तोड़ती पत्थर कविता हिन्दी काव्य जगत के मूर्धन्य कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की सन् 1935 ई. में लिखी गई एक प्रगतिवादी कविता है। यद्यपि निराला जी छायावाद के प्रतिनिधि कवि थे तथापि उन्होंने छायावाद की रोमानियत से बाहर निकल कर यथार्थ को देखा और युगानुरुप प्रगतिवादी रचनाएं करनी प्रारम्भ कर दी।
निर्धन, दुःखी, शोषित मजदूर प्रगतिवादी काव्य के मेरुदंड है। शोषित और सर्वहारा वर्ग का यथार्थ चित्रण ही प्रगतिवादी काव्य की मूल प्रवृत्ति रही है। वह तोड़ती पत्थर निराला जी की यह कविता पूँजीवादी अर्थव्यवस्था पर एक करारी चोट है।कवि ने व्यंग्य किया है कि कहीं बड़ी बड़ी हवेलियां खाली पड़ी है और किसी को छाया भी नसीब नहीं।इस तरह कीविरोधी स्थितियों पर इसकविता में बड़ातीखा व्यंग्य किया गया है जो सभी को झकझोर कर रख देता हैं।और
इस सामाजिक असमान व्यवस्था के प्रति जनसाधारण के मन में घृणा उत्पन्न करने पर विवश कर देता हैं। तोड़ती पत्थर : निराला जी की प्रगतिवादी कविता
तोड़ती पत्थर कविता भी इसी तरह की कविता है। इसमेें निराला जी ने इलाहाबाद के पथ पर भरी दोपहरी में पत्थर तोड़ने वाली मजदूरनी का यथार्थ चित्रण किया है।यह चित्रण अत्यंत मर्मस्पर्शी है। मजदूरनी चिलचिलाती धूप में बैठी अपने हथौड़े से पत्थर पर प्रहार कर रही है। जिस धूप में कोई घर से बाहर नहीं निकलना
चाहता उसी धूप में वह हथौड़े से बार - बार प्रहार करके पत्थर तोड़ रही है। वहां किसी प्रकार की कोई छाया नहीं है।और न ही कोई छायादार वृक्ष है जहां थोड़ी देर बैठकर वह आराम कर ले। ऐसे वातावरण में वह बिना किसी से कुछ बोले अपने कर्म में तत्पर है।वह कितनी विवश हैं।उसे जीवन में किसी की ओर आँंख उठाकर देखने का भी अधिकार नहीं है। उसकी दृष्टि में मार खाकर भी न रो सकने वाली विवशता है। फिर भी वह अपनी मूक भाषा में सबकुछ कह डालती है।जिसे कोई भी व्यक्ति सुन और समझ नहीं पाता है। सर्वहारा वर्ग की यही नियति है। वह
रात दिन अथक परिश्रम तो करता है किन्तु उसे अपमान और उपेक्षा के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता।
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़,वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार
श्याम तन भर बंधा यौवन
नत नयन, प्रिय कर्म रत मन
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार - बार प्रहार
सामने तरु मालिका अट्टालिका प्राकार ।
चढ़ रही थी धूप
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप
उठी झुलसती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगी छा गई
प्राय: हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन
की ओर देखा छिन्नतार
देखकर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खां रोई नहीं
सजा सहज सितार
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह कांपी सुघर
ढुलक माथे से
गिरे सीकर
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा
मैं तोड़ती पत्थर।।
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