अशोक के फूल निबंध की समीक्षा pdf - ashok ke phool nibandh kee sameeksha pdf

हजारी प्रसाद द्विवेदी की प्रतिभा बहुमुखी है। उन्होंने इतिहासकार, आलोचक, उपन्यासकार एवं निबन्धकार सभी रूपों में ख्याति अर्जित की है। उनके आठ निबन्ध-संकलन प्रकाशित हुए हैं जिनके कुछ निबन्ध भाषण के रूप में और कुछ आकाशवाणी से प्रसारित होने वाली वार्ता के रूप में लिखे गये थे। कुछ पत्र-पत्रिकाओं के लिए या स्वान्तःसुखाय लिखे गये। संस्कृत, साहित्य, इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन, भाषा-विज्ञान, ज्योतिष एवं प्राच्य-कला सभी क्षेत्रों में उनके ज्ञान का प्रसार था। उनके निबन्धों में इसका आभास मिलता है। उनके निबन्धों की प्रतिपादन शैली के दो रूप है-एक में विषय-विवेचन के क्रम में उनका व्यक्तित्व झाँकता है, दूसरी में विषय का प्रतिपादन ही प्रमुख है।

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पहले वर्ग के निबन्धों में लालित्य, भावोच्छवास, लेखक की आत्मीयता, कल्पना की उड़ान, कथा की रोचकता और कलात्मक अभिव्यक्ति के दर्शन होते हैं तो दूसरे वर्ग के निबन्धों में गूढ गम्भीर विचार, विषय का सूक्ष्म विवेचन विश्लेषण और लेखक का अपार ज्ञान और पांडित्य दिखलाई पड़ता है। पहले वर्ग के निबन्धों को व्यक्ति-व्यंजक या ललित निबन्ध और दूसरे वर्ग के निबन्धों को विचारपरक निबन्धों की संज्ञा दी जा सकती है।

ललित निबन्ध में बुद्धितत्त्व की अपेक्षा हृदय तत्त्व की, विचारों के स्थान पर भावों की प्रधानता रहती है। लेखक का आत्मतत्त्व, उसका व्यक्तित्व, निजी प्रतिक्रियाएँ, निजी रुचि, उसका भावोच्छवास दृष्टिगत होता है। ऐसे निबन्ध पाठक के हृदय को स्पर्श करते हैं और भावमग्न करते चलते हैं। विषय-वैविध्य और लेखक की मन:स्थिति के कारण उसमें कहीं धारा शैली और कहीं विक्षेप शैली का प्रयोग होता है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का ‘अशोक के फूल’ एक ललित निबन्ध है जिसमें भावना, कल्पना एवं अनुभूति की धारा प्रवाहित है। जिसमें लेखक के अनुभवों की दीर्घ परम्परा समाविष्ट है। वह नगण्य पदार्थो एवं सामान्य घटनाओं पर लिखते हुए अतीत में विचरण करने लगते हैं, भारतीय संस्कृति की विशिष्टताओं और प्राचीन अतीत के गौरव का स्मरण करने लगते हैं। ‘अशोक के फूल’ में भी लेखक इस फूल के माध्यम से भारतीय धर्म, साधना, इतिहास, कालिदास के साहित्य आदि सभी पर दृष्टिपात करता है। वह भारत के प्राकृतिक सौन्दर्य, वैभव-ऐश्वर्य, कला सभी क्षेत्रों में विचरण करने लगता है।

विषय का वस्तुनिष्ठ प्रतिपादन करते हुए भी द्विवेदी जी का व्यक्तित्व, उनका मानवतावादी दृष्टिकोण, उनकी भावुकता, सहृदयता, भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रति उनका लगाव आदि सभी अनेक निबन्धों में दृष्टिगोचर होता है। यही कारण है कि उनके निबन्ध में लालित्य की सघनता दिखलाई पड़ती है। कहीं वह अपनी धारणा व्यक्त करते हैं, कहीं विचार प्रकट करते हैं, कहीं अपनी सम्मति देते है तो कहीं मान्यता प्रकट करते हैं।

कहीं भावावेग में प्रशंसा करते हैं तो कहीं निराशा तथा आक्रोश प्रकट करते है। प्रकृति का सौन्दर्य तो उन्हें निरन्तर अभिभूत करता है। इस प्रकार उनकी तीव्र एवं गहन अनुभूति इस निबन्ध को ललित निबन्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

लेखक प्रकृति के सौन्दर्य को देखकर मुग्ध हो उठता है परन्तु लोगों की उसके प्रति उदासीनता लेखक को उदास कर जाती है। अशोक वृक्ष आज एक तरंगायित पत्ते वाले पुष्पहीन वृक्ष को कहा जाता है यह देखकर भी लेखक का मन क्षोभ से भर जाता है। लेखक प्राचीन साहित्य एवं शिल्प में अशोक वृक्ष के गौरव को स्मरण करके उसमें रमना चाहता है परन्तु यथार्थ का दबाव उसे रोकता है।

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लेखक का प्रकृति-प्रेम और प्राकृतिक दृश्यों का कवित्वपूर्ण सरस, मनोरम चित्रण भी इस निबन्ध के लालित्य को बढ़ाता है। लेखक की दृष्टि अशोक के फूल के सौन्दर्य को उकेरने के सन्दर्भ में इतिहास, कालिदास युग, मुगल सल्तनत, यक्ष-गन्धर्वो के ऐश्वर्य-वैभव, धर्म-साधनाओं, पुराण, महाभारत की कथाओं, आर्य और आर्येतर जातियों के संघर्ष इत्यादि सभी पर गई है। पुराने संस्मरण और कथाप्रसंग निबन्ध को और रोचक बना देते हैं। गम्भीर विचारों और शास्त्र ज्ञान के मरुस्थल में विचरण करने वाला पाठक रेगिस्तान में थके-प्यासे यात्री के समान उनका स्वागत करता है। ‘अशोक के फूल’ में शिव द्वारा कामदेव के भस्म की कथा और उसके धनुष के टूटकर गिरने और कोमल फूलों में बदल जाने की कथा निबन्ध को रोचक बनाती है।

मीठी चुटकियाँ लेने, व्यंग्य करने एवं हास्य के छींटों द्वारा पाठकों का मनोविनोद करने में भी द्विवेदी जी पीछे नहीं हैं। इस शैली के कारण गम्भीर, विचारपूर्ण विषय को भी वे सहज बना देते हैं। प्रस्तुत निबन्ध में एक जगह लेखक उन विद्वानों पर व्यंग्य करते हैं जिन्हें सुन्दर वस्तुओं को अभागा समझने में आनन्द मिलता है और जो जिस-तिस के बारे में भविष्यवाणी करते रहते हैं –“वे बहुत दूरदर्शी होते है। जो भी सामने पड़ गया उसके जीवन के अन्तिम मुहूर्त तक का हिसाब वे लगा लेते है।” निबन्ध के अन्त में पण्डितों का मजाक भी उड़ाते हैं-“पण्डिताई भी एक बोझ है-जितनी ही भारी होती है उतनी ही तेजी से डुबाती है।”

लेखक मानव की जीवन-शक्ति को तीव्र-दुर्दम एवं निर्मम धारा बताता है जो अपने अन्तर्गत सब कुछ बहाती हुई भी विशुद्ध और निर्मल रहती है-‘शुद्ध’ है केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा। वह गंगा की अबाधित-अनाहत धारा के समान सबको हजम करने के बाद भी पवित्र है।”

जहाँ-जहाँ लेखक अपने जीवन-दर्शन, साहित्य-आदर्श सामने रखता है पाठक लेखक को अपने समीप पाता है। शोषण पर आधारित सामन्त सभ्यता, सृष्टि का परिवर्तन चक्र, महाकाल, दुर्दम जिजीविषा, विषम क्षणों में उदास न होने का परामर्श आदि सभी कुछ पाठक को प्रभावित किये बिना नहीं रहता। वह उसकी अनुभूतियों को व्यापक बनाता है, संवेदनाओं को तीक्ष्ण करता है और चिन्तन-मनन के लिए बाध्य करता है।

अशोक के फूल निबंध में लेखक क्या संदेश देना चाहते हैं स्पष्ट कीजिए?

प्रस्तुत निबन्ध में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने 'अशोक के फूल' की सांस्कृतिक परम्परा की खोज करते हुए उसकी महत्ता प्रतिपादित की है। इस फूल के पीछे छिपे हुये विलुप्त सांस्कृतिक गौरव की याद में लेखक का मन उदास हो जाता है और वह उमड़-उमड़ कर भारतीय रस-साधना के पीछे हजारों वर्षों पर बरस जाना चाहता है।

अशोक के फूल निबंध का उद्देश्य क्या है?

'अशोक के फूल' नामक निबन्ध आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के सामाजिक एवं सांस्कृतिक चिन्तन की परिणति है। भारतीय परम्परा में अशोक के फूल दो प्रकार के होते हैं-श्वेत एवं लाल पुष्प। श्वेत पुष्प तान्त्रिक क्रियाओं की सिद्धि के लिए उपयोगी हैं, जबकि लाल पुष्प स्मृतिवर्धक माना जाता है।

अशोक के फूल से क्या अभिप्राय है?

अशोक कल्प में बताया गया है कि अशोक के फूल दो प्रकार के होते हैं - सफेद और लाल। सफेद तो तांत्रिक क्रियाओं में सिद्धिप्रद समझकर व्यवहृत होता है और लाल स्मरवर्धक होता है।

अशोक के फूल से जीवन के लिए क्या प्रेरणा मिलती है?

बहुत सोच-समझ कर कंदर्प-देवता ने लाखों मनोहर पुष्पों को छोड़कर सिर्फ पाँच को ही अपने तूणीर में स्थान देने योग्य समझा था। एक यह अशोक ही है। लेकिन पुष्पित अशोक को देखकर मेरा मन उदास हो जाता है। इसलिए नहीं कि सुन्दर वस्तुओं को हत्भाग्य समझने में मुझे कोई विशेष रस मिलता है।

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