मृत्यु के समय
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ।8-24।
जो योगी ज्योति, अग्नि, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण, के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरूषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से ज्योर्तिमय, अग्निमय, शुक्ल पक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है (उनके ज्ञान की तुलना प्रकाश की मात्रा से की है)। ऐसे आत्मवान विश्वात्मा परमात्मा हुए पुरुष, अव्यक्त हो जाते हैं। स्वयं परम ब्रह्म हो जाते हैं।
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ।8-25।
धुंआ, रात्रि, कृष्ण पक्ष एवं दक्षिणायन के छह माहों में जो देह त्यागते हैं, वह चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त करके पुनः लौटते हैं अर्थात जिन सामान्य मनुष्यों व योगियों को आत्म ज्ञान नहीं होता उनके अन्दर अज्ञान की स्थिति धुएं, रात्रि, कृष्ण पक्ष एवं दक्षिणायन के छःमाह जैसी तमस युक्त (अज्ञान मय) होती है। वह तमस के कारण अन्ध लोकों अर्थात अज्ञान में भटकते रहते हैं, कालान्तर में उनके सतकर्मों के कारण जो उन्हें चन्द्र ज्योति अर्थात ज्ञान का प्रकाश मिलता है उसके परिणाम स्वरूप इस संसार में पुनः जन्म लेते हैं।
शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः ।8-26।
इस जगत में दो प्रकार के मार्ग हैं 1 - शुक्ल मार्ग अर्थात ज्ञान मार्ग जहाँ ज्ञानी देह छोड़ने से पहले आत्म स्थित हो जाता है।
2 - कृष्ण मार्ग जहाँ सकामी योगी व पुरुष शुभ और अशुभ कर्मों के कारण अज्ञान के मार्ग में जाता है तथा ज्ञान का अंश प्राप्त होने पर कर्मानुसार पुनः इस संसार में जन्म लेता है।
योगी का देह त्याग
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ।8-12।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ।8-13।
इन्द्रियों के द्वारों को बन्द करके अर्थात इन्द्रियों की बाहरी वृत्ति को समाप्त करते हुए मन को हृदय स्थल में स्थित करके, (मनुष्य की देह में बांयी ओर हृदय होता है उसके विपरीत दायी ओर जीवात्मा देह में अत्यधिक क्रियाशील होता है। इस स्थान में स्वभाववत् “मैं” “मैं” का स्फुरण होता है अतः ध्यान योग में इस स्थान (हृदय स्थल) को कई योगियों ने अत्याधिक महत्व दिया है। यहाँ मन को जीवात्मा में केन्द्रित करते हुए उसी चिन्तन को भृकुटि के मध्य में स्थापित करे। चिन्तन स्थापित होते ही वहाँ प्राण स्वतः स्थापित हो जाते हैं। भृकुटि के मध्य आत्म स्वरूप का चिन्तन करते हुए उसे उसके नाम “ऊँ“ से अपने चित्त में पुकारे क्योंकि ऊँ परमात्मा का नाम है और आत्मा परमात्मा एक हैं। ऊँकार स्वरूप परमात्मा का चिन्तन करते हुए तथा ऊँ का भी लय करते हुए (अक्षर परब्रह्म जो मेरा स्वरूप है अर्थात वह और मैं एक हैं), तत्पश्चात अपने जन्म, स्थिति एवं अन्त के चिन्तन का भी लोप करते हुए; इस प्रकार ब्रह्म से तदाकार होता हुआ, इस देह का त्याग करता है वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। इसे ही परम गति कहते हैं कबीर इस अवस्था के लिए कहते हैं:- ‘सुरति समानी निरति में, निरति रही निरधार’। (यह अवस्था निरन्तर अभ्यास और वैराग्य के कारण ही प्राप्त होती हैं कोई मनुष्य यह समझे कि मृत्यु के समय यह कर लूँगा या वृद्ध होने पर यह प्रयास करूंगा तो मन और इन्द्रियों की प्रबल गति के कारण उसके लिए योग की यह स्थिति असम्भव है)। निरन्तर यत्न और अभ्यास से मृत्यु से पूर्व ही यह अवस्था योगी प्राप्त करते हैं।
मृत्यु के बाद पुनर्जन्म
अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ।8-5।
हे अर्जुन, मृत्यु के समय भी जो मुझ अधियज्ञ परमेश्वर को स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है वह स्वयं अधियज्ञ स्वरूप विश्वात्मा हो जाता है। ‘यथा मति तथा गति‘ के नियम की पुष्टि की है। जो समझ जाता है कि देह नष्वर है, जीवात्मा ब्रह्म ही है, भ्रम वश और कर्म वश आत्मा (ब्रह्म) को जीव भाव की प्राप्ति हुयी है, वह स्वयं अपने देह में बैठे साक्षी आत्मतत्व में स्थित होकर रमण करते हुए, इस शरीर को त्यागते हुए आत्म स्वरूप हो जाता है क्योंकि उसके कर्म साक्षी भाव से स्थित रहने के कारण नष्ट हो जाते हैं।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ।8-6।
हे अर्जुन मृत्यु के समय जो जिस जिस भाव का स्मरण करता है, देह को त्यागकर उसी भाव को प्राप्त होता है। मरने के समय जिस विषय में बुद्धि स्थित होती है तदनुसार मरणोपरान्त गति प्राप्त होती है। देह बुद्धि है तो देह प्राप्त होगा। इसी प्रकार जिस कर्म में बुद्धि है