मीराबाई का साहित्यिक योगदान क्या है? - meeraabaee ka saahityik yogadaan kya hai?

मीराबाई (1498-1546) सोलहवीं शताब्दी की एक कृष्ण भक्त और कवयित्री थीं। मीरा बाई ने कृष्ण भक्ति के स्फुट पदों की रचना की है। संत रैदास या रविदास उनके गुरु थे।

मीराबाई का जन्म सन 1498 ई॰ में पाली के कुड़की गांव में दूदा जी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर हुआ। ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं। मीरा का विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में हुआ। चित्तौड़गढ़ के महाराजा भोजराज इनके पति थे जो मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र थे। विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति का देहान्त हो गया। पति की मृत्यु के बाद उन्हें पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया, किन्तु मीरा इसके लिए तैयार नहीं हुईं। मीरा के पति का अंतिम संस्कार चित्तोड़ में मीरा की अनुपस्थिति में हुआ। पति की मृत्यु पर भी मीरा माता ने अपना श्रृंगार नहीं उतारा, क्योंकि वह गिरधर को अपना पति मानती थी।[3]

वे विरक्त हो गईं और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृन्दावन गई। वह जहाँ जाती थी, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग उन्हें देवी के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। मीरा का समय बहुत बड़ी राजनैतिक उथल-पुथल का समय रहा है। बाबर का हिंदुस्तान पर हमला और प्रसिद्ध खानवा का युद्ध उसी समय हुआ था। इन सभी परिस्थितियों के बीच मीरा का रहस्यवाद और भक्ति की निर्गुण मिश्रित सगुण पद्धति सर्वमान्य बनी।

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जन्म – 1498

जन्म भूमि – कुडकी, पाली, राजस्थान,

बचपन का नाम पेमल

मृत्यु – 1547 (मीरा में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गयी।)

अभिभावक- रत्नसिंह

पति- कुंवर- भोजराज ( उदयपुर के महाराणा सांगा के पुत्र)

गुरु/शिक्षक संत रविदास (माना जाता है कि इन्होंने जीव गोस्वामी से दीक्षा ली थी)

डॉ नगेंद्र ने इन्हें संप्रदाय निरपेक्ष भक्त कवयित्री कहा है।

कर्म भूमि- वृन्दावन

काल- भक्तिकाल

विषय – कृष्णभक्ति

Meerabai का जीवन परिचय

मीराबाई की प्रमुख रचनाएं

मीराबाई ने चार ग्रन्थों की भी रचना की थी-

‘बरसी का मायरा’

‘गीत गोविंद टीका’

‘राग गोविंद’

‘राग सोरठ’

मीराबाई की पदावली : मीराबाई का जीवन परिचय

मीराबाई के गीतों का संकलन “मीराबाई की पदावली” नामक ग्रन्थ में किया गया है, जिसमें निम्नलिखित खंड प्रमुख हैं-

नरसी जी का मायरा

मीराबाई का मलार या मलार राग

गर्बा गीता या मीराँ की गरबी

फुटकर पद

सतभामानु रूसण या सत्यभामा जी नुं रूसणं

रुक्मणी मंगल

नरसिंह मेहता की हुंडी

चरित

विशेष तथ्य

प्रियादास ने संवत् 1769 वि. में भक्तमाल की टीका ‘भक्तिरस बोधिनी’ में लिखा है कि मीरा की जन्म भूमि मेड़ता थी।

नागरीदास ने लिखा है कि मेड़ता की मीराबाई का विवाह राणा के अनुज से हुआ था।

कर्नल टॉड ने ‘एनलस एण्ड एंटिक्वटीज ऑफ़ राजस्थान’ में मीरा का विवाह राणा कुम्भा से लिखा है।

पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपने उदयपुर राज्य के इतिहास में लिखा है कि महाराणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज का विवाह मेड़ता के राव वीरमदेव के छोटे भाई रत्नसिंह की पुत्री मीराबाई के साथ संवत् 1573 वि. में हुआ था।

स्मरण रहे कि कर्नल टॉड अथवा उन्हीं के आधार पर जिन विद्वानों ने मीरा को कुम्भा की पत्नी माना है, वे दन्त कथाओं के आधार पर गलती कर गए हैं।

सर्वप्रथम विलियम क्रुक ने बताया कि वास्तव में मीराबाई राणा कुम्भा की पत्नी नहीं थीं, वरन् साँगा के पुत्र भोजराज की पत्नी थीं।

पण्डित रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में लिखा है कि- ‘इनका जन्म संवत् 1573 वि. में चौकड़ी नाम के एक गाँव में हुआ था और विवाह उदयपुर के कुमार भोजराज के साथ हुआ था।’

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने इनका जन्म सन् 1498 ई. (संवत् 1555 वि.) के लगभग माना है।

मीरा की भक्ति माधुर्य- भाव की भक्ति है।

वह अपने इष्टदेव कृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रुप में करती थी।

उनका मानना था कि इस संसार में कृष्ण के अलावा कोई पुरुष है ही नहीं।

कृष्ण के रुप की दीवानी थी।

“मीराबाई रैदास को अपना गुरु मानते हुए कहती हैं-

‘गुरु मिलिया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।’

मीराबाई और तुलसीदास का पत्र-व्यवहार

मीरा ने तुलसीदास को पत्र लिखा था-

“स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।”

मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसी दास ने इस प्रकार दिया-

“जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।”

मीराबाई की काव्य शैली एवं भाषा शैली : मीराबाई का जीवन परिचय

मीरा के काव्य की भाषा सामान्यतः राजस्थानी मिश्रित ब्रिज है।

उनके पदों पर गुजराती का विशेष पुट है।

खड़ी बोली और पंजाबी का भी उनकी कविता पर पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है।

संगीत और छंद विधान की दृष्टि से मीरा का काव्य उच्च कोटि का है उनके पद विभिन्न राग रागिनियों में बद्ध है।

मीराबाई का साहित्य में क्या स्थान है?

मीराबाई को गुजराती कवयित्री माना जाता है क्योंकि उनकी काव्य की भाषा में गुजराती पूर्वी हिन्दी तथा पंजाबी के शब्दों की बहुतायत है पर इनके पदों का प्रभाव पूरे भारतीय साहित्य में दिखला देता है। इनके पदों में अलंकारों की सहजता और गेयता अद्भुत हैं जो सर्वत्र माधुर्य गुण से ओत-प्रोत हैं।

कबीर और मीराबाई का साहित्यिक परिचय?

काव्य रचना मीरा का कभी भी उद्देश्य नहीं रहा, इसलिए मीरा का कला पक्ष अनगढ़ है साहित्यिक ब्रजभाषा होते हुए भी उन पर राजस्थानी, गुजराती भाषा का विशेष प्रभाव है। मीराबाई ने गीति काव्य की रचना की तथा उन्होंने कृष्णभक्त कवियों की परम्परागत पदशैली को अपनाया। मीराबाई के सभी पद संगीत के स्वरों में बँधे हुए हैं।

मीराबाई की प्रसिद्ध रचना कौन सी है?

मीराबाई ने भगवान् श्रीकृष्ण के प्रेम में अनेक भावपूर्ण गेय पदोँ की रचना की है जिसके संकलन विभिन्न नामों से प्रकाशित हुए हैं। नरसीजी का मायरा, राम गोविन्द, राग सीरठ के पद, गीत गोविन्द की टीका मीराबाई की रचनाएँ हैं।

मीरा के काव्य का मुख्य सार क्या है?

इनके काव्य का वर्ण्य-विषय एकमात्र नटवर नागर श्रीकृष्ण का मधुर प्रेम है। विनय तथा प्रार्थना सम्बन्धी पद- जिनमें प्रेम सम्बन्धी आतुरता और आत्मस्वरूप समर्पण की भावना निहित है। कृष्ण के सौन्दर्य वर्णन सम्बन्धी पद- जिनमें मनमोहन श्रीकृष्ण के मनमोहक स्वरूप की झाँकी प्रस्तुत की गयी है।

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