नीचे रखे जाते. लाल बहादुर वर्मा तो यहां तक कहते हैं, "एक ब्रिटिश सिपाही के खर्चे में कई कई भारतीय सैनिक रखे जा सकते थे."

जलियांवाला बाग कांड के लिए कुख्यात ब्रिटिश अधिकारी जनरल ओ डायर विश्व युद्ध के दौर में भारतीय सैनिकों को भर्ती करने की मुहिम की ही जिम्मेदारी निभा रहे थे. अब इसे भारत की गरीबी कहिए, स्वामीभक्ति या फिर मजबूरी लेकिन भारतीय सैनिकों ने लड़ना जारी रखा और इस भेदभाव का असर कभी अपनी सेवाओं पर नहीं पड़ने दिया. फ्रांस खासतौर से भारतीय सैनिकों के इस योगदान को महत्व देता है. उसने इसकी याद में कई स्मारक भी बनवाए हैं. ब्रिटिश सरकार को भी इस योगदान को स्वीकार करना पड़ा. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वीरता दिखाने के लिए ब्रिटेन के सबसे बड़े सैनिक पुरस्कार के हकदार बने लोगों में भारत के भी कई नाम हैं. हालांकि इस युद्ध के नतीजे से जो भारत को उम्मीद थी वो पूरी नहीं हुई. 

इतिहासकार बताते हैं कि विश्वयुद्ध को लोकतंत्र की लड़ाई भी कहा जा रहा था. ब्रिटेन ने तो आधिकारिक तौर पर एलान किया था कि यह युद्ध लोकतंत्र के लिए लड़ा जा रहा है. अमेरिकी राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन भी यही चाहते थे. उन्होंने लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए 14 सूत्री मांग रखी थी. यही वजह थी कि बहुत से उपनिवेश आजादी की उम्मीद में इस लड़ाई में इन देशों का साथ दे रहे थे. भारत में तो यह भावना बहुत मजबूत थी. इस वजह से सैनिकों के जाने का समर्थन भारत के राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े नेता भी कर रहे थे. उन्हें झटका तब लगा जब युद्ध खत्म होने पर ब्रिटेन ने इस बारे में बात करने से साफ पल्ला झाड़ लिया.

लाल बहादुर वर्मा कहते हैं, "जब रॉलैट एक्ट आया, जलियांवाला बाग कांड हुआ, युद्ध के फौरन बाद 1919 में ही गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट आया तो भारतीय नेताओं को बड़ी निराशा हुई. युद्ध के बाद पेरिस के महलों में संधि होने लगी. जितने विजेता देश थे उन्हें फायदा पहुंचाया गया और जो पराजित देश थे उन्हें लूटा गया. विजेताओं में उपनिवशों को भी शामिल करने की जरूरत थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया. वादाखिलाफी जैसा माहौल बन गया. खिलाफत और इस तरह के दूसरे आंदोलन इसी मोहभंग के बाद हुए."

पहले विश्वयुद्ध से भारत को भले ही आजादी ना मिली हो लेकिन आजादी के लिए आंदोलन में तेजी जरूर आ गई. भारत के नेताओं को अब ब्रिटेन पर से भरोसा उठ गया था. ब्रिटेन और फ्रांस ने सिर्फ उपनिवेशों को ही धोखा नहीं दिया बल्कि विश्वयुद्ध में उनका साथ देने वाले देशों के साथ भी उन्होंने कोई अच्छा व्यवहार नहीं किया. इतिहासकार तो कहते हैं, "इटली और जापान ने विश्वयुद्ध में ब्रिटेन और फ्रांस का साथ दिया था लेकिन उन्हें युद्ध में जीत का कोई फायदा नहीं मिला. पराजित और अपने साझीदार देशों के साथ भी इन्होंने जो बर्ताव किया उसका नतीजा था कि इटली, जर्मनी और जापान जैसे देशों में फासीवाद बढ़ा."

भारत इसके बाद एक दूसरी राह पर बढ़ा और अहिंसक जन आंदोलनों ने रफ्तार पकड़ ली. दूसरा विश्वयुद्ध खत्म होते होते भारत ने अपनी आजादी के लिए जमीन तैयार कर ली थी.

प्रथम विश्व युद्ध में भारत की क्या भूमिका रही?

1918 तक कुल मिलाकर लगभग 1.3 मिलियन लोगों ने स्वेच्छा से सेवा के लिए योगदान दिया था। युद्ध के दौरान एक मिलियन भारतीय जवानों ने विदेशों में अपनी सेवाएं दी जिनमें से 62,000 से अधिक मारे गए और 67,000 अन्य घायल हो गए थे। कुल मिलाकर 74,187 भारतीय सैनिक प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मारे गए थे।

प्रथम विश्व युद्ध में कितने भारतीय सैनिक शामिल थे?

इस युद्ध में करीब 10 लाख भारतीय सेना (जिसे 'ब्रिटिश भारतीय सेना' कहा जाता है) ने भी भाग लिया था। इनमें से 62,000 सैनिक मारे गए थे और अन्य 67,000 घायल हो गए थेयुद्ध के दौरान कुल मिलाकर 74,187 भारतीय सैनिकों की मौत हुई थी।

प्रथम विश्व युद्ध में भारत कब शामिल हुआ और क्यों?

प्रथम विश्वयुद्ध यूरोप महाद्वीप के कई देशों के बीच लड़ा गया था। भारत प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल नहीं था, क्योंकि उस समय भारत में ब्रिटिश-शासन था और ब्रिटेन स्वयं प्रथम विश्वयुद्ध का एक बड़ा हिस्सा था।

प्रथम विश्व युद्ध में किसकी हार हुई थी?

प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की हार हुई। इसके बाद विजयी मित्र राष्ट्रों जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, अमेरिका और जापान आदि देश शामिल थे, उन्होंने जर्मनी को वर्साय की संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया।

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