नैतिकता का मूल अर्थ क्या है? - naitikata ka mool arth kya hai?

नैतिक मूल्य

नैतिक मूल्य क्या है?

  • मूल्य को कई दार्शनिकों, चिंतकों के द्वारा परिभाषित किया गया है। परंतु, मौलिक रूप से यह किसी व्यक्ति में सामाजिक व्यवहार के लिए पाया जाने वाला वांछित प्राथमिकता है। अर्थात् समाज व्यक्ति से जिन-जिन व्यवहारों की अपेक्षा करता है उससे बनने वाला एैच्छिक आदर्श मूल्य होता है।
  • इसमें नागरिकों की आकांक्षायें, अपेक्षायें देखने को मिलती हैं। मूल्य ऐसे नैतिक मानक होते हैं जो दूसरों के अभिवृत्ति को प्रभावित करते हैं। मूल्य किसी व्यक्ति के मस्तिष्क का आंतरिक नैतिक पक्ष होता है।
  • मूल्य किसी पारिस्थितियों में दूसरे व्यक्ति/समूह/वस्तु के महत्व को बताता है। मूल्यों से तात्पर्य किसी प्रकार की इच्छा, पसंद, सराहना, अनुमोदन व महत्व से है – Brightman

मूल्यों की विशिष्टताएं

मूल्य व नैतिकता
  • मूल्य मानव व्यवहार को निर्देशित करते है, जबकि नीतिशास्त्र नैतिक विश्वासों के लिए तार्किक आधार प्रदान करता है।
  • मूल्य के आधार पर अच्छे व बुरे का निर्धारण होता है। लेकिन नीतिशास्त्र में केवल अच्छे गुणों पर विचार किया जाता है। अतः पूरा नीतिशास्त्र मूल्य आधारित है लेकिन सभी मूल्य नीति शास्त्र नहीं है।
मूल्य व नैतिकता में अंतर
  1. मूल्य व्यक्ति के जीवन के निर्देशक होते है सभी व्यक्ति के अपने मूल्य सिद्धांत होते है जिनके आधार पर वह विचार और व्यवहार करता है।
  2. मूल्य सार्वभौमिक हो सकते है साथ ही व्यक्तिगत भी। मूल्य मानव जीवन के एक विशेष व्यवहार के लिये प्रेरित करते है।
  3. नीतिशास्त्र एक अलिखित नैतिक आदर्श अथवा नैतिक नियमों की प्रणाली है जिसे एक व्यक्ति या संस्था द्वारा पालन किया जाता है। नीतिशास्त्र मुख्य रूप से नैतिक मूल्य आधारित है।
  • नैतिकता (Ethics) बताता है कि क्या सही है क्या गलत। किसी व्यक्ति या पेशेवर को निजी भी अवस्था में पालन करना होता है। इसका अभिप्राय यह है कि, नैतिकता एक निर्देशिका है जो नैतिक प्रश्नों को प्रारूपित करती है। मूल्य, वो सिद्धांत और उपाय है जिनके द्वारा महत्त्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लिए जाते है।
तुलना के आधार नैतिकता मूल्य
अभिप्राय नैतिकता एक निर्देशिका है जो नैतिक प्रश्नों को प्रारूपित करती है। मूल्य वो सिद्धांत और उपाय है जिनके द्वारा महत्त्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लिए जाते हैं।
वे क्या हैं? नैतिक नियमों की प्रणाली। सोच की उत्तेजना है।
संगति प्रत्येक जगह समानता। लोगों तथा स्थानों के अनुसार अलग-अलग
बताता है किसी परिस्थिति में नैतिक रूप से क्या उचित है या क्या अनुचित यह नैतिकता के द्वारा निर्धारित किया जाता है। हम क्या करना या प्राप्त करना चाहते हैं?
निर्धारित करता है हमारे विकल्पों की उचितता या अनुचितता की पहचान करता है। महत्व के स्तर को बताना की क्या महत्त्वपूर्ण है और क्या नहीं।
यह क्या करता है? विवश करता है। उत्साहवर्द्धन करते हैं।

मूल्यों का वर्गीकरण

नीतिशास्त्र और नैतिकता

  • Moral’s शब्द की उत्पत्ति लैटिन के ‘रीति-रिवाज’ से है। मरीयम वेबस्टर (Marriam Webster) डिक्सनरी में नैतिकता शब्द को ‘सही व गलत व्यवहार के विश्वास’ के रूप में दर्शाया गया है।
  • नीतिशास्त्र में दार्शनिक नियमों के समुच्चय को रखा गया है, वहीं नैतिकता विश्वास की वह नियमावली है जिसे समाज व धर्म द्वारा निर्देशित किया जाता है।

नीतिशास्त्र और नैतिकता में अंतर

क्या है?
  • मानवीय कार्यों के एक विशेष समूह या वर्ग या संस्कृति के संबंध में आचरण/व्यवहार के लिए यह ग्रीक शब्द ‘Ethos’ से लिया गया है जिसका अर्थ-चरित्र।
  • आचरण से संबंधित सही या गलत का सिद्धांत। यद्यपि नैतिक मूल्य भी करणीय (Duos) और अकरणीय (Don’ts) को निर्देशित करते हैं।
  • अंततः यह मानवीय आचरण के सही और गलत के व्यक्तिगत या निजी कंपास (निर्धारक) है।
  • यह लैटिन शब्द (More) से लिया गया है जिसका अर्थ रिवाज (Custom) है।
स्रोत (Source)
  • वाह्य-सामाजिक प्रणाली
  • यह सामाजिक व्यवस्था (Social System) से आया है व External (वाह्य) है।
  • नैतिक आचरण के सिद्धांत
  • बौद्धिक प्रयास
  • बौद्धिक औचित्य
  • आंतरिक-व्यक्तिगत
  • यह आंतरिक (Enternal) व व्यक्तिगत (Individual) है।
  • मानकों का समूह
  • सामाजिक क्रियाकलापों से उद्भव
  • यह व्यवहार को परिभाषित करती है।
ग्राह्यता
  • यह नियमों और निश्चित guideline के तहत परिभाषित होती है और विशेष देश और काल के संदर्भ में निर्देशित।
  • यह सामान्य सांस्कृतिक मानकों को आधार बनाती है और इसकी ग्रहणशीलता व्यापक होती है।
क्या है?
  • यह विशेष मानवीय क्रियाओं या विशेष समूह के संदर्भ में समन्वित conducts है।
  • सिद्धांत या वह आदत व्यवहार जो सिखाती है कि क्या अच्छा है या क्या बुरा।
पालन क्यों करते हैं?
  • क्योंकि समाज कहता है कि यह उचित है इसे करो (ज्यादा लचीला) (more flexible)
  • क्योंकि हम इसमें विश्वास करते हैं कि क्या उचित है और क्या अनुचित (कम लचीला) (Less flexible)।
नम्यता (Flexibility)
  • यह अपनी व्याख्या के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है और एक निश्चित दायरे में साम्यता रखता है किन्तु विभिन्न संदर्भों में यह परिवर्तित हो सकता है।
  • यद्यपि विश्वास के बदलने के कारण यह परिवर्तन भी होता है।
द्वंद्व (Dilema’s)
  • यह आवश्यक नहीं है कि हम एथिक्स का पालन करते समय नैतिकता को बनाए अर्थात् हम बिना नैतिकता के भी Ethical हो सकते हैं।
  • कभी-कभी नैतिकता का पक्ष रखने के लिए एथिक्स की अवहेलना भी की जा सकती है।
उदाहरण
  • यदि किसी बड़े नेता का बेटा कोई अपराध करता है तभी वह नेता अपनी ताकत का प्रयोग कर अपने पुत्र को कानूनी प्रक्रिया से छुड़ाता है, तब उसका यह कार्य अनैतिक है क्योंकि राजनीतिज्ञ गुनहगार को छुड़ाना चाहता है।
  • आपका एक करीबी मित्र साक्षात्कार के लिए आता है और उससे बिना प्रश्न पूछे चयनित करना अनैतिक है क्योंकि नियुक्ति की प्रक्रिया पारदर्शी और निष्पक्ष होना चाहिए।

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  • कोई उत्पादक अगर एक मिलावटी सामान को ज्यादा लाभ के लिए अपने ग्राहक को बेचता है, तो उसका यह कार्य न तो नीतिगत (Moral) है और न ही नैतिक है क्योंकि वह एक साथ अपने ग्राहक तथा अपने कार्य दोनों को धोखा दे रहा है।
तुलना के आधार विधि नैतिकता
मतलब विधि एक नियम रूपी ढ़ांचा है, जो सम्पूर्ण समाज तथा इसके प्रत्येक सदस्य की गतिविधियों को संचालित करता है। नीतिशास्त्र, नैतिक दर्शन (Moral Philo-sophy) जो लोगों के बुनियादी मानवीय गतिविधियों का निर्देशन करती है।
वे क्या है? नियमों (rule) व नियमनों (regulation) का समूह। निर्देशों का समूह।
शासन द्वारा सरकार द्वारा संचालित, इसका उल्लंघन होने पर दंड के रूप में सजा या आर्थिक दंड देती है। ऐसा कोई दण्ड या सजा शासन नहीं देता बल्कि यह आत्मप्रेरित है।
कार्य विधि को इस उद्देश्य से बनाया गया है कि इसके द्वारा सामाजिक संरचना तथा शांति को बनाये रखा जा सके तथा सभी नागरिकों को सुरक्षा दी जा सके। नीतिशास्त्र का निर्माण लोगों की मदद के लिए हुआ जिसके द्वारा वो निर्धारित कर पायें की क्या गलत है और क्या सही और कैसे गतिविधियों को संचालित करें।
बाध्यता यह बाध्यकारी है। नैतिकता (Ethics) बाध्यकारी नहीं है।
नैतिकता का क्षेत्र
  • नैतिकता स्वैच्छिक कार्यों से संबंधित है हम मानवीय कार्य (Human Action) और मानव के क्रियाकलाप (Action of Human) के बीच भेद कर सकते है। मानवजनित कार्य वे कार्य है जिसमें मानव समझबूझ कर एक परिणाम पाने के लिये कार्य करता है।
  • लेकिन मानवीय क्रियाकलापों में स्वेच्छा व समझदारी स्वतः रहती है। जैसे- सोना, घूमना आदि। यह धारणा (Intention) ही है जो मानवीय कार्य और मानव के क्रियाकलाप के बीच भेद डालती है। उदाहरण: चाकू से डॉक्टर मरीज का ऑपरेशन कर मरीज की जान बचाता है और कोई उसी चाकू का प्रयोग कई लोगों की जान लेने के लिये करता है। अतः नैतिकता से हम केवल मानवीय कार्यों को देखते और समझते है।
सदगुण (Virtue)
  • मनुष्य के गुणों से उसके चरित्र का निर्माण होता है और कार्यों से उसका आचरण निर्मित होता है। मानव में दो प्रकार के गुण होते है।
  1. व्यक्तिगत गुण: साहस, आत्मनियंत्रण, धैर्य, एकाग्रता, संयम।
  2. सामाजिक गुण: परोपकार, सहानुभूति, अभिवृत्ति।
  • मानवीय आचरण और चरित्र से संबंधित अध्ययन को मानकीय नीतिशास्त्र कहते है।

कुछ मूलभूत पदों की नैतिकता से संबंधित महत्त्वपूर्ण परिभाषाएं

कर्तव्य (Duty) सिद्धांत (Principle) मूल्य (Virtues)
व्यक्ति द्वारा किसी निश्चित पद हेतु अपेक्षित उचित मानवीय कार्यवाही। मूलभूत सत्य जो आचरण के आधार होते है। नैतिक अच्छाई (Moral Goodness)
विशेष
  • महत्त्वपूर्ण यह भी है कि बिना moral हुए भी ethical रहा जा सकता है और ethics की परवाह किये बिना morality को वरीयता दी जा सकती है जैसे-
  • कोई वकील यह जानकर कि वह जिसका केस लड़ रहा है, वह दुर्दान्त अपराधी व भ्रष्टाचारी है, ऐसे में-
  1. यदि वह केस लड़ता है तो professional ethics इसे सही मानेगा भले ही उसकी morality इसके विपरीत हो।
  2. यदि वह morality को चुनेगा तो अपने professional ethics का अनुपालन नहीं कर सकेगा।
नैतिकता और जीवन के मूल्य
  • नैतिकता का हमारे जीवन में बहुत बड़ा स्थान है । जगह जगह पर यह सुननें और देखनें को मिल जाता है कि अब नैतिकता बची ही कहां है, किंतु क्या ऐसा वास्तविक में है? बिना नैतिकता के घर, परिवार, गांव, कस्बा, शहर, यहां तक कि देश की अवधारणा भी नहीं की जा सकती है। यह नैतिकता क्या है? हमें इस पर विचार करना है।
  • नैतिकता मूलरूप से नीति से उत्पन्न हुई है। नीति से नीतिक और इसी का अपभ्रंश नैतिक है। नीति से उत्पन्न भाव नैतिकता कहलाते हैं। नीति एक तरह की विचारधारा है जिसके अंतर्गत हमारे सामाजिक ढांचे को मजबूत किया गया है। मनुष्य का विकास क्रमिक है।
  • पहले वह जंगलों में रहता था। सामाजिक विकास न के बराबर था। एक छोटा सा कुनबा या कबीला होता था किंतु उनमें भी नैतिकता रहती थी। उस कुनबे में कोई न कोई नियम कायदे कानून होते हैं। उनमें भी नैतिकता रहती थी। मनुष्य के विकास के साथ-साथ उनका सामाजिक दायरा बढ़ा, सोच बढ़ी जिसके साथ-साथ नैतिकता भी बढ़ी।
  • आदिकाल से लेकर मध्यकाल तक नैतिकता सामाजिक विकास के अनुपातिक क्रम मे बढ़ी। जैसे-जैसे मनुष्य ने आधुनिक काल में प्रवेश किया उसी समय से नैतिकता में गिरावट आनी शुरू हो गई। नैतिकता का क्षेत्र विस्तृत है।
  • इसके अंदर वे सभी नियम कानून आ जाते हैं जो किसी भी संस्था को चलाने के लिये आदर्श माने जाते हैं। उपर्युत्तफ़ वाक्य मे आदर्श विशेषण के रूप मे प्रयोग किया गया है।
  • यद्यपि बिना नैतिकता के भी संस्थाएं चल सकती हैं किंतु वे आदर्श संस्थाओं का स्थान नहीं ले सकती हैं। उदाहरण के तौर पर हम परिवार नामक संस्था को देखते हैं।
  • समाजशास्त्र के विद्वानों ने एक छत के नीचे रहने वाले मां-बाप, पति- पत्नी व बच्चों को परिवार माना है। इस परिवार नामक संस्था में पिता को कर्ता माना गया है। इसके लिये कुछ नियम बनें हैं। परिवार का कर्ता धन उपार्जित करेगा। घर में गृहणी घर का काम काज करेगी।
  • घर के आंतरिक कार्यों की जवाबदेही गृहणी की और घर के वाह्य कार्यों की जवाबदेही कर्ता अर्थात घर के मुखिया की निर्धारित की गई।
  • मां-बाप अपनें बच्चों की परवरिश यथाशत्तिफ़ करते हैं और जब मां बाप बूढ़े हो जाते हैं तब उनकी सेवा बच्चे करते हैं। परिवार का हर सदस्य एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करता है। उपरोक्त यही नियम पारिवारिक नैतिकता की श्रेणी में आते हैं।
  • इसी तरह किसी भी क्षेत्र के लिए चाहे वह सामाजिक,राजनीतिक या आर्थिक हो, कुछ न कुछ नियम जरूर होते हैं और इन नियमों का अनुपालन नैतिकता की श्रेणी में आता है। वर्तमान में समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार में दिन प्रतिदिन नैतिक मूल्यों की कमी आ रही है।
  • यह हम सब के लिये चिंता का विषय है। युवा पीढ़ी को इस पर विशेष ध्यान देना होगा। परिवार में बुजुर्गों का सम्मान घट रहा है। युवा पीढ़ी उन्हें बोझ समझ रही है। पारिवारिक कलह दिन प्रतिदिन बढ़ रहें हैं।
  • यह सब नैतिकता के पतन का परिणाम है। आज हम किसी भी क्षेत्र की बात करें, नैतिकता का ह्रास दिखाई पड़ रहा है। हमनें हर क्षेत्र मे नियमावली तो बना डाली है किंतु नैतिकता की यह नियमावली किताबों के पन्नों में सुशोभित होकर रह गई है।
  • नैतिकता के ह्रास का मूल कारण भ्रष्टाचार है। जब हम गलत तरीके से ज्यादा की चाहत करने लगते हैं तब भ्रष्टाचार जन्म लेता है जो नैतिकता के पतन का कारण बनता है।
  • धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष हमारे जीवन के मूल्य हैं और इन सभी से नैतिकता का सीधा संबंध है। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि जीवन के मूल्य नैतिकता के समानुपाती हैं।
  • अर्थात यदि हमारे जीवन में नैतिकता का समावेश है तो हमारे जीवन के मूल्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सही तरह से निष्पादित होते हैं। बिना नैतिकता के हमारा जीवन पशुवत है।
  • आहार और प्रजनन तो जीव मात्र की आवश्यकता है, हम तो मनुष्य हैं। ईश्वर ने हमें सोचने समझने की शक्ति दी है।
  • परिणामस्वरूप हमारे मनीषियों, शिक्षाविदों नें अच्छा जीवन जीने के लिये कुछ नियम बनाये हैं। जिन पर चलना हमारा परम कर्तव्य है और इन कर्तव्यों का पालन ही नैतिकता है जिसके फलस्वरूप हमारा जीवन अमृतमय बनता है।
  • धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जीवन के मूल्यों को हम अपने जीवन में सही ढंग से समाहित कर सकते हैं। बिना नैतिकता के हमारे जीवन मूल्य शून्य हैं।
  • आज हमारी संस्कृति पाश्चात्य एवं भारतीयता का मिला- जुला स्वरूप है। देश काल और समाज के हिसाब से हमारी संस्कृति में भी बदलाव आया है। शहरीकरण और टूटते संयुक्त परिवारों के लिये तो नैतिकता वरदान है।
  • चाहे हम घर में हों या बाहर, खेत खलिहान में हों या दफ्तर में, शासित वर्ग में हों या शासक में, हमें नैतिकता को सर्वोच्च स्थान देना होगा। तभी हम भारत की पुरानी परिकल्पना सोने की चिडि़या को साकार कर पायेगें और आनेवाली पीढ़ी के लिये आदर्श साबित हो सकेंगे।
सार्वजनिक जीवन एवं नैतिक मूल्य
  • सार्वजनिक जीवन और नैतिक मूल्य दोनों ही एक-दूसरे पर निर्भर है और परस्पर पूरक भी। सार्वजनिक जीवन मानव समूहों के पारस्परिक संबंधों का द्योतक है।
  • अरस्तू का कथन है कि फ्मानव एक सामाजिक प्राणी है और वह समाज के बिना रह ही नहीं सकता तथा उनका यह कहना कि वह व्यक्ति जो समाज में नहीं रहता या जिसकी कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वह अपने आप में पूर्ण है, अवश्य ही या तो पशु है या परमात्मा, क्योंकि समाज जीवन की सत्यता एवं आवश्यकता को दर्शाता है।
  • सार्वजनिक जीवन को दो रूपों में देख सकते है। पहला समाज में रहकर व्यक्ति के रूप में जहां उनकी मांगे भिन्न परस्पर विरोधी और असंख्य हो सकती है, किन्तु उसका सामूहिक स्वरूप समाज कल्याण के सामान्य हित से निर्देशित होता है। दूसरे हर वह व्यक्ति या समूह जो जनता की समस्याओं के निदान के लिए क्रियाशील है, सार्वजनिक जीवन से संबंधित है।
  • यह क्रियाशीलता राजनीतिक संगठनों के रूप में विधायिकाओं तथा विधायिका से बाहर गैर-सरकारी संगठनों के रूप में भी हो सकती है।
  • समाज में रहते हुए मानव एक-दूसरे से सहयोग की अपेक्षा करता है तथा समाज में ही उनकी आवश्यकता की पूर्ति भी होती है। प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता मिलकर सामूहिक आवश्यकता का आकार ग्रहण करती है और इसी आवश्यकता की पूर्ति सार्वजनिक जीवन का लक्ष्य होता है।
  • नैतिक मूल्य शब्दशः नैतिकता पर आधारित आचार- व्यवहार है। यह आमतौर पर दर्शन का विषय है। यह इंगित करता है कि व्यक्ति अपने सार्वजनिक जीवन में उच्च स्तर की नैतिकता एवं आदर्श प्रस्तुत करते हुए सत्यनिष्ठा एवं ईमानदारी से अपने दायित्वों का निर्वाह करे।
  • यह राज सत्ता की सफलता के लिए एक बुनियादी तत्त्व है क्योंकि इसी आधार पर जनता की भावनाओं, कमजोर वर्गों के कल्याण तथा लोकतांत्रिक अवधारणाओं आदि का विशेष ख्याल रखा जा सकता है।
  • नैतिकता प्राचीनकाल से आज तक बदलती व्यवस्था के साथ चेतना और चिंतन के स्तर पर परिवर्तित होती रही है।
  • प्राचीन राजतंत्र में जहां राजा का पराक्रम तथा सत्ता का लक्ष्य ‘वीर भोग्या वंसुधरा’ का था तथा सभी प्राचीन राज्य किसी न किसी साम्राज्य विस्तार की लिप्सा के नायकों के नाम पर खड़े किये गये थे, वहीं आज राजा एक आतंक के रूप में सभी सभ्य समाजों से विदा हो चुके हैं और जहां है भी वह लोक संप्रभुता से प्रशासित हो रहे है और राज्य का उद्देश्य अर्थात सार्वजनिक जीवन का उद्देश्य ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ हो गया है।
  • प्रभु ईसा मसीह का यह कथन कि फ्किसी से वैसे ही व्यवहार कीजिए जैसे व्यवहार की कामना आप रखते हैय् यह स्पष्ट करता है कि जीवन खण्डों में विभाजित नहीं हो सकता। यहीं पर सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्य की विवेचना की अपेक्षा होती है।
  • यूं तो सभ्य समाज के अभ्युदय काल से ही उसके नियमन के संस्थागत स्वरूप तथा सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों के संदर्भ का अन्वेषण चलता रहा है। वेद, उपनिषद, अरण्यक से लेकर स्मृतियाँ, शुक्रनीति कामन्दक का नीति सार, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, बौद्ध एवं जैन साहित्य सन्दर्भित उदाहरणों से भरे पड़े हैं।
  • पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों ने भारत के अतीत के अध्ययन का गंभीर प्रयास लिखकर यह दिखाने का प्रयत्न किया कि, प्राचीन काल में राजा सभी के प्रति न्याय करता था। सार्वजनिक जीवन में जीवन मूल्य के संदर्भ को रामायण और महाभारत ने और भी व्यापक परिदृश्य प्रदान किया।
  • रामायणकालीन राज्यों का संचालन धर्म द्वारा होता था। उस समय धर्म किसी वर्ग विशेष जाति या साम्प्रदायिक तत्त्व से प्रभावित न होकर सदाचार, आत्मकल्याण तथा लोकल्याण आदि भावनाओं के स्तंभों पर आधारित था।
  • रामायण में वर्णित यही धर्म (नैतिक मूल्य) राज्य का आधार स्तंभ होने के कारण आज के युग में भी मार्गदर्शन के रूप में अवस्थित है।
  • कौटिल्य ने भी अपनी पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ में राजपद के लिए आवश्यक गुण बतायें। कौटिल्य ने राजा को धर्मशास्त्र एवं नीतिशास्त्र के संस्थापित नियमों के अधीन रखा।
  • अरस्तु के शब्दों में ‘राज्य की उत्पत्ति जीवन के लिए होती है और वह सद्जीवन के लिए जीवित रहता है।’
  • आधुनिक भारतीय चिन्तकों में विवेकानन्द, अरविन्द, गांधी, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, जयप्रकाश नारायण आदि ने भी सार्वजनिक जीवन का पर्याय राजनीति को वर्तमान युग की कूटनीति से ऊंचा उठाकर नैतिकता के उच्च स्तर पर पहुंचाया और कहा कि सार्वजनिक एवं राजनीतिक जीवन में श्रेष्ठ लक्ष्य की प्राप्ति नैतिकता के बिना संभव नहीं।
  • गांधी जी ने तो धर्म को जीवन का व्यापक अंग बनाकर संसार के सामने यह प्रस्ताव रखा कि राजनीति एवं अर्थनीति धर्म एवं आचरण शास्त्र के अंग है।
  • उनका धर्म नैतिकता ही था। उन्होंने कहा कि ‘राजनीति को सदैव धर्म की अधीनता में चलना चाहिए। धर्महीन राजनीति मृत्युपाश के समान है क्योंकि उससे आत्मा का हनन होता है।’
  • आज राजसत्ता के स्वरूप के संक्रमण ने लोकप्रिय संप्रभुता, लोक कल्याणकारी, राज्य और इनकी प्राप्ति के लिए लोकजीवन में नैतिक मूल्यों की प्राथमिकता को उजागर किया है और आज लोक प्रशासन एक स्वतंत्र अनुशासन के रूप में सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों की स्थापना की खोज और उसके कार्यान्वयन के विधा के रूप में जाना जाने लगा है।
  • व्यवहारतः सार्वजनिक जीवन सत्तासीन लोगों से ज्यादा संबंधित है क्योंकि शासन की बागडोर उनके हाथ में होती है। उनके नैतिक मूल्य ही नीति निर्माण और योजनाओं को स्वरूप प्रदान करने में तथा यह योजनाओं एवं नीतियों के कार्यान्वयन में महती भूमिका अदा करते है।
  • भारतीय संविधान या अमेरिकी संविधान में शक्तियों का स्रोत जनता को मानते हुए यह अपेक्षा की गयी कि लोक प्रशासन की पवित्रता जनता की सर्वोन्मुखी विकास में है और यह तभी संभव है कि जब शासक और शासित के बीच आत्मीयता का बोध हो।
  • यह आत्मीयता स्वतंत्र सूचना प्रवाह, भ्रष्टाचारविहीन कार्य प्रणाली और पारदर्शी प्रशासन पर आधारित हो। उल्लिखित विशेषण सार्वजनिक जीवन की पवित्रता की ओर इशारा करते हैं।
  • विश्व के अधिकतर राज्यों के स्वरूप में आज परिवर्तन हुआ है। 19वीं सदी में व्याप्त लैसेस्फेयर की अवधारणा का स्थान 20वीं सदी में लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ने ले लिया है और राज्य मानवीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से संबंद्ध हो गया है।
  • ऐसे में प्रशासन को लोकोपकारी सक्रिय एवं गतिशील बनाने के लिए उसे नैतिकता पर आधारित होना आवश्यक है। गार्नर ने कहा था कि कोई भी समाज तब तक अपनी महानता की ऊंचाईयों तक नहीं पहुंच सकता जब तक कि उसकी सृजनशीलता और बुद्धि के विवेचित क्षेत्रें में निष्ठावान पुरुष एवं महिलाएं प्रचुरता में उपलब्ध न हो।
  • इसी कारण लोक प्रशासन के अध्ययन क्षेत्र में विगत तीन दशकों से नये विचारों का सूत्रपात हुआ जिसे नवीन लोक प्रशासन की संज्ञा दी गयी है।
  • लोक प्रशासन के सिद्धांत उन तत्त्वों को पहचानने में असफल रहे हैं जो सार्वजनिक क्षेत्र में प्रभावकारिता एवं दक्षता के प्रेरक हैं।
  • प्राचीन लोक प्रशासन जहां मूल्य निरपेक्षता, दक्षता, निष्पक्षता, कार्यकुशलता के सिद्धांत पर आधारित था वहीं नया लोक प्रशासन, नैतिकता, उत्तरदायित्व, सामाजिक सापेक्षता, नमनीय तटस्थता एवं प्रतिबद्ध प्रशासनिक प्रणाली पर बल देता है।
  • नवीन लोकप्रशासन के विद्वानों का स्पष्ट मत है कि मूल्यों की आधारशिला पर ही ज्ञान की इमारत खड़ी की जा सकती है और यदि मूल्यों को ज्ञान की प्रेरक शक्ति न माना जाए तो सदा ही यह खतरा रहता है कि ज्ञान को गलत उद्देश्यों के लिए काम में लाया जायेगा।
  • ज्ञान का उपयोग यदि सही उद्देश्यों के लिए करना है तो मूल्यों को उनकी केन्द्रीय स्थिति पर फिर से स्थापित करना होगा।आज सामाजिक समता की ओर भी उन्मुखता बढ़ी है।
  • आज सामाजिक लोकतंत्र को राजनीतिक लोकतंत्र की पूर्व शर्त के रूप में प्रतिस्थापित किया जा रहा है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना एवं अन्य भागों में भी ‘सामाजिक, आर्थिक-न्याय का संकल्प व्यक्त किया गया है।
  • आज बेन्थम के ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ की जगह रस्किन के ‘अन्टु दी लास्ट’ राज्य का अभीष्ट भाग है यानि अंतिम व्यक्ति, व्यक्ति के कल्याण अर्थात सबकी भलाई में ही पूरे समाज की भलाई का निहित होना।
  • गांधी की सर्वोदय विचारधारा भी रस्किन के इन्हीं विचारों से प्रभावित थी किन्तु इसकी प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि सार्वजनिक जीवन से संबंधित सत्तासीन लोगों का नैतिकवान होना।
  • सार्वजनिक जीवन में नैतिकता को सुनिश्चित करने के लिए अनेक मूल तत्त्वों को गिनाया जा सकता है। परंतु इसके मुख्य तत्त्वों में सबसे आवश्यक है राजनीति में नैतिकता का समावेश का होना।
  • राजनीतिक अभिजन के द्वारा जब तक राजनीतिक कार्यों के संबंध में ईमानदारी प्रदर्शित नहीं होगी प्रशासनिक कार्यपालिका के मन में उनके न्यायप्रियता तथा निष्पक्षता के संबंध में विश्वास कायम नहीं होगा। राजनैतिक भ्रष्टाचार एवं हस्तक्षेप से ही शासन के अंतर्गत अधिकांश समस्याएं जन्म ले रही है।
  • दूसरे, समाज की सामान्य नैतिकता का ही भाग प्रशासनिक नैतिकता है। नैतिकता सार्वजनिक जीवन और व्यक्तिगत दो भागों में विभाजित नहीं की जा सकती है।
  • किसी भी सरकार की सफलता उसके नागरिकों के सकारात्मक सहयोग पर निर्भर करती है। राजनीतिशास्त्र के सभी ग्रंथ देश की प्रगति व सार्वजनिक कल्याण के लिए नागरिक चेतना पर बल देते हैं।
  • फायनर ने कहा भी है कि निकट विश्लेषण करने पर प्रत्येक व्यवसाय की नैतिकता समग्र राष्ट्र की सामान्य शालीनता से न बहुत अधिक होगी न बहुत कम होगी। उनकी प्रकृति अधिकाधिक चारों ओर के स्तर तथा विद्यमान सभ्यता द्वारा प्रभावशाली ढंग से गढ़ी जाती है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा है कि राज्य कर्मचारियों से न केवल उनके सरकारी ड्यूटी के निष्पादन के समय बल्कि उनके निजी जीवन में भी आचरण में एक विशेष मानक की मांग करता है। अतः आवश्यकता है कि हमारी शिक्षा पद्धति और जनमाध्यम लोगों में चरित्र निर्माण हेतु पुनः स्थापित किये जाये।
  • तीसरे, प्रजातांत्रिक ढांचे में राजनैतिक तटस्थता सरकारी सेवा की दक्षता एवं ईमानदारी के लिए आवश्यक है। 1975 के Indian Journal of Public Administration में पी.सी. सेठी ने राजनीतिक तटस्थता की अवधारणा पर बल दिया।
  • सेवाओं में अनुशासन, निष्ठा और राजनैतिक तटस्थता बनाये रखने के लिए भारत सरकार द्वारा बनाये गये सरकारी सेवाओं में आचरण के नियमों का पालन होना चाहिए।
  • सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्य राज्य के नीति निर्देशन की दिशा से ही तय होते है। व्यक्तिगत मुनाफे में ही भ्रष्टाचार सिन्नहित होता है। यदि राजसत्ता पूर्णरूप से मुनाफे की अर्थव्यवस्था की पैरोकार है तो व्यक्तिगत पूंजी का प्रश्रय उसकी प्राथमिकता होगी और ऐसी स्थिति में समाज के अंतिम व्यक्ति का कल्याण उसका अभीष्ट नहीं रह जाएगा।
  • फलतः उनके नैतिक मूल्य भी खानापूर्ति से निर्देशित होंगे न कि ‘अन टू द लास्ट’ से। इसलिए हमें नैतिक मूल्य और सार्वजनिक जीवन दोनों को लोक कल्याणकारी राज्य के संदर्भ में ही देखना होगा जहां पर राज्य का लक्ष्य सरजमीं की जनता का कल्याण है। व्यक्ति के सम्पत्ति अर्जन की स्वतंत्रता को एक सीमा तक बनाये रखकर सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है।
  • राजनीतिक एवं प्रशासनिक नेतृत्व द्वारा एक नैतिक मानदण्ड स्थापित किया जाना चाहिए। जिससे कार्यों के निष्पादन में गतिशीलता एवं निष्पक्षता आए।
  • सार्वजनिक कार्यों में नैतिकता के लिए जरूरी है कि संगठन के व्यावसायिक कार्यों के क्षेत्र में उत्तम सेवा का लक्ष्य सुनिश्चित कर कार्यों का सम्पादन किया जाये। ऐसे में नैतिकता का समावेश होगा ही।
  • महात्मा गांधी ने इसलिए बार-बार इसे याद करते रहने को कहा है कि- ‘वैष्णव जन तो तैने कहिए जे पीर पराई जाने रे’
  • पंडित जवाहर लाल नेहरू के कथन का उल्लेख सटीक है कि ‘कोई भी प्रशासक कर्तव्य भाव के बिना, जिहाद भावना के बिना वस्तुतः प्रथम श्रेणी का कार्य कर ही नहीं सकता।‘
  • समाज के प्रति समर्पण, राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन की नैतिकता की पहली शर्त है। इसी को मिशनरी उत्साह भी कहा जाता है।
  • जब तक यह भाव नहीं आयेगा तब तक जीवन के हर व्यवसाय की तरह सार्वजनिक जीवन का पर्याय राजनीति भी व्यवसाय ही होकर रह जायेगा, जहां लक्ष्य लोक कल्याण नहीं ‘स्वान्तः सुखाय’ है।
  • यूं तो किसी न किसी रूप में मानव में कुप्रवृत्तियाँ, अनैतिकता सदैव कायम ही है, जिससे सार्वजनिक जीवन प्रभावित रहा है।
  • परंतु आज समाज में राजनैतिक चेतना तथा जनता की भागीदारी ज्यों-ज्यों बढ़ रही है, राजसत्ता के दायित्व बोध का स्वरूप भी निखर रहा है तथा मीडिया की सक्रियता और व्यापकता राज्यसत्ता के विभिन्न पहलुओं की कुप्रवृत्तियों को उजागर कर रही है और कुरीति के समस्त पक्ष समाज की नजरों के सामने आ रहे हैं।
  • इस प्रकार उपर्युक्त मूल तत्त्वों के अतिरिक्त राजनीतिक चेतना और मीडिया की सक्रियता सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्य की प्राप्ति के लिए कारगर दवा होगी।
  • शायद ही कोई व्यक्ति अपने परिवार का चयन कर सकता है। यह संबंध सापेक्षिक दृष्टिकोण से स्थायी होता है। जैसे-यह संभव है कि कोई व्यक्ति अपने भाई-बहन या माता-पिता से दूर होना चाहे परन्तु ऐसा कर पाना संभव नहीं हो पाता।
  • तमाम कमियों के बावजूद इन रिश्तों को निभाना ही पड़ता है। एक बार जब आप तय कर लेते है कि अमुक व्यक्ति आपका दोस्त है तो तमाम खामियों के बावजूद आप उसे स्वीकार करने लगते है (ठीक ऐसी ही उम्मीद आप दूसरे पक्ष से भी करते है)।
  • निजी संबंधों में जताई जाने वाली उम्मीदों में अधिकार होता है और यह उम्मीद की जाती है कि उस भावना में ईमानदारी होगी।

इसमें निम्न मुद्दों को पढ़ा जाता है-

  • विवाह
  • परिवार (विवाह, तलाक)
  • मित्र (स्वयं, छोटे समूह, कॉरपोरेट कार्यालय)
  • निजी कंपनी नीतिशास्त्र व कॉरपोरेट नीतिशास्त्र

श्रमिक नीतिशास्त्र

  • कार्यस्थल पर उम्र के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए और न ही लिंग, धर्म, दिव्यांगता के आधार पर।
  1. सुरक्षा के उपाय उपयुक्त होने चाहिए।
  2. खतरनाक कार्यों को करने के लिए उचित प्रशिक्षण।

मार्केटिंग नीतिशास्त्र

उत्पादन में नैतिकता

  • उत्पाद एवं उत्पादन प्रक्रिया सुरक्षित होना चाहिए। उत्पादन के दौरान प्रदूषण कम से कम निष्कासित हो। उत्पादन, पर्यावरण मित्र हो। बौद्धिक संपदा: विचार, मत, कोड, सूचना आदि संबंधित अधिकार इसके अंर्तगत आता है।
  • ये व्यक्ति के वास्तविक अधिकार है। इससे संबंधित जो कानून है इसे ट्रिप्स कहते हैं। पेटेंट कानून, कॉपीराइट, बायो पेटेंट कानून का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।
हित संघर्ष क्या है? (Conflict of Intrest)
  • एक व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में कई भूमिकाओं को निभाता है, ऐसे में वे अंतर्निहित तौर पर भिन्न हितों एवं वफादारियों को धारण करते हैं। किसी समय विशेष में ये हित आपस में टकराते हैं या प्रतिस्पर्द्धा करते हैं।
  • यह टकराव या प्रतिस्पर्द्धा ही हित संघर्ष है। ये संघर्ष जीवन के अंग हैं और अपरिहार्य हैं। लोक अधिकारी या प्रशासनिक अधिकारी, लोक विश्वास के प्रबंधक के रूप में, से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने हित से पहले लोक हित को प्राथमिकता दे।
  • अमर्यादा तब घटित होता है जब कोई पदाधिकारी, जो कि हित संघर्ष से जूझ रहा है, अपनी निजी या वित्तीय हितों को लोक हितों से ऊपर रखता है। साधारण शब्दों में, वह अधिकारी अपनी लोक क्षमता के रूप में किये गये किस निर्णय से मौद्रिक या अन्य पुरस्कार प्राप्त करता है।
हित संघर्ष व नीतिशास्त्र का संबंध
  • सार्वजनिक सेवा हमेशा आम भलाई व जन कल्याण के निमित्त होता है जिसे आम परिस्थिति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो कि सभी की भलाई के लिए महत्त्वपूर्ण है। एक लोक सेवक को अपनी उन व्यक्तिगत, वित्तीय या राजनीतिक लाभों से आगे आम भलाई को निश्चित रूप से रखना चाहिये जिसका निर्णय उन्हें करना है।
  • साथ ही हित संघर्ष, सभी के साथ समान व्यवहार के मूल नीतिशास्त्रीय सिद्धांत में भी हस्तक्षेप करता है। किसी लोक अधिकारी को दूसरों की कीमत पर खुद को लाभ पहुँचाने के लिए अपने पद का अनुचित इस्तेमाल नहीं करना चाहिये।
  • अंत में, हित संघर्ष ‘विश्वास’ को क्षरण करता है। यह सरकारी निर्णय प्रक्रियाओं में लोगों के विश्वास को उत्तरोत्तर कम करता है।

कारोबार सामाजिक

कुछ ऐसे उपाए जो हित के टकरावों से बचाव करते हैं-

  1. नैतिकता की संहिता: ये वैसे मार्ग हैं जो अच्छाई का मार्गदर्शन करते है। आचार-संहिता क्या करने योग्य है और क्या नहीं? यह हितों के टकराव को रोकता है।
  2. कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व (Corporate Social Responsibility): यह व्यापारिक एवं औद्योगिक कंपनियों के द्वारा निभाए जाने वाले ऐसे बाध्यतापूर्ण कार्य है, जिसके तहत वे सामाजिक हित में कुछ, कानूनों, नैतिक मानकों एवं अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों को स्वीकार करते है।
  3. CSR के अर्न्तगत कंपनी कुछ ऐसे काम करती है, जो पर्यावरण, आम जनता, उपभोक्ताओं, कर्मचारियों अंशधारियों पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं। जैसे-जून 2013 के उत्तराखण्ड के बाढ़ एवं भूस्खलन से संबंधित राहत कोष में Coal India, ONGC आदि का अंशदान CSR का उदाहरण है।
  • भारत में कम्पनी अधिनियम, 2011 के अनुच्छेद 7 से निम्न गतिविधियों को कॉर्पोरेट-सामाजिक दायित्व बताया गया है-

  • CSR की उत्पत्ति व्यवसाय को संचालित करने वाले शुद्ध आर्थिक प्रतिरूप की कमियों से हुआ है। व्यवसाय का शुद्ध आर्थिक प्रतिरूप बिना किसी नैतिक व सामाजिक बाध्यता के मुनाफे को अधिकतम करने की चिंता रखता है।
  • इस प्रतिरूप से कामगारों का भयानक शोषण हुआ तथा उपभोक्ता के हितों के ध्यान में रखते हुए व्यवसाय का सामाजिक आर्थिक प्रतिरूप विकसित हुआ।
  • इसमें व्यवसाय के सामाजिक नियमन पर बल दिया गया। CSR की उत्पत्ति व्यवसाय के सामाजिक नियमन से हुई है। कानून-बनाकर नियामक निगमों के द्वारा, सामाजिक आदेशों के द्वारा CSR को लागू किया जाता है।

सार्वजनिक संबंधों में नैतिकता

सार्वजनिक संबंधों की विशेषताएं:
  • कई बार हम अपने से बिल्कुल ही अलग प्रवृत्ति के लोगों से मिलते है। जिनसे हमारा किसी बात पर मतभेद हो जाता है। अगर हम उनसे लड़ाई करें तो हमें परेशानी हो सकती है।
  • ये सार्वजनिक संबंध है जो व्यक्तिगत संबंध की तुलना में असुरक्षित होता है। ये संबंध आवश्यकतानुसार निर्धारित होते है।
  • हम अन्य लोगों से आवश्यकता के कारण संबंध स्थापित करते है जो जरूरत खत्म हो जाने पर खत्म हो जाती है, अतः ये संबंध काफी परिवर्तनशील होते हैं। उदाहरण- समय के साथ पुरानी जान-पहचान गायब होने लगती है और नए-नए संबंध बनने लगते है। जैसे- कार विक्रेता और ग्राहक के बीच संबंध। निम्न विषयों का सार्वजनिक संबंध के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है-सरकार, सरकारी अधिकारी, विद्यार्थी, स्कूल, राजनेता, सहश्रमिक, प्रशासन इत्यादि।
नोलान समिति की सिद्धांत (2nd ARC रिपोर्ट)
  • नोलान समिति का गठन सार्वजनिक जीवन में कार्यों के लिए आवश्यक सिद्धांतों के निर्देशन के लिए किया गया था। नोलान समिति ने ऐसे 7 सिद्धांत बताए-

  • इन सिद्धांतों का जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुप्रयोग है। जिसमें प्रमुख तत्त्व हैं-
  1. यह सार्वजनिक जीवन का सिद्धांत है।
  2. यह आचार संहिता है।
  3. निष्पक्ष जांच
  4. शिक्षा के क्षेत्र में

मूल्यों को विकसित करने में परिवार, समाज और शैक्षणिक संस्थाओं की भूमिका

मूल्य का आशय एवं प्रासंगिकता
  • मानव मूल्य का आशय वैसे मूल्यों से है जो मानव की सोच व्यवहार एवं कार्य का मार्गदर्शन कर जीवन को परिष्कृत एवं गरिमापूर्ण बनाते है।
  • मनुष्य भय, मैथुन, आहार आदि में पशु के समान है, परंतु मूल्यों के कारण वह मानव कहलाने का अधिकारी बन जाता है। वर्तमान में जीवन के प्रत्येक स्तर एवं प्रत्येक क्षेत्र में मूल्यों का ह्रास हो रहा है।
  • आज समाज के रोल-मॉडल बदल रहे है। भ्रष्ट आचरण में लिप्त, धन-बल संपन्न लोग आज सार्वजनिक मंचों पर सम्मान पा रहे है। इन सबका गलत संदेश नई पीढ़ी पर जा रहा है। जिसका दुष्परिणाम समाज और राष्ट्र के साथ-साथ सामान्य जन को भुगतना पड़ रहा है।
  • आज एक सामान्य आदमी की धारणा है कि मेहनतकश लोगों का शोषण हो रहा है व झूठ और फरेब का बोलबाला है और इसी कारण जनसाधारण के जीवन में नैतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति आस्था घट रही है आज मूल्य संकट की स्थिति उभरकर सामने आ रही है।
  • मूल्य संकट के बारे में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का यह कथन सही प्रतीत होता है कि- फ्हम यह जानते हैं कि सही क्या है, हम उसकी सराहना करते हैं लेकिन उसे अपनाते नहीं हैं। हम यह भी जानते हैं कि बुरा क्या है, हम उसकी भर्त्सना भी करते हैं फिर भी उसी के पीछे भागते है।य्
  • वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मूल्यविहीनता की स्थिति जीवन के सभी क्षेत्रें में दिखाई देती है। परिणामस्वरूप नाना प्रकार की समस्याएं जैसे-भ्रष्टाचार, लिंगभेद, यौन शोषण एवं उत्पीड़न, जातिभेद, बाल अपराध, धार्मिक वैमनस्य एवं हिंसा, आपराधिक प्रवृत्ति, पर्यावरणीय संकट, आतंकवाद आदि उभरकर सामने आ रहे हैं। इनके समाधान का एक प्रभावशाली उपाय सुशासन की स्थापना करना है।
  • सुशासन की स्थापना हेतु शासन (Governance) एवं प्रशासन (Administration) में उच्च मूल्य युक्त नेताओं एवं अधिकारियों का होना तथा जनमानस का अधिकारों के प्रति जागरूक एवं कर्तव्यों के प्रति संवेदनशील होना आवश्यक है। शासन और प्रशासन का संचालन समाज में पले-बढ़े लोगों द्वारा ही होता है।
  • अतः यदि उनमें प्रारंभ से ही नैतिकता की जड़े कमजोर हो तो फिर उन्हें भाषण, नैतिक व्याख्यान आदि मात्र से मूल्यपूर्ण नहीं बनाया जा सकता।
  • ऐसा तभी संभव है जब बचपन से जीवन के विभिन्न स्तरों पर तथा परिवार, समाज एवं शैक्षणिक संस्थाओं में अच्छे विचारों, आदर्शों एवं मूल्यात्मक आचरण की नींव डाली जाए और उसे जीवन के अभिन्न अंग के रूप में एवं आदत के रूप में विकसित किया जाए।
  • आदमी के जैसे विचार होते हैं वैसे ही उसका व्यवहार होता है। लगातार सदाचरण से उन्नत चरित्र का निर्माण होता है। ऐसी स्थिति में इस बात की चर्चा करनी आवश्यक है कि आखिर मूल्यों को कैसे संरक्षित किया जाए और मानव के जीवन में इन्हें कैसे व्यापक एवं प्रभावी रूप से साकारित किया जाये।
  • मूल्यों को संरक्षित करने, मन में रोपित करने (Inculcate) एवं विस्तारित करने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका परिवार, समाज एवं शैक्षणिक संस्थाओं की है।
  • नीतिशास्त्रीय संदर्भ में मूल्य का आशय भौतिक मूल्य या परिमाणात्मक मूल्य से न होकर जीवन के गुणात्मक पक्ष से संबंधित मूल्यों से होता है। मनुष्य केवल पशु के समान जीना नहीं चाहता बल्कि अच्छी तरह एवं गरिमापूर्ण तरीके से जीना चाहता है।
  • इसके लिए जीवन का मूल्य पूर्ण आवश्यक है। जीवन स्वयं अपने आप में शुभ नहीं है, बल्कि इसे प्रयास पूर्वक बनाना पड़ता है। इसमें मूल्यों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
  • मनुष्य अपने जीवन में उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को निर्धारित करता है। इस लक्ष्य प्राप्ति में जो आदर्श रूप में सहायक होते हैं, वहीं मूल्य हैं।
  • एक संदर्भ में भोजन, घर आदि भी मूल्यवान हैं क्योंकि ये जीवन रक्षा एवं जीवन वृद्धि में सहायक हैं। परंतु मानवीय मूल्य का वास्तविक आशय उन तत्त्वों से है जो जीवन को शुभ एवं गरिमापूर्ण बनाते हैं तथा व्यक्तित्त्व एवं चारित्रिक उत्थान में सहायक हैं।
  • न्याय, स्वतंत्रता, समानता, देशभक्ति, अस्तेय, दया, करूणा, ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, सौंदर्य, प्रेम, मैत्री, शील, शुभत्व आदि महत्त्वपूर्ण मानवीय मूल्य हैं। ये मूल्य स्वस्थ एवं संतुलित सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक हैं।
  • मूल्यों के माध्यम से व्यक्ति एवं संपूर्ण समाज के व्यवहार को निर्देशित किया जाता है। मानव मूल्य, मानव सोच, व्यवहार एवं कार्य में मार्गदर्शक के रूप में कार्य करते है। कर्मों के संपादन के क्रम में उत्पन्न होने वाले द्वंद्वों के निराकरण का आधार यही मानवीय मूल्य हैं।
  • दूसरे शब्दों में मूल्य वे कसौटियाँ, व्यवहार के पैमाने या मानदण्ड हैं, जिनके आधार पर अच्छे बुरे, वांछित-अवांछित, सही-गलत, करणीय और अकरणीय का निर्णय किया जाता है।
  • इन्हीं मानवीय मूल्यों के अनुसार आचरण करना ही सच्चरित्रता है। ऐसे मूल्य जिनसे व्यक्तियों को सुख और संतुष्टि प्राप्त होती है, वे व्यक्तिगत मूल्य कहलाते हैं। जैसे-बागवानी करना, सजना-संवरना आदि। ऐसे मूल्य जो संपूर्ण समाज या मानवता के हितों से संबंधित होते हैं, वे सामाजिक मूल्यों की श्रेणी में आते हैं।
  • ब्रिटिश विचारक जॉन लॉक यह मानते हैं कि जन्म के समय बालक का मस्तिष्क कोरी स्लेट के समान होता है। बालक के ज्ञानात्मक विकास में पारिवारिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक वातावरण का व्यापक प्रभाव पड़ता है।
  • यद्यपि बालक के विकास में आनुवांशिक तत्त्व की भूमिका होती है परंतु आनुवंशिकता का महत्व कच्ची धातु के समान है जिसे वातावरण रूपी कारखाना उपयोग के लिए उसका परिशोधन करता है। शिक्षा और शिक्षण संस्था भी मूल्यों पर अत्यधिक प्रभाव डालते हैं।
  • यदि मूल्यों का बीजारोपण बाल्यावस्था में परिवार, समाज और शैक्षणिक संस्थानों में सम्यक् प्रकार से किया गया है तो फिर इससे युवावस्था में बालक की अभिवृत्तियों, आदर्श, व्यवहार एवं स्थितियों के अनुसार समायोजन की क्षमता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
भारतीय परंपरा
  • भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में चार पुरूषार्थों की अवधारणा है। ‘पुरुषार्थ’ का अर्थ है- पुरुष या मनुष्य का लक्ष्य।
  • भारतीय नीतिशास्त्र जीवन के चार उद्देश्यों को स्वीकार करता है। ये चार उद्देश्य या पुरुषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनमें मोक्ष सर्वोच्च पुरुषार्थ है। अन्य तीन पुरुषार्थ इस परम लक्ष्य की प्राप्ति के साधन हैं।
  • भारतीय संदर्भ में धर्म (Dharma) को शाश्वत, सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों के रूप में देखा गया है। यहां धर्म का आशय स्व-कर्त्तव्यापलन एवं सद्-आचरण से है।
  • धर्म में नैतिक मूल्यों के संरक्षण, नियमानुकूल सुखभोग, सामाजिक सदाचार, सदगुण एवं कर्तव्य-बोध का भाव निहित है। इसे हम निम्नलिखित बिंदुओं में देख सकते हैं-
  1. मनु ने धर्म के दस लक्षण बताए हैं। ये हैं- धैर्य, क्षमा, दान, अस्तेय, शुद्धि, इन्द्रिय-निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य एवं अक्रोध।
  2. महाभारत में यह कहा गया है कि धारणात् धर्मम् इत्याहुः धर्मो धार्यते प्रजाः। अर्थात जो व्यक्ति को, समाज को, जनसाधारण को धारण करे, वही धर्म है।
  3. गीता में कहा गया है कि- जब-जब धर्म की हानि (मूल्यों का पतन, कर्तव्यों की उपेक्षा) होती है और अधर्म (पाप कर्मों में लिप्तता) बढ़ता है तब-तब मैं (अर्थात् ईश्वर) सज्जनों के कल्याणार्थ एवं दुर्जनों के विनाश के लिये अवतरित होता हूं।
  4. वैशेषिक दर्शन में यह कहा गया है कि जिससे भौतिक कल्याण और आध्यात्मिक उत्थान दोनों हो, वही धर्म है।
  5. तुलसीदास भी यह कहते हैं कि परहित सरस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।
  6. ‘आचारः परमो धर्मः’ (नैतिक नियमों के अनुसार आचरण करना ही परम धर्म है।), ‘अहिंसा परमो धर्मः’ (अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है), ‘नहि सत्यात् परोधर्मः (सत्य के समान दूसरा धर्म नहीं है) ‘धर्मराज युधिष्ठिर’ आदि के संदर्भ भी धर्म के नैतिक एवं मूल्यांकन पक्ष को ही इंगित करते हैं।
  7. गांधी भी धर्मयुक्त राजनीति की बात करते हैं। उनके अनुसार- धर्मविहीन राजनीति नितान्त निंदनीय है। यहां धर्म का आशय नैतिक मूल्यों से है।
  • धर्म न तो किसी विशेष दैवीय शक्ति के प्रति प्रतिबद्ध है और न ही वह किसी मजहबी संगठन के घेरे में बंद है। यही कारण है कि जब पाश्चात्य अवधारणा ‘सेक्यूलरिज्म’ (Secularism) का भारतीय संविधान की प्रस्तावना में हिंदी रूपांतरण किया गया तब इसके विकल्प के रूप में ‘पंथ-निरपेक्षता’ शब्द का प्रयोग किया गया, धर्म-निरपेक्षता शब्द का नहीं, क्योंकि भारतीय संदर्भ में ‘धर्म’ के अर्थ को ध्यान में रखकर धर्म से निरपेक्ष या तटस्थ नहीं हुआ जा सकता।
  • धर्म की अवधारणा में नैतिक मूल्य, सदाचार एवं स्व-कर्त्तव्य पालन का भाव प्रधान रूप से समाहित हो जाता है। महात्मा गांधी भी नैतिकता को ही धर्म मानते हैं।
  • धर्म मनुष्य के उन सभी कर्तव्यों की समष्टि है जिसके द्वारा मनुष्य इस संसार में मानवोचित जीवन व्यतीत कर सकता है। धर्म से युक्त होकर ही अर्थ और काम के संचालन की बात भारतीय संस्कृति में कही गयी है।
  • वर्तमान समय में धर्मविहीन परंतु अर्थ और काम आधारित भौतिकवादी संस्कृति के कारण ही भ्रष्टाचार एवं अन्य नाना प्रकार की समस्याएं परिवार, समाज एवं प्रशासन में उभरकर सामने आ रही हैं।
मूल्य विकसित करने में परिवार की भूमिका
  • परिवार नागरिकता की प्रथम पाठशाला है। यह बालक के समाजीकरण का प्रथम महत्त्वपूर्ण साधन है जो बालक के सर्वांगीण विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मूल्यों का प्रथम पाठ व्यक्ति परिवार में ही सीखता है।
  • परिवार वह प्रारंभिक संस्था है जहां बालक संस्कारों को ग्रहण करता है। बच्चे का पालन-पोषण जिस वातावरण में होता है, उसका प्रभाव बच्चे के व्यक्तित्त्व पर पड़ता है। वस्तुतः बाल्यावस्था निर्मल जल के समान होती है जिसे जिस पात्र में रखेंगे वह उसी का स्वरूप ग्रहण कर लेती है।
  • यदि परिवार का वातावरण अच्छा है, परिवार में रहने वाले विभिन्न व्यक्तियों में संबंध (प्रेम, सहयोग, त्याग, कर्तव्यनिष्ठा आदि) सामंजस्यपूर्ण हैं तो बालक के अंदर अच्छे संस्कार विकसित होने लगते हैं और व्यक्तित्त्व निर्माण में भी मदद मिलती है।
  • यदि परिवार का वातावरण खराब है तो बालक कुसंस्कारों एवं दुर्गुणों का शिकार होने लगता है। स्पष्ट है कि बालक को ‘क्या अच्छा है और क्या बुरा है’ इसका ज्ञान सर्वप्रथम परिवार में प्राप्त होता है।
  • नैतिक मूल्यों को सीखने में अनुकरण विधि (Imitation Method) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अतः यदि माता-पिता का आचरण अनुशासनबद्ध है और उनमें कर्तव्यनिष्ठा, उत्तरदायित्व, सच्चाई, ईमानदारी आदि के गुण हैं तो फिर उसका प्रभाव बच्चे पर भी अवश्य पड़ता है। इसके लिए बच्चे पर सामान्य ध्यान देना एवं सामान्य अनुशासन रखना आवश्यक है।
  • परिवार मूल्यों को बढ़ावा देने एवं मन-मस्तिष्क में बैठाने में निम्न प्रकार से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं-
  1. बालक के मन में नैतिक मूल्यों का विकास करते समय न तो यह दृष्टिकोण उत्पन्न करना चाहिए कि ‘सब पुरातन बेकार है’ और न ही यह दृष्टिकोण उत्पन्न करना चाहिए कि ‘सब कुछ नया अच्छा है’ वरन् पुरातन मूल्यों एवं नवीन मूल्यों के मध्य सामंजस्य स्थापित किया जाना चाहिए।
  2. नैतिक मूल्यों को उपदेशात्मक रूप में क्रियान्वित नहीं किया जाना चाहिए वरन् उन्हें स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में दिनचर्या में पारित किया जाना चाहिए। अभिभावकों के कथनों से अधिक उनके कृत्यों का प्रभाव बच्चे पर पड़ता है।
  3. माता-पिता की कथनी एवं करनी में अंतर नहीं होनी चाहिए। इससे बच्चों के मस्तिष्क में द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। जिस प्रकार का व्यवहार वह बच्चों से अपेक्षित करते हैं, उसका उन्हें स्वयं भी आचरण करना चाहिए।
  4. माता-पिता बच्चों को मूल्य आधारित कहानियाँ पढ़ने एवं सुनने का अवसर देकर उनमें मूल्य विकसित कर सकते हैं। जैसे-पंचतंत्र एवं हितोपदेश की कहानियाँ, वीर बालक, वीर बालिकायें आदि।
  5. पारिवारिक वातावरण के अनुरूप ही हमारा व्यवहार, मनोवृत्तियां, आदतें निर्मित होती है। परिवार के सदस्यों में भावनात्मक संबंध होने पर बच्चों में भी प्रेम और सहयोग की भावना उत्पन्न होती है।
  6. व्यक्ति के जीवन में परिवार ऐसा स्थल होता है जहां संस्कृति का हस्तांतरण (Transfer point of culture) होता है। अतः सांस्कृतिक मूल्यों के परिरक्षण एवं पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरण में परिवार की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
  7. परिवार में यदि कोई वृद्ध व्यक्ति अथवा आगन्तुक नैतिक मूल्यों की बात करता है या अपने व्यवहार में प्रयोग करता है तो उनका उपहास नहीं करना चाहिए।
  8. परिवार के भौतिक तथा मानसिक वातावरण को सौहार्दपूर्ण होना चाहिए।
  9. माता-पिता का यह कर्तव्य बनता है कि वह बच्चे को बुरी संगत से अलग रखें अन्यथा आपराधिक प्रवृत्ति का विकास हो सकता है। कई बार बच्चे खेल-खेल में बहुत सी बुरी आदतें सीख लेते हैं।
  10. अतः स्वस्थ मनोरंजन के साधन दिए जायें जिससे बच्चे में रचनात्मक प्रवृत्ति प्रबल हो। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में परम्परागत भारतीय पारिवारिक ढांचे में परिवर्तन हो रहा है। अब भारतीय परिवार संयुक्त परिवार से धीरे-धीरे एकल परिवार की ओर बढ़ रहे हैं।
  11. एकल परिवार में कई ऐसे परिवार हैं जहां माता-पिता दोनों रोजगार में है। ऐसी स्थिति में बच्चे आया या नौकर पर निर्भर हो जाते हैं। नगरीय जीवन में यह कठिनाई विशेष रूप से है।
  12. इसी कारण नगरों में छोटे बच्चों के देख-रेख के लिए क्रौंच (creche) जैसी संस्थाएं अस्तित्त्व में आयीं है। माता-पिता की व्यवस्था, उनका व्यक्तिगत तनाव तथा अपने क्षेत्र में परिणाम दिखाने का दबाव इतना अधिक होता है कि वे बच्चे की आवश्यकताओं एवं भावनाओं का ध्यान नहीं रख पाते हैं।
  13. परिणामस्वरूप बच्चे में एकाकीपन, मानसिक तनाव एवं निष्क्रियता बढ़ती है तथा उसमें औरों के साथ समायोजन की क्षमता, प्रेम और बुजुर्गों का सम्मान जैसी भावनाएं विकसित नहीं हो पाती। इससे उसका व्यक्तित्त्व भी नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि क्रौंच जैसी संस्थाओं का नगरीय क्षेत्र में विशेष प्रसार-प्रचार किया जाए और उन्हें समुचित सहायता भी प्रदान की जाएं।

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मूल्य विकसित करने में समाज की भूमिका
  • समाज व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जिसमें मनुष्य एक-दूसरे से संबंधित होते हैं और व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से कुछ सामाजिक रीतियों, परम्पराओं एवं मान्यताओं से बंधे होते हैं। समाज सामाजिक संबंधों का ताना-बाना है। ऐसी स्थिति में समाज के सदस्यों के मध्य पाये जाने वाले संबंधों का प्रभाव मानव के मूल्यों पर पड़ता है।
  • यदि समाज में सौहार्द्रपूर्ण स्थिति है तो व्यक्ति के अंदर प्रेम, सहानुभूति, त्याग, शांति, भ्रातृत्व, सामाजिक एकता आदि मूल्यों का विकास होगा और यदि संबंधों में कटुता है तो फिर जातिवाद, कट्टरता, बाल-अपराध, ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य आदि दुष्प्रवृत्तियों की प्रबलता दिखाई देगी।
  • सूचना तकनीकी के युग में अश्लील सामग्री की सहज उपलब्धता बढ़ गयी है। इसका दुष्प्रभाव समाज पर व्यापक रूप से पड़ रहा है। मोबाइल, सीडी, वीडियो, इंटरनेट एवं अन्य अश्लील सामग्री के कारण समाज विशेषकर युवा वर्ग की सोच और दिशा में नकारात्मक परिवर्तन हो रहा है। परिणामस्वरूप तात्कालिक शारीरिक सुख की प्राप्ति हेतु छीना-झपटी, छेड़खानी, बलात्कार आदि की घटनाएं बढ़ रही है।
  • भूमंडलीकरण के युग में उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के प्रसार के कारण जीवन शैली एवं जीवन मूल्यों में नकारात्मक बदलाव हो रहा है। भौतिक सुख सुविधाओं को जुटाने एवं तात्कालिक जीवन को सुखी बनाने की होड़ में समाज में मूल्य-अंतर्द्वंद्व उत्पन्न हो गया है।
  • इस क्रम में मूल्यों का ह्रास हो रहा है और हमारे अंदर की मानवीयता भी कुंठित हो रही है। यह एक असुरक्षित भविष्य का द्योतक है।
  • यहां यद्यपि प्रजातांत्रिक मूल्यों यथा स्वतंत्रता, समानता, न्याय एवं भ्रातृत्व को सामाजिक मूल्य के रूप में स्वीकार किया गया है परंतु भारतीय समाज के सामने अभी भी यह पक्ष प्रश्न बना हुआ है कि आखिर इन मूल्यों को कैसे साकारित किया जाए?
  • वास्तव में इन मूल्यों की स्थापना तभी संभव है जब जनसामान्य अपने अधिकार के प्रति जागरूक और कर्तव्यों के प्रति संवेदनशील हो।
  • ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हो गया है कि समाज में मूल्यों के ह्रास को रोकने एवं उनके परिरक्षण एवं संवर्धन के लिए दोहरा प्रयास किया जाए।
  • नकारात्मक: अश्लील सामग्री के वितरण एवं प्रसारण पर कड़ी निगरानी रखी जाए और इससे संबंधित लोगों पर कार्यवाही की जाए एवं विभिन्न इंटरनेट साइटों पर प्रभावी प्रतिबंध लगाया जाए।
  • सकारात्मक:समाज में रचनात्मक कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाए। इसमें गैर-सरकारी स्वैच्छिक संगठन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है। मूल्यों के संवर्द्धन एवं प्रसारण में सामाजिक परिवेश का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसके निम्नलिखित पक्ष है-
सामाजीकरण
  • समाजीकरण एक सामाजिक-मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम समाज में रहना और उसका सक्रिय सदस्य बनना सीखते हैं।
  • यह प्रक्रिया ही एक जीवशास्त्रीय मानव को सामाजिक मानव के रूप में बदल देती है।
  • इस प्रक्रिया में मानव समाज के मानदंडों और मूल्यों के साथ-साथ अपनी सामाजिक भूमिकाओं (पति-पत्नी, माता-पिता, मित्र, नागरिक आदि) के संपादन करने की कला सीखता है।
  • सामाजिक सीख की इस प्रक्रिया में परिवार, समुदाय और शिक्षण संस्थाओं की विशेष भूमिका होती है।
  • समाजीकरण के द्वारा बालक संस्कृति की विशेषताओं को सीखता है, समाज के प्रचलित मूल्यों के अनुसार अपने आचरण को ढालता है और तद्नुरूप अपने व्यक्तित्त्व का विकास करता है।
  • यदि सामाजीकरण की प्रक्रिया नकारात्मक हो तो फिर उसका दुष्परिणाम बाल-अपराधी आदि के रूप में उभरने लगता है।
  • अतः यह आवश्यक है कि समाजीकरण की प्रक्रिया में प्राचीन मूल्यों के साथ-साथ नवीन मूल्यों, मानकों, मान्यताओं एवं व्यवहारों का प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वह व्यक्ति समय के अनुसार अपनी बदलती हुई भूमिकाओं का निर्वाह मूल्य आधारित होकर करे।
नागरिकों की पहल
  • भ्रष्टाचार को उजागर करने, निंदा करने और उस पर नियंत्रण लगाने के लिये नागरिकों की आवाज का प्रभावकारी ढंग से प्रयोग किया जा सकता है।
  • नागरिकों को भ्रष्टाचार की बुराईयों के बारे में शिक्षा देने, रोकने हेतु जागरूकता पैदा करने तथा भ्रष्टाचार विरोधी उनके स्वर को मुखर करने एवं उनकी भागीदारी बढ़ाने का दायित्व सिविल सोसायटी और मीडिया को सौंपने की आवश्यकता है।
सिविल सोसायटी
  • ऐसे गैर-सरकारी संगठन (N.G.O.), सहकारी संस्थाओं, महिला, मजदूर, किसान आदि संगठनों, समुदाय आधारित संगठनों एवं अन्य संगठित समूहों का एक समुच्चय है जो राजनीति, सार्वजनिक नीति और सम्पूर्ण समाज को अपनी क्रियाकलापों से प्रभावित कर न्याय के साथ-साथ सभी नागरिकों को अधिकाधिक स्वतंत्रता देने की वकालत करता है।
  • दिल्ली स्थित एक गैर-सरकारी संगठन ‘परिवर्तन’ ने सूचना के अधिकार के कानून का प्रयोग कर सार्वजनिक वितरण प्रणाली में हो रहे भ्रष्टाचार को उजागर किया। यहां यह पता चला कि जनता के लिये आवंटित चावल, गेंहू, तेल आदि को खुले बाजार में बिक्री के लिये भेज दिया गया।
  • सिविल सोसायटी समूहों ने भ्रष्ट आचरणों को सुधारने हेतु सरकार पर दबाव बनाया, साथ ही जनता को शिक्षा देकर भ्रष्टाचार का पता लगाने के लिये निगरानी की प्रणालियां विकसित की। इन सबसे आम जनता को स्वस्थ आचरण करने की प्रेरणा भी मिली।
  • इनकी भूमिका को और प्रभावी बनाने के लिए निम्न उपाय किये जा सकते हैं-
  1. भ्रष्टाचार के घटनाक्रमों पर सोसायटी को और शिक्षित एवं जागरूक करना एवं सत्यनिष्ठा में नैतिक वचनबद्धता को बढ़ाना।
  2. सरकारी कार्यक्रमों पर निगरानी रखने के लिये सिविल सोसायटियों को आमंत्रित करना।
  3. रेडियो, समाचार-पत्रें और दूरदर्शन के माध्यम से सरकार या निजी क्षेत्र द्वारा प्रायोजित लोक शिक्षा और जागरूकता अभियानों की पहल करना।
  4. राष्ट्रीय और स्थानीय स्तरों पर नियमित अंतरालों पर समस्याओं पर विचार करने और सभी भागीदारों को लिप्त करते हुए परिवर्तनों के सुझाव देने के लिए सत्यनिष्ठा की कार्यशालाएं और लोक सुनवाई का आयोजन करना।
सिटिजन चार्टर
  • सिटिजन चार्टर प्रशासन को जवाबदेह एवं नागरिक-मित्र बनाता है। अब लगभग सभी सरकारी विभागों एवं संगठनों ने अपना अलग सिटिजन चार्टर बना लिया है।
  • चार्टर एक घोषणापत्र होता है जिसमें लोक सेवा संगठन नागरिकों को आश्वासन देता है कि वह अपनी घोषणा में निहित मानदंडों, जैसे- निर्धारित समय-सीमा में कार्य को पूरा करते हुए सेवा के उच्च स्तर को प्रदान करेगा। ऐसा करने से पारदर्शिता को बढ़ावा एवं भ्रष्ट आचरण पर रोक लगाने में मदद मिलती है।
मीडिया
  • जनसंचार के माध्यम द्वारा भी समाज के सदस्यों में उचित मूल्यों का विकास करने का प्रयास किया जाना चाहिए। इसमें आकाशवाणी, दूरदर्शन, विभिन्न पत्र-पत्रिकाएं, समाचार-पत्र, प्रिंट मीडिया एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
  • एक स्वतंत्र मीडिया की भ्रष्टाचार रोकने एवं नियंत्रित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। एक जिम्मेदार इलेक्ट्रॉनिक एवं प्रिन्ट मीडिया सरकार एवं निजी क्षेत्र तथा सिविल सोसायटी संगठनों में भ्रष्टाचार को उजागर कर, जनमानस को इसके प्रति जागरूक कर, भ्रष्टाचार के प्रति उनकी आवाज को बुलंद कर उन्हें जीवन मूल्यों के प्रति जागरूक कर सकती है।
  • मीडिया को यह चाहिए कि, वह उन्हीं आरोपों और सूचनाओं को जनता के सामने रखे जिनका पहले सत्यापन हो चुका हो। साथ ही सूचनाओं एवं घटनाओं को उनके वास्तविक रूप में प्रकट करना आवश्यक है।
  • मीडिया को ऐसे विज्ञापनों एवं दृश्यों से भी परहेज करना चाहिए जिसका सामान्य जन पर गलत असर जाता हो। जैसे अंधविश्वासों को बढ़ाने वाले कार्यक्रम, महिलाओं को भोग की वस्तु के रूप में लगातार चिन्हित करने या दिखाने वाले विज्ञापन एवं कार्यक्रम आदि। इन सबका प्रभाव यह होता है कि, उनके प्रति यही दृष्टिकोण समाज में व्याप्त हो जाता है।
  • सामुदायिक रेडियो भी एक ऐसा साधन है जो लिंग, जाति और वर्ग आधारित हिंसा के खिलाफ एक माध्यम बनने तथा शासन में पारदर्शिता लाने में सहायक हो सकता है।
  • लोक-कथाओं एवं लोक-संगीतों आदि के माध्यम से जनता का स्वस्थ मनोरंजन करने, व्यक्तिगत अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाने एवं लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रोत्साहित करने में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। उदाहरणस्वरूप- केलू सखी (सुनो सखी) इस सामुदायिक रेडियो की शुरूआत 2006 में कर्नाटक में की गयी।
  • इसका उद्देश्य निरक्षर ग्रामवासी महिलाओं तक सूचना एवं ज्ञान पहुंचाना तथा उन्हें शिक्षित करना था। उनके कार्यक्रमों में महिला शिक्षा, स्वास्थ्य जागरूकता, क्षमता-निर्माण एवं आत्मनिर्भरता प्रदान करने वाले कार्यक्रम होते है।
  • कुंजल पंजे कचजी (कच्छ क्षेत्र के सारस और बगुले) नामक सामुदायिक रेडियो गुजरात के भुज क्षेत्र से 2001 में प्रारंभ हुआ। इसके कार्यक्रमों में महिला नेतृत्व और सुशासन, बालिकाओं को शिक्षा का अधिकार, कन्या भ्रूण हत्या, नव-विवाहिताओं को दहेज के लिए परेशान करने, महिलाओं द्वारा आत्महत्या और अप्राकृतिक मृत्यु, महिलाओं पर सिर्फ पुत्र पैदा करने के लिए दबाव डालने, महिला मृत्युदर और मातृ स्वास्थ्य जैसे विषय शामिल होते हैं। इससे लोगों में समस्याओं एवं उनके निदान के प्रति जागरूकता, समाज में मानवतापरक व्यवहार करने की प्रेरणा मिलती है।
  • 2012 में स्टार एवं दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल पर सामाजिक मुद्दों के प्रति जन-जागरूकता बढ़ाने एवं मूल्यों के प्रति उत्प्रेरित करने संबंधी कार्यक्रम ‘सत्यमेव जयते’ का प्रसारण किया गया जिसमें कन्या भूण हत्या, यौन अपराध, वरिष्ठ नागरिकेां के दुख-दर्द आदि के संदर्भ में जन मानस को जगाया गया। इससे लोगों में ऐसे मुद्दों के प्रति नवीन चेतना का विकास हुआ।
सामाजिक अंकेक्षण
  • सरकार एवं अन्य संगठनों को अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक करने में सामाजिक अंकेक्षण का महत्त्वपूर्ण योगदान है। सभी विकासशील कार्यक्रमों के संचालन और नागरिक सेवा उन्मुखी गतिविधियों में सामाजिक अंकेक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि मूल्यविहीन कर्मों को रोका जा सके।
सार्वजनिक सर्वसम्मति बनाना
  • समाज को भ्रष्टाचार से मुक्त करने एवं मूल्यों को बढ़ाने में सामाजिक सर्वसम्मति बनाना आवश्यक है। केवल घोषणा-पत्र या कागजी कार्यवाही के स्तर पर इसे क्रियान्वित करने की बजाए व्यवहार के धरातल पर उनको साकारित करने का सकारात्मक प्रयास होना चाहिए।
सामाजिक पूंजी
  • विभिन्न अवसरों यथा जन्म, विवाह, मृत्यु आदि विपदाओं के समय (भूकंप, बाढ़, अकाल आदि) नाते-रिश्तेदार, जाति-बंधु, परिवारजन एवं पास-पड़ोस वाले ही पीडि़त व्यक्ति को सहारा देते हैं। यही सामाजिक पूंजी है जो सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत को प्रतिबिंबित करती है।
  • अगर सामाजिक पूंजी की अवधारणा मजबूत हो तो हम सामाजिक जीवन में भी सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों का अनुसरण करते हैं।

सामाजिक अभियांत्रिकी

सामाजिक जीवन को अधिकाधिक सुखद एवं मूल्यपूर्ण
  • बनाने के दृष्टिकोण से किये गये नियोजित सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक विकास ही सामाजिक अभियांत्रिकी है। ऐसा माना जाता है कि सरकार समाज के प्रमुख पक्षों को भी मूल्यपूर्ण तरीके से करने हेतु प्रेरित कर सकती है। जैसे- समाज में विषमता को दूर करने हेतु, समाज के कमजोर वर्गों, जैसे स्त्रियों एवं दलितों आदि के लिये सकारात्मक भेदभाव की नीति का प्रयोग सामाजिक अभियांत्रिकी का उदाहरण है। इससे सामाजिक समरसता बनाने में मदद मिलती है।
  • वर्तमान में लोक कल्याणकारी शासन को प्रगतिशीलता की निशानी के रूप में स्वीकार किया जाता है। इसकी प्राप्ति में प्रशासन की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। प्रशासन-शासन का एक उदाहरण है। प्रशासन के माध्यम से ही अच्छे शासन के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।
  • स्पष्ट है कि प्रभावी एवं कुशल प्रशासन के माध्यम से जनमानस में सामाजिक-राजनीतिक मूल्यों की स्थापना एवं प्रसार किया जा सकता है। मूल्यों की स्थापना एवं प्रसारण में अनेक सामाजिक गैर-सरकारी स्वैच्छिक संस्थाएं भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
मूल्य विकसित करने में शैक्षणिक संस्थाओं की भूमिका
  • राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहा गया है- हमारे बहुवर्गीय, बहुजातीय, बहुधर्मी समाज में शिक्षा को सर्वव्यापी बनाना चाहिए और शाश्वत मूल्यों को प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि भारतीय जन में राष्ट्रीय एकता की भावना बढ़े और संकीर्ण सम्प्रदायवाद, धार्मिक अतिवाद, हिंसा, अंधविश्वास व भाग्यवाद को समाप्त किया जा सके।
  • इसके लिए वैज्ञानिक अभिवृत्ति, समानता, पर्यावरण संरक्षण, प्रजातंत्र, स्वतंत्रता, बन्धुत्व, समाजवाद तथा धर्म-निरपेक्षता आदि मूल्यों की शिक्षा सभी स्तरों (प्रारंभिक स्तर, माध्यमिक स्तर, विश्वविद्यालय स्तर) पर जरूरी है।

विद्यालय के प्रमुख कार्य

  • शैक्षणिक संस्थाएं (जैसे विद्यालय, विश्वविद्यालय आदि) विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक एवं पारिवारिक वातावरण से आये छात्रों को एक-दूसरे को समझने और परस्पर अंतर्क्रिया करने का अवसर प्रदान करती है।
  • यद्यपि विद्यालय का प्राथमिक कर्तव्य छात्रों को शिक्षा देना है परंतु साथ ही साथ उसका गौण कर्तव्य छात्रें का सामाजीकरण करना भी है।
  • छात्रों के व्यक्तिगत निर्माण हेतु केवल विषयगत जानकारी पर्याप्त नहीं है, बल्कि विभिन्न उपायों से छात्रों में मूल्यपरक जानकारी का विकास करना भी आवश्यक है। बिना नैतिक शिक्षा के चरित्र निर्माण संभव नहीं है।
  • शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया जिसके द्वारा बालक के दृष्टिकोण, ज्ञान, व्यवहार, आदत एवं चरित्र को स्थायी रूप से आकृति देने या ढालने का प्रयास किया जाता है।
  • प्रायः सभी शिक्षाशास्त्रियों ने स्वीकार किया है कि शिक्षा का उद्देश्य नैतिक विकास भी होना चाहिए। यहां कहा गया है कि विद्या ददाति विनयम्य् अर्थात् विद्या से विनय प्राप्त होता है। विनय के अंतर्गत शील, सच्चरित्रता आदि गुण आ जाते हैं जिनका संबंध मनुष्य के नैतिक व्यवहारों से है।
  • गांधीजी का कथन है- वह शिक्षा ही क्या जिसमें चरित्र निर्माण न हो और वह चरित्र ही क्या है जिसमें व्यक्तिगत पवित्रता न हो। विद्यालय वह सशक्त माध्यम है जो समाज की संस्कृति की सुरक्षा करता है और उसका हस्तांतरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में करता है।
खेलकूद संबंधी क्रियाएँ
  • खेलकूद में बच्चों की सामान्यतः स्वाभाविक अभिरूचि होती है। खेलकूद के द्वारा बच्चे की शारीरिक एवं मानसिक कुशलता का विकास होता है।
  • खेल में बच्चे या तो विजयी रहता है या फिर उनकी पराजय होती है। इन गतिविधियों एवं परिणामों के द्वारा छात्रों में वांछनीय नैतिक मूल्यों का विकास किया जा सकता है। जैसे- सहयोग, व्यवस्था, सहनशीलता, शालीनता, हार होने पर प्रतिक्रियावादी न होना तथा जीतने पर घमंड का अनुभव न करना आदि।
प्रार्थना सभाएँ
  • शैक्षणिक संस्थाओं में विशेषकर विद्यालयों में प्रतिदिन आयोजित की जाने वाली प्रार्थना सभाएं मूल्यों का विकास करने का सशक्त माध्यम है। इस संबंध में डॉ. राधाकृष्णन का विचार है कि- प्रार्थना सभा से पूर्व श्यामपट्ट (ब्लैक बोर्ड) पर दैनिक विचार लिखा जाना चाहिए जिससे छात्रों में स्वचिंतन के मूल्य को विकसित किया जा सके।
  • तत्पश्चात छात्रों द्वारा प्रार्थना की जानी चाहिए जो किसी विशेष धर्म, राजनीतिक दल या समुदाय का प्रतीक न होकर नैतिकता पर आधारित हो।
जयंती पर्व
  • महान नेताओं, विचारकों व विद्वानों के जन्मदिन को शैक्षणिक संस्थाओं में मनाया जाना चाहिए। इस दिन नाटक, वाद-विवाद, प्रतियोगिता, गीत आदि का आयोजन किया जा सकता है। महापुरुषों के जीवन के प्रेरक प्रसंगों का दृश्य-श्रव्य रूप में अर्थात् व्याख्यान एवं झांकियों के माध्यम से प्रभावपूर्ण प्रस्तुतिकरण किया जा सकता है।
  • इसका दीर्घकालिक प्रभाव छात्र के जीवन में पड़ता है और वह सामाजिक मूल्यों के प्रति जागरूक होने लगता है। इनके माध्यम से छात्रों में त्याग, कर्तव्यनिष्ठा, देश-प्रेम, सहनशीलता, वैज्ञानिक मनोवृत्ति आदि मूल्यों का विकास किया जा सकता है।
राष्ट्रीय पर्व (National Festivals)
  • 15 अगस्त, 26 जनवरी और 2 अक्टूबर को हम राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाते हैं। इन पर्वों को शैक्षणिक संस्थाओं को उत्साहपूर्ण मनाना चाहिए।
  • ऐसे अवसरों पर स्वतंत्रता का इतिहास, देशभक्ति के गीत, भारतीय गणतंत्र का इतिहास, संविधान की रूपरेखा, स्वतंत्रता सेनानियों के कृत्यों एवं योगदान की चर्चा कर छात्रों में विश्व-बंधुत्व, राष्ट्रीय चेतना, प्रजातांत्रिक मूल्यों का विकास, कर्तव्य संपादन की भावना को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
  • इसके अतिरिक्त विद्यार्थी न्यायालय, स्वच्छता पखवारा, समाज-उपयोगी उत्पादक कार्य, चर्चा, जीवनी-पाठन, योग, सर्वोत्तम मूल्यकर निर्णय और उसके कारण संबंधित प्रश्न, मूल्य स्पष्टीकरण विधि, भूमिका निर्वहन शिक्षण-प्रतिमान (Role playing model of teaching), हितकारी शिक्षाप्रद मनोरंजन शिक्षा रणनीति आदि को बढ़ावा देकर छात्रों में मूल्यों को विकसित किया जा सकता है।

शैक्षणिक जीवन में मानवीय मूल्यों के प्रोत्साहन हेतु विभिन्न आयोगों के सुझाव

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का सुझाव
  • 1948-49 में डॉ. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (यूजीसी) का गठन हुआ। इनकी भी यह राय थी कि-
  1. सभी शिक्षण संस्थाओं का प्रारंभ प्रार्थना सभाओं द्वारा हो जिसमें छात्र दो मिनट का मौन रखें।
  2. स्नातक वर्ष के प्रथम वर्ष, द्वितीय वर्ष व तृतीय वर्ष में छात्रों को क्रमशः भारत के विभिन्न धर्मों के प्रमुख नेताओं, विश्व के विभिन्न धर्मों के नेताओं व साहित्य तथा धार्मिक समस्याओं व दर्शन का ज्ञान कराया जाए। आयोग द्वारा दिये गये यह सुझाव अप्रत्यक्ष रूप से मूल्य शिक्षा देने पर बल देते हैं।
धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा समिति का सुझाव
  • 1959 में डॉ. श्री प्रकाश की अध्यक्षता में एक समिति का गठन हुआ जिसे धार्मिक व नैतिक शिक्षा समिति (Committee on Religious and Moral Education) कहा गया। इन्होंने भी छात्रों में उचित आचरण की शिक्षा हेतु निम्न सुझाव दिये-
  1. शिक्षा के प्रत्येक कार्यक्रम में परिवार को उचित महत्व दिया जाये व उसके दोषों का उन्मूलन किया जायें।
  2. प्राथमिक स्तर से विश्वविद्यालय स्तर तक पाठ्यक्रम में कुछ ऐसे ग्रंथ रखे जायें जो छात्रों को नैतिक मूल्यों का ज्ञान दें।
  3. शिक्षा द्वारा अच्छे आचरण की बातों पर बल दिया जाये व इसी आधार पर छात्रों का मूल्यांकन हो।
  4. समाज सेवा पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का अभिन्न अंग हो।
  5. छात्रों में वाद-विवादों, स्वतंत्र एवं आलोचनात्मक चिंतन के गुणों का विकास किया जाये।
  6. विद्यालय में विभिन्न धर्मों के उत्सवों का सामूहिक आयोजन हो जिसके द्वारा छात्रों में वांछनीय नैतिक व आध्यात्मिक मूल्य विकसित हो सकें।
कोठारी शिक्षा आयोग का सुझाव
  • 1964-66 में कोठारी शिक्षा आयोग का गठन हुआ व आयोग ने इस बात पर बल दिया कि, शिक्षा के द्वारा छात्रों में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना का विकास किया जाना चाहिए और छात्रों को इस योग्य बनाना चाहिए कि वह नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति प्रशंसात्मक दृष्टिकोण रख सके।
  • आयोग ने यह भी कहा कि, आज के युवकों में सामाजिक व नैतिक मूल्यों के प्रति जो अवहेलनात्मक दृष्टिकोण है, उसके कारण ही सामाजिक व नैतिक संघर्ष उत्पन्न हो रहे हैं इसी कारण हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम शिक्षा व्यवस्था को मूल्य परक (Value Oriented) बनायें। आयोग ने जो सुझाव दिये हैं, वे इस प्रकार हैं-
  1. केन्द्र व राज्य सरकार के अधीन सभी विद्यालयों में नैतिक, सामाजिक व आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा दी जाये व निजी संस्थाओं से भी अनुपालन करने की अपेक्षा की जाये।
  2. समय तालिका में इन मूल्यों से संबंधित शिक्षा के कुछ समय निर्धारित किये जाये जो किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों
  3. द्वारा न लिए जाये वरन् विद्यालय के सामान्य अध्यापक इस उत्तरदायित्व का निर्वाह करें।
  4. विश्वविद्यालय स्तर पर धर्म शिक्षा से संबंधित जो विभाग हैं, वह छात्रों व अध्यापकों की दृष्टि से साहित्य तैयार करें जिनके द्वारा इन मूल्यों का सकारात्मक विकास हो सके।
  5. सभी धर्मों के छात्रों के लिए ऐसी पाठ्य-पुस्तकों की व्यवस्था की जाये जो विभिन्न धर्मों के आध्यात्मिक व नैतिक मूल्य का तुलनात्मक ज्ञान करा सकें।
  • 1985-86 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी मूल्य चर्चा के संबंध में तीन बातें कही गयी हैं जो इस प्रकार हैं-
  1. मूल्यों (सामाजिक व नैतिक) के विकास की दृष्टि से पाठ्यक्रम में संशोधन किया जाये जिससे वह इन मूल्यों का विकास करने का सशक्त साधन बन सके।
  2. शिक्षा द्वारा सार्वभौमिक व शाश्वत मूल्यों का विकास किया जायें जिससे वह धार्मिक, कट्टरता, अहिंसा, अंधविश्वासों का दमन करें।
  3. मूल्य शिक्षा हेतु ऐसा पाठ्यक्रम बनाया जाये जो मूल्यों का सकारात्मक विकास करें। इसमें राष्ट्रीय विरासत व राष्ट्रीय लक्ष्यों पर बल दिया जायें।
  • शिक्षकों की भूमिका: ग्रीक दार्शनिक सुकरात का कहना था कि- जिस प्रकार एक दाई गर्भस्थ शिशु को सुरक्षित रूप से बाहर निकालती है उसी प्रकार शिक्षक शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति के मानस में निहित क्षमता एवं पूर्णता को बाहर प्रकाश में लाता है।
गंभीर समस्या
  • भारत में अभी धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता, दंगों आदि की स्थिति बढ़ रही है। ऐसी स्थिति का मुख्य कारण समुचित मूल्य-परक शिक्षा का न होना है।
  • व्यक्ति अपने धर्म के प्रति कट्टर और दूसरे धर्म के प्रति वैमनस्य इसलिए पाल लेता है क्योंकि वह अपने धर्म के केवल मजबूत पक्ष को और दूसरे धर्म की केवल कमियों को जानता है। जबकि वास्तव में सभी धर्मों में कुछ सकारात्मक और नकारात्मक पहलू हैं।
  • अतः यदि छात्र अन्य धर्मों के सकारात्मक पहलू को जानें एवं अपने धर्म की कमियों से परिचित रहें तो फिर वे धर्म के नाम पर हिंसा, कट्टरता या अत्याचार करने का प्रयास नहीं करेंगे। इसके लिए उच्च शैक्षणिक संस्थानों में किसी विशेष धर्म की पढ़ाई की बजाये धर्म-दर्शन की पढ़ाई को अनिवार्य कर देना चाहिए।
  • धर्म-दर्शन में विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है, सामान्य तत्त्वों की खोज की जाती है, विभिन्न धर्मों की बौद्धिक, तार्किक, निष्पक्ष, सर्वांगीण, समीक्षात्मक एवं मूल्यात्मक दृष्टिकोण से विवेचना की जाती है।
  • ऐसी स्थिति में किसी धर्म विशेष के प्रति अंधभक्ति और उसके नाम पर हिंसा करने की प्रवृत्ति पर लगाम लगेगा।
नई पहल
  • सीबीएसई पैटर्न से पढ़ने वाले छात्र अब भारत की संस्कृति, मूल्य और पुरातत्त्व से रूबरू होंगे। छात्र अपनी संस्कृति को न भूलें, इस उद्देश्य से सीबीएसई ने इस साल कुछ बदलाव किया है।
  • इस बार 11वीं-12वीं के पाठ्यक्रमों में ‘नॉलेज ट्रेडिशन एंड प्रैक्टिस ऑफ इंडिया’ विषय को शामिल किया गया है, जिसमें पंडित विष्णु शर्मा रचित ‘पंचतंत्र’ एवं नारायण पंडित द्वारा लिखित ‘हितोपदेश’ जैसी कहानियों के माध्यम से बच्चों को नैतिकता का पाठ सिखाया जाएगा। इनमें कथाओं के माध्यम से मनोविज्ञान, व्यावहारिकता, नैतिकता, मूल्य एवं राजकाज के सिद्धांतों से लोगों को परिचित कराया गया है।
  • बच्चों को नैतिकता का पाठ सिखाने के उद्देश्य से जो नया बदलाव किया गया है, उसके तहत पांच अलग-अलग एक्टिविटी भी होंगी, जिसमें पुरातात्विक स्थलों का भ्रमण कराया जाएगा। इसके साथ स्कूल में नाटकों के मंचन के द्वारा भी बच्चों को अपनी संस्कृति के बारे में बताया जाएगा। इन एक्टिविटी को कराने की जिम्मेदारी स्कूलों की होगी।
संस्कृति से जोड़ने वाले क्रियाकलाप
  • नाटकों का मंचन कर सत्य, अहिंसा, क्षमा की भावना का महत्व स्टूडेंट्स को बताया जाएगा। बच्चे धार्मिक ग्रंथों से कहानियों का चयन कर इसे मंचन, पेंटिंग या अन्य माध्यमों से प्रस्तुत करेंगे।
  • अलग-अलग विषयों पर छात्र कक्षाओं में चर्चा करेंगे। आज के बच्चों में नैतिक एवं बौद्धिक ज्ञान की काफी कमी नजर आती है। इसके कारण उनमें अनेक प्रकार की गलत धारणाएं बढ़ रही है।
  • छात्रों में भी नैतिकता की कमी साफ झलकने लगी है। इन्हें देखकर ही सीबीएसई का यह मानना है कि छात्रों को मानवीय मूल्यों के अलावा देश की समृद्ध परंपराओं व प्रथाओं की जानकारी का भी होना आवश्यक है। यही वजह है कि नैतिक एवं बौद्धिक ज्ञान पहुंचाने के लिए पाठ्यक्रमों में बदलाव किया गया है। इसका असर भविष्य में देखने को मिलेगा।

नैतिकता का क्या तात्पर्य है?

नैतिकता का तात्पर्य नियमों की उस व्यवस्था से है जिसके द्वारा व्यक्ति का अंतःकरण अच्छे और बुरे का बोध प्राप्त करता है। नैतिकता का संदर्भ समाज में रहने वाले किसी सामान्य व्यक्ति के आचरण, समाज की परंपराओं या किसी राष्ट्र की नीतियों के विशेष अर्थ में मूल्यांकन से है।

नैतिक मूल्य का क्या अर्थ होता है?

नैतिक मूल्य क्या है ? (What is Moral value?) सच्चाई, ईमानदारी, प्रेम, दयालुता, मैत्री आदि को नैतिक मूल्य कहा जाता है। सच्चाई को स्वतः साध्य मूल्य कहा जाता है यह अपने आप में ही मूल्यपूर्ण है। इसका प्रयोग साधन की भांति नहीं किया जाता, बल्कि यह स्वतः साध्य है। सभी विवादों में भी सत्य के अन्वेषण का प्रयास किया जाता है।

नैतिकता का मुख्य गुण क्या है?

नेकनीयत और ईमानदारी को सफलता की पहली सीढ़ी भी कहा जाता है। नैतिक गुण व्यक्ति को सफलता का सही पात्र और उपभोगकर्ता बनाते हैं। अच्छे नैतिक गुण मिलकर जिस चरित्र की रचना करते हैं, वह सफलता के लिए ही बना होता है। सफलता यदि नैतिक गुणों की बुनियाद पर खड़ी होती है तो उसमें स्थायित्व अपने आप आ जाता है।

नैतिकता का क्या महत्व?

हमारे निजी जीवन में नैतिकता का महत्व इस प्रणाली को मूल रूप से स्थापित किया गया है ताकि लोगों को पता चले कि कैसे सही कार्य करना चाहिए और किस प्रकार समाज में शांति और सामंजस्य को बनाए रखना चाहिए। सही और गलत निर्णय लेना लोगों के लिए आसान हो जाता है अगर उसके बारे में इसे पहले ही परिभाषित किया जा चुका हो तो।

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