भारतीय जनता के लिए सिनेमा कोई नवीन वस्तु नहीं। भारतवर्ष में सहस्त्रों वर्षों से नाटक परम्परा चली आ रही है और अन्य देशों में भी जनता के मनोरंजन होते थे, मण्डलियाँ होती थीं, सारी-सारी रात नाटक खेले जाते थे। ग्रीस और रोम इन नाटकों के प्रसिद्ध रंगस्थली थे, परन्तु उनमें सर्वसाधारण का प्रवेश इतना सुलभ नहीं था जितना कि आधुनिक युग के चलचित्रों में। उन नाटक मण्डलियों में और भी बहुत-सी कमी थीं—सर्वप्रथम प्रेक्षागार सीमित होते थे, रंगमंच की असुविधा के कारण नाटक वास्तविकता के अधिक निकट नहीं आ पाते थे, अभिनेता भी इतने कुशल कलाकार नहीं होते थे, जो अपनी कला से दर्शकों का हृदय स्पर्श कर सकें। शनैः शनैः नाटकों में छाया-चित्रों का प्रवेश हुआ। परन्तु इन छायाचित्रों की आकृति धुंधली होती थी। इनमें वह आकर्षण और सजीवता नहीं होती थी। कालान्तर में छाया-चित्र भी विलुप्त हो गए और उनका नवीन रूप आधुनिक चित्रपट के रूप में आरम्भ हुआ।
चलचित्रों का आविष्कार अमेरिका निबासी मिस्टर एडीसन ने सन् 1890 में किया था। अनेक स्थिर चित्रों को एक निश्चित गति से तीव्र प्रकाश द्वारा श्वेत पट पर प्रक्षिप्त कर इसकी सृष्टि की जाती थी। भारतवर्ष में सर्व प्रथम सन् 1913 में हरिश्चन्द्र नामक फिल्म बनी थी, परन्तु ये चलचित्र मूक और अवाक् (न बोलने वाले) थे, किन्तु उनमें गतिशीलता मनुष्य के समान होती थी। सन् 1928 में सवाक् (बोलने वाले) चलचित्र का श्रीगणेश हुआ और इस परम्परा की सबसे पहली फिल्म “आलमआरा” थी, जो सन् 1931 में मुम्बई की इम्पीरियल फिल्म कम्पनी ने बनाई थी। सहसा जनता का ध्यान इस ओर अधिक आकृष्ट हुआ। सवाक् चलचित्रों ने प्रारम्भ में अच्छे नायकों व वादकों को अपनी ओर आकृष्ट किया। परिणामस्वरूप सुप्रसिद्ध गायक और वादक चलचित्रों में कार्य करने लगे और चलचित्रों की प्रतिष्ठा बढ़ी, जिससे यह व्यवसाय और भी अधिक उन्नति की ओर अग्रसर हुआ। पारिश्रमिक के आधिक्य के कारण प्रतिभा-सम्पन्न संचालकों तथा कुशल कलाकारों का सहयोग मिलने लगा। कई प्रसिद्ध कम्पनियाँ खुलीं, जिनमें इम्पीरियल, न्यू थियेटर, रणजीत और प्रभात कम्पनियों ने जनता को अत्यधिक मुग्ध किया। निर्देशक व्ही शान्ताराम तथा अभिनेता चन्द्रमोहन ने अपने कला-कौशल से चलचित्र-प्रेमियों को बहुत प्रभावित किया।
देश में जिस तीव्रगति से चलचित्रों का प्रचार हुआ, इससे उनकी सर्वप्रियता स्पष्ट है। इस व्यवसाय में अमेरिका का प्रथम स्थान है, तो भारतवर्ष का द्वितीय। दर्शकों की संख्या वृद्धि के साथ-साथ सिनेमा-गृहों के निर्माण-कार्य में भी उत्तरोत्तर वृद्धि हुई। इसका मुख्य कारण था भारतवर्ष में मनोविनोद के साधनों का अभाव तथा शिक्षा की न्यूनता के कारण रुचि-वैभिन्नय की कमी। परन्तु इतना अवश्य है कि कम व्यय और कम श्रम से मानव अपने जीवन के संघर्षमय क्षणों में से कुछ क्षण सिनेमाघर में बैठकर बिता देता है और आत्मानुभूति में हँस और रो भी देता है।
सिनेमा की उपयोगिता जहाँ मनोरंजन के लिए है वहाँ दूसरी ओर ज्ञान-संवर्धन के लिए भी इनका महत्त्व कम नहीं है। जिन देशों की सामाजिक प्रथाओं और भौगोलिक परिस्थितियों को हमने केवल पुस्तकों में ही पढ़ा है और अध्यापकों से सुना है, उन्हें हम प्रत्यक्ष रूप से चलचित्रों में देखकर ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। महत्त्वपूर्ण घटनाओं की फिल्में तैयार की जाती हैं, जैसे नेहरू जी की रूस तथा अमेरिका यात्रा गाँधी जी की प्रार्थना सभाओं के दृश्य, इन चलचित्रों द्वारा वे मनष्य भी जो उन घटनास्थलों पर उपस्थित नहीं थे आनन्द ले सकते हैं। गाँधी जी की फिल्म को देखकर आज से सौ वर्ष पश्चात् भी लोग गाँधी जी के साक्षात् दर्शन कर सकेंगे।
दिन भर का थका-माँदा मजदूर भी शाम को अपना जी बहलाना चाहता है। उस समय थोड़ा-सा रुपया खर्च करके वह तीन घण्टे तक सुखद मनोरंजन प्राप्त कर लेता था। सिनेमा के आविष्कार से पूर्व निर्धनों और गरीबों को ऐसा मनोरंजन अप्राप्य न सही पर दुष्प्राप्य अवश्य था। परन्तु सिनेमा ने वह साधन सुलभ कर दिया।
सुना जाता है कि ब्रह्मा चतुर्मुख थे अर्थात् उनके चार मुख थे और प्रत्येक मुख से उन्होंने एक-एक वेद की रचना की, इस प्रकार वेद भी चार हो गये। ब्रह्मा की भाँति सिनेमा भी चतुर्मुख हैं और वे मुख हैं काव्य, चित्र, संगीत और अभिनय। इन्हीं के समन्वय से वे सृष्टि का निरूपण करने में समर्थ होते हैं। दर्शक बड़ी सुगमता से इन जीवनोपयोगी ललित कलाओं को सिनेमा के माध्यम से आत्मसात् कर सकता है और कला के प्रति उसकी अभिरुचि जाग्रत हो सकती है। परन्तु इन सब बातों के लिए बुद्धिमान और विवेकी दर्शकों की आवश्यकता है।
शिक्षा के क्षेत्र में भी सिनेमा की उपयोगिता बढ़ती गयी। प्रौढ़ और अल्पवयस्क छात्रों की शिक्षा के लिए सिनेमा का माध्यम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जिन विषयों को बच्चे पुस्तकों या अध्यापकों की वाणी से ग्रहण नहीं कर पाते उन विषयों को सिनेमा में देखकर आसानी से हृदयंगम कर लेते हैं। इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि विषयों में मौलिक शिक्षा कोमलमति बालकों के लिए बड़ी जटिल होती है, परन्तु फिल्मों द्वारा उनके हृदय पर उनके विषयों का प्रत्यक्ष तथा चिरस्थायी प्रभाव पड़ता है। प्रौढ़ पुरुषों पर खेती के नए साधनों, नवीन उद्योगों तथा स्वास्थ्य रक्षा के सम्बन्ध में चलचित्रों द्वारा चिरस्थायी प्रभाव डाला जा सकता है। विदेशों में इस पद्धति पर विशेष बल दिया जाता है।
चलचित्र अथवा सिनेमा की पटकथायें तीन प्रकार की होती हैं—(1) पौराणिक, (2) ऐतिहासिक, (3) सामाजिक। प्रारम्भिक काल में तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्वकाल में तीनों प्रकार के कथानक कोई-न-कोई उद्देश्य, शिक्षा अथवा संदेश लिए हुए होते थे। संवाद एवं गीत परिस्थिति के अनुरूप सारगर्भित, तार्किक एवं मार्मिक होते थे जैसे
आज हिमालय की चोटी से हम सब ने ललकारा है।।
दूर हटो ए दुनियां वाली हिन्दुस्तान हमारा है ।।
ये पंक्तियाँ स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों की है, कितनी प्रेरणादायक हैं और कितनी सारगर्भित। “हम सब” में एकता की भावना निहित है—हिन्दू, मुसलमान, सिख, पारसी, बौध अथवा धनी अथवा निर्धन सभी की ललकार है, याचना अथवा प्रार्थना नहीं। इसी प्रकार “राम राज्य” नामक चित्र में संवाद हैं—भावना से कर्तव्य महान् है। अभिनेताओं और अभिनेत्रियों का शरीर सौष्ठव और सौंदर्य भी परिस्थिति के अनुकूल और मर्यादित होता था। सौंदर्य की अलग ही परिभाषा होती थी
वह नहीं है रूप जिसको देख जागे वासना।
रूप वह है देख जिसको प्राण चाहें पूजना ।।
समाज सुधार की दृष्टि से सिनेमा विशेष उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं। सिनेमा द्वारा समाज में व्याप्त कुरीतियों, रूढ़ियों तथा निन्दनीय कृत्यों पर कुठाराघात किया जा सकता है और पूर्व में ऐसी फिल्में बनी भी जिनमें दहेज प्रथा,नारी उत्पीड़न, अछूतोद्धार, मदिरापान, द्यूतक्रीड़ा, बाल विवाह, धन लोलुपता, भ्रष्टाचार दुराचार जैसी बुराइयों के उन्मूलन पर विशेष ध्यान दिया गया। किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त जैसे-जैसे देश में सम्पन्नता आई वैसे-वैसे समाज का दृष्टिकोण बदलता गया और राष्ट्र का दुर्भाग्य कि यह परिवर्तन उत्थान की ओर जाकर पतन की ओर अग्रसर हुआ और चलचित्र जगत का इसमें विशेष योगदान रहा और दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। कामोत्तेजक दृश्यों के बिना तो चलचित्र का कथानक बनता ही नहीं। अर्ध-नग्न नहीं शरीर का नग्न प्रदर्शन, कामुक हाव-भाव, कटाक्षपूर्ण नृत्य नहीं उछल-कूद, साथ में रोमांचकारी चुम्बन के दृश्य, प्रगाढ़ आलिंगन यौवन की दहलीज पर खड़े युवक और युवतियों पर क्या प्रभाव डाल रहे हैं यह आज के सामाजिक परिवेश में स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है।
आपराधिक और जासूसी चित्र और भी आगे बढ़ रहे हैं। उपरोक्त बुराइयाँ तो इसमें निहित होती ही हैं। अपराध करने के नये-नये साधन, तरीके और युक्तियाँ मानो युवकों को प्रशिक्षित करते हैं और आमन्त्रित करते हैं अपराध जगत् में प्रवेश के लिए।
दूरदर्शन के क्षेत्र में अप्रत्याशित उत्पत्ति और उस पर सरकारी नियंत्रण हट जाने से चलचित्रों के अनिष्टकारी प्रभाव कई गुना बढ़ गए हैं। सिनेमा देखने के लिए पहले तो सिनेमाघर जाना पड़ता था, धन की भी व्यवस्था करनी होती थी किन्तु दूरदर्शन तो आठों प्रहर, 24 घण्टे हर व्यक्ति के लिए, बूढ़ा हो या जवान, स्त्री हो अथवा पुरुष, बालक हो अथवा बालिका चलचित्र की धाली परोस कर तैयार रखता है और चलचित्र ही क्यों अब तो सीरियल भी फिल्मों को पीछे छोड़ रहे हैं।
भारतवर्ष को स्वतन्त्र हुए साठ वर्ष व्यतीत हो रहे हैं। देश के उत्थान और उन्नति के लिए शासन की ओर से बहुत से ठोस कदम उठाए गए, परन्तु फिर भी चरित्रहीनता अपनी चरमसीमा तक बढ़ती जा रही है। इसका बहुत कुछ दायित्व आधुनिक चलचित्रों पर ही है। जब तक फिल्म निर्माताओं पर कठोर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाएगा तब तक वे सुधरने के नहीं, क्योंकि उनका व्यवसाय और उनकी सर्वप्रियता इन्हीं कुवासनापूर्ण चित्रों पर आधारित है। बीच में एक दो बार गम्भीर चलचित्र भी जनता के सामने आए, परन्तु अश्लील फिल्मों को देखते-देखते जनरुचि इतनी भ्रष्ट हो गई है कि उन चित्रों को किसी ने पसन्द ही नहीं किया। देश के नैतिक एवं चारित्रिक उत्थान के लिए यह आवश्यक है कि फिल्म संसार पर कठोर नियन्त्रण लगायें जायें। कुछ दिनों से एक नया तमाशा और शुरू हो गया है कि फिल्म वाले अपने अलग-अलग अखबार भी निकालने लगे हैं जिनमें वे ही सर्वांग सुन्दरियों के भद्दे एवं अर्द्धनग्न चित्र और वैसी ही प्रेम गाथाएँ भी होती हैं। आज का नवयुवक पाठक ‘सरस्वती’ और ‘साहित्य सन्देश' पढ़ना पसन्द नहीं करता, परन्तु फिल्म इण्डिया और फिल्मिस्तान अवश्य खरीद लेता है और जब तक आँखों में आकर नींद समा नहीं जाती तब तक उन्हें चाटता रहता है। कौन जाने भारतवर्ष के भाग्य में क्या लिखा है। और चारों ओर जहाँ दूषित शक्तियाँ भारतवर्ष को पतन के गर्त में गिराने के लिए तैयार खड़ी हैं। वहाँ यह चलचित्र जगत् भी कम नहीं।
फिल्म-निर्माताओं को देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझना चाहिये। देश के नव-निर्माण में अगर ये लोग अपना पूर्ण सहयोग दें तो सोने में सुगन्ध का काम हो सकता है। फिल्म निर्माताओं के सत प्रयासों से देश में नव-चेतना
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