अर्जुन ने कौन सा बाण चलाया? - arjun ne kaun sa baan chalaaya?

महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 90वें अध्याय में अर्जुन से बाण न चलाने के लिए कर्ण का अनुरोध करने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

विषय सूची

  • 1 अर्जुन और कर्ण का पुन: युद्ध
  • 2 अर्जुन से बाण न चलाने के लिए कर्ण का अनुरोध करना
  • 3 टीका टिप्पणी व संदर्भ
  • 4 सम्बंधित लेख
    • 4.1 महाभारत कर्ण पर्व में उल्लेखित कथाएँ

अर्जुन और कर्ण का पुन: युद्ध

संजय कहते हैं- राजन तदनन्तर कुन्तीकुमार अर्जुन के रथ से महान शक्तिशाली और तेजस्वी बाण निकलकर कर्ण के रथ के समीप प्रकट होने लगे। महारथी कर्ण ने अपने सामने आये हुए उन सभी बाणों को व्यर्थ कर दिया। उस अस्त्र के नष्ट कर दिये जाने पर वृष्णिवंशी वीर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- पार्थ! दूसरा कोई उत्तम अस्त्र छोड़ों। राधापुत्र कर्ण तुम्हारे बाणों को नष्ट करता जा रहा है। तब अर्जुन ने अत्यन्त भयंकर ब्रह्मास्त्र को अभिमंत्रित करके धनुषधर रखा। और उसके द्वारा बाणों की वर्षा करके अर्जुन ने कर्ण को आच्छादित कर दिया। इसके बाद भी वे लगातार बाणों का प्रहार करते रहे। तब कर्ण ने तेज किये हुए पैने बाणों से अर्जुन के धनुष की डोरी काट डाली। उसके क्रमशः दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवी, छठी, सातवीं और आठवीं डोरी भी काट दी। इतना ही नहीं, नवीं, दसवीं ओर ग्यारहवीं डोरी काट कर भी सौ बाणों का संधान करने वाले कर्ण को यह पता नहीं चला कि अर्जुन के धनुष में सौ डारियाँ लगी हैं। तदनन्तर दूसरी डोरी चढ़ाकर पाण्डुकुमार अर्जुन ने उसे भी आमंत्रित किया और प्रज्वलित सर्पों के समान बाणों द्वारा कर्ण को आच्छादित कर दिया। युद्धस्थल में अर्जुन के धनुष की डोरी काटना और पुनः दूसरी डोरी का चढ़ जाना इतनी शीघ्रता से होता था कि कर्ण को भी उसका पता नहीं चलता था। वह एक अद्भुत-सी घटना थी।

कर्ण अपने अस्त्रों द्वारा सव्यसाची अर्जुन के अस्त्रों का निवारण करके उन सबको नष्ट कर दिया और अपने पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए उसने अपने आप को अर्जुन से अधिक शक्तिशाली सिद्ध कर दिखाया। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्ण के अस्त्र से पीड़ित हुआ देखकर कहा- पार्थ! लगाकर अस्त्र छोड़ों। उत्तम अस्त्रों का प्रयोग करो और आगे बढ़े चलो।

अर्जुन से बाण न चलाने के लिए कर्ण का अनुरोध करना

तब शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन ने अग्नि और सर्प विष के समान भयंकर लोहमय दिव्य बाण को अभिमंत्रित करके उसमें रौद्रास्त्र का आधान किया और उसे कर्ण पर छोड़ने का विचार किया। नरेश्वर! इतने ही में पृथ्वी राधापुत्र कर्ण के पहिये को ग्रस लिया। यह देख राधापुत्र कर्ण शीघ्र ही रथ से उतर पड़ा और उद्योगपूर्वक अपनी दोनों भुजाओं से पहिये को थामकर उसे ऊपर उठाने का विचार किया। कर्ण ने उस रथ को ऊपर उठाते समय ऐसा झटका दिया कि सात द्वीपों से युक्त, पर्वत, वन और काननों सहित यह सारी पृथ्वी चक्र को निगले हुए ही चार अंगुल ऊपर उठ आयी। पहिया फँस जाने के कारण राधापुत्र कर्ण क्रोध से आँसू बहाने लगा और रोषोवेश से युक्त अर्जुन की ओर देखकर इस प्रकार बोला- महाधनुर्धर कुन्तीकुमार! दो घड़ी प्रतीक्षा करो, जिससे मैं इस फँसे हुए पहिये को पृथ्वी तल से निकाल लूँ। पार्थ! दैवयोग से मेरे इस बायें पहिये को धरती में फँसा हुआ देखकर तुम कापुरुषोचित कपटपूर्ण बर्ताव का परित्याग करो। कुन्तीकुमार! जिस मार्ग पर कायर चला करते हैं, उसी पर तुम भी न चलो; क्योंकि तुम युद्धकर्म में विशिष्ट वीर के रूप में विख्यात हो। पाण्डुनन्दन! तुम्हें तो अपने आपको और भी विशिष्ट ही सिद्ध करना चाहिये।[1]

अर्जुन! जो केश खोलकर खड़ा हो, युद्ध से मुँह मोड़ चुका हो, ब्राह्मण हो, हाथ जोड़कर शरण में आया हो, हथियार डाल चुका हो, प्राणों की भीख माँगता हों, जिसके बाण, कवच और दूसरे-दूसरे आयुध नष्ट हो गये हों, ऐसे पुरुष पर उत्तम व्रत का पालन करने वाले शूरवीर शस्त्रों का प्रहार नहीं करते हैं। पाण्डुनन्दन! तुम लोक में महान शूर और सदाचारी माने जाते हो। युद्ध के धर्मों को जानते हो। वेदान्त का अध्ययन रूपी यज्ञ समाप्त करके तुम उसमें अवभृथ स्नान कर चुके हो। तुम्हें दिव्यास्त्रों का ज्ञान है। तुम अमेय आत्मबल से सम्पन्न तथा युद्धस्थल में कार्तवीर्य अर्जुन के समान पराक्रमी हो। महाबाहो! जब तक मैं इस फँसे हुए पहिये को निकाल रहा हूँ, तब तक तुम रथारूढ़ होकर भी मुझ भूमि पर खडे़ हुए को बाणों की मार से व्याकुल न करो। पाण्डुपुत्र! मैं वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण अथवा तुमसे तनिक भी डरता नहीं हूँ। तुम क्षत्रिय के पुत्र हो, एक उच्च कुल का गौरव बढ़ाते हो; इसलिये तुमसे ऐसी बात कहता हूँ। पाण्डव! तुम दो घड़ी के लिये मुझे क्षमा करो।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. ↑ 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 90 श्लोक 93-110
  2. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 90 श्लोक 111-116

सम्बंधित लेख

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महाभारत कर्ण पर्व के अंतर्गत 90वें अध्याय में श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन की सर्पमुख बाण से रक्षा करने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

विषय सूची

  • 1 अर्जुन और कर्ण द्वारा घोर बाणवर्षा
  • 2 कर्ण द्वारा सर्पमुख बाण का प्रयोग करना
  • 3 ब्रह्मा द्वारा इंद्र को समझाना
  • 4 शल्य और कर्ण संवाद
  • 5 कृष्ण द्वारा अर्जुन की सर्पमुख बाण से रक्षा करना
  • 6 कर्ण के सर्पमुख बाण से अर्जुन का मुकुट गिरना
  • 7 मुकुट के गिर जाने पर अर्जुन की अद्भुत शोभा
  • 8 कर्ण और अश्वसेन का वार्तालाप
  • 9 अर्जुन और कृष्ण संवाद
  • 10 टीका टिप्पणी व संदर्भ
  • 11 सम्बंधित लेख
    • 11.1 महाभारत कर्ण पर्व में उल्लेखित कथाएँ

अर्जुन और कर्ण द्वारा घोर बाणवर्षा

संजय कहते हैं- राजन! तदनन्तर भागे हुए कौरव, जिनकी सेना तितर-बितर हो गयी थी, अर्जुन द्वारा धनुष से छोड़ा हुआ बाण जहाँ तक पहुँचता है, उतनी दूरी पर जाकर खडे़ हो गये। वहीं से उन्होंने देखा कि अर्जुन का बड़े वेग से बढ़ता हुआ अस्त्र चारों ओर बिजली के समान चमक रहा है। उस महासमर में अर्जुन कुपित होकर कर्ण के वध के लिये जिस-जिस अस्त्र का वेगपूर्वक प्रयोग करते थे, उसे आकाश में ही कर्ण अपने भयंकर बाणों द्वारा काट देता था। कर्ण का धनुष अमोघ था। उसकी डोरी भी बहुत मजबूत थी। वह अपने धनुष को खींचकर उसके द्वारा बाण समूहों की वर्षा करने लगा। कौरव सेना को दग्ध करने वाले अर्जुन के छोड़े हुए अस्त्र को उसने सुवर्णमय पंख वाले बाणों द्वारा धूल में मिला दिया। महामनस्वी वीर कर्ण ने परशुराम जी से प्राप्त हुए महाप्रभावशाली शत्रुनाशक आथर्वण अस्त्र का प्रयोग करके पैने बाणों द्वारा अर्जुन के उस अस्त्र को, जो कौरव सेना को दग्ध कर रहा था, नष्ट कर दिया। राजन! जैसे दो हाथी अपने भयंकर दाँतों से एक दूसरे पर चोट करते हैं, उसी प्रकार अर्जुन और कर्ण एक दूसरे पर बाणों का प्रहार कर रहे थे। उस समय उन दोनों में बड़ा भारी युद्ध होने लगा।

नरेश्वर! उस समय वहाँ अस्त्रसमूहों से आच्छादित होकर सारा प्रदेश सब ओर से भयंकर प्रतीत होने लगा। कर्ण और अर्जुन ने अपने बाणों की वर्षा से आकाश को ठसाठस भर दिया। तदनन्तर समस्त कौरवों और सोमकों ने भी देखा कि वहाँ बाणों का विशाल जाल फैल गया है। बाण जनित उस भयानक अन्धकार में उस समय उन्हें दूसरे किसी प्राणी का दर्शन नहीं होता था। राजन! सम्पूर्ण धनुर्धारियों में श्रेष्ठ वे दोनों नरवीर उस भयानक समर में अपने शरीरों का मोह छोड़कर बड़ा भारी परिश्रम कर रहे थे, वे दोनों ही शत्रुओं के लिये दुर्जय थे। युद्ध में तत्पर होकर एक दूसरे के छिद्रों की ओर दृष्टि रखने वाले उन दोनों वीरों को देखकर देवता, ऋषि, गन्धर्व, यक्ष और पितर सभी हर्ष में भरकर उनकी प्रशंसा करने लगे। राजन! निरन्तर अनेकानेक बाणों का संधान और प्रहार करते हुए वे दोनों धनुर्धर वीर सिद्ध किये हुए विविध अस्त्रों द्वारा युद्ध में अदभुत पैंतरे दिखाने लगे। इस प्रकार संग्राम भूमि में जूझते समय उन दोनों वीरों में पराक्रम, अस्त्र संचालन, मायावल तथा पुरुषार्थ की दृष्टि से कभी सूतपुत्र कर्ण बढ़ जाता था और कभी किरीटधारी अर्जुन। युद्धस्थल में एक दूसरे पर प्रहार करने का अवसर देखते हुए उन दोनों वीरों का दूसरों के लिये दुःसह वह घोर आघात-प्रत्याघात देखकर रणभूमि में खडे़ हुए समस्त योद्धा आश्चर्य से चकित हो उठे।

नरेन्द्र! उस समय आकाश में स्थित हुए प्राणी कर्ण और अर्जुन दोनों की प्रशंसा करने लगे। वाह रे कर्ण! शाबाश अर्जुन! यही बात अन्तरिक्ष में सब ओर सुनायी देने लगी।[1] राजन! उस समय घमासान युद्ध में जब रथ, घोडे़ और हाथियों द्वारा सारा भूतल रौंदा जा रहा था, उस समय पाताल निवासी अश्वसेन नामक नाग, जिसने अर्जुन के साथ वैर बाँध रखा था और जो खाण्डव दाह के समय जीवित बचकर क्रोधपूर्वक इस पृथ्वी के भीतर घूस गया था; कर्ण तथा अर्जुन का वह संग्राम देखकर बड़े वेग से ऊपर को उछला और उस युद्धस्थल में आ पहुँचा; उसमें ऊपर को उड़ने की भी शक्ति थी। नरेश्वर! वह यह सोचकर कि दुरात्मा अर्जुन के वैर का बदला लेने के लिये यही सबसे अच्छा अवसर है, बाण का रूप धारण करके कर्ण के तरकस में घुस गया। तदनन्तर अस्त्रसमूहों के प्रहार से भरा हुआ वह युद्धस्थल ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो वहाँ किरणों का जाल बिछ गया हो। कर्ण और अर्जुन ने अपने बाण समूहों की वर्षा से आकाश में तिलभर भी अवकाश नहीं रहने दिया। वहाँ बाणों का एक महाजाल-सा बना हुआ देखकर कौरव और सोमक सभी भय से थर्रा उठे। उस अत्यन्त घोर बाणान्धकार में उन्हें दूसरा कुछ भी गिरता नहीं दिखायी देता था।[2]

कर्ण द्वारा सर्पमुख बाण का प्रयोग करना

तदनन्तर सम्पूर्ण विश्व के विख्यात धनुर्धर वीर पुरुषसिंह कर्ण और अर्जुन प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध करते करते थक गये। उस समय आकाश में खड़ी हुई अप्सराओं ने दिव्य चँवर डुलाकर उन दोनों को चन्दन के जल से सींचा। फिर इन्द्र और सूर्य ने अपने कर-कमलों से उनके मूँह पोंछे। जब किसी तरह कर्ण युद्ध में अर्जुन से बढ़कर पराक्रम न दिखा सका और अर्जुन ने अपने बाणों की मार से उसे अत्यन्त संतप्त कर दिया, तब बाणों के आघात से सारा शरीर क्षत-विक्षत हो जाने के कारण वीर कर्ण ने उस सर्पमुख बाण के प्रहार का विचार किया। उत्तम बलशाली कर्ण ने अर्जुन को मारने के लिये ही जिस सुदीर्घकाल से सुरक्षित रख छोड़ा था, सोने के तरकस में चन्दन के चूर्ण के अंदर जिसे रखता था और सदा जिसकी पूजा करता था, उस शत्रुनाशक, झुकी हुई गाँठ वाले, स्वच्छ, महातेजस्वी, सुसंचित, प्रज्वलित एवं भयानक सर्पमुख बाण को उसने धनुष पर रखा और कान तक खींचकर अर्जुन की ओर संधान किया। कर्ण युद्ध में सव्यसाची अर्जुन का मस्तक काट लेना चाहता थ। उसका चलाया हुआ वह प्रज्वलित बाण ऐरावत कुल में उत्पन्न अश्वसेन ही था। उस बाण के छूटते ही सम्पूर्ण दिशाओं सहित आकाश जाज्वल्यमान हो उठा। सैकड़ों भयंकर उल्काएँ गिरने लगीं।

ब्रह्मा द्वारा इंद्र को समझाना

धनुष पर उस नाग का प्रयोग होते ही इन्द्रसहित सम्पूर्ण लोकपाल हाहाकार कर उठे। सूतपुत्र को भी यह मालूम नहीं था कि मेरे इस बाण में योगबल से नाग घुसा बैठा है। सहस्र नेत्रधारी इन्द्र उस बाण में सर्प को घुसा हुआ देख यह सोचकर शिथिल हो गये कि अब तो मेरा पुत्र मारा गया। तब मन को वश में रखने वाले श्रेष्ठभाव कमलयोनि ब्रह्मा जी ने उन देवराज इन्द्र से कहा-देवेश्वर! दुखी न होओ। विजय श्री अर्जुन को ही प्राप्त होगी।

शल्य और कर्ण संवाद

उस समय महामनस्वी मद्रराज शल्य ने कर्ण को उस भयंकर बाण का प्रहार करने के लिये उद्यत देख उससे कहा-कर्ण! तुम्हारा यह बाण शत्रु के कण्ठ में नहीं लगेगा; अतः सोच-विचारकर फिर से बाण का संधान करो, जिससे वह मस्तक काट सके।[2] यह सुनकर वेगशाली सूतपुत्र कर्ण के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उसने मद्रराज से कहा-कर्ण दो बाण का संधान नहीं करता। मेरे-जैसे वीर कपटपूर्वक युद्ध नहीं करते हैं। ऐसा कहकर कर्ण ने जिसकी वर्षों से पूजा की थी, उस बाण को प्रयन्तपूर्वक शत्रु की ओर छोड़ दिया और आक्षेप करते हुए उच्चस्वर से कहा अर्जुन! अब तू निश्चय ही मारा गया। अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी वह अत्यन्त भयंकर बाण कर्ण की भुजाओं से प्रेरित हो उसके धनुष और प्रत्यंचा से छूटकर आकाश में जाते ही प्रज्वलित हो उठा।[3]

कृष्ण द्वारा अर्जुन की सर्पमुख बाण से रक्षा करना

उस प्रज्वलित बाण को बड़े वेग से आते देख भगवान श्रीकृष्ण युद्धस्थल में खेल-सा करते हुए अपने उत्तम रथ को तुरंत ही पैर से दबाकर उसके पहियों का कुछ भाग पृथ्वी में घँसा दिया। साथ ही सोने के साज-बाज से ढके हुए चन्द्रमा की किरणों के समान श्वेतवर्ण वाले उनके घोडे़ भी धरती पर घुटने टेक झुक गये। उस समय आकाश में सब ओर महान कोलाहल गूँज उठा। भगवान मधुसूदन की स्तुति-प्रशंसा के लिये कहे गये दिव्य वचन सहसा सुनायी देने लगे। श्री मधुसूदन के प्रयत्न से उस रथ के धरती में घँस जाने पर भगवान के ऊपर दिव्यपुष्पों की वर्षा होने लगी और दिव्य सिंहनाद भी प्रकट होने लगे।

कर्ण के सर्पमुख बाण से अर्जुन का मुकुट गिरना

बुद्धिमान अर्जुन के मस्तक को विभूषित करने वाला किरीट भूतल, अन्तरिक्ष, स्वर्ग और वरुणलोक में भी विख्यात था। वह मुकुट उन्‍हें इन्द्र ने प्रदान किया था। कर्ण का चलाया हुआ वह सर्पमुख बाण रथ नीचा हो जाने के कारण अर्जुन के उसी किरीट में जा लगा। सूतपुत्र कर्ण ने सर्पमुख बाण के निर्माण की सफलता, उत्तम प्रयत्न और क्रोध- इन सबके सहयोग से जिस बाण का प्रयोग किया था, उसके द्वारा अर्जुन के मस्तक से उस किरीट को नीचे गिरा दिया, जो सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि के समान कन्तिमान तथा सुवर्ण, मुक्ता, मणि एवं हीरों से विभूषित था। ब्रह्मा जी की तपस्या और प्रयत्न करके देवराज इन्द्र के लिये स्वयं ही जिसका निर्माण किया था, जिसका स्वरूप बहुमूल्य, शत्रुओं के लिये भयंकर, धारण करने वाले के लिये अत्यन्त सुखदायक तथा परम सुगन्धित था, दैत्यों के वध की इच्छा से किरीटधारी अर्जुन को स्वयं देवराज इन्द्र ने प्रसन्नचित्त होकर जो किरीट प्रदान किया था, भगवान शिव, वरुण, इन्द्र और कुबेर- ये देवेश्वर भी अपने पिनाक, पाश, वज्र और बाणरूप उत्तम अस्त्रों द्वारा जिसे नष्ट नहीं कर सकते थे, उसी दिव्य मुकुट को कर्ण ने अपने सर्पमुख बाण द्वारा बलपूर्वक हर लिया। मन में दुर्भाव रखने वाले उस मिथ्या प्रतिज्ञ तथा वेगशाली नाग ने अर्जुन के मस्तक से उसी अत्यन्त अद्भुत, बलुमूल्य और सुवर्णचित्रित मुकुट का अपहरण कर लिया था।

सोने की जाली से व्याप्त वह जगमगाता हुआ मुकुट धमाके की आवाज के साथ धरती पर जा गिरा। जैसे अस्ताचल से लाल रंग मण्डल वाला सूर्य नीचे गिरता है, उसी प्रकार पार्थ का वह प्रिय, उत्तम एवं तेजस्वी किरीट पूर्वोक्त श्रेष्ठ बाण से मथित और विषाग्नि से प्रज्वलित हो पृथ्वी पर गिरा पड़ा। उस नाग ने नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित पूवोक्त किरीट को अर्जुन के मस्तक से उसी प्रकार बलपूर्वक हर लिया, जैसे इन्द्र का वज्र वृक्षों और लताओं के नवजात अंकुरों तथा पुष्पशाली वृक्षों से सुशोभित पर्वत के उत्तम शिखरों को नीचे गिरा देता है।[3]

मुकुट के गिर जाने पर अर्जुन की अद्भुत शोभा

भारत! जैसे पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग और जल- ये वायु द्वारा वेगपूर्वक संचालित हो महान शब्द करने लगते हैं, उस समय वहाँ जगत के सब लोगों ने वैसे ही शब्द का अनुभव किया और व्यथित होकर सभी अपने-अपने स्थान से लड़खड़ा कर गिर पड़े। मुकुट गिर जाने पर श्यामवर्ण, नवयुवक अर्जुन ऊँचे शिखर वाले नीलगिरी के समान शोभा पाने लगे। उस समय उन्हें तनिक भी व्यथा नहीं हुई वे अपने केशों को सफेद वस्त्र से बाँधकर युद्ध के लिये डटे रहे। श्वेत वस्त्र के केश बाँधने के कारण वे शिखर पर फैली हुई सूर्यदेव की किरणों से प्रकाशित होने वाले उदयाचल के समान सुशोभित हुए। अंशुमाली सूर्य के पुत्र कर्ण ने जिसे चलाया था, जो अपने ही द्वारा उत्पादित एवं सुरक्षित बाणरूपधारी पुत्र के रूप में मानों स्वयं उपस्थित हुई थी, गौ अर्थात नेत्रेन्द्रिय से कानों का काम लेने के कारण जो गोकर्णा (चक्षुःश्रवा) और मुख से पुत्र की रक्षा करने के कारण सुमुखी कही गयी हैं, उस सर्पिणी ने तेज और प्राणशक्ति से प्रकाशित होने वाले अर्जुन के मस्तक को घोड़ों की लगाम के सामने लक्ष्क करके (चलने पर भी रथ नीचा होने से उसे न पाकर) उनके उस मुकुट को ही हर लिया, जिसे ब्रह्मा जी ने स्वयं सुन्दर रूप से इन्द्र के मस्तक का भूषण बनाया था और जो सूर्य सदृश किरणों की प्रभा से जगत को परिपूर्ण (प्रकाशित) करने वाला था। उक्त सर्प को अपने बाणों की मार से कुचल देने वाले अर्जुन उसे पुनः आक्रमण का अवसर न देने के कारण मृत्यु के अधीन नहीं हुए।[4]

कर्ण और अश्वसेन का वार्तालाप

कर्ण के हाथों से छूटा वह अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी, बहुमूल्य बाण, जो वास्तव में अर्जुन के साथ वैर रखने वाला महानाग था, उनके किरीट पर आघात करके पुनः कर्ण के तरकस में घुसना ही चाहता था कि कर्ण की दृष्टि उस पर पड़ गयी। तब उसने कर्ण से कहा- कर्ण! तुमने अच्छी तरह सोच-विचारकर मुझे नहीं छोड़ा था; इसीलिये मैं अर्जुन के मस्तक का अपहरण न कर सका। अब पुनः सोच-समझकर, ठीक से निशाना साधकर रणभूमि में शीघ्र ही मुझे छोड़ों, तब मैं अपने और तुम्हारे उस शत्रु का वध कर डालूँगा। युद्धस्थल में उस नाग के ऐसा कहने पर सूतपुत्र कर्ण ने उससे पूछा- पहले यह तो बताओ कि ऐसा भयानक रूप धारण करने वाले तुम हो कौन? तब नाग ने कहा- अर्जुन ने मेरा अपराध किया है। मेरी माता का उनके द्वारा वध होने के कारण मेरा उनसे वैर हो गया है। तुम मुझे नाग समझो। यदि साक्षात वज्रधारी इन्द्र भी अर्जुन की रक्षा के लिये आ जाय तो भी आज अर्जुन को यमलोक में जाना ही पड़ेगा। इतना कहकर सूर्य के श्रेष्ठ पुत्र कर्ण ने युद्धस्थल में उस नाग से फिर इस प्रकार कहा-मेरे पास सर्पमुख बाण है। मैं उत्तम यत्न कर रहा हूँ और मेरे मन में अर्जुन के प्रति पर्याप्‍त रोष भी है; अतः मैं स्वयं ही पार्थ को मार डालूँगा। तुम सुख पूर्वक यहाँ से पधारो। राजन! युद्धस्थल में कर्ण के द्वारा इस प्रकार टका-सा उत्तर पाकर वह नागराज रोषपूर्वक उसके इस वचन को सहन न कर सका। उस उग्र सर्प ने अपने स्वरूप को प्रकट करके मन में प्रति हिंसा की भावना लेकर पार्थ के वध के लिये स्वयं ही उन पर आक्रमण किया।[4]

अर्जुन और कृष्ण संवाद

तब भगवान श्रीकृष्ण ने युद्धस्थल में अर्जुन से कहा- यह विशाल नाग तुम्हारा वैरी है। तुम इसे मार डालो। भगवान मधुसूदन के ऐसा कहने पर शत्रुओं के बल का सामना करने वाले गाण्डीवधारी अर्जुन ने पूछा- प्रभो! आज मेरे पास आने वाला यह नाग कौन है? जो स्वयं ही गरुड़ के मुख में चला आया है। श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! खाण्डव वन में जब तुम हाथ में धनुष लेकर अग्निदेव को तृप्त कर रहे थे, उस समय ही सर्प अपनी माता के मूँह में घुसकर अपने शरीर को सुरक्षित करके आकाश में उड़ता जा रहा था। तुमने उसे एक ही सर्प समझकर केवल इसकी माता का वध कर दिया। उसी वैर को याद करके वह अवश्य अपने वध के लिये ही तुमसे भिड़ना चाहता है। शत्रुसूदन! आकाश से गिरती हुई प्रज्वलित उल्का के समान आते हुए इस सर्प को देखा। संजय कहते हैं- राजन! तब अर्जुन ने रोषपूर्वक घूमकर उत्तम धार वाले छः तीखे बाणों द्वारा आकाश में तिरछी गति से उड़ते हुए उस नाग के टुकडे़-टुकडे़ का डाले। शरीर टूक-टूक हो जाने के कारण वह पृथ्वी पर गिर पड़ा।[5]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. ↑ 1.0 1.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 90 श्लोक 1-11
  2. ↑ 2.0 2.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 90 श्लोक 12-25
  3. ↑ 3.0 3.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 90 श्लोक 26-39
  4. ↑ 4.0 4.1 महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 90 श्लोक 50-63
  5. महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 90 श्लोक 50-63

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कर्ण ने अर्जुन पर कौन सा अस्त्र चलाया?

लेकिन कर्ण गुरु परशुराम के श्राप के कारण ब्रह्मास्त्र चलाना भूल गया था, नहीं तो वह युद्ध में अर्जुन का वध करने के लिए अवश्य ही अपना ब्रह्मास्त्र चलाता और अर्जुन भी अपने बचाव के लिए अपना ब्रह्मास्त्र चलाता और पूरी पृथ्वी का विनाश हो जाता। इस प्रकार गुरु परशुराम ने कर्ण को श्राप देकर पृथ्वी का विनाश टाल दिया।

कौन सा बाण अर्जुन का मुकुट उड़ा ले गया?

पश्चात्‌ महाभारत (कर्ण पर्व 66) में कर्णर्जुन युद्ध के समय अश्वसेन ने कर्ण के बाण पर आरोहण किया। लेकिन कृष्ण तत्काल स्थिति समझ गए और उन्होंने रथ के अश्वों को घुटनों के बल बैठा दिया। बाण चूका और अर्जुन की ग्रीवा की बजाए उसके मुकुट को टुकड़े-टुकड़े करता हुआ निकल गया

अर्जुन के धनुष का नाम क्या है?

महाभारत के महायुद्ध में अर्जुन ने गांडीव धनुष से कौरवों की व‌िशाल सेना को पराज‌ित करके व‌िजय हास‌िल की। इस धनुष के कारण ही उन द‌िनों सभी अर्जुन को महान धनुर्धर मानते थे।

महाभारत में अर्जुन का रथ कौन चला रहा था?

कथा के अनुसार अर्जुन का रथ श्रीकृष्ण चला रहे थे और स्वयं शेषनाग ने रथ के पहियों को पकड़ रखा था, ताकि दिव्यास्त्रों के प्रहार से भी रथ पीछे न खिसके। अर्जुन के रथ की रक्षा श्रीकृष्ण, हनुमानजी और शेषनाग कर रहे थे।

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