रोशनी जहाँ भी हो उसे खोज लाने की कवि की क्या है? - roshanee jahaan bhee ho use khoj laane kee kavi kee kya hai?

Ramdhari Singh Dinkar Poetry :- भारत के महान कवि दिनकर जी कई काव्य रचनाएं प्रकाशित की जिन्हे भारत देश के अलावा कई अन्य देशों ने बहोत प्रेम दिया। "रामधारी सिंह दिनकर" की कविता कुरुक्षेत्र बहोत चर्चित कविता थी इसलिए आज आप को All Famous Poem दिए गए हैं नीचे जो बहोत चर्चा में रहे। दिनकर का जन्म 24 सितंबर 1908 को बिहार के चर्चित जिला बेगूसराय के सिमरिया गाँव के किशन "रवि सिंह" के घर हुआ था।

All Ramdhari Singh Dinkar Poem's in Hindi

1. रामधारी सिंह दिनकर की कविता "आशा का दीपक"

वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है;

थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है।

चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से;

चमक रहे पीछे मुड़ देखो चरण-चिह्न जगमग से।

बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है;

थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है।

अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का;

सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश का।

एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;

वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।

आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;

थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा;

लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।

जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही;

अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।

और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है;

थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

2. रामधारी सिंह दिनकर की बाल कविता "चांद का कुर्ता"

हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला,

सिलवा दो मां, मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।

सन-सन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूं,

ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूं।

आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,

न हो अगर तो ला दो, कुर्ता ही कोई भाड़े का।"

बच्चे की सुन बात कहा माता ने, " अरे सलोने,

कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।

जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूं,

एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूं।

कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,

बड़ा किसी दिन हो जाता है और किसी दिन छोटा।

घटता बढ़ता रोज, किसी दिन ऐसा भी करता है,

नहीं किसी की आंखों को दिखलाई पड़ता है।

अब तू ही तो बता, नाप तेरा किस रोज लिवायें,

सीं दें एक झिंगोला जो हर दिन बदन में आये।

3. रामधारी सिंह दिनकर की चांद पर कविता "रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद"

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, 

आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है! 

उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, 

और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है। 

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ? 

मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते; 

और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी 

चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते। 

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का;

आज उठता और कल फिर फूट जाता है;

किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो? 

बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है। 

मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली, 

देख फिर से, चाँद! मुझको जानता है तू? 

स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी? 

आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते, 

आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ, 

और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की, 

इस तरह दीवार फ़ौलादी उठाती हूँ। 

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी 

कल्पना की जीभ में भी धार होती है, 

बाण ही होते विचारों के नहीं केवल, 

स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है। 

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,

"रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे, 

रोकिये, जैसे बने इन स्वप्न वालों को, 

स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

4. खुला आसमान पर निराला की हिन्दी कविता

बहुत दिनों बाद खुला आसमान!

निकली है धूप, खुश हुआ जहान!

दिखी दिशाएँ, झलके पेड़,

चरने को चले ढोर - गाय - भैंस - भेड़,

खेलने लगे लड़के छेड़ - छेड़ -

लड़कियाँ घरों को कर भासमान!

लोग गाँव-गाँव को चले,

कोई बाज़ार, कोई बरगद के पेड़ के तले

जाँघिया - लँगोटा ले, सँभले,

तगड़े - तगड़े सीधे नौजवान!

पनघट में बड़ी भीड़ हो रही,

नहीं ख़्याल आज कि भीगेगी चुनरी,

बातें करती हैं वे सब खड़ी,

चलते हैं नयनों के सधे बाण!

 5. कुंजी (चाभी) पर कविता - रामधारी सिंह दिनकर

घेरे था मुझे तुम्हारी साँसों का पवन,

जब मैं बालक अबोध अनजान था।

यह पवन तुम्हारी साँस का,

सौरभ लाता था।

उसके कंधों पर चढ़ा,

मैं जाने कहाँ-कहाँ,

आकाश में घूम आता था।

सृष्टि शायद तब भी रहस्य थी।

मगर कोई परी मेरे साथ में थी;

मुझे मालूम तो न था,

मगर ताले की कुंजी मेरे हाथ में थी।

जवान हो कर मैं आदमी न रहा,

खेत की घास हो गया।

तुम्हारा पवन आज भी आता है

और घास के साथ अठखेलियाँ करता है,

उसके कानों में चुपके चुपके

कोई संदेश भरता है।

घास उड़ना चाहती है

और अकुलाती है,

मगर उसकी जड़ें धरती में

बेतरह गड़ी हुईं हैं।

इसलिए हवा के साथ

वह उड़ नहीं पाती है।

शक्ति जो चेतन थी,

अब जड़ हो गयी है।

बचपन में जो कुंजी मेरे पास थी,

उम्र बढ़ते बढ़ते

वह कहीं खो गयी है।

 6. सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला कविता "प्रपात के प्रति"

अंचल के चंचल क्षुद्र प्रपात !

मचलते हुए निकल आते हो;

उज्ज्वल! घन-वन-अंधकार के साथ

खेलते हो क्यों? क्या पाते हो 

अंधकार पर इतना प्यार,

क्या जाने यह बालक का अविचार

बुद्ध का या कि साम्य-व्यवहार ।

तुम्हारा करता है गतिरोध

पिता का कोई दूत अबोध

किसी पत्थर से टकराते हो

फिरकर ज़रा ठहर जाते हो

उसे जब लेते हो पहचान

समझ जाते हो उस जड़ का सारा अज्ञान,

फूट पड़ती है ओंठों पर तब मृदु मुस्कान;

बस अजान की ओर इशारा करके चल देते हो,

भर जाते हो उसके अन्तर में तुम अपनी तान।

7. वर दे वीणावादिनी वर दे कविता - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

वर दे, वीणावादिनि वर दे !

प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव

भारत में भर दे !

काट अंध-उर के बंधन-स्तर

बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;

कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर

जगमग जग कर दे !

नव गति, नव लय, ताल-छंद नव

नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;

नव नभ के नव विहग-वृंद को

नव पर, नव स्वर दे !

वर दे, वीणावादिनि वर दे।

8. "वे किसान की नयी बहू की आँखें कविता" -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

नहीं जानती जो अपने को खिली हुई

विश्व-विभव से मिली हुई,

नहीं जानती सम्राज्ञी अपने को,

नहीं कर सकीं सत्य कभी सपने को,

वे किसान की नयी बहू की आँखें

ज्यों हरीतिमा में बैठे दो विहग बन्द कर पाँखें;

वे केवल निर्जन के दिशाकाश की,

प्रियतम के प्राणों के पास-हास की,

भीरु पकड़ जाने को हैं दुनिया के कर से

बढ़े क्यों न वह पुलकित हो कैसे भी वर से।

9. छोटी कविता "मुक्ति" - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा

पत्थर, की निकलो फिर,

गंगा-जल-धारा!

गृह-गृह की पार्वती!

पुनः सत्य-सुन्दर-शिव को सँवारती

उर-उर की बनो आरती!--

भ्रान्तों की निश्चल ध्रुवतारा!--

तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा!

10. प्राप्ति कविता हिन्दी -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

तुम्हें खोजता था मैं, पा नहीं सका,

हवा बन बहीं तुम, जब मैं थका, रुका।

मुझे भर लिया तुमने गोद में,

कितने चुम्बन दिये, मेरे मानव-

मनोविनोद में नैसर्गिकता लिये;

सूखे श्रम-सीकर वे

छबि के निर्झर झरे नयनों से,

शक्त शिरा‌एँ हु‌ईं रक्त-वाह ले,

मिलीं - तुम मिलीं, अन्तर कह उठा

जब थका, रुका।

11. मरा हूँ हज़ार मरण कविता - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

मरा हूँ हज़ार मरण, पाई तब चरण-शरण ।

फैला जो तिमिर जाल कट-कटकर रहा काल,

आँसुओं के अंशुमाल, पड़े अमित सिताभरण ।

जल-कलकल-नाद बढ़ा अन्तर्हित हर्ष कढ़ा,

विश्व उसी को उमड़ा, हुए चारु-करण सरण ।

12.भेद कुल खुल जाए कविता -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

भेद कुल खुल जाए वह सूरत हमारे दिल में है।

देश को मिल जाए जो पूँजी तुम्हारी मिल में है॥

हार होंगे हृदय के खुलकर तभी गाने नये।

हाथ में आ जायेगा, वह राज जो महफिल में है॥

तरस है ये देर से आँखे गड़ी शृंगार में।

और दिखलाई पड़ेगी जो गुराई तिल में है॥

पेड़ टूटेंगे, हिलेंगे, ज़ोर से आँधी चली।

हाथ मत डालो, हटाओ पैर, बिच्छू बिल में है॥

ताक पर है नमक मिर्च लोग बिगड़े या बनें।

सीख क्या होगी पराई जब पसाई सिल में है॥

13. केशर की कलि की पिचकारी कविता - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

केशर की, कलि की पिचकारी;

पात-पात की गात सँवारी।

राग-पराग-कपोल किए हैं,

लाल-गुलाल अमोल लिए हैं,

तरू-तरू के तन खोल दिए हैं,

आरती जोत-उदोत उतारी,

गन्ध-पवन की धूप धवारी।

गाए खग-कुल-कण्ठ गीत शत,

संग मृदंग तरंग-तीर-हत,

भजन-मनोरंजन-रत अविरत,

राग-राग को फलित किया री-

विकल-अंग कल गगन विहारी ।

14. गहन है यह अंधकार -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

गहन है यह अंधकार;

स्वार्थ के अवगुंठनों से,

हुआ है लुंठन हमारा।

खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर,

बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर

इस गगन में नहीं दिनकर;

नही शशधर, नहीं तारा।

कल्पना का ही अपार समुद्र यह,

गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह,

कुछ नहीं आता समझ में,

कहाँ है श्यामल किनारा।

प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की,

याद जिससे रहे वंचित गेह की,

खोजता फिरता न पाता हुआ,

मेरा हृदय हारा।

15. आज प्रथम गाई पिक कविता -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

आज प्रथम गाई पिक पञ्चम।

गूंजा है मरु विपिन मनोरम।

मरुत-प्रवाह, कुसुम-तरु फूले,

बौर-बौर पर भौंरे झूले,

पात-पात के प्रमुदित झूले,

छाय सुरभि चतुर्दिक उत्तम।

आंखों से बरसे ज्योति-कण,

परसें उन्मन - उन्मन उपवन,

खुला धरा का पराकृष्ट तन

फूटा ज्ञान गीतमय सत्तम।

प्रथम वर्ष की पांख खुली है,

शाख-शाख किसलयों तुली है,

एक और माधुरी चली है,

गीतम-गन्ध-रस-वर्णों अनुपम।


16. ख़ून की होली जो खेली कविता -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

युवकजनों की है जान;

ख़ून की होली जो खेली।

पाया है लोगों में मान,

ख़ून की होली जो खेली।

रँग गये जैसे पलाश;

कुसुम किंशुक के, सुहाए,

कोकनद के पाए प्राण,

ख़ून की होली जो खेली।

निकले क्या कोंपल लाल,

फाग की आग लगी है,

फागुन की टेढ़ी तान,

ख़ून की होली जो खेली।

खुल गई गीतों की रात,

किरन उतरी है प्रात: की;-

हाथ कुसुम-वरदान,

ख़ून की होली जो खेली।

आई सुवेश बहार,

आम-लीची की मंजरी;

कटहल की अरघान,

ख़ून की होली जो खेली।

विकच हुए कचनार,

हार पड़े अमलतास के;

पाटल-होठों मुसकान,

ख़ून की होली जो खेली।

17. दलित जन पर करो करुणा कविता -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

दलित जन पर करो करुणा।

दीनता पर उतर आये

प्रभु, तुम्हारी शक्ति वरुणा।

हरे तन मन प्रीति पावन,

मधुर हो मुख मनोभावन,

सहज चितवन पर तरंगित

हो तुम्हारी किरण तरुणा

देख वैभव न हो नत सिर,

समुद्धत मन सदा हो स्थिर,

पार कर जीवन निरंतर

रहे बहती भक्ति वरूणा

18. रँग गई पग-पग धन्य धरा काव्य -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

रँग गई पग-पग धन्य धरा,

हुई जग जगमग मनोहरा ।

वर्ण गन्ध धर, मधु मकरन्द भर,

तरु-उर की अरुणिमा तरुणतर

खुली रूप - कलियों में पर भर

स्तर स्तर सुपरिसरा ।

गूँज उठा पिक-पावन पंचम

खग-कुल-कलरव मृदुल मनोरम,

सुख के भय काँपती प्रणय-क्लम

वन श्री चारुतरा ।

19. भारती वन्दना गीत -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

भारती, जय, विजय करे

कनक - शस्य - कमल धरे!

लंका पदतल - शतदल

गर्जितोर्मि सागर - जल

धोता शुचि चरण - युगल

स्तव कर बहु अर्थ भरे!

तरु-तण वन - लता - वसन

अंचल में संचित सुमन,

गंगा ज्योतिर्जल - कण

धवल - धार हार लगे!

मुकुट शुभ्र हिम - तुषार

प्राण प्रणव ओंकार,

ध्वनित दिशाएँ उदार,

शतमुख - शतरव - मुखरे!

20. निराशावादी -रामधारी सिंह दिनकर

पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा

धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास,

उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी,

बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।

क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ?

तब तुम्हीं टटोलो हृदय देश का, और कहो,

लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाकी है?

बोलो, बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो ।

21. जब आग लगे कविता -रामधारी सिंह दिनकर

सीखो नित नूतन ज्ञान, नई परिभाषाएं,

जब आग लगे, गहरी समाधि में रम जाओ;

या सिर के बल हो खड़े परिक्रमा में घूमो।

ढब और कौन हैं चतुर बुद्धि - बाजीगर के?

गांधी को उल्‍टा घिसो और जो धूल झरे,

उसके प्रलेप से अपनी कुण्‍ठा के मुख पर,

ऐसी नक्‍काशी गढ़ो कि जो देखे, बोले,

आखिर, बापू भी और बात क्‍या कहते थे?

डगमगा रहे हों पांव लोग जब हंसते हों,

मत चिढ़ो, ध्‍यान मत दो इन छोटी बातों पर

कल्‍पना जगदगुरु की हो जिसके सिर पर,

वह भला कहां तक ठोस क़दम धर सकता है?

औ; गिर भी जो तुम गये किसी गहराई में,

तब भी तो इतनी बात शेष रह जाएगी

यह पतन नहीं, है एक देश पाताल गया,

प्‍यासी धरती के लिए अमृतघट लाने को।

22. रामधारी सिंह दिनकर की कविता करघा

हर ज़िन्दगी कहीं न कहीं,

दूसरी ज़िन्दगी से टकराती है।

हर ज़िन्दगी किसी न किसी, 

ज़िन्दगी से मिल कर एक हो जाती है।

ज़िन्दगी ज़िन्दगी से

इतनी जगहों पर मिलती है,

कि हम कुछ समझ नहीं पाते

और कह बैठते हैं यह भारी झमेला है।

संसार संसार नहीं,

बेवकूफ़ियों का मेला है।

हर ज़िन्दगी एक सूत है

और दुनिया उलझे सूतों का जाल है।

इस उलझन का सुलझाना

हमारे लिये मुहाल है।

मगर जो बुनकर करघे पर बैठा है,

वह हर सूत की किस्मत को

पहचानता है।

सूत के टेढ़े या सीधे चलने का

क्या रहस्य है,

बुनकर इसे खूब जानता है।

23. गाँधी पर रामधारी सिंह दिनकर की कविता

देश में जिधर भी जाता हूँ,

उधर ही एक आह्वान सुनता हूँ।

जडता को तोडने के लिए भूकम्प लाओ।

घुप्प अँधेरे में फिर अपनी मशाल जलाओ।

पूरे पहाड हथेली पर उठाकर पवनकुमार के समान तरजो।

कोई तूफ़ान उठाने को कवि, गरजो, गरजो, गरजो!'

सोचता हूँ, मैं कब गरजा था?

जिसे लोग मेरा गर्जन समझते हैं,

वह असल में गाँधी का था,

उस गाँधी का था, जिसने हमें जन्म दिया था।

तब भी हमने गाँधी के

तूफ़ान को ही देखा, गाँधी को नहीं।

वे तूफ़ान और गर्जन के पीछे बसते थे।

सच तो यह है कि अपनी लीला में,

तूफ़ान और गर्जन को शामिल होते देख

वे हँसते थे।

तूफ़ान मोटी नहीं, महीन आवाज़ से उठता है।

वह आवाज़ जो मोम के दीप के समान,

एकान्त में जलती है और बाज नहीं,

कबूतर के चाल से चलती है।

गाँधी तूफ़ान के पिता और बाजों के भी बाज थे,

क्योंकि वे नीरवता की आवाज़ थे।

24. स्नेह-निर्झर बह गया है कविता - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

स्नेह-निर्झर बह गया है!

रेत ज्यों तन रह गया है।

आम की यह डाल जो सूखी दिखी,

कह रही है - "अब यहाँ पिक या शिखी

नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी

नहीं जिसका अर्थ-

जीवन दह गया है।"

दिये हैं मैने जगत को फूल-फल,

किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल;

पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल--

ठाट जीवन का वही

जो ढह गया है।

अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,

श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा।

बह रही है हृदय पर केवल अमा;

मै अलक्षित हूँ; यही

कवि कह गया है।

25. नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे कविता - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली !

जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली,

दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली-

मली मुख-चुम्बन-रोली ।

प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,

एक-वसन रह गई मन्द हँस अधर-दशन अनबोली-

कली-सी काँटे की तोली ।

मधु-ऋतु-रात,मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली,

खुले अलक, मुँद गए पलक-दल, श्रम-सुख की हद हो ली- बनी रति की छवि भोली ।

बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,

उठी सँभाल बाल, मुख-लट,पट, दीप बुझा, 

हँस बोली रही यह एक ठिठोली ।

26. Suryakant Tripathi Nirala Poetry ~ "तुम हमारे हो" कविता-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

नहीं मालूम क्यों यहाँ आया

ठोकरें खाते हु‌ए दिन बीते ।

उठा तो पर न सँभलने पाया

गिरा व रह गया आँसू पीते ।

ताब बेताब हु‌ई हठ भी हटी

नाम अभिमान का भी छोड़ दिया ।

देखा तो थी माया की डोर कटी

सुना व' कहते हैं, हाँ खूब किया ।

पर अहो पास छोड़ आते ही

वह सब भूत फिर सवार हु‌ए ।

मुझे गफलत में ज़रा पाते ही

फिर वही पहले के से वार हु‌ए ।

एक भी हाथ सँभाला न गया

और कमज़ोरों का बस क्या है ।

कहा - निर्दय, कहाँ है तेरी दया,

मुझे दुख देने में जस क्या है ।

रात को सोते य' सपना देखा

कि व' कहते हैं "तुम हमारे हो

भला अब तो मुझे अपना देखा,

कौन कहता है कि तुम हारे हो ।

अब अगर को‌ई भी सताये तुम्हें

तो मेरी याद वहीं कर लेना

नज़र क्यों काल ही न आये तुम्हें

प्रेम के भाव तुर्त भर लेना"।

27. Nirala Ki Kavita | मद भरे ये नलिन -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

मद - भरे ये नलिन - नयन मलीन हैं;

अल्प - जल में या विकल लघु मीन हैं?

या प्रतीक्षा में किसी की शर्वरी;

बीत जाने पर हुये ये दीन हई?

या पथिक से लोल - लोचन! कह रहे-

"हम तपस्वी हैं, सभी दुख सह रहे।

गिन रहे दिन ग्रीष्म - वर्षा - शीत के;

काल -ताल- तरंग में हम बह रहे।

मौन हैं, पर पतन में- उत्थान में ,

वेणु - वर - वादन -निरत - विभु गान में

है छिपा जो मर्म उसका, समझते;

किन्तु फिर भी हैं उसी के ध्यान में।

आह! कितने विकल-जन-मन मिल चुके;

हिल चुके, कितने हृदय हैं खिल चुके।

तप चुके वे प्रिय - व्यथा की आंच में;

दुःख उन अनुरागियों के झिल चुके।

क्यों हमारे ही लिये वे मौन हैं?

पथिक, वे कोमल कुसुम हैं - कौन हैं?

28. Surkant Tripathi Poetry | भर देते हो -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

भर देते हो

बार-बार, प्रिय, करुणा की किरणों से

क्षुब्ध हृदय को पुलकित कर देते हो ।

मेरे अन्तर में आते हो, देव, निरन्तर,

कर जाते हो व्यथा-भार लघु

बार-बार कर-कंज बढ़ाकर;

अंधकार में मेरा रोदन

सिक्त धरा के अंचल को

करता है क्षण-क्षण-

कुसुम-कपोलों पर वे लोल शिशिर-कण

तुम किरणों से अश्रु पोंछ लेते हो,

नव प्रभात जीवन में भर देते हो ।

29. पत्रोत्कंठित जीवन का विष कविता -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है,

आज्ञा का प्रदीप जलता है हृदय-कुंज में,

अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है

दिङ् निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र-पुंज में ।

लीला का संवरण-समय फूलों का जैसे

फलों फले या झरे अफल, पातों के ऊपर,

सिद्ध योगियों जैसे या साधारण मानव,

ताक रहा है भीष्म शरों की कठिन सेज पर ।

स्निग्ध हो चुका है निदाघ, वर्षा भी कर्षित

कल शारद कल्य की, हेम लोमों आच्छादित,

शिशिर-भिद्य, बौरा बसंत आमों आमोदित,

बीत चुका है दिक्चुम्बित चतुरंग, काव्य, गति

यतिवाला, ध्वनि, अलंकार, रस, राग बन्ध के

वाद्य-छन्द के रणित गणित छुट चुके हाथ से--

क्रीड़ाएँ व्रीड़ा में परिणत । मल्ल भल्ल की--

मारें मूर्छित हुईं, निशाने चूक गए हैं ।

झूल चुकी है खाल ढाल की तरह तनी थी।

पुनः सवेरा, एक और फेरा है जी का ।

30. राजे ने अपनी रखवाली की -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

राजे ने अपनी रखवाली की;

क़िला बनाकर रहा;

बड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं।

चापलूस कितने सामन्त आए।

मतलब की लकड़ी पकड़े हुए।

कितने ब्राह्मण आए

पोथियों में जनता को बाँधे हुए।

कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाए,

लेखकों ने लेख लिखे,

ऐतिहासिकों ने इतिहास के पन्ने भरे,

नाट्य-कलाकारों ने कितने नाटक रचे

रंगमंच पर खेले।

जनता पर जादू चला राजे के समाज का।

लोक-नारियों के लिए रानियाँ आदर्श हुईं।

धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा हुआ।

लोहा बजा धर्म पर, सभ्यता के नाम पर।

ख़ून की नदी बही ।

आँख-कान मूंदकर जनता ने डुबकियाँ लीं।

आँख खुली-राजे ने अपनी रखवाली की।

31. प्रिय यामिनी जागी कविता -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

प्रिय यामिनी जागी।

अलस पंकज-दृग अरुण-मुख

तरुण-अनुरागी।

खुले केश अशेष शोभा भर रहे,

पृष्ठ-ग्रीवा-बाहु-उर पर तर रहे,

बादलों में घिर अपर दिनकर रहे,

ज्योति की तन्वी, 

तड़ित-द्युति ने क्षमा माँगी।

हेर उर-पट फेर मुख के बाल,

लख चतुर्दिक चली मन्द मराल,

गेह में प्रिय-नेह की जय-माल,

वासना की मुक्ति मुक्ता

त्याग में तागी।

32. उक्ति -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

कुछ न हुआ, 

न हो, 

मुझे विश्व का सुख, श्री, 

यदि केवल पास तुम रहो!

मेरे नभ के बादल यदि न कटे-

चन्द्र रह गया ढका,

तिमिर रात को तिरकर यदि न अटे

लेश गगन-भास का,

रहेंगे अधर हँसते, 

पथ पर, 

तुम हाथ यदि गहो।

बहु-रस साहित्य विपुल यदि न पढ़ा-

मन्द सबों ने कहा,

मेरा काव्यानुमान यदि न बढ़ा-

ज्ञान, जहाँ का रहा,

रहे, 

समझ है मुझमें पूरी, 

तुम कथा यदि कहो।

33. 'तोड़ती पत्थर' पर कविता -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

वह तोड़ती पत्थर;

देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-

वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार

पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;

श्याम तन, भर बंधा यौवन,

नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,

गुरु हथौड़ा हाथ,

करती बार-बार प्रहार:-

सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;

गर्मियों के दिन,

दिवा का तमतमाता रूप;

उठी झुलसाती हुई लू

रुई ज्यों जलती हुई भू,

गर्द चिनगीं छा गई,

प्रायः हुई दुपहर :-

वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार

उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;

देखकर कोई नहीं,

देखा मुझे उस दृष्टि से

जो मार खा रोई नहीं,

सज़ा सहज सितार,

सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,

ढुलक माथे से गिरे सीकर,

लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-

"मैं तोड़ती पत्थर।

34. रामधारी सिंह दिनकर की कविता गीत-अगीत 

गीत, अगीत, कौन सुंदर है?

गाकर गीत विरह की तटिनी

वेगवती बहती जाती है,

दिल हलका कर लेने को

उपलों से कुछ कहती जाती है।

तट पर एक गुलाब सोचता,

"देते स्‍वर यदि मुझे विधाता,

अपने पतझर के सपनों का

मैं भी जग को गीत सुनाता।"

गा-गाकर बह रही निर्झरी,

पाटल मूक खड़ा तट पर है।

गीत, अगीत, कौन सुंदर है?

बैठा शुक उस घनी डाल पर

जो खोंते पर छाया देती।

पंख फुला नीचे खोंते में

शुकी बैठ अंडे है सेती।

गाता शुक जब किरण वसंती

छूती अंग पर्ण से छनकर।

किंतु, शुकी के गीत उमड़कर

रह जाते स्‍नेह में सनकर।

गूँज रहा शुक का स्‍वर वन में,

फूला मग्‍न शुकी का पर है।

गीत, अगीत, कौन सुंदर है?

दो प्रेमी हैं यहाँ, एक जब

बड़े साँझ आल्‍हा गाता है,

पहला स्‍वर उसकी राधा को

घर से यहाँ खींच लाता है।

चोरी-चोरी खड़ी नीम की

छाया में छिपकर सुनती है,

'हुई न क्‍यों मैं कड़ी गीत की

बिधना', यों मन में गुनती है।

वह गाता, पर किसी वेग से,

फूल रहा इसका अंतर है।

गीत, अगीत, कौन सुन्‍दर है?

35. ध्वज-वंदना रचना - रामधारी सिंह दिनकर

नमो, नमो, नमो।

नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो !

नमो नागाधिराज - श्रृंग की विहारिणी !

नमो अनंत सौख्य-शक्ति-शील-धारिणी!

प्रणय-प्रसारिणी, नमो अरिष्ट-वारिणी!

नमो मनुष्य की शुभेषणा-प्रचारिणी!

नवीन सूर्य की नयी प्रभा,नमो, नमो!

हम न किसी का चाहते तनिक, अहित, अपकार।

प्रेमी सकल जहान का भारतवर्ष उदार।

सत्य न्याय के हेतु फहर फहर ओ केतु

हम विचरेंगे देश-देश के बीच मिलन का सेतु

पवित्र सौम्य, शांति की शिखा, नमो, नमो!

तार-तार में हैं गुंथा ध्वजे, तुम्हारा त्याग!

दहक रही है आज भी, तुम में बलि की आग।

सेवक सैन्य कठोर हम चालीस करोड़

कौन देख सकता कुभाव से ध्वजे, तुम्हारी ओर

करते तव जय गान वीर हुए बलिदान,

अंगारों पर चला तुम्हें ले सारा हिन्दुस्तान!

प्रताप की विभा, कृषानुजा, नमो, नमो!

36. एक पत्र कविता हिन्दी -रामधारी सिंह दिनकर

मैं चरणॊं से लिपट रहा था, सिर से मुझे लगाया क्यों?

पूजा का साहित्य पुजारी पर इस भाँति चढ़ाया क्यों?

गंधहीन बन-कुसुम-स्तुति में अलि का आज गान कैसा?

मन्दिर-पथ पर बिछी धूलि की पूजा का विधान कैसा?

कहूँ, या कि रो दूँ कहते, मैं कैसे समय बिताता हूँ;

बाँध रही मस्ती को अपना बंधन सुदृढ़ बनाता हूँ।

ऐसी आग मिली उमंग की ख़ुद ही चिता जलाता हूँ;

किसी तरह छींटों से उभरा ज्वालामुखी दबाता हूँ।

द्वार कंठ का बन्द, गूँजता हृदय प्रलय-हुँकारों से;

पड़ा भाग्य का भार काटता हूँ कदली तलवारों से।

विस्मय है, निर्बन्ध कीर को यह बन्धन कैसे भाया?

चारा था चुगना तोते को, भाग्य यहाँ तक ले आया।

औ' बंधन भी मिला लौह का, 

सोने की कड़ियाँ न मिलीं;

बन्दी-गृह में मन बहलाता, ऐसी भी घड़ियाँ न मिलीं।

आँखों को है शौक़ प्रलय का, कैसे उसे बुलाऊँ मैं?

घेर रहे सन्तरी, बताओ अब कैसे चिल्लाऊँ मैं?

फिर-फिर कसता हूँ कड़ियाँ, फिर-फिर होती कशमकश जारी;

फिर-फिर राख डालता हूँ, फिर-फिर हँसती है चिनगारी।

टूट नहीं सकता ज्वाला से, जलतों का अनुराग सखे!

पिला-पिला कर ख़ून हृदय का पाल रहा हूँ आग सखे!

37. Long Poem Ramdhari Singh Dinkar "आग की भीख"

धुँधली हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा, 

कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा। 

कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है; 

मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज रो रहा है? 

दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को ज़िला दे, 

बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे। 

प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ, 

चढ़ती जवानियों का शृंगार मांगता हूँ। 

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है, 

कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है? 

मँझधार है, भँवर है या पास है किनारा? 

यह नाश आ रहा या सौभाग्य का सितारा? 

आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा, 

भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा। 

तम-बेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ, 

ध्रुव की कठिन घड़ी में पहचान माँगता हूँ। 

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है, 

बल-पुँज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है। 

अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ ढेर हो रहा है, 

है रो रही जवानी, अन्धेर हो रहा है। 

निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है, 

निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है। 

पंचास्य-नाद भीषण, विकराल माँगता हूँ, 

जड़ता-विनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ। 

मन की बँधी उमंगें असहाय जल रही हैं,

अरमान-आरज़ू की लाशें निकल रही हैं। 

भीगी-खुली पलों में रातें गुज़ारते हैं, 

सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं। 

इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे, 

पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे। 

उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ,

विस्फोट माँगता हूँ, तूफ़ान माँगता हूँ। 

आँसू-भरे दृगों में चिनगारियाँ सज़ा दे, 

मेरे श्मशान में आ श्रृंगी जरा बजा दे। 

फिर एक तीर सीनों के आर-पार कर दे, 

हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे। 

आमर्ष को जगाने वाली शिखा नई दे, 

अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे। 

विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ, 

बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ। 

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे, 

जो राह हो हमारी उस पर दिया जला दे। 

गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे,

इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे। 

हम दे चुके लहू हैं, तू देवता विभा दे, 

अपने अनल-विशिख से आकाश जगमगा दे। 

प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ, 

तेरी दया विपद में भगवान, माँगता हूँ।

38. "नमन करूँ मैं" Kavita -रामधारी सिंह दिनकर

तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं? 

मेरे प्यारे देश! देह या मन को नमन करूँ मैं ? 

किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं?

भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है? 

नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?

भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है, 

मेरे प्यारे देश! नहीं तू पत्थर है, पानी है।

जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं?

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,

एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है।

जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है, 

देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है।

निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं?

खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से, 

पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से, 

तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है, 

दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है।

मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं? 

दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं, 

मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं, 

घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन, 

खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन।

आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं? 

उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है, 

धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है, 

तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है, 

किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है।

मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं?

39. जियो जियो अय हिन्दुस्तान कविता -रामधारी सिंह दिनकर

जाग रहे हम वीर जवान,

जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल,

हम नवीन भारत के सैनिक, धीर, वीर, गंभीर, अचल।

हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं।

हम हैं शान्तिदूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं।

वीर - प्रसू माँ की आँखों के हम नवीन उजियाले हैं

गंगा, यमुना, हिन्द महासागर के हम रखवाले हैं।

तन मन धन तुम पर कुर्बान,

जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

हम सपूत उनके जो नर थे अनल और मधु मिश्रण,

जिसमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन!

एक नयन संजीवन जिनका, एक नयन था हालाहल,

जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर कोमल।

थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर,

स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर

हम उन वीरों की सन्तान,

जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

हम शकारि विक्रमादित्य हैं अरिदल को दलने वाले,

रण में ज़मीं नहीं, दुश्मन की लाशों पर चलने वाले।

हम अर्जुन, हम भीम, शान्ति के लिये जगत में जीते हैं

मगर, शत्रु हठ करे अगर तो, लहू वक्ष का पीते हैं।

हम हैं शिवा - प्रताप रोटियाँ भले घास की खाएंगे,

मगर, किसी ज़ुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकायेंगे।

देंगे जान, नहीं ईमान,

जियो जियो अय हिन्दुस्तान।

जियो, जियो अय देश! कि पहरे पर ही जगे हुए हैं हम।

वन, पर्वत, हर तरफ़ चौकसी में ही लगे हुए हैं हम।

हिन्द-सिन्धु की कसम, कौन इस पर जहाज़ ला सकता।

सरहद के भीतर कोई दुश्मन कैसे आ सकता है ?

पर कि हम कुछ नहीं चाहते, अपनी किन्तु बचायेंगे,

जिसकी उँगली उठी उसे हम यमपुर को पहुँचायेंगे।

हम प्रहरी यमराज समान,

जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

40. दिल्ली पर कविता -रामधारी सिंह दिनकर

यह कैसी चांदनी अम के मलिन तमिर की इस गगन में,

कूक रही क्यों नियति व्यंग से इस गोधूलि-लगन में?

मरघट में तू साज रही दिल्ली कैसे शृंगार?

यह बहार का स्वांग अरी इस उजड़े चमन में!

इस उजाड़ निर्जन खंडहर में, 

छिन्न-भिन्न उजड़े इस घर में

तुझे रूप सजाने की सूझी,

इस सत्यानाश प्रहर में!

डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया - तराना,

और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;

हम धोते हैं घाव इधर सतलज के शीतल जल से,

उधर तुझे भाता है इन पर नमक हाय, छिड़कना!

महल कहां बस, हमें सहारा,

केवल फूस-फास, तॄणदल का;

अन्न नहीं, अवलम्ब प्राण का, 

गम, आँसू या गंगाजल का;

41. परदेशी हिन्दी कविता -रामधारी सिंह दिनकर

माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी?

भय है, सुन कर हँस दोगे मेरी नादानी परदेशी!

सृजन-बीच संहार छिपा, कैसे बतलाऊं परदेशी?

सरल कंठ से विषम राग मैं कैसे गाऊँ परदेशी?

एक बात है सत्य कि झर जाते हैं खिलकर फूल यहाँ,

जो अनुकूल वही बन जता दुर्दिन में प्रतिकूल यहाँ। 

मैत्री के शीतल कानन में छिपा कपट का शूल यहाँ,

कितने कीटों से सेवित है मानवता का मूल यहाँ?

इस उपवन की पगडण्डी पर बचकर जाना परदेशी। 

यहाँ मेनका की चितवन पर मत ललचाना परदेशी!

जगती में मादकता देखी, लेकिन अक्षय तत्त्व नहीं,

आकर्षण में तृप्ति उर सुन्दरता में अमरत्व नहीं। 

यहाँ प्रेम में मिली विकलता, जीवन में परितोष नहीं,

बाल-युवतियों के आलिंगन में पाया संतोष नहीं। 

हमें प्रतीक्षा में न तृप्ति की मिली निशानी परदेशी!

माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी?

महाप्रलय की ओर सभी को इस मरू में चलते देखा ,

किस से लिपट जुडता? सबको ज्वाला में जलते देखा

अंतिम बार चिता-दीपक में जीवन को बलते देखा;

चलत समय सिकंदर-से विजयी को कर मलते देखा। 

सबने देकर प्राण मौत की कीमत जानी परदेशी। 

माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी ?

रोते जग की अनित्यता पर सभी विश्व को छोड़ चले,

कुछ तो चढ़े चिता के रथ पर, कुछ क़ब्रों की ओर चले। 

रुके न पल-भर मित्र , पुत्र माता से नाता तोड़ चले,

लैला रोती रही किन्तु, कितने मजनूँ मुँह मोड़ चले। 

जीवन का मधुमय उल्लास, औ' यौवन का हास विलास,

रूप-राशि का यह अभिमान, एक स्वप्न है, स्वप्न अजान।

मिटता लोचन -राग यहाँ पर, मुरझाती सुन्दरता प्यारी,

एक-एक कर उजड़ रही है हरी-भरी कुसुमों की क्यारी

मैं ना रुकूंगा इस भूतल पर जीवन, यौवन, प्रेम गंवाकर ;

वायु, उड़ाकर ले चल मुझको जहाँ-कहीं इस जग से बाहर

मरते कोमल वत्स यहाँ, बचती ना जवानी परदेशी!

माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी?

42. परिचय कविता कोश -रामधारी सिंह दिनकर

सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं 

स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं 

बँधा हूँ, स्वप्न हूँ, लघु वृत हूँ मैं 

नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं 

समाना चाहता है, जो बीन उर में 

विकल उस शून्य की झनकार हूँ मैं 

भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में 

सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं 

जिसे निशि खोजती तारे जलाकर 

उसी का कर रहा अभिसार हूँ मैं 

जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन 

अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं 

कली की पंखुडीं पर ओस - कण में 

रंगीले स्वप्न का संसार हूँ मैं 

मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं 

सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं 

मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से 

लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं 

रुदन अनमोल धन कवि का, इसी से 

पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं 

मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का 

चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं 

पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी 

समा जिसमें चुका सौ बार हूँ मैं 

न देखे विश्व, पर मुझको घृणा से 

मनुज हूँ, सृष्टि का शृंगार हूँ मैं 

पुजारिन, धुलि से मुझको उठा ले 

तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं 

सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा 

स्वयं युग - धर्म की हुँकार हूँ मैं 

कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का 

प्रलय - गांडीव की टंकार हूँ मैं 

दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा की 

दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं 

सजग संसार, तू निज को सम्भाले 

प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं 

बंधा तूफ़ान हूँ, चलना मना है 

बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं 

कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी 

बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं।।

43. पढ़क्‍कू की सूझ हिन्दी कविता -रामधारी सिंह दिनकर

एक पढ़क्‍कू बड़े तेज थे, तर्कशास्‍त्र पढ़ते थे, 

जहाँ न कोई बात, वहाँ भी नई बात गढ़ते थे। 

एक रोज़ वे पड़े फ़िक्र में समझ नहीं कुछ न पाए, 

"बैल घूमता है कोल्‍हू में कैसे बिना चलाए?" 

कई दिनों तक रहे सोचते, मालिक बड़ा गज़ब है? 

सिखा बैल को रक्‍खा इसने, निश्‍चय कोई ढब है। 

आखिर, एक रोज़ मालिक से पूछा उसने ऐसे, 

"अजी, बिना देखे, लेते तुम जान भेद यह कैसे? 

कोल्‍हू का यह बैल तुम्‍हारा चलता या अड़ता है? 

रहता है घूमता, खड़ा हो या पागुर करता है?" 

मालिक ने यह कहा, "अजी, इसमें क्‍या बात बड़ी है? 

नहीं देखते क्‍या, गर्दन में घंटी एक पड़ी है? 

जब तक यह बजती रहती है, मैं न फ़िक्र करता हूँ, 

हाँ, जब बजती नहीं, दौड़कर तनिक पूँछ धरता हूँ" 

कहाँ पढ़क्‍कू ने सुनकर, "तुम रहे सदा के कोरे! 

बेवकूफ! मंतिख की बातें समझ सकोगे थोड़ी! 

अगर किसी दिन बैल तुम्‍हारा सोच-समझ अड़ जाए, 

चले नहीं, बस, खड़ा-खड़ा गर्दन को खूब हिलाए। 

घंटी टन-टन खूब बजेगी, तुम न पास आओगे, 

मगर बूँद भर तेल साँझ तक भी क्‍या तुम पाओगे? 

मालिक थोड़ा हँसा और बोला पढ़क्‍कू जाओ, 

सीखा है यह ज्ञान जहाँ पर, वहीं इसे फैलाओ। 

यहाँ सभी कुछ ठीक-ठीक है, यह केवल माया है, 

बैल हमारा नहीं अभी तक मंतिख पढ़ पाया है।

44. जनतन्त्र का जन्म कविता -रामधारी सिंह दिनकर

सदियों की ठंडी - बुझी राख सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर - नाद सुनो,

सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।

जनता? हां, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,

जाडे - पाले की कसक सदा सहने वाली,

जब अंग - अंग में लगे सांप हो चूस रहे

तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहने वाली।

जनता? हां, लंबी - बडी जीभ की वही कसम, 

"जनता, सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"

"सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है?"

'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"

मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,

जब चाहो तभी उतार सज़ा लो दोनों में;

अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के

जन्तर - मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,

जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर - नाद सुनो,

सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।

हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,

सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,

जनता की रोके राह, समय में ताव कहां?

वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार

बीता; गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;

यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय

चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।

सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,

तैंतीस कोटि - हित सिंहासन तय करो

अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,

तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,

मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में? 

देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,

देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,

धूसरता सोने से शृंगार सजाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर - नाद सुनो,

सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।

45.लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो कविता -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो,

भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा।

उन्ही बीजों को नये पर लगे,

उन्ही पौधों से नया रस झिरा।

उन्ही खेतों पर गये हल चले,

उन्ही माथों पर गये बल पड़े,

उन्ही पेड़ों पर नये फल फले,

जवानी फिरी जो पानी फिरा।

पुरवा हवा की नमी बढ़ी,

जूही के जहाँ की लड़ी कढ़ी,

सविता ने क्या कविता पढ़ी,

बदला है बादलों से सिरा।

जग के अपावन धुल गये,

ढेले गड़ने वाले थे घुल गये,

समता के दृग दोनों तुल गये,

तपता गगन घन से घिरा।

मौन -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 

बैठ लें कुछ देर,आओ, 

एक पथ के पथिक-से

प्रिय, अंत और अनन्त के,

तम-गहन-जीवन घेर।

मौन मधु हो जाए

भाषा मूकता की आड़ में,

मन सरलता की बाढ़ में,

जल-बिन्दु सा बह जाए।

सरल अति स्वच्छ्न्द

जीवन, प्रात: के लघुपात से,

उत्थान-पतनाघात से

रह जाए चुप, निर्द्वन्द ।

46. Kurukshetra Ramdhari Singh Dinkar | कुरूक्षेत्र रामधारी सिंह 'दिनकर' हिन्दी कविता

कुरूक्षेत्र रामधारी सिंह 'दिनकर'

वह कौन रोता है वहाँ-

इतिहास के अध्याय पर,

जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है

प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;

जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;

जो आप तो लड़ता नहीं,

कटवा किशोरों को मगर,

आश्वस्त होकर सोचता,

शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की ?

और तब सम्मान से जाते गिने

नाम उनके, देश-मुख की लालिमा

है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;

देश की इज्जत बचाने के लिए

या चढा जिनने दिये निज लाल हैं ।

ईश जानें, देश का लज्जा विषय

तत्त्व है कोई कि केवल आवरण

उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का

जो कि जलती आ रही चिरकाल से

स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी

नायकों के पेट में जठराग्नि-सी ।

विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में

मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;

चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,

फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से ।

हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,

हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही-

उपचार एक अमोघ है

अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का !

लड़ना उसे पड़ता मगर ।

औ' जीतने के बाद भी,

रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ;

वह सत्य, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में

विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता ।

उस सत्य के आघात से

हैं झनझना उठ्ती शिराएँ प्राण की असहाय-सी,

सहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों ।

वह तिलमिला उठता, मगर,

है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है ।

सहसा हृदय को तोड़कर

कढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की-

'नर का बहाया रक्त, हे भगवान ! मैंने क्या किया

लेकिन, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने ।

इस दंश क दुख भूल कर

होता समर-आरूढ फिर;

फिर मारता, मरता,

विजय पाकर बहाता अश्रु है ।

यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि में

नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी,

पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का

वज्रांग पाण्डव भीम क मन हो चुका परिशान्त था ।

और जब व्रत-मुक्त-केशी द्रौपदी,

मानवी अथवा ज्वलित, जाग्रत शिखा प्रतिशोध की

दाँत अपने पीस अन्तिम क्रोध से,

रक्त-वेणी कर चुकी थी केश की,

केश जो तेरह बरस से थे खुले ।

और जब पविकाय पाण्डव भीम ने

द्रोण-सुत के सीस की मणि छीन कर

हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो

पाँच नन्हें बालकों के मुल्य-सी ।

कौरवों का श्राद्ध करने के लिए

या कि रोने को चिता के सामने,

शेष जब था रह गया कोई नहीं

एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा ।

और जब,

तीव्र हर्ष-निनाद उठ कर पाण्डवों के शिविर से

घूमता फिरता गहन कुरुक्षेत्र की मृतभूमि में,

लड़खड़ाता-सा हवा पर एक स्वर निस्सार-सा,

लौट आता था भटक कर पाण्डवों के पास ही,

जीवितों के कान पर मरता हुआ,

और उन पर व्यंग्य-सा करता हुआ-

'देख लो, बाहर महा सुनसान है

सालता जिनका हृदय मैं, लोग वे सब जा चुके।'

हर्ष के स्वर में छिपा जो व्यंग्य है,

कौन सुन समझे उसे ? सब लोग तो

अर्द्ध-मृत-से हो रहे आनन्द से;

जय-सुरा की सनसनी से चेतना निस्पन्द है ।

किन्तु, इस उल्लास-जड़ समुदाय में

एक ऐसा भी पुरुष है, जो विकल

बोलता कुछ भी नहीं, पर, रो रहा

मग्न चिन्तालीन अपने-आप में ।

"सत्य ही तो, जा चुके सब लोग हैं

दूर ईष्या-द्वेष, हाहाकार से !

मर गये जो, वे नहीं सुनते इसे;

हर्ष क स्वर जीवितों का व्यंग्य है।"

स्वप्न-सा देखा, सुयोधन कह रहा-

"ओ युधिष्ठिर, सिन्धु के हम पार हैं;

तुम चिढाने के लिए जो कुछ कहो,

किन्तु, कोई बात हम सुनते नहीं ।

"हम वहाँ पर हैं, महाभारत जहाँ

दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा,

जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर,

अर्थ जिसका अब न कोई याद है ।

"आ गये हम पार, तुम उस पार हो;

यह पराजय या कि जय किसकी हुई ?

व्यंग्य, पश्चाताप, अन्तर्दाह का

अब विजय-उपहार भोगो चैन से।"

हर्ष का स्वर घूमता निस्सार-सा

लड़खड़ाता मर रहा कुरुक्षेत्र में,

औ' युधिष्ठिर सुन रहे अव्यक्त-सा

एक रव मन का कि व्यापक शून्य का ।

'रक्त से सिंच कर समर की मेदिनी

हो गयी है लाल नीचे कोस-भर,

और ऊपर रक्त की खर धार में

तैरते हैं अंग रथ, गज, बाजि के ।

'किन्तु, इस विध्वंस के उपरान्त भी

शेष क्या है ? व्यंग ही तो भग्य का ?

चाहता था प्राप्त मैं करना जिसे

तत्व वह करगत हुआ या उड़ गया ?

'सत्य ही तो, मुष्टिगत करना जिसे

चाहता था, शत्रुओं के साथ ही

उड़ गये वे तत्त्व, मेरे हाथ में

व्यंग्य, पश्चाताप केवल छोड़कर ।

'यह महाभारत वृथा, निष्फल हुआ,

उफ ! ज्वलित कितना गरलमय व्यंग है ?

पाँच ही असहिष्णु नर के द्वेष से

हो गया संहार पूरे देश का !

'द्रौपदी हो दिव्य-वस्त्रालंकृता,

और हम भोगें अहम्मय राज्य यह,

पुत्र-पति-हीना इसी से तो हुईं

कोटि माताएँ, करोड़ों नारियाँ !

'रक्त से छाने हुए इस राज्य को

वज्र हो कैसे सकूँगा भोग मैं ?

आदमी के खून में यह है सना,

और इसमें है लहू अभिमन्यु का' ।

वज्र-सा कुछ टूटकर स्मृति से गिरा,

दब गये कौन्तेय दुर्वह भार में ।

दब गयी वह बुद्धि जो अब तक रही

खोजती कुछ तत्त्व रण के भस्म में ।

भर गया ऐसा हृदय दुख-दर्द-से,

फेन य बुदबुद नहीं उसमें उठा !

खींचकर उच्छ्वास बोले सिर्फ वे

'पार्थ, मैं जाता पितामह पास हूँ।'

और हर्ष-निनाद अन्तःशून्य-सा

लड़खड़ता मर रहा था वायु में ।

आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि

'योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर,

रुकी रहो पास कहीं'; और स्वयं लेट गये

बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर !

व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त,

काल के करों से छीन मुष्टि-गत प्राण कर ।

और पंथ जोहती विनीत कहीं आसपास

हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मान कर ।

श्रृंग चढ जीवन के आर-पार हेरते-से

योगलीन लेटे थे पितामह गंभीर-से ।

देखा धर्मराज ने, विभा प्रसन्न फैल रही

श्वेत शिरोरुह, शर-ग्रथित शरीर-से ।

करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद,

उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से,

"हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ"

चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर-से ।

"वीर-गति पाकर सुयोधन चला गया है,

छोड़ मेरे सामने अशेष ध्वंस का प्रसार;

छोड़ मेरे हाथ में शरीर निज प्राणहीन,

व्योम में बजाता जय-दुन्दुभि-सा बार-बार;

और यह मृतक शरीर जो बचा है शेष,

चुप-चुप, मानो, पूछता है मुझसे पुकार-

विजय का एक उपहार मैं बचा हूँ, बोलो,

जीत किसकी है और किसकी हुई है हार ?

"हाय, पितामह, हार किसकी हुई है यह ?

ध्वन्स-अवशेष पर सिर धुनता है कौन ?

कौन भस्नराशि में विफल सुख ढूँढता है ?

लपटों से मुकुट क पट बुनता है कौन ?

और बैठ मानव की रक्त-सरिता के तीर

नियति के व्यंग-भरे अर्थ गुनता है कौन ?

कौन देखता है शवदाह बन्धु-बान्धवों का ?

उत्तरा का करुण विलाप सुनता है कौन ?

"जानता कहीं जो परिणाम महाभारत का,

तन-बल छोड़ मैं मनोबल से लड़ता;

तप से, सहिष्णुता से, त्याग से सुयोधन को

जीत, नयी नींव इतिहास कि मैं धरता ।

और कहीं वज्र गलता न मेरी आह से जो,

मेरे तप से नहीं सुयोधन सुधरता;

तो भी हाय, यह रक्त-पात नहीं करता मैं,

भाइयों के संग कहीं भीख माँग मरता ।

"किन्तु, हाय, जिस दिन बोया गया युद्ध-बीज,

साथ दिया मेर नहीं मेरे दिव्य ज्ञान ने;

उलत दी मति मेरी भीम की गदा ने और

पार्थ के शरासन ने, अपनी कृपान ने;

और जब अर्जुन को मोह हुआ रण-बीच,

बुझती शिखा में दिया घृत भगवान ने;

सबकी सुबुद्धि पितामह, हाय, मारी गयी,

सबको विनष्ट किया एक अभिमान ने ।

"कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे

प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से;

लगता मुझे है, क्यों मनुष्य बच पाता नहीं

दह्यमान इस पुराचीन अभिशाप से ?

और महाभारत की बात क्या ? गिराये गये

जहाँ छल-छद्म से वरण्य वीर आप-से,

अभिमन्यु-वध औ' सुयोधन का वध हाय,

हममें बचा है यहाँ कौन, किस पाप से ?

"एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है,

एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध है;

जनता हूँ, लड़ना पड़ा था हो विवश, किन्तु,

लहू-सनी जीत मुझे दीखती अशुद्ध है;

ध्वंसजन्य सुख याकि सश्रु दुख शान्तिजन्य,

ग्यात नहीं, कौन बात नीति के विरुद्ध है;

जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य,

या महान पाप यहाँ फूटा बन युद्ध है ।

"सुलभ हुआ है जो किरीट कुरुवंशियों का,

उसमें प्रचण्ड कोई दाहक अनल है;

अभिषेक से क्या पाप मन का धुलेगा कभी ?

पापियों के हित तीर्थ-वारि हलाहल है;

विजय कराल नागिनी-सी डँसती है मुझे,

इससे न जूझने को मेरे पास बल है;

ग्रहण करूँ मैं कैसे ? बार-बार सोचता हूँ,

राजसुख लोहू-भरी कीच का कमल है ।

"बालहीना माता की पुकार कभी आती, और

आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का;

आँख पड़ती है जहाँ, हाय, वहीं देखता हूँ

सेंदुर पुँछा हुआ सुहागिनी के भाल का;

बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी,

तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का;

और सोते-जागते मैं चौंक उठता हूँ, मानो

शोणित पुकारता हो अर्जुन के लाल का ।

"जिस दिन समर की अग्नि बुझ शान्त हुई,

एक आग तब से ही जलती है मन में;

हाय, पितामह, किसी भाँति नहीं देखता हूँ

मुँह दिखलाने योग्य निज को भुवन मे

ऐसा लगता है, लोग देखते घृणा से मुझे,

धिक् सुनता हूँ अपने पै कण-कण में;

मानव को देख आँखे आप झुक जातीं, मन

चाहता करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा,

नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा;

पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी

कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा;

जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,

छिप तो रहुँगा, दुःख कुछ तो भुलऊँगा;

व्यंग से बिंधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं,

वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा।"

और तब चुप हो रहे कौन्तेय,

संयमित करके किसी विध शोक दुष्परिमेय

उस जलद-सा एक पारावार

हो भरा जिसमें लबालब, किन्तु, जो लाचार

बरस तो सकता नहीं, रहता मगर बेचैन है ।

भीष्म ने देखा गगन की ओर

मापते, मानो, युधिष्ठिर के हृदय का छोर;

और बोले, 'हाय नर के भाग !

क्या कभी तू भी तिमिर के पार

उस महत् आदर्श के जग में सकेगा जाग,

एक नर के प्राण में जो हो उठा साकार है

आज दुख से, खेद से, निर्वेद के आघात से ?'

औ' युधिष्ठिर से कहा, "तूफान देखा है कभी ?

किस तरह आता प्रलय का नाद वह करता हुआ,

काल-सा वन में द्रुमों को तोड़ता-झकझोरता,

और मूलोच्छेद कर भू पर सुलाता क्रोध से

उन सहस्रों पादपों को जो कि क्षीणाधार हैं ?

रुग्ण शाखाएँ द्रुमों की हरहरा कर टूटतीं,

टूट गिरते गिरते शावकों के साथ नीड़ विहंग के;

अंग भर जाते वनानी के निहत तरु, गुल्म से,

छिन्न फूलों के दलों से, पक्षियों की देह से ।

पर शिराएँ जिस महीरुह की अतल में हैं गड़ी,

वह नहीं भयभीत होता क्रूर झंझावात से ।

सीस पर बहता हुआ तूफान जाता है चला,

नोचता कुछ पत्र या कुछ डालियों को तोड़ता ।

किन्तु, इसके बाद जो कुछ शेष रह जाता, उसे,

(वन-विभव के क्षय, वनानी के करुण वैधव्य को)

देखता जीवित महीरुह शोक से, निर्वेद से,

क्लान्त पत्रों को झुकाये, स्तब्ध, मौनाकाश में,

सोचता, 'है भेजती हुमको प्रकृति तूफ़ान क्यों ?'

पर नहीं यह ज्ञात, उस जड़ वृक्ष को,

प्रकृति भी तो है अधीन विमर्ष के ।

यह प्रभंजन शस्त्र है उसका नहीं;

किन्तु, है आवेगमय विस्फोट उसके प्राण का,

जो जमा होता प्रचंड निदाघ से,

फूटना जिसका सहज अनिवार्य है ।

यों ही, नरों में भी विकारों की शिखाएँ आग-सी

एक से मिल एक जलती हैं प्रचण्डावेग से,

तप्त होता क्षुद्र अन्तर्व्योम पहले व्यक्ति का,

और तब उठता धधक समुदाय का आकाश भी

क्षोभ से, दाहक घृणा से, गरल, ईर्ष्या, द्वेष से ।

भट्ठियाँ इस भाँति जब तैयार होती हैं, तभी

युद्ध का ज्वालामुखी है फूटता

राजनैतिक उलझनों के ब्याज से

या कि देशप्रेम का अवलम्ब ले ।

किन्तु, सबके मूल में रहता हलाहल है वही,

फैलता है जो घृणा से, स्वर्थमय विद्वेष से ।

युद्ध को पहचानते सब लोग हैं,

जानते हैं, युद्ध का परिणाम अन्तिम ध्वंस है !

सत्य ही तो, कोटि का वध पाँच के सुख के लिए !

किन्तु, मत समझो कि इस कुरुक्षेत्र में

पाँच के सुख ही सदैव प्रधान थे;

युद्ध में मारे हुओं के सामने

पाँच के सुख-दुख नहीं उद्देश्य केवल मात्र थे !

और भी थे भाव उनके हृदय में,

स्वार्थ के, नरता, कि जलते शौर्य के;

खींच कर जिसने उन्हें आगे किया,

हेतु उस आवेश का था और भी ।

युद्ध का उन्माद संक्रमशील है,

एक चिनगारी कहीं जागी अगर,

तुरत बह उठते पवन उनचास हैं,

दौड़ती, हँसती, उबलती आग चारों ओर से ।

और तब रहता कहाँ अवकाश है

तत्त्वचिन्तन का, गंभीर विचार का ?

युद्ध की लपटें चुनौती भेजतीं

प्राणमय नर में छिपे शार्दूल को ।

युद्ध की ललकार सुन प्रतिशोध से

दीप्त हो अभिमान उठता बोल है;

चाहता नस तोड़कर बहना लहू,

आ स्वयं तलवार जाती हाथ में ।

रुग्ण होना चाहता कोई नहीं,

रोग लेकिन आ गया जब पास हो,

तिक्त ओषधि के सिवा उपचार क्या ?

शमित होगा वह नहीं मिष्टान्न से ।

है मृषा तेरे हृदय की जल्पना,

युद्ध करना पुण्य या दुष्पाप है;

क्योंकि कोई कर्म है ऐसा नहीं,

जो स्वयं ही पुण्य हो या पाप हो ।

सत्य ही भगवान ने उस दिन कहा,

'मुख्य है कर्त्ता-हृदय की भावना,

मुख्य है यह भाव, जीवन-युद्ध में

भिन्न हम कितना रहे निज कर्म से।'

औ' समर तो और भी अपवाद है,

चाहता कोई नहीं इसको मगर,

जूझना पड़ता सभी को, शत्रु जब

आ गया हो द्वार पर ललकारता ।

है बहुत देखा-सुना मैंने मगर,

भेद खुल पाया न धर्माधर्म का,

आज तक ऐसा कि रेखा खींच कर

बाँट दूँ मैं पुण्य औ' पाप को ।

जानता हूँ किन्तु, जीने के लिए

चाहिए अंगार-जैसी वीरता,

पाप हो सकता नहीं वह युद्ध है,

जो खड़ा होता ज्वलित प्रतिशोध पर ।

छीनता हो सत्व कोई, और तू

त्याग-तप के काम ले यह पाप है ।

पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे

बढ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो ।

बद्ध, विदलित और साधनहीन को

है उचित अवलम्ब अपनी आह का;

गिड़गिड़ाकर किन्तु, माँगे भीख क्यों

वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक्ति हो ?

युद्ध को तुम निन्द्य कहते हो, मगर,

जब तलक हैं उठ रहीं चिनगारियाँ

भिन्न स्वर्थों के कुलिश-संघर्ष की,

युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है ।

और जो अनिवार्य है, उसके लिए

खिन्न या परितप्त होना व्यर्थ है ।

तू नहीं लड़ता, न लड़ता, आग यह

फूटती निश्चय किसी भी व्याज से ।

पाण्डवों के भिक्षु होने से कभी

रुक न सकता था सहज विस्फोट यह

ध्वंस से सिर मारने को थे तुले

ग्रह-उपग्रह क्रुद्ध चारों ओर के ।

धर्म का है एक और रहस्य भी,

अब छिपाऊँ क्यों भविष्यत् से उसे ?

दो दिनों तक मैं मरण के भाल पर

हूँ खड़ा, पर जा रहा हूँ विश्व से ।

व्यक्ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा,

व्यक्ति की शोभा विनय भी, त्याग भी,

किन्तु, उठता प्रश्न जब समुदाय का,

भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को।

जो अखिल कल्याणमय है व्यक्ति तेरे प्राण में,

कौरवों के नाश पर है रो रहा केवल वही ।

किन्तु, उसके पास ही समुदायगत जो भाव हैं,

पूछ उनसे, क्या महाभारत नहीं अनिवार्य था ?

हारकर धन-धाम पाण्डव भिक्षु बन जब चल दिये,

पूछ, तब कैसा लगा यह कृत्य उस समुदाय को,

जो अनय का था विरोधी, पाण्डवों का मित्र था ।

और जब तूने उलझ कर व्यक्ति के सद्धर्म में

क्लीव-सा देखा किया लज्जा-हरण निज नारि का,

द्रौपदी के साथ ही लज्जा हरी थी जा रही

उस बड़े समुदाय की, जो पाण्डवों के साथ था

और तूने कुछ नहीं उपचार था उस दिन किया;

सो बता क्या पुण्य था ? य पुण्यमय था क्रोध वह,

जल उठा था आग-सा जो लोचनों में भीम के ?

कायरों-सी बात कर मुझको जला मत; आज तक

है रहा आदर्श मेरा वीरता, बलिदान ही;

जाति-मन्दिर में जलाकर शूरता की आरती,

जा रहा हूँ विश्व से चढ युद्ध के ही यान पर ।

त्याग, तप, भिक्षा ? बहुत हूँ जानता मैं भी, मगर,

त्याग, तप, भिक्षा, विरागी योगियों के धर्म हैं;

याकि उसकी नीति, जिसके हाथ में शायक नहीं;

या मृषा पाषण्ड यह उस कापुरुष बलहीन का,

जो सदा भयभीत रहता युद्ध से यह सोचकर

ग्लानिमय जीवन बहुत अच्छा, मरण अच्छा नहीं

त्याग, तप, करुणा, क्षमा से भींग कर,

व्यक्ति का मन तो बली होता, मगर,

हिंस्र पशु जब घेर लेते हैं उसे,

काम आता है बलिष्ठ शरीर ही ।

और तू कहता मनोबल है जिसे,

शस्त्र हो सकता नहीं वह देह का;

क्षेत्र उसका वह मनोमय भूमि है,

नर जहाँ लड़ता ज्वलन्त विकार से ।

कौन केवल आत्मबल से जूझ कर

जीत सकता देह का संग्राम है ?

पाश्विकता खड्ग जब लेती उठा,

आत्मबल का एक बस चलता नहीं ।

जो निरामय शक्ति है तप, त्याग में,

व्यक्ति का ही मन उसे है मानता;

योगियों की शक्ति से संसार में,

हारता लेकिन, नहीं समुदाय है ।

कानन में देख अस्थि-पुंज मुनिपुंगवों का

दैत्य-वध का था किया प्रण जब राम ने;

"मातिभ्रष्ट मानवों के शोध का उपाय एक

शस्त्र ही है ?" पूछा था कोमलमना वाम ने ।

नहीं प्रिये, सुधर मनुष्य सकता है तप,

त्याग से भी," उत्तर दिया था घनश्याम ने,

"तप का परन्तु, वश चलता नहीं सदैव

पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने।"

समर निंद्य है धर्मराज, पर,

कहो, शान्ति वह क्या है,

जो अनीति पर स्थित होकर भी

बनी हुई सरला है ?

सुख-समृद्धि क विपुल कोष

संचित कर कल, बल, छल से,

किसी क्षुधित क ग्रास छीन,

धन लूट किसी निर्बल से ।

सब समेट, प्रहरी बिठला कर

कहती कुछ मत बोलो,

शान्ति-सुधा बह रही, न इसमें

गरल क्रान्ति का घोलो ।

हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त

अपना मुझको पीने दो,

अचल रहे साम्रज्य शान्ति का,

जियो और जीने दो ।

सच है, सत्ता सिमट-सिमट

जिनके हाथों में आयी,

शान्तिभक्त वे साधु पुरुष

क्यों चाहें कभी लड़ाई ?

सुख का सम्यक्-रूप विभाजन

जहाँ नीति से, नय से

संभव नहीं; अशान्ति दबी हो

जहाँ खड्ग के भय से,

जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति

को सत्ताधारी,

जहाँ सुत्रधर हों समाज के

अन्यायी, अविचारी;

नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के

जहाँ न आदर पायें;

जहाँ सत्य कहनेवालों के

सीस उतारे जायें;

जहाँ खड्ग-बल एकमात्र

आधार बने शासन का;

दबे क्रोध से भभक रहा हो

हृदय जहाँ जन-जन का;

सहते-सहते अनय जहाँ

मर रहा मनुज का मन हो;

समझ कापुरुष अपने को

धिक्कार रहा जन-जन हो;

अहंकार के साथ घृणा का

जहाँ द्वन्द्व हो जारी;

ऊपर शान्ति, तलातल में

हो छिटक रही चिनगारी;

आगामी विस्फोट काल के

मुख पर दमक रहा हो;

इंगित में अंगार विवश

भावों के चमक रहा हो;

पढ कर भी संकेत सजग हों

किन्तु, न सत्ताधारी;

दुर्मति और अनल में दें

आहुतियाँ बारी-बारी;

कभी नये शोषण से, कभी

उपेक्षा, कभी दमन से,

अपमानों से कभी, कभी

शर-वेधक व्यंग्य-वचन से ।

दबे हुए आवेग वहाँ यदि

उबल किसी दिन फूटें,

संयम छोड़, काल बन मानव

अन्यायी पर टूटें;

कहो, कौन दायी होगा

उस दारुण जगद्दहन का

अहंकार य घृणा ? कौन

दोषी होगा उस रण का ?

तुम विषण्ण हो समझ

हुआ जगदाह तुम्हारे कर से ।

सोचो तो, क्या अग्नि समर की

बरसी थी अम्बर से ?

अथवा अकस्मात् मिट्टी से

फूटी थी यह ज्वाला ?

या मंत्रों के बल जनमी

थी यह शिखा कराला ?

कुरुक्षेत्र के पुर्व नहीं क्या

समर लगा था चलने ?

प्रतिहिंसा का दीप भयानक

हृदय-हृदय में बलने ?

शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का

जब वर्जन करती है,

तभी जान लो, किसी समर का

वह सर्जन करती है ।

शान्ति नहीं तब तक, जब तक

सुख-भाग न नर का सम हो,

नहीं किसी को अधिक हो,

नहीं किसी को कम हो ।

ऐसी शान्ति राज्य करती है

तन पर नहीं, हृदय पर,

नर के ऊँचे विश्वासों पर,

श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर ।

न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है,

जबतक न्याय न आता,

जैसा भी हो, महल शान्ति का

सुदृढ नहीं रह पाता ।

कृत्रिम शान्ति सशंक आप

अपने से ही डरती है,

खड्ग छोड़ विश्वास किसी का

कभी नहीं करती है ।

और जिन्हेँ इस शान्ति-व्यवस्था

में सिख-भोग सुलभ है,

उनके लिए शान्ति ही जीवन-

सार, सिद्धि दुर्लभ है ।

पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर,

शोणित पीकर तन का,

जीती है यह शान्ति, दाह

समझो कुछ उनके मन का ।

सत्व माँगने से न मिले,

संघात पाप हो जायें,

बोलो धर्मराज, शोषित वे

जियें या कि मिट जायें ?

न्यायोचित अधिकार माँगने

से न मिलें, तो लड़ के,

तेजस्वी छीनते समर को

जीत, या कि खुद मरके ।

किसने कहा, पाप है समुचित

सत्व-प्राप्ति-हित लड़ना ?

उठा न्याय क खड्ग समर में

अभय मारना-मरना ?

क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल

की दे वृथा दुहाई,

धर्मराज, व्यंजित करते तुम

मानव की कदराई ।

हिंसा का आघात तपस्या ने

कब, कहाँ सहा है ?

देवों का दल सदा दानवों

से हारता रहा है ।

मनःशक्ति प्यारी थी तुमको

यदि पौरुष ज्वलन से,

लोभ किया क्यों भरत-राज्य का ?

फिर आये क्यों वन से ?

पिया भीम ने विष, लाक्षागृह

जला, हुए वनवासी,

केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख

कहलायी दासी

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल,

सबका लिया सहारा;

पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे

कहो, कहाँ कब हारा ?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष

तुम हुए विनत जितना ही,

दुष्ट कौरवों ने तुमको

कायर समझा उतना ही ।

अत्याचार सहन करने का

कुफल यही होता है,

पौरुष का आतंक मनुज

कोमल होकर खोता है ।

क्षमा शोभती उस भुजंग को,

जिसके पास गरल हो ।

उसको क्या, जो दन्तहीन,

विषरहित, विनीत, सरल हो ?

तीन दिवस तक पन्थ माँगते

रघुपति सिन्धु-किनारे,

बैठे पढते रहे छन्द

अनुनय के प्यारे-प्यारे ।

उत्तर में जब एक नाद भी

उठा नहीं सागर से,

उठी अधीर धधक पौरुष की

आग राम के शर से ।

सिन्धु देह धर 'त्राहि-त्राहि'

करता आ गिरा शरण में,

चरण पूज, दासता ग्रहण की,

बँधा मूढ बन्धन में ।

सच पूछो, तो शर में ही

बसती है दीप्ति विनय की,

सन्धि-वचन संपूज्य उसी का

जिसमें शक्ति विजय की ।

सहनशीलता, क्षमा, दया को

तभी पूजता जग है,

बल का दर्प चमकता उसके

पीछे जब जगमग है ।

जहाँ नहीं सामर्थ्य शोध की,

क्षमा वहाँ निष्फल है ।

गरल-घूँट पी जाने का

मिस है, वाणी का छल है ।

फलक क्षमा का ओढ छिपाते

जो अपनी कायरता,

वे क्या जानें ज्वलित-प्राण

नर की पौरुष-निर्भरता ?

वे क्या जानें नर में वह क्या

असहनशील अनल है,

जो लगते ही स्पर्श हृदय से

सिर तक उठता बल है ?

जिनकी भुजाओं की शिराएँ फडकी ही नहीं,

जिनके लहु में नहीं वेग है अनल का ।

शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा,

चक्खा ही जिन्होनें नहीं स्वाद हलाहल का;

जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं,

ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका ।

जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है,

बैठते भरोसा किए वे ही आत्मबल का ।

उसकी सहिष्णुता क्षमा का है महत्व ही क्या,

करना ही आता नहीं जिसको प्रहार है ।

करुणा, क्षमा को छोड़ और क्या उपाय उसे,

ले न सकता जो बैरियों से प्रतिकार है ?

सहता प्रहार कोई विवश कदर्य जीव,

जिसके नसों में नहीं पौरुष की धार है ।

करुणा, क्षमा है क्लीब जाति के कलंक घोर,

क्षमता क्षमा की शूर वीरों का सृंगार है ।

प्रतिशोध से है होती शौर्य की शीखाएँ दीप्त,

प्रतिशोध-हीनता नरो में महपाप है ।

छोड़ प्रतिवैर पीते मूक अपमान वे ही,

जिनमें न शेष शूरता का वह्नि-ताप है ।

चोट खा सहिष्णु व' रहेगा किस भाँति, तीर

जिसके निषग में, करों में धृड चाप है ।

जेता के विभूषण सहिष्णुता, क्षमा है पर,

हारी हुई जाति की सहिष्णुता अभिशाप है ।

सटता कहीं भी एक तृण जो शरीर से तो,

उठता कराल हो फणीश फुफकर है ।

सुनता गजेंद्र की चिंघार जो वनों में कहीं,

भरता गुहा में ही मृगेंद्र हुहुकार है ।

शूल चुभते हैं, छूते आग है जलाती, भू को

लीलने को देखो गर्जमान पारावार है ।

जग में प्रदीप्त है इसी का तेज, प्रतिशोध

जड़-चेतनों का जन्मसिद्ध अधिकार है ।

सेना साज हीन है परस्व-हरने की वृत्ति,

लोभ की लड़ाई क्षात्र-धर्म के विरुद्ध है ।

वासना-विषय से नहीं पुण्य-उद्भूत होता,

वाणिज के हाथ की कृपाण ही अशुद्ध है ।

चोट खा परन्तु जब सिंह उठता है जाग,

उठता कराल प्रतिशोध हो प्रबुद्ध है ।

पुण्य खिलता है चंद्र-हास की विभा में तब,

पौरुष की जागृति कहाती धर्म-युद्ध है ।

धर्म है हुताशन का धधक उठे तुरंत,

कोई क्यों प्रचंड वेग वायु को बुलाता है ?

फूटेंगे कराल ज्वालामुखियों के कंठ, ध्रुव

आनन पर बैठ विश्व धूम क्यों मचाता है ?

फूँक से जलाएगी अवश्य जगति को ब्याल,

कोई क्यों खरोंच मार उसको जगाता है ?

विद्युत खगोल से अवश्य ही गिरेगी, कोई

दीप्त अभिमान पे क्यों ठोकर लगाता है ?

युद्ध को बुलाता है अनीति-ध्वजधारी या कि

वह जो अनीति भाल पै दे पाँव चलता ?

वह जो दबा है शोषणो के भीम शैल से या

वह जो खड़ा है मग्न हँसता-मचलता ?

वह जो बनाके शांति-व्यूह सुख लूटता या

वह जो अशांत हो क्षुदानल में जलता ?

कौन है बुलाता युद्ध ? जाल जो बनाता ?

या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल-सा निकलता ?

पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,

पातकी बताना उसे दर्शन कि भ्रांति है ।

शोषणो के श्रंखला के हेतु बनती जो शांति,

युद्ध है, यथार्थ में वो भीषण अशांति है ।

सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व का है,

ईश के अवज्ञा घोर, पौरुष कि श्रान्ति है ।

पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का,

ऐसी श्रंखला में धर्म विप्लव है, क्रांति है ।

भूल रहे हो धर्मराज तुम

अभी हिन्स्त्र भूतल है ।

खड़ा चतुर्दिक अहंकार है,

खड़ा चतुर्दिक छल है ।

मैं भी हूँ सोचता जगत से

कैसे मिटे जिघान्सा,

किस प्रकार धरती पर फैले

करुणा, प्रेम, अहिंसा ।

जिए मनुज किस भाँति

परस्पर होकर भाई भाई,

कैसे रुके प्रदाह क्रोध का ?

कैसे रुके लड़ाई ?

धरती हो साम्राज्य स्नेह का,

जीवन स्निग्ध, सरल हो ।

मनुज प्रकृति से विदा सदा को

दाहक द्वेष गरल हो ।

बहे प्रेम की धार, मनुज को

वह अनवरत भिगोए,

एक दूसरे के उर में,

नर बीज प्रेम के बोए ।

किंतु, हाय, आधे पथ तक ही,

पहुँच सका यह जग है,

अभी शांति का स्वप्न दूर

नभ में करता जग-मग है ।

भूले भटके ही धरती पर

वह आदर्श उतरता ।

किसी युधिष्ठिर के प्राणों में

ही स्वरूप है धरता ।

किंतु, द्वेष के शिला-दुर्ग से

बार-बार टकरा कर,

रुद्ध मनुज के मनोद्देश के

लौह-द्वार को पा कर ।

घृणा, कलह, विद्वेष विविध

तापों से आकुल हो कर,

हो जाता उड्डीन, एक दो

का ही हृदय भिगो कर ।

क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन

अगणित अभी यहाँ हैं,

बढ़े शांति की लता, कहो

वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं ?

शांति-बीन बजती है, तब तक

नहीं सुनिश्चित सुर में ।

सुर की शुद्ध प्रतिध्वनि, जब तक

उठे नहीं उर-उर में ।

यह नबाह्य उपकरण, भार बन

जो आवे ऊपर से,

आत्मा की यह ज्योति, फूटती

सदा विमल अंतर से ।

शांति नाम उस रुचित सरणी का,

जिसे प्रेम पहचाने,

खड्ग-भीत तन ही न,

मनुज का मन भी जिसको माने

शिवा-शांति की मूर्ति नहीं

बनती कुलाल के गृह में ।

सदा जन्म लेती वह नर के

मनःप्रान्त निस्प्रह में ।

घृणा-कलह-विफोट हेतु का

करके सफल निवारण,

मनुज-प्रकृति ही करती

शीतल रूप शांति का धारण ।

जब होती अवतीर्ण मूर्ति यह

भय न शेष रह जाता ।

चिंता-तिमिर ग्रस्त फिर कोई

नहीं देश रह जाता ।

शांति, सुशीतल शांति,

कहाँ वह समता देने वाली ?

देखो आज विषमता की ही

वह करती रखवाली ।

आनन सरल, वचन मधुमय है,

तन पर शुभ्र वसन है ।

बचो युधिष्ठिर, उस नागिन का

विष से भरा दशन है ।

वह रखती परिपूर्ण नृपों से

जरासंध की कारा ।

शोणित कभी, कभी पीती है,

तप्त अश्रु की धारा ।

कुरुक्षेत्र में जली चिता

जिसकी वह शांति नहीं थी ।

अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली

वह दुश्क्रान्ति नहीं थी ।

थी परस्व-ग्रासिनी, भुजन्गिनि,

वह जो जली समर में ।

असहनशील शौर्य था, जो बल

उठा पार्थ के शर में ।

हुआ नहीं स्वीकार शांति को

जीना जब कुछ देकर ।

टूटा मनुज काल-सा उस पर

प्राण हाथ में लेकर

पापी कौन ? मनुज से उसका

न्याय चुराने वाला ?

या कि न्याय खोजते विघ्न

का सीस उड़ाने वाला ?

ब्रह्मचर्य के व्रतीधर्म के

महास्तंभ, बल के आगार

परम विरागी पुरुष जिन्हें

पाकर भी पा न सका संसार ।

किया विसर्जित मुकुट धर्म हित

और स्नेह के कारण प्राण

पुरुष विक्रमी कौन दूसरा

हुआ जगत में भीष्म सामान ?

शरों की नोक पर लेटे हुए,गजराज जैसे

थके, टूटे गरुड़ से,स्रस्त पन्न्गराज जैसे

मरण पर वीर-जीवन का अगम बल भार डाले

दबाये काल को, सायास संज्ञा को संभाले,

पितामह कह रहे कौन्तेय से रण की कथा हैं,

विचारों की लड़ी में गूंथते जाते व्यथा हैं।

ह्रदय सागर मथित होकर कभी जब डोलता है

छिपी निज वेदना गंभीर नर भी बोलता है ।

"चुराता न्याय जो, रण को बुलाता भी वही है,

युधिष्ठिर ! स्वत्व की अन्वेषणा पातक नहीं है ।

नरक उनके लिए, जो पाप को स्वीकारते हैं;

न उनके हेतु जो तन में उसे ललकारते हैं ।

सहज ही चाहता कोई नहीं लड़ना किसी से;

किसीको मारना अथवा स्वयं मरना किसी से;

नहीं दु:शांति को भी तोडना नर चाहता है;

जहाँ तक हो सके, निज शांति प्रेम निबाहता है ।

मगर, यह शांतिप्रियता रोकती केवल मनुज को

नहीं वो रोक पाती है दुराचारी दनुज को ।

दनुज क्या शिष्ट मानव को कभी पहचानता है ?

विनय की नीति कायर की सदा वह मानता है ।

समय ज्यों बीतता, त्यों त्यों अवस्था घोर होती है

अन्य की श्रंखला बढ़ कर कराल कठोर होती है ।

किसी दिन तब, महाविस्फोट कोई फूटता है

मनुज ले जान हाथों में दनुज पर टूटता है ।

न समझोकिन्तु, इस विध्वंस के होते प्रणेता

समर के अग्रणी दो ही, पराजित और जेता ।

नहीं जलता निखिलसंसार दो की आग से है,

अवस्थित ज्यों न जग दो-चार ही के भाग से है ।

युधिष्ठिर ! क्या हुताशन-शैल सहसा फूटता है ?

कभी क्या वज्र निर्धन व्योम से भी छूटता है ?

अनलगिरी फूटता, जब ताप होता है अवनी में,

कडकती दामिनी विकराल धूमाकुल गगन में ।

महाभारत नहीं था द्वन्द्व केवल दो घरों का,

अनल का पुंज था इसमें भरा अगणित नरों का ।

न केवल यह कुफल कुरुवंश के संघर्ष का था,

विकट विस्फोट यह सम्पूर्ण भारतवर्ष का था ।

युगों से विश्व में विष-वायु बहती आ रही थी,

धरित्री मौन हो दावाग्नि सहती आ रही थी;

परस्पर वैर-शोधन के लिए तैयार थे सब,

समर का खोजते कोई बड़ा आधार थे सब ।

कहीं था जल रहा कोई किसी की शूरता से ।

कहीं था क्षोभ में कोई किसी की क्रूरता से ।

कहीं उत्कर्ष ही नृप का नृपों को सालता था

कहीं प्रतिशोध का कोई भुजंगम पालता था ।

निभाना पर्थ-वध का चाहता राधेयथा प्रण ।

द्रुपद था चाहता गुरु द्रोण से निज वैर-शोधन ।

शकुनी को चाह थी, कैसे चुकाए ऋण पिता का,

मिला दे धूल में किस भांति कुरु-कुल की पताका ।

सुयोधन पर न उसका प्रेम था, वह घोर छल था ।

हितू बन कर उसे रखना ज्वलित केवल अनल था ।

जहाँ भी आग थी जैसी, सुलगती जा रही थी,

समर में फूट पड़ने के लिए अकुला रही थी ।

सुधारों से स्वयं भगवान के जो-जो चिढे थे

नृपति वे क्रुद्ध होकर एक दल में जा मिले थे ।

नहीं शिशुपाल के वध से मिटा था मान उनका,

दुबक कर था रहा धुन्धुंआँ द्विगुण अभिमान उनका ।

परस्पर की कलह से, वैर से, हो कर विभाजित

कभी से दो दलों में हो रहे थे लोग सज्जित ।

खड़े थे वे ह्रदय में प्रज्वलित अंगार ले कर,

धनुर्ज्या को चढा कर, म्यान में तलवार ले कर ।

था रह गया हलाहल का यदि

कोई रूप अधूरा,

किया युधिष्ठिर, उसे तुम्हारे

राजसूय ने पूरा ।

इच्छा नर की और, और फल

देती उसे नियति है ।

फलता विष पीयूष-वृक्ष में,

अकथ प्रकृति की गति है ।

तुम्हें बना सम्राट देश का,

राजसूय के द्वारा,

केशव ने था ऐक्य- सृजन का

उचित उपाय विचारा ।

सो, परिणाम और कुछ निकला,

भडकी आग भुवन में ।

द्वेष अंकुरित हुआ पराजित

राजाओं के मन में ।

समझ न पाए वे केशव के

सदुद्देश्य निश्छल को ।

देखा मात्र उन्होंने बढ़ते

इन्द्रप्रस्थ के बल को ।

पूजनीय को पूज्य मानने

में जो बाधा-क्रम है,

वही मनुज का अहंकार है,

वही मनुज का भ्रम है ।

इन्द्रप्रस्थ का मुकुट-छत्र

भारत भर का भूषण था;

उसे नमन करने में लगता

किसे, कौन दूषण था ?

तो भी ग्लानि हुई बहुतों को

इस अकलंक नमन से,

भ्रमित बुद्धि ने की इसकी

समता अभिमान-दलन से ।

इस पूजन में पड़ी दिखाई

उन्हें विवशता अपनी,

पर के विभव, प्रताप, समुन्नति

में परवशता अपनी ।

राजसूय का यज्ञ लगा

उनको रण के कौशल सा,

निज विस्तार चाहने वाले

चतुर भूप के छल सा ।

धर्मराज ! कोई न चाहता

अहंकार निज खोना

किसी उच्च सत्ता के सम्मुख

सन्मन से नत होना ।

सभी तुम्हारे ध्वज के नीचे

आये थे न प्रणय से

कुछ आये थे भक्ति-भाव से

कुछ कृपाण के भय से ।

मगर भाव जो भी हों सबके

एक बात थी मन में

रह सकता था अक्षुण्ण मुकुट का

मान न इस वंदन में ।

लगा उन्हें, सर पर सबके

दासत्व चढा जाता है,

राजसूय में से कोई

साम्राज्य बढ़ा आता है ।

किया यज्ञ ने मान विमर्दित

अगणित भूपालों का,

अमित दिग्गजों का,शूरों का,

बल वैभव वालों का ।

सच है सत्कृत किया अतिथि

भूपों को तुमने मन से

अनुनय, विनय, शील, समता से,

मंजुल, मिष्ट वचन से ।

पर, स्वतंत्रता-मणि का इनसे

मोल न चूक सकता है

मन में सतत दहकने वाला

भाव न रुक सकता है ।

कोई मंद, मूढमति नृप ही

होता तुष्टवचन से,

विजयी की शिष्टता-विनय से,

अरि के आलिंगन से ।

चतुर भूप तन से मिल करते

शमित शत्रु के भय को,

किन्तु नहीं पड़ने देते

अरि-कर में कभी ह्रदय को ।

हुए न प्रशमित भूप

प्रणय-उपहार यज्ञ में देकर,

लौटे इन्द्रप्रस्थ से वे

कुछ भाव और ही ले कर ।

"धर्मराज, है याद व्यास का

वह गंभीर वचन क्या ?

ऋषि का वह यज्ञान्त-काल का

विकट भविष्य-कथन क्या ?

जुटा जा रहा कुटिल ग्रहों का

दुष्ट योग अम्बर में,

स्यात जगत पडने वाला है

किसी महा संगरमें ।

तेरह वर्ष रहेगी जग में

शांति किसी विध छायी ।

तब होगा विस्फोट, छिडेगी

कोई कठिन लड़ाई ।

होगा ध्वंस कराल, काल

विप्लव का खेल रचेगा,

प्रलय प्रकट होगा धरणी पर,

हा-हा कार मचेगा ।

यह था वचन सिद्ध दृष्टा का,

नहीं निरी अटकल थी,

व्यास जानते थे वसुधा

जा रही किधर पल-पल थी ।

सब थे सुखी यज्ञ से, केवल

मुनि का ह्रदय विकल था,

वहीजानते थे कि कुण्ड से

निकला कौन अनल था ।

भरी सभा के बीच उन्होंने

सजग किया था सबको,

पग-पग पर संयम का शुभ

उपदेश दिया था सबको ।

किन्तु अहम्म्य, राग-दीप्त नर

कब संयम करता है ?

कल आने वाली विपत्ति से

आज कहाँ डरता है ?

बीत न पाया वर्ष काल का

गर्जन पड़ा सुनाई,

इन्द्रप्रस्थ पर घुमड़ विपद की

घटा अतर्कित छायी ।

किसे ज्ञात था खेल-खेल में

यह विनाश छायेगा ?

भारत का दुर्भाग्य द्यूत पर

चढा हुआ आएगा ?

कौन जानता था कि सुयोधन

की धृति यों छूटेगी ?

राजसूय के हवन-कुण्ड से

विकट- वह्नि फूटेगी ?

तो भी है सच, धर्मराज !

यह ज्वाला नयी नहीं थी;

दुर्योधन के मन में वह

वर्षों से खेल रही थी ।

बिंधा चित्र-खग रंग भूमि में

जिस दिन अर्जुन-शर से,

उसी दिवस जनमी दुरग्नि

दुर्योधन के अन्तर से ।

बनी हलाहल वहीवंश का,

लपटें लाख-भवन की,

द्यूत-कपट शकुनी का वन-

यातना पांडु-नंदन की ।

भरी सभा में लाज द्रोपदी

की न गयी थी लूटी,

वह तो यही कराल आग

थी निर्भय हो कर फूटी ।

ज्यों ज्यों साड़ी विवश द्रोपदी

की खिंचती जाती थी,

त्यों–त्यों वह आवृत,

दुरग्नि यह नग्न हुयी जाती थी ।

उसके कर्षित केश जाल में

केश खुले थे इसके,

पुंजीभूत वसन उसका था

वेश खुले थे इसके ।

दुरवस्था में घेर खड़ा था

उसे तपोबल उसका,

एक दीप्त आलोक बन गया

था चीरांचल उसका ।

पर, दुर्योधन की दुरग्नि

नंगी हो नाच रही थी

अपनी निर्लज्जता, देश का

पौरुष जांच रही थी ।

किन्तु न जाने क्यों उस दिन

तुम हारे, मैं भी हारा,

जाने, क्यों फूटी न भुजा को

फोड़ रक्त की धारा ।

नर की कीर्ति- ध्वजा उस दिन

कट गयी देश में जड़ से

नारी ने सुर को टेरा,

जिस दिन निराश हो नर से ।

महासमर आरम्भ देश में

होना था उस दिन ही,

उठा खड्ग यह पंक रुधिर से

धोना था उस दिन ही ।

निर्दोषा, कुलवधू, एकवस्त्रा

को खींच महल से,

दासी बना सभा में लाये

दुष्ट द्यूत के छल से ।

और सभी के सम्मुख

लज्जा-वसन अभय हो खोलें

बुद्धि- विषण्ण वीर भारत के

किन्तु नहीं कुछ बोलें ।

समझ सकेगा कौन धर्म की

यह नव रीति निराली,

थूकेंगीं हम पर अवश्य

संततियां आने वाली ।

उस दिन की स्मृति से छाती

अब भी जलने लगती है,

भीतर कहीं छुरी कोई

हृत पर चलने लगती है ।

धिक् धिक् मुझे, हुयी उत्पीड़ित

सम्मुख राज-वधूटी

आँखों के आगे अबला की

लाज खलों ने लूटी ।

और रहा जीवित मैं, धरणी

फटी न दिग्गज डोला,

गिरा न कोई वज्र, न अम्बर

गरज क्रोध में बोला ।

जिया प्रज्ज्वलित अंगारे-सा

मैं आजीवन जग में,

रुधिर नहीं था, आग पिघल कर

बहती थी रग-रग में ।

यह जन कभी किसी का अनुचित

दर्प न सह सकता था,

कहीं देख अन्याय किसी का

मौन न रह सकता था ।

सो कलंक वह लगा, नहीं

धुल सकता जो धोने से,

भीतर ही भीतर जलने से

या कष्ट फाड़ रोने से ।

अपने वीर चरित पर तो मैं

प्रश्न लिए जाता हूँ,

धर्मराज ! पर, तुम्हें एक

उपदेश दिए जाता हूँ ।

शूरधर्म है अभय दहकते

अंगारों पर चलना,

शूरधर्म है शाणित असि पर

धर कर चरण मचलना ।

शूरधर्म कहते हैं छाती तान

तीर खाने को,

शूरधर्म कहते हँस कर

हालाहल पी जाने को ।

आग हथेली पर सुलगा कर

सिर का हविष्चढाना,

शूरधर्म है जग को अनुपम

बलि का पाठ पढ़ाना ।

सबसे बड़ा धर्म है नर का

सदा प्रज्वलित रहना,

दाहक शक्ति समेट स्पर्श भी

नहीं किसी का सहना ।

बुझा बुद्धि का दीप वीरवर

आँख मूँद चलते हैं,

उछल वेदिका पर चढ जाते

और स्वयं बलते हैं ।

बात पूछने को विवेक से

जभी वीरता जाती,

पी जाती अपमान पतित हो

अपना तेज गंवाती ।

सच है बुद्धि-कलश में जल है

शीतल सुधा तरल है,

पर,भूलो मत, कुसमय में

हो जाता वही गरल है ।

सदा नहीं मानापमान की

बुद्धि उचित सुधि लेती,

करती बहुत विचार, अग्नि की

शिखा बुझा है देती ।

उसने ही दी बुझा तुम्हारे

पौरुष की चिंगारी,

जली न आँख देख कर खिंचती

द्रुपद-सुता की साड़ी ।

बाँध उसी ने मुझे द्विधा से

बना दिया कायर था,

जगूँ-जगूँ जब तक, तब तक तो

निकल चुका अवसर था ।

यौवन चलता सदा गर्व से

सिर ताने, शर खींचे,

झुकने लगता किन्तु क्षीण बल

वे विवेक के नीचे ।

यौवन के उच्छल प्रवाह को

देख मौन, मन मारे,

सहमी हुई बुद्धि रहती है

निश्छल खड़ीकिनारे ।

डरती है, बह जाए नहीं

तिनके-सी इस धारा में,

प्लावन-भीत स्वयं छिपती

फिरती अपनी कारा में ।

हिम-विमुक्त, निर्विघ्न, तपस्या

पर खिलता यौवन है,

नयी दीप्ति, नूतन सौरभ से

रहता भरा भुवन है ।

किन्तु बुद्धि नित खड़ी ताक में

रहती घातलगाए,

कब जीवन का ज्वार शिथिल हो

कब वह उसे दबाये ।

और सत्य ही, जभी रुधिर का

वेग तनिक कम होता,

सुस्ताने को कहीं ठहर

जाता जीवन का सोता ।

बुद्धि फेंकती तुरत जाल निज

मानव फंस जाता है,

नयी नयी उलझने लिए

जीवन सम्मुखआता है ।

क्षमा या कि प्रतिकार, जगत में

क्या कर्त्तव्य मनुज का ?

मरण या कि उच्छेद ? उचित

उपचार कौन है रूज का ?

बल-विवेक में कौन श्रेष्ठ है,

असि वरेण्य या अनुनय ?

पूजनीयरुधिराक्त विजय

या करुणा-धौतपराजय ?

दो में कौन पुनीत शिखा है ?

आत्मा की या मन की ?

शमित-तेज वय की मति शिव

या गति उच्छल यौवन की ?

जीवन की है श्रांति घोर, हम

जिसको वय कहते हैं,

थके सिंह आदर्श ढूंढते,

व्यंगय-बाण सहते हैं ।

वय हो बुद्धि-अधीन चक्र पर

विवश घूमता जाता,

भ्रम को रोक समय को उत्तर,

तुरत नहीं दे पाता ।

तब तक तेज लूट पौरुष का

काल चला जाता है ।

वय-जड़ मानव ग्लानि-मग्न हो

रोता-पछताता है ।

वय का फल भोगता रहा मैं

रुका सुयोधन-घर में,

रही वीरता पड़ी तड़पती

बंद अस्थि-पंजर में ।

न तो कौरवों का हित साधा

और न पांडव का ही,

द्वंद्व-बीच उलझा कर रक्खा

वय ने मुझे सदा ही ।

धर्म, स्नेह, दोनों प्यारे थे

बड़ा कठिन निर्णय था,

अत: एक को देह, दूसरे-

को दे दिया हृदय था ।

किन्तु, फटी जब घटा, ज्योति

जीवन की पड़ी दिखाई,

सहसा सैकत-बीच स्नेह की

धार उमड़ कर छाई ।

धर्म पराजित हुआ, स्नेह का

डंका बजा विजय का,

मिली देह भी उसे, दान था

जिसको मिला हृदय था ।

भीष्म न गिरा पार्थ के शर से,

गिरा भीष्म का वय था,

वय का तिमिर भेद वह मेरा,

यौवन हुआ उदय था ।

हृदय प्रेम को चढ़ा, कर्म को

भुजा समर्पित करके

मैं आया था कुरुक्षेत्र में

तोष हृदय में भर के ।

समझा था, मिट गया द्वंद्व

पा कर यह न्याय-विभाजन,

ज्ञात न था, है कहीं कर्म से

कठिन स्नेह का बंधन ।

दिखा धर्म की भीति, कर्म

मुझसे सेवा लेता था,

करने को बलि पूर्ण स्नेह

नीरव इंगित देता था ।

धर्मराज, संकट में कृत्रिम

पटल उघर जाता है,

मानव का सच्चा स्वरूप

खुल कर बाहर आता है ।

घमासान ज्यों बढ़ा, चमकने

धुंधली लगी कहानी,

उठी स्नेह-वंदन करने को

मेरी दबी जवानी ।

फटा बुद्धि -भ्रम, हटा कर्म का

मिथ्याजाल नयन से,

प्रेम अधीर पुकार उठा

मेरे शरीर से, मन से-

लो, अपना सर्वस्व पार्थ !

यह मुझको मार गिराओ,

अब है विरह असह्य, मुझे

तुम स्नेह-धाम पहुंचाओ ।

ब्रह्मचर्य्य के प्रण के दिन जो

रुद्ध हुयी थी धारा,

कुरुक्षेत्र में फूट उसी ने

बन कर प्रेम पुकारा ।

बही न कोमल वायु, कुंज

मन का था कभी न डोला,

पत्तों की झुरमुट में छिप कर

बिहग न कोई बोला ।

चढ़ा किसी दिन फूल, किसी का

मान न मैं कर पाया,

एक बार भी अपने को था

दान न मैं कर पाया ।

वह अतृप्ति थी छिपी हृदय के

किसी निभृत कोने में,

जा बैठा था आँख बचा

जीवन चुपके दोने में ।

वही भाव आदर्श-वेदि पर

चढ़ा फुल्ल हो रण में,

बोल रहा है वही मधुर

पीड़ा बन कर व्रण-व्रण में ।

मैं था सदा सचेत, नियंत्रण-

बंध प्राण पर बांधे,

कोमलता की ओर शरासन

तान निशाना साधे ।

पर, न जानता था, भीतर

कोई माया चलती है,

भाव-गर्त के गहन वितल में

शिखा छन्न जलती है ।

वीर सुयोधन का सेनापति

बन लड़ने आया था ;

कुरुक्षेत्र में नहीं, स्नेह पर

मैं मरने आया था ।

सच है, पार्थ-धनुष पर मेरी

भक्ति बहुत गहरी थी,

सच है, उसे देख उठती

मन में प्रमोद-लहरी थी ।

"सच है, था चाहता पाण्डवों

का हित मैं सम्मन से,

पर दुर्योधन के हाथों में

बिका हुआ था तन से ।

"न्याय–व्यूह को भेद स्नेह ने

उठा लिया निज धन है,

सिद्ध हुआ, मन जिसे मिला,

संपत्ति उसी की तन है ।

"प्रकटी होती मधुर प्रेम की

मुझ पर कहीं अमरता,

स्यात देश को कुरूक्षेत्र का

दिन न देखना पड़ता ।

"धर्मराज, अपने कोमल

भावों की कर अवहेला ।

लगता है, मैंने भी जग को

रण की ओर ढकेला ।

"जीवन के अरूणाभ प्रहर में

कर कठोर व्रत धारण,

सदा स्निग्ध भावों का यह जन

करता रहा निवारण ।

"न था मुझे विश्वास, कर्म से

स्नेह श्रेष्ठ, सुन्दर है,

कोमलता की लौ व्रत के

आलोकों से बढ़, कर है ।

"कर में चाप, पीठ पर तरकस,

नीति–ज्ञान था मन में,

इन्हें छोड, मैंने देखा

कुछ और नहीं जीवन में ।

"जहाँ कभी अन्तर में कोर्इ

भाव अपरिचित जागे,

झुकना पड़ा उन्हें बरबस,

नय–नीति–ज्ञान के आगे ।

"सदा सुयोधन के कृत्यों से

मेरा क्षुब्ध हृदय था,

पर, क्या करता, यहाँ सबल थी

नीति, प्रबलतम नय था !

"अनुशासन का स्वत्व सौंप कर

स्वयं नीति के कर में,

पराधीन सेवक बन बैठा

मैं अपने ही घर में,

"बुद्धि शासिका थी जीवन की,

अनुचर मात्र हृदय था,

मुझसे कुछ खुलकर कहने में

लगता उसको भय था ।

कह न सका वह कभी, भीष्म !

तुम कहाँ बहे जाते हो ?

न्याय-दण्ड-धर हो कर भी

अन्याय सहे जाते हो ।

प्यार पांडवों पर मन से

कौरव की सेवा तन से,

सध पाएगा कौन काम

इस बिखरी हुई लगन से ?

बढ़ता हुआ बैर भीषण

पांडव से दुर्योधन का,

मुझमें बिम्बित हुआ द्वंद्व

बन कर शरीर से मन का ।

किन्तु, बुद्धि ने मुझे भ्रमित कर

दिया नहीं कुछ करने,

स्वत्व छीन अपने हाथों का

हृदय-वेदी पर धरने ।

कभी दिखती रही बैर के

स्वयं-शमन का सपना,

कहती रही कभी, जग में

है कौन पराया-अपना ।

कभी कहा, तुम बढ़े, धीरता

बहुतों की छूटेगी,

होगा विप्लव घोर, व्यवस्था

की सरणी टूटेगी ।

कभी वीरता को उभार

रोका अरण्य जाने से ;

वंचित रखा विविध विध मुझको

इच्छित फल पाने से ।

आज सोचता हूँ, उसका यदि

कहा न माना होता,

स्नेह-सिद्ध शुचि रूप न्याय का

यदि पहचाना होता ।

धो पाता यदि राजनीति का

कलुष स्नेह के जल से,

दंडनीति को कहीं मिला

पाता करुणा निर्मल से ।

लिख पायी सत्ता के उर पर

जीभ नहीं जो गाथा,

विशिख-लेखनी से लिखने मैं

उसे कहीं उठ पाता ।

कर पाता यदि मुक्त हृदय को

मस्तक के शासन से,

उतार पकड़ता बाँह दलित की

मंत्री के आसन से ।

राज-द्रोह की ध्वजा उठा कर

कहीं प्रचारा होता,

न्याय-पक्ष लेकर दुर्योधन

को ललकारा होता ।

स्यात सुयोधन भीत उठाता

पग कुछ अधिक संभल के,

भरतभूमि पड़ती न स्यात

संगर में आगे चल के ।

पर, सब कुछ हो चुका, नहीं कुछ

शेष, कथा जाने दो,

भूलो बीती बात, नए

युग को जग में आने दो ।

मुझे शांति, यात्रा से पहले

मिले सभी फल मुझको,

सुलभ हो गए धर्म, स्नेह

दोनों के संबल मुझको ।

शारदे! विकल संक्रांति-काल का नर मैं,

कलिकाल-भाल पर चढ़ा हुआ द्वापर मैं;

संतप्त विश्व के लिए खोजते छाया,

आशा में था इतिहास-लोक तक आया ।

पर हाय, यहाँ भी धधक रहा अंबर है,

उड़ रही पवन में दाहक लोल लहर है;

कोलाहल-सा आ रहा काल-गह्वर से,

तांडव का रोर कराल क्षुब्ध सागर से ।

संघर्ष-नाद वन-दहन-दारू का भारी,

विस्फोट वह्नि-गिरि का ज्वलंत भयकारी;

इन पन्नों से आ रहा विस्र यह क्या है ?

जल रहा कौन ? किसका यह विकत धुआँ है ?

भयभीत भूमि के उरमें चुभी शलाका,

उड़ रही लाल यह किसकी विजय-पताका ?

है नाच रहा वह कौन ध्वंस-असिधारे,

रुधिराक्त-गात, जिह्वा लेलिहम्य पसारे ?

यह लगा दौड़ने अश्व कि मद मानव का ?

हो रहा यज्ञ या ध्वंस अकारण भव का ?

घट में जिसको कर रहा खड्ड संचित है,

वह सरिद्वारि है या नर का शोणित है ?

मंडली नृपों की जिन्हें विवश हो ढोती,

यज्ञोपहार हैं या कि मान के मोती ?

कुंडों में यह घृत-वलित हव्य बलता है ?

या अहंकार अपहृत नृप का जलता है ?

ऋत्विक पढ़ते हैं वेद कि, ऋचा दहन की ?

प्रशमित करते या ज्वलित वह्नि जीवन की ?

है कपिश धूम प्रतिगान जयी के यश का ?

या धुँधुआता है क्रोध महीप विवश का ?

यह स्वस्ति-पाठ है या नव अनल-प्रदाहन ?

यज्ञान्त-स्नान है या कि रुधिर-अवगाहन ?

सम्राट-भाल पर चढ़ी लाल जो टीका,

चन्दन है या लोहित प्रतिशोध किसी का ?

चल रही खड्ड के साथ कलम भी कवि की,

लिखती प्रशस्ति उन्माद, हुताशन पवि की ।

जय-घोष किए लौटा विद्वेष समर से

शारदे! एक दूतिका तुम्हारे घर से-

दौड़ी नीराजन-थाल लिए निज कर में,

पढ़ती स्वागत के श्लोक मनोरम स्वर में ।

आरती सजा फिर लगी नाचने-गाने,

संहार-देवता पर प्रसून छितराने ।

अंचल से पोंछ शरीर, रक्त-माल धो कर

अपरूप रूप से बहुविध रूप सँजो कर,

छवि को संवार कर बैठा लिया प्राणों में

कर दिया शौर्य कह अमर उसे गानों में ।

हो गया क्षार, जो द्वेष समर में हारा

जो जीत गया, वो पूज्य हुआ अंगारा ।

सच है, जय से जब रूप बदल सकता है,

वध का कलंक मस्तक से टल सकता है-

तब कौन ग्लानि के साथ विजय को तोले,

दृग-श्रवण मूंद कर अपना हृदय टटोले ?

सोचे कि एक नर की हत्या यदि अघ है,

तब वध अनेक का कैसे कृत्य अनघ है ?

रण-रहित काल में वह किससे डरता है ?

हो अभय क्यों न जिस-तिस का वध करता है ?

जाता क्यों सीमा भूल समर में आ कर ?

नर-वध करता अधिकार कहाँ से पा कर ?

इस काल–गर्भ में किन्तु, एक नर ज्ञानी

है खड़ा कहीं पर भरे दृगों में पानी,

रक्ताक्त दर्प को पैरों तले दबाये,

मन में करुणा का स्निग्ध प्रदीप जलाए ।

सामने प्रतीक्षा–निरत जयश्री बाला

सहमी सकुची है खड़ी लिए वरमाला ।

पर, धर्मराज कुछ जान नहीं पाते हैं,

इस रूपसी को पहचान नहीं पाते हैं ।

कौंतेय भूमि पर खड़े मात्र हैं तन से,

हैं चढ़े हुये अपरूप लोक में मन से ।

वह लोक, जहां विद्वेष पिघल जाता है

कर्कश, कठोर कालायस गल जाता है;

नर जहां राग से होकर रहित विचरता,

मानव, मानव से नहीं परस्पर डरता;

विश्वास–शांति का निर्भय राज्य जहां है,

भावना स्वार्थ की कलुषित त्याज्य जहां है ।

जन–जन के मन पर करुणा का शासन है

अंकुश सनेह का, नय का अनुशासन है ।

है जहां रुधिर से श्रेष्ठ अश्रु निज पीना,

साम्राज्य छोड़ कर भीख मांगते जीना ।

वह लोक जहां शोणित का ताप नहीं है,

नर के सिर पर रण का अभिशाप नहीं है ।

जीवन समता की छांह–तले पलटा है,

घर–घर पीयूष–प्रदीप जहां जलता है ।

अयि विजय! रुधिर से क्लिन्न वासन है तेरा,

यम दृष्टा से क्या भिन्न दशन है तेरा ?

लपटों की झालर झलक रही अंचल में,

है धुआं ध्वंस का भरा कृष्ण कुंतल में ।

ओ कुरुक्षेत्र की सर्व-ग्रासिनी व्याली,

मुख पर से तो ले पोंछ रुधिर की लाली ।

तू जिसे वरण करने के हेतु विकल है,

वह खोज रहा कुछ और सुधामय फल है ।

वह देख वहाँ, ऊपर अनंत अंबर में,

जा रहा दूर उड़ता वह किसी लहर में

लाने धरणी के लिए सुधा की सरिता,

समता प्रवाहिनी, शुभ्र स्नेह–जल–भरिता ।

सच्छान्ति जागेगी इसी स्वप्न के क्रम से,

होगा जग कभी विमुक्त इसी विध यम से ।

परिताप दीप्त होगा विजयी के मन में,

उमड़ेंगे जब करुणा के मेघ नयन में;

जिस दिन वध को वध समझ जयी रोएगा

आँसू से तन का रुधिर–पंक धोएगा;

होगा पथ उस दिन मुक्त मनुज की जय का

आरम्भ भीत धरणी के भाग्योदय का ।

संहार सुते! मदमत्त जयश्री वाले !

है खड़ी पास तू किसके वरमाला ले ?

हो चुका विदा तलवार उठाने वाला,

यह है कोई साम्राज्य लुटाने वाला ।

रक्ताक्त देह से इसको पा न सकेगी

योगी को मद–शर मार जगा न सकेगी ।

होगा न अभी इसके कर में कर तेरा,

यह तपोभूमि, पीछे छूटा घर तेरा ।

लौटेगा जब तक यह आकाश–प्रवासी,

आएगा तज निर्वेद –भूमि सन्यासी,

मद–जनित रंग तेरे न ठहर पाएंगे

तब तक माला के फूल सूख जाएँगे ।

बुद्धि बिलखते उर का चाहे जितना करे प्रबोध,

सहज नहीं छोड़ती प्रकृति लेना अपना प्रतिशोध ।

चुप हो जाए भले मनुज का हृदय युक्ति से हार,

रुक सकता पर, नहीं वेदना का निर्मम व्यापार ।

सम्मुख जो कुछ बिछा हुआ है,निर्जन, ध्वस्त,विषण्ण,

युक्ति करेगी उसे कहाँ तक आँखों से प्रच्छ्न्न ?

चलती रही पितामह-मुख से कथा अजस्र,अमेय,

सुनते ही सुनते, आँसू में फूट पड़े कौंतेय ।

हाँ, सब हो चुका पितामह, रहा नहीं कुछ शेष,

शेष एक आँखों के आगे है यह मृत्यु-प्रदेश-

जहां भयंकर भीमकाय शव-सा निस्पंद, प्रशांत,

शिथिल श्रांत हो लेट गया है स्वयं काल विक्रांत ।

रुधिर-सिक्त-अंचल में नर के खंडित लिए शरीर,

मृतवत्सला विषण्ण पड़ी है धरा मौन, गंभीर ।

सड़ती हुई विषाक्त गंध से दम घुटता सा जान,

दबा नासिका निकाल भागता है द्रुतगति पवमान ।

सीत-सूर्य अवसन्न डालता सहम-सहम कर ताप,

जाता है मुंह छिपा घनों में चाँद चला चुपचाप ।

वायस, गृद्ध, शृगाल, स्वान, दल के दलवन-मार्जार,

यम के अतिथि विचरते सुख से देख विपुलआहार ।

मनु का पुत्र बने पशु-भोजन! मानव का यह अंत !

भरत-भूमि के नर वीरों की यह दुर्गति, हा, हंत !

तन के दोनों ओर झूलते थे जो शुंड विशाल,

कभी प्रिया का कंठहार बन, कभी शत्रु का काल-

गरुड-देव के पुष्ट पक्ष-निभ दुर्दमनीय, महान,

अभय नोचते आज उन्हीं को वन के जम्बुक, श्वान ।

जिस मस्तक को चंचु मार कर वायस रहे विदार,

उन्नति-कोश जगत का था वह, स्यात,स्वप्न-भांडार ।

नोच नोच खा रहा गृद्ध जो वक्ष किसी का चीर,

किसी सुकवि का, स्यात, हृदय था स्नेह सिक्त गंभीर ।

केवल गणना ही नर की कर गया न कम विध्वंस,

लूट ले गया है वह कितने ही अलभ्य अवतंस ।

नर वरेण्य, निर्भीक, शूरता के ज्वलंत आगार,

कला, ज्ञान, विज्ञान, धर्म के मूर्तिमान आधार-

रण की भेंट चढ़े सब; हृतरत्ना वसुंधरा दीन,

कुरुक्षेत्र से निकली है होकर अतीव श्रीहीन ।

विभव, तेज, सौंदर्य, गए सब दुर्योधन के साथ,

एक शुष्क कंकाल लगा है मुझ पापी के हाथ ।

एक शुष्क कंकाल, मृतों के स्मृति-दंशन का शाप,

एक शुष्क कंकाल, जीवितों के मन का संताप ।

एक शुष्क कंकाल, युधिष्ठिर की जय की पहचान,

एक शुष्क कंकाल, महाभारत का अनुपम दान ।

धरती वह, जिस पर कराहता है घायाल संसार,

वह आकाश, भरा है जिसमें करुणा की चीत्कार ।

महादेश वहजहां सिद्धि की शेष बची है धूल,

जलकर जिसके क्षार हो गए हैं समृद्धि के फूल ।

यह उच्छिष्ट प्रलय का, अहि-दंशित मुमूर्ष यह देश,

मेरे हित श्री के गृह में, वरदान यही था शेष ।

सब शूर सुयोधन-साथ गए

मृतकों से भरा यह देश बचा है;

मृत वत्सला माँ की पुकार बची,

युवती विधवाओं का वेश बचा है;

सुख-शांति गयी, रस राग गया,

करुणा, दुख-दैन्य अशेष बचा है;

विजयी के लिए यह भाग्य के हाथ में

क्षार समृद्धि का शेष बचा है ।

रण शांत हुआ,पर हाय, अभी भी

धारा अवसन्न, दरी हुई है;

नर-नारियों के मुख देश पे नाश की

छाया सी एक पड़ी हुई है;

धरती, नभ, दोनों विषण्ण उदासी

गंभीर दिशा मेंभरी हुई है;

कुछ जान नहीं पड़ता, धरणि यह

जीवित है कि मरी हुई है ।

यह घोर मसान पितामह! देखिये

प्रेत समृद्धि के आ रहे वे;

जय-माला पिन्हा कुरुराज को घेर

प्रशस्ति के गीत सुना रहे वे;

मुरदों के कटे-फटे गात को इंगित

से मुझको दिखला रहे वे;

सुनिए ये व्यंग निनाद हंसी का

ठठा मुझको ही चिढ़ा रहे वे ।

कहते हैं, युधिष्ठिर, बातें बड़ी बड़ी

साधुता की तू किया करता था;

उपदेश सभी को सदा तप, त्याग

क्षमा, करुणा का दिया करता था;

अपना दुख-भाग पराये के दुख से

दौड़ के बाँट लिया करता था;

धन-धाम गंवा कर धर्म हेतु

वनों में जा वास किया करता था ।

वह था सच या उसका छल-पूर्ण

विराग, न प्राप्त जिसे बल था;

जन में करुणा को जगा निज कृत्य से

जो निज जोड़ रहा दल था;

थी सहिष्णुता या तुझमें प्रतिशोध का

दीपक गुप्त रहा जल था ?

वह धर्म था या कि कदर्यता को

ढकने के निमित्त मृषा छल था ?

जन का मन हाथ में आया जभी,

नर-नायक पक्ष में आने लगे

करुणा तज जाने लगी तुझको

प्रतिकार के भाव सताने लगे;

तप-त्याग विभूषण फेंक के पांडव

सत्य स्वरूप दिखाने लगे;

मंडराने विनाश लगा नभ में

घन युद्ध के आ गहराने लगे ।

अपने दुख और सुयोधन के सुख

क्या न सदा तुझको खलते थे ?

कुरुराज का देख प्रताप बता, सच

प्राण क्या तेरे नहीं जलते थे ?

तप से ढँक किन्तु, दुरग्नि को पांडव

साधू बने जग को छलते थे,

मन में थी प्रचंड शिखा प्रतिशोध की

बाहर वे कर को मलते थे ।

जब युद्ध में फूट पड़ी यह आग, तो

कौन सा पाप नहीं किया तूने ?

गुरु के वध के हित झूठ कहा

सिर काट समाधि में ही लिया तूने;

छल से कुरुराज की जांघ को तोड़

नया रण धर्म चला दिया तूने

अरे पापी, मुमुर्ष मनुष्य के वक्ष को

चीर सहास लहू पिया तू ने ।

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मुझे यकीन है की आपने ने सारी कविताएं नही पढ़ी होगी इसलिए निवेदन करता हु कि आप इस कविता को पढ़े और अपने मित्रो के साथ भी शेयर करे।

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