मार्क्स निम्न में से किस पर जोर देते हैं - maarks nimn mein se kis par jor dete hain

सोवियत पतन के बाद का मार्क्सवाद विरोध नए हालात के मद्देनजर धीमा हुआ है और एक ओर अमेरिकी साम्राज्यवाद के विध्वंसक उभार तथा हाल में आर्थिक मंदी की चपेट और दूसरी ओर लातिन अमेरिका में एक के बाद एक देशों में मार्क्सवाद समर्थक दलों की विजय ने मार्क्सवाद को दोबारा प्रासंगिक बना दिया है।

सोवियत संघ के पतन का धक्का इतना जबर्दस्त था कि एकबारगी उससे सँभलने में वक्त लगा। चारों ओर पूँजीवाद की जीत का इतना तगड़ा जश्न मनाया जा रहा था और उत्तर आधुनिकता के ही प्रासंगिक दर्शन रह जाने के इतने बड़े-बड़े दावे किए जा रहे थे कि 'मंथली रिव्यू' में भी कुछेक प्रतिबद्ध लोगों को छोड़ कर किसी की रुचि महसूस नहीं होती थी। इसी दौर में एजाज अहमद की किताब 'इन थियरी' का प्रकाशन हुआ। एजाज अहमद उर्दू साहित्य के विद्वान हैं और उत्तर आधुनिकता, उत्तर औपनिवेशिकता आदि सिद्धांतों का साहित्य से बहुत कुछ लेना-देना था इसलिए वे इस सैद्धांतिक बहस में भी कूदे। ज्यादातर साहित्यिक सिद्धांतों पर केंद्रित होने के बावजूद इस किताब में तत्कालीन बहसों में हस्तक्षेप करते हुए क्लासिकीय मार्क्सवादी नजरिया अपनाया गया था। कुछ मामलों में उन्होंने ग्राम्शी पर विचार करते हुए उन्हें भी शास्त्रीय मार्क्सवादी परंपरा में स्थापित करने की कोशिश की।

इसी समय जब सब कुछ उत्तर हो रहा था तो मार्क्सवाद के भीतर भी तरह-तरह की मान्यताएँ घुसा कर उसे भी उत्तर मार्क्सवाद बनाया जा रहा था। मसलन अंतोनियो नेग्री की किताब 'एंपायर' आई जिसमें साम्राज्यवाद को नया अवतार ग्रहण किया हुआ बताया गया था। किताब में कहा गया था कि साम्राज्यवाद आज मार्क्सवादियों ने जैसा उसे बताया था वैसा नहीं रह गया बल्कि पुराने जमाने के साम्राज्यों की तरह का हो गया है और उससे लड़ाई भी विविधवर्णी हो गई है। साफ है कि विश्व सामाजिक मंच में जिस तरह भाँति-भाँति की शक्तियाँ शामिल हो रही थीं उसी के कारण इस तरह के सिद्धांत भी पेश किए जा रहे थे। पुस्तक में साम्राज्यवाद से लड़ने की माओवादी नीति 'तीन दुनिया' के सिद्धांत पर यह कहकर सवाल उठाया गया था कि तीसरी दुनिया में भी एक पहली दुनिया बन गई है और उसी तरह विकसित देशों में भी एक तीसरी दुनिया दिखाई पड़ती है। इस बीच फ्रांसिस ह्वीन लिखित और 2000 में नार्टन, न्यूयार्क द्वारा प्रकशित मार्क्स की एक जीवनी 'कार्ल मार्क्स: ए लाइफ' भी पश्चिमी देशों में बहुत लोकप्रिय हुई जिसमें व्यक्ति मार्क्स को केंद्र में रखा गया था और कुछ-कुछ चरित्र हनन भी करने की कोशिश की गई थी, मसलन जेनी मार्क्स के साथ उनकी सेवा के लिए परिवार की ओर से भेजी गई हेलेन देमुथ के साथ मार्क्स के अवैध संबंधों का संकेत किया गया था, लेकिन पुस्तक में दिए गए तथ्य ही मार्क्स की बनिस्बत एंगेल्स की उनसे अधिक करीबी साबित करते थे। बहरहाल, सब कुछ के बावजूद किताब में मार्क्स की 'पूँजी' को ले कर कुछ नई बातें कहने की कोशिश की गई थी। लेखक ने 'पूँजी' को उन्नीसवीं सदी के महाकाय उपन्यासों की तरह पढ़ने की सलाह दी थी। इस किताब की जटिल शैली को ले कर लेखक का कहना था कि मार्क्स ने जिस विषय को व्याख्या के लिए चुना था वही इतना जटिल था कि विषय की जटिलता उनकी शैली में भी चली आई। लेखक के अनुसार मार्क्स का ध्यान वस्तु के बजाय उसके रूप के प्रसार के रहस्योद्घाटन पर था इसलिए नाजुक विषय को स्पष्ट करने की शैलीगत बेचैनी उनकी किताब में दिखाई पड़ती है।

वैसे भी मार्क्सवाद कोई ऐसा दर्शन नहीं रहा है कि महज तार्किक रूप से सच होने के आधार पर उसकी प्रासंगिकता बनी रहे। इसी बीच लातिन अमेरिकी देशों में नई शुरुआतों की खबरें आने लगीं। ब्राजील में लुला की जीत से और कुछ हुआ हो अथवा नहीं, विश्व आर्थिक मंच के समानांतर विश्व सामाजिक मंच के गठन और उसकी पहलों ने ध्यान खींचना शुरू कर दिया। अमेरिका के सिएटल में हुए प्रदर्शनों से लगा कि यह कोई तात्कालिक परिघटना नहीं है। इन चीजों को कुछ दिनों तक उत्तर आधुनिक व्याख्या के ढाँचे में समेटने की कोशिश होती रही लेकिन जल्दी ही आंदोलनकारियों और प्रतिरोध की ताकतों को मार्क्सवाद पर बात करते हुए सुना जाने लगा। ध्यान रखना होगा कि इस क्रम में मार्क्सवाद में एकदम से कोई नया तत्व नहीं जोड़ा गया बल्कि उसके कुछ पहलुओं को उभारा गया है जो अब तक थोड़ा-बहुत उपेक्षित रह गए थे। लेकिन इस दौर के मार्क्सवाद संबंधी विचार-विमर्श की एक विशेषता पर ध्यान देना जरूरी है। बीच में मार्क्सवाद का शैक्षणिक रूप बहुत ज्यादा उभारा गया था। उसके मुकाबले इस दौर में आंदोलनों से उसके जुड़ाव को सहज ही महसूस किया जा सकता है।

नव हेगेलपंथियों से मार्क्स का अलगाव

इस दौरान लिओनार्ड वुल्फ की किताब 'ह्वाई रीड मार्क्स टुडे' चर्चित हुई। किताब के लेखक यूनिवर्सिटी कालेज, लंदन में दर्शन के प्रोफ़ेसर थे और इसका प्रकाशन 2002 में हुआ था। भूमिका में लेखक ने बताया है कि उन्होंने जब मार्क्सवाद पर एक पाठ्यक्रम शुरू किया तो उन्हें उम्मीद नहीं थी कि कोई इसे पढ़ेगा लेकिन अचरज तब हुआ जब अनेक छात्र इसे पढ़ने के लिए आए। इस रुचि का कारण बताते हुए उन्होंने विश्व सामाजिक मंच के जुलूसों में प्रदर्शित एक बैनर का जिक्र किया है जिसमें लिखा था 'चेंज कैपिटलिज्म विथ समथिंग नाइस'। इसी इच्छा में वे मार्क्सवाद के लिए जगह देखते हैं। वे मार्क्सवाद को पूँजीवाद की मूलगामी आलोचना के बतौर समझते हैं। पुस्तक में मार्क्स के विचारों के प्रति कोई श्रद्धा नहीं है बल्कि ज्यादातर एक तरह की आलोचना ही है लेकिन किन्हीं प्रसंगों में बिना शक कुछ नई बात कहने की कोशिश की गई है।

सबसे पहले वे सवाल उठाते हैं कि इक्कीसवीं सदी में मार्क्सवाद में से कितना कुछ बचा रहेगा और उत्तर देते हैं कि हमारी कल्पना से ज्यादा ही। वे मार्क्स की एक सीमा का संकेत करते हैं जिसे हम आगे के तकरीबन सभी विचारकों में दोहराया जाता हुआ पाएँगे। वे कहते हैं कि मार्क्स के लिए प्राकृतिक संसाधन अक्षय थे इसलिए पूँजीवाद की उनकी आलोचना में हम पर्यावरण के विनाश संबंधी प्रसंग उतने नहीं देखेंगे जितने आज दिखाई पड़ते हैं। पुस्तक की सीमा के बतौर वे इस बात को भी शुरू में ही साफ कर देते हैं कि मार्क्स को उन्होंने पारंपरिक तरीके से यानी एंगेल्स की नजर से ही देखा है।

वुल्फ ने पुस्तक की शुरुआत मार्क्स के शुरुआती लेखन के विश्लेषण से की है। इस सिलसिले में ध्यान रखना होगा कि पूँजीवाद की आलोचना अपने जमाने में मार्क्स अकेले ही नहीं कर रहे थे। वुल्फ का मकसद अन्य आलोचकों के मुकाबले मार्क्स की विशेषता को उजागर करना है। वे कहते हैं कि मार्क्स को पूँजीवादी समाज मानव विरोधी नजर आता है लेकिन उन्हें लगा कि पूँजीवादी समाज में मजदूरों की बदहाली का सही विश्लेषण नहीं हो रहा है इसीलिए इसका इलाज भी नहीं खोजा जा सका है। उस समय धर्म को ले कर बहुत सारा आलोचनापरक चिंतन हो रहा था। धर्म संबंधी इस समस्त विवेचन को मार्क्स ने सामाजिक आलोचना में बदला और इसके लिए अलगाव की धारणा का उपयोग किया तथा इसके साथ श्रम के अलगाव की बात उठाई। उन्होंने यह भी माना कि उदारवादी समाज में प्राप्त अधिकारों को मजदूरों को प्रदान करने से भी उनकी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। धर्म के सवाल से शुरू करने की वजह युवा हेगेलपंथी थे। युवा हेगेलपंथियों में मार्क्स सबसे अधिक फायरबाख के नजदीक थे। फायरबाख ने कहा कि ईश्वर ने मनुष्य को नहीं वरन मनुष्य ने ईश्वर को बनाया है। उनका कहना था कि मनुष्य ने अपने सभी गुणों का सर्वोत्तम रूप कल्पित कर के उन्हें ईश्वर में निवेशित कर दिया। उनके अनुसार इसके कारण हम मानवीय गुणों को उनका उचित दाय प्रदान नहीं कर पाते। मार्क्स ने कहा कि 'धर्म की आलोचना सारत: पूरी हो चुकी' है। स्वाभाविक रूप से धर्म की आलोचना उस समय की सत्ता की आलोचना भी थी क्योंकि वह सत्ता अपने आप को धर्मसम्मत बताती थी। इसीलिए युवा हेगेलपंथियों की नास्तिकता इतनी खतरनाक मानी गई। बहरहाल मार्क्स फायरबाख के ही विश्लेषण से संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने सवाल उठाया कि आखिर मनुष्य ने धर्म का आविष्कार ही क्यों किया। इसका उत्तर देने के क्रम में वे इस मान्यता तक पहुँचे कि इस दुनिया की तकलीफों ने धर्म की कल्पना को जन्म दिया है इसलिए धर्म का उच्छेद उन हालात के खात्मे से जुड़ा हुआ है जिन्होंने धर्म और ईश्वर की कल्पना को पैदा किया। इसके बाद वे इस बात पर जोर देते हैं कि मार्क्स ने वास्तविक दुनिया को बदलने में मनुष्य की भूमिका को उजागर करने के लिए अपने समय की दार्शनिक धाराओं का खंडन किया। उनके अनुसार मार्क्स हाब्स से ले कर फायरबाख तक के भौतिकवाद की आलोचना इसलिए करते हैं कि वह दुनिया को बदलने में मनुष्य की भूमिका को मंजूर नहीं करता तो दूसरी ओर हेगेल में अपनी पूर्णता को पहुँचा हुआ भाववाद भी ऐतिहासिकता को स्वीकार करने के बावजूद समस्त बदलाव को महज चिंतन के बदलाव तक सीमित कर देता है। हेगेल की तरह वे मानते हैं कि मनुष्य अपने आप को और दुनिया को सांसारिक गतिविधि के जरिए बदलता है लेकिन उनके विपरीत कहते हैं कि यह बदलाव महज चिंतन के क्षेत्र में नहीं बल्कि वास्तविक दुनिया में होता है। इस गतिविधि का एक महत्वपूर्ण पहलू उत्पादक गतिविधि या श्रम है। अब श्रम का सवाल ही उन्हें अलगाव की अमूर्त धारणा से उसके ठोस रूपों पर विचार करने की ओर ले जाता है। श्रम के अलगाव के कारण मनुष्य अपने अस्तित्व को साकार नहीं कर पाता। श्रम के अलगाव के कारण जो गतिविधि आनंद का स्रोत होनी चाहिए वही तमाम तरह की तकलीफों का स्रोत बन जाती है। मेहनत करनेवाला मनुष्य काम की स्थितियों के कारण अपनी मनुष्यता को खो कर महज हाथ और पेट बन कर रह जाते हैं। श्रम माल में बदल जाता है जिसे बाजार में खरीदा और बेचा जाता है। श्रमिक का जीवन ही मानो उसके अपने लिए नहीं बल्कि धनी-मानी लोगों की जरूरत के मुताबिक चलता हुआ प्रतीत होता है। मार्क्स ने श्रम के अलगाव को इस तरह प्रस्तुत किया कि पूँजीवाद के तहत मनुष्य का सार उसके अस्तित्व से जुदा हो जाता है। मार्क्स के अनुसार मनुष्य सारत: उत्पादक प्राणी होता है लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था में उसे अमानवीय स्थितियों में मेहनत करनी पड़ती है।

इस अलगाव का पहला रूप यह है कि मनुष्य अपनी मेहनत से पैदा हुई चीज से अलग कर दिया जाता है। मार्क्स के अनुसार जिस भी वस्तु के हम दर्शन करते हैं वह मनुष्य की मेहनत के जरिए उस रूप में आई होती है। बात यह है कि संसार के ऐसा होने के बावजूद हम उसे अपनी मेहनत का ही उत्पाद स्वीकार नहीं करते। इस तरह हम अपनी ही बनाई दुनिया में अजनबी की तरह रहते हैं। ये वस्तुएँ सिर्फ पराई और रहस्यमय ही प्रतीत नहीं होतीं बल्कि हम पर राज भी करने लगती हैं। मान लीजिए हम कहते हैं 'बाजार की ताकतें' और हमारी बनाई हुई चीज होने के बावजूद हम उन्हें इस तरह समझते हैं मानो वे गुरुत्वाकर्षण की शक्ति जैसी कोई चीज हों। इस तरह बाजार हम पर शासन करने लगता है।

अलगाव का दूसरा रूप श्रम विभाजन से पैदा होता है। इसके कारण श्रमिक समूची व्यवस्था को नहीं समझ पाता और अपनी जगह पर अपना काम यांत्रिक तरीके से करता रहता है। इसके कारण मनुष्य मशीनी तरीके से एक ही काम बार-बार करता रहता है और उसकी सृजनात्मकता मारी जाती है। इसी से फिर मनुष्य प्रजाति के बतौर हमारे खास गुणों या मानवता से हमारा अलगाव होता है। मनुष्य का अपना खास गुण है सामाजिक रूप से उत्पादक गतिविधि। मार्क्स कहते हैं कि उत्पादन तो अन्य प्राणी भी करते हैं लेकिन मनुष्य स्वतंत्रतापूर्वक अपनी मर्जी के मुताबिक अनपहचाने रास्तों पर चल कर भी उत्पादन करता है। उसके उत्पादित वस्तुओं की विविधता अपार हो सकती है लेकिन पूँजीवाद के तहत मनुष्य की यह उत्पादक आजादी मारी जाती है। मेहनत प्रसन्नता के बजाय तकलीफ बन जाती है। मनुष्य की दूसरी विशेषता उत्पादन के मामले में बड़े पैमाने का सहयोग है। इसे सामान्य रूप से हम नहीं महसूस करते लेकिन अगर दूसरे ग्रह से कोई आए तो उसे हमारे उत्पादन और उपभोग में बहुत बड़ा सहकार दिखाई पड़ेगा। हजारों तरह की चीजों को बना कर हम समूची दुनिया में करोड़ों की संख्या में उसे इस्तेमाल करते हैं। मार्क्स का कहना है कि ये दोनों ही विशेषताएँ पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में नष्ट हो जाती हैं और मनुष्य अपनी विशेषता खो कर अन्य प्राणियों की तरह हो जाता है। मनुष्य अपनी स्वतंत्रता का अनुभव काम करते हुए नहीं काम खत्म हो जाने के बाद करता है।

यह अलगाव दूसरे मनुष्यों से हमारे अलगाव के रूप में भी सामने आता है। हम सामाजिक जीव के रूप में अपना अस्तित्व नहीं समझते बल्कि कमाने और खर्च करनेवाले प्राणी की तरह अपने आप को समझने लगते हैं। यह अलगाव यदि पहले मनुष्य पर उसके ही बनाए ईश्वर के शसन के रूप में दिखाई पड़ता था तो पूँजीवादी व्यवस्था में मुद्रा या पूँजी के शसन के रूप में दिखाई पड़ता है। पूँजी एक परदा हो जाती है जिसके पीछे हम शायद ही कभी देखते हैं। यही मानव संबंधों को निरूपित करने लगती है। पूँजीवादी समाज में लोग किसी को इसलिए प्यार नहीं करते क्योंकि वह प्यार करने लायक है बल्कि उसके धनी होने पर उससे प्यार किया जाता है। किसी के प्रति श्रद्धा भी उसके गुणों के बजाय उसके धनी होने पर उमड़ती है। जो काम दूसरों के प्रति लगाव के कारण किए जानने चाहिए उन्हें पैसा ले कर किया जाने लगता है।

इसके बाद वुल्फ मार्क्स के परिपक्व दर्शन की ओर मुड़ते हैं और बताते हैं कि इसमें उनके शुरुआती विचारों का विस्तार है। वे 'अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान' की भूमिका के बतौर लिखी पंक्तियों को उठाते हैं और बताते हैं कि मार्क्स के अनुसार मानव इतिहास बुनियादी तौर पर मनुष्य की उत्पादक शक्ति के विकास की कहानी है। आर्थिक संरचनाओं में बदलाव भी इसी उत्पादक शक्ति के विकास में सहायक अथवा बाधक होने के आधार पर होता है। किसी आर्थिक संरचना के इस विकास में बाधक बनते ही शासक वर्ग की समाज पर पकड़ कमजोर पड़ने लगती है और सामाजिक क्रांति का दौर शुरू हो जाता है। कुल मिला कर उक्त किताब में मार्क्स के शुरुआती चिंतन के सिलसिले में ही कुछ नई बातें कही गई हैं। उनके बाद के लेखन को व्याख्यायित करते हुए वे कोई नई बात नहीं करते।

मार्क्सवाद और समाजवाद

इसके बाद महत्वपूर्ण किताब रणधीर सिंह की एक वृहदाकार (तकरीबन 1100 पृष्ठों की) पुस्तक 'क्राइसिस आफ सोशलिज्म' थी जो 2006 में अजंता बुक्स इंटरनेशनल द्वारा प्रकाशित हुई थी। इसमें एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी द्वारा समाजवाद में संकट के बजाय समाजवाद के संकट पर विचार किया गया था। भूमिका में लेखक ने स्वीकार किया है कि इस पुस्तक को एक दशक पहले ही प्रकाशित हो जाना चाहिए था क्योंकि तब इस विषय पर बहस चल रही थी लेकिन उस समय भी लेखक ने छिटपुट लेखों के जरिए वे बातें प्रस्तुत की थीं जो इसमें विस्तार से दर्ज की गई हैं। पुस्तक के लिखने में हुई देरी की वजह बताते हुए उन्होंने लिखा है कि उन्हें आशा थी कि कोई न कोई इस काम को ज्यादा तरतीब से करेगा और उनकी उम्मीद पूरी हुई क्योंकि इसी बीच इस्तवान मेजारोस की किताब 'बीयांड कैपिटल - टुवार्ड्स ए थियरी आफ ट्रांजीशन' प्रकाशित हुई जिससे उन्होंने काफी मदद ली। लेकिन यह रणधीर सिंह की विनम्रता है क्योंकि उनकी किताब का स्वतंत्र महत्व है। मेजारोस के काम को हम थोड़ा रुक कर देखेंगे।

पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इसमें समाजवादी निर्माण की समस्याओं पर मार्क्सवादी नजरिए से बात की गई है। इस बात पर जोर देना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि मार्क्सवाद के प्रति सहानुभूति जतानेवाले ऐसे भी लोग पैदा हो गए हैं जो किसी स्वप्निल मार्क्सवाद की रचना कर के समाजवादी निर्माण के सभी प्रयासों को मार्क्सवाद से विचलन साबित करने लगते हैं। किताब में बल्कि इस तरह के प्रयासों का खंडन ही किया गया है, शायद इसीलिए इसका उपशीर्षक 'नोट्स इन डिफेंस आफ ए कमिटमेंट' है यानी किताब एक प्रतिबद्धता के पक्ष में है। किताब वैसे तो सोवियत संघ के पतन के शुरुआती प्रभाव के विवेचन से शुरू होती है लेकिन इस किताब का दूसरा अध्याय 'आफ मार्क्सिज्म आफ कार्ल मार्क्स' पहले ही एक पुस्तिका के रूप में छपा था इसलिए सबसे पहले अपनी बात वे यहाँ से शुरू करते हैं कि सोवियत संघ के पतन को मार्क्सवादी सिद्धांत के एक विशिष्ट व्यवहार की असफलता के बतौर देखा और समझा जाना चाहिए न कि इसे समाजवाद और पूँजीवाद के बीच जारी जंग का अंतिम समाधान मान लेना चाहिए। इस बात पर लेखक ने इसलिए भी जोर दिया है क्योंकि रोज-रोज सोवियत संघ के पतन को समाजवाद या मार्क्सवाद की असफलता बताने के प्रचार के चलते क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं और बुद्धिजिवियों में भ्रम और संदेह फैलता है। यहाँ तक कि जो लोग इसे सिद्धांत के बतौर कारगर मानते थे वे भी सामाजिक प्रोजेक्ट के बतौर इसका कोई भविष्य स्वीकार नहीं करते और सिद्धांत तथा व्यवहार के बीच ऐसी फाँक पैदा करने की कोशिश करने लगे जैसी फाँक मार्क्सवाद में कभी थी ही नहीं।

पुस्तक का मुख्य विषय न होने के बावजूद लेखक को मार्क्सवाद पर विचार करना पड़ा। वे जोर देते हैं कि मार्क्स ने अन्य दार्शनिकों की तरह चिंतन का कोई अंतिम ढाँचा नहीं निर्मित किया क्योंकि वे 'दार्शनिक' या 'समाजशास्त्री' होने के बजाय क्रांतिकारी थे। उनका सैद्धांतिक काम एक असमाप्त प्रोजेक्ट है। अन्य विषयों (हेगेल के दर्शन, राजनीतिशास्त्र या राज्य, द्वंद्ववाद या पद्धति) पर प्रस्तावित काम की तो बात ही छोड़िए, खुद अर्थशास्त्र संबंधी काम में भी काफी कुछ बकाया रह गया था जिसे कुछ हद तक एंगेल्स ने निपटाया। रणधीर सिंह के मुताबिक इसके कारण भी मार्क्सवाद की ऐसी समझ बनती है मानो वह समाज को केवल आर्थिक नजरिए से देखता हो। यहाँ तक कि उनके लेखन में सब कुछ एक ही तरह से महत्वपूर्ण नहीं है। उन्हें बहुत सारा लेखन तात्कालिक दबाव में भी करना पड़ा था इसलिए उनके गंभीर काम को अलग से पहचानना चाहिए। उनके चिंतन में विकास भी हुआ है इसलिए शुरुआती और बाद के कामों का महत्व एक जैसा ही नहीं है। वे कहते हैं कि मार्क्स के चिंतन में अर्थशास्त्र से ज्यादा महत्वपूर्ण राजनीति है। आर्थिक ढाँचे का विश्लेषण तो वे व्यवस्था के उस आधार को समझने के लिए करते हैं जिसे क्रांतिकारी राजनीतिक व्यवहार के जरिए बदला जाना है। आर्थिक पहलू पर मार्क्स के जोर को हेगेल के भाववादी दर्शन के विरुद्ध उनके संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए। मार्क्स ने खुद ही अपनी सीमाओं को रेखांकित किया है। उनका लेखन उन्नीसवीं सदी में और 'दुनिया के एक छोटे-से कोने - यूरोप' में हुआ। रूस के एक संपादक को लिखी चिट्ठी में उन्होंने स्वीकार किया कि "'पूँजी' पश्चिमी यूरोप में पूँजीवाद की उत्पत्ति की मेरे द्वारा प्रस्तुत रूपरेखा है।" वुल्फ ने जिस तरह पर्यावरणीय पहलू पर मार्क्स की कमी का संकेत किया था उसी तरह रणधीर सिंह ने भी उसे रेखांकित किया है लेकिन उनका कहना है कि इन सबके बावजूद एक भरपूर मार्क्सवादी सिद्धांत के बारे में सोचा जा सकता है।

इस नाते रणधीर सिंह मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांतों को सूत्रबद्ध करते हुए कहते हैं कि भौतिकवाद और द्वंद्ववाद को जिस तरह मार्क्स और एंगेल्स ने समझाया उसे 'आधिकारिक' 'द्वंद्वात्मक भौतिकवाद' से अलग करके देखना होगा। इसके अनुसार यह दुनिया विकासमान और परिवर्तनशील संदर्भों, संबंधों, अंतर्विरोधों और प्रक्रियाओं का जटिल, बहुस्तरीय समुच्चय है जो अंतर्विरोध और टकराव, अनेक अक्सर अंतर्विरोधी घटकों की अंत:क्रिया और आपसी निर्भरता के जरिए विकसित होते हैं। दुनिया के विकास की इस तस्वीर में न सिर्फ परिमाणात्मक बदलाव बल्कि गुणात्मक छलाँगें, रूपांतरण और प्रतिरूपांतरण भी समाहित हो जाते हैं जिनमें यथार्थ संरक्षित रहता है और उसे अतिक्रमित भी किया जाता है। मार्क्स का दर्शन पूँजीवाद के यथार्थ को इस तरह विश्लेषित करता है कि वह हमें उसके आगे समाजवाद की ओर जाने की राह दिखाता है। मार्क्स की किताब 'पूँजी' उनकी पद्धति के प्रयोग का सबसे बेहतरीन नमूना है। इसमें वे आभास से यथार्थ की ओर, रूप से अंतर्वस्तु की ओर, तात्कालिक बाहरी रिश्तों से गहरे अंदरूनी अंतर्संबंधों की ओर जाते हैं और पूँजीवाद की 'छिपी हुई संरचना' और 'आंतरिक मनोविज्ञान' की खोज करते हैं ताकि उसकी उत्पत्ति और कार्यपद्धति की व्याख्या की जा सके। उनकी पद्धति की प्रामाणिकता इसी बात से सिद्ध है कि उनकी व्याख्या अब भी वैध बनी हुई है।

ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या करते हुए रणधीर सिंह बताते हैं कि 'उत्पादन पद्धति को महज व्यक्तियों के भौतिक अस्तित्व के पुनरुत्पादन के बतौर नहीं समझा जाना चाहिए। इसके बजाय वह उनके जीवन की अभिव्यक्ति का निश्चित रूप, उनकी खास तरह की जीवन पद्धति है।' मार्क्स उत्पादन के सामाजिक संबंधों को 'आधार' मानते हैं और इस तरह ऐतिहासिक प्रक्रिया में वर्ग संघर्ष की केंद्रीयता की प्रस्तावना कर देते हैं। 'उत्पादन के हालात के मालिकों का प्रत्यक्ष उत्पादकों के साथ सीधा संबंध - समूची सामाजिक संरचना की छुपी हुई बुनियाद, उसका गहनतम रहस्य है।' वैसे तो सामाजिक जीवन और इतिहास की तथाकथित आर्थिक व्याख्या प्लेटो से ही प्रचलित रही थी। मार्क्स की विशेषता यह है कि वे समाज और सामाजिक संरचना को अलग-अलग हिस्सों, कारकों, स्तरों या उदाहरणों का जमाजोड़ या मिश्रण नहीं मानते थे। यह एक जटिल और विभेदीकृत 'संपूर्णता', विभिन्न हिस्सों की ऐतिहासिक रूप से निर्मित आपसी निर्भरता है जिसमें से लंबे दिनों में (इन द लांग रन) एक हिस्से यानी अर्थतंत्र के क्षेत्र के अंतर्विरोध को प्रमुखता प्राप्त होती है (प्रमुख या संरचनागत अंतर्विरोध जिसके साथ ही विभिन्न हिस्सों के अंदरूनी और आपसी अंतर्विरोध भी मौजूद होते हैं)। ये ही उसकी गति, उसके ठोस रूप से अतिनिर्धारित ऐतिहासिक विकास के लिए जिम्मेदार होते हैं जिसमें संपूर्णता हिस्सों के जरिए रूपायित और अभिव्यक्त होती है तथा हिस्से संपूर्ण की छाप का वहन और प्रतिनिधित्व करते हुए भी अपनी अंतर्संबद्धता में वह खास किस्म की एकता बनाते हैं जिसे एक खास समाज या सामाजिक संरचना कहा जा सकता है। निर्धारण का अर्थ मार्क्स की अपनी सोच के हिसाब से विभिन्न प्रक्रियाओं के बीच संवाद अधिक महसूस होता है। इसके बावजूद यह कहना ही होगा कि समाज में आर्थिक पहलू पर जोर ही वह चीज है जो मार्क्सवाद को पारंपरिक समाजशास्त्र से अलगाती है।

इसके बाद वे ऐतिहासिक भौतिकवाद के ही अंग के बतौर वर्ग की धारणा का जिक्र करते हैं जो न केवल ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की व्याख्या के लिए जरूरी है बल्कि मानव मुक्ति की संभावना के लिए भी प्रासंगिक है। राजनीति की समझ के लिए भी वर्ग संघर्ष के गतिविज्ञान पर पकड़ होनी चाहिए। क्रांतिकारी राजनीति के लिए तो जरूरी है ही। लेकिन यह भी किसी किस्म के अपघटन से मुक्त धारणा है क्योंकि मार्क्स पूँजीवाद के खात्मे के लिए सर्वहारा वर्ग के साथ अन्य विक्षुब्ध तबकों को भी एकताबद्ध करने की बात करते हैं। क्रांतिकारी प्रक्रिया में किसानों या निम्न पूँजीपति वर्ग की भूमिका के प्रसंग में यह बात मार्क्स के लेखन में एकाधिक जगहों पर दिखाई पड़ती है। आप कह सकते हैं कि मार्क्स ने मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी भूमिका पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया था। कारण चाहे जो भी हों, सही बात है कि यूरोप के मजदूर वर्ग से उन्हें जो उम्मीदें थीं उन पर वह खरा नहीं उतरा लेकिन रूस की क्रांति ने मजदूर वर्ग में उनके विश्वास की रक्षा की। मजदूर वर्ग की संरचना में काफी बदलाव आए। आर्थिक वैश्वीकरण और तकनीकी बदलावों ने पूँजी की राजनीतिक ताकत में इजाफा किया और मजदूर वर्ग को कमजोर किया। इसके बावजूद सही बात तो यही है कि विश्व पूँजीवाद के साथ लड़ाई में मजदूर वर्ग की निर्णायक भूमिका स्वीकार करनी होगी और समाजवाद में आज भी वास्तविक रुचि मजदूर वर्ग ही ले रहा है। मार्क्स के मुताबिक पूँजीवाद के सताए हुए वर्ग ही समाजवाद के लिए संघर्ष में अग्रणी भूमिका निभाएँगे। असल में मार्क्स के समूचे लेखन और चिंतन के केंद्र में पूँजीवाद का आलोचनात्मक विश्लेषण है जिसके अनुसार उसका पूरी दुनिया में विस्तार होना है, सारी दुनिया में पूँजी का प्रभुत्व होना है। आदिम पूँजी संचय की प्रक्रिया के जरिए एक ओर अकूत ऐश्वर्य और दूसरी ओर चरम दरिद्रता के सृजन का इसका संरचनागत तर्क अपने आप को सभी समाजों में व्यक्त करता है। इस विश्लेषण में नैतिक रोष है, जन्म से ले कर विस्तार के समूचे दौर में उसके मानव विरोधी होने को रेखांकित किया गया है, यहाँ तक कि उसको 'बर्बर' बताया गया है।

यह बात सही है कि मार्क्स ने वृद्धि और विकास की पूँजीवाद की क्षमता को कम करके आँका लेकिन उसकी कार्यपद्धति का उनका वर्णन आँख खोलनेवाला है। उनकी यह बात आज भी सही है कि पूँजीवाद सारत: अतार्किक व्यवस्था है और इसका तार्किक निषेध समाजवाद ही है। अगर मार्क्सवाद विज्ञान है तो क्रांति का विज्ञान है। यह केवल क्रांति की बात ही नहीं करता, इसमें क्रांति के प्रति निष्ठा भी शामिल हैं जो मार्क्स के अनुसार 'स्वतंत्र मनुष्य के सम्मान के पक्ष में सभी दिलों का रूपांतरण और सभी हाथ उठाने की क्रिया' है। मार्क्स के लिए क्रांति दिल और दिमाग दोनों का मसला है। वे ऐसे समाज का सपना देखते थे जहाँ 'हरेक का स्वतंत्र विकास सबके स्वतंत्र विकास की पूर्वशर्त' होगा। आजकल मार्क्स के इस सपने से उनके सिद्धांत को अलग कर के उन्हें सामान्य मानववादी दार्शनिक में बदला जा रहा है। सभी जानते हैं कि क्रांति के प्रति अपनी निष्ठा के चलते उन्हें जीवन भर कष्ट उठाने पड़े। इसी निष्ठा के चलते उन्होंने फ्रांस के मजदूरों को क्रांति शुरू न करने की सलाह दी लेकिन जब क्रांति फूट पड़ी तो उसका खुल कर स्वागत किया। उन्होंने अराजक विद्रोहियों की मुखालफत की लेकिन अपनी ही पार्टी के उन समाजवादियों की भी आलोचना की जो 'पुलिस की इजाजत की हदों में ही रह कर काम करते' थे। अगर उन्होंने भूलें कीं तो उनकी भूलें ऐसे लोगों के निर्भूल होने से बेहतर थीं जो बिना कुछ किए सभी आंदोलनों की भूलें गिनाते रहते हैं।

मार्क्सवाद के बारे में इस आरंभिक पीठिका के बाद वे यह बताते हैं कि एक हद तक 'यूटोपियन' होने के बावजूद मार्क्स कहीं भी भविष्य के समाज के बारे में कोई खाका नहीं खींचते। वे यही कहते हैं कि उस समय के लोग उस समय की समस्याओं का समाधान करेंगे। उन्होंने तो यह भी कहा कि 'हमारे लिए साम्यवाद कोई ऐसा आदर्श नहीं है जिसके अनुसार यथार्थ अपने आप को समायोजित करे।' उनके मुताबिक समाजवाद किसी अध्ययन कक्ष में नहीं बनेगा बल्कि समाज की वास्तविक हलचलों या ऐतिहासिक प्रक्रियाओं से उपजेगा। पूँजीवाद की मार्क्स की आलोचना का केंद्रीय तत्व उत्पादकों से अतिरिक्त मूल्य के अधिग्रहण का तरीका है। इसलिए समाजवाद का मतलब महज पूँजीवादी शोषण, अतिरिक्त मूल्य के अधिग्रहण से मुक्ति नहीं है। यह सब जरूरी तो है लेकिन सब कुछ नहीं है। उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व का खात्मा और उस पर सामाजिक स्वामित्व तो न्यूनतम शर्त है। इससे तो महज शुरुआत होनी होगी। लेकिन इस नए समाज में भी पूँजीवादी व्यवस्था के 'जन्म चिह्न' बने रहेंगे। उन्हें हल करना उनका कर्तव्य होगा जो उस व्यवस्था में होंगे और मार्क्स को भरोसा था कि वे हमसे उन्नत होंगे क्योंकि हम तो वर्ग विभाजित समाज की पैदाइश हैं। समाजवाद की ओर संक्रमण की समस्याओं पर भी मार्क्स ने बहुत ध्यान नहीं दिया। एक बात लेकिन जरूर उनके लेखन से निकल कर आती है कि समाजवाद एक संक्रमणकालीन अवस्था होगा जो मनुष्य को साम्यवाद की ओर ले जाएगा। वे इस बात पर बल देते हैं कि समाजवाद को पूँजीवाद की तरह अलग किस्म का समाज नहीं मानना चाहिए। ऐसा समाज तो साम्यवाद ही होगा। समाजवाद एक तरह से साम्यवाद की निचली मंजिल हो सकता है। उसे हरेक मामले में पूँजीवाद से भिन्न होना होगा। उसके तहत संपत्ति संबंधों का आमूलचूल रूपांतरण होगा, उत्पादन का मकसद निजी मुनाफा नहीं होगा, अर्थतंत्र पर सिर्फ कानूनी नहीं बल्कि वास्तविक सामाजिक नियंत्रण होगा, मानव कल्याण के लिए सामाजिक-भौतिक संसाधनों का जनवादी तरीके से नियोजन होगा। मार्क्स की पूँजीवाद की आलोचना के पीछे मनुष्य के प्रति उनका लगाव है इसलिए समाजवादी समाज को मनुष्य की क्षमता का भरपूर विकास कर सकनेवाली व्यवस्था होना होगा। पूँजीवाद मूलत: गलाकाट प्रतियोगिता पर आधारित समाज है जो सिर्फ पूँजी के मालिकों के बीच ही नहीं होती वरन वह मनुष्य को भी उसकी अंतर्निहित सामाजिकता के बावजूद लालची और ईर्ष्यालु बना देता है इसलिए इसके उलट समाजवाद को भाईचारा का आधार बनना होगा। उसी व्यवस्था में मनुष्य सही तौर पर सामाजिक मनुष्य होगा। मनुष्य अनिवार्यता की दुनिया से स्वतंत्रता की दुनिया की ओर प्रस्थान करेगा।

समाजवाद की ओर यह संक्रमण दीर्घकालीन होगा। इस दौरान के अर्थतंत्र को ले कर अगर मार्क्स ने महज कुछ सूत्र ही दिए तो राजनीतिक ढाँचे को ले कर और भी कम कहा लेकिन एक पद 'सर्वहारा की तानाशाही' को ले कर बहुत विवाद हुए इसलिए उसके बारे में कुछ बातें रणधीर सिंह ने कीं। पहली बात तो यह कि यह सारभूत सामाजिक अंतर्वस्तु के संबंध में दिया गया वक्तव्य है, संक्रमणकालीन समाजवादी समाज में राजनीतिक सत्ता के वर्ग चरित्र का स्पष्टीकरण है क्योंकि मार्क्स की नजर में लोकतांत्रिक रूप से गठित होने के बावजूद बुर्जुआ समाज में राज्य 'बुर्जुआ की तानाशाही' ही है। यहाँ सर्वहारा तानाशाही को लोकतंत्र का विरोध नहीं समझना चाहिए बल्कि बुर्जुआ तानाशाही का विरोध समझना चाहिए। वैसे भी मार्क्स 'राज्य' को 'सरकारी मशीनरी' से अलग मानते थे। मार्क्स ने पेरिस कम्यून को इस तानाशाही का अग्रदूत माना है। तब आखिर पेरिस कम्यून ने क्या किया था ? सार्वजनिक चुनाव में चुने हुए कम्यून ने बुर्जुआजी की पुरानी सैन्य-नौकरशाही की मशीनरी खत्म कर दी, संसदवाद की जगह निर्वाचित निकायों के प्रतिनिधियों के लिए बाध्यकारी राय जताने का जनता को अधिकार दिया और प्रभावी स्वशासन का विकल्प उपलब्ध कराया, नियमित सेना और पुलिस को भंग कर दिया और इसकी जगह जनता को हथियारबंद किया, नौकरशाही का खात्मा किया और सभी प्रशासनिक, न्यायिक, शैक्षिक और दीगर पदों पर सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर निर्वाचित अधिकारियों की नियुक्ति का प्रावधान किया, मतदाताओं की माँग पर किसी भी समय उन्हें वापस बुलाने का नियम बनाया, उनकी तनख्वाह को अन्य श्रमिकों के बराबर घोषित किया, पुलिस और पादरियों के राजनीतिक प्रभाव को बंद किया। आगे की उसकी योजना विकेंद्रित राजकीय व्यवस्था स्थापित करने की थी ताकि 'राष्ट्र सच्चे मायनों में एकताबद्ध हो सके और इसके लिए राजसत्ता को खत्म किया जाना था जो उस एकता का साकार रूप होने का दावा करती थी लेकिन राष्ट्र से स्वतंत्र और ऊपर तथा उसका परजीवी अपशिष्ट बनी हुई थी।' इसके अलावा कम्यून ने अपने सदस्यों के लिए ऐसे कायदे बनाए जिससे वे भ्रष्टाचार न कर सकें। तो यही वह राजसत्ता का रूप था जिसे मार्क्स मजदूरों की आदर्श सरकार मानते थे। यह क्रांति राज्य के विरुद्ध लक्षित थी। लेनिन ने इसी के अनुकरण में 'सारी सत्ता सोवियतों को' नारा बुलंद किया था।

समाजवाद के बारे में मार्क्स-एंगेल्स के विचारों को समझाने के बाद रणधीर सिंह एक विचार की परीक्षा करते हैं जिसके अनुसार रूस में जो स्थापित हुआ और जिसकी नकल पूर्वी यूरोप के देशों में की गई वह समाजवाद था ही नहीं। इस सवाल पर वे आलोचकों से पूरी सहमति तो नहीं जताते लेकिन इस तथ्य को भी मंजूर करते हैं कि विकृतियाँ बहुत ज्यादा थीं और ऐसे आरोपों के पीछे अवश्य ही प्रचुर अनुभव थे लेकिन सच्ची वाम कतारों पर इस समय जो जिम्मेदारी आ पड़ी है उससे पीछा छुड़ाना है क्योंकि उसे समाजवाद मान कर ही उसकी गलतियों का विश्लेषण किया जा सकता और उन्हें सुधारा जा सकता है।

समाजवादी निर्माण की एक सैद्धांतिक समस्या का जिक्र करते हुए रणधीर सिंह कहते हैं कि पूँजीवाद के खात्मे के बाद भी बुर्जुआ विचारधारा और सामाजिक अनुकूलनशीलता की ताकत को एक हद तक कम कर के आँका गया अर्थात समाजवाद की स्थापना और उसे टिकाए रखने की इच्छा के लिए जरूरी वैचारिक-सांस्कृतिक संघर्ष का महत्व समझने में कमी रह गई। मार्क्स को तो उम्मीद थी कि क्रांति यूरोप के विकसित देशों में पहले होगी लेकिन उन्हीं के लेखन में हमें ऐसे देशों में क्रांति की संभावना भी दिखाई पड़ती है जहाँ आबादी में किसानों की बहुतायत है। वे किसान-बहुल समाजों में मजदूर किसान एकता की भी वकालत करते हैं। यह चिंतन पेरिस कम्यून के बाद विकसित हुआ था। यही चीज इतिहास में उनके सिद्धांत के व्यावहारिक प्रयोग में सही साबित हुई और क्रांतियों का गुरुत्व केंद्र पूरब की ओर चला आया। क्रांति की उनकी गौण धारणा ही इतिहास में मुख्य धारणा बनी। उनके सिद्धांत के साथ इतिहास का यह खेल बाद की अनेक परेशानियों की वजह बना। रूस में मजदूर वर्ग विकसित देशों के मजदूर वर्ग के मुकाबले पिछड़ा हुआ था। रूस की क्रांति के बाद बोल्शेविकों को यूरोप में क्रांति के फूट पड़ने की आशा बहुत दिनों तक बनी रही क्योंकि वे इसे रूसी क्रांति को टिकाए रखने के लिए जरूरी समझते थे। लेकिन ऐसा न होने पर उन्हीं पर जिम्मेदारी आ पड़ी कि वे अपने ही देश में इसे आगे बढ़ाने की कोशिश करें। रूसी समाजवाद की अनेक विकृतियों का संबंध घिराव की इस मजबूरी से भी है। संगठन का लेनिनीय सिद्धांत 'आत्मगत ताकतों का मार्क्सवादी विज्ञान' है और आज भी क्रांतिकारी संघर्ष की समस्याओं को हल करने के लिए उपयोगी औजार बना हुआ है लेकिन इसमें संगठन में नेतृत्व की भूलों को सुधारने का कोई संस्थाबद्ध ढाँचा मौजूद नहीं है इसलिए गलती के शुरू हो जाने के बाद उसके फैसलों को उलटने की गुंजाइश कम रह जाती है।

मार्क्स के सिद्धांतों के 'आर्थिक' अभिग्रहण से भी समाजवाद के ढहने का संबंध है, इसको चिह्नित करते हुए वे लेनिन के बाद सोवियत संघ में समाजवाद को महज आर्थिक उपलब्धियों तक सीमित कर के देखने समझने के नजरिए का उल्लेख करते हैं। इसका उदाहरण वे मार्क्सवाद की ऐसी 'आधिकारिक' व्याख्या को भी मानते हैं जिसमें भौतिकवाद के तीन सिद्धांत, द्वंद्ववाद के चार नियम और ऐतिहासिक भौतिकवाद के पाँच चरण होते थे। जबकि उनके मुताबिक मार्क्सवाद बहुत ही खुला हुआ दर्शन है। यहाँ तक कि वह अपने सुधार की माँग भी आगामी पीढ़ियों से करता है। इसी सिलसिले में वे कहते हैं कि नव सामाजिक आंदोलनों की चुनौती के समक्ष आज मार्क्सवाद को समृद्ध करने की जिम्मेदारी आन पड़ी है क्योंकि इन आंदोलनों की सैद्धांतिकी मार्क्सवाद विरोधी 'उत्तर-आधुनिकता' से निर्मित हुई है और ये कुल मिला कर सुधारात्मक ही हैं।

अन्य चीजों के अलावा रणधीर सिंह कुछ बेहद जरूरी सैद्धांतिक सवाल उठाते हैं। समाजवादी प्रोजेक्ट के पतन से एक सवाल पैदा हुआ है जिसका कोई सैद्धांतिक समाधान उन्हें मार्क्सवाद के भीतर नजर नहीं आता। अनुभव से दिखाई पड़ा है कि सत्ता पर कब्जा हो जाने के बाद नई तरह से वर्ग निर्माण की प्रक्रिया शुरू होती है। उनका कहना है कि रूसी और चीनी दोनों ही क्रांतियों के बाद लेनिन और माओ को यह समस्या नजर आई और उन्होंने इसका समाधान खोजने की कोशिश की लेकिन दोनों के ही उत्तर पार्टी ढाँचे के बाहर जा कर अंदर की समस्याओं को हल करने के समान हैं। यह बात माओ की सांस्कृतिक क्रांति में और भी खुल कर व्यक्त होती है। जबकि समस्या यह थी कि संगठन के भीतर ही आत्म सुधार का कोई कारगर तरीका खोजा जाए। उनके मुताबिक यह ऐसी समस्या है जिसका समाधान अभी नहीं पाया जा सका है।

इसके अलावा लेखक ने इसी सिलसिले में एक ऐसे पहलू को उठाया है जिस पर आम तौर पर ध्यान नहीं दिया जाता। उनका कहना है कि परिस्थितियों और व्यक्ति की भूमिकाओं में द्वंद्वात्मक रिश्ता होता है लेकिन मार्क्सवादी आम तौर पर इसे परिस्थितियों की प्रमुखता में बदल देते हैं। क्रांति के बाद उस प्रक्रिया में शामिल रहे नेताओं की उपस्थिति भी समस्याओं पर काबू पाने में बहुत मदद करती है। रूस के संदर्भ में बोल्शेविक क्रांति के दौरान और बाद में चले गृह युद्ध में नेताओं की पहली खेप का तकरीबन सफाया हो गया था इसलिए स्तालिन तक तो नौकरशाही के विरुद्ध संघर्ष दिखाई देता है लेकिन उनकी मृत्यु के बाद इन्हीं नौकरशाहों का सरकार पर पूरी तरह से कब्जा हो गया। चीन के प्रसंग में भी यही परिघटना सामने आई।

इस किताब की खासियत यह थी कि इसने प्रतिबद्ध वामपंथी कार्यकर्ताओं को वाहियात किस्म की बातों को परे हटा कर सही मुद्दे को पहचानने में मदद की जो घटनाओं की तीव्रता और दुश्मनों के ताबड़तोड़ हमलों के समक्ष कुछ हद तक किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे। उस समय तो अनेक लोग यही कहने को महान आविष्कार समझ रहे थे कि मार्क्सवाद में लोकतंत्र की गुंजाइश नहीं है इसलिए विपक्ष न होने से कम्युनिस्ट पार्टी को अपनी गलतियों का पता नहीं चला। रणधीर सिंह ने ठीक ही मजाक उड़ाते हुए लिखा कि क्या इस कमी को दूर करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी अपने को ही विभाजित कर के विपक्ष बनाती! इसी तरह जो लोग कह रहे थे कि पिछड़े देश में क्रांति होने से अथवा एक ही देश में समाजवाद के निर्माण का निर्णय होने से विकृतियों का जन्म हुआ। उनके तर्कों को खारिज करते हुए वे कहते हैं कि यह सब विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों के प्रति रूसी कम्युनिस्टों का उत्तर था जिसमें कोई बुनियादी खामी नहीं थी।

पुरानी कहानी दोबारा

इसके बाद जिस किताब का जिक्र जरूरी है वह छपी तो बहुत पहले थी लेकिन 2008 में अकार बुक्स ने फिर से छापा है। किताब का नाम है 'हाउ टु रीड कार्ल मार्क्स' और लेखक अर्न्स्ट फिशर हैं। एक लंबी और बेहद उपयोगी भूमिका जान बेलामी फास्टर ने लिखी है। इस भूमिका का वैसे तो स्वतंत्र महत्व है लेकिन पूरी भूमिका के अनुवाद के बजाय हम उसका सार प्रस्तुत करने तक अपने को सीमित रखेंगे। फास्टर बताते हैं कि फिशर दूसरे विश्व युद्ध के बाद गठित आस्ट्रिया की अस्थायी सरकार के शिक्षा मंत्री रहे और अनेक वर्षों तक आस्ट्रिया की कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं में से एक रहे थे। इसके बावजूद वे एक स्वतंत्र मार्क्सवादी बुद्धिजीवी की तरह ही रहे। अनेक बार तो पार्टी अनुशासन की सीमा से बाहर निकल कर भी अपनी राय व्यक्त करते रहे थे। 1968 में जब सोवियत संघ ने चेकोस्लोवाकिया पर हमला किया तो उसका विरोध करने के चलते उन्हें पार्टी से 1969 में निकाल दिया गया था। फिशर की यह किताब सबसे पहले वियेना में छपी थी। इस भूमिका में वे मार्क्स के विचारों के साथ उनके जमाने से अब तक जो बरताव किया गया है उसकी झाँकी भी प्रस्तुत करते हैं ताकि इस माहौल के भीतर रख कर इस किताब के महत्व को समझा जा सके।

सबसे पहले वे मार्क्स को पढ़ने की दिक्कतों का जिक्र करते हैं और बताते हैं कि मार्क्स के लेखन की जटिलता के अलावा अगर आप वर्तमान समाज के तर्कों को स्वीकार कर लेते हैं तो उनकी मान्यताओं को समझना मुश्किल होगा। दूसरी कठिनाई यह है कि मार्क्स के विचारों के बारे में अधिकांश लेखन उनके विचारों को न केवल विकृत करता है बल्कि तमाम तरह के दुष्प्रचार से प्रभावित भी है। वे मार्क्स के विरोधियों के लिए सार्त्र का एक वाक्य उद्धृत करते हैं जिसके मुताबिक ज्यादातर आलोचना बात को आगे ले जाने के बदले मार्क्स से पहले के विचारों को ही दोहराती है।

आलोचनाओं का इतिहास वे शीत युद्ध से शुरू करते हैं जिस दौरान उनके अनुसार सोवियत सत्ताओं और पश्चिमी दुनिया द्वारा एक ही तरह से मार्क्स के विचारों को विकृत किया गया। पश्चिमी दुनिया के विकारों के उदाहरण के बतौर वे 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र' के दो संस्करणों की भूमिकाओं का जिक्र करते हैं जो क्रमशः 1955 में क्रोफ्ट के क्लासिक संस्करण की सैमुएल बीअर द्वारा तथा 1967 में पेंगुइन बुक्स संस्करण की एपीजे टेलर द्वारा लिखी हुई हैं। टेलर ने इस भूमिका से पहले भी एक किताब में मार्क्स के बारे में लिखा था कि उनका सिद्धांत सामाजिक हितों के टकराव का समाधान सोच-विचार के बजाय हिंसा के जरिए निकालने की वकालत करता है और कि मार्क्स के अनुसार आदमी का दिमाग सिर्फ बाहर के तथ्यों को दर्ज करता है। दोनों ने भूमिकाओं के लेखन से पहले ही अपने मार्क्सवाद विरोधी विचारों को जाहिर कर चुके थे। दोनों ही अपनी भूमिकाओं की शुरुआत इस दावे से करते हैं कि मार्क्सवाद धर्म है। इसके बाद उनके तर्क जुदा हो जाते हैं लेकिन वे दोनों ऐतिहासिक भौतिकवाद का ऐसा रूप तैयार करते हैं जिसे आसानी से खारिज किया जा सके। बीअर अपने पाठकों को सूचित करते हैं कि मार्क्स के विचार दो मान्यताओं पर आधारित हैं - (1) आर्थिक निर्धारणवाद या यह विचार कि 'समाज की आर्थिक संरचना मानव इच्छा और चिंतन से स्वतंत्र हो कर विकसित होती है ---(और) सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में घटनेवाली घटनाओं को निर्धारित करती है'। (2) यह विचार कि 'इतिहास का क्रम अनिवार्यतः हिंसक क्रांतियों से भरा हुआ है'। बीअर के अनुसार मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद सामाजिक अस्तित्व को 'अलंघनीय नियमों' में बाँध देता है। वे द्वंद्ववाद को 'थीसिस - एंटी थीसिस - सिंथीसिस' के त्रिक में समझने का आग्रह करते हैं। मार्क्स के आर्थिक सिद्धांतों की बुनियाद उनके अनुसार 'मूल्य का श्रम सिद्धांत' है जो कीमत के बारे में कुछ भी नहीं बताता। वे 'शोषण' को नैतिक शब्दावली मान कर इसकी जगह पर 'डकैती' का विकल्प सुझाते हैं। सबसे अधिक उनका गुस्सा मार्क्स के 'गरीबी की बढ़ोत्तरी के सिद्धांत' पर उतरता है। वे कहते हैं कि इसका मतलब मार्क्स के मुताबिक मजदूर 'अधिक वेतन और काम के कम घंटों की लड़ाई जीतने में अक्षम' हैं। बीअर की आपत्ति यह है कि पूँजीवादी निजाम के पिछले सौ सालों में मजदूर यह लड़ाई कई बार जीत चुके हैं। बेरोजगारी के बढ़ने के मार्क्स के अंदेशे को बीअर युद्धोत्तर आर्थिक उछाल का हवाला दे कर खारिज करते हैं हालाँकि बीअर के मुकाबले मार्क्स ही सही साबित हो रहे हैं।

बीअर की भूमिका के बाद वे टेलर की भूमिका के बारे में बताते हैं जो बीअर की भूमिका के बारह साल बाद आई और इसकी आलोचना और भी निर्बंध है। टेलर मार्क्स को महत्वोन्मादी बताते हैं क्योंकि उनके अनुसार मार्क्स हमेशा ही अपने आप को दुनिया का बौद्धिक स्वामी समझते थे तब भी जब उन्हें कोई जानता नहीं था। इसके लिए वे द्वंद्ववादी पद्धति में उनके विश्वास का हवाला देते हैं जो उनकी नजर में भी 'थीसिस-एंटीथीसिस-सिंथीसिस' का सरल त्रिस्तरीय ढाँचा था। इसके अनुसार अंत में समाज ऐसी स्थिति में पहुँचेगा जहाँ बिना किसी टकराव के सभी लोग राजी-खुशी रहेंगे। उनका कहना है कि बगैर एक भी खोज किए मार्क्स अपने आप को 'वैज्ञानिक' कहते हैं। मार्क्स उनकी नजर में समाज के विकास के बजाय महज क्रांति की बात करते हैं जो 'तीक्ष्ण और तुरंत' होगी। इतिहास का यह आलम है तो आर्थिक मामलात में तो और भी गड़बड़ी है। उनके अनुसार मार्क्स अतिउत्पादन से पैदा संकट को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते थे लेकिन यह तो उस जमाने में सर्वमान्य 'मूल्य के श्रम-सिद्धांत' की उपज था। अब यह मान्यता शैक्षिक जगत में अमान्य हो गई है। पूँजीवादी व्यवस्था के आर्थिक अंतर्विरोधों के बढ़ने की 'भविष्यवाणी' टेलर के अनुसार गलत साबित हो गई है। पूँजीपतियों की समृद्धि की बढ़त के साथ ही सर्वहारा की समृद्धि भी बढ़ी है। आधुनिक पूँजीवादी व्यवस्था मार्क्स के बताए पूँजीवाद की तरह नहीं रह गई है क्योंकि स्वामित्व और नियंत्रण में अलगाव आया है। टेलर के मुताबिक मुनाफा पूँजीवाद का एकमात्र चालक तो नहीं ही रह गया है, प्रमुख चालक शक्ति भी नहीं है। टेलर कहते हैं कि मार्क्स ने शांतिपूर्ण समाजवादी क्रांति की संभावना जताई थी लेकिन बाद में इसे छोड़ दिया। असल में तो मार्क्स की असली प्रवृत्ति न केवल स्तालिन तक बल्कि हिटलर और मुसोलिनी तक ले जानेवाली है।

फास्टर के अनुसार दुखद यह है कि सोवियत संघ द्वारा प्रचारित मार्क्सवाद भी इसी तरह मार्क्स की आर्थिक-तकनीकी निर्धारणवादी छवि पेश करता है। इसके विरोध में पश्चिमी जगत के मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों द्वारा जो मार्क्सवाद विकसित किया गया वह वर्ग संघर्ष और ऐतिहासिक विकास की वास्तविक दुनिया से दूर होने के कारण ज्यादा संरचनावादी था। लुई अल्थूसर ने क्लाड लेवी-स्त्रास के संरचनावाद से प्रेरणा ले कर 'आधार अधिरचना' को ऐसी संरचना में बदल दिया जिसमें मनुष्य की कर्ता के बतौर कोई भूमिका ही नहीं रही। इसी को विश्लेषणात्मक मार्क्सवादियों ने आगे बढ़ाया है और सीए कोहेन ने दावा किया है कि विश्लेषणात्मक दर्शन के औजारों का इस्तेमाल कर के आधार-अधिरचना के मुहावरे के विश्लेषण के जरिए मार्क्स के समूचे लेखन को व्याख्यायित किया जा सकता है। अल्थूसर और कोहेन ने मार्क्स की रक्षा के नाम पर लिखी किताबों में ये ढाँचे प्रस्तावित किए हैं। उत्तर मार्क्सवादी के नाम से जो आलोचक सामने आए हैं उनका दावा तो मार्क्स के पार जाने का है लेकिन उनके तर्क उतने ही पुराने हैं जितना खुद मार्क्सवाद। जब भी मार्क्सवादी आंदोलन में भाटा आया है ऐसे विचार कुकुरमुत्ते की तरह प्रकट हो जाते हैं।

असल में मार्क्स का निर्धारणवादी पाठ प्रथम विश्व युद्ध से पहले ही दूसरे इंटरनेशनल में सामने आ चुका था। तब तक मार्क्स के लेखन का आधा भी प्रकाशित नहीं हुआ था। बाद में प्रकाशित लेखन को असल में सबसे महत्वपूर्ण माना गया है जो 1960-70 के दशकों में ही अंग्रेजी में आ सका। इन्हीं में मार्क्स का मानवतावादी रूप उभर कर आया। इस लेखन का असर 1968 में चरम पर पहुँच गया। संयोग से उसी साल फिशर की यह किताब भी छपी। किताब के इस संस्करण के परिशिष्ट में मार्क्स के दो लेखों 'थीसिस आन फायरबाख' और 'ए कंट्रीब्यूशन टु द क्रिटीक आफ पालिटिकल इकोनामी' की भूमिका से आधार-अधिरचना के मुहावरे के अलावा उनकी पद्धति के बारे में पाल स्वीजी का एक लेख भी छापा गया है जो उनकी किताब 'द थियरी आफ कैपिटलिस्ट डेवलपमेंट' का एक हिस्सा है और बेहद उपयोगी है।

इधर के दिनों में मार्क्सवाद पर जो भी सोच-विचार हो रहा है उसकी एक विशेषता मार्क्स के नजरिए में उनके मानववाद पर जोर को रेखांकित करना है। रणधीर सिंह ने भी इस पहलू को उभारा। फिशर की इस किताब में मार्क्स के ही लेखन से महत्वपूर्ण अंशों को चुन कर उनकी व्याख्या की गई है। पुस्तक का पहला अध्याय ही है - द ड्रीम आफ द होल मैन। स्पष्ट है कि मार्क्स के लेखन के उस हिस्से पर बल दिया गया है जिसमें वे आधुनिक पूँजीवादी खंडित मनुष्य के बरक्स संपूर्ण मनुष्य के सपने को समाजवादी समाज का लक्ष्य घोषित करते हैं। उनके मुताबिक अठारहवीं सदी में मनुष्य का अपने आप से अलगाव समूचे यूरोप का बुनियादी अनुभव था। इसलिए अपने आप से, अपनी प्रजाति से, आसपास की प्रकृति से मनुष्य के इस अलगाव का खात्मा उस समय के सभी मानववादियों की साझी चिंता थी। उनमें रोमांटिक लोग भी शामिल थे लेकिन समय बीतने के साथ कुछ लोग अतीत को चरम मुक्ति का समय मान कर उसका गुणगान करने लगे जबकि अन्य भविष्य में मनुष्य के इस अलगाव के खात्मे का सपना सँजोए रहे।

उनके अनुसार मनुष्य श्रम के जरिए ही अपने सार को साकार करता है। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था में यही श्रम, श्रम विभाजन के हवाले हो जाता है। मार्क्स सामाजिक श्रम विभाजन और मैनुफैक्चरिंग के श्रम विभाजन में फर्क करते हैं। सामाजिक श्रम विभाजन कृषि या उद्योग जैसा विभाजन है। इसी के भीतर लिंग या आयु के हिसाब से हुआ विभाजन भी आता है। कबीलों के बीच युद्ध में पराजित कबीले के लोगों को गुलाम बना कर उनसे मेहनत कराने के चलते भी एक तरह का विभाजन हो जाता है। इसी दौर में वस्तु विनिमय की प्रथा सामने आती है। इसके बाद मानसिक और शारीरिक श्रम का अंतर आता है जिसका सबसे बड़ा रूप गाँव और शहर का विभाजन है। ये दोनों ही श्रम विभाजन न सिर्फ मनुष्य के भीतर छिपी हुई संभावनाओं को साकार करते हैं बल्कि खास तरह की मानसिक और शारीरिक अपंगता को भी जन्म देते हैं। शहर में उत्पादकों के गिल्ड में भी अलग-अलग गिल्डों के बीच का विभाजन बहुत कुछ प्राकृतिक ही होता है। शिल्पी जो कुछ बनाता है उससे उसका अलगाव नहीं होता। वह कोई भी चीज पूरी ही बनाता है। लेकिन मैनुफैक्चरिंग के आगे बढ़ने पर आधुनिक श्रम विभाजन नजर आना शुरू होता है। इसके पहले तक औजार मनुष्य के आदेश मानता था लेकिन आधुनिक उद्योग तो मनुष्य को औजार का गुलाम बना देता है।

यहीं फिशर मार्क्स की एक और बात को रेखांकित करते हैं। उनके मुताबिक भौतिक जीवन मानव अस्तित्व का आधार है न कि उसका उद्देश्य। श्रम अगर आनंद के बजाय भरण पोषण का ही साधन बन कर रह जाता है तो यह मनुष्य की प्रकृति का विरोध है। जब मार्क्स कहते हैं कि मनुष्य के समक्ष आर्थिक स्थितियाँ ऐतिहासिक विकास के एक चरण के बजाय शाश्वत नियम की तरह पेश आती हैं तो वे इन पर विजय पाने की माँग कर रहे होते हैं। वे चाहते हैं कि आर्थिक नियमों के अधीन मनुष्य न रहे बल्कि ये नियम ही परस्पर संबद्ध व्यक्तियों से बनी हुई मानवता के अधीन लाए जाने चाहिए। इस तरह श्रम विभाजन से उत्पादन के साधनों और उत्पाद पर निजी मालिकाना, उत्पादक पर उत्पाद की बरतरी, राज्य, चर्च, कानून जैसी संस्थाओं से व्यक्ति का पराई चीजों की तरह सामना होना आदि पैदा होते हैं और फिर ये ही मिल कर अलगाव नामक स्थिति को जन्म देते हैं। अलगाव के समाज में मनुष्य का अन्य व्यक्तियों के साथ वैसा रिश्ता नहीं रह जाता जैसा दो मनुष्यों के बीच होता है बल्कि उनके बीच मालिक मजदूर, शोषक शोषित, मातहत कमांडर, भिखारी दयावान जैसा आपसी रिश्ता बन जाता है। काम की प्रक्रिया में होनेवाला श्रम विभाजन मनुष्य को उसकी मनुष्यता से विलग कर देता है। सब से आगे बढ़ कर सामाजिक श्रम विभाजन में एक व्यक्ति तो वस्तुओं, औजारों, उत्पाद आदि का मालिक बन जाता है जबकि दूसरा इतना अकिंचन हो जाता है कि अपना शरीर छोड़ कर उसके पास कुछ नहीं रह जाता और उसे भी बेचना पड़ता है। ऐसा माहौल व्यक्तियों की प्रतिभा को विकास का अवसर देनेवाले किसी भी उत्पादक समाज के बनने की संभावना खत्म कर देता है। फिशर के मुताबिक अलगाव की समस्या जीवन भर मार्क्स के सोच विचार का विषय बनी रही। अपने अंतिम ग्रंथ 'पूँजी' के तीसरे खंड में मार्क्स अलगाव के खात्मे की संभावना ऐसी स्थिति में देखते हैं जहाँ मनुष्य जरूरत के लिए उत्पादन के फंदे से बाहर निकल जाए।

वस्तुओं के संसार की कीमत बढ़ने के साथ साथ मानव संसार की कीमत घटने लगती है। वस्तु आखिर है क्या ? वह जो हमारी किसी जरूरत को पूरा करती हो। यही चीज उसका उपयोग मूल्य है। उसका उपयोग मूल्य तभी साकार होता है जब उसका उपभोग हो। यह मूल्य ही विनिमय मूल्य का भी आधार होता है। उपयोग मूल्य के बतौर वस्तुएँ अतुलनीय होती हैं। लेकिन माल के बतौर, उनका विनिमय मूल्य उनमें एक साझी चीज की माँग करता है। विनिमय की दुनिया में वस्तु अपनी गुणवत्ता खो देती है और महज मात्रा में बदल जाती है। वस्तुएँ निश्चित मात्रा की श्रमशक्ति का साकार रूप हो जाती हैं, उनके भीतर मानव श्रम अमूर्त रहता है। माल के भीतर उत्पादन की सामाजिक प्रकृति और उत्पादक की आभासी 'स्वतंत्रता' मूर्तिमान रहती है क्योंकि वह चाहे या न चाहे उसे कच्चे माल और मजदूर, मजदूर की औसत उत्पादकता, माँग और पूर्ति, उपभोक्ता की जरूरतों और उसकी क्रय क्षमता - संक्षेप में सब कुछ के लिए समग्र समाज पर निर्भर रहना पड़ता है। इस तरह माल सर्वावेशी सामाजिक उत्पादन की दुनिया में 'निजी अर्थतंत्र' के आंतरिक अंतर्विरोध का साकारीकरण हो जाता है। जैसे धार्मिक जगत में मनुष्य के दिमाग से पैदा हुई चीजें उससे आजाद हो कर सजीव हो जाती हैं, एक दूसरे से और मानव जाति से रिश्ता बनाने लगती हैं उसी तरह माल की दुनिया में मनुष्य के हाथ से बनी चीजें भी हो जाती हैं। विनिमय की दुनिया में मनुष्यों के बीच तो भौतिक संबंध बनते हैं लेकिन वस्तुओं में सामाजिक संबंध बनते हैं। कोई एक वस्तु अपने मालिक के अनजाने ही सामाजिक हो जाती है। आज मुनाफा कमाती है तो कल घाटा उठाती है, इसकी कीमत में चढ़ाव उतार आता है, कहीं और काम की कोई नई उत्पादक पद्धति लागू होने से इसका मूल्य कम हो जाता है, जब इसके मुकाबले कोई नहीं होता तो इसको फुसलाया जाता है और जब बहुत हो तो खारिज हो जाती है, संकट या युद्ध को जन्म देना तो इसके बाएँ हाथ का खेल है, जिसके पास यह होती है उसे इसका नशा रहता है।

फिशर ने वर्ग और वर्ग संघर्ष की धारणा के सिलसिले में कुछ नई बातें कहने की कोशिश की। इस मसले पर वे अपनी बात यहाँ से शुरू करते हैं कि मार्क्स वर्ग या वर्ग संघर्ष की धारणा के खोजकर्ता या आविष्कारक नहीं थे। वे इस सिद्धांत में मार्क्स के योगदान को निम्नलिखित बातों में देखते हैं :

1. किसी वर्ग की विशेषताओं को निर्धारित करने की कोशिश।

2. वर्गों की उत्पत्ति का विश्लेषण।

3. इस तथ्य की पहचान कि किसी निश्चित समय पर किसी वर्ग के हित उत्पादक शक्तियों के विकास और नई सामाजिक संरचना के प्रति उसके रुझान के मेल में होते हैं जबकि अन्य वर्ग स्थापित पारंपरिक व्यवस्था की रक्षा इसलिए करते हैं क्योंकि वह उनके हितों के मेल में होती है।

4. यह यकीन कि सर्वहारा अंतिम वर्ग है और उसकी मुक्ति के लिए जरूरी है कि सभी वर्गों का खात्मा हो और वर्गविहीन समाज की स्थापना हो।

सामाजिक श्रम विभाजन के चलते तमाम तरह के पेशा आधारित समूहों का जन्म हुआ और फिर लंबे दौर में जटिल प्रक्रिया के तहत इन समूहों से वर्गों का विकास हुआ। वे कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र में इस सवाल पर थोड़ी सरलता दिखाई पड़ती है जिसमें आगे चल कर परिष्कार किया गया ताकि समाज की जटिलता को समेटा जा सके और सर्वाधिक महत्वपूर्ण वर्गों की विशेषताओं को परिभाषित किया जा सके। वर्ग कठोर या अपरिवर्तनीय नहीं होते न ही अनादि हैं बल्कि ऐतिहासिक प्रक्रिया की उपज होते हैं। वर्ग साझा विशेष हितों के लिए, जिन्हें 'सामान्य' हित के रूप में स्थापित किया जा चुका होता है, अपने विरोधी साझा विशेष हितों के विरुद्ध लड़ाई के क्रम में पैदा होते हैं, वर्ग के रूप में उनके गठन के लिए यह जरूरी होता है, इसी लड़ाई के क्रम में जनता के विभिन्न तबके गठित हो रहे उस वर्ग की ओर खिंच आते हैं और उसमें समाहित हो जाते हैं, इस प्रक्रिया में बने वर्ग निरंतर गतिमान रहते, अनेक टुकड़ों में बँटते रहते और नई स्थितियों में फिर एकताबद्ध होते रहते हैं, वर्गीय हित व्यक्तियों से कमोबेश स्वतंत्र हैसियत बना लेते हैं, विरोधी हित से उनकी शत्रुता बार बार बनती बिगड़ती रहती है। इस तरह वर्ग लगातार गतिमान, संगठित और पुनर्संगठित होते रहते हैं। पूँजीपति और सर्वहारा इसी तरह लंबी प्रक्रिया में गठित वर्ग हैं। मार्क्स पूँजी के तीसरे खंड के बावनवें अध्याय में इस समस्या को उठाते हैं लेकिन उसे पूरा करने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई लेकिन इस अधूरी पांडुलिपि में भी मार्क्स दो नहीं. तीन बड़े सामाजिक वर्गों की उपस्थिति चिह्नित करते हैं : पगारजीवी श्रमिक, पूँजीपति और जमींदार जो आय और आय के स्रोतों के मुताबिक एक दूसरे से अलग होते हैं अर्थात पगार, मुनाफा और जमीन का किराया।

इसके बाद फिशर लुई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेर में मार्क्स द्वारा राजनीतिक हलचल के बीच प्रकट होनेवाली वर्ग की विशेषताओं का चित्रण करते हैं जिसमें सिर्फ विरोधी ही नहीं मध्यवर्ती तबकों की भी भूमिका को रेखांकित किया गया है। इसी किताब में मार्क्स ने लिखा था कि वर्ग संघर्ष का सर्वोच्च रूप राजनीतिक पार्टियों के बीच का संघर्ष है। वे बताते हैं कि मार्क्स के विश्लेषण के मुताबिक किसी व्यक्ति की आय या जीवन पद्धति सिर्फ उसका 'क्लास इन इटसेल्फ' बताती है। महत्वपूर्ण बात है कि वर्गों का निर्माण वर्ग संघर्ष के दौरान होता है। इस संघर्ष के जरिए ही वह समाजैतिहासिक ताकत बनता है। साफ है कि दो विशाल वर्गों में समाज का अधिकाधिक विभाजन एक प्रक्रिया है लेकिन इसका मतलब मध्यवर्ती वर्गों की अनुपस्थिति नहीं है। यहाँ तक कि मार्क्स पूँजीपति वर्ग में भी बौद्धिकों को अलगाते हैं तभी उनके एक हिस्से के टूट कर मजदूर वर्ग के साथ खड़ा होने की संभावना देखते हैं।

इसके बाद ऐतिहासिक भौतिकवाद संबंधी अध्याय में वे सबसे पहले व्यक्तियों की संपत्ति (इंडिविडुअल प्रापर्टी) और व्यक्तिगत संपत्ति (प्राइवेट प्रापर्टी) में मार्क्स द्वारा किए हुए भेद का उल्लेख करते हैं। इसमें पहले का मतलब व्यक्तिगत उपभोग के लिए उपलब्ध संपत्ति है तो दूसरे का मतलब ऐसी संपत्ति को निजी बनाना है जो सारत: सामाजिक होती है। यह भेद वे इस बात पर जोर देने के लिए करते हैं कि पूँजीवाद लोगों की व्यक्तिगत संपत्ति से उन्हें बेदखल करके निजी संपत्ति का निर्माण करता है। इसी आधार पर क्रांति के बाद की स्थिति के लिए उनका यह कथन जायज सिद्ध होता है 'बेदखल करनेवालों को बेदखल कर दिया जाता है (एक्सप्राप्रिएटर्स आर एक्सप्राप्रिएटेड)।'

इसी प्रसंग में 'राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान' की प्रसिद्ध भूमिका को उद्धृत करने के बाद वे स्वीकार करते हैं कि इसके यांत्रिक अतिसरलीकरण की गुंजाइश है और ऐसा हुआ भी है। अपूर्व द्वंद्ववादी होने के बावजूद मार्क्स कहीं कहीं यह भ्रम पैदा करने का मौका देते हैं कि मानो इतिहास की संचालक शक्ति मनुष्य नहीं बल्कि श्रम के औजार, मशीन और वस्तुओं की दुनिया है। यही आलोचना आगे चल कर हम टेरी ईगलटन के लेखन में पाएँगे। इस तरह की धारणाओं को वे हेगेल और डार्विन का असर मानते हैं। हालाँकि वे 'पावर्टी आफ फिलासफी' से यह भी उद्धृत करते हैं कि 'उत्पादन के सभी औजारों में सबसे शक्तिशाली उत्पादक शक्ति खुद क्रांतिकारी वर्ग होता है।' साथ ही 'होली फैमिली' से उद्धरण दे कर साबित करते हैं कि मार्क्स के लिए इतिहास और कुछ नहीं जीवित मनुष्यों द्वारा अपने मकसद को पाने के लिए किया गया काम है। आखिरकार मार्क्स महज चिंतक नहीं, मजदूर आंदोलन के नेता भी थे इसलिए वे समाजवाद के लिए सामाजिक ताकतों को संगठित करने का महत्व भी जानते थे। इसीलिए मार्क्स जब नियमों की बात करते हैं तो उन्हें प्रवृत्तियों की तरह समझा जाना चाहिए।

फिशर का कहना है कि विकास के तथाकथित नियमों की तरह ही आधार अधिरचना का संबंध भी यांत्रिक तरीके से समझा गया है। असल में बौद्धिक उत्पाद भौतिक उत्पादन की तरह नहीं होता बल्कि उसके साथ और उससे निरंतर अंत:क्रिया में होता है। किसी भी समय शासकों के विचार उस समय के प्रभावी विचार होते हैं लेकिन वे ही एकमात्र विचार नहीं होते। मार्क्स बार बार इस बात पर जोर देते हैं कि किसी भी समाज में उसके नाश के बीज निहित रहते हैं। नया समाज पुराने के नकार के बतौर ही पैदा होता है। प्रभावी विचारों के साथ ही साथ विरोधी प्रतिगामी या अग्रगामी विचार भी मौजूद होते हैं और वर्ग संघर्ष केवल आर्थिक नहीं बल्कि राजनीतिक और बौद्धिक लड़ाई भी होता है। चेतना भी सही, गलत और भ्रामक होती है। ठोस स्थितियों के विश्लेषण में हमेशा ही मार्क्स चेतना और सामाजिक अस्तित्व की अंत:क्रिया का चित्रण करते हैं। मार्क्स के मुताबिक 'लोग अपने इतिहास का निर्माण करते हैं, लेकिन वे अपनी मर्जी के अनुसार उसका निर्माण नहीं करते; वे अपनी चुनी हुई परिस्थितियों में उसका निर्माण नहीं करते, बल्कि ऐसा उन्हें अतीत से प्राप्त, प्रदत्त और मौजूद स्थितियों से सीधे टकराते हुए करना पड़ता है।'

किताब के अंत में फिशर भविष्य के लिए मार्क्सवाद की चार रोचक धाराओं का जिक्र करते हैं :

1. मार्क्सवाद को ऐसा वैज्ञानिक विश्व दृष्टिकोण समझना जिसे इतिहास की द्वंद्वात्मक व्याख्या के लिए लागू किया जा सकता है। यह धारणा मार्क्स की बनिस्बत एंगेल्स के विचारों से ज्यादा प्रभावित है लेकिन एंगेल्स इस बात को भी ध्यान में रखते हैं कि हरेक नई खोज के साथ भौतिकवाद को भी बदलना होगा। इसके चलते एंगेल्स के भी विचारों की फिर से परीक्षा हो रही है, उनकी सामान्यताओं को दुरुस्त किया जा रहा है और आधुनिक विज्ञान की कुछेक महत्वपूर्ण खोजों को गैरमार्क्सवादी साबित करनेवाले प्रतिबंधों को ढीला किया जा रहा है।

2. 'मनुष्य के दर्शन' के रूप में मार्क्सवाद की परिकल्पना जिसमें अलगाव को बुनियादी धारणा माना जाए। आजकल ज्यादातर मार्क्सवाद का विकास इसी दिशा में हो रहा है।

3. संरचनावाद से प्रभावित हो कर मार्क्स के लेखन को भाषा और मिथ के विश्लेषण के लायक बनाना। यह विकास मार्क्सवाद को अकादमिक बनाने की ओर ले गया।

4. इतिहास और राजनीतिक पहल के अध्ययन के लिए वैज्ञानिक पद्धति के बतौर उसे विकसित करना। तीसरी दुनिया के देशों में अधिकतर मार्क्सवाद का विकास इसी लक्ष्य की ओर अग्रसर है।

लैटिन अमेरिकी देशों की हलचल

कनाडा के मार्क्सवादी लेबोविट्ज की किताब 'द सोशलिस्ट अल्टरनेटिव : रीयल ह्यूमन डेवलपमेंट' अकार बुक्स से छपी 2010 में लेकिन इनकी महत्वपूर्ण किताब 'बीयांड कैपिटल' का दूसरा संस्करण 2003 में ही छप गया था। लेबोविट्ज की एक विशेषता यह भी है कि वे मेजारोस की मान्यताओं को सरल भाषा में सुबोध ढंग से प्रस्तुत करते हैं।

लेबोविट्ज की 'बीयांड कैपिटल' की शुरुआत इस सवाल से होती है कि आखिर इक्कीसवीं सदी के पूँजीवाद को समझने के लिए उन्नीसवीं सदी के लेखक को क्यों देखा जाए। उत्तर देते हुए वे बताते हैं कि मार्क्सवाद असल में महज आर्थिक सिद्धांत नहीं है। मार्क्सवादी हरेक प्रकार के ऐसे समाज का विरोध करते हैं जो शोषण पर आधारित है और इसीलिए मनुष्य के संपूर्ण विकास में बाधक है। वे पूँजीवाद का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि इस समाज में फैसले मनुष्य की जरूरत के आधार पर नहीं बल्कि निजी मुनाफे को ध्यान में रख कर किए जाते हैं। मनुष्य और संसाधनों का पूरा इस्तेमाल नहीं हो पाता क्योंकि उन्हें मनुष्य की जरूरत के अनुसार संयोजित ही नहीं किया जाता। मानव अस्तित्व की बुनियादी शर्त, प्राकृतिक पर्यावरण को निजी मुनाफ़े के लिए नष्ट कर दिया जाता है। ऐसे समाज में न्याय की बात बेमानी है जिसमें उत्पादन के साधनों का स्वामित्व एक बड़ी आबादी को अमानवीय हालात में काम करने के लिए मजबूर कर देता है। यहाँ तक कि जनता को लिंग, नस्ल और राष्ट्रीयता आदि के आधार पर इसीलिए बाँटा जाता है क्योंकि अन्यथा लोगों के बीच आपसी सहयोग पूँजी के लिए फायदेमंद नहीं होगा।

दूसरी बात यह कि मार्क्स ने पूँजीवाद के गति विज्ञान का अब तक का सर्वोत्तम अध्ययन किया था जिसे आज हमारे लिए, जो पूँजीवाद के गहरे संकट से रूबरू हैं, जानना बहुत ही जरूरी है। पूँजीवाद के लिए माल और मुद्रा के साथ ही ऐसे श्रमिक की जरूरत होती है जो अपना श्रम बेचे, वह श्रम जो उसके शरीर में ही अवस्थित है। दूसरे कि इस श्रम को खरीदनेवाला पूँजीपति हो। इसके लिए श्रमिक को आजाद होना चाहिए। उसका अपने शरीर में निहित इस ताकत पर इतना अधिकार होना चाहिए कि वह इसके मालिक के बतौर इसे बेच सके। उसे उत्पादन के सभी साधनों से भी आजाद होना चाहिए ताकि उसके पास अपना शरीर छोड़ कर बेचने के लिए और कुछ भी न हो। तीसरी बात यह कि पूँजीपति को उस श्रम का बाकायदे अधिग्रहण करना चाहिए। पहले भी बाजार के जरिए खरीद बिक्री हुआ करती थी लेकिन श्रम शक्ति की बिक्री की खासियत यह है कि जिस चीज का शोषण होना है वह उसके मालिक से अलग कोई वस्तु नहीं होती। इसलिए इसकी बिक्री के साथ ही मजदूर एक तरह से अपने ही शरीर पर अपना अधिकार बेच देता है। मतलब यह भी निकला कि खरीदारी के वक्त उसे सशरीर मौजूद रहना होता है। खरीदार यानी पूँजीपति भी इसकी खरीदारी निजी उपभोग के लिए नहीं करता। उसकी रुचि इससे पैदा होनेवाले अतिरिक्त मूल्य में होती है। सिर्फ अतिरिक्त मूल्य के लिए ही वह श्रम शक्ति को खरीदता है। यह अतिरिक्त मूल्य उत्पादन के क्षेत्र में पैदा होता है। उत्पादित होनेवाली वस्तु भी श्रम पर अधिकार के चलते उसके खरीदार की ही संपत्ति हो जाती है। अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन और अधिग्रहण ऐसी कहानी है जो मार्क्स के पाठक आम तौर पर जानते हैं। इसके लिए पूँजीपति काम के घंटे या उत्पादकता बढ़ाता है जिससे निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य का सृजन होता है। लेकिन मार्क्स निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य का ही उद्घाटन नहीं करते बल्कि वे सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य का भी रहस्योद्घाटन करते हैं। अपने एक लेख 'कलेक्टिव वर्कर' में लेबोविट्ज ने इस पहलू पर जोर दिया है क्योंकि काम के घंटे या उत्पादकता बढ़ा कर जो मुनाफा पूँजीपति कमाता है उसका अन्याय तो प्रत्यक्ष है लेकिन ऐसा न करने से भी जो अतिरिक्त मूल्य पैदा होता है वह सबकी नजर में नहीं आता।

लेबोविट्ज के अनुसार पूँजीवाद की मार्क्स की आलोचना सिर्फ कम या ज्यादा वेतन की नहीं बल्कि स्वयं मजदूरी की है। अगर मजदूर काम के घंटे कम करवा कर मजदूरी में बढ़ोत्तरी करवा लें तो भी मार्क्स की आलोचना खत्म नहीं हो जाएगी। अतिरिक्त मूल्य का हरेक कतरा मार्क्स की नजर में चोरी है। सवाल गुलामी का है, उसके रूप का नहीं। मार्क्स के लिए पूँजीवाद में सुधार का कोई माने मतलब नहीं, पूँजीवाद का खात्मा ही एकमात्र विकल्प है। चूँकि यह अंतर्दृष्टि आंदोलनों से अपने आप नहीं उपजती इसलिए पूँजी के तर्क के पार जाने के लिए 'पूँजी' का अध्ययन जरूरी है। इसके बगैर यही धारणा बनी रहती है कि मजदूर ने खास मात्रा में अपना श्रम बेचा और इसीलिए शोषण भी सही मजदूरी न मिलने में दिखाई पड़ता है। मार्क्स का जोर पूँजीवाद में सुधार पर नहीं बल्कि उसके निषेध और विनाश पर है।

लेबोविट्ज कहते हैं कि मार्क्स का ग्रंथ 'पूँजी' एकतरफा तौर पर महज पूँजी को सक्रिय दिखाता है और इसके दूसरे पहलू अर्थात मजदूर की स्वतंत्र सक्रियता को उजागर नहीं करता। इसके बरक्स वे मार्क्स के पहले इंटरनेशनल के भाषण से 'मजदूर वर्ग के राजनीतिक अर्थशास्त्र' की धारणा को ले आते हैं और मार्क्स के एक सपने का जिक्र करते हैं जिसको आजकल बहुत-से विद्वान उद्धृत करते हैं। वह है - आपस में जुड़े हुए उत्पादकों का ऐसा समाज जिसमें सामाजिक संपदा, श्रमशक्ति के खरीदारों को प्राप्त होने के बजाय स्वाधीन तौर पर परस्पर संबद्ध व्यक्तियों द्वारा नियोजित की जाती है जो "सामुदायिक उद्देश्यों के लिए और सामाजिक जरूरत" के मुताबिक उत्पादन करते हैं।

अपने एक लेख 'स्पेक्टर आफ सोशलिज्म फार द ट्वेंटी-फर्स्ट सेंचुरी' में लेबोविट्ज समाजवाद को तीन चीजों का समुच्चय मानते हैं -

1. उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व : यह चीज राजकीय स्वामित्व से अलग है। इसके लिए गहन लोकतांत्रिकता की जरूरत है जिसमें जनता, उत्पादकों और समाज के सदस्य के बतौर हमारे सामाजिक श्रम के परिणामों के उपयोग के बारे में निर्णय लेगी। सामाजिक संपत्ति की उनकी धारणा में अतीत के संचित श्रम की केंद्रीयता है जिसमें औजार और कौशल शामिल हैं। अतीत का यह संचित श्रम हमें मुफ्त मिलता है और इसी के साथ सहयोग के उपहार को जोड़ देने से सामाजिक उत्पादक शक्ति प्राप्त होती है। इसी सामाजिक विरासत के लिए लड़ाई एक तरह से वर्ग संघर्ष है। पूँजीवाद इसी विरासत से मनुष्य को अलग करता है और उसे पूँजी में बदल कर हथिया लेता है। इसको वापस हासिल करना और जीवित सामाजिक श्रम तथा अतीत के सामाजिक श्रम को संयुक्त करना समाजवाद के लिए आवश्यक है।

2. मजदूरों द्वारा उत्पादन का संगठन : मजदूरों द्वारा संगठित उत्पादन से उत्पादकों के बीच नए रिश्तों की बुनियाद पड़ती है जो सहयोग और एकजुटता के होते हैं। इसके लिए मजदूरों को काम की जगह पर चिंतन और कर्म को आपस में जोड़ने की क्षमता विकसित करनी होगी। इससे उनमें निर्णय लेने का आत्मविश्वास आता है।

3. सामुदायिक जरूरतों और उद्देश्यों की संतुष्टि : यह बात मानव परिवार के सदस्यों के बतौर हमारी जरूरतों और हमारी साझा मानवता को मान्यता देने पर आधारित है। इसके लिए स्वार्थ से ऊपर उठने और समुदाय तथा समाज के बारे में सोचने के महत्व पर जोर देना होगा। जब तक हम निजी लाभ के लिए उत्पादन करते हैं तब तक दूसरों को प्रतिद्वंद्वी या ग्राहक ही समझते हैं यानी दुश्मन या अपने मकसद को पूरा करने का साधन और इसी कारण एक दूसरे से अलग थलग और एकांगी बने रहते हैं। समाजवाद के आरंभिक त्रिक का यह पहलू आचरण में भिन्नता को मान कर एकता स्थापित करने पर बल देता है। इस तरह हम जनता में एकजुटता का निर्माण तो करते ही हैं अपने को भी अलग तरीके से उत्पादित करते हैं।

एक लेख 'द इंपोर्टेंस आफ सोशलिस्ट एकाउनटेंसी' में वे मेजारोस की एक नई धारणा ले आते हैं। उनका कहना है कि नया समाजवादी समाज बनाने के लिए नई धारणाओं का निर्माण करना होगा। ये नई धारणाएँ पूँजी की तार्किकता के मुकाबले सामाजिक तार्किकता की स्थापना करेंगी। इस सिलसिले में वे मेजारोस की 'समाजवादी एकाउनटेंसी' की धारणा का जिक्र करते हैं जो पूँजी के तर्क में निहित 'एकाउनटिंग और एडमिनिस्ट्रेशन' के बरक्स प्रस्तावित किया गया है। इसमें पूँजीवादी व्यवस्था के परिमाण पर जोर के विपरीत गुण पर जोर दिया जाना चाहिए और उत्पादन का लक्ष्य जरूरतों की सीधी संतुष्टि होना चाहिए। इसका दूसरा पैमाना स्वतंत्र समय होना चाहिए जिसे मनुष्य अपने आप को साकार करने के लिए रचनात्मक तरीके से इस्तेमाल करेगा और अनिवार्य श्रम के समय की तानाशाही से आजादी हासिल करेगा। इस तरह समाजवादी लेखा जोखा अनिवार्य श्रम समय के निषेध पर आधारित होगा। 'इतिहास में आगे चल कर स्वतंत्र समय का उत्पादन मुक्ति की अनिवार्य शर्त होगा।' यह पूँजीवाद की इस स्थिति के विरोध में होगा जहाँ समय ही सब कुछ होता है, मनुष्य कुछ नहीं होता। समाजवादी लेखा की धारणा की जरूरत पूँजीवादी लेखा और सक्षमता की पूँजीवादी धारणा को तोड़ने के लिए है। स्वतंत्र समय मानव विकास और व्यवहार से जुड़ा हुआ है इसलिए समाजवादी लेखा की धारणा यहाँ आ कर परिस्थिति को बदलने के साथ ही खुद को बदलने के क्रांतिकारी आचरण से मिल जाती है। इस तरह यह मानव क्षमता में विकास को भी समाहित करती है। जहाँ पूँजीवादी लेखा उत्पादन के समय को ध्यान में रखता है और मानव क्षमता का मूल्यांकन प्रति इकाई वस्तुओं के उत्पादन में लगे मानव श्रम के हिसाब से करता है वहीं समाजवादी लेखा मनुष्य के लिए आवश्यक निवेश के आधार पर श्रमिक की क्षमता में विकास का आकलन करता है।

आज का समाजवाद

हंगरी के मार्क्सवादी चिंतक इस्तवान मेजारोस फ़िलहाल सबसे महत्वपूर्ण माने जाते हैं। उनकी किताब 'बीयांड कैपिटल' की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। किताब का पहला और दूसरा खंड इंग्लैंड में 1995 में मर्लिन प्रेस से छपा था। फिर अमेरिका में मंथली रिव्यू प्रेस से छपा। भारत में 2000 में के.पी. बागची ने उसे छापा। पहला खंड है 'द अनकंट्रोलेबिलिटी आफ कैपिटल एंड इट्स क्रिटीक' जिसमें वे पूँजी की अराजकता का विश्लेषण करते हैं। दूसरा खंड 'कनफ्रंटिंग द स्ट्रक्चरल क्राइसिस आफ द कैपिटल सिस्टम' है जिसमें वे पूँजी के वर्तमान संरचनात्मक संकट को व्याख्यायित करते हैं। मेजारोस के अर्थशास्त्र संबंधी लेखन को भी पढ़ते हुए ध्यान रखना पड़ता है कि उनका मूल क्षेत्र दर्शन है और इस क्षेत्र की ओर उनका आना वर्तमान समस्याओं को समझने समझाने के क्रम में हुआ है।

उनकी सबसे बड़ी विशेषता है कुछ नई धारणाओं का उपयोग जिनसे परिचय के बगैर उनके लेखन को समझना मुश्किल है। मसलन वे पूँजीवाद (कैपिटलिज्म) के बजाय पूँजी (कैपिटल) शब्द का प्रयोग बेहतर समझते हैं और दोनों के बीच फर्क बताने के लिए यह कहते हैं कि मार्क्स ने अपने ग्रंथ का नाम 'पूँजी' यूँ ही नहीं रखा था। 'बीयांड कैपिटल' की भूमिका में उन्होंने बुर्जुआ नेताओं, खासकर मार्गरेट थैचर द्वारा टिना (देयर इज नो अल्टरनेटिव) तथा उन्हीं नेताओं द्वारा राजनीति को 'आर्ट आफ पासिबल' बताने के बीच निहित अंतर्विरोध को रेखांकित किया है। इसी भूमिका में उन्होंने किताब के शीर्षक के तीन अर्थ बताए हैं -

1. मार्क्स ने खुद ही 'पूँजी' लिखते हुए इसका मतलब स्पष्ट किया था जिसका अर्थ है सिर्फ पूँजीवाद के परे नहीं बल्कि पूँजी के ही परे जाना।

2. मार्क्स द्वारा 'पूँजी' के पहले खंड और उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित शेष दो खंडों तथा 'ग्रुंड्रीस' और 'थियरीज आफ सरप्लस वैल्यू' के भी परे जाना क्योंकि ये सभी उनकी मूल परियोजना के शुरुआती दौर तक ही पहुँचे थे और उनके द्वारा सोचे गए काम को पूरी तरह प्रतिबिंबित नहीं करते।

3. मार्क्सीय परियोजना के भी परे जाना क्योंकि यह उन्नीसवीं सदी के माल उत्पादक समाज के वैश्विक उत्थान की परिस्थितियों को ही व्यक्त करती है और बीसवीं सदी में उसका जो रूप उभर कर सामने आया वह उनके सैद्धांतिक विश्लेषण से बाहर रहा।

उनके अनुसार पूँजीवाद, पूँजी की मौजूदगी का महज एक रूप है। पूँजीवाद के खात्मे के साथ ही पूँजी का अंत नहीं होता। इसे समाजवाद के लिए संघर्ष से जोड़ते हुए वे कहते हैं कि समाजवाद का काम पूँजी के प्रभुत्व का खात्मा है। इस प्रभुत्व को व्यक्त करने के लिए वे इसे सोशल मेटाबोलिक रिप्रोडक्शन की व्यवस्था कहते हैं जिसका मतलब ऐसी व्यवस्था है जो सामाजिक रूप से चयापचय की ऐसी प्रणाली बना लेती है जो अपने आप इसका पुनरुत्पादन करती रहे। इसे ही वे मार्क्स द्वारा प्रयुक्त पद आवयविक प्रणाली (आर्गेनिक सिस्टम) कहते हैं। पूँजी का यह प्रभुत्व मेजारोस के मुताबिक महज पिछली तीन सदियों के दौरान सामान्य माल उत्पादन की व्यवस्था के रूप में सामने आया है। इसने मनुष्य को 'अनिवार्य श्रम शक्ति' के बतौर महज 'उत्पादन की लागत' में बदल कर जिंदा श्रमिक को भी 'विक्रेय माल' बना देता है। मनुष्यों में आपस में अथवा प्रकृति के साथ उसकी उत्पादक अंत:क्रिया के पुराने रूप उपयोग के लिए उत्पादन की ओर लक्षित होते थे जिसमें कुछ हद तक आत्मनिर्भरता होती थी लेकिन पूँजी का आंतरिक तर्क किसी भी मात्रा में न समा सकनेवाली मानव आवश्यकताओं तक महदूद रह ही नहीं सकता था। अंत में पूँजीवाद ने आत्मनिर्भरता के इसी आधार का नाश कर के उपयोग को गणनीय और अनंत 'विनिमय मूल्य' की पूजापरक अपरिहार्यता के अधीन कर दिया। इसने अपने आपको ऐसी लौह प्रणाली के रूप में पेश किया जिससे पार पाना संभव नहीं दिखाई देता। लेकिन पूँजीवाद की जिंदगी ही अबाध विस्तार की जरूरतों को अनिवार्यतः पूरा करने पर निर्भर है जिसके कारण इसके सामने अनेक ऐतिहासिक सीमाबद्धताएँ प्रकट होती हैं। इन्हीं सीमाओं को ध्यान में रखते हुए बीसवीं सदी में इसकी अतृप्त लिप्सा पर रोक लगाने की असफल कोशिशें की गईं। इनसे बस एक तरह का मिश्रण ही हो सका, कोई संरचनागत समाधान नहीं निकला बल्कि पूँजी लगातार संकटों में ही फँसती गई और इन अवरोधों से उसके अनेक अंतर्विरोध भी सामने आए।

पूँजीवाद मूलत: विस्तारोन्मुखी और संचयवृत्तियुक्त होता है इसलिए मनुष्य की जरूरतों को संतुष्ट करना इसका ध्येय ही नहीं होता। इसमें पूँजी का विस्तार अपने आप में एक मकसद हो जाता है और इसलिए इस व्यवस्था का निरंतर पुनरुत्पादन इसकी मजबूरी बन जाती है। श्रम से इसकी शत्रुता जन्मजात होती है और निर्णय की प्रक्रिया में श्रमिक की कोई भागीदारी इसके लिए असह्य होती है। चूँकि यह शत्रुता संरचनागत है इसलिए इस व्यवस्था में सुधार या इस पर कोई नियंत्रण असंभव है। सामाजिक जनवाद के सुधारवाद का दिवाला यूँ ही नहीं निकला। सुधारवाद के अंत ने सीधे समाजवाद के लिए क्रांतिकारी आक्रामकता का रास्ता खोल दिया है। सुधारवाद की राजनीति प्रमुख रूप से बुर्जुआ संसदीय सीमाओं के भीतर चलती थी इसलिए इसका एक मतलब संसद के बाहर क्रांतिकारी सक्रियता को ब्ढ़ाना भी है।

पूँजी की व्यवस्था में तीन अंतर्विरोध मौजूद होते हैं-

(1) उत्पादन और उसके नियंत्रण के बीच, (2) उत्पादन और उपभोग के बीच, और (3) उत्पादन और उत्पादित वस्तुओं के वितरण के बीच।

इन अंतर्विरोधों के चलते विघटनकारी और केंद्रापसारी वृत्ति इसका गुण होती है। इसी वृत्ति को काबू में रखने के लिए राष्ट्र राज्य की संस्था खोजी गई लेकिन वह भी इसे नियंत्रित करने में असफल ही रही है। यह समाधान तात्कालिक था इसका पता इसी बात से चलता है कि आजकल हरेक समस्या का समाधान वैश्वीकरण नामक जादू की छड़ी में खोजा जा रहा है। सच तो यह है कि अपनी शुरुआत से ही यह व्यवस्था वैश्विक रही है। इसे पूरी तरह से खत्म करने के लक्ष्य का पहला चरण पूँजीवाद की पराजय है। उनका कहना है कि जिन्हें समाजवादी क्रांति कहा गया वे दरअसल इसी काम को पूरा कर सकी थीं। वे उत्तर पूँजीवादी समाज की ही रचना कर सकी थीं जिसे समाजवाद की ओर जाना था लेकिन इसे ही समाजवादी क्रांति मान लेने से समाजवादी कार्यभार शुरू ही नहीं हो सका।

इस खंड के पहले ही अध्याय में वे कहते हैं कि हेगेल की आलोचनात्मक धार को फिर से अर्जित किया जाना चाहिए। अपने जीवन में ही हेगेल सत्ता के लिए असुविधाजनक हो गए थे, मरने के बाद तो उन्हें व्यावहारिक रूप से दफना ही दिया गया। इसके लिए वे कहते हैं कि हेगेल की महान उपलब्धियों को ग्रहण करते हुए भी पूँजी को अनादि अनंत की तरह पेश करने के उनके काम की क्रांतिकारी आलोचना करनी होगी। मार्क्स की धारणाओं को समझने के लिए हेगेल को पुनःप्राप्त करने की इस कोशिश की। वे तीन वजहें बताते हैं। पहली कि 1840 दशक में मार्क्स के बौद्धिक निर्माण के समय की राजनीतिक और दार्शनिक बहसों के चलते ऐसा करना अपरिहार्य है। असल में 1841 में बर्लिन विश्वविद्यालय में मार्क्स और किर्केगाद ने साथ साथ शेलिंग के हेगेल विरोधी व्याख्यान सुने लेकिन दोनों ने राह अलग अलग अपनाई। उस समय का माहौल ही ऐसा था कि आपको हेगेल के समर्थन या विरोध में खड़ा होना ही पड़ता। दूसरी वजह उनके अनुसार यह है कि जर्मन बुर्जुआ द्वारा हेगेल को पूरी तरह से खत्म कर देने की कोशिश के मद्दे नजर उनकी उपलब्धियों को विकसित करना जरूरी था। हेगेल का समर्थन करते हुए भी मार्क्स ने उनकी समस्याओं को समझा और उसका आलोचनात्मक सार सुरक्षित रखते हुए भी उसका क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए सकारात्मक निषेध किया। मजेदार बात यह है कि हेगेल का विरोध न सिर्फ पूँजीवाद ने किया जिसने ही जरूरत पड़ने पर उन्हें स्थापित किया था और जरूरत खत्म हो जाने पर उन्हें दफना दिया बल्कि समाजवादी आंदोलन में भी उनके स्वीकार अस्वीकार से इसके उतार चढ़ाव का गहरा रिश्ता रहा है। बर्नस्टाइन के नेतृत्व में हेगेल के द्वंद्ववाद के मुकाबले कांट के विधेयवाद का उत्थान हुआ और दूसरे इंटरनेशनल के सामाजिक जनवाद की राजनीति के पतन तक इसका बोलबाला रहा। असल में हेगेल का दर्शन महत्तर सामाजिक टकरावों के बीच मूलत: विकसित हुआ था और बाद के दिनों में हेगेल द्वारा ही अनुदारवादी समायोजनों के बावजूद संक्रमण की गतिमयता के निशान कभी खत्म नहीं किए जा सके। यहाँ तक कि सोवियत संघ में नौकरशाही के उत्थान के साथ हेगेल के साथ एक तरह का नकारात्मक भाव जोड़ने की कोशिश हुई। तीसरी वजह यह है कि वास्तव में 1848 के क्रांतिकारी माहौल में हेगेल बुर्जुआ वर्ग के लिए लज्जा का विषय हो गए थे और मार्क्सवाद तथा उनके दर्शन के बीच के संपर्कों पर परदा डालना संभव नहीं रह गया था।

बाद के चिंतकों में वे लुकाच की इसीलिए प्रशंसा करते हैं क्योंकि उन्होंने हेगेल को अपनाने की कोशिश की थी। लुकाच की प्रासंगिकता मेजारोस के मुताबिक इसलिए भी बढ़ गई है क्योंकि सोवियत संघ के बीसवीं सदी में उभरे अंतर्विरोधों के चलते इसकी आलोचनाओं को दोबारा गंभरता से देखने की जरूरत पड़ी है। इस नाते उन्हें 'हिस्ट्री एंड क्लास कांशसनेस' ऐसा काम लगता है जो सोवियत संघ के जन्म के साथ जुड़ी ऐतिहासिक परिस्थितियों और बाद में हुए राजनीतिक बौद्धिक विकासों के मामले में उसकी समस्याओं की निशानदेही करता है। मेजारोस के अनुसार इस किताब की चर्चा के कारण निम्नांकित हैं-

1. पहली बड़ी समाजवादी क्रांति 'जंजीर की सबसे कमजोर कड़ी' में हुई। इससे अनेक सैद्धांतिक सवाल जुड़े हुए हैं। आधिकारिक सोवियत साहित्य में इसे सकारात्मक अर्थ में पेश किया जाता है जबकि लुकाच ने इस शब्दावली का प्रयोग रूस के सामाजार्थिक ढाँचे के अत्यधिक पिछड़ेपन पर जोर देने के लिए किया। ध्यातव्य है कि सोवियत समाज की बाद में सामने आने वाली ज्यादातर समस्याओं की जड़ें रूस के इन हालात में हैं। यहाँ हमें क्रांति के बाद उपजे समाज के अंतर्विरोधों और उसके बारे में दार्शनिक सूत्रीकरण के बीच जीवंत संबंध की पहचान मिलती है।

2. चूँकि लुकाच पश्चिम की असफल क्रांतियों में से एक के भागीदार रहे थे इसलिए इस किताब में अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी क्रांति की गारंटी करनेवाले तत्वों की तलाश मिलती है।

3. हंगरी की क्रांति असफलता से उन्होंने कुछेक निष्कर्ष निकाले थे जिनमें पार्टी का नौकरशाहीकरण एक मुद्दा है। हालाँकि उन्होंने इसे सिर्फ नेतृत्व की मसीहाई भाषा में चिह्नित किया लेकिन बाद में रूस में आई विकृतियों के प्रसंग में इसका महत्व स्पष्ट हुआ।

4. उन्होंने रूसी क्रांति के प्रभाव से बुर्जुआ बुद्धिजीवियों के कम्युनिस्ट आंदोलन में आगमन से पैदा होनेवाली समस्याओं को भी उठाया। ये लोग अपने साथ अपना एजेंडा और मकसद ले कर आए थे। हालाँकि बाद में इस बिंदु पर अतिरिक्त जोर दे कर पश्चिमी मार्क्सवाद की कोटि भी निर्मित की गई लेकिन उसका उद्देश्य लुकाच जैसे बुद्धिजीवियों को मार्क्सवाद से बाहर साबित कर के उनके प्रयासों का फातिहा पढ़ना था।

मेजारोस ने नव सामाजिक आंदोलनों का परिप्रेक्ष्य भी मार्क्सवाद के संदर्भ में उठाया है। पर्यावरण आंदोलन के संदर्भ से वे बताते हैं कि पूँजीवादी विकास के शुरुआती दिनों में उसके अनेक नकारात्मक पहलुओं और प्रवृत्तियों को थोड़ा अनदेखा किया जा सकता था। लेकिन आज उनकी अनदेखी धरती के विनाश की कीमत पर ही संभव है। इसी पृष्ठभूमि में तमाम तरह के पर्यावरणवादी आंदोलन उभरे। पूँजीवादी देशों में सुधारोन्मुख ग्रीन पार्टियों के रूप में ये आंदोलन राजनीति में भी जगह बनाने की कोशिश करते हैं। वे पर्यावरण के विनाश से चिंतित व्यक्तियों को आकर्षित करते हैं लेकिन इसके समाजार्थिक कारणों को अपरिभाषित छोड़ देते हैं। ऐसा उन्होंने शायद व्यापक चुनावी आधार बनाने के लिए किया लेकिन आरंभिक सफलता के बाद जिस तेजी से वे हाशिए पर पहुँच गईं उससे साबित होता है कि पर्यावरण के विनाश के उनके नेताओं द्वारा सोचे गए कारणों से अधिक गहरे कारण हैं। असल में आज न केवल विकास के साथ जुड़े हुए खतरे अभूतपूर्व रूप से बढ़ गए हैं बल्कि विश्व पूँजी की व्यवस्था के अंतर्विरोध ही पूरी तरह से परिपक्व हो गए हैं और ये खतरे इस तरह समूची धरती को अपनी जद में ले चुके हैं कि उनका कोई आंशिक समाधान सोचना संभव नहीं रह गया है।

जिस नई धारणा की चर्चा फास्टर ने पूँजी की चरम सीमाओं की सक्रियता के नाम से किया है उससे संबंधित अध्याय में वे पूँजी के वर्तमान संकट के प्रसंग में चार मुद्दों पर बात करना जरूरी समझते हैं जिन्हें वे एक दूसरे से अलग नहीं मानते बल्कि कहते हैं कि उनमें से हरेक बड़े अंतर्विरोधों का केंद्रबिंदु है लेकिन ये सभी मिल कर ही एक दूसरे की मारकता को भीषण बना देते हैं। भूमंडलीय पूँजी और राष्ट्र राज्य की सीमाओं के बीच का विरोध कम से कम तीन बुनियादी अंतर्विरोधों से जुड़ा हुआ है - इजारेदारी और प्रतियोगिता के बीच, श्रम की प्रक्रिया के अधिकाधिक समाजीकरण और उसके उत्पाद के भेदभावपरक अधिग्रहण के बीच तथा अबाध रूप से बढ़ते वैश्विक श्रम विभाजन और असमान रूप से विकासशील पूँजी की वैश्विक व्यवस्था के निरंतर बदलते शक्ति केंद्रों द्वारा प्रभुता स्थापित करने की कोशिशों के बीच। इन सब से मिल कर पैदा हुई बेरोजगारी की समस्या ने विश्व पूँजी व्यवस्था के अंतर्विरोधों और शत्रुताओं को सर्वाधिक विस्फोटक रूप दे दिया है।

पहले खंड के तेरहवें अध्याय में वे राज्य को उखाड़ फेंकने के समाजवादी कार्यभार के प्रसंग में राज्य के बारे में मार्क्स के राजनीतिक सिद्धांत के मुख्य तत्वों को बिंदुवार बताते हैं। यह वर्णन बहुत कुछ पूर्व समाजवादी शासनों के कटु अनुभवों से प्रभावित है इसलिए एक तरह का आदर्शवाद भी इसमें मौजूद है।

1. समूचे समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण के जरिए राज्य का अतिक्रमण करना होगा न कि किसी सरकारी आदेश या तमाम राजनीतिक/प्रशासनिक उपायों के जरिए इसे उखाड़ा जाएगा।

2. आगामी क्रांति को अगर सामाजार्थिक शोषण की सीमाओं में ही कैद हो कर नहीं रह जाना है तो उसे केवल राजनीतिक होने के बजाय सामाजिक क्रांति होना होगा।

3. अतीत की राजनीतिक क्रांतियों ने आंशिकता और सार्विकता के बीच जिस अंतर्विरोध को पैदा किया था तथा 'नागरिक समाज' के प्रभावी तबकों के पक्ष में सामाजिक सार्विकता को राजनीतिक आंशिकता के अधीन कर दिया था सामाजिक क्रांति उस अंतर्विरोध को ही खत्म कर देती है।

4. मुक्ति का सामाजिक अभिकर्ता सर्वहारा इसीलिए होता है क्योंकि पूँजीवादी समाज के शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों की परिपक्वता के चलते वह सामाजिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के किए बाध्य होता है और वह अपने आप को समाज पर नई शासक आंशिकता के रूप में थोपने में अक्षम होता है।

5. राजनीतिक और सामाजिक/आर्थिक संघर्ष द्वंद्वात्मक रूप से एक्ताबद्ध होते हैं और इसीलिए सामाजिक/ आर्थिक पहलू की उपेक्षा राजनीतिक पहलू को उसके यथार्थ से वंचित कर देती है।

6. समाजवादी कदमों के लिए वस्तुगत परिस्थितियों की गैरमौजूदगी में राजनीतिक सत्ता पर अपरिपक्व अवस्था में कब्जा हो जाने पर आप विरोधी की ही नीतियों को लागू करने लगते हैं।

7. कोई भी सफल सामाजिक क्रांति स्थानीय या राष्ट्रीय ही नहीं होगी। राजनीतिक क्रांति ही अपनी आंशिकता के चलते इन सीमाओं तक महदूद रह सकती है। इसके विपरीत उसे वैश्विक होना होगा यानी राज्य का अतिक्रमण भी वैश्विक स्तर पर करना होगा।

किताब का दूसरा खंड ज्यादा मजेदार है जिसमें वे पूँजीवाद के मिथकों को एक एक कर ध्वस्त करते हैं। इसमें कुछ ऐसे लेख भी संकलित कर दिए गए हैं जो हालिया प्रश्नों को ले कर लिखे गए हैं। इसका पहला अध्याय संपदा के उत्पादन तथा उत्पादन की समृद्धि का विवेचन करता है। इसमें वे वास्तविक जरूरतों की अनदेखी कर के उत्पादन में बढ़ोत्तरी करने की पूँजीवादी रवायत के मुकाबले उन जरूरतों की दृष्टि से मनुष्य की उत्पादक क्षमताओं के विकास का वैकल्पिक नजरिया अपनाने की सलाह देते हैं क्योंकि जरूरत और संपदा-उत्पादन में संबंध विच्छेद विकसित और सुविधा-संपन्न पूँजीवादी देशों में भी नहीं चल पा रहा - व्यापक मानवता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की तो बात ही छोड़िए। उत्पादन का वर्तमान उद्देश्य जैसा है वैसा ही सदा से नहीं रहा इस बात के समर्थन में वे मार्क्स को उद्धृत करते हैं जिनके मुताबिक प्राचीन काल में उत्पादन का लक्ष्य संपदा बटोरना नहीं था, बल्कि मानव जीवन उत्पादन का लक्ष्य था। वह स्थिति आज के विपरीत थी जब मानव जीवन का उद्देश्य उत्पादन हो गया है और उत्पादन का लक्ष्य संपदा हो गई है। इस बदलाव के लिए उपयोग मूल्य को विनिमय मूल्य से अलगाना और उसके अधीन लाना जरूरी था। मेजारोस संपदा के उत्पादन के बरक्स उत्पादन की समृद्धि पर जोर देते हैं। इसके बाद वे बताते हैं कि पूँजीवाद असल में बरबादी को बढ़ावा देता है। इसका उदाहरण 'यूज एंड थ्रो' की संस्कृति है। अब टिकाऊ चीजों को बनाना उसका लक्ष्य नहीं रह गया है। यहाँ तक कि गुणवत्तावाली चीजें बनाने के मुकाबले उसका जोर उत्पादन की मात्रा पर होता है। मेजारोस के अनुसार पूँजीवाद उपयोग में निरंतर गिरावट को जन्म देता है। उपयोग की घटती हुई दर पूँजीवादी उत्पादन और उपभोग के सभी बुनियादी पहलुओं, वस्तुओं और सेवाओं, कारखाना और मशीनरी तथा श्रम शक्ति पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। इसका ज्वलंत उदाहरण सैन्य-औद्योगिक परिक्षेत्र है।

मार्क्स ने कहा था कि पूँजी जीवंत अंतर्विरोध है इसलिए हमें इसके साथ जुड़ी किसी भी प्रवृत्ति पर सोचते समय उसकी विपरीत प्रवृत्ति को भी ध्यान में रखना चाहिए। मसलन पूँजी की एकाधिकारी प्रवृत्ति का विरोध प्रतियोगिता से होता है, केंद्रीकरण का विरोध बिखराव से, अंतर्राष्ट्रीकरण का राष्ट्रवाद और क्षेत्रीय विशिष्टता से तथा संतुलन का विरोध संतुलन-भंग से होता है। यह भी दिमाग में रखना होगा कि पूँजी की व्यवस्था का विकास असमान होता है इसलिए ये सभी प्रवृत्तियाँ और प्रति-प्रवृत्तियाँ एक साथ सभी देशों में नहीं भी प्रकट हो सकती हैं।

पूँजीवाद ने एक समय मुक्त प्रतियोगिता से जन्म लिया था लेकिन प्रतियोगिता के विध्वंसक होने पर उसे 'संगठित पूँजीवाद' की शक्ल दी गई। इसका अर्थ संकट का खत्मा नहीं था लेकिन कुछ मार्क्सवादी विचारकों में भ्रम फैलाने में यह बदलाव कामयाब रहा। फ्रैंकफुर्त स्कूल के विचारकों ने इसे ही एक नई संरचना मान लिया और मजदूरों को समाहित कर लेने की व्यवस्था की क्षमता को बढ़ा-चढ़ा कर आँकने लगे।

मार्क्स के पूँजी संबंधी समूची परियोजना की एक झलक देने के लिए मेजारोस ग्रुंड्रीस से एल लंबा उद्धरण देते हैं जिसके मुताबिक 'बुर्जुआ समाज उत्पादन का सबसे विकसित और सबसे जटिल ऐतिहासिक संगठन है। जिन कोटियों के जरिए इसके रिश्तों को व्यक्त किया जाता है, इसकी संरचना को समझा जाता है वे उन सभी लुप्तप्राय समाजों की संरचनाओं और उत्पादन संबंधों को समझने की अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं जिनके ध्वंसावशेषों और तत्वों से यह निर्मित हुआ है, जिनके कुछेक अविजित अवशेष अब भी इसके साथ लगे लिपटे हुए हैं, जिनके छिपे मानी इसमें पूरी तरह प्रकट हुए हैं।' इसके आधार पर वे नतीजा निकालते हैं कि मार्क्स का इरादा सिर्फ 'पूँजीवादी उत्पादन' की कमियों की गणना करना नहीं था। वे मानव समाज को उन परिस्थितियों से बाहर निकालना चाहते थे जिनमें मनुष्य की जरूरतों की संतुष्टि को 'पूँजी के उत्पादन' के अधीन कर दिया गया था।

किताब के तकरीबन अंत में मेजारोस ने लिखा है कि वर्तमान दौर समाजवाद के लिए रक्षात्मक के बजाय आक्रामक रणनीति का है। इस दौर की शुरुआत की बात करते हुए इसे वे पूँजी के संरचनागत संकट से जोड़ते हैं और इस संकट के लक्षण गिनाते हुए बताते हैं कि (1) यह सार्वभौमिक है, उत्पादन की किसी विशेष शाखा तक महदूद नहीं है, (2) इसका प्रभाव क्षेत्र सचमुच भूमंडलीय है, किसी देश विशेष तक सीमित नहीं है, (3) यह दीर्घकालीन, निरंतर, स्थायी है, पहले के संकटों की तरह चक्रीय नहीं है, और (4) इसका प्रकटीकरण रेंगने की गति से हो रहा है, नाटकीय विस्फोट या भहराव की तरह नहीं। वे इसकी शुरुआत 1960 दशक के अंत से मानते हुए तीन घटनाओं का उल्लेख करते हैं जिनमें यह संकट फूट पड़ा था - (1) वियतनाम युद्ध में पराजय के साथ अमेरिकी प्रत्यक्ष आक्रामक दखलंदाजी का खात्मा। (2) मई 1968 में फ्रांस और अन्य 'विकसित' पूँजीवादी केंद्रों में लोगों का 'व्यवस्था' के प्रति विक्षोभ का प्रकट होना। (3) चेकोस्लोवाकिया और पोलैंड जैसे उत्तर औद्योगिक मुल्कों में सुधार की कोशिशों का दमन जिनके जरिए पूँजी के संरचनागत संकट की संपूर्णता का अंदाजा लगा। मेजारोस का कहना है कि इन घटनाओं के जरिए उन परिघटनाओं का पता चलता है जो तब से आज तक की तमाम घटनाओं के पीछे कार्यरत रही हैं और वे हैं - (1) 'महानगरीय' या विकसित पूँजीवादी देशों के अल्पविकसित देशों के साथ शोषण के संबंध एकतरफा तौर पर निर्धारित होने के बजाय परस्पर निर्भरता से संचालित होने लगे। (2) पश्चिमी पूँजीवादी देशों के अंदरूनी और आपसी अंतर्विरोध और समस्याओं का उभार तेज हो गया। (3) 'वस्तुत: मौजूद समाजवाद' के उत्तर औद्योगिक देशों और समाजों के संकट आपसी विवादों के जरिए प्रकट होने लगे।

समाजवादी आक्रामकता के दौर की राजनीतिक कार्यवाही के लिहाज से वे कहते हैं कि 'अर्थतंत्र की पुनर्संरचना' तक अपने आप को सीमित रखने की रणनीति पर दोबारा सोचना चाहिए और उसकी जगह वर्तमान संदर्भ में 'राजनीति के क्रांतिकारी पुनर्गठन' के कार्यभार पर बल देना चाहिए। इस लिहाज से गैर-संसदीय कार्यवाही का अपार महत्व है। सच्ची समाजवादी 'आर्थिक पुनर्संरचना' की अनिवार्य पूर्वशर्त 'राजनीति का जनोन्मुखी पुनर्गठन' है।

मेजारोस का कहना है कि मार्क्स ने पूँजी के दो मूल्य बताए थे - उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य। पूँजीवाद असल में विनिमय मूल्य की प्रभुता से जुड़ा हुआ है, जबकि मनुष्य की जरूरतें उपयोग मूल्य से जुड़ी हुई हैं। इसलिए लेन देन के क्षेत्र में उपयोग मूल्य के विस्तार से पूँजीवाद कमजोर होता है। इसी तत्व को लेबोविट्ज लैटिन अमेरिकी देशों के समाजवादी प्रयोगों में फलीभूत होता हुआ पाते हैं और इसी को वे 21वीं सदी के समाजवाद की संज्ञा देते हैं जो बीसवीं सदी के प्रयोगों से भिन्न है। यही तर्क बहुत कुछ जिजैक का भी है जो 'अकुपाई वाल स्ट्रीट' आंदोलन के बाद खासे चर्चित हुए हैं। वे पूँजी के वर्तमान संकट का कारण विनियम मूल्य की बेलगाम बढ़ोत्तरी में देखते हैं।

ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि रणधीर सिंह द्वारा अपनी किताब मेजारोस को समर्पित करने के बावजूद मेजारोस से उनके सैद्धांतिक विरोध सतही नहीं बल्कि बहुत कुछ बुनियादी हैं। इसकी जड़ दोनों के अनुभव की दुनिया अलग होने में निहित है। रणधीर सिंह तीसरी दुनिया के एक देश में समाजवादी आंदोलन के विकास से जुड़े हुए हैं और यह चीज उनकी सैद्धांतिकी को ठोस जमीन देती है जबकि मेजारोस के लेखन में अमेरिका में उनकी रिहायश और 1956 में हंगरी पर सोवियत हमले की अनुगूँजें सुनी जा सकती हैं।

मेजारोस की दूसरी महत्वपूर्ण किताब 'द चैलेंज एंड बर्डेन आफ हिस्टारिकल टाइम' मंथली रिव्यू प्रेस से 2008 में छपी और भारत में इसका प्रकाशन 2009 में अकार बुक्स ने किया। इस किताब का उपशीर्षक 'सोशलिज्म इन ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी' है। भूमिका जान बेलामी फास्टर ने लिखी है जिसमें वे बताते हैं कि मेजारोस की सैद्धांतिक अंतर्दृष्टि आज लैटिन अमेरिकी देशों में जारी परिवर्तन के नायकों की वजह से एक भौतिक शक्ति में बदल चुकी है। वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज द्वारा उनकी खुलेआम प्रशंसा को अनेक अखबारों और पत्रिकाओं ने प्रमुखता से प्रकाशित किया। मेजारोस प्रसिद्ध मार्क्सवादी चिंतक जार्ज लुकाच के शिष्य रहे। 1956 में रूसी आक्रमण के बाद उन्होंने हंगरी छोड़ दिया और अमेरिका में दर्शन के प्रोफेसर बने और मार्क्स, लुकाच और सार्त्र पर किताबें लिखीं। 1971 के इर्द गिर्द उन्होंने पूँजी के वैश्विक संकट का सवाल उठाया तथा दर्शन संबंधी काम को किनारे कर के इस विषय पर लिखना शुरू किया। फास्टर ने उनके सैद्धांतिक अवदान की चर्चा करते हुए उनके द्वारा प्रयुक्त पदों की नवीनता का जिक्र किया है। उनमें से कुछेक का जिक्र हम पहले कर चुके हैं। एक अन्य धारणा 'पूँजी की चरम सीमाओं की सक्रियता' है जो वर्तमान संकट का बड़ा कारण है। वे मेजारोस द्वारा सोवियत संघ को उत्तर पूँजीवादी समाज मानने को भी उनका योगदान मानते हैं जो पूँजी की संपूर्ण व्यवस्था को खत्म न कर सका। ध्यातव्य है कि मेजारोस ऐसा किसी जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाने के लिए नहीं बल्कि बेहतर समाजवाद के निर्माण का कार्यभार स्पष्ट करने के लिए करते हैं। वे उनका यह योगदान भी स्वीकार करते हैं कि मेजारोस पूँजी के पूरी तरह से खात्मे की ऐतिहासिक स्थितियों का विवरण देते हैं और सामाजिक अवयव के नियंत्रण की वैकल्पिक व्यवस्था प्रस्तावित करते हैं जिसकी जड़ें 'सारवान समानता' में होंगी। भूमिका में मेजारोस की किताब 'बीयांड कैपिटल' को मार्क्सीय आलोचना का फलक चौड़ा करनेवाला कहा गया है क्योंकि इसमें मानव मुक्ति की मजबूत स्त्रीवादी और पर्यावरणिक धारणाओं को पूँजी की सत्ता के निषेध का अविभाज्य घटक बनाया गया है।

डेविड हार्वे द्वारा ' पूँजी ' का अध्ययन

2010 में वर्सो द्वारा प्रकाशित डेविड हार्वे की किताब 'ए कंपेनियन टु मार्क्स' कैपिटल' का जिक्र किए बगैर यह लेख अधूरा ही रहेगा। डेविड हार्वे मूलत: भूगोलवेत्ता हैं और शहरों पर अपने अध्ययन के क्रम में वे सामाजिक विषयों की ओर आए और फिर मार्क्सवाद का व्यवस्थित अध्ययन किया। रुचिपूर्वक वे हरेक साल मार्क्स की 'पूँजी' पर अनौपचारिक व्याख्यान देते रहे। यह किताब विद्यार्थियों के लिए 'पूँजी' पर दिए गए उनके व्याख्यानों का सुसंपादित संकलन है। किताब में 'पूँजी' के सिर्फ पहले खंड का सांगोपांग अध्ययन किया गया है। शायद इसके पीछे यह आग्रह भी रहा हो कि मार्क्स चूँकि पहला खंड ही अपने जीवन में पूरा कर सके थे इसलिए उसी में उनकी अंतर्दृष्टि सबसे प्रामाणिक रूप से व्यक्त हुई होगी। अपनी किताब को वे महज कंपेनियन इसलिए भी कहते हैं क्योंकि उनका मकसद विद्यार्थियों की रुचि मूल पुस्तक पढ़ने में जगाना था। लेखक की कोशिश अति सरलीकरण से बचते हुए पुस्तक को सुबोध बनाना है इसीलिए लेखक ने व्याख्या संबंधी विवादों को छोड़ दिया है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि यह कोई निस्संग व्याख्या है बल्कि विभिन्न तरह के लोगों को लगभग चालीस बरस तक समझाने के क्रम में उपजी है। लेखक शुरुआत माल और विनिमय संबंधी पहले अध्याय से करता है। लेखक हमारा ध्यान सबसे पहले प्रथम वाक्य की ओर खींचता है और बताता है कि इस वाक्य में दो बार 'प्रकट' आता है। एक बार यह कि 'जिन समाजों में पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली व्याप्त है वहाँ सामाजिक संपदा 'माल के विशाल संचय के रूप में प्रकट होती है' और दूसरी बार यह कि 'एक माल उसके प्राथमिक रूप के बतौर प्रकट होता है।' लेखक इस बात पर जोर देता है कि 'प्रकट' होना और 'होना' एक ही नहीं है। यह शब्द मार्क्स की पूरी किताब में अनेक बार आया है जिसका मतलब है कि उनके मुताबिक जो ऊपर से दिखाई दे रहा है उसके नीचे कुछ चल रहा है जो असली है। दूसरी बात यह कि मार्क्स सिर्फ पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली पर विचार करना चाहते हैं। ये दोनों बातें आगे की बातों को समझने के लिए ध्यान में रखना जरूरी है। माल से बात शुरू करने का लाभ यह है कि सब लोग उसके संपर्क में रोज आते हैं।

मrर्क्स की 'पूँजी' ऐसी किताब है जिसमें दार्शनिकों, अर्थशास्त्रियों, नृतत्वशास्त्रियों, पत्रकारों और राजनीति वैज्ञानिकों के साथ ही तमाम साहित्यकार, परीकथाएँ और मिथक आते रहते हैं। किताब के रूप में इसे पढ़ना अलग तरह का अनुभव है क्योंकि खंडित उद्धरणों से वृहत्तर तर्क के भीतर उनकी अवस्थिति समझ में नहीं आती। सभी तरह के अनुशासनों में दीक्षित लोग इसमें भिन्न अर्थ निकालते हैं क्योंकि यह इतने भिन्न किस्म के स्रोतों की ओर आपका ध्यान ले जाती है। इन स्रोतों को मार्क्स आलोचनात्मक विश्लेषण की धारा से जोड़ते हैं। आलोचनात्मक विश्लेषण का अर्थ पहले के सोच विचार को एकत्र कर उसे नए ज्ञान में बदल देना है। इस किताब में जो धाराएँ मौजूद हैं वे हैं सत्रहवीं से उन्नीसवीं सदी तक मुख्य रूप से इंग्लैंड में विकसित राजनीतिक अर्थशास्त्र की धारा, दार्शनिक गवेषणा की धारा जो ग्रीक दार्शनिकों से शुरू हो कर हेगेल तक आती है और इन्हीं के साथ तीसरी धारा काल्पनिक समाजवादियों की धारा है।

मार्क्स अपनी किताब की समस्याओं के प्रति सचेत थे और भूमिकाओं में उन्होंने इनकी चर्चा की। फ्रांलीसी संस्करण की भूमिका में उन्होंने स्वीकार किया कि अगर इसे धारावाहिक रूप से छापा जाए तो मजदूर वर्ग के लिए अच्छा होगा लेकिन उन्होंने सावधान भी किया कि इससे पुस्तक की समग्रता को एकबारगी ग्रहण करने में असुविधा होगी। इस किताब में मार्क्स का मकसद राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना के जरिए पूँजीवाद की कार्यपद्धति को उद्घाटित करना था। इस लिहाज से उन्होंने दूसरे संस्करण की भूमिका में लिखा कि 'प्रस्तुति का रूप गवेषणा की पद्धति से अलग होना ही चाहिए। गवेषणा के दौरान विस्तार से सामग्री एकत्र कर के उसके विकास के अलग अलग रूपों का विश्लेषण किया जाता है, उनके आपसी संबंधों की छानबीन की जाती है। इस काम के खत्म होने के बाद ही उस विकास की प्रस्तुति संभव होती है।' मार्क्स की गवेषणा में यथार्थ की अनुभूति तथा उस अनुभूति का राजनीतिक अर्थशास्त्रियों, दार्शनिकों और उपन्यासकारों द्वारा वर्णन आता है। इसके बाद वे समस्त सामग्री की गहन आलोचना करते हैं ताकि उस यथार्थ की कार्यपद्धति को स्पष्ट करनेवाले कुछ सरल किंतु जोरदार धारणाओं को खोज सकें। आम तौर पर मार्क्स किसी परिघटना को समझने के लिए गहरी धारणाओं के निर्माण के लिए उनके सतही आभास के विश्लेषण से शुरुआत करते हैं। इसके बाद सतह के नीचे उतर कर असल में कार्यरत शक्तियों को उद्घाटित करते हैं।

मार्क्स की इस किताब को पढ़ते हुए उनकी धारणाओं को ले कर पहले उलझन होती है कि आखिर ये धारणाएँ आ कहाँ से रही हैं लेकिन धीरे धीरे आप मूल्य और वस्तु पूजा जैसी धारणाओं को समझना शुरू कर देते हैं। दिक्कत यह है कि किताब के खत्म होने पर पूरा तर्क समझ में आता है इसीलिए लेखक का सुझाव है कि एक बार आद्यंत खत्म कर लेने के बाद दोबारा पढ़ने से यह किताब मजा देती है। खासकर शुरू के तीन अध्याय तो बिना कुछ समझ में आए ही बीत जाते हैं। इसके बाद के अध्यायों में ही पता चलता है कि उनके द्वारा निर्मित धारणाओं का उपयोग क्या है।

मार्क्स माल की धारणा से शुरू करते हैं। उनके लेखन को देखते हुए उम्मीद बनती है कि बात वर्ग संघर्ष से शुरू होनी चाहिए थी लेकिन तीन सौ पन्नों से पहले इस तरह की कोई बात ही नहीं शुरू होती। या फिर मुद्रा से ही शुरू करते। खुद मार्क्स पहले मुद्रा से ही शुरू करना चाहते थे लेकिन अध्ययन के बाद उन्हें लगा कि पहले मुद्रा की व्याख्या करना जरूरी है। श्रम से भी तो शुरू कर सकते थे? कुछ कागजों से पता चलता है कि बीस तीस सालों तक वे इस समस्या से जूझते रहे थे कि शुरू कहाँ से करें। अंत में उन्होंने माल से शुरू किया और इसकी कोई वजह भी नहीं बताई है। मार्क्स ने जिस धारणात्मक औजार का निर्माण किया है वह सिर्फ 'पूँजी' के पहले खंड के लिए नहीं बल्कि अपने समूचे विश्लेषण के लिए बनाया है।

अगर आप पूँजीवादी उत्पादन पद्धति को समझना चाहते हैं तो तीनों खंड देखने होंगे और फिर भी एक बात ध्यान में रखना होगा कि जितनी बातें उनके दिमाग में थीं उनका महज आठवाँ हिस्सा ही वे लिख सके थे। अपनी किताब की पूरी योजना उन्होंने कुछ इस तरह बनाई थी -(1) सामान्य, अमूर्त निर्धारक जो कमोबेश सभी सामाजिक रूपों में लागू होते हैं, (2) वे कोटियाँ जो बुर्जुआ समाज की आंतरिक संरचना की बनावट हैं और जिन पर बुनियादी वर्ग आधारित हैं। पूँजी, पगारजीवी श्रम, भू संपदा। उनका अंतस्संबंध। शहर और देहात। तीन बड़े सामाजिक वर्ग। उनके बीच लेन देन। वितरण। उधारी व्यवस्था (निजी)। राज्य के रूप में बुर्जुआ समाज का संकेंद्रण। उसका अपने साथ संबंध। 'अनुत्पादक' वर्ग। कराधान। सरकारी कर्ज। सार्वजनिक उधारी। जनसंख्या। उपनिवेश। उत्प्रवास। (4) उत्पादन का अंतरराष्ट्रीय संबंध। अंतरराष्ट्रीय श्रम विभाजन। अंतरराष्ट्रीय विनिमय। निर्यात और आयात। विनिमय की दर। (5) विश्व बाजार और संकट। मार्क्स अपनी इस परियोजना को पूरा नहीं कर सके। इनमें से ज्यादातर की समझदारी पूँजीवादी उत्पादन को समझने के लिए बेहद जरूरी है। आप देख सकते हैं कि किताब के पहले खंड में मार्क्स पूँजीवादी उत्पादन पद्धति को सिर्फ उत्पादन के नजरिए से समझते हैं। दूसरे खंड (अपूर्ण) में विनिमय संबंधों का परिप्रेक्ष्य अपनाया गया है। तीसरे खंड (अपूर्ण) में पूँजीवाद के बुनियादी अंतर्विरोधों के उत्पाद के बतौर प्रथमत: संकट-निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया गया है। उसके बाद ब्याज, वित्त पूँजी पर मुनाफा, जमीन का किराया, व्यापारिक पूँजी पर मुनाफा, कराधान आदि के रूप में अधिशेष का वितरण पर विचार किया गया है।

मार्क्स की पद्धति द्वंद्ववादी थी जिसे उनके मुताबिक आर्थिक मुद्दों पर पहले लागू नहीं किया गया था। अब दिक्कत यह है कि अगर आप किसी खास अनुशासन में गहरे धँसे हुए हैं तो संभावना ज्यादा इस बात की है कि द्वंद्ववादी पद्धति का इस्तेमाल आपके लिए मुश्किल होगा। द्वंद्ववाद के मुताबिक प्रत्येक वस्तु गति में होती है। मार्क्स भी महज श्रम की नहीं बल्कि श्रम की प्रक्रिया की बात करते हैं। पूँजी भी कोई स्थिर वस्तु नहीं बल्कि गतिमान प्रक्रिया है। जब वितरण रुक जाता है तो मूल्य गायब हो जाता है और पूरी व्यवस्था भहरा जाती है। उनकी किताब में अक्सर वस्तुओं के बजाय उनके आपसी संबंधों का जिक्र दिखाई पड़ता है। आज की तारीख में 'पूँजी' के अध्ययन की एक और समस्या है। पिछले तीस सालों से जो नव- उदारवादी प्रतिक्रांतिकारी धारा विश्व पूँजीवाद के क्षेत्र में प्रबल रही है उसने उन स्थितियों को और मजबूत किया है जिन्हें मार्क्स ने 1850-60 के दशक में इंग्लैंड में विखंडित किया था।

बात दोबारा माल से ही शुरू करते हैं। माल का व्यापार बाजार में होता है। सवाल खड़ा होता है कि आखिर यह आर्थिक लेन देन कैसा है। माल मनुष्य के किसी न किसी अभाव, जरूरत या इच्छा को पूरा करता है। यह हम से बाहर मौजूद कोई वस्तु होती है जिसे हम अधिग्रहीत करते और अपनाते हैं। मार्क्स तुरंत ही घोषित करते हैं कि उन्हें उन जरूरतों की प्रकृति से कोई लेना देना नहीं, उन्हें इससे भी कोई मतलब नहीं कि ये पेट से उपजती हैं या दिमाग से। उन्हें सिर्फ इससे मतलब है कि लोग उन्हें खरीदते हैं और इस काम का रिश्ता इस बात से है कि लोग जिंदा कैसे रहते हैं। अब माल तो लाखों हैं जिन्हें मात्रा या गुण के हिसाब से हजारों तरह से वर्गीकृत किया जा सकता है। लेकिन वे इस विविधता को एक किनारे धकेल कर उनको उनके सामान्य गुण में बदलते हैं जिसे वे उपयोगिता के बतौर व्याख्यायित करते हैं। वस्तु का यह 'उपयोग मूल्य' उनके समूचे चिंतन में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मार्क्स ने कहा था कि सामाजिक विज्ञानों में प्रयोगशाला की सुविधा न होने से हमें अमूर्तन का सहारा लेना पड़ता है। आप देख सकते हैं कि कैसे भिन्न भिन्न वस्तुओं के भीतर से उन्होंने अमूर्तन के जरिए 'उपयोग मूल्य' प्राप्त किया। लेकिन जिस तरह के समाज का वर्णन मार्क्स कर रहे थे यानी पूँजीवादी समाज उसमें माल, विनिमय मूल्य के भी भौतिक वाहक होते हैं। हार्वे हम से वाहक शब्द पर गौर करने को कहते हैं क्योंकि किसी चीज का वाहक होना और वही चीज होने में फर्क है। अब मार्क्स एक नई धारणा से हमारा परिचय कराना चाहते हैं।

जब हम बाजार में विनिमय की प्रक्रिया को देखते हैं तो नाना वस्तुओं के बीच विनिमय की नाना दरें और देश काल की भिन्नता होने से एक ही वस्तु की अलग अलग विनिमय दरें दिखाई पड़ती हैं। इसलिए पहली नजर में लगता है कि विनिमय दरें 'कुछ कुछ सांयोगिक और शुद्ध रूप से सापेक्षिक' हैं। इससे प्रकट होता है कि 'अंतर्निहित मूल्य, यानी ऐसा विनिमय मूल्य जो वस्तु के साथ अभेद्य रूप से जुड़ा हुआ, उसमें अंतर्निहित है, का विचार आत्म-विरोधी प्रतीत' होता है। यहाँ आ कर वे कहते हैं कि भिन्न भिन्न वस्तुओं में आपसी विनिमय के लिए जरूरी है कि वे किसी अन्य वस्तु से तुलनीय हों। 'उपयोग मूल्य के रूप में वस्तुएँ एक दूसरे से गुणात्मक तौर पर अलग होती हैं जबकि विनिमय मूल्य के रूप में उनमें सिर्फ मात्रा का भेद हो सकता है और उपयोग मूल्य का एक कण भी बचा नहीं रहता।' वस्तुओं की विनिमेयता उनके उपयोग मूल्य पर निर्भर नहीं होती। अब उस तीसरे तत्व का प्रवेश होता है जो इन वस्तुओं के बीच साझा है और वह है कि ये सभी 'श्रम का उत्पाद' हैं। मतलब सभी वस्तुएँ अपने उत्पादन में लगे मानव श्रम का वाहक होती हैं। इसके बाद वे पूछते हैं कि आखिर किस तरह का श्रम उनमें साकार हुआ है। यह ठोस-श्रम यानी श्रम-काल तो हो नहीं सकता क्योंकि तब वही वस्तु अधिक कीमती होगी जिसके उत्पादन में ज्यादा समय लगेगा। लोग फिर उस वस्तु को खरीदेंगे जिसे कम समय में बनाया गया होगा। इस समस्या को हल करने के लिए वे मानव श्रम का भी अमूर्तन करते हैं। मूल्य फिर क्या हुआ ? माल में 'साकार-या-वस्तुकृत-अमूर्त मानव श्रम।' तो यह अमूर्त मानव श्रम है श्रम-शक्ति अर्थात समाज की 'समूची श्रम-शक्ति जो मालों की दुनिया में साकार' होती है।

इस धारणा में वैश्विक पूँजीवाद की धारणा शामिल है जिसको उन्होंने 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र' में पूरी तरह से उद्घाटित किया था। आज का वैश्वीकरण तो उनके समय नहीं था लेकिन वे पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की विश्वव्यापी उपस्थिति को भविष्य में साकार होता देख रहे थे। इसी के आधार पर उन्होंने मूल्य को 'सामाजिक रूप से अनिवार्य श्रम-काल' के बतौर परिभाषित किया। जिन्होंने रिकार्डो का लेखन देखा है वे समझेंगे कि मार्क्स 'सामाजिक रूप से अनिवार्य श्रम-काल' की धारणा के अलावा ज्यादातर उन्हीं का अनुसरण कर रहे थे लेकिन यह छोटी-सी बात बहुत बड़ा फर्क पैदा कर देती है क्योंकि तुरंत ही सवाल पैदा होता है कि समाजिक रूप से अनिवार्य क्या है और उसे तय कौन करता है। मार्क्स इसका कोई जवाब तो नहीं देते लेकिन पूरी किताब में यह विषय समाया हुआ है। पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में आखिर कौन-सी सामाजिक अनिवार्यताएँ नत्थी हैं? यह हार्वे को बड़ा सवाल लगता है और अनिवार्यताओं के विकल्प खोजने के लिए प्रेरित करता है। मूल्य स्थिर नहीं होता बल्कि तकनीक और उत्पादकता में क्रांति होने पर वे बदलते रहते हैं।

तकनीक और उत्पादकता के साथ ही वे अन्य कारकों की चर्चा भी करते हैं। इसमें शामिल हैं 'मजदूरों के कौशल का औसत स्तर, विज्ञान के विकास और उसके तकनीकी प्रयोग का स्तर, उत्पादन प्रक्रिया का सामाजिक संगठन, उत्पादन के साधनों का विस्तार और प्रभाव और प्राकृतिक पर्यावरण की स्थितियाँ।' इनकी गणना करना मार्क्स का मकसद नहीं है बल्कि वे महज इस तथ्य पर जोर देना चाहते हैं कि वस्तु का मूल्य स्थिर नहीं होता वरन अनेक कारकों से प्रभावित होता रहता है।

यहाँ आ कर मार्क्स के तर्क में एक पेंच पैदा होता है। वे उपयोग मूल्य की ओर दोबारा लौटते हैं और कहते हैं कि 'मूल्य बने बगैर भी कोई वस्तु उपयोग मूल्य हो सकती है।' हम साँस लेते हैं लेकिन हवा को बोतल में बंद कर अब तक उसे खरीद-बेच नहीं सके हैं। वे यह भी जोड़ते हैं कि 'माल बने बगैर भी मानव श्रम का कोई उत्पाद उपयोगी हो सकता है।' घरेलू अर्थतंत्र में बहुत कुछ माल उत्पादन से बाहर उत्पादित किया जाता है। इसलिए पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में सिर्फ उपयोग मूल्य नहीं बल्कि दूसरों के लिए उपयोग मूल्य का उत्पादित होना जरूरी है जिसे बाजार की मार्फत दूसरों तक पहुँचना होता है। मतलब कि माल में उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य होते हैं लेकिन विनिमय मूल्य में निहित 'मूल्य' के साकार होने के लिए उसमें उपयोग मूल्य का होना जरूरी है।

इसके बाद हार्वे अनुभाग 2 की व्याख्या शुरू करते हैं और बताते हैं कि इसमें मार्क्स अनेक जटिल सूत्रों को उठाते हैं और उन्हें महत्वपूर्ण कह कर आपको समझने के लिए आमंत्रित करते हैं। मार्क्स लिखते हैं, 'उपयोग मूल्य दो तत्वों का संश्रय होता है, प्रकृति द्वारा प्रदत्त सामग्री और श्रम।' इसलिए मनुष्य जब उत्पादनरत होता है तो प्रकृति के नियमों के अनुसार ही आगे बढ़ सकता है। हार्वे का यह अध्ययन एक हद तक 'पूँजी' के प्रति उस आकर्षण का प्रमाण है जो अनेक आर्थिक और अर्थेतर कारणों से पैदा हुआ है। तकरीबन 348 पृष्ठों की इस किताब के कुछेक शुरुआती अंशों का सार हमने महज बानगी के लिए पेश किया है। कुछ हद तक इस व्याख्या में फ्रांसिस ह्वीन की जीवनी में संकेतित पद्धति का उपयोग किया गया है और कुछ विनिमय मूल्य की प्रभुता की मार्क्स द्वारा की गई पहचान और उससे पैदा होने वाले संकट के आभास के बारे में मार्क्स के विश्लेषण पर जोर के बढ़ने का संकेत है। स्थान की कमी के कारण हम इस विवेचन को आगे विस्तार देने में असमर्थ हैं।

बढ़ता दबदबा

टेरी ईगलटन की किताब 'व्हाई मार्क्स वाज राइट' येल यूनिवर्सिटी से 2011 में प्रकाशित हुई है। पुस्तक का प्रारूप लोकप्रिय किस्म का है और लेखक का इरादा भी आम तौर पर मार्क्सवाद के बारे में प्रचारित भ्रमों का बहुत ही सरल सहज भाषा में खंडन-निराकरण है। भूमिका में ईगलटन लिखते हैं कि पूरी किताब एक झटके में इस सवाल के इर्द गिर्द लिखी गई है कि अगर मार्क्सवाद पर लगाए गए सारे आरोप गलत निकले तो? लेकिन लेखक में मार्क्स के प्रति कोई श्रद्धाभाव नहीं है। हम सभी जानते हैं कि उन्होंने मार्क्सवाद से शुरू तो किया लेकिन फिर पश्चिम में जो भी वैचारिकी चली उसके साथ हेल मेल भी किया। उनकी यह किताब भी मार्क्सवाद के बढ़ते हुए प्रभाव का सूचक है।

ईगलटन सबसे पहले इस आपत्ति पर विचार करते हैं कि मार्क्सवाद औद्योगिक पूँजीवादी समाज की समस्याओं से जुड़ा हुआ था लेकिन अब दुनिया बदल चुकी है इसलिए इस उत्तर औद्योगिक दुनिया में मार्क्सवाद की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है। जवाब देते हुए वे कहते हैं कि अगर ऐसा हो जाए तो मार्क्सवादियों से अधिक कोई भी खुश नहीं होगा। मार्क्सवाद तो बहुत कुछ चिकित्सा के पेशे की तरह है जिसका मकसद अपनी ही जरूरत को खत्म करना है। मार्क्सवाद को तभी तक रहना है जब तक उसका विरोधी अर्थात पूँजीवाद है। उनका कहना है कि आज पूँजीवाद खत्म होने के बजाय और भी आक्रामक हो कर सामने आया है। जहाँ तक पूँजीवाद का रूप बदलने की बात है मार्क्स भी इस बात को जानते थे कि यह अत्यंत परिवर्तनशील है। मार्क्सवाद ने ही इसके अलग अलग रूपों - व्यापारी, खेतिहर, औद्योगिक, इजारेदार, महाजनी - आदि को पहचाना और अलगाया था। जो पूँजीवाद आज अधिकाधिक अपने शुरुआती रूप में लौटता जा रहा है उसी के समर्थक इसे बदलाव साबित करने पर तुले हुए हैं। हुआ दरअसल यह है कि 70 और 80 के दशक में पूँजीवाद ने अपना रूप बदला था और पारंपरिक औद्योगिक उत्पादन की जगह उपभोक्तावाद, संचार, सूचना प्रौद्योगिकी और सेवा क्षेत्र की उत्तर औद्योगिक संस्कृति सामने आई। लेकिन मार्क्सवादियों के पीछे हटने या पाला बदलने का कारण पूँजीवाद के रूप का बदलाव नहीं बल्कि उसके खात्मे की कल्पित असंभाव्यता थी। उनका कहना है कि आज के पूँजीवाद की आक्रामकता का कारण पूँजी की दुश्चिंता है। यह आत्मविश्वास के कारण नहीं बल्कि भयजनित प्रतिक्रिया है। इसके पीछे दूसरे विश्व युद्ध के बाद आए उछाल का खत्म होना है। इसी भय के कारण पूँजी हलका भी विरोध बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। पूँजी की इस नई आक्रामकता के साथ वाम की निराशा ही मार्क्सवाद के अप्रासंगिक होने की घोषणाओं का मूल कारण है। आज की तारीख में मार्क्सवाद को बीते समय की बात कहना ऐसे ही है जैसे आग लगानेवालों की ताकत का मुकाबला न कर पाने के कारण आग बुझाने की व्यवस्था को बेकार कह देना।

इसके बाद वे दूसरे आरोप की चर्चा करते हैं कि चलिए सिद्धांत तो ठीक है लेकिन व्यवहार ने बेकार की हिंसा को बढ़ावा दिया है। इसके उत्तर में वे आधुनिक समय के युद्धों की हिंसा को सामने रख कर बताते हैं कि उनके मुकाबले समाजवादी देशों की हिंसा कुछ भी नहीं रही है। जैसे पूँजीवाद तमाम खून खराबे के बावजूद अनेक सकारात्मक उपलब्धियों के लिए जाना जाता है वैसे ही समाजवादी समाजों की भी अपनी कमियों के बावजूद उल्लेखनीय उपलब्धियाँ रही हैं। सोवियत रूस में लोकतंत्र की कमी को उन परिस्थितियों में देखा जाना चाहिए जो क्रांति के तत्काल बाद पैदा हुईं। लेकिन समाजवाद ने इससे सीख भी ली है और पूँजीवाद की ताकत को पहचानते हुए बाजार समाजवाद जैसी चीज विकसित करने की कोशिशें जारी हैं। हालाँकि उनकी खूबियों खामियों की चर्चा भी होती है लेकिन महत्वपूर्ण बात नई दिशा में आगे जाने का खुलापन है। इसके बाद विस्तार से वे इस तरह के प्रयोगों में लोकतंत्र की संभावना पर विचार करते हैं।

तीसरे आरोप की चर्चा करते हुए वे मार्क्सवाद को निर्धारणवादी साबित करने की कोशिश का जिक्र करते हैं। इसका उत्तर देते हुए वे बताते हैं कि मार्क्स की ज्यादातर मान्यताओं का उत्स उनसे पहले के चिंतकों में मौजूद है। वर्ग संघर्ष की धारणा के साथ उत्पादन संबंध को जोड़ कर सामाजिक परिवर्तन का एक खाका प्रस्तुत करना उनका मौलिक योगदान कहा जा सकता है और इसी पर निर्धारणवाद का आरोप भी लगा है। लेकिन खुद मार्क्सवादियों ने इस पर सवाल उठाए हैं। इस मामले में द्वंद्वात्मकता पर जोर देने के बावजूद वे कुछ हद तक इस आरोप को स्वीकार करते हैं लेकिन दूसरी तरह से मार्क्स के सोचने को भी रेखांकित करते चलते हैं। उनका कहना है कि हालाँकि मार्क्स सामाजिक परिवर्तन में उत्पादक शक्तियों की प्रधान भूमिका देखते हैं लेकिन उत्पादन संबंधों की भूमिका को भी पूरी तरह खारिज नहीं करते। सामाजिक परिवर्तन में मनुष्य की सचेतन कारक के बतौर पहचान भी अनेक मामलों में, उनके मुताबिक, मार्क्स कराते हैं। वे यह भी बताते हैं कि मार्क्स के तईं इतिहास एकरेखीय तरीके से नहीं आगे बढ़ता बल्कि उनके चिंतन में पर्याप्त जटिलता को समाहित करने की गुंजाइश है।

चौथे आरोप की चर्चा वे इस रूप में करते हैं कि मार्क्स के सपनों का साम्यवाद मनुष्य की प्रकृति को अनदेखा करके गढ़ा गया है। मनुष्य स्वार्थी, संग्रही, आक्रामक और स्पर्धा करनेवाला प्राणी होता है। इस बात को भुला कर मार्क्स साम्यवाद का सपना बुनते हैं। इस आरोप को ईगलटन सिरे से खारिज करते हैं और बताते हैं कि असल में तो मार्क्स पर यह आरोप ज्यादा सही होगा कि वे भविष्य की कोई समग्र रूपरेखा नहीं खींचते। भविष्य को ले कर अटकल न लगाने की मार्क्स की आदत के पीछे ईगलटन एक सचेत कोशिश देखते हैं और वह यह कि ऐसा करने से वर्तमान में करणीय के प्रति उत्साह खत्म हो जाएगा। वे कहते हैं कि भविष्यकथन मार्क्सवादियों का नहीं पूँजीवाद के समर्थकों का पेशा है जो आप के धन की सुरक्षा की गारंटी लिए फिरते हैं। असल में मार्क्स के जमाने में ढेर सारे लोग भविष्य के प्रति अगाध आशा से भरी भविष्यवाणी किया करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि दुनिया को तर्क की ताकत से बदला जा सकता है लेकिन मार्क्स के लिए यह काम वर्तमान के ठोस संघर्षों के जरिए होना था। वे मानते थे कि वर्तमान में ही वे शक्तियाँ होती हैं जो भविष्य का निर्माण करती हैं। मजदूर आंदोलन का काम उन शक्तियों को मुक्त करना है।

पाँचवें आरोप की चर्चा करते हुए वे मार्क्सवाद द्वारा हरेक समस्या को आर्थिक साबित करने के आरोप का उल्लेख करते हैं। मार्क्स के विरोधी कहते हैं कि कला, धर्म, राजनीति, कानून, नैतिकता, युद्ध आदि को अर्थिक व्यवस्था का प्रतिबिंब माना गया है और इस तरह मार्क्स जिस पूँजीवाद का विरोध कर रहे थे उसी के तर्क से ग्रस्त दिखाई पड़ते हैं। इसके बारे में जवाब देते हुए ईगलटन कहते हैं कि आर्थिक पहलू तो इतना स्पष्ट है कि कोई इसमें कैसे संदेह कर सकता है ! कुछ भी करने से पहले मनुष्य को खाना-पीना होता है। 'जर्मन आइडियोलाजी' में मार्क्स लिखते हैं कि पहला ऐतिहासिक कार्य हमारी भौतिक जरूरतों को पूरा करने के साधनों का उत्पादन है, इसके बाद ही कोई और काम किया जा सकता है। संस्कृति का आधार श्रम है। भौतिक उत्पादन के बिना कोई सभ्यता संभव नहीं। लेकिन मार्क्सवाद इतना ही नहीं है। वह कहता है कि इसी से अंतत: सभ्यता का स्वभाव तय होता है। वैसे भी मार्क्स के विरोधी इससे इनकार नहीं करते, बस वे अपघटन पर आपत्ति प्रकट करते हैं। वे निर्धारकों की बहुलता पर जोर देते हैं। लेकिन क्या इस बहुलता के भीतर किसी एक की प्रधानता नहीं होती ? इसको मानने से कारकों की बहुलता खंडित नहीं होती। माना जा सकता है कि कोई परिघटना बहुत से कारकों का परिणाम होती है लेकिन उन सब को समान रूप से महत्वपूर्ण मानना मुश्किल है। आपत्ति असल में किसी एक की प्रधानता पर नहीं बल्कि प्रत्येक प्रसंग में एक ही कारक की प्रधानता पर है। इतिहास में पैटर्न की मौजूदगी से किसी को कैसे इनकार हो सकता है ? मसलन यूँ ही तो नहीं हुआ कि फासीवाद एक ही समय समूचे यूरोप में उदित हुआ। यह सही नहीं कि मार्क्स के लिए इतिहास का महावृत्तांत प्रगति का है बल्कि अगर है भी तो तकलीफ और कष्ट का है। असल में मार्क्स के लेखन में अन्य तमाम चीजों को आर्थिक में अपघटित नहीं किया गया है बल्कि राजनीति, संस्कृति, विचार, विज्ञान, विचार और सामाजिक अस्तित्व का स्वतंत्र इतिहास है, वे महज अर्थतंत्र की छायाएँ नहीं बल्कि उस पर भी प्रभाव डालने में समर्थ तत्व हैं। 'आधार' और 'अधिरचना' के बीच एकतरफा संपर्क नहीं होता बल्कि पारस्परिकता होती है। बात यह है कि मनुष्य जिस तरह अपने भौतिक जीवन का उत्पादन करते हैं वह उनके द्वारा सृजित सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी संस्थाओं का रूप तय करता है। 'निर्धारित' का अर्थ यहाँ सीमा निश्चित करना है।

उत्पादन पद्धति सीधे खास तरह की राजनीति, संस्कृति या विचारधारा को पैदा नहीं करती, न ही एक ही तरह के विचारों को जन्म देती है। अगर ऐसा होता तो पूँजीवादी दौर में मार्क्सवाद का जन्म ही असंभव होता। यह कहना ठीक नहीं कि मार्क्स इतिहास की आर्थिक व्याख्या पेश करते हैं बजाय इसके उनके अनुसार इतिहास की चालक शक्ति वर्ग और वर्ग संघर्ष हैं जो मार्क्स के लेखन में आर्थिक से ज्यादा सामाजिक कोटि हैं। मार्क्स 'सामाजिक' उत्पादन संबंधों और 'सामाजिक' क्रांति की बात करते हैं। सामाजिक कोटि के रूप में वर्ग के निर्धारण में रीति रिवाज, परंपरा, सामाजिक संस्थाएँ, मूल्य मान्यता और सोचने की आदतें शामिल हैं। वे राजनीतिक परिघटना भी हैं। मार्क्स के लेखन से यह भी संकेत मिलता है कि जिस वर्ग का कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं वह सही मायने में वर्ग ही नहीं है। वर्ग के वर्ग सचेत होने में कानूनी, सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक प्रक्रियाएँ मदद करती हैं। असल में तो मार्क्स की पूरी लड़ाई मनुष्य को महज आर्थिक बना देने वाली व्यवस्था से है। इसीलिए उनकी कल्पना के समाज में इतनी प्रचुरता होनी है कि मनुष्य को हर वक्त धन के बारे में न सोचना पड़े।

छठें आरोप को वे यह कहकर सूत्रबद्ध करते हैं कि विरोधियों के अनुसार मार्क्स परम भौतिकवादी थे। उनके लिए मानवता की आध्यात्मिक उपलब्धियों का कोई मूल्य नहीं था। धर्म को तो उन्होंने खारिज ही कर दिया था। इस तरह उनके चिंतन में ही स्तालिन अथवा परवर्ती कम्युनिस्ट शासकों के अत्याचारों के बीज निहित हैं। उत्तर देते हुए ईगलटन कहते हैं कि मार्क्स इसके बारे में बहुत चिंतित नहीं थे कि दुनिया भौतिक तत्व से बनी है या आत्मा से। असल में तो वे मानते थे कि अमूर्त सरल और निर्गुण होता है जबकि ठोस समृद्ध और जटिल। अठारहवीं सदी ज्ञानोदय के भौतिकवादी चिंतकों के लिए अलबत्ता मनुष्य भौतिक दुनिया का यांत्रिक हिस्सा था। मार्क्स इस तरह की सोच को छद्म चेतना मानते थे क्योंकि यह मनुष्यों को निष्क्रिय स्थिति बना देता था। उनके दिमाग खाली स्लेट समझे जाते थे जिन पर बाहरी दुनिया के इंद्रिय संवेदन की छाप पड़नी थी और इसी से उसके वैचारिक दुनिया का निर्माण होना था। मार्क्स ने इस किस्म के भौतिकवाद से नाता तोड़ा और नए किस्म का भौतिकवाद विकसित किया। उन्होंने ममुष्य को निष्क्रिय मानने वाले भौतिकवाद के मुकाबले उसे सक्रिय तत्व मानकर अपनी बात शुरू की। उनके मुताबिक मनुष्य अपने आस पास के वातावरण को बदलने के क्रम में खुद को भी बदलता जाता है। बहुसंख्यक लोगों की सामूहिक व्यावहारिक गतिविधि के जरिए ही हमारे जीवन को शासित करने वाले विचारों को बदला जा सकता है। मार्क्स के लिए हमारे चिंतन के विषय हमारी ही गतिविधि से बनी दुनिया है। उनके लिए मनुष्य का भौतिक अर्थात शरीर और उसका चिंतन उतने अलग नहीं थे। मनुष्य की वह विशेषता है कि उसमें भौतिक और आध्यात्मिक को अलगाना संभव नहीं। आखिर हमारा मस्तिष्क मांस का एक लोथड़ा भी है। मनुष्य की चेतना को समझने के लिए उसके सार्वजनिक व्यवहार के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं होता।

सातवाँ संभव आरोप उनके मुताबिक यह हो सकता है कि वर्ग की कोटि बेहद पुरानी पड़ गई है। यहाँ तक कि जिस मजदूर वर्ग को उन्होंने क्रांति और समाजवाद का पुरस्कर्ता माना था उसका भी रूप इतना बदल चुका है कि आज वह मार्क्स की नजर से देखने पर पहचान में ही नहीं आता। उत्तर में ईगलटन बताते हैं कि मार्क्सवाद वर्ग को महज शैली, हैसियत, आय, उच्चारण, पेशा आदि के आधार पर नहीं परिभाषित करता। यह इससे तय होता है कि किसी विशेष उत्पादन पद्धति में आप कहाँ खड़े हैं। मजदूर वर्ग के विलोप की कथा बहुत दिनों से सुनाई पड़ती रही है। वर्गों के संघटक तत्व हमेशा से बदलते रहे हैं। वैसे भी पूँजीवाद विरोधों को धूमिल करता है, पुराने विभाजनों को मिटाकर नए मिश्रित रूपों को जन्म देता है, सिर्फ शोषण के मामले में वह समानतावादी होता है। असल में समाजवाद से भी अधिक समता माल उत्पादन में होती है। मार्क्स इसी समरूपता के खिलाफ थे। आश्चर्य नहीं कि विकसित पूँजीवाद वर्गविहीनता का धोखा देता है। हालाँकि सबको पता है कि खाई लगातार चौड़ी हो रही है। मार्क्स के लिए मजदूर वर्ग का महत्व यह था कि वह पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर मौजूद होता है, उसकी कार्यपद्धति को अच्छी तरह समझता है, राजनीतिक रूप से कुशल और सचेत समूह के बतौर संगठित कर दिया गया है, उसके सफल संचालन के लिए अपरिहार्य है लेकिन उसे बरबाद करने में ही उसका हित है। इसलिए वही उसे हस्तगत करके उसकी उपलब्धियों का सबके फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकता है। मजदूर वर्ग में मार्क्स का यकीन लोकतंत्र के प्रति उनकी गहन निष्ठा से उपजा था। मजदूर वर्ग को वे सार्वभौमिक मुक्ति का नायक मानते थे। वर्ग पर मार्क्स का जोर वर्ग की समाप्ति के लिए है। लेकिन इस काम को मजदूर वर्ग अकेले नहीं कर सकता। उसे अन्य वर्गों के साथ संश्रय बनाना पड़ता है। ध्यान देने की बात है कि प्रोलेतेरियत शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा में ऐसी महिलाओं के लिए प्रयुक्त शब्द से हुई है जो संतान पैदा करके ही राज्य की सेवा करती थीं। आज भी वे ही सबसे अधिक उत्पीड़ित हैं। इसी मायने में डेविड हार्वे कहते हैं कि आज दुनिया में सर्वहारा की तादाद अभूतपूर्व रूप से बढ़ गई है। मार्क्स के लिए सर्वहारा का मतलब सभी ऐसे लोगों से था जो पूँजीपति के हाथों अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए मजबूर होते हैं। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि सर्वहारा वे हैं जिन्हें पूँजीवादी व्यवस्था के पतन से सबसे अधिक फायदा होता है। मजदूर वर्ग के खात्मे की घोषणा पहली बार नहीं हो रही है। सेवा, सूचना और संचार क्षेत्र के विस्तार को इसका लक्षण कहा जाता है लेकिन हम देख रहे हैं कि इनसे पूँजीवाद के बुनियादी चरित्र में कोई बदलाव आने के बजाय वह मजबूत ही हो रहा है।

उनके अनुसार मार्क्स पर आठवाँ आरोप हिंसा को बढ़ावा देने का लगाया जा सकता है। इसी अर्थ में मार्क्सवाद और लोकतंत्र में तालमेल बैठना असंभव बताया जाता है। सही है कि क्रांति का विचार ही हिंसा और अराजकता की तस्वीर पैदा करता है। इसके विरोध में समाज सुधार की कल्पना की जाती है जो शांतिपूर्ण और क्रमिक दिखाई पड़ता है लेकिन अनेक समाज सुधार आंदोलन भी हिंसक रहे हैं। उसी तरह अनेक क्रांतियाँ भी उतनी हिंसक नहीं रही हैं। हिंसा तो प्रतिरोध की तीव्रता के कारण होती है। मार्क्सवादियों की नजर में किसी क्रांति की गहराई का पैमाना हिंसा नहीं होता। राजनीतिक सत्ता पर कब्जे की कार्यवाही तात्कालिक मामला हो सकती है लेकिन क्रांति आम तौर पर दीर्घकालीन प्रक्रिया होती है। जिसमें वैचारिक संघर्ष ज्यादा बड़ी भूमिका निभाता है।

मार्क्सवाद पर जिस नवें आरोप की कल्पना की जा सकती है वह यह कि वह कठोर राज्य की वकालत करता है। निजी संपत्ति को खत्म करने के बाद समाजवादी क्रांतिकारी तानाशाहों की तरह आचरण शुरू कर देंगे। वे लोगों की निजी स्वतंत्रता का अपहरण कर लेंगे। क्रांति के बाद स्थापित शासनों में ऐसा देखा भी गया है। इस विश्वास का कोई आधार नहीं है कि भविष्य में वे भिन्न व्यवहार करेंगे। उदार लोकतंत्र में खामियों के बावजूद वह तानाशाही से बेहतर है। उत्तर देते हुए ईगलटन कहते हैं कि मार्क्स तो राज्य के ही विरोधी थे। उन्होंने ऐसे समय का सपना देखा था जब राज्य का लोप हो जाएगा। मार्क्स के विरोधी उनके सपने की खिल्ली उड़ा सकते है लेकिन उन पर तानाशाही को प्रोत्साहित करने का आरोप नहीं लगा सकते। असल में उनका सपना पूरी तरह हवाई नहीं था। साम्यवादी समाज में केंद्रीय प्रशासन के अर्थों में राज्य के विलोप की बात उनके कथन का सही अर्थ नहीं प्रतीत होती। किसी भी आधुनिक जटिल संस्कृति में उसकी जरूरत रहेगी। वे तो राज्य के हिंसा के औजार के बतौर इस्तेमाल के विरोधी लगते हैं। कम्युनिस्ट घोषणापत्र में उन्होंने कहा कि साम्यवाद में सार्वजनिक सत्ता का चरित्र राजनीतिक नहीं रहेगा। मार्क्स के समय ढेर सारे अराजकतावादी लोग थे लेकिन उनसे अलग मार्क्स ने कहा कि शायद इसी ऊपर बताए गए अर्थ में राज्य ओझल हो जाएगा। गायब होगा सत्ता का वह अंग जो सामाजिक दमन और एक वर्ग पर दूसरे वर्ग के शासन का उपकरण है। राज्य को मार्क्स निस्संग नहीं समझते और मानते हैं कि सामाजिक हितों के टकराव में वह पक्षपात करता है। खासकर पूँजी और श्रम के टकराव में तो उसकी पक्षधरता खुलकर सामने आ जाती है। राज्य आम तौर पर प्रचलित सामाजिक व्यवस्था में बदलाव की कोशिशों के विरुद्ध उसे सुरक्षा प्रदान करता है। अगर सामाजिक व्यवस्था अन्यायपूर्ण है तो राज्य भी अन्याय का साथ देता है। राज्य के हिंसक होने में शायद ही किसी को संदेह होगा मार्क्स तो बस यह बताते हैं कि यह हिंसा किसकी सेवा में की जाती है। मार्क्स राज्य के बारे में इस मिथक को ध्वस्त करना चाहते थे कि वह शांति और सहयोग को बढ़ावा देता है। राज्य को वे एक पृथक्कीकृत सत्ता मानते थे जो मनुष्य से अलग होकर उसके नाम पर उसके भाग्य का फ़ैसला करती है। मार्क्स खुद लोकतंत्रवादी थे और इसी नाते राज्य के तानाशाही तरीके के विरोध में थे। वैसे भी संसदीय लोकतंत्र, लोकतंत्र की छाया ही होता है। लोकतंत्र को वे महज सांसदों की संपत्ति बनाने के बजाय उसे समूचे समाज और उसकी संस्थाओं में समाया हुआ देखना चाहते थे। वे इसे आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र तक विस्तारित करना चाहते थे। उनका कहना था कि राज्य को अल्पसंख्या का बहुसंख्या पर शासन होने के बजाय नागरिकों द्वारा अपने आप पर शासन का तरीका होना चाहिए। मार्क्स का मानना था कि राज्य नागरिक समाज से अलग हो गया है और दोनों के बीच विरोध पैदा हो गया है। इसी विरोध को खत्म करना और राज्य को समाज के निकट ले आना मार्क्स का लक्ष्य था। इसी को वे लोकतंत्र कहते और समझते थे जो उनके मुताबिक समाजवाद में अपनी पूर्णता में प्रकट होगा।

दसवें आरोप के बतौर वे इस राय का उल्लेख करते हैं कि पिछले चालीस बरसों के सारे क्रांतिकारी आंदोलन मार्क्सवाद की हद से बाहर हुए हैं। नारीवाद, पर्यावरण के आंदोलन, समलिंगी आंदोलन, पशुओं के अधिकार आंदोलन, वैश्वीकरण विरोधी आंदोलन, शांति आंदोलन आदि वर्ग की कोटि से बाहर गए और नई राजनीतिक सक्रियता को जन्म दिया। वाम धारा तो है लेकिन वह उत्तर वर्गीय उत्तर औद्योगिक संसार के लिहाज से चल रहा है। इसका जवाब देते हुए ईगलटन कहते हैं कि नए दौर का सबसे मजबूत आंदोलन तो पूँजीवाद के विरुद्ध खड़ा हुआ है, उसे मार्क्सवाद से विच्छिन्न कैसे माना जा सकता है। जहाँ तक नारीवादी आंदोलन के साथ मार्क्सवाद का संबंध है यह बहुत सीधा सादा नहीं रहा है। अगर कुछ पुरुष मार्क्सवादियों ने स्त्री प्रश्न को सिरे से नकारा है तो कुछ अन्य ने इसे अपनी सैद्धांतिकी में शामिल करने की कोशिश भी की है। कुल मिलाकर नारीवाद में मार्क्सवाद का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। इसी वजह से अनेक नारीवादियों ने माना कि पूँजीवाद की समाप्ति के बिना नारी मुक्ति नहीं हो सकती। अन्य अब भी इस विश्वास पर कायम हैं कि शायद पूँजीवाद स्त्री उत्पीड़न का खात्मा कर देगा। हालाँकि पूँजीवाद के स्वभाव में ही मार्क्स स्त्री उत्पीड़न नहीं देखते लेकिन पितृसत्ता और वर्गीय सत्ता एक दूसरे के साथ इस कदर जुड़े हुए हैं कि एक की समाप्ति के बगैर दूसरे की समाप्ति की कल्पना मुश्किल नजर आती है। एंगेल्स की किताब 'परिवार, निजी संपत्ति और राजसत्ता का उदय' स्त्री आंदोलन का जरूरी पाठ बनी हुई है। क्रांति के बाद रूसी बोल्शेविकों ने स्त्री मुक्ति के सवाल को पूरी गंभीरता से उठाया और हल करने की कोशिश की। नारीवादी सवालों की तरह ही उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों में मार्क्सवादियों की भागीदारी सिद्धांत और व्यवहार के लिहाज से अतुलनीय रही है। सांस्कृतिक, लैंगिक, भाषाई, भिन्नता, अस्मिता आदि के सवाल राजसत्ता, भौतिक विषमता, श्रम के शोषण, साम्राज्यवादी लूट, जन राजनीतिक प्रतिरोध और क्रांतिकारी रूपांतरण से जुड़े हुए हैं। अगर आप एक से दूसरे को जुदा करेंगे तो सैद्धांतिक भ्रम के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होगा।

चढ़ाव-उतार का जायजा

2011 में ही एरिक हाब्सबाम की 'एबैकस' से विशालकाय किताब 'हाउ टु चेंज द वर्ल्ड' प्रकाशित हुई। पुस्तक का उपशीर्षक है 'टेल्स आफ मार्क्स एंड मार्क्सिज्म'। साफ है कि इसमें मार्क्स और मार्क्सवाद की कहानी कही गई है। कुल दो खंडों की इस किताब के पहले खंड में मार्क्स और एंगेल्स के लेखन की विशेषताओं को आठ अध्यायों में विवेचित किया गया है। दूसरे खंड के आठ अध्यायों में मार्क्स एंगेल्स की मृत्यु के बाद की मार्क्सवाद की विकास यात्रा को निरूपित किया गया है। इसमें 1956 से 2009 तक लेखक द्वारा मार्क्सवाद के सिलसिले में लिखे लेखों को कुछ को थोड़ा बदलकर, कुछ को विस्तारित करके शामिल किया गया है। इसमें मार्क्स-एंगेल्स और मार्क्सवाद की शास्त्रीय परंपरा के लेखकों के अलावे सिर्फ ग्राम्शी को शामिल किया गया है। पुस्तक को पढ़ते हुए यह तथ्य दिमाग में रखना उपयोगी होगा कि वे मार्क्सवाद की लेनिनीय और चीनी परंपरा के प्रति थोड़ा ज्यादा ही आलोचनात्मक रवैया रखते हैं।

पुस्तक के पहले अध्याय 'मार्क्स टुडे' में वे आज के दौर में मार्क्स की लोकप्रियता की एक वजह यह मानते हैं कि सोवियत संघ के आधिकारिक मार्क्सवाद के अंत ने मार्क्स को लेनिनवाद और लेनिन की प्रेरणा से बने समाजवादी निजामों के साथ जुड़ाव से मुक्त कर दिया और इस बात की गुंजाइश बनी कि आज की दुनिया के प्रसंग में मार्क्स की प्रासंगिकता को नई नजर से देखा परखा जाए। दूसरी वजह उनके अनुसार यह है कि 1990 के दशक में उभरने वाली वैश्विक पूँजीवादी दुनिया बहुत कुछ कम्युनिस्ट घोषणापत्र में पूर्वाशयित दुनिया की तरह नजर आई। यह चीज घोषणापत्र की 150वीं वर्षगाँठ के समय ही दिखाई पड़ने लगी थी क्योंकि उसी समय वैश्विक अर्थव्यवस्था में नाटकीय उथल पुथल शुरू हुई थी। उनका कहना है कि निश्चय ही इक्कीसवीं सदी के मार्क्स बीसवीं सदी के मार्क्स से अलग होंगे। पिछली सदी में मार्क्स की जो छवि बनी उसमें तीन तत्वों का योग था। पहला कि जिन मुल्कों में क्रांति एजेंडे पर थी और जिनमें नहीं थी वे अलग अलग थे। इसी से दूसरी चीज यह बनी कि मार्क्स की विरासत दो हिस्सों में बँट गई- सामाजिक-जनवादी और सुधारवादी विरासत तथा रूसी क्रांति से बनी क्रांतिकारी विरासत। तीसरी चीज यानी 1914 से 1940 के बीच उन्नीसवीं सदी के पूँजीवाद और बुर्जुआ समाज के विघटन से यह बात और भी उजागर हुई। तब लगा था कि पूँजीवाद शायद इस झटके से उबर नहीं पाएगा। वह उबरा तो लेकिन पुराने रूप में नहीं। दूसरी ओर सोवियत संघ में जो समाजवाद स्थापित हुआ वह अजेय लगता था। लेकिन ऐसी धारणा बनी कि उत्पादक शक्तियों का पूँजीवाद के मुकाबले तीव्र विकास ही समाजवाद की बरतरी साबित करेगा जो मार्क्स ने शायद नहीं सोचा था। मार्क्स ने यह नहीं कहा था कि पूँजीवाद उत्पादक शक्तियों का विकास करने में अक्षम हो गया है इसलिए खत्म हो जाएगा बल्कि उनके अनुसार अति उत्पादन से पैदा पूँजीवाद का आवर्ती संकट अर्थतंत्र को नहीं चला पाएगा और असमाधेय सामाजिक संकटों को जन्म देगा। सामाजिक उत्पादन के परवर्ती अर्थतंत्र को जन्म देना पूँजीवाद के बस की बात नहीं, ऐसा समाजवाद के तहत ही हो पाएगा। अब बीसवीं सदी का यह समाजवादी 'माडल' खत्म हो चुका है और दोबारा उसकी वापसी संभव नहीं है।

फिर भी लेख के अंत में वे बताते हैं कि अनेक मामलों में मार्क्सवादी विश्लेषण अब भी प्रासंगिक है। पहला तो पूँजीवादी आर्थिक विकास की अबाध वैश्विक गति और अपने सामने आने वाली किसी भी चीज का नाश, भले ही वह इनसे कभी लाभान्वित हुआ हो मसलन परिवार का ढाँचा। दूसरे पूँजीवादी विकास के क्रम में आंतरिक 'अंतर्विरोधों' का जन्म जिसमें अनंत तनाव और तात्कालिक समाधान, वृद्धि के साथ जुड़े हुए संकट और बदलाव, अधिकाधिक वैश्विक होते अर्थतंत्र में भयावह केंद्रीकरण शामिल हैं। पुस्तक का दूसरा लेख मार्क्स से पहले के समाजवादियों से उनके संबंध को बताता है। इसके बाद मार्क्स के चिंतन में राजनीति की महत्ता बताने के बाद अलग अलग अध्यायों में उनकी और एंगेल्स की पुस्तकों- कंडीशन आफ वर्किंग क्लास इन इंग्लैंड, कम्युनिस्ट मेनिफ़ेस्टो, ग्रुंड्रीस आदि की व्याख्या करने के बाद मार्क्स-एंगेल्स के लेखन के प्रकाशन और संपादन की हालत का वर्णन किया गया है। कह सकते हैं कि किताब का पहला खंड बाद में वर्णित मार्क्सवाद के विकास की पूर्वपीठिका के बतौर लिखा गया है। पुस्तक का दूसरा खंड 'मार्क्सिज्म' के नाम से संकलित है और इसमें विभिन्न दौरों में मार्क्सवाद की उठती गिरती किस्मत पर प्रकाश डाला गया है।

कहानी की शुरुआत से पहले ही यह साफ कर देना होगा कि इन दौरों में जहाँ 1880 से 1914 है वहीं दूसरा दौर सीधे 1929 से 1945 का है। बीच का 1914 से 1929 तक का दौर हो सकता है बिना किसी कारण के छोड़ दिया गया हो लेकिन लेनिन के बाद सोवियत संघ और अन्य मुल्कों में हो रहे विकास के प्रति लेखक की अरुचि की झलक भी इससे मिलती है। उनके वर्णन में तीसरा दौर 1945 से 1983 तक का है। इसके बाद का उतार का दौर 1983 से 2000 तक का है।

दूसरे खंड की शुरुआत वे इस बात से करते हैं कि मार्क्स के समर्थन और विरोध में इतना कुछ लिखा जा चुका और लिखा जा रहा है कि मौलिकता का दावा करने वाली ढेर सारी किताबों में पुराने तर्कों का ही दोहराव नजर आता है। उनका कहना है कि शुरू में मार्क्स को पूरी तरह से खारिज करने की प्रवृत्ति नहीं थी बल्कि शैक्षिक जगत के लोग भी कुछ क्षेत्रों में उनके योगदान को मान्यता देते थे। वह तो जबसे उनके सिद्धांतों को अमलीजामा पहनाने की कोशिशें शुरू हुईं तबसे समर्थन और विरोध दोनों ही नई ऊँचाई पर जा पहुँचे।

1880 से 1914 के बीच मार्क्सवाद के प्रभाव का विवरण देते हुए हाब्सबाम इस बात से शुरू करते हैं कि आम तौर पर मार्क्सवाद के समर्थक इतिहासकार जब मार्क्सवाद का इतिहास लिखने बैठते हैं तो सबसे पहले मार्क्सवादियों और गैर मार्क्सवादियों के बीच अंतर करते हैं और गैर मार्क्सवादियों को उसमें से निकाल बाहर करते हैं जबकि उनके अनुसार मार्क्स, फ़्रायड और डार्विन की तरह ही आधुनिक दुनिया की आम संस्कृति में समाए हुए हैं इसके बावजूद कि मार्क्सवाद के प्रभाव का गहरा रिश्ता मार्क्सवादी आंदोलनों से रहा है। यह प्रभाव दूसरे इंटरनेशनल के दिनों से ही महसूस होना शुरू हो गया था। 1880 और 1890 दशक के दौरान मार्क्स के नाम से जुड़े समाजवादी और मजदूर आंदोलनों का विस्तार हुआ और उसी के साथ इन आंदोलनों के भीतर और बाहर मार्क्स के सिद्धांतों का प्रभाव भी बढ़ा। आंदोलन के भीतर अन्य वामपंथी विचारधाराओं से मार्क्सवाद को होड़ करनी पड़ी और अनेक देशों में वह प्रमुख विचार के रूप में स्थापित हुआ। आंदोलनों से बाहर यह प्रभाव कुछ अर्ध और पूर्व मार्क्सवादियों पर दिखाई पड़ा। उनमें से मशहूर नाम इटली में क्रोचे, रूस में स्त्रूवे, जर्मनी में सोमबार्ट तथा शैक्षिक जगत के बाहर बर्नार्ड शा आदि हैं। इसी समय वह प्रवृत्ति भी दिखाई पड़ी जिसके तहत अनेक लोग मार्क्सवाद से अपना नाता तो नहीं तोड़ते थे लेकिन धीरे धीरे जिसे वे 'जड़सूत्रवाद' कहते थे उससे दूर चले जाते और उन्हें ही बाद में 'संशोधनवादी' बुद्धिजीवी कहा गया। मार्क्स के विचारों का प्रसार इस दौर में मुख्य रूप से यूरोप और प्रवासी यूरोपीयों में दिखाई पड़ता है। भारत में बंगाल के जो क्रांतिकारी 1914 से पहले सक्रिय थे वे बाद में मार्क्सवादी बने। हालाँकि यह दौर मुश्किल से तीस बरसों का है फिर भी हाब्सबाम ने इसे तीन चरणों में बाँटा है। पहला चरण इंटरनेशनल की स्थापना के बाद के पाँच छह बरसों का है जिसमें मार्क्सोन्मुखी समाजवादी और लेबर पार्टियों का जन्म और विस्तार हुआ। इन जन्म एक तरह से अप्रत्याशित रूप से विभिन्न देशों के राजनीतिक पटल पर हुआ और मई दिवस जैसे कार्यक्रमों के जरिए उनकी अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति भी महसूस हुई। पूँजीवाद संकट में था और मजदूर वर्ग में उसके विनाश की आशा पैदा हुई। इसी दौर में 1891 में जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ने आधिकारिक रूप से मार्क्सवाद से अपने को जोड़ा। दूसरा चरण 1895 के बाद का है जब विश्व पूँजीवाद का प्रसार होने लगा। इस चरण में जन समाजवादी मजदूर आंदोलनों की बढ़त जारी रही लेकिन इसी समय राष्ट्रीय आधार पर इस आंदोलन में विभाजन भी दिखाई पड़े। 1905 से 1917 तक रूसी क्रांति की प्रक्रिया तीसरा चरण है।

आपत्ति असल में किसी एक की प्रधानता पर नहीं बल्कि प्रत्येक प्रसंग में एक ही कारक की प्रधानता पर है। इतिहास में पैटर्न की मौजूदगी से किसी को कैसे इनकार हो सकता है? मसलन यूँ ही तो नहीं हुआ कि फासीवाद एक ही समय समूचे यूरोप में उदित हुआ। यह सही नहीं कि मार्क्स के लिए इतिहास का महावृत्तांत प्रगति का है बल्कि अगर है भी तो तकलीफ और कष्ट का है। असल में मार्क्स के लेखन में अन्य तमाम चीजों को आर्थिक में अपघटित नहीं किया गया है बल्कि राजनीति, संस्कृति, विचार, विज्ञान, विचार और सामाजिक अस्तित्व का स्वतंत्र इतिहास है, वे महज अर्थतंत्र की छायाएँ नहीं बल्कि उस पर भी प्रभाव डालने में समर्थ तत्व हैं। 'आधार' और 'अधिरचना' के बीच एकतरफा संपर्क नहीं होता बल्कि पारस्परिकता होती है। बात यह है कि मनुष्य जिस तरह अपने भौतिक जीवन का उत्पादन करते हैं वह उनके द्वारा सृजित सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी संस्थाओं का रूप तय करता है। 'निर्धारित' का अर्थ यहाँ सीमा निश्चित करना है।

उत्पादन पद्धति सीधे खास तरह की राजनीति, संस्कृति या विचारधारा को पैदा नहीं करती, न ही एक ही तरह के विचारों को जन्म देती है। अगर ऐसा होता तो पूँजीवादी दौर में मार्क्सवाद का जन्म ही असंभव होता। यह कहना ठीक नहीं कि मार्क्स इतिहास की आर्थिक व्याख्या पेश करते हैं। बजाय इसके उनके अनुसार इतिहास की चालक शक्ति वर्ग और वर्ग संघर्ष हैं जो मार्क्स के लेखन में आर्थिक से ज्यादा सामाजिक कोटि हैं। मार्क्स 'सामाजिक' उत्पादन संबंधों और 'सामाजिक' क्रांति की बात करते हैं। सामाजिक कोटि के रूप में वर्ग के निर्धारण में रीति रिवाज, परंपरा, सामाजिक संस्थाएँ, मूल्य मान्यता और सोचने की आदतें शामिल हैं। वे राजनीतिक परिघटना भी हैं। मार्क्स के लेखन से यह भी संकेत मिलता है कि जिस वर्ग का कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं वह सही मायने में वर्ग ही नहीं है। वर्ग के वर्ग सचेत होने में कानूनी, सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक प्रक्रियाएँ मदद करती हैं। असल में तो मार्क्स की पूरी लड़ाई मनुष्य को महज आर्थिक बना देनेवाली व्यवस्था से है। इसीलिए उनकी कल्पना के समाज में इतनी प्रचुरता होनी है कि मनुष्य को हर वक्त धन के बारे में न सोचना पड़े।

छठें आरोप को वे यह कह कर सूत्रबद्ध करते हैं कि विरोधियों के अनुसार मार्क्स परम भौतिकवादी थे। उनके लिए मानवता की आध्यात्मिक उपलब्धियों का कोई मूल्य नहीं था। धर्म को तो उन्होंने खारिज ही कर दिया था। इस तरह उनके चिंतन में ही स्तालिन अथवा परवर्ती कम्युनिस्ट शासकों के अत्याचारों के बीज निहित हैं। उत्तर देते हुए ईगलटन कहते हैं कि मार्क्स इसके बारे में बहुत चिंतित नहीं थे कि दुनिया भौतिक तत्व से बनी है या आत्मा से। असल में तो वे मानते थे कि अमूर्त सरल और निर्गुण होता है जबकि ठोस समृद्ध और जटिल। अठारहवीं सदी ज्ञानोदय के भौतिकवादी चिंतकों के लिए अलबत्ता मनुष्य भौतिक दुनिया का यांत्रिक हिस्सा था। मार्क्स इस तरह की सोच को छद्म चेतना मानते थे क्योंकि यह मनुष्यों को निष्क्रिय स्थिति बना देता था। उनके दिमाग खाली स्लेट समझे जाते थे जिन पर बाहरी दुनिया के इंद्रिय संवेदन की छाप पड़नी थी और इसी से उसके वैचारिक दुनिया का निर्माण होना था। मार्क्स ने इस किस्म के भौतिकवाद से नाता तोड़ा और नई किस्म का भौतिकवाद विकसित किया। उन्होंने ममुष्य को निष्क्रिय माननेवाले भौतिकवाद के मुकाबले उसे सक्रिय तत्व मान कर अपनी बात शुरू की। उनके मुताबिक मनुष्य अपने आस पास के वातावरण को बदलने के क्रम में खुद को भी बदलता जाता है। बहुसंख्यक लोगों की सामूहिक व्यावहारिक गतिविधि के जरिए ही हमारे जीवन को शासित करनेवाले विचारों को बदला जा सकता है। मार्क्स के लिए हमारे चिंतन के विषय हमारी ही गतिविधि से बनी दुनिया है। उनके लिए मनुष्य का भौतिक अर्थात शरीर और उसका चिंतन उतने अलग नहीं थे। मनुष्य की वह विशेषता है कि उसमें भौतिक और आध्यात्मिक को अलगाना संभव नहीं। आखिर हमारा मस्तिष्क मांस का एक लोथड़ा भी है। मनुष्य की चेतना को समझने के लिए उसके सार्वजनिक व्यवहार के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं होता।

सातवाँ संभव आरोप उनके मुताबिक यह हो सकता है कि वर्ग की कोटि बेहद पुरानी पड़ गई है। यहाँ तक कि जिस मजदूर वर्ग को उन्होंने क्रांति और समाजवाद का पुरस्कर्ता माना था उसका भी रूप इतना बदल चुका है कि आज वह मार्क्स की नजर से देखने पर पहचान में ही नहीं आता। उत्तर में ईगलटन बताते हैं कि मार्क्सवाद वर्ग को महज शैली, हैसियत, आय, उच्चारण, पेशा आदि के आधार पर नहीं परिभाषित करता। यह इससे तय होता है कि किसी विशेष उत्पादन पद्धति में आप कहाँ खड़े हैं। मजदूर वर्ग के विलोप की कथा बहुत दिनों से सुनाई पड़ती रही है। वर्गों के संघटक तत्व हमेशा से बदलते रहे हैं। वैसे भी पूँजीवाद विरोधों को धूमिल करता है, पुराने विभाजनों को मिटा कर नए मिश्रित रूपों को जन्म देता है, सिर्फ शोषण के मामले में वह समानतावादी होता है। असल में समाजवाद से भी अधिक समता माल उत्पादन में होती है। मार्क्स इसी समरूपता के खिलाफ थे। आश्चर्य नहीं कि विकसित पूँजीवाद वर्गविहीनता का धोखा देता है। हालाँकि सबको पता है कि खाई लगातार चौड़ी हो रही है। मार्क्स के लिए मजदूर वर्ग का महत्व यह था कि वह पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर मौजूद होता है, उसकी कार्यपद्धति को अच्छी तरह समझता है, राजनीतिक रूप से कुशल और सचेत समूह के बतौर संगठित कर दिया गया है, उसके सफल संचालन के लिए अपरिहार्य है लेकिन उसे बरबाद करने में ही उसका हित है। इसलिए वही उसे हस्तगत कर के उसकी उपलब्धियों का सबके फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकता है। मजदूर वर्ग में मार्क्स का यकीन लोकतंत्र के प्रति उनकी गहन निष्ठा से उपजा था। मजदूर वर्ग को वे सार्वभौमिक मुक्ति का नायक मानते थे। वर्ग पर मार्क्स का जोर वर्ग की समाप्ति के लिए है। लेकिन इस काम को मजदूर वर्ग अकेले नहीं कर सकता। उसे अन्य वर्गों के साथ संश्रय बनाना पड़ता है। ध्यान देने की बात है कि प्रोलेतेरियत शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा में ऐसी महिलाओं के लिए प्रयुक्त शब्द से हुई है जो संतान पैदा कर के ही राज्य की सेवा करती थीं। आज भी वे ही सबसे अधिक उत्पीड़ित हैं। इसी मायने में डेविड हार्वे कहते हैं कि आज दुनिया में सर्वहारा की तादाद अभूतपूर्व रूप से बढ़ गई है। मार्क्स के लिए सर्वहारा का मतलब सभी ऐसे लोगों से था जो पूँजीपति के हाथों अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए मजबूर होते हैं। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि सर्वहारा वे हैं जिन्हें पूँजीवादी व्यवस्था के पतन से सबसे अधिक फायदा होता है। मजदूर वर्ग के खात्मे की घोषणा पहली बार नहीं हो रही है। सेवा, सूचना और संचार क्षेत्र के विस्तार को इसका लक्षण कहा जाता है लेकिन हम देख रहे हैं कि इनसे पूँजीवाद के बुनियादी चरित्र में कोई बदलाव आने के बजाय वह मजबूत ही हो रहा है।

उनके अनुसार मार्क्स पर आठवाँ आरोप हिंसा को बढ़ावा देने का लगाया जा सकता है। इसी अर्थ में मार्क्सवाद और लोकतंत्र में तालमेल बैठना असंभव बताया जाता है। सही है कि क्रांति का विचार ही हिंसा और अराजकता की तस्वीर पैदा करता है। इसके विरोध में समाज सुधार की कल्पना की जाती है जो शांतिपूर्ण और क्रमिक दिखाई पड़ता है लेकिन अनेक समाज सुधार आंदोलन भी हिंसक रहे हैं। उसी तरह अनेक क्रांतियाँ भी उतनी हिंसक नहीं रही हैं। हिंसा तो प्रतिरोध की तीव्रता के कारण होती है। मार्क्सवादियों की नजर में किसी क्रांति की गहराई का पैमाना हिंसा नहीं होता। राजनीतिक सत्ता पर कब्जे की कार्यवाही तात्कालिक मामला हो सकती है लेकिन क्रांति आम तौर पर दीर्घकालीन प्रक्रिया होती है। जिसमें वैचारिक संघर्ष ज्यादा बड़ी भूमिका निभाता है।

मार्क्सवाद पर जिस नवें आरोप की कल्पना की जा सकती है वह यह कि वह कठोर राज्य की वकालत करता है। निजी संपत्ति को खत्म करने के बाद समाजवादी क्रांतिकारी तानाशाहों की तरह आचरण शुरू कर देंगे। वे लोगों की निजी स्वतंत्रता का अपहरण कर लेंगे। क्रांति के बाद स्थापित शासनों में ऐसा देखा भी गया है। इस विश्वास का कोई आधार नहीं है कि भविष्य में वे भिन्न व्यवहार करेंगे। उदार लोकतंत्र में खामियों के बावजूद वह तानाशाही से बेहतर है। उत्तर देते हुए ईगलटन कहते हैं कि मार्क्स तो राज्य के ही विरोधी थे। उन्होंने ऐसे समय का सपना देखा था जब राज्य का लोप हो जाएगा। मार्क्स के विरोधी उनके सपने की खिल्ली उड़ा सकते है लेकिन उन पर तानाशाही को प्रोत्साहित करने का आरोप नहीं लगा सकते। असल में उनका सपना पूरी तरह हवाई नहीं था। साम्यवादी समाज में केंद्रीय प्रशासन के अर्थों में राज्य के विलोप की बात उनके कथन का सही अर्थ नहीं प्रतीत होती। किसी भी आधुनिक जटिल संस्कृति में उसकी जरूरत रहेगी। वे तो राज्य के हिंसा के औजार के बतौर इस्तेमाल के विरोधी लगते हैं। कम्युनिस्ट घोषणापत्र में उन्होंने कहा कि साम्यवाद में सार्वजनिक सत्ता का चरित्र राजनीतिक नहीं रहेगा। मार्क्स के समय ढेर सारे अराजकतावादी लोग थे लेकिन उनसे अलग मार्क्स ने कहा कि शायद इसी ऊपर बताए गए अर्थ में राज्य ओझल हो जाएगा। गायब होगा सत्ता का वह अंग जो सामाजिक दमन और एक वर्ग पर दूसरे वर्ग के शासन का उपकरण है। राज्य को मार्क्स निस्संग नहीं समझते और मानते हैं कि सामाजिक हितों के टकराव में वह पक्षपात करता है। खासकर पूँजी और श्रम के टकराव में तो उसकी पक्षधरता खुल कर सामने आ जाती है। राज्य आम तौर पर प्रचलित सामाजिक व्यवस्था में बदलाव की कोशिशों के विरुद्ध उसे सुरक्षा प्रदान करता है। अगर सामाजिक व्यवस्था अन्यायपूर्ण है तो राज्य भी अन्याय का साथ देता है। राज्य के हिंसक होने में शायद ही किसी को संदेह होगा। मार्क्स तो बस यह बताते हैं कि यह हिंसा किसकी सेवा में की जाती है। मार्क्स राज्य के बारे में इस मिथक को ध्वस्त करना चाहते थे कि वह शांति और सहयोग को बढ़ावा देता है। राज्य को वे एक पृथक्कीकृत सत्ता मानते थे जो मनुष्य से अलग हो कर उसके नाम पर उसके भाग्य का फ़ैसला करती है। मार्क्स खुद लोकतंत्रवादी थे और इसी नाते राज्य के तानाशाही तरीके के विरोध में थे। वैसे भी संसदीय लोकतंत्र, लोकतंत्र की छाया ही होता है। लोकतंत्र को वे महज सांसदों की संपत्ति बनाने के बजाय उसे समूचे समाज और उसकी संस्थाओं में समाया हुआ देखना चाहते थे। वे इसे आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र तक विस्तारित करना चाहते थे। उनका कहना था कि राज्य को अल्पसंख्या का बहुसंख्या पर शासन होने के बजाय नागरिकों द्वारा अपने आप पर शासन का तरीका होना चाहिए। मार्क्स का मानना था कि राज्य नागरिक समाज से अलग हो गया है और दोनों के बीच विरोध पैदा हो गया है। इसी विरोध को खत्म करना और राज्य को समाज के निकट ले आना मार्क्स का लक्ष्य था। इसी को वे लोकतंत्र कहते और समझते थे जो उनके मुताबिक समाजवाद में अपनी पूर्णता में प्रकट होगा।

दसवें आरोप के बतौर वे इस राय का उल्लेख करते हैं कि पिछले चालीस बरसों के सारे क्रांतिकारी आंदोलन मार्क्सवाद की हद से बाहर हुए हैं। नारीवाद, पर्यावरण के आंदोलन, समलिंगी आंदोलन, पशुओं के अधिकार आंदोलन, वैश्वीकरण विरोधी आंदोलन, शांति आंदोलन आदि वर्ग की कोटि से बाहर गए और नई राजनीतिक सक्रियता को जन्म दिया। वाम धारा तो है लेकिन वह उत्तर वर्गीय उत्तर औद्योगिक संसार के लिहाज से चल रहा है। इसका जवाब देते हुए ईगलटन कहते हैं कि नए दौर का सबसे मजबूत आंदोलन तो पूँजीवाद के विरुद्ध खड़ा हुआ है, उसे मार्क्सवाद से विच्छिन्न कैसे माना जा सकता है। जहाँ तक नारीवादी आंदोलन के साथ मार्क्सवाद का संबंध है यह बहुत सीधा सादा नहीं रहा है। अगर कुछ पुरुष मार्क्सवादियों ने स्त्री प्रश्न को सिरे से नकारा है तो कुछ अन्य ने इसे अपनी सैद्धांतिकी में शामिल करने की कोशिश भी की है। कुल मिला कर नारीवाद में मार्क्सवाद का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। इसी वजह से अनेक नारीवादियों ने माना कि पूँजीवाद की समाप्ति के बिना नारी मुक्ति नहीं हो सकती। अन्य अब भी इस विश्वास पर कायम हैं कि शायद पूँजीवाद स्त्री उत्पीड़न का खात्मा कर देगा। हालाँकि पूँजीवाद के स्वभाव में ही मार्क्स स्त्री उत्पीड़न नहीं देखते लेकिन पितृसत्ता और वर्गीय सत्ता एक दूसरे के साथ इस कदर जुड़े हुए हैं कि एक की समाप्ति के बगैर दूसरे की समाप्ति की कल्पना मुश्किल नजर आती है। एंगेल्स की किताब 'परिवार, निजी संपत्ति और राजसत्ता का उदय' स्त्री आंदोलन का जरूरी पाठ बनी हुई है। क्रांति के बाद रूसी बोल्शेविकों ने स्त्री मुक्ति के सवाल को पूरी गंभीरता से उठाया और हल करने की कोशिश की। नारीवादी सवालों की तरह ही उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों में मार्क्सवादियों की भागीदारी सिद्धांत और व्यवहार के लिहाज से अतुलनीय रही है। सांस्कृतिक, लैंगिक, भाषाई भिन्नता, अस्मिता आदि के सवाल राजसत्ता, भौतिक विषमता, श्रम के शोषण, साम्राज्यवादी लूट, जन राजनीतिक प्रतिरोध और क्रांतिकारी रूपांतरण से जुड़े हुए हैं। अगर आप एक से दूसरे को जुदा करेंगे तो सैद्धांतिक भ्रम के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होगा।

चढ़ाव-उतार का जायजा

2011 में ही एरिक हाब्सबाम की 'एबैकस' से विशालकाय किताब 'हाउ टु चेंज द वर्ल्ड' प्रकाशित हुई। पुस्तक का उपशीर्षक है 'टेल्स आफ मार्क्स एंड मार्क्सिज्म'। साफ है कि इसमें मार्क्स और मार्क्सवाद की कहानी कही गई है। कुल दो खंडों की इस किताब के पहले खंड में मार्क्स और एंगेल्स के लेखन की विशेषताओं को आठ अध्यायों में विवेचित किया गया है। दूसरे खंड के आठ अध्यायों में मार्क्स-एंगेल्स की मृत्यु के बाद की मार्क्सवाद की विकास यात्रा को निरूपित किया गया है। इसमें 1956 से 2009 तक लेखक द्वारा मार्क्सवाद के सिलसिले में लिखे लेखों को कुछ को थोड़ा बदल कर, कुछ को विस्तारित करके शामिल किया गया है। इसमें मार्क्स-एंगेल्स और मार्क्सवाद की शास्त्रीय परंपरा के लेखकों के अलावा सिर्फ ग्राम्शी को शामिल किया गया है। पुस्तक को पढ़ते हुए यह तथ्य दिमाग में रखना उपयोगी होगा कि वे मार्क्सवाद की लेनिनीय और चीनी परंपरा के प्रति थोड़ा ज्यादा ही आलोचनात्मक रवैया रखते हैं।

पुस्तक के पहले अध्याय 'मार्क्स टुडे' में वे आज के दौर में मार्क्स की लोकप्रियता की एक वजह यह मानते हैं कि सोवियत संघ के आधिकारिक मार्क्सवाद के अंत ने मार्क्स को लेनिनवाद और लेनिन की प्रेरणा से बने समाजवादी निजामों के साथ जुड़ाव से मुक्त कर दिया और इस बात की गुंजाइश बनी कि आज की दुनिया के प्रसंग में मार्क्स की प्रासंगिकता को नई नजर से देखा परखा जाए। दूसरी वजह उनके अनुसार यह है कि 1990 के दशक में उभरनेवाली वैश्विक पूँजीवादी दुनिया बहुत कुछ कम्युनिस्ट घोषणापत्र में पूर्वाशयित दुनिया की तरह नजर आई। यह चीज घोषणापत्र की 150वीं वर्षगाँठ के समय ही दिखाई पड़ने लगी थी क्योंकि उसी समय वैश्विक अर्थव्यवस्था में नाटकीय उथल पुथल शुरू हुई थी। उनका कहना है कि निश्चय ही इक्कीसवीं सदी के मार्क्स बीसवीं सदी के मार्क्स से अलग होंगे। पिछली सदी में मार्क्स की जो छवि बनी उसमें तीन तत्वों का योग था। पहला कि जिन मुल्कों में क्रांति एजेंडे पर थी और जिनमें नहीं थी वे अलग अलग थे। इसी से दूसरी चीज यह बनी कि मार्क्स की विरासत दो हिस्सों में बँट गई - सामाजिक-जनवादी और सुधारवादी विरासत तथा रूसी क्रांति से बनी क्रांतिकारी विरासत। तीसरी चीज यानी 1914 से 1940 के बीच उन्नीसवीं सदी के पूँजीवाद और बुर्जुआ समाज के विघटन से यह बात और भी उजागर हुई। तब लगा था कि पूँजीवाद शायद इस झटके से उबर नहीं पाएगा। वह उबरा तो लेकिन पुराने रूप में नहीं। दूसरी ओर सोवियत संघ में जो समाजवाद स्थापित हुआ वह अजेय लगता था। लेकिन ऐसी धारणा बनी कि उत्पादक शक्तियों का पूँजीवाद के मुकाबले तीव्र विकास ही समाजवाद की बरतरी साबित करेगा जो मार्क्स ने शायद नहीं सोचा था। मार्क्स ने यह नहीं कहा था कि पूँजीवाद उत्पादक शक्तियों का विकास करने में अक्षम हो गया है इसलिए खत्म हो जाएगा बल्कि उनके अनुसार अति उत्पादन से पैदा पूँजीवाद का आवर्ती संकट अर्थतंत्र को नहीं चला पाएगा और असमाधेय सामाजिक संकटों को जन्म देगा। सामाजिक उत्पादन के परवर्ती अर्थतंत्र को जन्म देना पूँजीवाद के बस की बात नहीं, ऐसा समाजवाद के तहत ही हो पाएगा। अब बीसवीं सदी का यह समाजवादी 'माडल' खत्म हो चुका है और दोबारा उसकी वापसी संभव नहीं है।

फिर भी लेख के अंत में वे बताते हैं कि अनेक मामलों में मार्क्सवादी विश्लेषण अब भी प्रासंगिक है। पहला तो पूँजीवादी आर्थिक विकास की अबाध वैश्विक गति और अपने सामने आनेवाली किसी भी चीज का नाश, भले ही वह इनसे कभी लाभान्वित हुआ हो मसलन परिवार का ढाँचा। दूसरे, पूँजीवादी विकास के क्रम में आंतरिक 'अंतर्विरोधों' का जन्म जिसमें अनंत तनाव और तात्कालिक समाधान, वृद्धि के साथ जुड़े हुए संकट और बदलाव, अधिकाधिक वैश्विक होते अर्थतंत्र में भयावह केंद्रीकरण शामिल हैं। पुस्तक का दूसरा लेख मार्क्स से पहले के समाजवादियों से उनके संबंध को बताता है। इसके बाद मार्क्स के चिंतन में राजनीति की महत्ता बताने के बाद अलग अलग अध्यायों में उनकी और एंगेल्स की पुस्तकों - कंडीशन आफ वर्किंग क्लास इन इंग्लैंड, कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो, ग्रुंड्रीस आदि की व्याख्या करने के बाद मार्क्स-एंगेल्स के लेखन के प्रकाशन और संपादन की हालत का वर्णन किया गया है। कह सकते हैं कि किताब का पहला खंड बाद में वर्णित मार्क्सवाद के विकास की पूर्वपीठिका के बतौर लिखा गया है। पुस्तक का दूसरा खंड 'मार्क्सिज्म' के नाम से संकलित है और इसमें विभिन्न दौरों में मार्क्सवाद की उठती गिरती किस्मत पर प्रकाश डाला गया है।

कहानी की शुरुआत से पहले ही यह साफ कर देना होगा कि इन दौरों में जहाँ 1880 से 1914 है वहीं दूसरा दौर सीधे 1929 से 1945 का है। बीच का 1914 से 1929 तक का दौर हो सकता है बिना किसी कारण के छोड़ दिया गया हो लेकिन लेनिन के बाद सोवियत संघ और अन्य मुल्कों में हो रहे विकास के प्रति लेखक की अरुचि की झलक भी इससे मिलती है। उनके वर्णन में तीसरा दौर 1945 से 1983 तक का है। इसके बाद का उतार का दौर 1983 से 2000 तक का है।

दूसरे खंड की शुरुआत वे इस बात से करते हैं कि मार्क्स के समर्थन और विरोध में इतना कुछ लिखा जा चुका और लिखा जा रहा है कि मौलिकता का दावा करनेवाली ढेर सारी किताबों में पुराने तर्कों का ही दोहराव नजर आता है। उनका कहना है कि शुरू में मार्क्स को पूरी तरह से खारिज करने की प्रवृत्ति नहीं थी बल्कि शैक्षिक जगत के लोग भी कुछ क्षेत्रों में उनके योगदान को मान्यता देते थे। वह तो जब से उनके सिद्धांतों को अमली जामा पहनाने की कोशिशें शुरू हुईं तब से समर्थन और विरोध दोनों ही नई ऊँचाई पर जा पहुँचे।

1880 से 1914 के बीच मार्क्सवाद के प्रभाव का विवरण देते हुए हाब्सबाम इस बात से शुरू करते हैं कि आम तौर पर मार्क्सवाद के समर्थक इतिहासकार जब मार्क्सवाद का इतिहास लिखने बैठते हैं तो सबसे पहले मार्क्सवादियों और गैरमार्क्सवादियों के बीच अंतर करते हैं और गैरमार्क्सवादियों को उसमें से निकाल बाहर करते हैं जबकि उनके अनुसार मार्क्स, फ्रायड और डार्विन की तरह ही आधुनिक दुनिया की आम संस्कृति में समाए हुए हैं, इसके बावजूद कि मार्क्सवाद के प्रभाव का गहरा रिश्ता मार्क्सवादी आंदोलनों से रहा है। यह प्रभाव दूसरे इंटरनेशनल के दिनों से ही महसूस होना शुरू हो गया था। 1880 और 1890 दशक के दौरान मार्क्स के नाम से जुड़े समाजवादी और मजदूर आंदोलनों का विस्तार हुआ और उसी के साथ इन आंदोलनों के भीतर और बाहर मार्क्स के सिद्धांतों का प्रभाव भी बढ़ा। आंदोलन के भीतर अन्य वामपंथी विचारधाराओं से मार्क्सवाद को होड़ करनी पड़ी और अनेक देशों में वह प्रमुख विचार के रूप में स्थापित हुआ। आंदोलनों से बाहर यह प्रभाव कुछ अर्ध और पूर्व मार्क्सवादियों पर दिखाई पड़ा। उनमें से मशहूर नाम इटली में क्रोचे, रूस में स्त्रूवे, जर्मनी में सोमबार्ट तथा शैक्षिक जगत के बाहर बर्नार्ड शा आदि हैं। इसी समय वह प्रवृत्ति भी दिखाई पड़ी जिसके तहत अनेक लोग मार्क्सवाद से अपना नाता तो नहीं तोड़ते थे लेकिन धीरे धीरे जिसे वे 'जड़सूत्रवाद' कहते थे उससे दूर चले जाते और उन्हें ही बाद में 'संशोधनवादी' बुद्धिजीवी कहा गया। मार्क्स के विचारों का प्रसार इस दौर में मुख्य रूप से यूरोप और प्रवासी यूरोपीयों में दिखाई पड़ता है। भारत में बंगाल के जो क्रांतिकारी 1914 से पहले सक्रिय थे वे बाद में मार्क्सवादी बने। हालाँकि यह दौर मुश्किल से तीस बरसों का है फिर भी हाब्सबाम ने इसे तीन चरणों में बाँटा है। पहला चरण इंटरनेशनल की स्थापना के बाद के पाँच छह बरसों का है जिसमें मार्क्सोन्मुख समाजवादी और लेबर पार्टियों का जन्म और विस्तार हुआ। इन जन्म एक तरह से अप्रत्याशित रूप से विभिन्न देशों के राजनीतिक पटल पर हुआ और मई दिवस जैसे कार्यक्रमों के जरिए उसकी अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति भी महसूस हुई। पूँजीवाद संकट में था और मजदूर वर्ग में उसके विनाश की आशा पैदा हुई। इसी दौर में 1891 में जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ने आधिकारिक रूप से मार्क्सवाद से अपने को जोड़ा। दूसरा चरण 1895 के बाद का है जब विश्व पूँजीवाद का प्रसार होने लगा। इस चरण में जन समाजवादी मजदूर आंदोलनों की बढ़त जारी रही लेकिन इसी समय राष्ट्रीय आधार पर इस आंदोलन में विभाजन भी दिखाई पड़े। 1905 से 1917 तक रूसी क्रांति की प्रक्रिया तीसरा चरण है।

मार्क्सवाद के विकास का दूसरा दौर फासीवाद के विरोध से निर्मित है जिसे 1929 से 1945 तक लेखक ने माना है। इस दौर में पश्चिमी यूरोप और अंग्रेजी भाषी इलाकों में मार्क्सवाद गंभीर बौद्धिक ताकत के रूप में उभरा। बहरहाल, 1920 में क्रांति की लहर के सुस्त पड़ते ही तीसरे इंटरनेशनल का मार्क्सवाद पश्चिमी बौद्धिकों के लिए उतना आकर्षक नहीं रह गया। उसके मुकाबले त्रात्सकीवाद का ज्यादा आकर्षण दिखाई पड़ा लेकिन इसका वास्तविक आंदोलन की दुनिया में कोई खास दखल नहीं बना। कम्युनिस्ट पार्टियाँ ज्यादातर तीसरे इंटरनेशनल से प्रभावित थीं और उनके बुद्धिजीवी सदस्य इस स्थिति से असहज महसूस करते थे। इसी कारण पश्चिम में मार्क्सवाद का विकास बहुत कुछ उसकी मुख्य परंपरा से हट कर हुआ। सिर्फ साहित्य और कला के क्षेत्र में एक तरह का वामपंथी अंतरराष्ट्रीय सहकार मौजूद रहा क्योंकि उसमें सैद्धांतिक प्रश्नों से इतर उस समय के आंदोलनों के प्रति भावनात्मक प्रतिबद्धता अभिव्यक्त हुई। इस क्षेत्र में 'आधुनिकता' को ले कर बहस में आधिकारिक वाम के सामने बौद्धिकों ने समर्पण नहीं किया। अपनी देशी बौद्धिकता से कटे बगैर ये बुद्धिजीवी अंतरराष्ट्रीय वाम संस्कृति के सहभागी बने। फासीवाद विरोध एक ऐसा बिंदु था जिसने दुनिया भर में वामपंथी लेखकों, कलाकारों को एकजुट किया और उनकी स्वीकार्यता बढ़ाई। इसका बड़ा कारण इस दौर की महामंदी (1929-1933) भी थी। पूँजीवादी संकट के मुकाबले नियोजित समाजवादी उद्योगीकरण ने सोवियत संघ की लोकप्रियता में इजाफा किया और हिटलर को ले कर पूँजीवादी मुल्कों के संदिग्ध रुख के मुकाबले उसकी पराजय में रूस की भूमिका ने तो और भी बड़े पैमाने पर उसके प्रशंसक पैदा किए। 1936 में स्पेनी गणतंत्र के समर्थन में उठी लहर न होती तो वह लड़ाई अनजानी ही रह जाती। फासीवाद के विरोध में कम्युनिस्टों की अग्रणी भूमिका ने उन्हें विश्व शांति आंदोलन में अगुआ बना दिया। इसी दौर में मार्क्सवाद का प्रसार पिछड़े मुल्कों खासकर चीन और भारत में हुआ जो आगामी विकास के लिहाज से महत्वपूर्ण था।

मार्क्सवाद के प्रभाव का तीसरा दौर हाब्सबाम के अनुसार 1945 से 1983 तक है। इस दौर के आते आते अधिकांश यूरोप में समाजवादी और मजदूर आंदोलनों में मार्क्स के विचार सबसे बड़े प्रेरणा स्रोत हो गए और लेनिन तथा रूसी क्रांति की मार्फ़त बीसवीं सदी की सामाजिक क्रांतियों के लिए चीन से पेरू तक अंतरराष्ट्रीय दिशा निर्देशक हो गए। दुनिया की एक तिहाई आबादी उन देशों में रहती थी जिनकी सरकारें मार्क्स के विचारों को अपना आधिकारिक मत घोषित करती थीं। इसके अलावा बाकी दुनिया में राजनीतिक आंदोलनों के जरिए ढेर सारे लोग मार्क्सवाद से जुड़े हुए थे। मानवता को प्रभावित करने के मामले में यह हैसियत पहले सिर्फ महान धर्मों के संस्थापकों को प्राप्त थी। इस क्रम में उनके विचारों में काफी बदलाव भी किए गए लेकिन उनके मूल निश्चय ही मार्क्स के चिंतन में मौजूद थे। मजे की बात यह है कि उनके नाम पर स्थापित सभी शासन उदार लोकतंत्र के विपरीत लक्षणों से युक्त थे। लेकिन मानवता के इतिहास में यह कोई नई बात नहीं है। बदलाव के सभी प्रस्तोताओं के विचार समय के साथ बदलते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि ईसाइयत या इस्लाम के नाम पर चल रहे शासन इनके विचारों से कितना दूर हैं। आज के एडम स्मिथ भी 1776 के एडम स्मिथ नहीं हैं। मार्क्स के विचारों का यह दबदबा सौ सालों के व्यापक आंदोलनों का नतीजा है। उनके विचारों का यह प्रभाव पूर्व सामाजिक जनवादी पार्टियों द्वारा उनके प्रभाव से इनकार, सोवियत संघ की बदनामी और स्तालिन के विरुद्ध रूस में ही शासन द्वारा संचालित अभियान के बावजूद बना हुआ है। मार्क्सवाद की इस स्थिति के तीन संभव कारण वे गिनाते हैं। पहला, मार्क्स की मृत्यु के बाद से ही यह यथास्थिति के लिए खतरनाक मजबूत राजनीतिक आंदोलनों के साथ और 1917 के बाद खतरनाक मानी जानेवाली सत्ताओं के साथ किसी न किसी तरह से जुड़ा रहा है। दूसरा, मार्क्सवाद यथास्थिति का विरोध करते हुए भी एक बौद्धिक आंदोलन रहा है और 1970 के दशक के बाद यथास्थिति का विरोध कर उसकी जगह 'नया' समाज या कोई आदर्श 'पुराना' समाज बनाने का सपना देखनेवाले सभी 'समाजवाद' को ही अपना लक्ष्य घोषित करते रहे हैं। पुराने काल्पनिक समाजवादों में से कोई भी मार्क्स की मृत्यु के एक साल बाद नहीं बचा रह गया था इसलिए समाजवाद की कोई भी आलोचना मार्क्सवाद की ही आलोचना मानी जाने लगी। तीसरा कारण बीसवीं सदी में बुद्धिजीवियों में इसके प्रति जबर्दस्त आकर्षण रहा है। उच्च शिक्षा में बढ़ोत्तरी के साथ इनकी संख्या अभूतपूर्व रूप से बढ़ती गई और उनमें थोक के भाव मार्क्सवादी हुए। बहरहाल, 1945 के बाद पचीस सालों तक तीन परिघटनाओं का मार्क्सवाद संबंधी बहस पर प्रभाव रहा है - (1) 1956 के बाद सोवियत संघ और अन्य समाजवादी देशों के बीच के रिश्ते, (2) 'तीसरी दुनिया' और खासकर लैटिन अमेरिकी देशों की घटनाएँ और (3) 1960 दशक के अंतिम दिनों में औद्योगिक देशों के छात्रों की हड़तालें और उनका राजनीतिक रूप से क्रांतिकारी रुख पकड़ना।

इसी दौर में रूस की घटती लोकप्रियता के बरक्स चीन खासकर माओ का प्रभाव बढ़ा। क्रमश: क्रांति का गुरुत्व केंद्र 'अल्पविकसित देशों' या 'तीसरी दुनिया' की ओर खिसकता गया। इन देशों का समाजवाद में रूपांतरण सैद्धांतिक रूप से भी ज्यादा बड़ा सवाल बनता गया। इस दौर में पहले के दोनों दौरों की तरह कोई अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट केंद्र नहीं उभरा। तीसरा दौर वे 1983 से 2000 तक मानते हैं जब उनके मुताबिक मार्क्सवाद में उतार आया हालाँकि सदी के अंतिम छोर पर उन्हें फिर से एक उभार दिखाई दे रहा है। असल में जो हुआ उसके लक्षण 1980 दशक में ही दिखाई देने लगे थे जब पूर्वी यूरोप के समाजवादी शासनों में संकट प्रकट होने लगे और चीन ने राह बदलनी शुरू की। हालाँकि रूस पर इनकी निर्भरता इतनी अधिक थी कि सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन ढहते ही पूर्वी यूरोप के मुल्कों में ताश के पत्तों की तरह शासन बिखरने लगे और चीनी शासन को रूस के प्रभाव से कोई सहानुभूति नहीं थी फिर भी पूरी दुनिया के वामपंथियों को इससे झटका लगा क्योंकि समाजवाद के निर्माण का यही एकमात्र गंभीर प्रयास था। वह पूँजीवाद के पुराने और नए केंद्रों की शक्ति को प्रतिसंतुलित करनेवाली महाशक्ति था। उसके बाद तो जनाधारवाले वे ही शासन बचे जो 'तीसरी दुनिया' में थे।

मंदी ने दी नई ताकत

उसके बाद तो अमेरिका में खड़े हुए 'अकुपाई वाल स्ट्रीट' आंदोलन के साथ ही ढेर सारे लोग मार्क्सवाद की ओर खिंचे आ रहे हैं। मसलन 2012 में डेविड हार्वे की किताब 'रेबेल सिटीज' प्रकाशित हुई है जिसमें यूरोप, अमेरिका और दुनिया के अन्य तमाम बड़े शहरों में फूट पड़नेवाले आंदोलनों के नगर आधारित होने के मद्दे नजर शहर के क्रांतिकारी महत्व को समझाने की कोशिश की गई है। हमारे देश में उद्योगीकरण के बाद मजदूर आंदोलन तो जरूर शहर केंद्रित रहे लेकिन नए दौर में बढ़ते हुए नगरीकरण की पृष्ठभूमि में इस परिघटना पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।

हाल के दिनों में मार्क्सवाद की ओर रुझान को देखते हुए फ्रांसीसी मार्क्सवादी एलेन बादू ने इस समय को मार्क्सवाद के उभार का तीसरा दौर कहा है। इसके पहले के प्रथम दौर को वे 1792 में फ्रांसीसी गणतंत्र की स्थापना से ले कर 1871 में पेरिस कम्यून के पतन तक मानते हैं। दूसरा दौर 1917 की रूसी क्रांति से शुरू हो कर 1976 में चीन में माओ की सांस्कृतिक क्रांति के खात्मे तक चला था। नई पीढ़ी के लोगों को बदलाव की प्रक्रिया को तमाम किस्म के आंदोलनों के क्षणिक उभार के आगे स्थायी प्रतिरोध की ओर ले जाने का रास्ता मार्क्सवाद के भीतर नजर आ रहा है।

यूरोप के कुछ देशों में नई तरह की वामपंथी राजनीति के उभार के कारण भी संगठन और आंदोलन के मामले में फिर से सुधारवादी और संघवादी आवाजें सुनाई पड़ने लगी हैं। अनेक लोग जो विरोध की उत्तर आधुनिक धारा के साथ चले गए थे वे भी नए उत्साह के साथ वापसी कर रहे हैं लेकिन स्वभावत: अपने नए और भ्रामक सूत्रीकरणों के साथ। इसीलिए दोबारा सावधानी के साथ अपने को मार्क्सवादी कहनेवालों के प्रति नए सिरे से आलोचनात्मक नजरिया अपनाने की जरूरत है।

मार्क्सवाद का मूल सिद्धांत क्या है?

बहुत सरल शब्दों में, मार्क्सवादी सिद्धांत कहता है कि सारा विकास विरोधियों के बीच संघर्ष के कारण होता है और उन कारणों से होता है जो आर्थिक हैं। उत्पादन की नयी पद्धति उत्पादन के संबंधों और अपने विकास की परिपक्व अवस्था में उत्पादक की शक्तियों के बीच संघर्ष का परिणाम है।

मार्क्सवाद के जनक कौन है?

मार्क्सवाद के जनक जर्मनी के कालजयी महान विचारक कार्ल मार्क्स का 200वां जन्मदिन जर्मनी के महान विचारक, अर्थशास्त्री, इतिहासकार, राजनीतिक सिद्धांतकार, समाजशास्त्री, पत्रकार और क्रांतिकारी कार्ल मार्क्स का आज यानी पांच मई को 200वां जन्मदिन है।

मार्क्सवाद का मुख्य उद्देश्य क्या है?

Solution : मार्क्सवाद एक सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दर्शन है जो उत्पादकता और आर्थिक विकास पर पूँजीवाद के प्रभाव की जाँच करता है | राज्य को राज्य के नियमों के रखरखाव के साधन के रूप में देखता है, जब 1 नियम समाप्त हो जाए तो उसे दूर करना चाहिए।

मार्क्सवाद से क्या तात्पर्य है?

मार्क्स एक समाजवादी विचारक थे और यथार्थ पर आधारित समाजवादी विचारक के रूप में जाने जाते हैं। सामाजिक राजनीतिक दर्शन में मार्क्सवाद (Marxism) उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व द्वारा वर्गविहीन समाज की स्थापना के संकल्प की साम्यवादी विचारधारा है।

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