स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास साहित्य की विकास यात्रा - svaatantryottar hindee upanyaas saahity kee vikaas yaatra

लेखक :

Book Language

हिंदी | Hindi

पुस्तक का साइज़ :

26 MB

कुल पृष्ठ :

299

श्रेणी :

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[171 इसीलिए कालान्तर मे अग्रेजी शिक्षा से लोगो का मोहभग हुआ। तभी तो एक तरफ जहाँ हिन्दू पुनरुत्थान आन्दोलन चला, वही दूसरी तरफ नवजागरण का स्वर भी सुनाई पडने लगा। प्रेस के आविष्कार के कारण सास्कृतिक , सामाजिक राजनीतिक, धार्मिक विचारो के प्रचार-प्रसार को न केवल एक माध्यम मिला, वरन्‌ समाचार पत्रो के माध्यम से विचार- विनिमय भी होने लगा। ये पत्रिकाये एक ओर जनतात्रिक भावनाओ का पोषण कर रही थी, तो दूसरी ओर सामाजिक रूढियो पर आघात करते हुए राष्ट निर्माण मे योग दे रहा थी । ब्रह्मसमाज प्रार्थना समाज, आर्य समाज जैसी सस्थाए इसी समय पुराने धर्म को नये समाज के अनुरूप ढालने का प्रयास कर रही थी । ब्रह्मसमाज ने राजाराम मोहन राय के नेतृत्व मे अनेको सामाजिक कुरीतियो परप्रहार किया, जाति प्रथा को उन्होने अमानवीय ओर राष्रीयता विरोधी कहा । सती प्रथा के खिलाफ जहो आन्दोलन चलाया, वही विधवा विवाह, स्त्री पुरुष के समान अधिकार का भी समर्थन किया । रानाड ने ' प्रार्थना समाज ' के माध्यम से मनुष्य की समानता पर जोर दिया । वे जाति-प्रथा के विरुद्ध ओर अन्तर्जातीय विवाह के पक्षधर थे । वे भारतीय सस्कृति को नवीन वैज्ञानिक विचार-प्रणाली के अनुरूप ढालने की कोशिश कर रहे थे! विवेकानद ने भी रामकृष्ण मिशन के माध्यम से समाज को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। उन्होने लिखा है- “दुनिया के सभी दूसरे राष्ट्रो से हमारा अलगाव ही हमारे पतन का कारण है और शेष दुनिया कौ धारा मे समा जाना ही इसका एक मात्र समाधान है। गति जीवन का चिन्ह है ।' 1 विवेकानन्द ने जाति-प्रथा, कर्मकाड, पूजा-पाठ ओर अधविश्वास पर आधारित हिन्दू धर्म की कड़ी आलोचना की | उनके शब्द है-- ^“ हमारे सामने खतरा यह है कि हमारा धर्म रसोईघर मे न बद हो जाए । हम अर्थात्‌ हममे से अधिकाश न वेदान्ती है, न पौराणिक ओर न ही ताततिक । हम केवल हमे मत दओ के समर्थक है । हमारा ईश्वर भोजन के बर्तन मे है ओर हमारा धर्म यह है कि ' हम पवित हैं, हमे छूना मत।' 2 आध्यात्मिक स्तर पर उन्होने मनुष्य-मनुष्य की समता, एकता, बधुत्व ओर स्वतत्रता की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट किया उन्होने कहा- '* मेरा ईश्वर दुःखी मानव है, मेरा ईश्वर पीडित मानव हे, मेरा ईश्वर हर जाति का निर्धन मनुष्य है ।' 3 कहना न होगा कि पश्चिम की भौतिकता से चमत्कृत देशवासियो को पहली बार यह अहसास हुआ कि हमारी अपनी परम्परा में भी कुछ ऐसी वस्तुए है, जिन्हे दुनिर्यो के सामने गौरवपूर्ण ढग से रखा जा सकता है । स्वामी दयानद सरस्वती ने आर्य समाज के लिए वेदो को आधार माना। वे वेदो को शाश्वत ओर अपौरुषेय मानतेथे । इन्होने सामाजिक ओर नैतिक मूल्यो को देखते हुए एक आचार-सहिता बनाई । इसमे जाति-भेद, मनुष्य-मनुष्य या स्त्री पुरुष मे असमानता के लिए कोई स्थान नही धा। वेदिक धर्म के व्याख्याता होने के बावजूद ये पाश्चात्य शिक्षा के समर्थक थे । अपने हिन्दूवादी दृष्टिकोण के बावजूद आर्य समाज 1 आधुनिक भारत --डॉ० बिपिन चन्द्र, पृष्ठ 153 2 वही, पृष्ठ, 153 3 आधुनिक भारत --डॉ० बिपिन चन्द्र, पृष्ठ 154

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Published in Journal

Year: Jul, 2017
Volume: 13 / Issue: 2
Pages: 675 - 678 (4)
Publisher: Ignited Minds Journals
Source:
E-ISSN: 2230-7540
DOI:
Published URL: //ignited.in/I/a/221626
Published On: Jul, 2017

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हिन्दी उपन्यास की विकास यात्रा | Original Article


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