1826 का जूरी अधिनियम क्या था? - 1826 ka jooree adhiniyam kya tha?

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30 Questions 30 Marks 30 Mins

Last updated on Nov 4, 2022

SSC CHSL 2022 notification will be released on 6th December 2022. Earlier, the notification was scheduled to be released on 5th November 2022. Candidates can log in to their profiles and check individual marks between 26th November 2022 to 16th November 2022. The SSC is going to release the SSC CHSL notification on 6th December 2022 as declared by SSC. Candidates who have completed Higher Secondary (10+2) can appear for this exam for recruitment to various posts like Postal Assistant, Lower Divisional Clerks, Court Clerk, Sorting Assistants, Data Entry Operators, etc. The SSC Selection Process consists of Computer Based Exam, Descriptive Test and Typing/Skill Test. Recently, the board has released the SSC CHSL Skill Test Result for the 2020 cycle. The candidates who are qualified are eligible to attend the document verification. 

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 जीवन परिचय :

राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई, 1772 का बगाल हुगली जिले के राधानगर में हुआ था। राममोहन राय के परम पितामह कृष्णचन्द्र बैनरजी बंगाल के नवाब के यहां उच्च पद पर आसीन थे। उनकी सेवाओ से प्रभावित होकर नवाब ने उन्हें 'राय-राय' की सम्मानार्थ उपाधि से विभूषित किया। बाद में इस राय-राय' का संक्षिप्त रूप 'राय' इस परिवार के साथ जुड़ गया और इसने उनके जातिगत विभेद 'बैनर्जी' का स्थान ले लिया।
     राममोहन रमाकान्त राय एवं तारिणी देवी के पुत्र थे। उनका परिवार सुसभ्य तथा धर्मनिष्ट और ईश्वर भक्त था। लेकिन राममोहन राय पर वैष्णव भक्ति के वे धार्मिक संस्कार नहीं प़ड़े जिनकी एक परिवार आशा कर सकता है। उनकी दृष्टि में उनके पिता बहुत अधिक परम्परावादी थे । पिता मर्तिपूजक थे किन्तु वे इसके घोर विरोधी। स्वतन्त्र चिन्तन और अभिव्यक्ति के प्रबल समर्थक राममोहन अपने विचारों को स्पष्ट अभिव्यक्ति भी देते रहते थे परिणामतया उनकी अपने पिता से अनबन रहने लगी और इस स्थिति से बचने के लिए उन्होंने घर छोड देना ही अधिक उचित समझा।
     राममोहन बाल्यकाल से ही प्रतिभा के धनी थे और उनके पिता ने अपने पुत्र के लिए शिक्षा का श्रेष्ठ प्रबन्ध किया था। अतः पन्द्रह वर्ष की आयु में ही उन्होंने बंगला, फारसी, अरबी
हिनदी और संस्कृत का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। अंग्रेजी भाषा का अध्ययन उन्होंने 24 वर्ष की आयु में प्रारम्भ किया और 40 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते उन्होंने इस भाषा पर भी अधिकार प्राप्त कर लिया। ईसाई साहित्य के अध्ययन के निमित्त उन्होंने हेब्रू, लैटिन तथा न्यूनानी भाषा को भी सीखना प्रारम्भ किया। संस्कृत भाषा के वे प्रकाण्ड पण्डित थे और अरबी तथा फारसी के अधिकारपूर्ण ज्ञान के कारण ही उन्हें 'मौलवी' की उपाधि प्रदान की गई थी।
     सन् 1804 ई. में उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन रंगपूर में साधारण लिपिक के रूप में कार्य प्रारम्भ किया। अपनी प्रतिभा के बल पर उन्होंने रंगपुर की कलक्ट्री में दीवान
पद प्राप्त कर लिया, किन्तु सेवा में रहना उनका उद्देश्य नहीं था; अतः 1814 में उन्होंने नौकरी छोड़कर धार्मिक उत्थान और सत्य-शोधन के उद्देश्य से कलकत्ते में रहना शुरू कर दिया। यहां उनकी भेंट एच. एच. विल्सन, मैकॉले, सर विलियम जोन्स, सर हाइड ईस्ट और एडम जैसे अंग्रेजी विद्वानों से हुई। 1815 में उन्होंने ब्रह्मसूत्र का बंगला में
1816 में केन तथा ईशोपनिषद् का बंगला तथा अंग्रेजी अनुवाद। इस प्रकार 1818 तक उन्होंने कई संस्कृत ग्रन्थों के सम्बन्ध में अपनी व्याख्या प्रकाशित की। 1820-21 के वर्षों में उन्होंने कई ईसाई धर्म पुस्तकों पर अपनी व्याख्या प्रकाशित की, जिसने काफी विवाद उत्पन्न कर दिया। नारी अधिकार, भाषण स्वतन्त्रता और समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता, आदि के लिए उन्होंने निरन्तर संघर्ष किया। उन्होंने बंगला में 'सम्बाद कौमुदी' तथा फारसी में 'मिरात-उल- अखबार' नामक दो पत्र निकाले जिनमें साहित्यिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक विषयों पर लेख प्रकाशित होते थे।
     राममोहन राय ने 1815 ई. में धर्म और दर्शन के विद्वानों की एक प्रकार की विचारगोष्ठी के रूप में 'आत्मीय सभा' की स्थापना की।1828 ई. में उन्होंने 'ब्रद्म समाज' की स्थापना की, जो उनके जीवन की सबसे अधिक महत्वपूर्ण घटना थी। यद्यपि 'ब्रह्म समाज' की स्थापना के बाद वे केवल 4 वर्ष ही जीवित रहे. तथापि "बह्य समाज के विचार क्रमशः बंगाल के बाहर पू्दूर तक फैल गए और उन्होंने उदारतावादः तर्कवाद और आधुनिकता का वह वातावरण तैयार किया, जिसने भारतीय चिन्तन में क्रान्ति उत्पन्न कर दी।
      बुद्धिवाद और उदारवाद के इस यात्री ने 15 नवम्बर,. 1830 को समुद्री मार्ग से इंग्लैण्ड प्रस्थान किया। इंग्लैण्ड पहुंचने पर उनका हार्दिक स्वागत किया गया। विख्यात अंग्रेज दार्शनिक और विधि सुधारक जेरेमी बेन्धम से उनकी घनिषठ मैत्री हो गई तथा स्वयं ब्रिटिश सम्राट ने उनका  सम्मान किया। उनके इंग्लैण्ड आवास  काल के समय ही प्रथम सुधार अधिनियम, 8. (Reforms Act 1832) पारित हुआ। उन्होंने इसका स्वागत किया और कहा कि उत्पीड़न, अन्याय तथा अत्याचार पर स्वतन्त्रता, न्याय और सम्यकुता की विजय है।" राममोह राय इंग्लैण्ड से फ्रांस गए, और वहां वे बीमार, पड़ गए। वे पुनः इंग्लैण्ड लौट आए और 20सितम्बर, 1833 को ब्रिस्टल में उनका स्वर्गवास हो गया।

राजा राम मोहन राय के राजनीतिक विचार :

राममोहन राय का कार्यक्षेत्र मुख्यतया धार्मिक और सामाजिक जीवन था, किंतु राजनीतिक  सन्दर्भों से कभी भी अपने आपको पृथक नहीं रखा। उन्हें देश-विदेश की, विशेष से भारत और इंगलैण्ड की राजनीति में गहरी रुचि और गहरा ज्ञान था। राजनीतिक जाग्रति  की दिशा में चाहे उन्होंने प्रत्यक्ष कार्य न किया हो, धार्मिक और सामाजिक जाग्रति की दिशा  में उनके द्वारा किए गए कार्यों ने 'राजनीतिक जाग्रति' को जन्म देकर उन्हें 'नवीन भारत सन्देशवाहक' (Prophet of New India) बना दिया था। राममोहन राय के पूर्व सम्पूर्ण हे"

की तो क्या बात, कलकत्ता जैसे महानगर में भी कोई राजनीतिक जीवन नहीं था। जनता में अपने नागरिक अधिकारों के प्रति कोई विचार नहीं था और विदेशी हुकूमत के सामने अपनी शिकायतें रखने की बात कोई सोचता भी नहीं था। ऐसे समय में राममोहन राय ने देश की राजनीति के विभिन्न पक्षों पर ध्यान दिया और विविधसमस्याओं के सम्बन्ध में अपने बुद्धिमत्तापूर्ण विचार और समस्याओं के निदान शासन के सम्मुख रखे। उनके द्वारा प्रस्तुत निदानों और सुझावों को चाहे शासन ने स्वीकार न किया हो, पर उस काल में अधिक महत्व तो इस बात का था कि एक भारतीय ने प्रशासकीय दोषों के प्रति अपनी और भारतीय जनता

की चिन्ता अपने शासकों के समक्ष रख दी है।

राजा राममोहन राय ने समय-समय पर जो राजनीतिक विचार प्रकट किए, उनसे हमें उनके राजनीतिक चिन्तन का बोध होता है। उनके राजनीतिक चिन्तन की कुछ प्रमुख बाती

का उल्लेख इस प्रकार है :

(1) वैयक्तिक एवं राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का प्रतिपादन-

राजा राममोहन राय हृदय और मस्तिष्क से उदार थे और व्यक्ति की स्वतन्त्रता में उनका अगाध विश्वास था। उन्होंने लॉक ग्रोशियस तथा टामस पेन की भांति प्राकृतिक अधिकारों की पवित्रता को स्वीकार किया। किंतु व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और प्राकृतिक अधिकारों के प्रबल समर्थक होने के साथ-साथ सामाजिक

उपयोगिता तथा सामूहिक मानव कल्याण में भी उनकी गहरी आस्था थी। अतः अधिकारों और स्वतन्त्रता के व्यक्तिवादी सिद्धान्त के समर्थक होते हुए भी उन्होंने आग्रह किया कि राज्य के समाज-सुधार तथा शैक्षणिक पुनर्निमाण के लिए कानून बनाना चाहिए। वैयक्तिक स्वतन्त्रता के  महान् समर्थक होते हुए भी राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में राममोहन राय के विचार उदारत थे और वे चाहते थे कि राज्य को निर्बल तथा असहाय व्यक्तियों की रक्षा करनी चाहिए। राज्य  का कर्तव्य है कि वह जनता की सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक और राजनीतिक दशाओ सुधार के लिए प्रयत्न करे।

फ्रांस की राज्य क्रान्ति के समय उनकी आयु 17 वर्ष की थी, अतः इस क्रा्ति के महान् मूल्यों का उन पर प्रभाव पड़ना नितान्त स्वाभाविक था। बाल्टेयर, मॉण्टेस्क्यू और रूसो की भांति आंति राममोहन को स्वतन्त्रता के आदर्श से उत्कृष्ट प्रेम था। वे प्रत्येक स्थिति और प्रत्येक मूल्य पर व्यक्ति की गरिमा की रक्षा के पोषक थे और स्वतन्त्रता, अधिकार, अवसर, न्याय

दि गाजनीतिक वरदानों को सर्वोच्च मानते थे तथा राज्य को ऐसी दिशा में प्रेरित करने की आकांक्षा रखते थे कि व्यक्ति को ये वरदान सुलभ हो सकें उनके समस्त चिन्तन में व्यक्ति और राज्य एक-दूसरे के पूरक थे, विरुद्ध नही। उपर्युक्त विवेचना से यह नितान्त स्पष्ट  है कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता और व्यक्ति तथा राज्य के आपसी सम्बन्ध विषयक उनके राजनीतिक दृष्टिकोण में आदर्शवादिता और व्यावहारिकता का समन्वय है।

निजी बातचीत में वे प्रायः राष्ट्रीय मुक्ति के आदर्श की भी चर्चा किया करते थे। अगस्त, 1821 को राममोहन ने 'कलकत्ता जर्नल' नामक पत्रिका के सम्पादक जे. एस. बकिंघम को एक पत्र लिखा और विश्वास प्रकट किया कि अन्ततोगत्वा यूरोपियन राष्ट्र तथा एशियाई उपनिवेश निश्चय ही अपनी स्वाधीनता प्राप्त कर लेंगे।' वस्तुतः उन्हें न केवल भारत वरन विश्व के सभी राष्ट्रों की स्वतन्त्रता के प्रति सहानुभूति थी। उन्हें यूनानियों तथा नेपल्सवासियों

की स्वतन्त्रता की मांग से सहानुभूति थी। इसलिए जब 1820 ई. में नेपल्स में स्वेच्छाचारी शासन की पुनः स्थापना हो गई तो राममोहन को बहुत क्षोभ हुआ। फ्रांस की 1830 की

क्रान्ति से उनके हृदय को बड़ी प्रसन्नता हुई और चार्ल्स दशम् के शासन के उन्मूलन से राय को विशेष सन्तोष हुआ। 1821 में जब राजा फर्नीनांड को विवश होकर एक संविधान देना

पड़ा, तो उसके उपलक्ष में उन्होंने एक सार्वजनिक भोज दिया।

राममोहन राय को अपने देश से गहरा प्रेम था। बौद्धिक तथा सामाजिक मुक्ति के वे समर्थक थे और राजनीतिक स्वतन्त्रता में भी उनका विश्वास था, लेकिन इसके साथ ही यह

भी तथ्य है कि "एक प्रबुद्ध राष्ट्र द्वारा शासित होने तथा उसके सम्पर्क में आने से होने वाले लाभ उनके मन-मानस पर छाए हुए थे।" भारत और ब्रिटेन के आपसी सम्बन्धों के विषय में

उनकी विचारधारा कांग्रेस के प्रारम्भिक वर्षों के उदारवादियों से भी बहुत अधिक उदारवादी थी। उन्होंने उस मार्ग को अपनाया था, जो बहुत आगे चलकर भी गोखले का मार्ग ही बन सकता था, तिलक का मार्ग नहीं। अतः 'स्वराज्य के पैगम्बर' की स्थिति प्राप्त कर पाना उनके लिए सम्भव नहीं था। उनके चिन्तन और कार्यो ने भारत राष्ट्र को स्वराज्य के मार्ग पर आगे बढ़ाने में प्रत्यक्ष नहीं, वरनु परोक्ष योग दिया। अपने चिन्तन और कार्यों के माध्यम से उन्होंने बौद्धिक जाग्रति को जन्म दिया. व्यक्ति में मन और मस्तिष्क की उदारता उत्पन्न की, धार्मिक और सामाजिक पुनर्जागरण को जन्म दिया और यह मार्ग भविष्य में निश्चित रूप से स्वतन्त्रता का और ले जाने वाला था। राममोहन राय ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति से आत्म-अनुशासित होने की बात कही।

प्रेस की स्वतंत्रता :

राममोहन राय प्रेस की स्वतन्त्रता के प्रारम्भिक समर्थकों में थे

आर मिल्टन की भांति उनका विचार था कि व्यक्ति को लिखित अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अनिवार्य  रूप से प्राप्त होनी चाहिए।1823 में. जब ब्रिटिश सरकार ने समाचार-पत्र निकालने पर प्रतिबन्ध लगा दिए तब राममोहन राय ने द्वारकानाथ ठाकुर, हरचन्द घोष, गौरीशंकर बनर्जी, प्रसन्न कुमार टेगोर तथा चन्द्रकुमार टैगोर के साथ मिलकर प्रेस की स्वतन्त्रता के लिए सर्वोच्च न्यायालय को एक याचिका भेजी। प्रेस की स्वतन्त्रता के लिए किए गए इस कार्य में राममोहन राय का मुख्य हाथ था। जब याचिका अस्वीकृत कर दी गई, तब सपरिषद सम्राट  के पास अपील की गई। अपील में इस बात पर बल दिया गया था कि "स्वतन्त्र प्रेस ने संसार के किसी भाग में कभी क्रान्ति को जन्म नहीं दिया है; इसके विपरीत जब प्रेस की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिए जाते हैं, तो जनता का असन्ताषि चरम अवस्था तक पहुचकर क्रान्ति को जन्म दे देता है।" उनका निश्चित मत था कि "विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता जिस समाज को प्राप्त नहीं होती, बह समाज किसी भी प्रकार उन्नति के निश्चित पथ की ओर अग्रसर नहीं हो सकता।" जब सपरिषद् सम्राट् से भी अपील अस्वीकृत हो गई तो उन्होंने अपने फारसी भाषा

के पत्र 'मिरात' का प्रकाशन भी स्थगित कर दिया। राममोहन राय ने जिस रूप में अपना विरोध व्यक्त किया, वह प्रेस की स्वतन्त्रता के प्रति उनकी निष्ठा का प्रतीक था।

राममोहन राय यह नहीं सोचते थे कि समाचार-पत्र के द्वारा सरकार को डराने, गिराने, अपमानित करने या सरकार के विरुद्ध घृणा के प्रसार का कार्य किया जाय। उनके अनुसार

समाचार-पत्र का उद्देश्य तो जनता और शासन के मध्य एक कड़ी के रूप में कार्य करना था। जनता और सरकार, दोनों को उचित शिक्षा प्रदान करना समाचार-पत्र का ध्येय होना चाहिए। समाचार-पत्र पिछड़े हुए समाज को नई रोशनी देने और अज्ञानी शासक को उसके कार्यों के प्रति सचेत करने का कार्य करते है । पृथ्वी पर कभी कोई ऐसा शासन नही हुआ,जिसके प्रति नागरिकों को शिकायत न रही हो । अच्छा शासक वह है जो अपने नागरिकों की शिकायतों को अभिव्यक्त करने का उचित अवसर प्रदान करें । 

राममोहन राय पत्रकार भी थे । उन्होंने 1821 में 'संवाद कौमुदी' नामक बंगला पत्रिका तथा 'मिराट्-उल-अखबार' नाम की फारसी पत्रिका प्रारम्भ की थी। उन्होंने 'Brahmanical

Magazine' नाम की पत्रिका भी प्रारम्भ की थी। पत्रकार राममोहन राय के सम्बन्ध में के दामाेदरन लिखते हैं कि "राय भारत में राष्ट्रवादी पत्रकारिता के जन्मदाता थे, उनकी पत्रकारिता ने देश के समस्त भागों में राष्ट्रीय पुनर्जागरण के सन्देश को पहुंचाया...उनका सन्देश मानवता और विश्व-बन्धुत्व का सन्देश था।"

(3) न्यायिक व्यवस्था का स्वरूप-

राममोहन राय ने न्यायिक व्यवस्था पर भी अपने  विचार व्यक्त किए और भारत की न्यायिक व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता पर बल दिया। राममोहन राय न्यायाधीशों और जूरी की प्रतिष्ठा को बनाए रखने और इस प्रसंग में जातिगत

आधार पर भेदभाव के विरोधी थे। 1827 में एक 'जूरी अधिनियम' पारित किया गया। इस अधिनियम में जूरी के प्रसंग में जातिगत आधार पर भेदभाव करते हुए व्यवस्था की गई कि जब किसी ईसाई पर अभियोग चलाया जाए, तो हिन्दू और मुसलमान जूरी में नहीं बैठ सकेंगे। 17 अगस्त, 1829 की इस अधिनियम के विरुद्ध ब्रिटिश पार्लियामेण्ट के दोनों सदनों में प्रस्तुत करने के लिए एक याचिका तैयार की गई। इस कार्य में राममोहन राय की विशेष भूमिका थी।

राममोहन राय ब्रिटेन के लोकसदन की प्रवर समिति के सम्मुख उस समय उपस्थित हुए, जबकि 1833 के 'अधिकार-पत्र अधिनियम' (Charter Act ) पर विवाद हो रहा था। इस

साक्य में उन्होंने इस बात के लिए आग्रह किया कि भारत में सेवा करने वाले दण्ड-नायकों (मजिस्ट्रेटो) के न्यायिक तथा प्रशासकीय कार्यों को पृथक् कर दिया जाय। उनके द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य An Exposition of Revenue and Judicial Administration of India' (भारत की राजस्व तथा न्यायिक प्रणालियों की एक व्याख्या) शीर्षक से प्रकाशित भी करवाया गया।इसमें भारत  की न्यायिक व्यवस्था से सम्बन्धित कुछ समस्याओं का उल्लेख और सुझाव इस

प्रकार है :देश के न्यायालयों का यूरोपियन लोगों पर क्षेत्राधिकार, जूरी प्रथा को बनाए रखने अपनाने, न्यायिक तथा प्रशासनिक पदों के पृथक्करण, विधि के संहिताकरण और विधि निर्माण में जनता के परामर्श, आदि की व्यवस्था। उन्होंने इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट किया कि न्याय अधिकारियों तथा जनता के बीच संचार का माध्यम कोई एक ऐसी भाषा नहीं थी  जिसे दोनों ही बोल और समझ सकें; इससे भी उचित न्याय प्राप्त करने में बाधा पडती थी । इसके  अतिरिक्त न्यायालयों की कार्यवाही की रिपोर्ट प्रकाशित करने के लिए सार्वजनिक समाचार-पत्रों का भी अभाव था। वे इस पक्ष में थे कि भारत में प्रचलित सिद्धान्तों और मान्यताओं को दृष्टि में रखते हुए 'भारतीय आपराधिक विधि संहिता' तैयार की जाय। न्यायिक व्यवस्था के सम्बन्ध में उनके द्वारा दिए गए ये सुझाव निश्चित रूप से बहुत अधिक महत्वपूर्ण हैं।

(4) प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप- 

1833 में लोकसदन की प्रवर समिति के समक्ष साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए राममोहन राय ने प्रशासनिक व्यवस्था में कुछ सुधारों की सिफारिश भी की थी। ये सिफारिशें थीं : देशी लोकसेना की स्थापना, देशवासियों को अधिक नौकरियां और ऊंचे पद देना, रैयत की दशा में सुधार तथा उसकी रक्षा के लिए कानूनों का निर्माण और स्थायी भूमि प्रबन्ध। डॉ. वर्मा के अनुसार, "वे भारतीय सभ्यता के रैयतबाड़ी, कृषि प्रधान तथा  देहाती आधार को अक्षुण्ण रखने के पक्ष में थे।' राममोहन राय लोक सेवाओं में अपरिपक्व व्यक्तियों की नियुक्ति के विरुद्ध थे। इसलिए उनका सुझाव था कि प्रसंविदाबद्ध (Covenanted)

सेवाओं में नियुक्ति के लिए न्यूनतम 22 वर्ष की आयु सीमा होनी चाहिए। प्रशासनिक व्यवस्था और सेवाओं  के प्रसंग में उनका सबसे प्रमुख सुझाव था कि "यदि ब्रिटिश सरकार चाहे कि भारतवासी सरकार के प्रति आस्थावान हों, तो भारतीयों की योग्यता और शिक्षा के अनुसार उन्हें पूर्ण पदों पर नियुक्त करना पडेगा। देशवासियों को उनकी योग्यता के अनुसार राष्ट्रीय सम्मान देना पड़ेगा । 

(5)राजनीति और कानून के माध्यम से समाज-सुधार-

राजा राममोहन राय एक महान समाज-सुधारक थे। राजनीति, कानून और समाज-सुधार के आपसी सम्बन्ध पर उनका विचारथा  कि समाज-सुघार के लिए राजनीति और कानूनों के माध्यम से भी प्रयत्न किए जाने चाहिए। उनके प्रयनों से ही लॉर्ड विलियम बैंटिक के समय में 'सती-प्रथा निषेध कानून' बना था। वे स्त्री-पुरुष की समानता और नारी उद्घार के समर्थक थे और तत्कालीन भारत की परिस्थितियों  महिला वर्ग की स्थिति में सुधार की विशेष आवश्यकता अनुभव करते थे।  राममोहन धर्म निरपेक्ष राजनीति के समर्थक थे।

(6) मानवतावाद और विश्व-बंधुत्व -

राममोहन राय महान  मानवतावादी थे। वे विश्व  नागरिकता के प्रतिपादक तथा विश्व-बंधुत्व  की धारणा के समयथक थे।  वे बन्धनमुक्त हो चूके थे  और इसलिए उन्हें सार्वभौमता में विश्वास था ।  वे समस्त मानव जाति को एक परिवार तथा विभिन्न राष्ट्रों और जातियों को उसकी शाखाएं मानते थे। बेन्थम  राममोहन राय के सारवभौमवाद  और मानवतावाद की प्रशंसा किया करता था। राममोहन राय ने एक ऐसे विश्व संगठन की कल्पना की थी, जिसमें दो राष्ट्रों के  बीच के मतभेदों को पंच-फैसले द्वारा निपटाने के भेजा जा सके। वास्तव में, राममोहन राय का अन्तर्राष्ट्रवाद बहुत ऊंचे स्तर का था। वे ईश्वर  से जो प्रार्थना करते थे, उसमें भी अन्तर्राष्ट्रवाद झलकता था : "परमात्मा, धर्म को ऐसा बना दे  जो मनुष्य और मनुष्य के बीच भेदों और घृणा को नष्ट करने वाला हो और मानव जाति की  एकता तथा शान्ति का प्रेरक हो।"

राय के चिन्तन के समन्वयवादी व उदार पक्षों का उल्लेख करते हुए विपिनचन्द्र पाल  ने कहा है, "समष्टि व व्यक्ति , ईश्वर व मनुष्य, मानवता व राष्ट्रीयता, समुदायवाद व व्यक्तिवाद के मध्य अनिवार्य तादात्म्य राममोहन राय के चिन्तन का केन्द्रीय तत्व है।"

संदर्भ ग्रंथ :

1. वी.एस. नरवणे : आधुनिक भारतीय चिंतन । 

2. विश्वनाथ प्रसाद वर्मा : आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतक ।

3. राजा राममोहन राय द्विशत जन्म वार्षिक समारोह समिति पुस्तिका । 

4. K. Damodaran : Indian thought -A Critical survey

धन्यवाद ।           

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