लेखक ने पर्णकुटी में अंदर जाने से पहले क्या किया? - lekhak ne parnakutee mein andar jaane se pahale kya kiya?

परिचय : गाँधी वादी चिंतक , गोवा मुक्ति आंदोलन के कार्य कर्ता केलेकर ने अपनी रचनाओं में सामान्य जन-जीवन   के विविध पक्षों , मान्यताओं और व्यक्तिगत विचारों को देश और समाज के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है ।  कोंकणी , मराठी , हिन्दी और गुजराती में साहित्य लेखन किया है । गोवा कला अकादमी के साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किए गए ।

मुख्य रचनाएँ:  कोंकणी में उजवाढाचे सूर,  समिधा , सांगली ,ओथांबे ;मराठी में  कोंकणीचें राजकरण, जापान जसा दिसला और हिंदी में पतझड़ में टूटी पत्तियाँ ।

झेन की देन

जापान में मैंने अपने एक मित्र से पूछा, “यहाँ के लोगों को कौन-सी बीमारियाँ अधिक होती हैं?” “मानसिक” उन्होंने जवाब दिया, “यहाँ के अस्सी फ़ीसदी लोग मनोरुग्ण है। ”

“इसकी क्या वजह है?”

कहने लगे, “हमारे जीवन की रफ्तार बढ़ गई है। यहाँ कोई चलता नहीं, बल्कि दौड़ता है। कोई बोलता नहीं, बकता है। हम जब अकेले पड़ते हैं तब अपने आपसे लगातार बड़बड़ाते रहते हैं। अमेरिका से हम प्रतिस्पर्धा करने लगे। एक महीने में पूरा होने वाला काम एक दिन में ही पूरा करने की कोशिश करने लगे। वैसे भी दिमाग की रफ़्तार हमेशा तेज हो रहती है। उसे ’्स्पीड का इंजन’ लगाने पर वह हजार गुना अधिक रफ़्तार से दौड़ने लगता है। फिर एक क्षण ऐसा आता है जब दिमाग का तनाव बढ़ जाता है और पूरा इंजन टूट जाता है। यही कारण है जिससे मानसिक रोग यहाँ बढ़ गए हैं।… “

भावार्थ : लेखक रवींद्र केलेकर जी को जब जापान जाने का अवसर मिला , तो उन्होंने वहाँ अपने जापानी मित्र से वहाँ की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ जाननी चाहीं । प्रत्युत्तर में उन्हें जानकारी हुई कि जापान में सबसे अधिक मानसिक बीमारियाँ होती हैं ।वहाँ लगभग 80% लोग मनोरुग्णता के शिकार हैं । इसका कारण है कि जापानी लोगों के जीवन की रफ़्तार बहुत अधिक बढ़ गई है । वे लोग अमेरिका से स्पर्धा करना चाहते हैं । आर्थिक रूप से वे अमेरिका को हराना चाहते हैं । [ अमेरिका का द्वारा जापान में एटम बम गिराने की घटना के बाद से जापानी अमेरिका से विरोध की भावना रखते हैं ।] इसी लिए वे ज्यादा से ज्याद काम करते हैं । वे एक दिन में एक माह का काम करना चाहते हैं , जिससे उनके दिमाग पर तनाव लगातार बढ़ता जाता है । और अधिक तनाव के परिणामस्वरूप ही मानसिक रोग होते हैं ।

शाम को वह मुझे एक ‘टी-सेरेमनी’ में ले गए। चाय पीने को यह एक विधि है। जापानी में उसे चा-नो यू कहते हैं।

वह एक छः मंजिली इमारत थी जिसकी छत पर दफ़्ती की दीवारोंवाली और तातामी (चटाई) की जमीनवाली एक सुंदर पर्णकुटी थी। बाहर बेढब-सा एक मिट्टी का बरतन था। उसमें पानी भरा हुआ था। हमने अपने हाथ-पाँव इस पानी से धोए। तौलिए से पोंछे और अंदर गए। अंदर ‘चाजीन’ बैठा था। हमें देखकर वह खड़ा हुआ। कमर झुकाकर उसने हमें प्रणाम किया। दो झो… (आइए, तशरीफ़ लाइए) कहकर स्वागत किया। बैठने की जगह हमें दिखाई ।अँगीठी सुलगाई। उस पर चायदानी रखी। बगल के कमरे में जाकर कुछ बरतन ले आया। तौलिए से बरतन साफ़ किए। सभी क्रियाएँ इतनी गरिमापूर्ण ढंग से की कि उसकी हर भंगिमा से लगता था मानो जयजयवंती के सुर गूँज रहे हो। वहाँ का वातावरण इतना शांत था कि चायदानी के पानी का खदबदाना भी सुनाई दे रहा था।

भावार्थ : शाम के समय लेखक के मित्र उन्हें चाय पिलाने ले गए } जापान में चाय पीने का एक विशेष तरीका होता है ,जिसे चा -नो-यू कहते हैं । चाय की यह दुकान एक छह मंजिली इमारत के छत पर थी । इसे लकड़ी की दफ़्ती(movable , temporary wooden walls ) से बनाया गया था और नीचे चटाइयाँ बिछीं थीं । कुल मिला कर इसे एक पर्णकुटी(पत्तों से बनीं झोंपड़ी ) का स्वरूप दिया गया था । बाहर एक बेडौल सा बरतन , जिसमें पानी रखा था उस से लेखक और उनके साथ आए दो जापानी मित्रों ने हाथ पाँव धोए और तौलिए से पोंछ कर अंदर गए । चाय पिलाने वाला व्यक्ति , जिसे जापानी भाषा में चाज़ीन कहते हैं , उसने कमर झुका कर उनका स्वागत किया और बैठने का आग्रह किया। उसने अंगीठी( a kind of stove, where woodfire can be lit ) जलाकर चायदानी उस पर रखी और पास के कमरे से बरतन लाकर तौलिए से साफ़ किए इन सब कार्यों को उसने बहुत ही सलीके से किया कि लेखक को लगा कि मानो जयजयवंती के सुर गूंज रहे हों । [ जयजयवंती रात्रि में अथवा वर्षा ऋतु में गाया जाने वाला शुद्ध स्वरों युक्त एक राग का नाम है ] लेखक ने बताया कि वहाँ इतनी शांति थी कि पानी के उबलने की आवाज़ भी साफ़ सुनाई दे रही थी ।

चाय तैयार हुई। उसने वह प्यालों में भरी। फिर वे प्याले हमारे सामने रखे दिए गए। वहाँ हम तीन मित्र ही थे। इस विधि में शांति मुख्य बात होती है। इसलिए वहाँ तीन से अधिक आदमियों प्रवेश नहीं दिया जाता। प्याले में दो घूँट से अधिक चाय नहीं थी। हम ओठों से प्याला एक-एक बूँद चाय पीते रहे। करीब डेढ़ घंटे तक चुसकियों का यह सिलसिला चलता रहा ।

पहले दस-पंद्रह मिनट तो मैं उलझन में पड़ा। फिर देखा, दिमाग की रफ़्तार धीरे-धीरे धीमी पड़ती जा रही है। थोड़ी देर में बिलकुल बंद भी हो गई। मुझे लगा, मानो अनंतकाल में में हूँ। यहाँ तक कि सन्नाटा भी मुझे सुनाई देने लगा।

भावार्थ : चाय तैयार होने पर चाज़ीन ने वह प्यालों में भरी और प्याले उन लोगों के सामने रख दिए । चाय पीने की इस प्रक्रिया में शांति ही प्रमुख बात है इसलिए वहाँ एक समय में तीन से अधिक लोगों को प्रवेश नहीं मिलता । प्याले में नाम मात्र की चाय थी जिसे लेखक और उनके साथी बूँद -बूँद कर लगभग डेढ़ घंटे तक पीते रहे । लेखक ने इस अनुभव को बताते हुए लिखा कि इस दौरान उनके मस्तीष्क में अभूतपूर्व अनुभव हुए । उनके मस्तिष्क धीरे-धीरे शांत हो गया और उन्हें लगा मानो वे अनंतकाल में हैं । लेखक को सन्नाटे की आवाज़ का भी अनुभव हुआ ।

अकसर हम या तो गुज़रे हुए दिनों की खट्टी-मीठी यादों में उलझे रहते हैं या भविष्य के सपने देखते रहते हैं। हम या तो भूतकाल में रहते हैं या भविष्यकाल में। असल में दोनों काल मिथ्या हैं। एक चला गया है, दूसरा आया नहीं है। हमारे सामने जो वर्तमान क्षण है, वही सत्य है उसी में जीना चाहिए। चाय पीते-पीते उस दिन मेरे दिमाग से भूत और भविष्य दोनों काल उड़ गए थे। केवल वर्तमान क्षण सामने था। और वह अनंतकाल जितना विस्तृत था।

जीना किसे कहते हैं, उस दिन मालूम हुआ।

झेन परंपरा की यह बड़ी देन मिली है जापानियों को!

भावार्थ : लेखक कहते हैं कि मनुष्य अपने जीवन में या तो भूतकाल में जीता है या भविष्य में ।जबकि दोनों ही कालों का कोई अस्तित्व नहीं है । एक बीत गया और एक अभी आया ही नहीं किंतु वर्तमान काल को हम अनुभव नहीं कर पाते । टी सेरेमनी का अभूतपूर्व अनुभव यह रहा कि लेखक के दिमाग से उस क्षण भूतकाल और वर्तमान काल दोनों ही गायब हो गए और वह उसी क्षण वर्तमान क्षण को अनुभव कर पाए । लेखक ने उस क्षण अनंतकाल का अनुभव किया। इस घटना से लेखक को जीवन जीने का सही तरीका मालूम हुआ ।

सारांश :

’ झेन की देन ’ पाठ रवींद्र केलेकर का एक लघु संस्मरण है । इसमें लेखक ने जापान जाने की एक घटना का वर्णन किया है । लेखक और उनके जापानी मित्र की बातों का सार यह निकलता है कि अत्यधिक महत्त्वाकांक्षाओं ने मनुष्य के मन मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डाला है । जिस से दिमागी तनाव बढ़ता जा रहा है और लोग मनोरुग्ण हो रहे हैं । इस तनाव को दूर करने के लिए जापानी लोग टी सेरेमनी का आयोजन करते हैं जिसमें चाय पीने के माध्यम से मस्तिष्क को धीरे-धीरे शांत कर दिया जाता है और तब मनुष्य कुछ क्षणों के लिए भूत और भविष्य काल से मुक्त हो केवल वर्तमान में रह जाता है । लेखक ने उस क्षण को जिसमें हम सिर्फ़ वर्तमान में होते हैं , अनंतकाल जितनाअ विस्तृ‍त बताया है । इस अनुभव से लेखक को सीख मिली कि हमें भूतकाल और भविष्यकाल से मुक्त हो केवल वर्तमान में जीने का अभ्यास करना चाहिए । जापान में मस्तिष्क को शांत करने वाली यह पद्धति झेन संतों द्वारा खोजी गई है , इसीलिए लेखक ने चा-नो-यू को जापानियों के लिए झेन परंपरा की सबसे बड़ी देन बताया है ।

पर्णकुटी के बाहर क्या रखा था और उसमें क्या था?

Solution : पर्णकुटी के बाहर मिट्टी का एक बेढब-सा बर्तन रखा था, जिसमें पानी भरा था। लेखक और उसके साथियों ने उस पानी से अपने हाथ पाँव धोए।

प्र 6

Answer: जापान में जहाँ चाय पिलाई जाती है, उस स्थान की यह विशेषता है कि वह एक पर्णकुटी जैसा सजा होता है तथा वहाँ बहुत शांति होती है। इस पर्णकुटी जैसे सजे स्थान पर केवल तीन लोग बैठकर चाय पी सकते हैं। यहाँ पर स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है।

पर्णकुटी के अंदर कौन बैठा था?

अंदर 'चाजीन' बैठा था । हमें देखकर वह खड़ा हुआ । कमर झुकाकर उसने हमें प्रणाम किया ।

पर्णकुटी में कितने आदमियों को प्रवेश दिया जाता था?

Answer: भाग-दौड़ की ज़िदंगी से दूर भूत-भविष्य की चिंता छोड़कर शांतिमय वातावरण में कुछ समय बिताना इस जगह का उद्देश्य होता है। इसलिए इसमें केवल तीन आदमियों को प्रवेश दिया जाता था

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