भीष्म साहनी की कहानियां जिस यथार्थ को व्यक्त करती है उसे वे प्राय रोजमर्रा की छोटी-छोटी घटनाओं के माध्यम से चित्रित करते हैं। यह हिंदी के उन कहानीकारों में से है जिन्होंने मनुष्य को उसके सपनों, उसके तमाम सुख-दुख, हार जीत को उसके संघर्षों और उनकी उपलब्धियों के साथ प्रस्तुत किया है। उनकी कहानियां सीधी जिंदगी से जुड़ी कहानियां है जिसमें मानवीय संवेदनाओं की रागात्मकता मौजूद है।
मध्य वर्गीय चरित्र की विसंगतियों को उद्घाटित करते हुए डॉ. गोपाल राय लिखते हैं कि:-“इस कहानी में मुख्य रूप से उस सांस्कृतिक ह्रास का अंकन किया गया है, जो मध्य वर्ग में औपनिवेशिक प्रभाव की देन था। पदोन्नति के लिए बड़े अधिकारी की बेहद निम्न स्तर की चाटुकारिता, यूरोपीय संस्कृति की भौड़ी नकल की चेष्टा, झूठी शान का दयनीय प्रदर्शन, उच्च पदाधिकारी के सामने भीगी बिल्ली और मातहतों के सामने शेर जैसा व्यवहार करने की मानसिकता, पुरानी पीढ़ी के प्रति अमानवीय व्यवहार आदि मध्यवर्गीय अंतर्वेधी अंकन इस कहानी में हुआ है, वह दूसरी कहानी में देखने को नहीं मिलता।”
आधुनिक दिखने की चाह में मध्यवर्गीय व्यक्ति किस प्रकार प्रदर्शनप्रिय होता जा रहा है यह भी कहानी में बखूबी दिखाया गया है। वह बूढ़ी मां चीफ़ की दावत के समय प्रदर्शन योग्य वस्तु नहीं बल्कि कूड़े की तरह कहीं छुपाने की वस्तु हो गई है अर्थात् उसे अपनी मां घर में पड़े किसी कोने में कूड़े करकट की भांति दिखाई देती है। उदाहरण के लिए-
“कुर्सियां, मेंज, तिपाइया, नैपकिन, फूल बरामदे में पहुंच गए। ड्रिंक का इंतजाम कर दिया गया। घर का फालतू सामान अलमारियों के पीछे और पलंगों के नीचे छिपाया जाने लगा। अचानक शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो गई, मां का क्या होगा?” यह कहानी प्रश्नचिन्ह लगाती है कि यह कैसी विडंबना है कि एक स्त्री मां की सामान और वह भी 'अनावश्यक सामान' तक की श्रेणी में डाल दी जाती है वह भी केवल आर्थिक उन्नति के लिए। आधुनिक पीढ़ी विशेषकर, मध्यवर्गीय कितना स्वार्थी हो गया है कि वह मनुष्य एवं रिश्तों को वस्तुओं की तरह प्रयोग कर रहा है। इस स्वार्थी वृत्ति को भीष्म साहनी ने बड़ी ही तीक्ष्णता के साथ व्यक्त किया है।
नामवर सिंह के शब्दों में:- “'चीफ़ की दावत’ में अपनी निरक्षर और बूढ़ी मां ही एक समस्या बन गयी जैसे घर का 'फालतू सामान' बल्कि सामान से भी बड़ी समस्या। सामान को छिपाना तो आसान है लेकिन इस जीवित सामान का क्या करें? और इस तरह शामनाथ एक कूड़े की तरह अपनी मां को इस घर से उस घर में छिपाता फिरता है।”
फालतू वस्तुओं में गिना गया मां का चरित्र जब चीफ़ के सामने अनायास ही आता है तब उनको वह पसंद आता है और मां द्वारा बनाई गई फुलकारी को वह बेहद पसंद करता है तब शामनाथ उसे कूड़े में पड़े हीरे की भांति पोंछ-पोंछ कर चीफ़ को दिखाता है। जिस मां को वह अपनी तरक्की में बाधक महसूस कर रहा था उसी मां की वजह से उसकी पदोन्नति होती है।मध्यवर्ग का प्रतीक 'शामनाथ' अपने दोहरेपन को दिखाते हुए मां की खुशामद करने में लग जाता है क्योंकि यदि मां खुश नहीं हुई तो फुलकारी नहीं बन पाएगी और चीफ़ खुश नहीं हुए तो उसकी तरक्की नहीं हो पाएगी। वह अपनी तरक्की मिलने की आड़ में मां को काम करने के लिए मजबूर कर देता है परंतु मां तो वही मां है पुरानी-परंपरागत, वह न तो पढ़ी-लिखी है,न मध्यवर्गीय और न ही आधुनिक। वह तो केवल मां है जिसे अपनी संतान की खुशी पर से मतलब है।
इस संदर्भ में मधु सिंह कहती है कि:-“शामनाथ मां को इस घर से उस घर तक छिपाता फिरता है। नवीनता यह है कि मां इस पर नाराज नहीं, क्योंकि वह भी अपने बच्चे के भविष्य के लिए चिंतित है पर अपनी परिस्थिति पर संकुचित अवश्य है”
आधुनिक समाज में अर्थ का वर्चस्व इतना बढ़ गया है कि मनुष्य उसके लिए संबंधों और भावनाओं को भूलता जा रहा है। शामनाथ की आंखें केवल पद और सुविधा के केंद्र पर टिकी है वह इसके अलावा और कुछ नहीं देख पाता। शामनाथ की पत्नी से लेकर शामनाथ के घर पार्टी में आए उसके सभी दोस्त अपने-अपने तरीकों से चीफ़ (जो यहां उच्चवर्ग का प्रतीक है) को आकर्षित करने में लगे हैं ताकि उनकी तरक्की का रास्ता खुल सके।
साहनी जी पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण का एक अलग रूप हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं इस अंधानुकरण के कारण भारतीय संस्कृति के ह्रास को तो उन्होंने दिखाया ही है साथ ही बुजुर्गों की उपेक्षा आदि समस्याओं को भी उजागर किया है। आधुनिकता की आड़ में पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित शामनाथ के लिए यह पारिवारिक संबंध, भावनाएं तथा त्याग सब संपत्ति के आगे मूल्यहीन हो चुके हैं।
मध्यम वर्ग का व्यक्ति चाहे कितना भी आधुनिक होने की कोशिश करें फिर भी परंपरागत संस्कारों से मुक्त नहीं हो पाता। बिरादरी, समाज तथा पड़ोसी का डर उसके मन में हमेशा सताता रहता है तभी तो शामनाथ चीफ़ के आगमन पर अपनी बूढ़ी मां को छिपाना तो चाहता है पर पड़ोस की विधवा के घर भेजने को तैयार नहीं है क्योंकि इससे लोग उसे बुरा भला कहेंगे तथा समाज में उसकी नाक कट जाएगी। ठीक इसी प्रकार जब मां हरिद्वार जाने की बात कहती है तो शामनाथ मना कर देता है उसे मां का घुट-घुट कर जीना मंजूर है पर बिरादरी की बदनामी झेलने को वह तैयार नहीं है।
वस्तुतः शामनाथ नवोदित भारतीय मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहा है जो अपनी बूढ़ी मां के प्रेम, स्नेह को एहसान मानता है और उसे चुका देना चाहता है। आज का शिक्षित युवा वर्ग माता-पिता को बोझ समझते हैं तथा अपनी सुख-सुविधा के लिए उन्हें छोड़ देते हैं। जो माता-पिता अपने बच्चों को काबिल बनाने के लिए अपना सर्वस्व तक समर्पित कर देते हैं वह बच्चे उसे केवल एहसान समझते हैं। शामनाथ भी यहां मां द्वारा किए गए समर्पण को चंद रुपयों में तोलता है। यह आधुनिक युग की बहुत बड़ी त्रासदी है कि युवा वर्ग बुजुर्गों के आदर सम्मान को भूल अपनों के साथ ही संवेदनहीन व्यवहार करने लगता है तथा पूरी तरह से पश्चिमी सभ्यता के रंग में ढलता जा रहा है।मां की सीधी-सादी बात पर कि उसके गहने बेटे की पढ़ाई में बिक गए यह सुनकर ही शामनाथ आग बबूला हो जाता है वह तिनककर बोलता है कि-
“यह कौन सा नया राग छेड़ दिया मां! सीधा कह दो नहीं है जेवर, बस। इससे पढ़ाई वढ़ाई का क्या ताल्लुक है? जो जेवर बिका, कुछ बनकर ही आया हूं, निरा लडूरा तो नहीं लौट आया। जितना दिया था, उससे दुगना ले लेना”
‘चीफ की दावत’ कहानी मध्यवर्गीय सोच की संकीर्णता, स्वार्थपरता, हृदयहीनता तथा अवसरवादिता की परतों को उघाड़ दिया है, साथ-साथ अपनी संतान द्वारा तिरस्कृत और मानसिक पीड़ा झेलने वाली बूढ़ी मां की दयनीय दशा को मार्मिकता के साथ उभारकर मध्यवर्ग को बेनकाब कर दिया दिया है।